Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभि श्रीआनन्दमश्रीआनन्द अन्न
३२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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चारों ओर झंड-के-झुंड खड़े हुए व्यक्ति मानों आसमान से गिर पड़े हों ऐसा अनुभव करने लगे, यह देखकर कि आचार्यदेव के मंगल-पाठ तथा अन्य स्तोत्र आदि सुनाते ही डॉ० साहब अपने आपको स्वस्थ अनुभव करने लगे तथा उसके बाद भी अल्पकाल में ही पूर्ण स्वस्थ हो गए।
इन घटनाओं को बताने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि उत्कृष्ट साधना चमत्कारों की प्रसवभूमि है । सच्चा साधक कभी भी चमत्कार पैदा करने के लिए साधना नहीं करता । उसको साधना केवल अपने कर्मों का क्षय कर आत्मा को संसार-मुक्त करने के लिये होती है किन्तु जिस प्रकार किसान अनाज पैदा करता है, किन्तु घास उसके अनाज के साथ स्वयं ही प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिये साधना करने वाले साधक का जीवन स्वयं ही चमत्कारपूर्ण बन जाता है। एक उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है।
एक बार एक शिष्य अपने गुरु के पास हर्ष-विह्वल होकर दौड़ा-दौड़ा आया और बोला-"गुरुदेव मैंने बारह वर्ष तक घोर तपस्या की, उसके परिणामस्वरूप मुझे जल पर चलने की चमत्कार पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो गई है।"
गुरुजी शिष्य की बात सुनकर झंझलाहटपूर्वक बोले-"मुर्ख ! यह कार्य तो दो-चार पैसे देने पर मल्लाह ही कर देता । क्या तू केवल इस निरर्थक सिद्धि के लिये बारह वर्ष तक घोर तपस्या करता रहा? वह तो तुझ यों ही मिल जाती अगर तू अपनी आत्मा का उद्धार करने का संकल्प करके सच्ची साधना अथवा तपस्या करता।"
उदाहरण से स्पष्ट है कि महापुरुष अपनी साधना से चमत्कारों को जन्म देने की इच्छा का घोर तिरस्कार करते हैं। किन्तु उनकी अनिच्छा के बावजूद भी उनकी साधना चमत्कारपूर्ण बन जाती है, जैसी कि हमारे बालब्रह्मचारी श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज की है। पूर्ण निर्दोष एवं पावन साधना ने ही आपका जीवन चमत्कारिक बना दिया है।
शिष्यवृन्द स्वनामधन्य जैनधर्मदिवाकर परमश्रद्धेय पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का संक्षिप्त जीवन-परिचय दिया जा चुका है। यद्यपि आपके महान् व्यक्तित्व, त्याग, वैराग्य, तप, शांति, सहिष्णुता एवं उत्कष्ट संयम-साधना आदि सभी के विषय में जो कुछ भी लिखा जाय, पूर्ण नहीं कहला सकता, फिर भी श्रद्धालु भक्तों के लिये जो कुछ लिखा जा सके काफी हो सकता है। कहा भी है
सौ बोरी धान की, एक मुट्ठी बानगी। __ अर्थात् एक मुट्ठी अनाज को देखकर भी व्यक्ति सौ बोरियों में किस प्रकार का धान है, यह जान सकता है और इसीप्रकार आचार्यसम्राट की महानता के विषय में थोड़ा कहने पर भी बुद्धिमान पाठक आपके जीवन की विशेषताओं को सहज ही समझ सकते हैं। एक बात और भी है कि आचार्य श्री जी की विशेषताओं के विषय में बताते हुए उनकी शिष्य-परम्परा के बारे में बताना भी आवश्यक है। अतः उस विषय में आगे लिखा जा रहा है । आपके प्रथम शिष्य श्री हर्षऋषि जी महाराज हुए।
(१) श्री हर्षऋषि जी महाराज-आपने वि० सं० १९८१ में चाँदा नगर में भागवती दीक्षा ग्रहण की थी । आप वर्तमान में जैनदिवाकर श्री चौथमल जी महाराज के संतों की सेवा में विचरण करते हैं।
(२) श्री प्रेमऋषि जी महाराज-आपका जन्म कच्छ प्रदेश के अन्तर्गत 'जरखौ बन्दर' में हुआ था तथा आपका पूर्व नाम श्री प्रेमजीभाई था। बड़े होने पर आप व्यापार के सिलसिले में खानदेश के अमलनेर स्थान पर आए। वहाँ पर आपने एक जापानी कम्पनी में सविस प्रारम्भ की तथा कई वर्षों वहाँ पर कार्य किया। कदाचित् यह सिलसिला चलता ही रहता, किन्तु लगभग पचपन-छप्पन वर्ष की आयु
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