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आध्यात्मिक आलोक . तमोगुणी या सरागी देव की वंदना से बचना चाहिए । हमें किसी का तिरस्कार नहीं करना है किन्तु वस्तु का सही रूप तो देखना ही होगा । यही सुदृष्टि वाले का काम है । यों तो सम्यग्दृष्टि कीट-पतंगों से भी मित्रवत् व्यवहार करता है, फिर किसी देवन्देवी के तिरस्कार की तो बात ही क्या ? मगर सरागी देव को अपना मित्र समझेगा, आराध्य देव नहीं। .
इस प्रकार धर्म-अधर्म और पूज्य-अपूज्य का उचित विवेक रखकर चलना सम्यग्दृष्टिपन है । पाप नहीं छोड़ने की स्थिति में भी उसे बुरा मानना और छोड़ने की भावना रखना साधना की प्रथम श्रेणी है ।
२. देश विरति या अपूर्ण त्याग-जो श्रमण धर्म को ग्रहण कर पूर्ण त्याग का जीवन नहीं बिता सकते, वे देश विरति साधना को ग्रहण करते हैं, इसमें पापों की मर्यादा बांधी जाती है । सम्पूर्ण त्याग की असमर्थता में आंशिक त्याग कर जीवन को साधना के अभिमुख करना, देश विरति का लक्ष्य है।
३. सम्पूर्ण त्याग - पूर्ण त्याग का मार्ग महा कठिन साधना का मार्ग है । इस पर चलना असि पर चलने के समान दुष्कर है इस साधना में पूर्ण पौरुष की अपेक्षा रहती है । संसार में सब कुछ है किन्तु उसको ही वह मिलता है, जिसमें उसके ग्रहण की क्षमता होती है । रत्नाकर के पास पहुँच कर भी मनुष्य अपनी शक्ति से अधिक लाभ नहीं उठा सकता । तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है -
कर्मकमण्डलु कर लिए तुलसी जहं तहं जात ।
सागर सरिता कूप जल, अधिक न बूंद समात ॥ यह निश्चित है कि जितना अन्तःकरण में बल होगा, उतना ही आत्मिक गुणों को मानव अपना सकेगा।
यह सच है कि सांसारिक वासना का सर्वथा त्याग कोई आसान और सरल बात नहीं है । बड़े-बड़े मजबूत मन वाले भी मोह के वशीभूत होकर हार जाते हैं। संसार में प्राणीमात्र को वासना ही भटकाती है। यह कभी रुलाती और कभी हंसाती है । प्रतिक्षण चंचल बनाए रहती है । मगर इसका यह मतलब नहीं कि वासना की भट्टी में मन को अहर्निश जलने के लिए छोड़ दिया जाय | आग हर घर में जलाई जाती है । और कम से कम दो बार उसकी पूजा होती है किन्तु अत्यावश्यक वस्तु होते हुए भी वह गफलत से इधर-उधर खुले स्थान में नहीं छोड़ी जाती । अगर उसे यों खुली छोड़ दें तो उसका परिणाम घातक सिद्ध होगा । अतएर सुविधा भी रहे और घातक परिणाम भी न हो इसके लिए आग को नियन्त्रित रखना पड़ता है ।