Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा एवं श्रमणसंस्कृति के प्रवक्ता : आचार्यश्री आनन्दऋषि जी ५७
आचार्य श्री श्रमण संघ में पुरातन पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। लगभग ६ दशक तक साधनामय जीवन व्यतीत करते हुए सरलता, निच्छलता, निष्कपटता की साक्षात मूर्ति हो गये हैं । आचार्यश्री जहाँ ज्ञान, ध्यान में रत रहते हुए लगभग ७५ वर्ष की आयु में भी अध्ययन करते तथा कराते रहते हैं, वहाँ अपनी श्रमण क्रिया में भी सजग रहते हैं। अधिकतर देखा जाता है कि लम्बे जीवन में क्रिया जीवन की एक रूढ़ पारम्परिक प्रक्रिया हो जाती उसमें रस नहीं रहता, किन्तु आचार्यश्री अपने जीवन में श्रमण-क्रिया करते हुए रस लेते हैं तथा क्रिया को केवल थोथे रूप में नहीं अपितु सजग रहते हुए उसके उद्देश्य को ध्यान में रखकर पालन करते हैं । यही कारण है कि आचार्यश्री के सान्निध्य में जो श्रमण रहते हैं, वह भी इसी प्रकार अपने जीवन को धन्य मानते हुए श्रमणजीवन व्यतीत करते हैं तथा प्रेरणा प्राप्त करते हैं । आचार्यश्री का अधिक कार्यक्षेत्र महाराष्ट्र रहा है किन्तु उसके बाद भी आपने पाद - विहार करते हुए जम्मू-कश्मीर तक की यात्रा करके जम्मू में चातुर्मास किया है तथा वहाँ पर ज्ञान की लौ प्रज्वलित की हैं । सारे देश में भ्रमण करते हुए भारतीय जन-जीवन को प्रेरणा दी है। सात्विक जीवन बिताने के लिए प्रेरित किया है। आपके प्रवचनों से जैन, अजैन सब लाभान्वित होते हैं । एक तपोपूत जीवन की साक्षात प्रतिमा देखकर अपने को धन्य मानते हैं । वास्तविकता यह हैं कि मनुष्य की वाणी जो प्रचार करती है वह इतना प्रभावकारी नहीं होता, जितना उसका आचरण । यदि किसी वक्ता का आचरण उच्चकोटि का है तो उसका प्रवचन भी प्रभावोत्पादक होगा तथा श्रोता के मन, मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव छोड़ेगा । यही स्थिति आचार्यश्री की है । वह साक्षात संयममूर्ति हैं। इसी कारण श्रोता पर अमिट प्रभाव छोड़ते हैं । लेखक ने आचार्यश्री के शाजापुर- शुजालपुर के चातुर्मासों में ऐसे कई दृश्य देखे हैं कि जब इतर धर्मीय सज्जनों ने भी आचार्यश्री के जीवन से प्रभावित होकर व्रत ग्रहण किए हैं ।
वास्तव में आचार्यश्री का स्वभाव अत्यन्त कोमल तथा पूरा जीवन परोपकारमय है। जिस प्रकार नदी, वृक्ष सारे संसार के उपकार के लिए हैं, उसी प्रकार यह संत अपने जीवन के ७५ वें वर्ष में भी भारतीय जन-जीवन में शुद्धता, प्रामाणिकता, सात्विकता, आध्यात्मिकता लाने के लिए अथक परिश्रम कर रहा है । लेखक की यह हार्दिक कामना है कि यह भारतीय ऋषि अपने जीवन के सौरभ को लुटता हुआ हजारों वर्षों तक हमारे बीच रहे, ताकि भारतीय जन-जीवन आदर्श बना सके ।
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आनन्द-वचनामृत
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कोई भी समस्या ऐसी नहीं जो सुलझ नहीं सके । कोई भी बीमारी ऐसी नहीं जो मिट नहीं सके ।
हमारी भीरुता, अज्ञानता और निर्णय की अपरिपक्वता से ही वे विकट और दुरूह रूप धारण करती हैं ।
समस्या को सुलझाने के लिए विवेक और साहस की जरूरत है । जैसे कि बीमारी को मिटाने के लिए चिकित्सक और औषधि की ।
विवेक चिकित्सक की भाँति समस्या के सही रूप का ज्ञान करा देता है और साहस औषधि की भाँति उसका निराकरण करता है ।
ज्ञानहीन संकल्प, विकल्पों का जाल बुनता 1
संकल्प के पूर्व अगर विवेक नहीं जगा हो तो वह वि, कल्प के पूर्व लग जाता है, अर्थात् संकल्प विकल्प बन जाता है ।
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श्री आनन्द अन्थ : श्री आनन्द ग्रन्थ
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