Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आगमों के आदर्श में
आचार्यश्री का व्यक्तित्व-बिम्ब
अभिनंदन
श्री रतन मुनि
[ युवा संत, मधुरवक्ता एवं आचार्यश्री के निकटतम विश्वासपात्र, सेवाभावी, साहित्योन्मुखी वृत्ति ]
१ - जहावाइ तहाकारी :
- उत्तराध्ययन २६/५१
वे जैसा कहते हैं, वैसा ही करते हैं, उनका वाणी और वर्तन, मन और कर्म सामंजस्य युक्त है । २- सुद्धं चरति बंभचेरं :
- प्रश्नव्याकरण २/४
शुद्ध भाव से ब्रह्मचर्य की आराधना करते हैं । अखण्ड ब्रह्मचर्य का ओज उनके दिव्य ललाट पट्ट पर प्रतिक्षण दमकता प्रतीत होता है ।
३ - आवत्तीए जहा अप्पं रक्खति तहा अण्णोवि :
- निशीथणि ५९४२
वे सच्चे संरक्षक हैं, माता की भांति | आपत्ति काल में जैसे अपनी रक्षा करते हैं उसी प्रकार दूसरों की भी रक्षा करते हैं, बल्कि स्वयं कष्ट उठाकर भी दूसरों के हित साधन में
लीन रहते हैं ।
४ -- जहा से सुक्क गोलए :
- उत्तराध्ययन २५/४३
आचार्य श्री प्रतिष्ठा एवं सुख-सामग्री में सदा निस्पृह रहते हैं । जैसे सूखा गोला किसी भी स्थान पर चिपकता नहीं, वैसे ही वे सदा विरक्त मन से साधना में लीन रहते हैं और भोगों से उदासीन !
५ तवेणं वोदाणं जणयइ :
-उत्तराध्ययन २६/२७
बारह प्रकार की तपस्या के द्वारा कर्मदलिकों का व्यवदान - निरन्तर आत्मा से दूर हटाते रहते हैं । ६ - मेढी आलंबणं खंभं दिट्ठी जाणं सु उत्तमं :
आचार्य श्री समस्त संघ के मेढीभूत हैं, स्तंभ के समान संघ महल के की भांति धर्म संघ की दृष्टि हैं, उसके मार्गदर्शक हैं और उत्तम वाहन
-- गच्छाचार प्रकीर्णक ८ आधार हैं, शरीर में आंख जहाज के समान हैं ।
७ – सोमतरं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ :
- प्रश्नव्याकरण २।२
आचार्य देव की मुख - मुद्रा चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य - शीतल है, सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी - प्रभास्वर है ।
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= -संविभागसीले संगहो वग्गह कुसले :
आचार्य प्रवर समतावाद के जागरूक प्रहरी हैं, उसका प्रत्येक श्रमण के लिए संविभाग करते हैं, वितरण और उचित संग्रहण की सुन्दर प्रणाली उनकी विशिष्ट जीवनदृष्टि है ।
- प्रश्नव्याकरण २/२
जो भी वस्तु सामग्री संघ के लिए प्राप्त होती है प्रत्येक की आवश्यकता का ध्यान रखते हैं, समान
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