Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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पं० उदय जैन, धर्मशास्त्री, कानोड़ [अनेक शिक्षण संस्थाओं के संचालक, क्रांतदर्शी शिक्षाशास्त्री]
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ज्ञान की अमर लौ जलाने वाले मनीषी शिक्षा-प्रसारक श्री आनन्दाचार्य
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आनन्दाचार्य आनन्द की, प्रसन्नता की और अभिव्यक्ति की सजीव मूर्ति हैं। जिसने उनके दर्शन किये, प्रसन्न मुद्रा में पाया। गाँव में जन्मा एक मानव, संत एवं आचार्य तथा आचार्यप्रवर के पद पर कैसे पहुँचता है, यही इनकी सौम्य मुद्रा की स्पष्ट स्थिति है। हृदय सरल, मुखाकार सौम्य और कार्य-प्रवृत्ति रसमयी, यही गुण उन्हें धर्म, सम्प्रदाय और समाज के उत्तम शिखर पर ले गये। इनका धर्म या सम्प्रदाय रूप विश्व में स्पष्ट भाषित हो रहा है। संत, धर्ममय होते हैं और आचार्य सम्प्रदायपोषक होते हैं। ये श्रमण संघ के श्रेष्ठ पद पर विराजकर उत्तम शासक रूप में आचार्यप्रवर बने हुए हैं। ये सम्प्रदाय स्थिति में उत्तम स्थान के अधिष्ठाता हैं लेकिन समाज-कल्याण के कार्यों में भी आपका वही रूप निखर आया है।
पाथर्डी जैसे छोटे से गांव में विद्या की साधारण शाला प्रारम्भ कर आज विविध ज्ञानाभ्यास एवं परीक्षण केन्द्र बना देना इन्हीं की सुप्रेरणा का फल है। धर्म शिक्षा के साथ व्यावहारिक ज्ञान में समाज के लाड़ले और होनहार बच्चे इसी आचार्यप्रवर की प्रेरणा से वर्षों से आगे बढ़े जा रहे हैं। जहाँ गये विद्याशालाएँ, पाठशालाएँ, गुरुकुल, छात्रावास और उपाश्रय आदि चलाने के उपदेश देते रहे और हर प्रान्त में शिक्षा के लिए उनके किये गये प्रयास तथा दी गई प्रेरणाएँ एवं असरकारक उपदेश सक्रिय हो, बढ़ते जा रहे हैं। महाराष्ट्र, मालव, पंजाब और उत्तरप्रदेश में जहाँ-जहाँ चातुर्मास किये, एक-न-एक याद स्मारक रूप में बना के आये।
साधु कहते हैं; आनन्दऋषि जी स्कूलों के कार्यों को देखते हैं, छात्रावासों और स्कूलों में दान देने का उपदेश देते हैं। त्याग करने की प्रेरणाएँ देते हैं। एक धनिक अपने दातव्य दान को उनकी प्रेरणा से समाज के उपयोग में देता है। यह साधु-प्रवृत्ति के खिलाफ होता है। रुपये-पैसों का उपदेश देना और रुपये-पैसों की प्रेरणा देना साधुवृत्ति के अनुकूल नहीं। जैसे भी कहें, कैसे भी कहें। साधु तो साधु ही है और रहेंगे। शिक्षा-प्रसार कार्य और धर्म-प्रसार कार्य की लगन एक साधना ही तो है। कौन साधु कहलाने वाला श्रमण तीन करण, तीन योग का त्यागी है और उसका यथावत पालन करता है। समाज के सन्मुख आये और अपने को सिद्ध करे कि उसे मन, वचन और काया से किसी भी प्रकार के परिग्रह, झूठ, चोरी, हिंसा और कुशील के करने, कराने और अनुमोदना के दोष नहीं लगते हैं।
साधु, साधनारत होता है। आत्मिक-साधना में और चारित्र-साधना में लगा हुआ ही साधनारत नहीं कहला सकता। शासकतुल्य धर्माचार वृद्धि में भी उसकी साधना उपयोगी होती है। शासन वृद्धि भी एक प्रकार की साधना है। जिसका हुदय पवित्र हो, जिसके मन में रागद्वेषजनित विकार और
आचार्यप्रभा आचार्यप्रवर अभय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दमन्थन
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