Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Chaturvijay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOSOBOBOSCOBEOSCOBEOBEOBEOX09 ॥ अर्हम् ॥ श्रा आत्मानन्द-जैन-ग्रन्थलमाला-रक्षम् ८२ नियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्युपेत बृहत् कल्पसूत्रम् AAAAAAAAAA प्रथमो विभागः पीठिका ) ANTARWASimission OBEJEOCOBLOXORCOZC0303COCOBEOBOSCOBEOSE ज : प्रकाशक : श्री आत्मानन्द जन सभा खारगेट, भावनगर (सौ.) BROSKOSCOSCOSOBOKOBRO3603 are Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मानन्द- जैनग्रन्थरत्नमालाया द्व्यशीतितमं रलम् (८२ ) स्थविर- आर्यभद्रबाहुस्वामिप्रणीतस्वोपज्ञनिर्युक्त्युपेतं बृहत कल्पसूत्रम् । श्री सङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसङ्कलित भाष्योपबृंहितम् । जैनागम-प्रकरणाद्यनेकग्रन्थातिगूढार्थप्रकटनप्रौढटीकाविधानसमुपलब्ध 'समर्थटीकाकारे 'तिख्यातिभिः श्रीमद्भिर्मलयगिरिसूरिभिः प्रारब्धया वृद्धपोशालिकतपागच्छीयैः श्रीक्षेमकीर्त्याचार्यैः पूर्णीकृतया च वृत्त्या समलङ्कृतम् । तस्यायं पीटिकारूपः प्रथमोंऽशः । तत्सम्पादकौ सकलागमपरमार्थप्रपञ्चप्रवीण-वृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्यन्यायाम्भोनिधि - श्रीमद्विजयानन्दसूरीश (प्रसिद्धनाम श्री आत्मारामजी महाराज) शिष्यरत्नप्रवर्त्तक- श्रीमत्कान्तिविजयमुनिपुङ्गवानां शिष्य-प्रशिष्यौ चतुरविजय - पुण्यविजयौ । प्रकाशं प्रापयित्री - भावनगरस्था श्रीजैन - आत्मानन्दसभा । प्रथम आवृत्ति : वीर संवत २४५९, ईस्वीसन द्वितीय आवृत्ति : वीर संवत २५२८, ईस्वीसन - - ५०० १९३३, विक्रम संवत १९८९, आत्मसंवत ३६, प्रत २००२, विक्रम संवत २०५८, आत्मसंवत १०५, प्रत ६०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक: बृहत् कल्पसूत्रम् । मूल्य: रू. १५०/ प्रकाशक: "प्रमोदकांत खीमचंद शाह - प्रमुख श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर - ३६४००१." * धन्य भक्ति धन्य दाता * दादर जैन पौषधशाला ट्रस्ट आराधना भवन, दादर, मुंबई " श्री हीरसूरीश्वरजी जगद्गुरु श्वे. मू. पू. तप. जैन संघ ट्रस्ट, मलाड, मुंबई महुवा जैन संघ, महुवा, जि. भावनगर शाहीबाग गीरधरनगर जैन संघ, अहमदाबाद भूतीबेन जैन उपाश्रय, शाहीबाग, अहमदाबाद " श्री जैन श्वे. मू.पू.संघ, शिव, मुंबई ANGRE WERESTHA * PRINTERS Tejas Printers 403, Vimal Vihar Apartment, 22, Saraswati Society, Nr. Jain Merchant Society, Paldi, AHMEDABAD - 380 007. Ph.:(079) 6601045 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ania अर्पण जैन छेद आगमोना प्रकाशननी महत्ताने समजनार अने ए आगमोना गम्भीर रहस्योने उकेलनार विद्वान् मुनिगणना करकमलमां लि. मुनि चतुरविजय तथा मुनि पुन्यविजय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - साल mewww लाल वन्दन TH अखंडत्यागमूर्ति जे महापुरुषना परोक्ष अमीमय आशीर्वादना प्रभावे अमे अमारी श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थरत्नमालाने विशिष्ट अने विविध साहित्य प्रकाशन द्वारा दिन प्रतिदिन उन्नतिने शिखरे लइ जइ शक्या छीए तेम ज बृहत्कल्प जेवा अतिमान्य आगमग्रन्थने विद्वानोना करकमलमा अर्पण करवा भाग्यशाळी थया छीए ए जगन्मान्य परमपवित्र स्वर्गवासी गुरुदेव श्री १००८ श्री विजयानन्दसूरिवरना पुनित पादपंकजमा अमाझं कोटिशः वन्दन हो. । Alibailai SHAIL Minission निवेदक - चरणसेवको मुनि चतुरविजय अने पुण्यविजय. eN.. - - Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्तपागच्छान्तर्गत संविग्नशाखीय आद्याचार्य न्यायाम्मोनिधि श्री १००८ श्री विजयानन्दसूरि. (प्रसिद्ध नाम श्री आत्मारामजी महाराज.) : जन्म: विक्रम संवत् १८९३ लहेरा ग्राम (पंजाब). : संविग्न दीक्षा : संवत् १९३२ अमदावाद. : आचार्य पद : संवत् १९४३ पालीताणा. water & Personal Use : स्थानकवासी दीक्षा : संवत् १९१० मालेरकोटला (पंजाब). HO स्वर्ग गमन : संवत् १९५३ गुजरानवाला (पंजाब). ely org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શિવમસ્તુ સર્વજગતઃ ચરમ તીર્થપતિ શ્રી મહાવીરસ્વામિને નમઃ શ્રી આત્મ-વલ્લભસૂરીશ્વરજી ગુરુભ્યો નમ: પૂ. પ્રવર્તક મુનિરાજ શ્રી કાંતિવિજયજી મ. સાહેબનાં શિષ્ય પ્રશિષ્ય પૂ. મુનિરાજ શ્રી ચતુરવિજયજી મ. તથા પૂ. મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે આજથી ૬૦ વર્ષ પહેલાં પૂર્ણ કાળજીથી સંપાદન કરેલ બૃહત્કલ્પસૂત્રનાં ભાગ ૧ થી ૬ અમારી સંસ્થાએ છપાવેલ તે ઘણાં વખતથી અપ્રાપ્ય હતા. તેનું પુનર્મુદ્રણ પૂજ્યોની કૃપાથી અનેક સંઘોનાં સહકારથી અમે કરી રહ્યાં છીએ તેનો અમને અપૂર્વ આનંદ છે. પ્રથમ આવૃતિ પ્રગટ થયા પછી આગમ પ્રભાકર મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજીએ અન્ય હસ્તપ્રતોના આધારે છાપેલી નકલમાં જ અનેક સ્થળોએ શુદ્ધિવૃદ્ધિ કરી હતી તે નકલો અમદાવાદ સ્થિત લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિરમાં સુરક્ષિત છે તેના આધારે અહીં શુદ્ધિ પત્રક ઉમેરવામાં આવ્યું છે. તેથી જિજ્ઞાસુઓને અધ્યયનમાં સરળતા રહેશે. શુદ્ધિવૃદ્ધિયુક્ત નકલો ઉપલબ્ધ કરાવી આપવા બદલ અમે ઉપયુક્ત સંસ્થાના આભારી છીએ. આ ગ્રંથનાં વાચનથી પૂજ્યો સંયમમાર્ગનાં વધુ જાણકાર બની અને મુક્તિપંથમાં આગળ વધે એજ પ્રાર્થના. - શ્રી આત્માનંદ સભા ભાવનગર Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र संशोधनकृते सङ्गृहीतानां प्रतीनां सङ्केताः । भा० त० पत्तनस्थभाभा पाटकसत्कचित्कोशीया प्रतिः । पत्तनीयतपागच्छीयज्ञानकोशसत्का प्रतिः । अमदावादडेला उपाश्रयभाण्डागारसत्का प्रतिः । मो० पत्तनान्तर्गतमोंकामोदी भाण्डागारसत्का प्रतिः । ले० पत्तनगतले हेरुवकीलसत्कज्ञानकोशगता प्रतिः । डे० कां० प्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयसत्का प्रतिः । ता० ताडपत्रीया मूलसूत्रप्रति भाप्यप्रतिर्वा । ( सूत्रपाठान्तरस्थाने सूत्रप्रतिः, भाtयपाठान्तरस्थाने भाप्यप्रतिरिति ज्ञेयम् । ) " प्रत्यन्तरे ( टिप्पणीमध्योद्धृतचूर्णिपाठान्तः वृत्तकोष्ठकगतपाठेन सह यत्र प्र० इति स्यात् तत्र प्रत्यन्तरे इति ज्ञेयम् दृश्यतां पृष्ठ २ पंक्ति २७ - ३२ इत्यादि । ) मुद्यमाणेऽस्मिन् ग्रन्थेऽस्माभिर्येऽशुद्धाः पाठाः प्रतिपलब्धास्तेऽस्मत्कल्पनया संशोध्य ( ) एतादृवृत्तकोष्ठकान्तः स्थापिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ १० पति २६, पृ० १७ पं० ३०, पृ० २५ पं० १२, पृ० ३१ पं० १७, पृ० ४० पं० २४ इत्यादि । ये चास्माभिर्गलिताः पाठाः सम्भावितास्ते [ ] एतादृक् चतुरस्रकोष्ठकान्तः परिपूरिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ ३ पंक्ति ९, पृ० १५ पं० ६, पृ० २८ पं० ५, पृ० ४९ पं० २६ इत्यादि । प्र० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकृताऽस्माभिर्वा निर्दिष्टानामवतरणानां स्थानदर्शकाः सङ्केताः। आचारागसूत्र श्रुतम्कन्ध अध्ययन उद्देश आवश्यक-हारिभद्रीय-वृत्तौ आवश्यकनियुक्ति गाथा आचा० श्रु० अ० उ० आव० हारि० वृत्तौ आव०नि० गा० । आव० नियु० गा उ० सू० उत्त० अ० गा० ओपनि० गा. कल्पबृहद्भाष्य गा० उद्देश सूत्र उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन गाथा ओघनियुक्ति गाथा बृहत्कल्पबृहद्भाप्य गाथा बृहत्कल्पचूर्णि जीतकल्प भाप्य गाथा तत्त्वार्थाधिगमसूत्राणि दशवैकालिकसूत्र अध्ययन उद्देश गाथा दशवैकालिकसूत्र अध्ययन गाथा चूर्णि जीत० भा० गा० तत्त्वार्थ दश० अ० उ० गा० दश० अ० गा० । दशवै० अ० गा० । दश० चू० गा० देवेन्द्र० गा० पञ्चव० गा० प्रज्ञा० पद प्रशम० आ० मल० महानि० अ० विशे० गा० विशेषचूर्णि व्य० भा० पी० गा० व्यव० उ० भा० गा० दशवैकालिकसूत्र चूलिका गाथा देवेन्द्र-नरकेन्द्रप्रकरणगत देवेन्द्रप्रकरण गाथा पञ्चवस्तुक गाथा प्रज्ञापनोपाङ्ग सटीक पद प्रशमरति आर्या मलयगिरीया टीका महानिशीथसूत्र अध्ययन विशेषावश्यक गाथा बृहत्कल्पविशेषचूर्णि व्यवहारसूत्र भाष्य पीठिका गाथा व्यवहारसूत्र उद्देश भाप्य गाथा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श० उ० शतक उद्देश श्रु० अ० उ० श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश सि० । सिद्धहेमशब्दानुशासन सिद्ध हैमाने० द्विख० हैमानेकार्थसङ्ग्रह द्विस्वरकाण्ड यत्र टीकाकृद्भिर्ग्रन्थाभिधानादिकं निर्दिष्टं स्यात् तत्रास्माभिरुल्लिखितं श्रुतम्कन्ध-अध्ययन-उद्देश-गाथादिकं स्थानं तत्तद्न्थसत्कं ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ १५ पं० ९ इत्यादि । यत्र च तन्नोलिखितं भवेत् तत्र सूचितमुद्देशादिकं स्थानमेतन्मुद्यमाणबृहत्कल्पग्रन्थसत्कमेव ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ २ पंक्ति २-३-४, पृ० -५ पं० ३, पृ० ८ पं० २७, पृ० ११ पं० २७, पृ० ६७ पं० १२ इत्यादि । प्रमाणत्वेनोद्धृतानां प्रमाणानां स्थानदर्शक ग्रन्थानां प्रतिकृतयः। रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड । आगमोदय समिति। रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । आगमोदय समिति । अनुयोगद्वारसूत्र चूर्णीअनुयोगद्वारसूत्र सटीकआचारागसूत्र सटीकआवश्यकसूत्र चूर्णीआवश्यकसूत्र सटीक (श्रीमलयगिरिकृत टीका)। आवश्यकसूत्र सटीक (आचार्य श्रीहरिभद्रकृत टीका)। आवश्यक नियुक्तिओघनियुक्ति सटीककल्पचूर्णिकल्पबृहद्भाप्यकल्पविशेषचूर्णिकल्प-व्यवहार-निशीथसूत्राणि आगमोदय समिति। आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्रीय टीकागत । आगमोदय समिति हस्तलिखित । जैनसाहित्यसंशोधक समिति । