Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन
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के बत्तीस आगमों का हिन्दी में अनुवाद किया तथा जैनधर्म की गहराई तक पहुँचाने वाले लगभग सत्तर ग्रन्थों की स्वतन्त्र रचना भी की। आपके लिये यह कहने में भी अतिशयोक्ति नहीं है कि आपकी सानी के किसी भी विद्वान ने साहित्य के भण्डार की इतनी अभिवृद्धि नहीं की।
किन्तु दुर्भाग्य से आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर आप केवल चार वर्ष तक ही समाज को अपनी सेवाओं से लाभान्वित कर स्वर्गवासी हो गए। इस दुखद घटना के अनन्तर ऋषिसम्प्रदाय के महामान्य मुनिराजों का भुसावल में सम्मेलन हआ तथा वहाँ पर सर्वसम्मति से स्वनामधन्य तपस्वीराज श्री देवजीऋषि जी महाराज को ऋषिसम्प्रदाय का आचार्य पद तथा मंगल मुर्ति पंडितरत्न श्री आनन्दऋषि जी महाराज को युवाचार्य पद प्रदान किया गया।
महामान्य चरितनायक अपनी अद्भुत प्रतिभा, विद्वत्ता, कार्यक्षमता एवं योग्यता के बल पर एक मुनि के स्थान पर युवाचार्य पद के अधिकारी बने तथा आपके कन्धों पर समाज-सेवा की जिम्मेदारी आ गई । वैसे तो इससे पूर्व भी आप प्रत्येक सेवा कार्य में असीम उत्साह एवं रुचि से भाग लिया करते थे। जिस समय से आप युवाचार्य बने, आपने आचार्य श्री देवजीऋषि जी महाराज के निर्देशानुसार अपनी सम्प्रदाय का मार्गदर्शन, मुनियों एवं महासतियों के आचार-विचार सम्बन्धी उच्चता एवं उनकी शिक्षादीक्षा की और पूर्ण ध्यान देते हए धुंआधार परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया। आपने अपने दायित्व को अद्भुत क्षमता एवं सफलतापूर्वक निभाया।
आचार्य पद की प्राप्ति--विक्रम सम्बत् १६६६ में युवाचार्य चरितनायक का चातुर्मास बाम्बोरी क्षेत्र में हुआ। चातुर्मास पूर्ण हर्षोल्लास सहित व्यतीत हुआ और आप तदनन्तर चाँदा (अहमदनगर) ग्राम । में पधारे। जिन दिनों आप चाँदा गाँव में विराजते हुए जनता को अपूर्व धर्म-लाभ प्रदान कर रहे थे, एक अत्यन्त दुम्बद सूचना आई पूज्य आचार्य श्री देवजीऋषि जी महाराज के देहावसान की। चारों ओर हर्ष के स्थान पर शोक का वातावरण छा गया, किन्तु होनी पर किसका वश चला है ?
आपके स्वर्गवासी हो जाने पर पाथर्डी श्री संघ के आग्रह पर पुनः ऋषिसम्प्रदाय के महामुनियों का सम्मिलन हुआ तथा सर्वसम्मति से विक्रम सम्बत् १६६६ में चरितनायक युवाचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया तथा आप प्रगति के शिखर पर एक कदम और चढ़े।
पांच सम्प्रदायों के अधिनायक (आचार्य)—यह तो बताया ही जा चुका है कि चरितनायक आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज में बहुमुखी प्रतिभा थी अर्थात् अनेक विलक्षण सद्गुण आपके मानस में शैशवावस्था से ही निवास किये हुए थे। उन्हीं के कारण आपको पहले युवाचार्य पद तथा बाद में ऋषिसम्प्रदाय का आचार्य पद प्रदान किया गया । किन्तु आपका उज्ज्वल भविष्य इतने से ही सन्तुष्ट नहीं था, वह आपको अभी अत्यधिक ऊँचाई की ओर ले जाने के लिये कटिबद्ध था।
विक्रम सम्वत् २००६ में ब्यावर में संघ की एकता को लेकर सन्त-मुनिराजों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें नौ सम्प्रदायों के संगठन का प्रयत्न किया जा रहा था । किन्तु यह विचार पूर्णतया सफल नहीं बना अर्थात् नौ सम्प्रदाय एकता के सूत्र में नहीं बँध सके, फिर भी पाँच सम्प्रदायों ने एकता का स्वागत किया तथा एक ही मूत्र में बँधने की योजना बनाई।
सम्मिलित होने वाले सम्प्रदायों के महामान्य मुनियों ने अपनी-अपनी पूर्व पदवियों का त्याग किया तथा ऋषिसम्प्रदाय के आचार्य हमारे चरितनायक ने भी स्वेच्छा एवं हर्ष से क्षण भर में ही अपने पद का त्याग कर दिया। किन्तु त्याग में कितनी चमत्कारिक शक्ति होती है, इसे समझ पाना अत्यन्त दुष्कर है। निश्चय ही त्याग जिम मात्रा में किया जाता है, उमसे अनेक गुनी उपलब्धि पुनः हो जाती है।
इमी नियम के अनुमार चरितनायक ने जब एक सम्प्रदाय के आचार्य पद का त्याग किया तो उन्हें
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