Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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महाराष्ट्र का कोहेनूर : आचार्य श्री आनन्दऋषि
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की ओर विहार करने की स्वीकृत दे दी। श्री लोढ़ा जी को तो परम सन्तोष हुआ हो और जब इस शुभ संवाद को सुदूर महाराष्ट्रवासियों ने सुना तो हर्षविभोर हो उठे। चातुर्मास-समाप्ति के पश्चात पूज्य श्री तिलोकऋषि जी महाराज का अपने सन्तमण्डल के साथ महाराष्ट्र की ओर विहार हो गया। इधर विहार हुआ और उधर महाराष्ट्रवासी आगमन के दिनों को एक, दो, तीन आदि गिनकर वाट जोहने लगे।
यथासमय पूज्यश्री तिलोक ऋषि जी महाराज एवं सतीशिरोमणि श्री हीराकँवर जी महाराज साहब ने घोड़नदी नगर में पदार्पण किया। पूज्यश्री संसारपक्ष में सुराना वंश के जाज्वल्यमान सितारे थे और एक ही दिन पूज्य माता जी, ज्येष्ठ भ्राता, बड़ी बहिन श्री हीराकँवर जी और स्वयं ने साथ में दीक्षा ली थी। पूज्यश्री का महाराष्ट्र में पदार्पण होने से जिनशासन की प्रभावना दूर-दूर क्षेत्रों तक व्याप्त होने लगी। अन्य अनेक भव्य आत्माओं को संयममार्ग पर अग्रसर होने के पूर्व प्रथम शिष्यरत्न पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज को भागवती दीक्षा अंगीकार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और भविष्य में यही पूज्यश्री के पाटानुपाट उत्तराधिकारी के रूप में जिनशासन को दैदीप्यमान बनाकर भव्य मुमुक्षु जनों के मार्गदर्शक बने।
पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज पूज्य गुरुदेव की सेवा में रहकर अध्ययन कर ही रहे थे कि अकस्मात गुरुदेव के कालधर्म को प्राप्त होने से वरदहस्त से वंचित हो गये। ऐसे अवसर बड़े ही करुणाजनक और मार्मिक होते हैं। परन्तु एकाकी लघु दीप अपने प्रकाश से ही गहन अन्धकार का उन्मूलन कर देता है और यही बात पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज के सम्बन्ध में यथार्थ सत्य सिद्ध हुई । महासती श्री हीराकुँवर जी महाराज कुछ सन्तों के साथ आपको पुनः मालवा में पठन-पाठन हेतु लेकर आई और योग्य विद्वान, सिद्धान्तमर्मज्ञ, निष्णात बनाकर शासन के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया । योग्य विद्वान बनने के बाद पुनः पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज का महाराष्ट्र में पदार्पण हुआ और इसके पश्चात तो दिनोंदिन सद्धर्म की दुन्दुभी दूर-दूर तक व्याप्त होती गई और आज भी पहले की तरह अपने घोष से आबाल-वृद्ध जनसमूह को सुख-शान्ति का सन्देश दे रही है।
पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज का दिव्य जीवन अपने आप में महान है। अज्ञान और अन्धविश्वासों से ग्रस्त जनमानस में धार्मिक संस्कारों का सिंचन करने के लिये यह जरूरी है कि ज्ञानाभ्यास, स्वाध्याय, सामायिक की प्रवृत्ति का प्रचार किया जाय । अतएव आपश्री जहाँ भी पहुँचते थे, बच्चों को एकत्रित कर उन्हें सामायिक, प्रतिक्रमण, २५ बोल का थोकड़ा, भक्तामरस्तोत्र आदि सिखाते । प्रतिदिन प्रातः से लेकर रात्रिविश्राम करने के पूर्व तक यही क्रम चलता रहता था। आप इतनी लगन और परिश्रम से बालकों को शिक्षण देते थे कि अल्पकाल में ही धार्मिक विचारों का अच्छा प्रभाव गांव-गांव और नगरनगर में दिखने लगा। प्रत्येक परिवार में धार्मिक शिक्षण लेने का उत्साह वृद्धिगत होता गया।
पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज की इस साधना का प्रभाव हमारे वर्तमान श्रद्धेय आचार्यश्री जी के बाल्यजीवन पर पड़ा। अहमदनगर जिला की सुरम्य भूमि शिराल चिचोड़ी में आपश्री का जन्म हुआ। बाल्यावस्था में हो पूज्य पिताश्री का वियोग हो जाने से मातुश्री पर लालन-पालन का उत्तरदायित्व आ गया। एक बार पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज का आपके ग्राम में पदार्पण हुआ। पूज्यश्री धार्मिक अभ्यास के प्रचारक तो थे ही और यहां भी बालकों को धार्मिक ज्ञान देने लगे । आपकी माताजी ने आपसे प्रतिक्रमण आदि सीखने को कहा और आज्ञानुसार प्रतिक्रमण सीखने के लिये तत्पर हो गये। प्रतिक्रमण पाठ का शिक्षण इतना तलस्पर्शी किया कि घरबार ही छोड़ दिया। गुरुदेव के साथ विहार, ज्ञानाभ्यास आपकी दैनिक चर्या बन गई और घर लौटे सिर्फ भागवती दीक्षा अंगीकार करने की आज्ञा लेने। माता ने जब इस भावना को सुना तो हृदय स्नेह से गद्गद हो उठा, दुलार की स्मृतियां जाग उठीं, बहुत कुछ समझाया और संयम मार्ग को किठनाइयां बताईं, लेकिन आप अपने पथ से नहीं डिगे और एक निर्भीक वीर की
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