Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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0 श्री पुष्कर मुनि
[प्रसिद्धवक्ता, जैन आगमों के मर्मज्ञ मनीषी तथा जैनसमाज के अग्रणी मुनिवर ]
श्रमण संघ की वरिष्ठ विभूति आचार्य श्री आनन्दऋषि जी
आचार्यप्रवर महामहिम आनन्दऋषि जी महाराज श्रमण संघ की एक महान् जगमगाती ज्योति हैं। जिनका जीवन सूर्य के समान तेजस्वी और चाँद के समान सौम्य है । उनका जीवन सद्गुणों का समुद्र है । उस समुद्र का वर्गीकरण किस प्रकार किया जाय, यह गम्भीर चिन्तन के पश्चात् भी समझ में नहीं आ रहा है । उनके विराट् व्यक्तित्व रूपी सिन्धु को शब्दों के बिन्दुओं में बाँधना बड़ा ही कठिन है । जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने सर्वप्रथम उनके दर्शन ब्यावर में किये थे । उस समय आप आचार्य नहीं थे | अजमेर के बृहद् साधु-सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए आप अपने शिष्य उत्तमऋषि जी के साथ महाराष्ट्र से विहार कर पधारे थे । हमने आपश्री का मधुर स्वागत किया। राउली कम्पाउण्ड में उस समय सम्मिलित प्रवचन हुए। आपके तन और मन में जवानी का जोश अठखेलियाँ कर रहा था । आपश्री का गला बड़ा ही सुरीला था । प्रवचन में आपने जो संगीत की सुमधुर स्वरलहरियाँ छेड़ीं तो श्रोतागण आनन्द से झूम उठे ।
अजरामरपुरी अजमेर में बृहद् साधु-सम्मेलन का भव्य आयोजन । जन-जन के मन में अपार उत्साह बरसाती नदी की तरह उमड़ रहा था। एक-से-एक बढ़कर प्रतिभासम्पन्न सन्त पधार रहे थे । उस समय सभी सन्तों की व्यवस्था की जिम्मेदारी हम राजस्थानी सन्तों पर थी। जिससे सभी सन्तों के साथ हमारा मधुर सम्बन्ध होना स्वाभाविक था । उस समय आनन्दऋषि जी महाराज के हृदय की शुद्धता, मन की सरलता और अपने सिद्धान्तों पर पहाड़ की तरह अटल रहते हुए देखकर मेरे मन में उनके प्रति सहज श्रद्धा जागृत हुई ।
उसके पश्चात् विभिन्न दिशाओं में विहार होने से चाहने पर भी एक दूसरे का मधुर मिलन चिरकाल तक न हो सका । सन् १६५० में पुनः आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिला । उस समय आप साधारण सन्त नहीं किन्तु विशिष्ट आचार्य थे । आप ऋषिसम्प्रदाय के आचार्य के साथ ही उस समय दिवाकर समुदाय, धर्मदास जी महाराज की सम्प्रदाय प्रभृति अनेक सम्प्रदायों के प्रधानाचार्य थे । मेरे आराध्यदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी के दर्शन के लिए आप उदयपुर से विहार कर पदराड़ा पधारे । मैं भी आपश्री के स्वागतार्थ आठ मील सामने गया । एक ही साथ ठहरे । उस समय स्थानकवासी जैन समाज जो विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त था, उसका विकास बिना एक हुए नहीं हो सकता - इस सम्बन्ध में कई दिनों तक विचार चर्चाएँ होती रहीं । मैंने देखा - महान् आचार्य होने पर भी आप में वही नम्रता है, वही सरलता है और वही स्नेह है । उस समय आपश्री ने अपने हाथ से लिखकर कविकुल- तिलक तिलोकऋषि जी महाराज की कमनीय कलाकृतियाँ मुझे प्रदान कीं। उसके पश्चात् आपश्री से उदयपुर आदि अन्य स्थानों पर मिलन हुआ ।
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