Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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स्थविरावली
मूलम्
गुणरयणुज्ज्वलकडयं, सीलसुगंधि तवमंडिउद्देसं ।
सुयबारसगसिहरं, संघमहामंदरं वंदे ॥ १८॥
छायागुणरत्नोज्ज्वलकटकं, शील सुगन्धि तपोमण्डिताद्देशम् । श्रुतद्वादशाङ्गशिखरं, सङ्घमहामन्दरं वन्दे ॥ १८ ॥
अर्थःमैं गुणरूप रत्नमय स्वच्छ मध्य भागवाले तथा शील (सदाचार) रूप सुवास (खुसवू ) से सुवासित, और तपस्या से शोभित, और उद्देश (अवयव ) वाले द्वादशाङ्गशास्त्र वा शास्त्रके द्वादशाङ्गरूप शिखरवाले सङ्घरूपवडे सुमेरु पर्वतको वंदता हूं ॥ १८॥
मूलम्
नगर रह चक्क पउमे, चंदे सूरे समुद्द मेरुम्मि ।
जो उवमिज्जइ सययं, तं संघ गुणायरं वंदे ॥ १९ ॥
छायानगररथचक्रपझे, चन्द्रे मूरे समुद्रे मेरौ । य उपमीयते सततं, तं सङ्घ गुणाकरं वन्दे ॥ १९ ॥
अर्थःजो नगर, रथ, चक्र, कमल, चन्द्र, सूर्य, समुद्र और सुमेरु में तुलित किया जाता है अर्थात् नगरादियों की उपमा जिसमें दी जाती है उस गुणाकर (गुणकीखान) संघको मैं सदा वन्दन करता हूं इसमें समुद्र और संघ इन दोनो शब्दमें प्राकृत होनेके कारण विभक्ति लोप हुआ है ॥ १९ ॥
શ્રી નન્દી સૂત્ર