Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धावान प्राआवाद
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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(१२) श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन छात्रालय, राणावास (१३) श्री रत्न जैन श्राविकाश्रम, श्रीरामपुर (१४) श्री तिलोक जैन पारमार्थिक संस्था, घोड़नदी (पूना) (१५) श्री वर्धमान जैन सिद्धान्तशाला, फरीदकोट (पंजाब) (१६) श्री जैन शाला, रालेगांव (१७) श्री जैन विद्याशाला, हिंगणघाट . (१८) श्री जैन विद्यालय, बडनेरा (१६) श्री जैन विद्यालय, बामोरी (२०) श्री जैन शाला, धींगार (अहमदनगर) (२१) श्री जैन पाठशाला, मिरी (दीक्षाभूमि)
इनके अतिरिक्त श्री श्रमणोपासक जैन हायर सैकेण्डरी स्कूल, सदर बाजार देहली, श्री जैन हायर सैकेण्डरी स्कूल चांदनी चौक, देहली में आपकी ही प्रेरणा से धार्मिक एवं प्राकृत भाषा के शिक्षण की व्यवस्था चालू की गई। अमृतसर में पूज्य सोहनलाल जी महाराज की स्मृति में स्थापित विद्यालय जो अर्थव्यवस्था की गड़बड़ी से अस्थिर-सा हो रहा था, आपथी की प्रेरणा से उसे भी पुनः नवजीवन दिया गया और उसमें अध्ययन कार्य व्यवस्थित चालू हुआ।
प्रश्न उठ सकता है कि आज के युग में तो बड़ी-बड़ी युनिवसिटियाँ, कॉलेज एवं स्कूल शहरों तथा गाँवों में चल रहे हैं, फिर कुछेक शालाओं के न होने से भी कौन-सी न्यूनता शिक्षा-प्राप्ति में आ पाती ?
, इस प्रश्न का समाधान यही है कि शहर-शहर एवं गाँव-गाँव में राजकीय शिक्षाशालाएँ होने से पुस्तकीय शिक्षा तो फिर भी काफी मात्रा में प्राप्त की जा सकती है, किन्तु उसमें संस्कारों की सौरभ नहीं आ पाती, जिमसे मानव का चारित्रिक विकास हो सके।
और उस संस्कार-रहित शिक्षा-प्राप्त व्यक्ति में यद्यपि भौतिक सुखों के साधन जुटा लेने की क्षमता तो आ जाती है पर अपनी आत्मा को उन्नत बनाने की क्षमता नहीं आ पाती । वह स्वगुणदर्शी और परदोषदर्शी तो बन जाता है किन्तु परगुणदर्शी तथा स्वदोषदर्शी नहीं बनने पाता।
इसीलिये दीर्घदृष्टि चरितनायक ने शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक संस्कारों का सुमेल करने के लिये अनेक शालाओं की स्थापना करवाई तथा आज भी उन्हें सफल बनाने के लिये सतत प्रयत्नशील हैं।
बढ़ते चरण "होनहार बिरवान के होत चीकने पात"---जन-जन के मुंह से सुनी जा सकने वाली यह कहावत अपने आपमें एक ज्वलन्त सत्य छिपाए हुए है, जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता ।
संयम ग्रहण करने के पश्चात् आपने अपने पूज्यपाद गुरुदेव की छत्रछाया में रहकर मां सरस्वती की अनवरत उपासना की तथा ज्ञान के अमर-कोष को प्राप्त किया। उसके पश्चात् दत्तचित्त से तपोमय संयमसाधना प्रारम्भ कर दी, किन्तु प्रगति की सर्वोच्च श्रेणी आपकी प्रतीक्षा कर रही थी, अतः शनैः शनैः आपके पावन चरण उस ओर बढ़ चले।
ऋषिसम्प्रदाय-ऋषिसम्प्रदाय के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि इस सम्प्रदाय में कई वर्षों तक आचार्यपद का स्थान रिक्त रहा, किन्तु जिस समय अजमेर में स्थानकवासी जैन साधु-सम्मेलन हुआ, ऋषिसम्प्रदाय ने अपनी विशृंखलित शक्ति का पुनर्गठन करके शास्त्रोद्धारक, शास्त्रविशारद, चारित्रचूडामणि श्रद्धेय श्री अमोलकऋषि जी महाराज को सम्प्रदाय के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।
युवाचार्य-आचार्यप्रवर श्री अमोलकऋषि जी महाराज ने श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा
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