Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आयायप्रवास अभिवेदन आआनन्दन ग्रन्थ आयाम प्रवर अभिनंदन
आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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आकर्षण व्यक्तित्व असाधारण है। उनके कमनीय कर्तृत्व ने उनके व्यक्तित्व को निखारा है। साधना के प्रथम चरण में ही उनकी प्रगति का अध्याय प्रारम्भ हुआ, प्रतिकूल परिस्थितियों ने उनकी प्रगति में बाधा बनने का प्रयास किया । किन्तु गंगा के निर्मल प्रवाह की तरह वे निर्बाध गति से आगे बढ़ते गये | वट वृक्ष की भांति उनका व्यक्तित्व सदा विस्तार पाता गया। उनकी वरिष्ठ योग्यता का ही यह ज्वलन्त प्रमाण है कि वे सर्वप्रथम ऋषि सम्प्रदाय के आचार्य बने, फिर पांच सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य बने फिर धमण संघ के प्रधान मन्त्री, उपाध्याय एवं आचार्य बने ।
ओजस्वी आचार्य
आप श्रमण संघ के एक ओजस्वी और तेजस्वी आचार्य हैं। आपका जीवन एक सच्चे सन्त का जोवन है। जिस किसी ने भी आपको निकट से देखा है, उसके मन में आपके प्रति श्रद्धा और प्रेम बढ़ा है। आपश्री की प्रगाढ़ विद्वत्ता, अदम्य साहस, उत्तम कर्तव्यनिष्ठा, अद्वितीय अद्भुत त्याग, निस्सीम कर्मठता, स्नेह और संगठन की निर्मल भावना को देखकर कौन मुग्ध नहीं हुआ? प्रलोभनों ने आपको कभी भी विचलित नहीं किया । सत्ता दासी होकर आई है। अधिकार प्राप्त करके भी आप श्री उसी प्रकार निर्लेप हैं जैसे जल में कमल ।
आत्मविश्वास के धनी
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प्रसित है। भारत के मुर्धन्य चिकित्सकों
आत्मविश्वास अचिन्त्य शक्ति का अक्षय कोष है। उसमें अमंगल को मंगल के रूप में परिणत कर देने की अद्भुत क्षमता है । महान् वह बनता है जो आत्मविश्वास का धनी है। श्रद्धेय आचार्य श्री का आत्म विश्वास गजब का है शरीर अनेक व्याधियों से की राय है कि आप विहार न करें, शारीरिक विशेष श्रम न करें, पर आपश्री ने अपने आत्मविश्वास के बल पर जन-जन के मन में स्वाग-निष्ठा, संयम प्रतिष्ठा और शुद्ध जैनत्व का सन्देश देने के लिए हजारों मील की यात्रा की है। चिकित्सक आपश्री के आत्म-विश्वास को देखकर चकित हैं। आपकी सहिष्णुता बेजोड़ है। दीन मनोभावों को आपने कभी आदर नहीं दिया है।
कठोरता और कोमलता का समन्वय
水 जीवन के सर्वाङ्गीण विकास के लिए कठोरता और कोमलता ये दोनों तत्त्व अपेक्षित हैं, अनिवार्य
हैं। केवल कठोरता विकास के मार्ग में बाधक है और केवल कोमलता भी उसका सम्बल नहीं हो सकती,
मात्रा के औचित्य से ही दोनों की फलवत्ता है।
आचार्य श्री के जीवन की आलोचना करते हुए कुछ आलोचक कहा करते हैं कि आचार्य श्री आवश्यकता से अधिक कोमल हैं, वे किसी पर भी अनुशासन नहीं कर सकते, आनन्द के शासन में जितना आनन्द लूटना चाहो लूट लो पर सत्य तथ्य यह है कि उनके जीवन में कठोरता और कोमलता का मधुर समन्वय है। उनका मानस जहाँ अनुशासन के क्षेत्र में वज्र से भी अधिक कठोर है तो श्रद्धान्वित बेता के लिए कुसुम से भी अधिक सुकुमार है।
कोमलता को जो लोग उनका दूषण मानते हैं वे भूल-भरे हैं, कोमलता उनका दूपण नहीं अपितु
भूषण है ।
वात्सल्य और अनुशासन
आचार्य संघ के शास्ता होते हैं । प्रशासन उनका कार्य है। हजारों श्रमण और श्रमणियों को और लाखों धावक एवं धाविकाओं को उन्हें मार्गदर्शन देना होता है। उनका प्रशासक भाव जिस समय वात्सल्य से भावित होकर संघ के सदस्यों को अपने कर्तव्यों की ओर अग्रसर करने के लिए उत्प्रेरित करता है, उस समय अनुशासन, अनुशासन न रहकर आत्मधर्म बन जाता, उसमें सहजता और आत्मीयता आ जाती है । वह अनुशासन बाहर से थोपा हुआ नहीं, अपितु आत्मगत होता है। श्रद्धेय आचार्यश्री इस
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