Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
के चातुर्मास के सन्दर्भ में जब महाराज साहब नागपुर पधारे तो उनके प्रारम्भिक आठ दिनों के प्रवचन संगठन पर ही चलते रहे। समूचे चातुर्मास में वे यह प्रयत्न भी करते रहे कि दो दिलों और वर्गों को कैसे जोड़ा जाय । इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे इस लक्ष्य में काफी अंश तक सफल भी हुए।
आचार्यप्रवर की दृष्टि में संगठन की आवश्यकता प्रत्येक स्थान पर है। समाज, शरीर और आत्मा, सभी को संगठन की अपेक्षा रहती है । यद्यपि आत्मा संसार के समस्त पदार्थों से भिन्न है, किन्तु उसके अपने निजी गुण तो उसमें संगठित रूप से रहना आवश्यक है।
इन विषयों के अतिरिक्त आनन्द-प्रवचन में अन्य विषयों पर भी ऋषिवर ने उद्बोधन दिया है। उदाहरणार्थ-मनुष्यभव एक जंकसन है, मनुष्य जन्म रूपी वृक्ष के छः फल, नेक पुरुष का स्वरूप (प्रथम भाग); सोना किस समय, मरण का स्मरण, गृहस्थों की तीन श्रेणियाँ, सच्चा शासक, सच्चा साधक, तपसेवा आदि की महिमा, कर्म का स्मरण, अनुशासन, स्वयं दीपक बनो, मानव जीवन की सात्विकता (द्वितीय भाग); क्रिया का महत्त्व, संसार कहाँ है ?, कछुए के समान बनो, आज का धनीवर्ग, बही-खाता पलटते रहो, व्रत क्यों आवश्यक है, समय से पहले चेतो (तृतीय भाग) आदि ।
इस प्रकार प्रवचनकार महर्षि आनन्द का कृतित्व और व्यक्तित्व सत्य और अहिंसा का समन्वित स्थल है; सरलता, मृदुता, निर्मलता और तपस्तेज का प्रतीक है तथा ज्ञान, ध्यान, सेवा और विनय का प्रतिबिम्ब है। उनके प्रवचन और उपदेश व्यक्ति की डूबती हुई नौका के लिए पतवार हैं। उनके सहयोग से प्रगति-पथ आलोकित हो उठता है । ऐसे आदर्श महान् सन्त सर्वत्र नहीं मिलते। उनके जन्मदिवस के उपलक्ष में हम अपने श्रद्धा-सुमन समर्पण के साथ उनके चिरजीवी होने की शुभकामना व्यक्त करते हैं।
श्रद्धा-सुमन चिंचोड़ी भूमि धन्योऽस्ति यस्मिन्,
आचार्य आनन्दऋषि ऋषीश । तत्त्वानि पापानि निधीन्दु वत्सरे,
लभेत् जन्म तिमिरारि सन्त ।। पादाविन्दे सुमनानि श्रद्धा,
समर्पयामि ऋषि-कंत-सन्त । दिवाकरो तुल्य प्रकाशदाता,
नमाम्यऽहं तं शिरसा सुश्रद्धया । ---डा. कस्तूरचन्द्र 'सुमन', बांसातारखेड़ा दमोह (म. प्र.)
१. आनंद प्रवचन, भाग २, पृ० २१
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