Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रसार आचार्यप्रसा श्राआनन्दा न्याआनन्द
६६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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उदय संसार को कोई नयी चेतना, नया परिवर्तन या नई क्रांति प्रदान नहीं करता, इसके विपरीत अपना शीतलतम प्रकाश संसार को बांटता हुआ चन्द्रमा जव आकाश के रंगमंच पर आता है तब सर्वत्र नवीन दृश्य दृष्टिगत होते हैं। इसी प्रकार संसार में युग-युग तक वन्दनीय एवं अर्चनीय जीवन वही है जो ज्योतिर्मय श्रमणेश भगवान महावीर की भाषा में चन्द्रमा के समान निर्मल, सूर्य के समान तेजस्वी और सागर के समान गम्भीर रहा हो । पूज्य आचार्य भगवान का जीवन ठीक ऐसा ही रहा है।
पूज्य गुरुदेव लगभग १२ वर्ष की बाल्यावस्था में भोगविलास और धनवैभव को ठोकर मारकर त्याग, वैराग्य तथा संयम के पुण्य पथ पर अग्रसर हुये । आपके साधना क्षेत्र का प्रत्येक पहलू इतना स्वच्छ, निर्मल और उज्ज्वल है कि संपूर्ण मानव समाज को बरबस वह अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है। सिर्फ संयम लेने मात्र से ही आपने अपने आपको कृतकृत्य नहीं समझा वरन् आपने उसी समय से ही गुरुदेव पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज को छत्रछाया में ज्ञानाभ्यास करना प्रारम्भ किया । ज्ञान के प्रकाश के बिना आचार चमक नहीं सकता है ।
अतः पूज्य गुरुदेव ने जैनागमों तथा अन्य ग्रन्थों का अध्ययन, चितन एवं मनन किया । नम्रता, विनयभाव और पुरुषार्थ के कारण आपका ज्ञान दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता गया तथा आपका जीवन बड़ा ही तपोमय है। पिछले कतिपय वर्षों से आप आहार सिर्फ एक समय ही ग्रहण करते हैं और उसमें भी उपवास, आयंबिल, आदि तपस्या चलती रहती है। आपका संयत जीवन त्याग-वैराग्य का ज्वलंत नमूना है । स्वभाव आपका इतना शांत और मधुर है कि जो एक बार भी आपके संपर्क में आता है वह वैराग्य भावना तथा शांत स्वभाव की अमिट छाप लिये बिना नहीं लौटता है । आपकी प्रवचन शैली तथा उपदेश पद्धति बड़ी ही वैराग्यमय, रोचक और ओजपूर्ण है । सत्य और अहिंसा का घोष करते हये जिधर भी आप निकल जाते हैं, हजारों की संख्या में जनता आपके दर्शनों के लिये उमड़ पड़ती है । आपकी उपदेशधारा इतनी प्रभावशालिनी है कि उससे प्रभावित होकर अनेक मांसाहारियों ने आजीवन मांस न खाने का नियम किया। जिनवाणी का पान कराते हुये, जन-जीवन को जगाते हुये, गाँव-गाँव में अहिंसा, दया, सत्य, दान, शील आदि जीवन-सिद्धांतों की दुदुभि बजाते हुये भारत के प्रायः सभी प्रान्तों और नगरों में आपका पर्यटन हुआ है । सब ओर जनता ने आपका हार्दिक भाव से स्वागत किया और आपकी वाणी का सुधा-पान करके अपने जीवन को धन्य किया।
सम्प्रदायों के रूप में अलग-अलग बिखरी हुई समाज की शक्तियों को संगठित करने, एकता का रूप देने और उदारवृत्ति से मिल-जुलकर रहने के आप प्रबल और प्रमुख पक्षपाती हैं । "आज के प्रगतिशील युग में कोई भी समाज पारस्परिक सहयोग और संगठन के बिना संसार की समस्याओं के आगे नहीं टिक सकता है" यह महास्वर सर्वदा आपकी वाणी में गुजित होता रहता है। मौन भाव से संघ-सेवा, कर्तव्य-पालन तथा निष्काम संयम-निष्ठा, ये ही आपके जीवन का उज्ज्वल आदर्श है ।
आपके समुज्ज्वल व्यक्तित्व और दायित्व-निर्वाह की अपूर्व क्षमता पर मुग्ध होकर संघ ने आपको आचार्य पद प्रदान करके अपना हृदयसम्राट स्वीकार किया और समाज का नेतृत्व आपके हाथों में सोंपकर अपने आपको भाग्यशाली समझा। वर्तमान में आप इस दुर्वह भार का बड़ी धीरता, गंभीरता, कर्तव्यबुद्धि और निर्मल भाव से सफलता पूर्वक निर्वाह कर रहे हैं। आपका हृदय इतना उदार और विशाल है कि श्रमण संघ के आचार्य होते हुए भी आप सांप्रदायिकता से कोसों दूर रहते हैं।
मैं अन्त में पूज्य गुरुदेव के चरणारविन्दों में श्रद्धा-पुष्प समर्पित करती हूँ। भले ही उन पुष्पों में सुगंध न हो लेकिन गुरुदेव इसे अवश्य स्वीकार करेंगे, ऐसी अभिलाषा रखती हूँ ।
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