Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आसान व अभिन्दन आनन्द श्री आनन्दप्रस
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अभिनंदन ह
१६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पूज्यपाद के पदार्पण से चिंचोड़ी की धर्मपरायण जनता हर्षविभोर हो गई ।
महामान्य मुनिराज के आगमन की सूचना पाकर हुलासाबाई भी सपरिवार उनके दर्शनार्थं गई । बालक नेमिचन्द्र तो गुरुदेव के दर्शन कर अवाक् रह गए। उनके सुडौल शरीर, गौरवान्वित मस्तक, गौरवर्ण एवं भव्य आकृति को देखकर गद्गद होते हुए चरणों में झुक गए। ऋषिराज ने भी अत्यन्त स्नेहभाव से इनकी पीठ पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और उसके पश्चात् सम्पूर्ण परिवार घर लौटा ।
कहा जा चुका है कि हुलासाबाई अत्यन्त धर्मशीला आदर्श नारी थीं । उन्होंने अपने पुत्र नेमिचन्द्र से कहा - "बेटा ! महामहिम गुरुदेव के रूप में हमारे लिये तो घर बैठे ही गंगा आ गई है। इस सुअवसर से लाभ उठाना चाहिए। तुम वैसे ही कुशाग्रबुद्धि हो अतः मैं चाहती हूँ कि तुम गुरु महाराज से सामायिक, प्रतिक्रमण सीख लो ।"
'अंधा क्या चाहे, दो आँखें' यह कहावत चरितार्थ हो गई। माता की प्रेरणा पाते ही मानो नेमिचन्द्र जी को मनमांगी मुराद मिली। वे अविलम्ब मुनिश्री के समीप पहुँचे और उनसे ज्ञान-दान देने की विनम्र प्रार्थना की। इन्कार करने का सवाल ही नहीं था अतः हार्दिक प्रसन्नता के साथ गुरुदेव ने इसे स्वीकार किया ।
नेमिचन्द्र जी ने पहले सामायिक सूत्र कंठस्थ किया, तत्पश्चात् श्रावक प्रतिक्रमण सीखना प्रारम्भ कर दिया । किन्तु वह पूरा नहीं हो पाया और ऋषिवर्य श्री रत्नमुनि जी महाराज चातुर्मास काल समीप आ जाने से अहमदनगर के निकटवर्ती 'मिरी' नामक ग्राम की ओर पधार गए। चातुर्मास प्रारम्भ होने पर अपना प्रतिक्रमण पूरा करने के लिये नेमिचन्द्र जी माता से आज्ञा लेकर 'मिरी' आ गए तथा अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । चातुर्मास के काल में आपने प्रतिक्रमण के अनन्तर पच्चीस बोल एवं सड़सठ बोल के थोड़े आदि याद किये, अनेक धार्मिक स्तवन सीखे तथा प्रश्नोत्तरों के द्वारा शास्त्रीय तथ्यों का ज्ञान भी प्राप्त किया । धार्मिक वातावरण में रहने के कारण तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने से आपकी वैराग्यभावना भी दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक पुष्ट होती चली गई और आपने एक दिन अशरण भावना पर
विवेचन करते हुए गुरुदेव के मुखारविन्द से प्रवचन में एक गाथा भी सुनी
असंख्यं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु णत्थि ताणं । एवं विद्याणाहि जणे पत्ते किं नु विहिंसा अजया गर्हिति ।
- यह जीवन असंस्कृत है । उम्र का कच्चा धागा टूट जाने पर पुनः नहीं जोड़ा जा सकता, अतः प्रमाद नहीं करना चाहिये । वृद्धावस्था को प्राप्त हुए प्राणियों को शरण देने वाला कोई नहीं है, क्योंकि मृत्यु से जीव को बचाने में कोई समर्थ नहीं है । इसलिये प्रत्येक प्राणी को यह भली-भाँति समझ लेना चाहिये कि प्रमादी, अविवेकी एवं हिंसक प्रवृत्ति वाले अजितेन्द्रिय पुरुष अन्त में आशय यही है कि उन्हें कोई भी शरण नहीं दे सकेगा और वे अपने कुकर्मों के फलस्वरूप अनन्त काल तक संसार - परिभ्रमण करेंगे ।
किसकी शरण लेंगे ?
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इस गाथा को सुनने के पश्चात् तो नेमिचन्द्र जी का मानस आन्दोलित हो उठा और उन्होंने गुरुदेव से निवेदन कर दिया कि वे उन्हें दीक्षित कर के अपने चरणों में स्थान दें ।
उच्चकोटि के ज्ञानी पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी महाराज ने नेमिचन्द्र जी को समझाने का प्रयत्न करते हुए सस्नेह कहा
" वत्स ! तुम अभी केवल तेरह वर्ष के छोटे वालक हो । संयम के कण्टकाकीर्ण एवं तलवार की धार के सदृश कठिन मार्ग पर कैसे चल सकते हो ? अभी तुम केवल धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति का ही प्रयत्न करो ।"
किन्तु दृढ़ संकल्प के धनी नेमिचन्द्र संयम की कठिनाइयों से भयभीत होने वाले कहाँ थे ? विनम्र
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