Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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कर्तव्यनिष्ठ, सेवा की साकारमूर्ति पूज्य आचार्य श्री आनन्दऋषि जी
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गम्भीरता
गम्भीरता का आप में बहुत बड़ा गुण है । समुद्र जैसा गांभीर्य और हिमालय जैसी अचलता आप में है । कटुवे मीठे सभी प्रकार के अनुभवों को अपने में समाने की आप में शक्ति है । शास्त्रीय शब्दों में कहूँ तो —
लाभालाभे सुहे दुक्खे, जोविये मरणे तहा । समो निन्दा पसंसासु, तहा माणावमाणओ ||
अर्थात् लाभ-अलाभ में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में, कीर्ति अकीर्ति में समभाव को धारण करने वाला साधु है । ऐसे अद्भुत गांभीर्य गुण के धारक आप हैं ।
सेवा
"सेवाधर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः " योगियों के लिए भी सेवाधर्म की आराधना सरल नहीं है। लेकिन ऐसे कठिन सेवाधर्म की भावना आपके जीवन में चरम सीमा पर पहुँची हुई है । गुरु, ग्लान, वृद्ध, रोगी, नवदीक्षित आदि की सब प्रकार से सेवा करना आपके जीवन का ध्येय बन गया है । महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, जंगल प्रदेश, जम्मू काश्मीर तक हजारों मील की यात्रा कर जन-गण के मन-मन्दिर में नैतिकता और धार्मिकता की सुगंध पैदा कर रहे हैं। आप श्री जी ने ५० से अधिक विद्यामन्दिरों की स्थापना करवाई है। सैकड़ों विद्वानों को आगे बढ़ने में प्रोत्साहन दिया है और दे रहे हैं । संघ सेवा की भावना तो आपके रग-रग में समाई हुई है। जैनधर्म, प्राकृतभाषा, और श्रमण संघ की जो सेवाएँ आपने की हैं वे इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगी। इस प्रकार आप सेवा की साकार मूर्ति भी हैं ।
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ब्रह्मचर्य
“तवेसु उत्तमं बम्भचेरं" तपों में उत्तम ब्रह्मचर्यं तप है । आपमें विद्वत्ता का प्रकाश है तो चरित्र की सुवास भी महकती है । आप बालब्रह्मचारी संत हैं । इस तप के प्रभाव से अनेक आध्यात्मिक सिद्धियां आपको प्राप्त हैं । ब्रह्मचर्य, प्रखर बुद्धिमता और सहिष्णुता के कारण यदि आपको आधुनिक अयवंता कुमार एवं भीष्मपितामह कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी ।
कर्त्तव्यनिष्ठ
आपके जीवन के ७४ और मुनिजीवन के ६१ सम्वत्सर पूर्ण होने जा रहे हैं। इस वृद्धावस्था में भी ३२ वर्ष के युवक से सदैव अपने कार्य में व्यस्त रहते हैं। आपके हृदय में नवनीत की कोमलता है तो संकल्प में वज्र के समान कठोरता । आपके चन्द्रमा के समान निर्मल व्यक्तित्व के लिये यह उक्ति यथार्थ सिद्ध होती है ।
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वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि । लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति ॥
ऐसे सम्पूर्ण सद्गुण प्राप्त आचार्यदेव को प्राप्त करके अखिल भारतीय स्थानकवासी जैन समाज अपने को धन्य मान रहा है ।
आपके सर्व गुणों का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ । अस्तु ! मैं अपनी लेखनी को विराम देती हुई यह मंगल कामना करती हूँ कि आपके नेतृत्व से संघ प्रफुल्लित हो, वृद्धिंगत हो । हम साध्वी समुदाय के प्रति आपका वरदहस्त आजीवन इसी प्रकार बना रहे। यही करबद्ध प्रार्थना है । श्रमण संघ के नायक युग युग में हमारे मध्य में रहकर मानव जाति के अभ्युदय का पथ प्रशस्त करते रहें !
आचार्य प्रव38
श्री आनन्द अन्य 28
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