Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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७६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उपेक्षणीय अपशब्दों के उपयोग किये जाने पर भी उसके उपकारों से उऋण नहीं हो सकते हैं । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नारी का योगदान अभूतपूर्व है । ज्ञानाभ्यास के प्रथम सूत्रधार के रूप में ब्राह्मी जैसी नारीरत्न जन-जन के लिये श्रद्धा केन्द्र है । भगवान ऋषभदेव से भगवान महावीर पर्यन्त जैनशासन में साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या, श्रावकों की अपेक्षा श्राविकाओं की संख्या अधिक रही है। वर्तमान में भी यही क्रम देखने में आता है ।
आचार्य प्रव श्री आनन्दत्र ग्रन्थ
अभिनंदन
इसी नारी जाति की श्रृंखला में एक पुण्यश्लोका महिलारत्न सौभाग्यवती श्रीमती हुलासबाई की कुक्षि से आचार्य श्री जी का जन्म हुआ था । यथानाम तथागुण के अनुसार मातुश्री हुलासबाई इस पुत्ररत्न को प्राप्त कर हुलास से हुलसित हो उठीं । धार्मिक आचार-विचारों से सम्पन्न संस्कारों का सुपुत्र में सिंचन करने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील रहीं और प्रतिदिन सामायिक के साथ प्रतिक्रमण करने के लिये गुरुदेव से प्रतिक्रमण सीखने की पुत्ररत्न से अभिलाषा व्यक्त की और आपश्री ने आज्ञाकारी पुत्र के कर्तव्य का पालन किया । यही आध्यात्मिक साधना की ओर अग्रसर होने का सूत्रपात है जो शनैःशनैः व्यापक बनता गया । योग्य समय में बोया गया वीज आज वटवृक्ष के रूप में दृश्यमान है। जिसकी शीतल छाया में अनेक मुमुक्षु इस संसारताप से परित्राण पाने के लिए प्रयत्नशील हैं ।
ऐसी ही एक दूसरी महिलारत्न है, जिन्होंने पूज्य आचार्यश्री के जीवन-निर्माण में अपूर्व योगदान दिया है । उनका नाम महासती श्री रामकंवर जी महाराज है । आपका जन्म महाराष्ट्र राज्य के पुना जिले के अन्तर्गत घोड़नदी नामक नगर में लोढ़ाकुलभूषण स्वभावतः गम्भीर और नाम से भी गम्भीरमल जी की धर्मपत्नी श्रीमती सौ० चम्पादेवी की कुक्षि से हुआ था । यह कन्यारत्न पारिवारिक जनों के समान ही समाज के लिए भी प्रिय थी और भविष्य में तो धर्म का सन्देश मुखरित कर चतुविध संघ के लिए श्रद्धास्पद बन गई । इस महान पवित्र आत्मा का स्मरण कर आचार्यप्रवर अनेक बार अपना आदरभाव व्यक्त करते रहते हैं ।
यही संयमनिष्ठ, सौम्यमूर्ति महासती श्री रामकुंवर जी महाराज महाराष्ट्र में श्रमण- शिरोमणि संतों के पदार्पण की कारण बनीं। जब श्री रामकुंवर जी दैववशात विवाहोपरान्त ही विधवा हो गईं तो इनकी माता श्रीमती चम्पादेवी ने अपने पति श्री गम्भीरमल जी लोढ़ा को प्रेरणा दी कि अपनी प्रिय पुत्री के सात्विक, नैतिक, धार्मिक संस्कारों को सबल एवं विकासोन्मुखी बनाने के लिए आप मालवा, मेवाड़, राजस्थान में जाकर इधर के क्षेत्रों में संत-सतियांजी के पदार्पण के लिए विनती करें और इस क्षेत्र में लायें। मैं भी अपनी पुत्री के साथ ही संयमी जीवन बिताना चाहती हूँ। हम माँ-बेटी की यहीं पर दीक्षा हो, जिससे अन्यान्य भव्य मुमुक्ष जनों को संयमाराधना की प्रेरणा मिले और श्रमण भगवान महावीर का सन्देश देशव्यापी बने ।
श्री गंभीरमल जी लोढ़ा स्वयं धार्मिक आचार-विचारवाले श्रावक थे और धर्मपत्नी के इन उदार विचारों की अनुमोदना करते हुए महाराष्ट्र में संत-सतियाजी महाराज साहब के पदार्पण हेतु विनती करने मालवा आदि की ओर चल पड़े। अनेक स्थानों पर जाकर श्री लोढ़ा जी ने अपनी भावना व्यक्त की । उन दिनों यातायात के लिए आज सरीखे राजमार्ग नहीं थे । छोटी-मोटी पगडंडियाँ, वीहड़ वन आदि और ग्रामों के दूर-दूर होने से साधु सन्तों के लिए विहार में अनेक परिषहों का सामना करना पड़ता था । अतः श्री लोढ़ा जी को सफलता नहीं मिली । अनेक संत सतियां जी ने क्षेत्र, काल आदि को देखकर कुछ निश्चय करने को कहा । अन्त में श्री लोढ़ा जी मालवा प्रान्त के जावरा नगर में चातुर्मास हेतु विद्यमान पूज्य श्री तिलोकऋषि जी महाराज की सेवा में उपस्थित हुए और अपनी भावना, स्थिति आदि व्यक्त करते हुए महाराष्ट्र की ओर विहार करने की विनती की।
पूज्यश्री ने परिस्थिति का आकलन कर एवं भविष्य में शुभ होने की सत्कामना के साथ महाराष्ट्र
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