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीक - दशकालिक नियुक्ति टीका सहदशाश्रुतस्कन्ध अष्टमाध्ययन । ( कल्पसूत्र ) देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरण सटीक - नन्दीसूत्र सटीक (मलयगिरिकृत टीका) निशीथचूर्णि - प्रज्ञापनोपाङ्ग सटीक - भगवतीसूत्र सटीक — महानिशीथसूत्र राजप्रश्नीय सटीक विपाकसूत्र सटीक— विशेषणवती विशेषावश्यक सटीक - व्यवहारसूत्रनिर्युक्ति भाप्य टीका - सिद्धप्राभृत सटीक - सिद्धान्तविचार --- ----- - सूत्रकृताङ्ग सटीक - स्थानामसूत्र सटीक - ९ आगमोदय समिति । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड | शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड | श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । आगमोदय समिति | हस्तलिखित | आगमोदय समिति | " हस्तलिखित । आगमोदय समिति । " रतलाम श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । श्रीयशोविजय जैन पाठशाला बनारस । श्रीमाणेकमुनिजी सम्पादित । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । हस्तलिखित | आगमोदय समिति । " Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ लिखित प्रतिओनो परिचय । प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्रना संशोधनमाटे एकठी करेल प्रतिओनो परिचय आपवा पहेलां अमे एना खण्डो-विभागो-ने अंगे टुंकमां कांइक निवेदन करीए छीए । प्रस्तुत सम्पूर्ण ग्रन्थनी कागळ उपर एक ज विभागमां लखायेल केटलीक प्रतिओ मळे छे, तेम छतां मोटे भागे पाटण खंभात लींचडी जेसलमेर आदिना भंडारोमांनी ताडपत्र उपर लखायेल प्रतिओ त्रण खंडमां अने कागळ उपर लखायेल प्रतिओ चार खंडमां लखायेल नजरे पडे छ । आ विभागो पोथी बांधवानी अने पुस्तक वाचवानी सुगमता खातर प्रतिना लखनार-लखावनाराओए पाडेला छे, भाष्य-चूर्णी-टीकाकारोए पाडेला नथी । जो के भाष्य चूर्णी विशेपचूर्णी टीका आदिमां पीठिका, प्रलम्बप्रकृत, मासकल्पप्रकृत आदि अनेक विभागो पाडवामां आव्या छे पण ते वधा य उपर जणाव्युं तेम पोथी बांधवानी सुगमता के ग्रन्थवाचननी अनुकूलता खातर नहि परन्तु ते ते अर्थाधिकार अथवा विपयनी समाप्तिने ध्यानमा राखीने पाडवामां आव्या छ । अमारा चालु सम्पादनमां अमे ते ते खण्डो साथे सम्बन्ध न राखतां मुद्रित ग्रन्थना कद अने अर्थाधिकारनी समाप्तिने लक्ष्यमा राखीने प्रस्तुत ग्रन्थना विभागो पाडी[; तेम छतां संशोधनमाटे एकठी करेल प्रतिओनो परिचय आपवानी सुगमता खातर तेम ज विद्वान शोधकोनी सुगमता खातर जे जे ठेकाणे ए खण्डो पूर्ण थशे त्यां अमे तेनो उल्लेख करवा चूकीशुं नहि । प्रतिओ प्रस्तुत ग्रन्थना संशोधनमाटे अमे जुदा जुदा गामोना भंडारोमांथी एना प्रथम खण्डनी वधी मळी एकंदर वार प्रतो मेळवी हती, परन्तु तेमांथी पसंद करीने अमे छ प्रतो ज कायम राखी छे अने वाकीनी प्रतोनो आ छ प्रतिओमा समावेश थई जतो होवार्थी एमने जती करवामां आवी छे। जे प्रतिओनो प्रस्तुत सम्पादनमा संशोधनमाटे उपयोग करवामां आव्यो छे तेमनो परिचय आ नीचे आपवामां आवे छे १ भा० प्रति-आ प्रति पाटणना भाभाना पाडामांना विमळना भंडारनी छे । तेनां पानां ३०१ छे, दरेक पानानी पुठीदीठ सत्तर सत्तर पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ ४८ थी ५० अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई साडा अगीआर इंचनी छे अने पहोळाई साडा चार इंचनी छ । प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणेनी लेखकनी पुष्पिका छे ___॥ इति श्रीकल्पाध्ययनटीकायां प्रथमखंडं संपूर्णमिति ॥छ ॥ शुभमस्तु ।। मांगल्यं शुभहेतवे ॥ सं० १६......वर्षे महाकार्तिके मासे शुक्लपक्षे त्रयोदशीदिने बृहस्पतिवारे .............लिखितं.........ग्रंथागं. सहस्र १५००० ।। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ लिखित प्रतिओनो परिचय | ३०० ऊपर सही ॥ यादृशं पुस्तके दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ १ ॥ नगरमध्ये शास्त्र लिखितोयं ॥ श्री ॥ ॥" I आ उल्लेखमां ज्यां मींडां मूक्यां छे ते अक्षरोने प्रतिना उठाउगीर कोई शयताने भूसी नाख्या छे । आमां संवतना पाछळना बे आंकडाओ, लखावनार आदिनां नामो अने जे नगरमा प्रति लखाई तेनुं नाम आदि भूसी नाखवामां आव्युं छे । संवतना प्रारंभना आंकडाओ कायम राख्या छे ते जोतां प्रति सत्तरमी सदीमां लखायेली छे ए वात स्पष्ट छे । प्रति भाभाना पाडाना भंडारनी होवाथी अमे एनी भा० संज्ञा राखी छे । आ प्रति अमे भंडारना वहीवट कर्त्ता शेठ उत्तमचंद नागरदास द्वारा मेळवी छे । २ त० प्रति - आ प्रति पाटणना फोफलीयावाडानी आगली सेरीमा रहेल तपागच्छीय भंडारनी छे । आ प्रतिनां पानां २२१ छे, पानानी पुठीदीठ सत्तर सत्तर पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ ७० थी ७५ अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई सवा तेर इंचनी छे अने पोळाई पांच इंचनी छे । प्रतिना अंतमां तेना लेखनसमय आदिने सूचवतो कशो य उल्लेख नथी, तेम छतां प्रत जोतां ते सोळमी सदीमां लखाई होय तेम लागे छे । प्रति तद्दन सारामां सारी स्थितिमां छे; मात्र तेनुं छेलं पानुं कोई खराब शाहीथी लखायेल प्रतिना संसर्गने ली जीर्ण जेवुं थई गयुं छे । प्रति तपागच्छीय भंडारनी होवाथी तेनी संज्ञा अमे त० राखी छे । आ प्रतिनो उपयोग अमे मुद्रित पुस्तकना ८९ मा पानाथी कर्यो छे । आ प्रति अमने भंडारना वहीवटदार शेठ मलुकचंद दोलाचंद द्वारा मळी छे । ३ डे० प्रति- - प्रति अमदावादमांना डेलाना भंडारनी छे । आ वीजी प्रतिओनी जेम प्रथमखंडरूप नथी पण आखा ग्रन्थनी सलंग लखायेल प्रति छे । तेनां ६०० पानां छे, पानानी पुठीदीठ पंदर पंदर पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ ७५ थी ८० अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई १३ इंचनी छे अने पहोळाई ४ || इंचनी छे । प्रतिना अंतमां लेखन समयादिने लगतो कशो उल्लेख छे के नहि ए अमे अत्यारे कही शकता नथी; कारण के आ प्रति अमारा पासे अर्धी आवी छे । प्रति अनुमान सोळमी शताब्दीमां लखायेली होय तेम लागे छे अने सारामां सारी स्थितिमां विद्यमान छे । प्रति डेलाना भंडारी होवाथी अमे एने डे० नामधी ओळखावी छे । आ प्रति अमे भंडारना कारभारी शेठ भोगीलाल ताराचन्द पासेथी मेळवी छे । I ४ मो० प्रति — आ प्रति पाटणना सागरगच्छना उपाश्रयमां मूकेल शेठ मोंका मोदीना भंडारनी छे । एनां पानां २४२ छे, दरेक पानानी पुठीदीठ सत्तर सत्तर पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ ६६ थी ७० अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई १३ ||| इंचनी अने पहोळाई ५ इंचनी छे । प्रतिना पहेला पानामां "आचार्य व्याख्यान करे छे अने तेने साधु साध्वी श्रावक श्राविकारूप चतुर्विध संघ सांभळे छे” ए भावने दर्शावतुं एक सुंदर चित्र छे । चित्रमां लाल लीला धोळा अने आसमानी रंगनो उपयोग करवामां Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ बृहत्कल्पसूत्र प्रथम खंडनी आव्यो छे तेम छतां सोनेरी रंगनो उपयोग बधा य रंगो करतां वधारे प्रमाणमां करवामां आव्यो छे | चित्रमांनो लीला रंगवाळो भाग, ते रंगमां जंगाल पडतो होवाथी, खवाई I गयो छे । प्रतिने छेडे नीचे प्रमाणेनो टुंक उल्लेख छे "श्री कल्पप्रथमखंडपुस्तकं ॥ छ ॥ ।। ।। संवत् १५७३ वर्षे अषाढ वदि १३” प्रतिनी स्थिति एकंदर सारी गणाय । प्रति मोदीना भंडारनी छे माटे तेनी संज्ञा अमे मो० राखी छे । ५ ले० प्रति — आ प्रति पण उपरोक्त पाटणना सागरगच्छना उपाश्रयमां रहेल लेहेरु वकीलना भंडारमांनी छे । तेनां पानां २०७ छे, दरेक पानानी पुठीढ़ीठ संत्तर सत्तर पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ ६९ थी ७४ अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई १३ || इंच अने पोळाई ५ इंच छे । प्रति एक वाजुना वे खुणेथी उंदरे करडेली छे तेथी तेना आरंभनां ४० पानां सुधीमां एक एक वे वे लीटीओना केटलाक अक्षरो खवाई गया छे । प्रति अंते आ प्रमाणेनो उल्लेख छे “श्रीकल्पप्रथमखंडपुस्तकं ॥ छ ॥ ॥ कल्याणमस्तु ॥ सं० १५७८ वर्षे अश्वयुजि पंचम्यां बुधे लिखितमिदं वाच्यमानं चिरं नंद्यात् ॥” प्रतिनी स्थिति जीर्ण छे । प्रति लेहेरु वकीलना भंडारनी होवाथी अमे एनी संज्ञा ले० राखी छे । उपरोक्त मोंका मोदीनो अने लेहेरु वकीलनो ए बन्ने य भंडारो श्रीहेमचन्द्र जैन लाइब्रेरीनी देखरेखमां छे । एटले उपरोक्त बन्ने य प्रतिओ अमे तेना सेक्रेटरी श्रीयुत रुभाई भोगीलाल द्वारा मेळवी छे । ६ कां० प्रति - आ प्रति अमारा परम उपास्य गुरुदेव पूज्यपाद प्रवर्तक श्री १०८ श्रीकांतिविजयजी महाराजना वडोदरा नजीक आवेला छाणीना पुस्तकसंग्रहमांनी छे । आ प्रति डे० प्रतिनी पेठे संपूर्ण ग्रन्थनी छे । आनां पानां ६८६ छे, दरेक पानानी पुठीपीठ सोळ सोळ पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ ६१ थी ६९ अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई १२ इंचनी अने पोळाई ५ || इंचनी छे । प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणेनो उल्लेख छे—— 1 “|| श्रीगूर्जरेलावनिताविभूषणं लक्ष्मीविलासास्पदमङ्गिमण्डितम् । प्रह्लादनश्रीजिन पार्श्वभूपितं प्रह्लादनाख्यं पुरमस्ति विश्रुतम् ॥ १ ॥ प्रजासु निखिलाखोशवंशोऽस्ति तत्र विश्रुतः । तत्रास्ति श्रावकश्चेलुः कोठारीकुलभूषणः || २ || तस्य सूनुरनूनश्रीर्यशस्करण इत्यभूत् । भार्यासीद् यमुना तस्य शीलैकचारुभूषणा ॥ ३ ॥ पुत्रौ द्वौ सस्तयोराद्यः केशवलालनामकः । द्वितीयोऽमृतलालाख्यः कनिष्ठोऽप्यकनिष्ठधीः ॥ ४॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ लिखित प्रतिओनो परिचय । सवृत्तिको वृहत्कल्पः छेदग्रन्थः सुशोभनः । तेनायं लेखयांचक्रे स्वपितुः पुण्यहेतवे ॥ ५ ॥ गच्छे स्वच्छतरे तपोऽभिधगणे विज्ञा बभूवुमित्वह . प्रख्याता भुवने सदैव विजयानन्दाभिधाः सूरयः । श्रीमन्तो विजयाभिधाः कमलयुगवाचंयमा निर्ममा वर्तन्ते भुवि सूरयः सुविदितास्तेपां पदे साम्प्रतम् ।। ६ ॥ विक्रमसंवत्सरतो नेत्रकायाङ्कोडुपेषु वर्षेषु । भूपतिशेरमहम्मदखानेत्याख्यस्य शुभराज्ये ॥ ७ ॥ तेन मुदा शुचिमासे विजयानन्दानूचानशिष्यस्य । पठनकृते सूत्रमिदं समर्पितं कान्तिविजयस्य ।। ८ ॥ आर्यायुग्मम् ॥" पुष्पिका जोतां जणाय छे के प्रति विक्रमसंवत् १९६२ मां लखायली छे, अने ते पालनपुरनिवासी ओसवालज्ञातीय कोठारी चेलु महेताना सुपुत्र भाई अमृतलाले पोताना पिताश्रीना कल्याणनिमित्ते लखावीने भणवामाटे श्रीकान्तिविजयजी महाराजने अर्पण करी छे। प्रति उंची जातना काश्मीरी कागळ उपर लखायली छे, तेम ज नवी लखायेल होइ तद्दन सारामां सारी स्थितिमा छे । आ प्रति प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराजना ज्ञानभंडारनी होवाथी तेनी संज्ञा अमे कां० राखी छे । उपर जणावेल छ ये प्रतिओ कागळ उपर सुंदरमां सुंदर लिपिथी लखायेल छ । कां० प्रति सिवायनी बची ये प्रतिओ त्रण सो अने चार सो वर्ष पहेलानी लखायेल छे अने तेना वचमां ताडपत्रनी प्रतिओनी जेम दोरो परोववामाटे खाली जगा राखवामां आवी छे । छ ये प्रतो सूत्र नियुक्ति भाष्य अने तेनी टीकासाथेनी छ । ___ छ प्रतो पैकी ले० त० अने कां० प्रति जो के शुद्ध तो न कहीं शकाय तो पण वीजी प्रतोने मुकाबले एकंदर ठीक गणाय । मो० डे० प्रतिओ अशुद्ध छे परन्तु आ बन्ने य प्रतो करतां भा० प्रति घणी ज अशुद्ध छे; तेम छतां साथे साथे ए ध्यानमा राखQ जोईये के ज्यारे बधी ये प्रतिओमां अशुद्ध पाठ होय तेवे वखते भा० प्रति केटलीक वार शुद्धमा शुद्ध पाठ पूरो पाडे छ । प्रतिओनी परस्पर समानता अने विशेषता।। संशोधनमा प्रतिओनो उपयोग-प्रस्तुत ग्रन्थना प्रथम खंडना संशोधनमाटे अमे उपर जणावेल छ प्रतो काममां लीधी छे। ग्रन्थना आरम्भमां पाठान्तरो एकंदर घणा ज ओछा अथवा नहि जेवा आवता होवाथी बधी ये प्रतो लगभग एकसरखी लागी; परन्तु पूज्यपाद आचार्य श्रीमलयगिरि सूरिकृत पीठिकाटीकाना अनुसंधानरूपे 4 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखित प्रतिओनो परिचय । तपा आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिविरचित टीकानी शरुआत थतां (जुओ पत्र १७७ ) उपरोक्त छ ए प्रतिओ आश्चर्य पमाडे तेवी रीते त्रण वर्गमां वहेंचाई गई छे । पहेलो वर्ग त० अने डे० प्रतिनो, बीजो वर्ग मो० ले० अने कां० प्रतिनो अने त्रीजो वर्ग भा० प्रतिनो। आ रीते उपरोक्त छ प्रतिओना त्रण विभाग पडी गया छे । प्रतिओनी समानता असमानता-त० प्रति अने डे० प्रति कोई आपवादिक स्थळ बाद करी लईए तो सर्वथा समानता धरावती प्रतो छे । ए ज रीते मो० ले० अने कां० ए त्रणे प्रतो परस्पर समानता धरावती प्रतो छ तेम छतां कां० प्रति मो० ले० प्रतिओ करतां केटलीक वार जुदुं वलण ले छे पण ते वहु ज ओछा प्रमाणमां । आनुं कारण अमने ए जणाय छे के-कां० प्रतिनी नकल जे प्रति उपरथी करवामां आवी छे तेमां ते प्रतिना विद्वान वाचके त० प्रतिने मळती कोई प्रति साथे सरखावतां नजरे पडेल वधाराना पाठो कोइक कोइक ठेकाणे उमेर्या छे ए छे। जुओ पृष्ठ २११ पंक्ति ४, पृ. २१२ पं. २४, पृ. २२३ पं. ९, पृ. २३३ पं. ३ इत्यादि । आ उमेराने आपणे बाद करी लईए तो कां० प्रति मो० ले० प्रतिओने मळती प्रति गणी शकाय । भा० प्रति बधी ये प्रतो करतां जुएं वलण धरावती प्रत होवा छतां त० डे० प्रति साथे एनुं साम्य वधारे छे । प्रतिओनी विशेषता अने तेमां थयेल परिवर्तन-भा० त० डे० प्रतिओमां मो० ले० कां० प्रतिओ करतां ठेकठेकाणे वधाराना पाठो आवे छे, ए करतां य वधारे आश्चर्यकारक वात तो ए छे के एकली भा० प्रतिमां डगले ने पगले टीकाना संदर्भोना संदर्भो ज जुदा जुदा प्रकारना गुंथायेला आव्या करे छे । आ बधा य संदर्भोने अमे पाठान्तररूपे टिप्पणमा आप्या छ । भा० प्रतिमां थयेल टीकार्नु आ महान् परिवर्तन खुद टीकाकार महाराजे करेल छे के ते पछीना कोई विद्वान आचार्ये कर्यु छे ए निर्णय करवा माटेनां कशां य निश्चित प्रमाणो अमारा पासे नथी; तो पण भा० प्रतिमां तूटी गयेल अक्षरो अने पंक्तिओने सूचववामाटे ठेकठेकाणे खाली जगा मूकवामां आवी छे ए उपरथी एटलुं स्पष्ट रीते जाणी शकाय छे के-भा० प्रति कोई जीर्ण प्राचीन ताडपत्रीय अथवा कागलना पुस्तकादर्श उपरथी लखाई छ । अने ते उपरथी एम कहीं शकाय के-भा० प्रतिमां थयेल टीकार्नु परिवर्तन ए आधुनिक नथी पण टीकाकारना जमानाना लगभगमां ज थयेल छ । ___ भा० त० डे० प्रतोमा वधारे पडता जे पाठो छे, जे मो० ले० का० प्रतिमा नथी, तेमांना केटलाक पाठो तो एवा छे के जेना अभावमा टीकाना अर्थनुं अनुसंधान जरा य तूटे नहि; परन्तु केटला एक पाठो एवा छे के जेना विना आपणे चलावी न शकीए; अर्थात् ए पाठो माटे आपणे एम खातरीथी