Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्राआनन्द
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आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तरह अध्यात्ममार्ग पर अग्रसर होने के लिये तत्पर रहे। अंत में सभी प्रकार से परीक्षा कर आपको संयम-साधना हेतु भागवती दीक्षा अंगीकार करने की स्वीकृति प्राप्त हो गई।
पारिवारिकजनों की अनुमति और संघ की स्वीकृति पूर्वक मिरी ग्राम में पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज के वरदहस्त से प्रवजित होकर नेमिचंद जी से मुनि आनन्दऋषि जी महाराज के नाम से विख्यात हो गये । आपका यह नामकरण इतना उचित था कि यह लघु शिष्य गुरुदेव को ही नहीं चतुर्विध संघ को भी आनन्दप्रद रहा और है।।
पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज स्वभाव से परम कारुणिक परन्तु बाहर से बड़े ही अनुशासन में कड़क थे । अनुशासन भंग होना उन्हें सह्य नहीं था। अतः लघु शिष्य मुनि आनन्द को घड़ने के लिए अहर्निश तत्पर रहते और शिष्य भी आपके आदर्शों को आत्मसात करने के लिए सदैव तत्पर रहने लगे । उस समय समाज में संस्कृत भाषा-विज्ञ जैन विद्वान नहीं थे और जो ब्राह्मण विद्वान थे वे जैनों को शिक्षण देते नहीं थे । इस विकट स्थिति और समाज में अशिक्षा के कारण बढ़ रही अन्धश्रद्धा से होने वाली हानियों को देखकर पूज्यश्री बहुत ही चितित रहते थे। इसके निराकरण के लिए चतुर्विध संघ से विचार-विमर्श किया और उपाय के रूप में वर्षीदान की प्रेरणा दी। इस प्रेरणा का सुपरिणाम यह निकला कि अहमदनगर जिले के पाथर्डी ग्राम में आज से ५० वर्ष पूर्व विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षण देने के लिए जिस शाला का शुभारम्भ हुआ था, आज सैकड़ों विद्यार्थियों के लिए विद्याकल्पवृक्ष के रूप में प्रगतिशील है। प्रतिवर्ष सैकड़ों विद्यार्थी योग्य बनकर सुख-शान्तिपूर्वक जीवनयापन कर रहे हैं।
श्रावक-श्राविकाओं की लिए तो योग्य शिक्षण की व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था लेकिन साधुसाध्वियों के योग्य शिक्षाव्यवस्था नहीं बन सकी थी। योग्य विद्वानों का सुयोग नहीं मिलने तथा पैसा देकर गृहस्थों से अध्ययन करने की शास्त्रों की आज्ञा न होने से मन में संकोच बना रहता था कि शिष्यों को योग्य विद्वान कैसे बनाया जाय। इसके साथ ही शास्त्रों में यह भी लिखा है कि अज्ञानी मत रहो, क्योंकि भावश्रुत का कारण द्रव्य श्रुत है और द्रव्यश्रुत का अध्ययन करने हेतु टीका, भाष्य, चूणि आदि का अभ्यास करना आवश्यक है एवं इनका अध्ययन संस्कृत भाषा का अभ्यास किये बिना हो नहीं सकता। संस्कृत के अभ्यास के लिए विद्वानों का समागम जुटाना जरूरी है। पूज्यश्री ने अपनी स्थिति और शास्त्रीय दृष्टि श्रावक वर्ग के समक्ष रखी और श्रावकों ने इसके लिए योग्य व्यवस्था कर दी, जिससे एक के बाद एक योग्य विद्वान संत न्याय, व्याकरण, आगमशास्त्र के ज्ञाता बनते गये।
पूज्यश्री की इस दीर्घदृष्टि का परिणाम यह हुआ कि हमारे आचार्य श्री जी ने वर्षों तक न्याय, व्याकरण, दर्शन, सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन करने के साथ-साथ हिन्दी, मराठी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर भी अच्छा अधिकार प्राप्त किया और अपने प्रवचन में उन भाषाओं को माध्यम बनाकर श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध बना देते हैं।
श्रोताओं को सन्तुष्ट कर देना मात्र ही आपका लक्ष्य नहीं है। इस वृद्धावस्था में भी सतत नयानया ज्ञानाभ्यास म्वयं करते हैं एवं अपने अन्तेवासी सन्त-सतीवृन्द को भी इसके लिए प्रेरित करते रहते हैं। संयममार्ग में दीक्षित करने के पूर्व आप मुमुक्ष जनों के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान देते हैं और इसके लिए पाथर्डी में सिद्धान्तशाला की स्थापना है। जिसकी शाखायें अहमदनगर और घोड़नदी में भी स्थापित की गई हैं। मैं स्वयं इन सिद्धान्तशालाओं में शिक्षण प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकी हूँ।
ऐसे महापुरुष की हीरक-जयन्ती और इस अभिनन्दन-ग्रन्थ-समर्पण समारोह मनाने के अवसर को प्राप्त करने के लिए हम सभी संत, सती अपने को गौरवशाली मानते हैं और नाम से ही नहीं भाव से भी आनन्दमयी पूज्य आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज जयवन्त रहें की भावना व्यक्त करते हैं।
जय
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