Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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- स्वामी श्री रघुवरदयाल जी [वयोवृद्ध प्रभावशाली संत, प्रवक्ता, समाज-सुधारक एवं शिक्षा-प्रसारक]
आनन्दमूर्ति : प्राचार्य श्री प्रानन्दऋषि
शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ।। भारतीय संस्कृति में संत जीवन अपना सर्वोच्च स्थान रखता है, क्योंकि यह एक चलता-फिरता तीर्थ है जो संसार के तापत्रय से पीड़ित प्राणियों एवं पापपूर्ण पंकजाल में फंसे हुए व्यक्तियों का उद्धार करता है तथा शान्ति प्रदान करता है । कबीर के शब्दों में
आग लगी आकाश में, मरि-झरि गिरे अंगार ।
जो न होते साधुजन, जल मरता संसार । संसार के सभी प्राणी इन्हीं तापत्रय (आध्यात्मिक, अधिभौतिक, आधिदैविक) से संतप्त हैं। प्रत्येक मस्तिष्क में यही अग्नि जल रही है। सन्तगण प्रभु-बाणी रूप अमत से शीतल करते हैं।
सन्त बड़े परमार्थी, शीतल उनके अंग ।
तपन बुझावें और के, दे दे अपना रंग॥ भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम और तप को उत्कृष्ट मंगल कहा है। जिन ग्रन्थों में इनकी व्याख्या है उनको आगम कहते हैं। वे साधारण ग्रन्थ न कहे जाकर लोगों के हृदय में शास्त्र के नाम से स्थान पाते हैं तथा श्रद्धेय बन जाते हैं। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के अन्दर अहिंसा, संयम और तप रम जाय मानो जिनके आचरण से अहिंसा, संयम और तप का प्राकट्य हो वे साधारण व्यक्ति न रहकर महापुरुष, युगप्रर्वतक कहलाते हैं। इन्हीं गुणों से युक्त होकर बहुत से महापुरुष हुए, होते और होंगे । वर्तमान समय में जैनागमदिवाकर अखिल भारतवर्षीय व० स्था० श्रमण संघ से द्वितीय पट्टधर महामहिम प्रातः स्मरणीय श्री स्वामी १००८ श्री आनन्दऋषिजी महाराज आचार्य पद से शोभायमान हो रहे हैं।
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जन्म
आपश्री ने संवत् विक्रमी १९५७ में महाराष्ट्र के मध्य जिला अहमदनगर, ग्राम चिचोड़ी में धर्मप्रेमी श्रावक मूर्धन्य श्री देवीचन्द जी के घर जन्म ग्रहण किया था। आपके पिता भी जैनधर्म माने श्रावक एवं शास्त्र के ज्ञाता थे । समग्र परिवार ही धर्म रंग से रंगा हआ था । पूर्व संस्कार से आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल में आप जन्म लेकर अपने वंश की शोभा को बढ़ाने लगे।
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