Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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महषि आनन्द और उनका तत्त्वचिन्तन
६६
SIN/
Vira गाना
की प्रत्येक प्रकार की मलीनता को धो सकता है, समस्त कलुष को बहा सकता है। धर्म वह चीज है जिसे केवल मनुष्य ही नहीं, पशु भी ग्रहण कर सकता है।"
“इसलिए इन भाइयों से मेरा कहना है कि धर्म पर दृढ़ रहना तथा हाथ में आये हुए धर्म रूपी रत्न को अस्थिर चित्त वाले नादान व्यक्तियों के प्रभाव में आकर कहीं खो मत बैठना। मेरी तो यही हार्दिक आकांक्षा है कि जो भाई अभी इस मार्ग पर नहीं आये हैं, वे इसे ग्रहण करें। जो इसे ग्रहण कर चुके हैं, अपना ज्ञान-ध्यान बढ़ावें और जो ज्ञान बढ़ा रहे हैं वे उसके प्रसार और प्रचार में लग जायें। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपना कदम बढ़ाता चले ।"२
ज्ञान : स्वरूप और उपयोगिता ज्ञान वस्तू की जानकारी कराता है। पर इस ज्ञान को साधारण न होकर 'सम्यक' होना आवश्यक है। आचार्यप्रवर ने कहा है-.-"प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान हासिल करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। इस संसार में एक मात्र 'सम्यक् ज्ञान' ही आत्मोद्धार में सहायक बनता है। जब सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो आत्मा में विवेक की जागृति होती है और प्राणी स्वयं ही सांसारिक भोगों से विरक्त हो जाता है । उनका उपयोग करता हुआ भी वह उनमें आसक्त नहीं रहता, अनासक्त भाव रखता हुआ अपने कर्मों की निर्जरा करता रहता है। भोग-विलास में उसे तनिक भी रुचि नहीं रहती, वह प्रतिपल उस क्षण की प्रतीक्षा किया करता है जिस क्षण वह इस संसार से मुक्त होगा। यह सब सम्यक्ज्ञान की बदौलत ही हो सकता है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में किसी भी शुभ क्रिया को करने की प्रवृत्ति नहीं होती। जीवन वही सफल कहलाता है जिसे ज्ञान के आलोक से आलोकित किया जाय । अर्थात् मानव को ज्ञान की प्राप्ति करके उसकी सहायता से अपनी आत्मा को जानना-पहचानना चाहिए। उसके विकास और विशुद्धि का विचार करना चाहिए तथा उसमें छिपी हुई अनन्त शक्ति और अनन्त शान्ति की खोज करनी चाहिए।"४
मन की चंचल गति को सही मार्ग देने के लिए आचार्यप्रवर की दृष्टि में स्वाध्याय, शुभचिन्तन आदि जैन साधन अत्यन्त उपयुक्त हैं। इन शुभ क्रियाओं में अगर वह लगा रहेगा तो उसे विषयवासनाओं की ओर जाने का अवकाश ही नहीं मिल पायगा। स्वाध्याय में बड़ी भारी शक्ति छिपी हई है, इसीलिए इसे महान् तप माना गया है । तपस्या समभाव और निरहंकार होकर की जाय तो उसका फल उत्तम होता है पर सबसे बड़ा तप और सर्वोत्तम फल देने वाला तप स्वाध्याय ही है।
ज्ञान-प्राप्ति के साधनों का जिक्र करते हुए आचार्यप्रवर ने ऐसे ग्यारह उपाय बताये हैं जिनसे सतत ज्ञानाराधना की जा सकती है। ये उपाय हैं-पुरुषार्थ, निद्रात्याग, ऊनोदर, मौन, सत्संगति, विनय, तप, संसार की असारता का ज्ञान, स्वाध्याय, ज्ञानी का सान्निध्य और इन्द्रियविषय-त्याग। इन सभी उपायों पर आचार्य जी ने विस्तार से विवेचन किया है।६ कल्याणकारिणी क्रिया के सम्बन्ध में अभ्यास की भी बात कही गई है। क्रिया के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ क्रिया का सम्बन्ध भी जीवन में सफलता
AURA
१ आनन्द प्रवचन, भाग २, पृ० १३७ २ वही, भाग २, पृ० १६० ३ वही, भाग १, पृ० १६१-२; भाग ३, पृ० २३ ४ वही, भाग ३, पृ० ४ ५ वही, भाग २, पृ० १२; भाग ३, पृ० १४० ६ वही, भाग ३, पृ० २३-२५० ७ वही, भाग ३, पृ० १३
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