Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
विविध विशेषताओं के संगम : आचार्यप्रवर श्री आनन्दषि
४१
प्रकार के प्रयोग सदैव करते रहते हैं। उन्होंने संघीय अनुशासन को हमेशा प्रधानता दी है। अनुशासन का उल्लंघन करना उन्हें बहुत ही अखरता है और वे अनुशासनात्मक कार्रवाई भी करते हैं, उसके पश्चात् उनका हृदय वात्सल्य से छलछलाने लगता है, जिससे उनका कठोर अनुशासन भी किसी को कठोर प्रतीत नहीं होता।
मैंने स्वयं साण्डेराव सन्त सम्मेलन में अनुभव किया है कि किसी ने अनुशासन का भंग किया तो आपश्री ने उसे कठोर दण्ड प्रदान किया, आपश्री का उग्र रूप देखकर वह भय से काँप उठा, पर दुसरे ही क्षण उगे प्रेम से पुचकारते हुए कहा, देखो भविष्य में इस प्रकार का कार्य न करना ।
विवादों से दूर आचार्यश्री को वाद-विवाद पसन्द नहीं है। उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि वाद-विवाद से तत्त्ववोध नहीं अपितु कषाय की अभिवृद्धि होती है। यह शक्ति का अपव्यय है, निरर्थक शक्ति का दुरुपयोग करना बुद्धिमानी नहीं है। मुझे स्मरण है कि अजमेर शिखर सम्मेलन के अवसर पर एक व्यक्ति आप थी के पास आया और कहा-मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।
आचार्य श्री ने मुस्कराते हुए पूछा-किसलिए?
उसने कहा--मैं आपको पराजित कर यह उद्घोषणा करूँगा कि श्रमण संघ के आचार्य मेरे जैसे से हार गये।
आचार्य श्री ने उसी प्रकार मुस्कराते हुए पूछा, उससे तुम्हें को क्या लाभ होगा? उसने कहा-इससे मेरा सम्पूर्ण समाज में यश फैलेगा। आचार्य श्री ने कहा तो फिर तुम यह मान लो, मैं हारा और तुम जीते।
आगन्तुक आचार्य श्री के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा कि आपश्री ने तो बिना शास्त्रार्थ किये ही मुझे पराजित कर दिया।
ध्यानी और स्वाध्यायी जैन-संस्कृति तपोमूलक रही है। यदि यह कह दिया जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मुहम्मद ने अपने भक्तों को नमाज प्रदान की, ईसा ने प्रार्थना दी, बुद्ध ने ध्यानमार्ग का उपदेश दिया, पतञ्जलि ने योग पर प्रकाश डाला तो भगवान महावीर ने तपोमार्ग का सन्देश दिया। भगवान महावीर ने स्वयं उग्र तप की साधना की और अपने अनुयायी वर्ग को भी उस पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। तप के द्वादश प्रकार में स्वाध्याय और ध्यान का भी स्थान है।
मैंने आचार्य प्रवर के जीवन को गहराई से देखा है। मुझे अनुभव हुआ है कि आचार्य प्रवर के जीवन में ध्यान और स्वाध्याय साकार हो उठे हैं। रात्रि के एकान्त शान्त क्षणों में जब सभी सोये हुए होते हैं तब आपश्री ध्यान में तल्लीन होते हैं। मैंने आपश्री के चरणों में जिज्ञासा प्रस्तुत की तो बताया कि ध्यान आत्मा की एक महान शक्ति है, ध्यान के अभाव में ध्येय की पूर्ति कदापि सम्भव नहीं है। ध्याता ध्यान से ध्येय रूप बन जाता है । ध्यान चेतना की वह निर्मल अवस्था है, जहाँ सम्पूर्ण अनुभूतियाँ एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती हैं, विचारों में सामंजस्य आ जाता है, परिधियाँ समाप्त हो जाती हैं। जीवन और स्वतन्त्रता की प्रस्तुत अनुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता।।
इस कथन से सहज ही परिज्ञात होता है कि आपधी की ध्यान के प्रति कितनी गहरी निष्ठा है।
ध्यान के समान स्वाध्याय भी आपश्री के जीवन का आवश्यक अंग है। आपश्री ने आगम, त्रिपिटक और वैदिक साहित्य का गहराई से अनुशीलन और परिशीलन किया है। हजारों गाथाएँ, श्लोक, अभंग, सुक्तियाँ, स्तोत्र आपश्री को कंठस्थ हैं। आपश्री स्वाध्याय करने में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उस समय आपश्री को कुछ भी ध्यान नहीं रहता। आहार आने पर आपश्री आहार करने के लिए नहीं
आचार्यप्रव233
आचार्यप्रवास अभि श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दान्य५१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org