Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
श्रीआनन्द ग्रन्थ श्री आनन्द थ
श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट [जैन समाज के प्रमुखनेता, चिंतनशील लेखक तथा शिक्षा एवं राजनीति के क्षेत्र में विशेष ख्यातिप्राप्त ]
प्राकृतभाषा एवं श्रमणसंस्कृति के प्रवक्ता आचार्य श्री आनन्दऋषि जी
।
कुछ विद्वानों का मत है कि किसी क्षेत्र की भूमि में इस प्रकार का वातावरण होता है कि जहाँ महापुरुषों का अवतरण हो जावे । भारतवर्ष में 'महाराष्ट्र' ऐसी ही भूमि वाला प्रदेश है जिसने अतीत में कई सन्तों को जन्म दिया है। समर्थ रामदास, सन्त तुकाराम, सन्त नामदेव, सन्त ज्ञानदेव आदि महापुरुष महाराष्ट्र की ही देन हैं। इसी सन्त प्रसूता महाराष्ट्र को ही यह गौरव प्राप्त है कि जिसने श्रमण संघ के आचार्य मुनि श्री आनन्दऋषि जी को जन्म दिया। यह एक दैवयोग है कि "आनन्द" नामसाम्य का जैन जगत ही नहीं श्रमणसंस्कृति में प्रावल्य रहा है तथा "आनन्द" नाम के महापुरुषों ने श्रमण संस्कृति के उन्नयन में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । यदि हम भगवान महावीर के समय की बात लें तो हमें भगवान के प्रमुख श्रावक "आनन्द" मिलते हैं उन्हीं के समकालीन गौतम बुद्ध के प्रमुख शिष्य भी " आनन्द " ही थे । तात्पर्य यह है कि हमारे आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराष्ट्र के उसी संत परम्परा के एक ज्योतिर्धर महापुरुष हैं जिन्होंने देश में अपने आचरण द्वारा सात्विक जीवन तथा आध्यात्मिकता का अलख जगाया तथा देश के लाखों व्यक्तियों ने जिनसे प्रेरणा प्राप्त की । हमारे आचार्यप्रवर भी बाल्यावस्था से ही आध्यात्मिकता के विचारों से ही आप्लावित थे तथा उसी के परिणामस्वरूप उन्होंने बाल्यावस्था में ही दीक्षित होकर साधनामय जीवन प्रारम्भ कर दिया। आचार्य श्री बालब्रह्मचारी हैं, आपका जीवन सदैव अध्ययनरत रहा है । आपने प्रारम्भ से ही प्राकृत, संस्कृत आदि प्राचीन भाषाओं का अध्ययन करके जैन आगम का गहराई से अध्ययन किया। उसके साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों का भी तलस्पर्शी अध्ययन किया है । इसी कारण आपके प्रवाह पूर्ण प्रवचनों में जैन दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शनों का समन्वय दृष्टिगोचर होता है। इतना ही नहीं, आपने उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं का अध्ययन करके उसकी सूक्तियां कंठस्थ कर ली हैं। प्रवचन में जब आप संत ज्ञानदेव, नामदेव आदि महाराष्ट्री संतों की औबी, छंद भक्तिभावना से तन्मय होकर ललित गेय स्वर में गाते हैं तब ऐसा लगता है कि यह भारतीय संत अपने मस्तिष्क में अगाध ज्ञान संजोए हुए ज्ञानलोक में विचरण कर रहा है और श्रोता मंत्रमुग्ध होकर स्वयं तल्लीन हो जाता है । इस संत ने स्वयं अध्ययन करते हुए सारे देश में प्राकृत भाषा - प्रचार के लिए कड़ा परिश्रम करके यत्र-तत्र संस्था स्थापित कराई । पाठक जानते हैं कि प्राकृत भाषा में ही अधिकतर जैनसाहित्य विद्यमान है। यदि कोई मूल जैनसाहित्य से परिचय प्राप्त करना चाहता है तो उसे प्राकृत का अवलंबन लेना पड़ता है । किन्तु प्राकृत आज उपेक्षित जैसी रही है। शासन का जितना ध्यान संस्कृत की ओर है, उसका अल्पांश भी प्राकृत की ओर नहीं है । इसी कारण इस संत ने प्राकृत प्रचार को अपना लक्ष्य निर्धारित करके कार्य किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org