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आध्यात्मिक आलोक
41 वैसे ही हिंसा आदि दुर्वासना की आग को भी नियन्त्रित रखना आध्यात्मिक जीवन रक्षण के लिए आवश्यक है।
. संसार परिवर्तनशील है, यहाँ हर क्षण परिवर्तन होता रहता है । रीति-रिवाज भी समय-समय पर बदलते रहते हैं, रहे हैं, और रहेंगे । मगर धर्म के सिद्धान्तों में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । सत्य, अहिंसा आदि धर्म की बातें सदा ऐसे ही स्थिर रहेंगी । उन पर देश और काल का कोई प्रभाव नहीं पडता । ऋषि मुनियों का अनुभव जन्य ज्ञान जो शास्त्रों में संकलित है, आज हम सब के लिए वह धर्म ग्रहण में परम सहायक बना हुआ है । उसके आधार पर हम तप-त्याग रूपी साधना में प्रवृत्त होते और उसे जीवन निर्माण में उपयोगी मानते हैं । क्योंकि त्यागियों का आचरण साधना पथ का संबल माना जाता है ।
आपके सामने तपःपूत पूर्वाचार्यों के बहुत से उदाहरण हैं, जिनमें एक पूर्ण त्यागमय जीवन व्यतीत करने वाले महामुनि यशोभद्र के शिष्य संभूति-विजय भी हैं, उनके समय में जैन संप्रदाय की श्वेताम्बर तथा दिगम्बर शाखाएं नहीं थी, आज की तरह विभिन्न फिरकाबन्दियों की तो बात ही क्या ? आपके उत्तराधिकारी भद्रबाहु स्वामी हुए । छात्र या शिष्य भी दो प्रकार के होते हैं, एक जल में घृत-बिन्दु सम, दूसरा तेल बिन्दु सम । भद्रबाहु जल में तेल-बिन्दु के समान प्रसरणशील बुद्धि वाले थे । भद्रबाहु को उत्तराधिकारी बनाने से उनके दूसरे शिष्य वराहमिहिर को बड़ी ईर्ष्या हुई क्योंकि वे अधजल गगरी के सद्दश्य थे और भद्रबाहु भरे घड़े की तरह गंभीर । ईर्ष्या वश वराहमिहिर साधु मण्डली से अलग हो गए और ज्योतिष शास्त्र के सहारे अपना प्रभाव विस्तार करते हुए पाटलिपुत्र के नये राजा नन्द के राजपुरोहित नियुक्त हो गए। इस प्रकार क्रोध ने एक तपोधनी तपस्वी को सांसारिक उलझन में उलझा दिया ।
सौभाग्यवश राजा को एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ । वराहमिहिर ने बालक की जन्म कुण्डली बनाकर उसे शतायु एवं पुण्यात्मा बतलाया । राज दरबार में सभी लोग मगल कामना के लिए पहुंचे। महामुनि भद्रबाहु भी पाटलिपुत्र के पास ही कहीं अपनी साधना में लगे हुए थे किन्तु वे इस खुशी के अवसर पर राजदरबार में नहीं गए। इस प्रसंग को पाकर वराहमिहिर ने राजा को भद्रबाहु के विरुद्ध भड़काया जिससे राजा भी उन पर रुष्ट हो गए । महामन्त्री शकटार ने भद्रबाहु के न आने का हेतु बतलाते हुए राजा से निवेदन किया कि गुरुदेव कीट से कुंजर तक सभी प्राणियों पर दया करने वाले हैं फिर वे आप से भला द्वेष कैसे रखेगे ? निश्चय ही उनके न आने का कोई दूसरा ही कारण है । मगर राजा इससे संतुष्ट नहीं हुआ।