मानी शकीए के ए पाठो लेखकना प्रमादथी ज पडी गया छ । जुओ पृष्ठ २३१ पंक्ति ३, पृ० २४० ५० ५, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ लिखित प्रतिओनो परिचय । पृ० २४१ पं० १३ मां 0 आवा हस्तचिह्नना वचमांना पाठो अने पृ० २३५ प० १८, पृ० २३७ पं. ७ मां स » आवा चिह्नना वचमांना पाठो । भा० त० डे० प्रतोमा जे वधाराना पाठो छे तेम ज एकली भा० प्रतमा जे तद्दन जुदा प्रकारना अने वधाराना टीकासंदर्भो छ तेमांना केटलाक तो चूर्णि अने विशेपचूर्णिने अनुसरता छे, जे अमे तुलना माटे ते ते स्थळे टिप्पणमा आप्या छ । जुओ पृ० १९३ टि० १, पृ० २०० टि० ६, पृ० २०८ दि० ८, पृ० २२३ टि. ३-६, पृ० २२८ टि० २, पृ० २३१ टि० २-८, पृ० २३५ टि. ६, पृ० २४५ टि. १, पृ० २४६ टि. ३, पृ० २९५ टि० २, पृ० ३०६ टि० १-२, पृ. ३१३ टि० २ इत्यादि । विशेषचूर्णिनी प्रति माटे अमे घणे य स्थळे तपास करी तेम छतां तेनी मात्र एक वे प्रतिओज अमे मेळवी शक्या छीए अने ते पण आरम्भथी नहि परन्तु पीठिका अने प्रलम्बप्रकृत समाप्त थया पछीनो भाग एटले के प्रथम उद्देशनां पांच सूत्र समाप्त थया वाद मासकल्पप्रकृत शरु थाय छे त्यांथी छे । आ कारणथी पीठिकाविभागमां तुलना माटे अमे तेना पाठो आपी शक्या नथी, पण मासकल्पप्रकृतथी अमे ते पाठो दाखल कर्या छे जेने वाचको आ ग्रन्थना वीजा विभागमा जोई शकशे । __ उपर अमे संशोधन माटे एकत्रित करेल प्रतोनी समानता आदि विषे जे काइ लख्युं छे ते मोटा भागे आवता पाठान्तरोने ध्यानमा राखीने लख्युं छे; नहि तो एक वीजा वर्गनी प्रतो एक वीजा वर्गनी प्रतो साथे घणी वार अनियमित रीते सेळभेळ थई जाय छे अने जुदी पण पडी जाय छे । तेथी केटलीक वार अमुक पाठ भा० त० डे० प्रतिमां होय अने केटलीक वार त० डे० प्रतिमा होय तो केटलीक वार भा० त० प्रतिमा होय अने केटलीक वार वळी भा० डे० प्रतिमा होय ज्यारे केटलीक वार भा० कां० प्रतिमा ज होय एम बने छ । आ ज रीते केटलीक वार अमुक पाठ मो० ले० कां० प्रतिमा होय तो केटलीक वार भा० मो० ले० प्रतिमां होय तो केटलीक वार मो० ले० मां ज होय एम पण बने छे । घणी वार एम पण बने छे के--अमुक पाठ भा० सिवायनी बधी ये प्रतिओमां एक सरखो होय अने मात्र भा० प्रति ज जुदी पडी जाय छे । ज्यारे आ समान वर्गनी प्रतो आपस आपसमा जुदाई धारण करे छे त्यारे जुदाई धारण करनार प्रतो सिवायनी शेप प्रतो मोटे भागे वीजा वर्गनी प्रतो साथे सरसाई धरावती थई जाय छे । आ वधुं य अमे टिप्पणमां आपेल पाठान्तरो जोवाथी सहेजे समजी शकाय तेम छ । प्रस्तुत ग्रन्थमा डगले ने पगले जे पाठान्तरो, फेरफारवाळा पाठो अने वधाराना टीकासंदर्भो आवता रह्या छे ए उपरथी अमे एम मानीए छीए के प्रस्तुत ग्रन्थनी टीका रचाया पछी तेमां विद्वानोए घणो ज हस्तक्षेप कर्यो छे । आ हस्तक्षेप योग्य गणाय के अयोग्य एनो निर्णय करवानुं काम विद्वानोनुं छे; तेम छतां अमने ए अनुभव केटले य Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखित प्रतिओनो परिचय | १७ ठेकाणे थयो छे के आ हस्तक्षेप करनाराओए केटलीक वार भूलो पण करी छे, जेने विद्वानो अमे आपेल पाठान्तरो - टिप्पणो उपरथी जोई शकशे । आस्थळे अमने कोई प्रश्न करे के-आ बधी प्रतो पैकी मौलिकता शामां देखाय छे ? एना उत्तरमां अमे एटलुं चोक्कत कही शकीए छीए के भा० प्रतिमां थयेल परिवर्त्तन गमे तेलुं प्राचीन होय तेम छतां ते मौलिक नथी ज । कारण के एना वर्गनी प्रति ए पोते ज देखाय छे, तेम ज एनी भाषा शैली आदि मूल टीकांश करतां तद्दन जुदां पडी जाय छे । आ सिवायनी वीजी पांच प्रतो पैकी मो० ले० प्रतोमां अमने विशेष मौलिकता जणाय छे अने ए ज कारणथी अमे मोटे भागे ए प्रतिना पाठोने आखा ग्रन्थमां मुख्य स्थान आप्युं छे तेम छतां एनो सविशेष निर्णय करवानुं काम आ ग्रन्थना भाविमा सम्पादित थनार भागो उपर छोडीए छीए । अहीं अमे प्रतिओनी समानता विशेषता आदिमादे जे कांइ लख्युं छे ए बधुं य मोटे भागे पीठिका विभागने लक्षीने ज लख्युं छे । पाठान्तरोनी पद्धति । सामान्य रीते आ ग्रन्थमां आचार्य श्रीमलयगिरिकृत पीठिकावृत्तिना अंशमां पाठान्तरो बहु ज थोडा अथवा नहि जेवा ज आव्या छे, एटले प्रारम्भमां पाठान्तरो लेवामा अमे कोई खास पद्धति अखत्यार करी नथी । परन्तु आचार्य श्री क्षेमकीर्तिकृत पीठिकावृत्तिमां अने आगळ उपर ज्यां मोटा प्रमाणमां पाठान्तरो आव्यां छे त्यां अमे ते माटे केवो क्रम राख्यो छे ए अमारे अहीं जणाववानुं छे । आचार्य श्री क्षेमकीर्तिकृत पीठिकाटीकाना अंशमां प्रारम्भमां तो पाठान्तरो अस्तव्यस्त ज आवता रह्या छे । अर्थात् अमुक पाठ नियमित रीते अमुक प्रतोमां ज आवे तेम न हतुं एटले प्रारम्भमां ते माटेनो कशो ज क्रम रह्यो नथी के रखायो नथी । परन्तु आगळ चालतां अमने मो० ले० कां० प्रतिओ करतां भा० त० डे० प्रतिओ वधारे ठीक अने विशेष प्रामाणिक जणाई एथी अमे ए ऋण