Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्य श्री आनन्द ऋषि
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लक्खणजुत्तो आचार्य के लिए दूसरा वैशिष्ट्य बताया गया है कि वह 'लक्षण-युक्त' हो–'लक्खणजुत्तो। यह लक्षण शब्द भी आचार्यत्व की विविध विशेषताओं को ध्वनित करने वाला है, परन्तु मेरी विचार-सरणी मुझे लक्षण शब्द को 'आचार्य की शरीर-सम्पदा, पर ही केन्द्रित कर रही है, अतः मैं लक्षण-युक्त का अर्थ 'शरीर-सम्पदा-सम्पन्न' मानते हुए आचार्य के इस वैशिष्ट्य का सामान्य सा विश्लेषण करना चाहता हूँ।
सूत्र हो या अर्थ, आचार हो या विचार, सबका आरम्म शरीर से ही होता है। शरीर के बिना कुछ रह नहीं सकता । कुछ भी हो नहीं सकता । आचार्य के अन्तर का परीक्षण और उसकी प्रभावशीलता की परख शरीर ही बना सकता है । शरीर-शास्त्री शारीरिक आकृतियों के आधार पर ही जीवन के भूत, भविष्य और वर्तमान का अध्ययन कर लेते हैं। लम्बे कान मस्तिष्क शक्तियों के अनन्त विकास का परिचय देते हैं, हाथ के अंगुष्ठ-मूल का उभरा हआ भाग विलास-प्रियता का परिचायक होता है। खुरदरे एवं कठोर हाथ श्रमिक जीवन का संकेत करते हैं, इसीप्रकार अन्तर में जागृत क्रोध की लहर आँखों में लाली, भोंहों में तनाव, मस्तक पर आड़ी रेखाएँ, दाँतों में कड़कड़ाहट और हाथ-पैर की पटकन के रूप में व्यक्त हो उठती है। इस प्रकार शरीर से मनोवृत्तियों और मनोवृत्तियों से शरीर का अध्ययन होता है, अतः आचार्य के लिए उस व्यक्ति को उपयुक्त समझा गया है, जिसका शरीर न तो अधिक लम्बा हो और न ही अधिक ठिगना हो । आचार्य का शरीर युगानुरूप मर्यादा के अनुकूल लम्बाई एवं ऊँचाई वाला होना चाहिए।
जब शरीर-अङ्ग विकृत होते हैं, बेडौल होते हैं, जब शरीर-त्वचा आवश्यकता से अधिक काली होती है, तो इस शरीर-सम्पदा के अभाव में आचार्य की प्रभावशीलता नष्ट हो जाती है। विकृत शरीर के सम्बन्ध में एक लोकोक्ति-जन्य तथ्य सामने आ रहा है
सौ में शूर सहस में काना, सवालाख में ऐंचाताना ।
ऐंचाताना करे पुकार, मैं आया गंजा से हार । यह लोकोक्ति केवल नेत्र-विकृतियों से मनुष्य की हार्दिक विकृतियों के परिमाणों की अधिकता को व्यक्त कर रही है। अतः आचार्य का शरीर ऐसा हो जिसके कारण न तो वह स्वयं आत्महीनता, आत्मग्लानि एवं लोक-लज्जा का अनुभव कर रहा हो और न ही वह समाज लज्जित हो जिस समाज ने उसे आचार्यत्व प्रदान किया हो। आचार्य का शरीर सुसगठित हो अर्थात् उसके समस्त अवयव अनुपात में हों, अनुपात-हीन शरीर मानस-विकृतियों का द्योतक होता है। सुन्दर, कोमल, सुगठित गौर शरीर की भावनाएँ सुन्दर, परम्पराबद्ध एवं करुणा आदि कोमल भावनाओं से युक्त एवं शुद्ध होती हैं । महापुरुषों के शरीर इसीलिए कोमल होते हैं ।
गच्छस्स मेढिभूमो आचार्य के लिए 'गच्छस्समेढिभूओं' विशेषण देकर उसकी संगठन-शक्ति, अनुशासन-समर्थता एवं गण-प्रतिपालन की योग्यता की ओर संकेत किया गया है। खलिहान में बैल चलते हैं, मध्य में गड़े हुए खूटे की परिधि में । खूटा किसी को अपने से नहीं बाँधता, परन्तु किसान और बैल स्वयं ही खूटे से बँधे रहते हैं। मेढिभूत आचार्यत्व का निर्वाह भी वही कर सकता है जो किसी को बाँधे तो नहीं, परन्तु उसकी प्रभावशीलता के साथ स्वयं ही सब बंधते जायँ। खलिहान के खूटे के चारों ओर बैल चलते रहते हैं, किसान भी चलता रहता है, उनके पैरों से अनाज के दानों पर चढ़ा हुआ आवरण स्वयं ही हटता
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है आरोह-परिणाह-संपन्ने यावि भवइ, अणोतप्पसरीरे यावि भवइ, थिरसंघयणे, बहपणिपूणिदिय यावि भवइ ।-दशाश्रुत० ४।३
साचारात्रिआयात्रा श्रीआनन्दाअन्ध५ श्रीआनन्दग्रन्थ
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