Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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0 प्रवर्तक मुनि श्री फूलचन्द्र जी 'श्रमण' [जैन आगमों एवं प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान्, तत्वचिन्तक, भारतीय दर्शन के गहन अध्येता]
आगमों में आचार्य का स्वरूप और उसके प्रतीक आचार्य श्री आनन्द ऋषि
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यदि स्वीकृत संकीर्ण आग्रहों को छोड़कर देखा जाय तो जैनसंस्कृति की विराट सत्ता के समक्ष अनायास ही मस्तक झुक जाते हैं, क्योंकि इसकी मान्यताएं सर्वदा ससीम से असीम की ओर उन्मुख रही हैं, इसके समस्त स्वर व्यष्टि की परिधियों से मुक्त होकर समष्टि की आराधना करते रहे हैं। पञ्चपरमेष्ठी नमस्कार इसका साक्षी है। इस महामन्त्र के द्वारा दैवी भावनाओं की ओर यात्रा करने वाला साधक अपने महापथ की मङ्गलमयता के लिये सर्वप्रथम उनको नमस्कार करता है जिन्होंने त्याज्य को त्याग दिया है और संसार की दृष्टि में साधना-पथ पर जो अजेय है, उसे जीत लिया है। वह 'नमो अरिहन्ताणं' कह कर उनके प्रति अपनी अहंता को समर्पित कर त्याग और विजय का भाव ग्रहण करता है।
दूसरे नमस्कार में वह और भी ऊँचा उठ जाता है, तब वह उन्हें नमस्कार करता है जिन्होंने प्राप्तव्य को प्राप्त कर लिया है, जिनके लिये कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रहा, जो पूर्णकाम हो चुके हैं, सिद्ध, बुद्ध और आनन्द-स्वरूप हो चुके हैं, उन्हीं के समक्ष नत-मस्तक जैन साधक की वाणी 'नमो सिद्धाणं' कहकर आत्म-समर्पण करती है।
इन दो नमस्कृतियों के द्वारा लोकोत्तर महापुरुषों का पुण्यस्मरण करके अब वह लोक-यात्रा की पावनता के लिये प्रस्तुत होता है, वह उनकी चरण-शरण ग्रहण करता है जिनसे वह लोकोत्तर भूमियों की यात्रा करने की शक्ति एवं विधि प्राप्त कर सकता है। उनमें सर्वप्रथम वह उन्हें नमस्कार करता है, जिन्होंने लोकोत्तर महापुरुषों की वाणी के मर्म को समझा है, साथ ही अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के द्वारा आचरणीय साधना का उनसे भी आचरण करवाया है जो इस पुण्य भावना को लेकर उनकी शरण में आए हैं, ऐसे ही जो अरिहन्त तो नहीं, परन्तु अरिहन्तत्व की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं उन्हींके समक्ष जैनसाधक 'नमो आयरियाणं' कहकर नमस्कार करता हुआ अपने आपको उनके चरणों में समर्पित करता है।
आचार्य को नमस्कार करके जैन साधक 'नमो उवज्झायाण' कहकर उन वन्दनीय चरणों में भी नमस्कार करता है जो ज्ञान-रश्मियों को सर्वत्र प्रसारित करते रहते हैं और 'नमो लोए सव्वसाहूणं' के पावन स्वरों में वह उन समस्त जितेन्द्रिय, त्यागी एवं साधनाशील महापुरुषों के समक्ष भी नत-मस्तक हो जाता है, जिनका जीवन उसके लिये साधना-पथ का आदर्श है।
अरिहन्त, सिद्ध, उपाध्याय एवं साधु-समूह के मध्य में जिस महाशक्ति के दर्शन किए गए हैं, वह 'आचार्य' है। आचार्य का दायित्व अत्यन्त कठिन है, क्योंकि उसे चलना भी पड़ता है और चलाना भी पड़ता है, वह स्वयं ऊपर उठ रहा होता है, परन्तु वह उन्हें भी ऊपर उठाना नहीं भूलता है जो उसकी मङ्गलमयी शरण में आए हैं ऊपर उठने की महती आशा लेकर। अतः उसे दोहरे दायित्व का निर्वाह
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