Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्मaeaaआचार्ग 24 ग्रन्थ श्रीआनन्दन ६८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्रवचनकार
महषि आनन्द शब्दचित्र के निर्माता, अभिव्यक्ति के धनी, वाक्पटुता के पुजारी तथा मृदुता और सरलता के प्रतीक हैं। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की सभी विशेषतायें उनके प्रवचनों में झलकती हैं। उनके अध्ययन और चिन्तन का गांभीर्य वहाँ स्पष्ट हो जाता है। वे जिस विषय को प्रारम्भ करते हैं उसका सम्बन्ध अन्त तक बनाये रखते हैं। अपने विषय को अनेक उपमाओं, उदाहरणों, कथाओं और उद्धरणों के माध्यम से अत्यन्त रोचक और ग्राह्य कर देते हैं । अन्त में तो प्रवचन का सारांश देकर श्रोता को प्रवचनकार का व्यक्तित्व अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। श्रोतृवर्ग की ग्रहण-शक्ति के अनुसार उपदेश देने का कौशल आनन्दऋषि जी की अन्यतम विशेषता है। तत्त्वचिन्तक
महर्षि आनन्द की दृष्टि बिलकुल सुलझी हुई है। उनकी चिन्तन-प्रखरता और प्रतिभा-विशदता उनके प्रवचन पढ़ने और सुनने पर अनुभव में आती है। अभी तक आचार्यप्रवर के प्रवचनों के तीन भाग प्रकाशित हो चुके हैं। प्रथम भाग रायपसेयणिसुत्र के सूर्याभदेव के वर्णन पर आधारित है, द्वितीय भाग राज्य, पेट, मौत, तृष्णा, अग्नि, समुद्र, घर और मुक्ति इन आठ खंडों का विवेचन करता है और तृतीय भाग उत्तराध्ययन के अट्ठाइसवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा पर प्रवचन प्रस्तुत करता है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रवचन भी उनमें सम्मिलित किये गये हैं।
इन प्रवचनों में महर्षि आनन्द के आध्यात्मिक, दार्शनिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक जगत के सन्दर्भ में व्यक्त तत्त्वचिन्तन और समीक्षात्मक दृष्टिकोण का जो स्वरूप उद्घाटित हुआ है, वह संक्षेप में इस प्रकार हैधर्म : स्वरूप और उपयोगिता
धर्म की कितनी भी परिभाषाएँ की जाएं पर यदि उनमें जीवन को सुधारने की दिशा का निर्देशन नहीं है तो वे सब अधूरी और अधकचरी हैं। अतः धर्म वही है जो प्राणिमात्र का उपकारी हो और उसे संसरण के चक्कर से दूर करने में समर्थ हो । महर्षि आनन्द का मत है
"जीवन अमूल्य और दुर्लभ है। अज्ञान और प्रमाद में पड़े रहकर इसकी उपेक्षा करना इसे मिट्टी के मोल गँवा देने के समान है। अतः प्रत्येक आत्मकल्याण के इच्छुक मानव को मंगलमय धर्म का आधार दृढ़ता से ग्रहण करना चाहिए । धर्म की अमर ज्योति ही इस संसार रूपी अरण्य में भटकते हुए जीव को सही मार्ग बता सकती है तथा उसे अनन्त सुख और शाश्वत शान्ति रूपी अमर-पथ की प्राप्ति करा सकती है। धर्म की शरण में जाने पर ही आत्मा का कल्याण और मंगल हो सकेगा।"
धर्म से ऋषिवर का मतलब कियाकाण्ड से नहीं बल्कि जीवन को मर्यादित और सुसंस्कृत होने से है। उनका कहना है-"धर्म से हमारा तात्पर्य बाह्य आडम्बर या दिखावे से नहीं है। पूजा-पाठ कर लेना, गंगास्नान कर आना, तिलक-छापे लगा लेना या केवल मुखवस्त्रिका बाँधकर अड़तालीस मिनट तक एक जगह बैठ जाना ही धर्म नहीं है । वरन् जीवन में सद्गुणों, सद्वृत्तियों तथा अविकारी भावों का लाना ही धर्म है। सच्चा धर्म कषाय-विष का नाश करते हुए जीवन के लिए परम रसायन सिद्ध होता है ।"२
धर्म को ऋषि जी ने कल्पवृक्ष की संज्ञा दी है। उनके अनुसार "धर्म संसार की अपूर्व वस्तु है, दूसरे शब्दों में ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी शीतल छाया में बैठकर प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति अपने कषायजनित संताप को मिटा सकता है और ऐसा दिव्य स्रोत है, जिसमें अवगाहन करके प्रत्येक प्राणी अपने आत्मा
१ आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० १६ २ वही, पृ० ६६
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