Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रव23 श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दा अन्य
८० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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महाराष्ट्र प्रान्तीय अहमदनगर जिले के चिचोड़ी ग्राम में हुआ। माता हुलासा, पिता देवीचन्द्र जी के यहाँ अवतरित होकर आपने महाराष्ट्र के ही नहीं अपितु भारतीय जन-जन को आलोकित किया । तेरह वर्ष की लघु अवस्था में पूज्य माताजी की सत्प्रेरणा से धार्मिक जीवन का विकास होने लगा। फलतः परमपंडित, तत्त्ववेत्ता, आगमवारिधि श्री रत्नऋषिजी म. सा. के पावन पुनीत चरणारविन्द में वि० सं० १९७०, मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी, रविवार के शुभ दिवस 'मिरी' ग्राम में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। विनम्रता
श्रीचरणों में दीक्षित होने के बाद साधना के पथ पर अग्रसर होने के लिए सर्वप्रथम आपने विनय धर्म की आराधना की। कहा भी है 'विद्या ददाति विनयं' अर्थात् विद्या विनय से ही प्राप्त होती है । विनयवान शिष्य ज्ञान का अधिकारी होता है। विनय से गुरुदेव को आपने अपनी ओर आकर्षित कर लिया । प्रसन्न होकर गुरुदेव ने आपको ज्ञान का भण्डार प्रदान किया। वह ज्ञान-ज्योति आपके हृदय में अहिंसा, सत्य, क्षमा, प्रेम, सहिष्णुता, स्नेह और वात्सल्य के रूप में जगमगा रही है।।
आपके जीवन की एक घटना है। एक बार आप व्याख्यान फरमा रहे थे । श्रोता लोग मन्त्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। उस समय श्रद्धेय गुरुदेव श्री रत्नऋषिजी म० ने पुकारा 'आनन्द' तो उसी समय व्याख्यान बन्द करके गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने के लिए उनकी सेवा में उपस्थित हुए। ऐसे गुरुदेव ने चलते व्याख्यान में तीन बार आवाज दीं। तीनों ही बार गुरुदेव की सेवा में उपस्थित हुए। परन्तु आपको कोई विचार न आया कि क्या गुरुदेव ने मुझे निठल्ला समझा जो बार-बार व्याख्यान के बीच में से उठा रहे हैं। परन्तु 'तहत्त' कहकर उनके वचनों को स्वीकार किया। गुरु के एक शब्द का तो क्या गुरु की किसी इच्छा का भी आपने कभी उल्लंघन नहीं किया। यह आपकी विनम्रता का ज्वलन्त उदाहरण है। इसी विनय के मधुर फल का आज आप आस्वादन कर रहे हैं।
आप जैनदर्शन और प्राकृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान हैं। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, मराठी, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी आदि सात भाषाओं में निष्णात हैं। स्व-परसिद्धान्तों के भी आप गहरे अभ्यासी हैं । प्रखर वक्ता भी हैं। सुमधूर संगीतकार भी हैं। आपकी योग्यता को देखकर जैनसमाज ने विविध प्रकार की पदवियों से विभूषित किया।
भुसावल में आप युवाचार्य के पद पर, पाथर्डी में आचार्य पद पर, ब्यावर में पाँच सम्प्रदायों द्वारा प्रधानाचार्य के पद पर, सादड़ी बृहद् साधु-सम्मेलन में श्रमण संघ के प्रधानमन्त्री पद पर, भीनासर-सम्मेलन में उपाध्याय पद पर, तत्पश्चात कार्यवाहक समिति के संयोजक के पद पर और अजमेर-सम्मेलन में "श्रमण संघ के प्रधानाचार्य" के रूप में घोषित किये गये । एक जीवन में क्रमशः सात पदवियों को प्राप्त करने का कारण आपकी विनम्रता ही है।
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सहिष्णुता
विनय के साथ-साथ आपमें दूसरा गुण सहिष्णुता का है। प्रतिकूल संयोगों और विरोधियों को शमन कर लेने की अपूर्व क्षमता आप में है। साधु-जीवन का प्रथम चातुर्मास था। एक बार शौच-निवृत्ति के लिए आप गांव के बाहर गये हुए थे। वहाँ पर जैनधर्म-द्वेषी एक संन्यासी ने आपके पास से रजोहरण छीनकर उसी से आपको मारने लगा। मारते-मारते रजोहरण की डंडी टूट गई। परन्तु आपने संन्यासी पर क्रोध नहीं किया । "उबसमणे हणे कोह" 'क्रोध को क्षमा से जीतो' महावीर भगवान की इस अमर घोषणा के अनुसार आपने अपनी शान्ति को सर्वथा सुरक्षित रखा। सचमुच आपकी सहिष्णुता सराहनीय है।
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