Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर अभिन्न श्रीआनन्दान्थश्राआनन्दान्य
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कोरा व्यावहारिक शिक्षण सार्थक नहीं बन पाता। इसीलिये वे स्वयं एक संस्था की तरह जैसा-जैसा अवसर और सुयोग मिलता रहा, इस उद्देश्य की पूर्ति में सक्रिय होते रहे।
सम्वत् २०२१ में आचार्यश्री का चातुर्मास जयपुर में हुआ, तब मुझे आपके सम्पर्क में आने का विशेष अवसर मिला। इस चातुर्मास में जैनपरम्परा के इतिहास, जैनसाहित्य में शोध, प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन, जैन पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति आदि के सम्बन्ध में मेरी आचार्यश्री से काफी बातें हुईं। उनकी बातों से मुझे सदैव यह महसूस होता रहा कि वे शिक्षित युवक-युवतियों को इस क्षेत्र में लाने के लिये प्रयत्नशील हैं। उनकी यह धारणा रही कि हमें संकीर्ण घेरे में बंधकर जैन धर्म और दर्शन का अध्ययन नहीं कराना है। इसके अध्ययन-अध्यापन की आधारभूमि हमें अत्यन्त व्यापक रखनी होगी और यह कार्य तभी सम्भव हो सकता है जब हम प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन की ओर छात्रों
और विद्वानों को आकर्षित करें। इन्हीं विचारों को मूर्त रूप देने के लिये आचार्यश्री ने जयपुर चातुर्मास में 'प्राकृत भाषा प्रचार समिति' जैसी नई संस्था को जन्म दिया। o आचार्यश्री की दृष्टि बड़ी पैनी, उदार और वस्तुनिष्ठ है। वे अतीत में नहीं जीते, वर्तमान समस्याओं से सामना करते हुए वे भविष्य के लिये आस्थावान बनते हैं और वह सुन्दर तथा मांगलिक बन सके, इसके लिये सतत चिन्तनशील रहते हुए कोई-न-कोई ठोस योजना अपने मन-मस्तिष्क में लिये चलते हैं। आचार्यश्री ने देखा कि कोरा शास्त्रीय ज्ञान समाज को प्रगतिशील और सचेतन नहीं बना सकता। शास्त्रों के संदेश तब प्रभावी और तेजस्वी बनते हैं जब वे युगीन चिन्तन में सहभागी बनते हैं और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये यह आवश्यक है कि समाज के बुद्धिजीवी चिन्तन की दिशा में अग्रसर हों। बुद्धिजीवियों को यह चिन्तन-भूमि प्रदान करने के लिये ही कदाचित 'सुधर्मा' जैसे मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। आचार्यश्री की प्रेरणा से ही कुछ वर्षों तक मैं सम्पादक-मंडल के सदस्य के रूप में इस पत्र से जुड़ा रहा ।
आपके जयपुर चातुर्मास के बाद यद्यपि मुझे आपके प्रत्यक्ष दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिला, पर आपकी प्रेरणा मुझे सतत जागरूक बनाये रही। ऋषिसम्प्रदाय की साहित्यिक साधना पर विशेष अनुसंधान हो, इस दृष्टि से मैं समय-समय पर सोचता रहा। संत कवि तिलोकऋषि और अमीऋषि के मधुर सवैये और पद साहित्य की अमूल्य निधि हैं। मैंने अपने निर्देशन में अपनी एक छाया कुमारी मधु माथुर से 'संत कवि तिलोकऋषिः व्यक्तित्व और कृतित्व' ग्रंथ एम. ए. के लघु शोध-प्रवन्ध के रूप में तैयार करवाया है जो आचार्यश्री की सेवा में भेजा जा चुका है। आशा है, यह ग्रंथ शीघ्र ही प्रकाशित होगा।
आचार्यश्री नानाविधि प्रवृत्तियों के प्रेरक होने के साथ-साथ स्वयं सुमधुर गायक और गूढ़ व्याख्याता साहित्यकार भी हैं। श्री तिलोकऋषिजी प्रणीत 'आध्यात्मिक दशहरा' और 'ज्ञानकंजर' की विवेचना में आपका गूढ़ दार्शनिक विवेचक रूप और 'आनन्द-प्रवचन' में आपका प्रवचनकार विचारक रूंप स्पष्ट परिलक्षित होता है।
आचार्यश्री के ७५ वें जन्म-जयन्तिमहोत्सव पर उनका सार्वजनिक अभिनन्दन कर उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने का विचार बहुत ही उपयोगी और स्तुत्य है। क्योंकि यह अभिनन्दन उस साधक व्यक्तित्व का अभिनन्दन है जिसने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर आदि सुदूर प्रान्तों में पदविहार कर नैतिक जागरण का शंखनाद किया है, यह अभिनन्दन उस अध्यात्मपुरुष का अभिनन्दन है जिसने समाज में धार्मिक शिक्षण-संस्थान का बीज वपन किया है, यह अभिनन्दन उस जागरूक चेतना का अभिनन्दन है जिसने भाषा, साहित्य और संघ-सेवा के प्रति अपने आपको समर्पित किया है।
यह आलोकपुरुष शतायु हो और अपनी सहस्र किरणों से हमारा मार्ग प्रशस्त करता रहे- इसी भावना के साथ सादर वन्दनांजलि ।
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