Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्री आनन्द आचार्य प्रव
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
१६ - जं छन्नं तं न वत्तव्वं :
--- सूत्रकृतांग १||२६
२०
वे सागर से गम्भीर, कूप के समान गहरे हैं। किसी की भी गुप्त रहस्य की बात उनके समक्ष प्रगट कर दो, वे उसे सुनकर यों उतार लेते हैं जैसे कुए में डाल दी हो । शास्त्र का यह आदर्श " किसी की गुप्त बात किसी के समक्ष प्रगट न करो,” उनके जीवन में शतप्रतिशत साकार हो गया है । अप्पं भासेज्ज संजए : —दशवैकालिक आचार्यप्रवर वाणी के संयमी हैं, बहुत कम बोलते हैं, जब जितने शब्दों की आवश्यकता होती है, तोलकर, विचार कर उतनी-सी ही बात बोलते हैं । शब्दों को रत्नों से भी अधिक मूल्यवान मानने वाले आचार्यदेव अल्पभाषी, वाग्संयमी हैं ।
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ग्रन्थ
२१- हिययमपावमकलुषं जीहा विय मधुर भासिणी णिच्चं :
--स्थानांगसूत्र ४४
आचार्य देव का हृदय निर्मल निष्पाप है, बर्फ सा उज्ज्वल और शीतल है, उनकी वाणी मधुर रस से आप्लावित मिश्री -सी मीठी है । मन भी मधुर वचन भी मधुर, यही हमारे आचार्यदेव का आदर्श है ।
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आणंद पंचय थुई
पं० विद्याभूषण मणि त्रिपाठी [आचार्यप्रवर के निकटतम विद्वान, संस्कृत प्राकृत भाषाविज्ञ ]
आयरिओ जणस्स, साहूणं खु पाणप्पिओ । सीयलं य ससीसमो, संघस्स य पिआ अत्थि ।। णंदणो हुलसाए य, देवीचन्दो पिआ आसी । चिचोंडीए जम्म होत्था, काले साहु तुम जाओ || दया अस्थि हिययम्मि, जगाणं कल्लाणरओ । धम्मस्स उज्जोयगरे, पंचायारे लीणो सया || इन्द समो रयणेसी, तस्स सीसो भवं जाओ । पच्छावि अप्पारामस्स, आयरिओ य संजाओ ||
सीसो तुझ विउलोय, आइण्णो णाण भूसणो तुज्झ पायम्मि, इमं पुप्फं
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कियाए ।
समप्पए ।
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