Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दप ग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्य
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आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जाता है। आचार्य की शरण में रहने वाले भी साधना के पथ पर चलते रहते हैं और आत्मा के चारों ओर चढ़े हुए कषायों के आवरण को हटाते रहते हैं, आचार्य अपने अनुशासन में रहने वाले साधु-साध्वियों के लिए वर्षाकाल में उचित निवास की योजनाएँ तैयार करता है, उनके लिए शय्या आदि की व्यवस्था का निरीक्षण करता है, वह साधकों को समयानुरूप प्रतिबोध देता है, उनमें यथासमय साधना-संलीनता
| को जागृत करता है और उन्हें बड़ों के प्रति विनय सम्मान एवं आदर का पाठ पढ़ाता है। इस प्रकार वह संघ का स्तम्भ बनकर उसे आश्रय देता है। आचार्य की इसी सम्पदा को शास्त्रकार 'संग्रह-परिज्ञा-नाम-सम्पद' कहते हैं। गणतत्तिविप्पमुक्को
आचार्य के अन्य गौरवमय दायित्व की ओर संकेत करते हुए उसे 'गणतत्तिविप्पमुक्को' विशेषण दिया गया है, अर्थात् वह संघ की चिन्ताओं से मुक्त हो, यदि वह समर्थ अनुशासन वाला है तो संघ सम्बन्धी चिन्ताओं को जन्म लेने का अवसर ही न मिलेगा, चिन्ताएँ न होगी तभी तो वह चिन्ताओं से मुक्त रह सकेगा। साथ ही यह विशेषण कहता है कि आचार्य निर्लिप्त हो, संघ की समस्त व्यवस्थाओं को अनुशासित करता हुआ भी साक्षी भाव से रहता हो । यदि आचार्य अपने को शासक समझने लगेगा तो उसका पावन व्यक्तित्व 'मान' के बोझ से दबने लगेगा, 'मान' को पहँची हद हल्की-सी चोट भी क्रोध को जागृत कर देती है, क्रोध के जागृत होते ही उसे अपने क्रोधी स्वरूप के छिपाव एवं दुराव के लिए 'माया' का सहारा लेना पड़ता है और साथ ही अनुशासित वर्ग के लिए वह संग्रह-वृत्ति के रूप में लोभ को सम्बृद्ध करने के लिए भी बाध्य हो जाता है । इस प्रकार धीरे-धीरे वह कषायों के सुदृढ़ आकार से घिरने लग जाता है। उस समस्त अव्यवस्था से बचकर संघव्यवस्था का सम्पादन करते हुए भी निस्पृह रहना पड़ता है, जिससे वह चिन्ता-मुक्त रह सके।५१ इसलिए दशवकालिक के महर्षि आचार्य की कर्तव्य-निष्ठा पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं
नो हीलए नो वि अ खिसइज्जा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो।१२ - आचार्यत्व के पूज्य पद के योग्य व्यक्ति संघ के किसी भी सदस्य की निन्दा एवं भर्त्सना नहीं करता वह क्रोध और मान के प्रभावों से सर्वदा मुक्त रहता है। जिसके हृदय को अपने बड़प्पन का आभास होने लगेगा, उसे अपने बड़प्पन की चिन्ता हो जानी भी स्वाभाविक है, यह चिन्ता ही समस्त अवगुणों का मूल है, अतः आचार्य वही है जो
नो भावये नो वि अभाविअप्पा, अकोउहल्ले व सया स पुज्जो। __आचार्य न तो किसी की प्रशंसावलियों का गान करता है और न ही किसी से प्रशंसावलियाँ सुनता है, वह संसार के खेलों में मन को नहीं रमाता, वह समस्त जीवन-लीलाओं को देखता है निस्पृह भाव से।
'गणतत्ति-विप्पमुक्को' का यह भी संकेत है कि उसके समर्थ एवं प्रभावशील अनुशासन में संघ का प्रत्येक सदस्य सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाय। आचार्य का यह वैशिष्ट्य उसकी तपोमयता और सम्यक् व्यवहारशीलता का बोधक है। ऐसे ही आचार्य के तपः प्रभाव के समक्ष सभी नत-मस्तक होंगे और उसके निर्दण्ड शासन को सभी स्वीकार करेंगे। इसीलिए मननशील महर्षि संघ को निर्देश
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१० देखिये--दशा श्रुत० ४।८ ११ चउविह कसाय-मुक्को । अथवा-... चउक्कसायावगए स पूज्जो। ---दशवकालिक ६।३।१४ १२ दशवकालिक ६।३।१० १३ दशवकालिक है।३।१२
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