Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्मप्रवभिआचार्यप्रवभिनेर श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्द-ग्रन्थ५१
१२६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए एक जगह वे विश्लेषण करते हैं-१"यह शरीर भी मोटरगाड़ी या बैलगाड़ी के समान है। जिस प्रकार अन्य गाड़ियों के पहियों व पूर्जी को तेल देना पड़ता है, उसके बिना वे बरावर काम नहीं करते, जल्दी घिस जाते हैं तथा यात्रा खतरे में पड़ जाती है। इसी प्रकार शरीर रूपी गाड़ी को भी खुराक देनी पड़ती है। अन्यथा जीवनयात्रा कठिन हो जाती है। प्राण खतरे में पड़ जाते हैं।
"हमें शरीर के द्वारा लाभ लेना है, हानि नहीं उठाना है। और लाभ तभी उठाया जा सकता है, जबकि इसकी सार-सम्भाल और पुष्टि के निमित्त से पापों का उपार्जन न करें, वरन इसकी सहायता से सेवा, त्याग और तपस्या आदि करते हुए आत्मकल्याण के मार्ग पर बढ़े।"
धर्म की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए आचार्यश्री कहते हैं---.२ "अगर व्यक्ति धर्म की रक्षा करे तो धर्म उसकी रक्षा करता है। धर्म की रक्षा करने से आशय है-धर्माराधन करना । धर्माराधन करने पर ही धर्म विद्यमान रहता है । अगर व्यक्ति अधर्म का आचरण करे तो फिर धर्म कहाँ रहेगा? धर्माचरण करने पर ही उसकी रक्षा हो सकती है।"
संस्कारों का मानव जीवन में महत्त्व बताते हुए आचार्यश्री के उद्गार देखिए --3"ये संस्कार ही मानव के चरित्र का निर्माण करते हैं। अगर संस्कार शुभ हुए तो वह सच्चरित्र और संस्कार अशुभ हुए तो दुश्चरित्र व्यक्ति कहलाता है। कोई भी मनुष्य अपने जन्म से ही महान या निकृष्ट नहीं पैदा होता, वह शनैः-शनैः अपने एकत्रित किये हुए संस्कारों के बल पर ही उत्तम या अधम बनता है।"
जीवन में निद्रात्याग का विवेक बताते हुए वे कहते हैं-- "रात को बारह, एक और दो बजे तक जागने के पश्चात् वे प्रातःकाल देर से उठते हैं। परिणाम यह होता है कि उनका चित्त सदा अस्थिर और उद्विग्न बना रहता है तथा चिन्तन, मनन और आध्यात्मिकता की ओर तो उन्मुख ही नहीं होता।"
__ आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं- ५ "आज के युग में शिक्षा-प्रणाली कुछ इस प्रकार की है कि छात्रों में किताबी ज्ञान भले ही बढ़ता चला जाय किन्तु विनयगुण नहीं पनपता । परिणामस्वरूप शिक्षक और शिष्य के बीच जैसा मधुर सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए, उसके दर्शन नहीं होते।"
धर्म का सच्चा स्वरूप उनकी दृष्टि में सुनिए -६ "सच्चा धर्म वही है, जिसके द्वारा मानब की आत्मा में सत्यता, व्यापकता, निर्मलता एवं उदारता आ सके ।..." जिसके मन में विषय, कषाय, राग, द्वेष तथा मोह आदि का प्रवल वेग रहता है, वहाँ धर्म का आनन्द ढूंढ़े नहीं मिलता, चाहे वह कैसा भी भेष क्यों न धारण कर ले अथवा मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, स्थानक या उपासरे में जाकर सामायिक, पूजापाठ, प्रतिक्रमण आदि नाना प्रकार की क्रियाएँ दिन-रात क्यों न करता रहे।"
अधिकार को परिभाषा करते हुए वे कहते हैं -अधिकार पाकर व्यक्ति को उसका सदुपयोग करना चाहिए तथा उसकी मर्यादा रखनी चाहिए। अन्यथा क्या होगा, जानते हैं? यही कि अधिकार में से 'अ' हट जायगा और केवल धिक्कार ही पल्ले पड़ेगा।
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१ आनन्द प्रवचन भाग २ पृ० १५८
३ आनन्द प्रवचन भाग ३ पृ.
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