Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आगमों के आदर्श में, आचार्यश्री का व्यक्तित्व-बिम्ब
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६-पोक्खरपत्तं व निरुवलेवे :
-प्रश्नव्याकरण २/५ __ अपार जन-श्रद्धा और सर्व प्रकार की भक्ति, पूजा आदि उपलब्ध होने पर भी आचार्य श्री की
निस्पृह वृत्ति जल में कमल की भांति सदा निर्लेप और उदासीन रहती है। १०-जीवियास मरण भय विष्पमुक्का :
-- भगवती सूत्र ८७ ___आचार्य श्री समस्त उत्तरदायित्वों को कर्तव्य की भावना से पूरा करते हैं, वे जीवन के प्रति, दीर्घायुष्य के प्रति न आकांक्षा रखते हैं और न मृत्यु से कभी डरते हैं । जीवन का लोभ और मृत्यु का
क्षोभ उनसे कोसों दूर है। ११- मे तव नियम संजम सज्झाय झाणाऽवस्सयमादीएसु जोगेसु जयणा, से तं जत्ता :
-भगवती सूत्र १८/१० उनकी जीवन यात्रा वास्तव में ही संयमयात्रा है, तप-नियम, संयम में प्रवृत्ति, स्वाध्याय ध्यान में, लीनता, आवश्यक मुनि चर्याओं में अप्रमत्तता और विवेक पूर्ण प्रवृत्ति-यही तो उनकी वास्तविक
यात्रा है। १२----आयंकदंसी न करेइ पावं :
-आचारांग १/३२ वे संसार की भोगाकांक्षाओं को दाख रूप समझते हैं, भोग के पीछे छिपे रोग के आतंक को स्वयं समझते हैं और दूसरों को समझाते हैं। इसलिए वस्तु के परिणाम का ज्ञान कराकर वे पापवृत्तियों
का निषेध करते हैं। १३–अणोमदंसी निसण्णे :
-आचारांग १/३/२ वे मन को कभी क्षुद्र भावनाओं का शिकार नहीं होने देते। सदा ऊचे विचार और ऊंचे संकल्प रखकर मन को ऊर्ध्वमुखी रखते हैं। १४-उवेह एणं बहिया य लोग :
-आचारांग ११४।३ आचार्यप्रवर अपने विचारों के प्रति निष्ठावान हैं पर आग्रही नहीं, अपने विचारों से विपरीत चलने वाले या मतभेद रखने वालों से कभी विरोध या विग्रह नहीं करते किंतु उनके प्रति उपेक्षा --मध्यस्थवृत्ति रखते हैं । वे विरोधियों एवं विरोधी चर्चाओं से उद्विग्न नहीं होते किंतु समता की
साधना करते हुए तटस्थवृत्ति रखते हैं। १५-नो निन्हवेज्ज वीरियं :
-आचारांग ११५॥३ भगवान महावीर की इस दृष्टि का पूर्ण संगम आचार्यश्री के जीवन में हुआ है। वे आज ७५ वर्ष की वृद्ध अवस्था में भी अपनी शक्ति का पूर्ण उपयोग करते हैं, शरीर, मस्तिष्क एवं मन; तीनों के
पराक्रम और शक्ति का समाज एवं संघ के हितार्थ सदा सदुपयोग करते हैं। १६–मणं परिजाणइ से निग्गन्थे :
-आचारांग २।३।१५।१ वे निर्ग्रन्थ मन को पूर्ण रूप से परखना जानते हैं, मन की चंचल वृत्तियों को रोककर उसे सदा स्वाध्याय और ध्यान में नियुक्त किए रखते हैं । १७-काले परक्कंतं न पच्छा परितप्पए:
-सूत्रकृतांग ११३।४।१५ वे प्रत्येक कार्य को समय पर सही रूप में करते हैं। विचारशीलता उनका गुण है, लेकिन दीर्घसूत्रता के दोष से वे मुक्त हैं । जब जिस प्रकार के कार्य व निर्णय की उपयुक्तता उन्हें प्रतीत होती
है, वे बिना किसी झिझक, भय व आलस्य के तुरंत उस पर आचरण करते हैं। १८-सुमणे अहियासेज्जा:
-सूत्रकृतांग १।६।३१ वे सदा प्रत्येक परिस्थिति में सुमन प्रसन्नमना दीखते हैं। जैसे सदाबहार पुष्प सदा खिला हुआ रहता है, उसी प्रकार तितिक्षा और समता की साधना के कारण उनके मन की प्रसन्नता, प्रफुल्लता कभी नष्ट नहीं होती।
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