Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्द ऋषि : जीवन-दर्शन
दृढ़-संकल्प नेमिचन्द्र जी ने स्कूल छोड़ दिया किन्तु अपने संकल्प को नहीं छोड़ा । केवल अर्थोपार्जन की कला सिवाने वाली शिक्षा को उन्होंने निरर्थक समझा । अतः संसार-मुक्त कराने वाले ज्ञान को ग्रहण करने का निश्चय किया। वे संत-महात्माओं के सम्पर्क में रहकर शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करते, आध्यात्मिक प्रवचन सुनते, स्वयं स्वाध्याय करते, नियम पूर्वक माला जपते और अपने मधुर कंठ द्वारा भक्तिरस-रित संगीत का निर्झर प्रवाहित करते हुए अपने मन को धर्माभिमुख बनाते।
समय धीरे-धीरे सरक चला । माता हुलासाबाई पति-वियोग के शोक से बहुत टूट गई थीं किन्तु अमीम धैर्य के साथ उन्होंने अपने आपको संभाला तथा अपने दोनों पुत्रों के सुनहरे भविष्य की कल्पना करने लगी। उन दिनों विवाह-सम्बन्ध बालकों की अल्प बय में ही सम्पन्न हो जाया करते थे अतः अपने द्वितीय पुत्र नेमिचन्द्र के बारह वर्ष समाप्त होते ही उन्होंने बड़े पुत्र उत्तमचन्द्र जी से कहा-"पुत्र, अब नेमिचन्द्र का विवाह कर देना है। कोई संस्कारशीला एवं सुन्दर वधू तलाश करो ताकि उससे कूल का गौरव बढ़े तथा मेरा मन भी सन्तोष एवं शांति का अनुभव कर सके ।' .
पर जिनका विवाह करना था वे महापुण्यशाली नेमिचन्द्र जी समीप ही तो बैठे थे अतः अपने अग्रज के उत्तर देने से पूर्व ही बोल पड़े-“माँ ! मेरी धृष्टता को क्षमा करें, पर मैं विवाह कभी नहीं करूँगा। मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य की आराधना करना है।"
पुत्र की बात सुनकर माता पर मानों वज्र आ गिरा। आश्चर्य से अभिभूत होकर वे प्रश्नसूचक दृष्टि से बेटे को देखती ही रह गई। कुछ कहना चाहते हुए भी कहने के लिये उनके मह से बोल नहीं फूटे।
यह देखकर नेमिचन्द्र ही पुनः बोले-"माँ ! आप जैसी माता को पाकर मैं धन्य हुआ हूँ। आपने हम भाई-बहन को धर्मपरायण और संस्कारवान बनाने में कोई कसर नहीं रखी और अब भी मुझे संसार में सुखी देखने के लिये आप मेरा विवाह करना चाहती हैं किन्तु आप जानती नहीं हैं कि इस संसार का कोई भी सुख स्थायी नहीं है और इसीलिये मैं उस सुख को पाने का प्रयत्न करना चाहता हैं जो अक्षय रहता है । विवाह के बन्धन में बँधकर तो मैं कुछ भी नहीं कर सकूँगा।"
__ अपने बारह वर्ष के नन्हें-से बालक के ऐसे दृढ़ता पूर्वक कहे गए शब्दों को सुनकर ममता की मारी हलासाबाई काँप उठीं पर आशा की क्षीण-सी रेखा का सम्बल लेकर ही वह विह्वल की भांति बोलीं"तुम्हारा कहना ठीक है बेटा ! पर तुम अभी छोटे हो, खेलने-खाने की उम्र है तुम्हारी, समय आने पर धीरे-धीरे सब कुछ करना।"
"पर समय का कोई भरोसा है क्या माँ ! पिताजी की क्या उम्र थी ? पर समय उन्हें ले गया। उनके निधन के बाद से ही तो मुझे विश्वास हो गया है कि काल किसी की परवाह नहीं करता। मेरा भी क्या ठिकाना है कि मैं उचित समय पर ही जाऊँगा । काल किसी के मंसूबों को पूरा करने का समय नहीं देता। इसलिये हमें चाहिये कि जिस क्षण मन में शुभ संकल्प बनें, उसी क्षण से उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयत्न करें। मैं भी अपना एक क्षण भी व्यर्थ जाने देना नहीं चाहता। केवल किन्हीं सच्चे प्रथ-प्रदर्शक संत की प्रतीक्षा में हूँ, जिनके चरणों में रहकर मुझे प्रकाश मिले और मैं साधना के पथ पर बढ़ सकें।"
मां क्या उत्तर देती ? वह चिन्ता और निराशा के सागर में गोते लगाने लगीं। साथ ही ऐसे सूत्र खोजने का प्रयत्न करने लगीं, जिनसे पूत्र को समझाया जा सके।
घर बैठे गंगा आई श्री नेमिचन्द्र जी जिन दिनों अपना विरक्त हृदय लिये सुयोग्य गुरु पाने की कामना कर रहे थे, मौभाग्यवश उन्हीं दिनों में ऋषिसम्प्रदाय के विद्वद्वर्य एवं चारित्रचूडामणि संत श्री रत्नऋषि जी महाराज यत्र-तत्र विचरण करते हुए चिचोड़ी गाँव में पधारे। ..
आपाप्रवर आभन्दः
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श्रीआनन्दसन्याश्रीआनन्दा अन्य
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