Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर श्रीआनन्दशन
आचार्यप्रवभिन श्रीआनन्दग्रन्थ
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व और कृतित्व
के श्लोक सुरीले स्वर में फरमाने लगते तो अजैन लोग आनन्दविभोर हो उठते थे। प्रवचन-मण्डप श्रोताओं से सदा भरा रहता था। इनमें भी अजनों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक रहती थी। सबकी रमना पर यही स्वर नाच रहे थे---"आचार्यसम्राट पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज सभी मतों के शास्त्रीय तथ्य सुनाते हैं, बड़े ऊँचे विद्वान और तेजस्वी सन्त हैं।"
५. शक्तिमान-शक्ति शब्द बल, सामर्थ्य, क्षमता और प्रभाव अर्थों का बोधक है। शक्ति तीन तरह की होती है-१. मानसिक, २. वाचनिक और ३. शारीरिक । मन की वृनियाँ जब पूर्णतया संगठित हो जाती हैं, तब व्यक्ति में एक शक्ति पैदा हो जाती है, इस शक्ति को मानसिक शक्ति कहते हैं। वचन का ओजस्वी, तेजस्वी, और सर्वप्रिय होना तथा उसका निष्फल न जाना ही वाचनिक शक्ति है। शरीर का निर्दोष, स्वस्थ, सुन्दर और सबल होना शारीरिक शक्ति है। इन विविध शक्तियों में मानसिक शक्ति प्रबल और मुख्य है । मानसिक शक्ति के प्रभाव से चर्मचक्षु बन्द कर लेने पर अन्दर के नेत्र खुल जाते हैं । ऐसी शक्ति वाला व्यक्ति हजारों मील दूर पड़ी वस्तु को ऐसे देख लेता है जैसे वह बिलकुल पास में ही पड़ी हो। जैनधर्मदिवाकर आचार्यसम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने एक बार इसी मानसिक शक्ति के आधार पर लुधियाना के क्रिश्चियन मैमोरियल हॉस्पिटल में बैठे हुए कनडा में बनी एक कोठी का सारा विवरण ऐसे बता दिया था जैसे वह कोठी बिलकुल उनकी आँखों के सामने हो, जबकि कोठी और लुधियाना के हॉस्पिटल का फासला दस हजार मील का था। यह सब मानसिक शक्ति के ही चमत्कार होते हैं। हमारे श्रद्धेय पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज भी अपने पूर्वाचार्य पूज्यपाद श्री आत्माराम जी महाराज की भाँति मानसिक शक्ति के धारक महापुरुष हैं। इनकी मानसिक शक्ति के चमत्कार भी अनेकों उपलब्ध होते हैं। उदाहरणार्थ, केवल एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ।
आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज कुछ मुनिराजों के साथ राजस्थान के एक गाँव में विराजमान थे । वहाँ पर किसी आवश्यक कार्य के लिए एक श्रावक को बुलाने की स्थिति बन गई । गाँव में कोई ऐसा साधन नहीं था जिससे श्रावक को तत्काल सूचित किया जा सके। अतः सभी साथी सन्त असमंजस में थे। सन्तों को असमंजस में पड़े देखकर आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए फरमाया "मेरा मन कहता है, जिस श्रावक की यहाँ आवश्यकता है, वह स्वयं ही सायं समय अपने पास पहुँच जायगा।" सभी साथी सन्त विस्मित थे कि बिना सूचित किए इस अनजाने गाँव में वह श्रावक कैसे आ सकता है ? परन्तु सायंकाल के समय सम्मुख आते हुए उस श्रावक को निहार कर सभी सन्त आश्चर्यचकित रह गए।
आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज की मानसिक शक्ति बड़ी ही विलक्षण है। इनके जीवन में मानसिक शक्ति के अनेकों दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। अधिक जानकारी के अभिलाषियों को मेरी लिखी हई "श्रमण-संस्कृति के प्रतीक, आचार्य श्री आनन्दऋषि" नामक पुस्तक का "अध्यात्म-चमत्कार" यह अध्याय देख लेना चाहिए। मानसिक शक्ति के अतिरिक्त हमारे आचार्यश्री वाचनिक और शारीरिक शक्ति के भी धनी हैं। इनकी वाणी में ऐसा विलक्षण माधुर्य और प्रभाव है कि विरोधी-से-विरोधी व्यक्ति भी इनके पुनीत चरणों का दास बन जाता है तथा वृद्धावस्था होने पर भी आचार्य श्री एक घुमक्कड़ सन्त हैं। हजारों मील की पदयात्रा करना और घर-घर जाकर अहिंसा, सत्य का पावन अमृत बांटकर जनता-जनार्दन की सेवा करना शारीरिक शक्ति का ही चमत्कार मानता हूँ।
श्री स्थानाङ्गसुत्र के अनुसार मानसिक, वाचनिक और शारीरिक शक्तियों का धारक महापुरुष आचार्य होता है। शक्तिहीन नरेश जैसे अपने साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख सकता, वैसे शक्तिशून्य आचार्य भी अपने संघ को व्यवस्थित एवं अनुशासित नहीं रख सकता। अतः आचार्य का शक्तिशाली होना परमावश्यक है। हमारा स्थानकवासी समाज बड़ा भाग्यशाली और पुण्यशाली समाज है, जिसके सिर पर एक शक्तिशाली आचार्य का वरद हस्त टिका हआ है।
गया रास
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