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卐 लिए उठ्', वचन से कहना कि मैं मारने के लिए उठता हूं। और मारने आदि के लिए कार्य है
से हलन-चलन- ये तीन कायिकी क्रिया हैं। मन में चिन्तन करना 'मैं दुःख दूं' यह मानसिक पारितापिकी क्रिया है। आपको दुःख दूं- ऐसा कहना वाचनिक पारितापिकी क्रिया है। हाथ आदि के द्वारा ताड़न करने से दुःख देना कायिक पारितापिकी क्रिया है। मैं प्राणों का 卐 卐 वियोग करूं- ऐसा चिन्तन करना मानसिक प्राणातिपात है। मैं घात करता हूं- ऐसा कहना वाचनिक प्राणातिपात है। शरीर से हिंसक व्यापार करना कायिक प्राणातिपात है। यह किसी
में क्रोध के निमित्त से, किसी में मान के निमित्त से, किसी में माया के निमित्त से और किसी 卐 में लोभ के निमित्त से होता है। क्रोध आदि के वश में होकर शस्त्र ग्रहण करना क्रोधादि निमित्त से होने वाला काय-परिस्पन्द है। क्रोध आदि के निमित्त से दूसरों को दुःख देना अथवा प्राणों का घात करना क्रोध आदि से होता है। अथवा स्पर्शन आदि इन्द्रियों के निमित्त से प्रद्वेष होता है। इन्द्रिय-सुख के लिए फल, पत्र, फूल आदि तोड़ने के लिए उसके साधन ॐ ग्रहण किये जाते हैं। इन्द्रिय-सुख के लिए ही विषयों को स्वीकार किया जाता है, शरीर से 卐 卐 हलन-चलन किया जाता है, गाढ़ आलिंगन तथा नख-द्वारा नोचना आदि से दूसरों को संताप दिया जाता है। अथवा मांस आदि के लिये प्राणी के प्राणों का घात किया जाता है।
इस प्रकार प्राद्वेषिकी क्रिया, आधिकरणिकी क्रिया, कायिकी क्रिया, पारितापिकी 卐 क्रिया और प्राणातिपातिकी क्रिया- ये मन, वचन, काय, क्रोध, मान, माया, लोभ और ॥ 卐 स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र से होती हैं।
शङ्का- इन क्रियाओं से होने वाला कर्मबन्ध समान होता है या हीनाधिक होता है?
समाधान- यदि कायिकी क्रिया और प्रद्वेष समान होता है तो समान कर्मबन्ध होता है। म क्योंकि कारण में समानता होने से कार्य रूप बन्ध में भी समानता होती है, अन्यथा समानता ॥ 卐 नहीं होती। तीव्र, मध्य या मन्दरूप परिणामों से तीव्र, मध्य या मन्द बन्ध होता है।
(64) पादोसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता? मंडियपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- जीवपादोसिया य अजीवपादोसिया य।
__ (व्या. प्र. 3/3/5) [प्र.] भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है?
[उ.] मण्डितपुत्र ! प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है:जीव-प्राद्वेषिकी क्रिया और अजीव-प्राद्वेषिकी क्रिया।
अहिंसा-विश्वकोश/21)