Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन
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प्रेरणा से अन्य विद्वानों के द्वारा साहित्य का निर्माण कराके सत्पथप्रदर्शक ज्ञान-कोष की जो अभिवृद्धि की है, वह सराहनीय है। विशेषकर अनेक महान् आत्माओं के जीवन-चरित्र का निर्माण करवाकर आपने मानवमात्र को सही मार्ग-दिशा बताने का प्रयास किया है। हमारे आगम कहते हैं
जहा सुइ ससुत्ता पडियाविन विणस्सइ ।
तहा जीवो ससुत्तो संसारे न परियट्टइ ॥ अर्थात्-जिस प्रकार धागे वाली सुई सहसा खोती नहीं और अगर खो जाती है तो पुनः उसके मिलने की सम्भावना रहती है, उसी प्रकार जिस आत्मा में ज्ञान होता है, वह भटक नहीं पाती और कभी भटक जाती है तो उसके पुनः संभलने की आशा रहती है।
ज्ञान के इस महत्त्व को ध्यान में रखकर ही आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने ज्ञान के अक्षय भंडार को भरने का सदा प्रयत्न किया है तथा अब भी करते चले जा रहे हैं।
संस्थाएँ : साहित्य-साधना का क्रियात्मक पहलू पाठक जानते होंगे कि किसी भी दुर्लभ वस्तु के भंडार तक कोई भी व्यक्ति एकदम नहीं पहुँच सकता। केवल भौतिक सुख प्रदान करने वाले हीरे, मोती तथा अन्य बहुमूल्य रत्नों के पिटारे अथवा तिजोरियों तक पहुँचने के लिये भी व्यक्ति को योग्यता हासिल करनी पड़ती है और भवन के गुप्त स्थानों तक जाने वाले मार्गों की जानकारी तथा अनेक तालों की कुंजियों का प्रयोग करना सीखना पड़ता है। तो फिर सदा के लिये अक्षय सुख प्रदान करने वाले ज्ञान-कोष तक भी मनुष्य पूर्वापेक्षित योग्यता और ज्ञान के अभाव में कैसे पहुँच सकता है ? उस कोष या भंडार तक पहुँचने के लिये भी तो उसे क्रमशः छोटी और बड़ी शालाओं में जाकर अपनी योग्यता बढ़ानी पड़ती है तथा उस कोष में रहे हुए आत्मा को संसार-मुक्त करने वाले अनुपम सूत्रों को समझने का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करना होता है।।
यह बात हमारे आचार्य श्री जी की नजरों से ओझल नहीं रही और इसीलिये आपने अनेक स्थानों पर धार्मिक संस्थाओं एवं शालाओं का निर्माण करवाया है ताकि मुमुक्ष अथवा जिज्ञासू व्यक्ति क्रमशः विभिन्न श्रेणियाँ पार करते हुए सम्यक् ज्ञान के अमृतमय कोष को प्राप्त कर सकें तथा उससे समुचित लाभ हासिल कर सकें। ऐसी मुख्य संस्थाओं व शालाओं में से कुछ का परिचय देना आवश्यक है। अतः वह संक्षिप्त रूप से दिया जा रहा है
(१) श्री रत्न जैन पुस्तकालय, पाथर्डी-स्वनामधन्य गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी महाराज के अल्लीपूर (महाराष्ट्र) में स्वर्गवासी होने के पश्चात् ही उनकी पूण्यस्मति में चरितनायक श्री आनन्दऋषि जी महाराज की प्रेरणा से उक्त पुस्तकालय की स्थापना की गई। जिसमें हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, फारसी, उर्द, संस्कृत, प्राकृत एवं मराठी आदि विभिन्न भाषाओं की लगभग बारह हजार उत्तमोत्तम पुस्तकें हैं तथा दो हजार के करीब हस्तलिखित अमुल्य ग्रन्थ भी हैं। इसके प्रवन्धकों ने धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक शिक्षार्थियों के लिये भी उपयुक्त साहित्य के प्रकाशन की समुचित व्यवस्था की है।
इस प्रकार 'श्री रत्न जैन पुस्तकालय' लगभग सैंतालीस वर्षों से समाज की सेवा करता चला आ रहा है और इसका सम्पूर्ण श्रेय हमारे प्रधानाचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को है।
(२) जैनधर्म प्रचारक संस्था, नागपुर-यह संस्था भी गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी महाराज की स्मृति में श्रद्धेय आचार्य श्री जी महाराज की प्रेरणा एवं प्रयत्न से स्थापित की गई है। इस संस्था का उद्देश्य रहा है-जैनेतर समाज में धर्म का प्रचार व प्रसार हो तथा समाज के व्यक्तियों का आत्मोत्थान हो सके ऐसी धार्मिक पुस्तकों को प्रकाशित करना तथा अल्पमूल्य में उन्हें वितरित करना, जिससे अधिक-सेअधिक व्यक्ति उनसे लाभ उठा सकें। जैनधर्म के विरोधियों के भ्रम का निवारण करना भी इसका एक मुख्य उद्देश्य रहा है, जिसके लिये पर्याप्त सामग्री प्रकाशित कर यह सफलता प्राप्त कर सकी है।
RAA
ANNआचार्यप्रनरभिमान
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