Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्री आनंन्दा ग्रामथन्दन ग्राआनन्द आमदन
आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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प्राप्ति के लिए आवश्यक है।" ज्ञान के अभाव में मनुष्य कैसी भी भक्ति और साधना क्यों न करे, वह अँधेरे में ढेला फेंकने के समान है ।
सफलता के साधन
मानव जीवन चिन्तामणि रत्न जैसा दुर्लभ है । अतः उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए । जीवन की सफलता इसी में है कि वह मुक्ति प्राप्त कर ले। एतदर्थ साधक हिंसा, प्रमाद, कषाय, निद्रा, अहंकार, विकथा आदि का त्याग करे । चित्तधारा को विषय- लालसा से निर्मूल कर दे । आत्मा की अनन्त शक्ति पर पूर्ण विश्वास रखे । संयमी होकर आत्मचिन्तन और आत्मसाधना में लग जाय । आत्मबल के बढ़ने से इन्द्रियों की प्रबलता स्वयं ही कम होगी तथा विषयासक्ति घटती चली जावेगी । इस सबका परिणाम यह होगा कि आत्मा का उत्थान होगा तथा मनुष्य का जीवन सफलता के राजपथ पर अग्रसर होता चला
जायगा |
सत्संगति
सत्संगति भी दुर्लभ होती है । मनुष्य यदि सन्तों द्वारा बताये मार्ग पर चले तो निश्चय ही आत्मस्वरूप का एक दिन साक्षात्कार हो सकता है । सन्तों की संगति से ही मूढ मानव का बौद्धिक विकास हो सकता है तथा उसके हृदय में छाया हुआ अज्ञानान्धकार नष्ट होकर ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश फैल सकता है । सत्संगति से ही मनुष्य के हृदय की दुर्वृत्तियाँ लुप्त हो सकती हैं और सद्वृत्तियाँ जागृत होकर अपना शुभ प्रभाव दिखा सकती हैं । इसीलिए आज संसार को सर्वथा निर्लोभी, निर्मोही, निःस्वार्थी और मार्गदर्शक सन्तों की आवश्यकता है। वे ही पथभ्रष्ट प्राणी को उद्बोधन दे सकते हैं। अगर व्यक्ति सदा श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में रहेंगे तो अज्ञान, अहंकार आदि अनेक दुर्गुण तो उनके नष्ट होते ही हैं, उस आत्ममुक्ति के मार्ग की पहचान भी होती है जिसको पाकर वह अपने मानवजीवन को सार्थक कर सकता है ।
आनन्दऋषिजी के ये शब्द आज के युग के लिए कितने उद्बोधक हैं । उन्होंने अनेक उदाहरणों और कथाओं के माध्यम से सन्त समागम करने की बात कही है। शत्रु-मित्र के प्रति समान व्यवहार, बौद्धिक विकास, क्रोधादि विकारों की शान्ति, गुणवत्ता, असीमशान्ति आदि जैसे सद्गुणों की प्राप्ति सत्संगति से ही होती है |
शिक्षा और शिक्षा जगत
agfor शिक्षा और शिक्षा जगत के प्रति आचार्य प्रवर अत्यन्त असंतृप्त हैं। आये दिन आन्दोलन, मारपीट आदि जैसे अनुशासनहीनता के कार्य सुनने में आते हैं । इसका मूलकारण उनकी दृष्टि में है— धार्मिक संस्कारों का अभाव। जबतक शिक्षा में धार्मिक विचारों का समावेश नहीं होगा, तब तक वह अपूर्ण रहेगी । इसलिए माता-पिता को अपने बालकों में बचपन से ही धार्मिक संस्कार डालने चाहिए, उनकी रुचि धर्म की ओर उन्मुख करनी चाहिए। उनके हृदय में माता-पिता के प्रति प्रेम, बड़ों के प्रति तथा अपने गुरु के प्रति गहरी श्रद्धा और सम्मान की भावनाएँ जगा देनी चाहिए। तभी वह अपनी नम्रता और विनय के द्वारा जो शिक्षा प्राप्त करेगा उसका परिणाम शुभ होगा । अन्यथा अपनी उच्छृङ्खलता और अविनीतता के कारण शिक्षा के साथ रहकर भी सम्यक्ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेगा ।
शिक्षा के उद्देश्य के सन्दर्भ में आचार्य जी का मन्तव्य है कि शिक्षा का कार्य है, बालक में जो
? आनन्द प्रवचन, भाग २, पृ० १, ११५, १३४
२. वही, भाग १, पृ० १२६, १३७, १५६, ३-६७ ३ १ ० २८३, ३ ३ वही, भाग २, पृ० ३१, भाग १, पृ० १४७, भाग ३, पृ०७४, ६०
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