प्रतोने मुख्य राखीने काम लधुं छे । म छतां ज्यारे मात्र भा० प्रतिमां टीकानो अमुक संदर्भ वधारे पडतो जुदो आवे त्यारे त० डे० प्रतिने मुख्य राखीने काम लीधुं छे अने भा० प्रतिना जुदाई धरावता टीकासंदर्भने टिप्पणमां पाठान्तररूपे आपेल छे । जो के भा० प्रतिमांना आ पाठो केटलीक वर वधारे स्पष्ट अने विशदभाषामय होय छे तथापि सामान्य रीते टीकानी चालु भाषा करतां तेनी भाषा तद्दन जुदी पडती होई 'ते पाठो कोई विद्वान महाशये वदली नाखेला तेम ज उमेरेला होवा जोईए' एम अमे मानता होवाथी ए पाठोने मूळमां स्थान न आपत तेमने पाठान्तररूपे टिप्पणमां मूकवानुं योग्य मान्युं छे । जेम भा० त० डे० प्रतिओमां घणे ठेकाणे वधाराना पाठो आवे छे तेम कोई कोई Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ लिखित प्रतिओनो परिचय । वार मो० ले० प्रतिओमां पण वधारे पडता पाठो आवे एम पण बन्यु छे । आ पाठोमांना जे पाठो अमने उपयोगी जणाया तेने अमे मूळमां आप्या छे, जुओ पृ०.२४४ पं० ३०, पृ० २४५ पं० ११, पृ० २६१ पं० २३, पृ० २९४ पं० १, पृ० २९८ पं० २६, पृ० ३१३ पं० ४ इत्यादिमां » आवा चिह्नना वचमांना पाठो; अने जे पाठो अमने क्षेपक जणाया छे ते पाठोने मूळमां स्थान न आपतां टिप्पणमां ज आपवामां आव्या छ । कोई कोई वार एम पण बन्युं छे के अमुक वधारानो पाठ अमुक एक ज प्रतिमा होय तेम छतां ते उपयोगी जणाता एक प्रतिना पाठने अमे मूळमां दाखल करेल छे पण ए दरेके दरेक ठेकाणे अमे टिप्पणमां जणाव्यु छे के आ पाठ अमुक प्रतिमांनो छे। जे पाठो अमने अमारी (गुरु-शिष्यनी) विचारणाने अंते तद्दन अशुद्ध के निरर्थक जणाया छे तेने अमे कोई कोई वार जाणवा खातर टिप्पणमा आप्या छे तेम छतां मोटे भागे तेवा पाठान्तरोने अमे टिप्पणमां य स्थान आप्यु नथी । जे पाठान्तरो प्रतोमां अशुद्ध होय तेम छतां तेने सुधारीने ठीक करी शकाय तेम होय तो ते पाठोने अमारी कल्पनावडे सुधारेल पाठ साथे टिप्पणमां आपेल छे । अमारा सुधारेल ए पाठोने अमे आवा ( ) गोळ अने [ ] चोरस कोष्ठकमां मूकेला छे । जुओ पृ० १७ टि० १, पृ० ३१ टि० ६, पृ० ३८ टि० २, पृ० ८१ टि० २, पृ० १९३ टि० ६, पृ० २३१ टि० ३, पृ० २३२ टि० ३, पृ० २३४ टि० १, पृ० २४० टि० २ इत्यादि । वधारानी प्रतो। उपर जणावेल छ प्रतो सिवाय मूलसूत्र, भाष्य, बृहद्भाष्य, चूर्णि अने विशेषचूर्णीनी जे प्रतोनो अमे आ संशोधनमा उपयोग कर्यो छे तेनो परिचय अहीं आपीए छीए १ बृहत्कल्पसूत्र पत्र १-१३ अने बृहत्कल्पलघुभाष्य पत्र १-२१६ । आ बन्ने य ग्रन्थो एक ज पोथीमां छे । आ पोथी ताडपत्रीय छे । दरेक पानानी एक बाजुनी पुठीमां ३ थी ५ लीटीओ छे अने दरेक आखी लीटीमां १०८ थी १४१ सुधी अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई ३४ इंच अने पहोळाई २ इंचनी छ । प्रतिना अंतमा लेखकनी पुष्पिका आदि कांइ नथी । प्रति सारी स्थितिमा छे अने संपूर्ण छ । पुस्तकनी लिपि सामान्य रीते सुंदर छे पण अक्षरो नाना मोटा बहु ज थया करे छ । प्रति अशुद्धप्राय छे। २ बृहत्कल्पचूर्णी पत्र १-३८४ अने बृहत्कल्पसूत्र पत्र ३८५ थी ३९३ । आ बन्ने य ग्रन्थो एक ज पोथीमा छे । आ पोथी पण ताडपत्र उपर लखायेल छे । दरेक पानानी एक वाजुनी पुठीमां ५ थी ७ लीटीओ छे अने दरेक लीटीमा १२३ थी १४८ अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाइ ३३। इंचनी अने पहोळाई २। इंचनी छ । प्रतिना अंतमां आ प्रमाणे लेखकनी पुष्पिका छे "संवत् १२९१ वर्षे पोष सुदि ४ सोमे" प्रति सारी स्थितिमा छे अने संपूर्ण छ । प्रतिनी लिपि घणी ज सुंदर छ । ३६२ मा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखित प्रतिओनो परिचय । १९ पानाथी प्रतिने कोई बीजा लेखके पूर्ण करी छ । लिपि अतिसुंदर होवा छतां लेखक एक सरखा अक्षरो लखी शक्यो नथी। कोई ठेकाणे नाना तो कोई ठेकाणे मोटा एम अक्षरो नाना मोटा थता रह्या छ । प्रति अशुद्धप्राय छ । ३ कल्पवृहद्भाष्य पत्र २०७ । आ प्रति कागळ उपर लखायेली छे । दरेक पानानी एक बाजुनी पुठीमां १३ लीटीओ छे अने दरेक लीटीमा ५३ थी ५८ अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई १०॥ इंचनी अने पहोळाई ४॥ इंचनी छे । प्रति सुंदर लिपिथी लखायेल छ । आ प्रति संपूर्ण नथी पण लखतां अधुरी रही गई छे एटले जीजा उद्देशमा काइ अपूर्ण सुधीनी छ । प्रति लखवामां कागळो बे जातना वपराया छे तेथी तेनां अर्धा पानां जीर्ण थई गयां छे अने अर्धां सारी स्थितिमा छ । प्रति घणी ज अशुद्ध छे। ___ उपरनी चणे य प्रतो पाटणना वखतजीनी सेरीमा रहेल संघना भंडारनी छे । जे शेठ धर्मचंद अभेचंदनी पेढी द्वारा मेळवी छ । ४ कल्पचूर्णी पत्र २१२ । आ प्रति कागळ उपर लखेली छे । दरेक पानानी एक बाजुनी पुठीमां १७ लीटीओ छ। अने दरेक लीटीमा ६२ थी ६६ अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई १३॥ इंच अने पहोळाई ५। इंचनी छ । प्रतिना अंतमां नीचेनी पुष्पिका छे"संवत् १५७४ वर्षे श्रीपत्तने मार्गशिर सुदि ७ बुधवासरे एवं पुस्तिकं परिपूर्ण प्रतिनी लिपि सुंदर छ । प्रति साधारण स्थितिमां अने अशुद्धप्राय छ । आ प्रति मोंका मोदीना भंडारनी छ । ५ कल्पविशेषचूर्णी पत्र १५२। आ प्रति कागळ उपर लखायली छे। तेना दरेक पानानी एक बाजुनी पुठीमा १६ लीटीओ लखेली छे अने दरेक लीटीमा ७८ थी ८५ अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई १३॥ इंचनी अने पहोळाई ५। इंचनी छ । प्रतिनी लिपि सुंदर छे अने ते सारी स्थितिमा छे । आ प्रति घणी ज अशुद्ध छे । प्रति लहेरु वकीलना भंडारमांनी छ । उपर जणावेली प्रतो अमने जे जे महाशयो द्वारा मळी छे अने ते सौए पोतपोताना भंडारनी प्रतो माटे अखूट धीरज राखी अमारा संशोधनकार्यमा जे कीम्मती सुगमता करी आपी छे तेमनो, धन्यवाद आपवा पूर्वक अमे आभार मानीए छीए । उपर जणावेल अगीआर अथवा तेर प्रतोनी मददी अत्यंत काळजी पूर्वक प्रस्तुत प्रन्थनुं संशोधन अमे गुरु-शिष्योए मळीने कयुं छे, तेम छतां अमारा संशोधनमा स्खलनाओ थवानो जरूर संभव छे । जे महानुभावो अमने अमारी त्रुटिओ सूचवशे ते सौनो अमे आभार मानीशुं अने तेमनी उपयोगी जणाती सूचनाओनो आ पछी प्रसिद्ध थनार वीजा भागोमां योग्य उपयोग करीशुं । निवेदको-गुरु-शिष्य मुनि चतुरविजय तथा पुण्यविजय. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० શ્રી મલય ગિરિ મહારાજ રચિત કલ્પવૃત્તિ પૂર્ણ હોઈ શકે છે વિદ્વાનોમાં એવી માન્યતા છે કે છેદ ગ્રન્થ પૈકીના એક વૃદન્ ૨ ઉપર જે સંસ્કૃત વૃત્તિ મળે છે તેમાં શ્રી મલયગિરિ મહારાજની અધૂરી વૃત્તિ મળી છે અને પછી તે શ્રી ક્ષેમકીર્તિ મહારાજે પરિપૂર્ણ કરી જે આજે મુદ્રિત થયેલી આપણને મળે છે. આવી માન્યતાનો મૂળ આધાર આગમ પ્રભાકર શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજનું એક વિધાન છે. તેઓએ વૃહત્ 7 ના છઠ્ઠા ભાગના પ્રારંભમાં જે “ગ્રન્થકારોનો પરિચય' એ શીર્ષક હેઠળના લખાણમાં ટીકાકાર આચાર્યો એ પેટાશીર્ષકમાં “આચાર્ય શ્રી મલયગિરિ સૂરિવરે પ્રસ્તુત મહાશાસ્ત્ર ઉપર ટીકા રચવાની શરુઆત કરી છે પરંતુ એ ટીકાને તેઓશ્રી ડાવરફૂર વૃત્તિ ની જેમ પૂર્ણ કરી શક્યા નથી.” વળી વૃદન્ . ના વૃત્તિકાર શ્રી ક્ષેમકીર્તિ મહારાજ પણ ૬૦૦મી ગાથાની વૃત્તિનો પોતે પ્રારંભ કરતી વખતે ......... વિવાર, ૩ મે તપ કુતfપ રેતરિાની પરિપૂuf નીવ7ોવાને રૂતિ . પરિમાવ્ય મતરિવિરચિતાર્ ૩ળું વિવરી,મરમ્મતે આવું વિધાન કરે છે તેમણે પરિપૂર્ણ ન મળી તેવો ઉલ્લેખ આમાં છે. આ વિધાનથી આવી માન્યતા પ્રચલિત બની હોય તેમ લાગે છે. ગમે તે કારણ હોય આગમ પ્રભાકર શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજને વ્યવહાર સૂત્ર મણ રૂ. ૧ ગાથા. ર૬ ની વૃત્તિ ધ્યાન બહાર ગઈ લાગે છે ચર. મથ. ની ર૪૪૬ મી જે ગાથા છે તે જ ગાથા – મણ માં ફરૂર મી છે. તેના ઉપરથી લાગે છે કે પહેલાં તેમને હિન્દુ 7. ની વૃત્તિ રચી છે પછી વ્યવ. મણ ની વૃત્તિ રચી છે. ગાથા આ પ્રમાણે છે : पब्बज्जा सिक्खा वयमत्थ ग्गहणं च अनियय वासो । निष्फत्तीय विहारो समाचारी ठिई चेव ॥ २४४६ ।। व्यव.भा. वृत्ति = अश्या व्याख्यानं कल्पे सविस्तरमुक्त मत्र तु लेशतोऽर्थमात्रमभिधीयते । વૃત્તિના શબ્દોમાંથી-આ ગાથાનું વ્યાખ્યાન – માં વિસ્તારથી કર્યું છે તેથી અહીં સામાન્ય જ અર્થ કહીયે છીએ. તેવું સમજાય છે. આ ગાથા વૃહત્ વત્વ. માં જરૂર મી છે. જ્યારે અત્યારે જે ગાથા સુધીની વૃત્તિ છે તે ૬૦૬ મી છે. આ ગાથા ફરૂર છે તેથી એમ માનવાનું મન થાય છે કે શ્રી મલયગિરિ મહારાજે ત્વમાથરસંપૂf ઉપર વૃત્તિ રચી હશે પણ ટુર્વવ વશાત્ આપણને આટલીજ મળી. હજી એવી આશા રાખવી ગમે છે ક્યારેક ક્યાંકથી પણ એ ટીકા મળી આવે. વ્યવ. મણ ની વૃત્તિ રચી તે પહેલાં વધે. માળ ની વૃત્તિ રચી માટે તેમાં વધુ વિસ્તાર મળે એ લોભે પણ માનવાનું, આશા રાખવાનું ગમે છે. પ્રભુની કૃપા વર્તમાન શ્રી સંઘ ઉપર ઉતરે અને એ ક્યાંકથી પણ પ્રાપ્ત થાય એ દિવસ કેટલાં બધાં આનંદનો હશે. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ (बृहत् कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम) गाथा विषय ............ संस्कृत मुखपृष्ठ. अर्पण....... वन्दन. पुनः मुद्रण वखते वे बोल ............... बृहत्कल्पसूत्रसंशोधनकृते सङ्ग्रहीतानां प्रतीनां सङ्केताः. टीकाकृताऽस्माभिर्वा निर्दिष्टानामवतरणानां स्थानदर्शकाः सङ्केताः ....... प्रमाणत्वेनोद्धृतानां प्रमाणानां स्थानदर्शकग्रन्थानां प्रतिकृतयः............. प्रासङ्गिक निवेदन .... .........१० वृहत्कल्पसूत्रना संशोधनमा कामे लीधेली लिखित प्रतिओनो परिचय ..... ११ वृहत्कल्पसूत्रनी पीटिकानो विषयानुक्रम ... ....... २१ ४-२३ ५-१० १२-१५ वृत्तिकारे करेल मंगलाचरण अने शास्त्रनो उपोद्घात.. ............. मंगलाचरण अने शासना विषयनो निर्देश ....... १ मंगलवाद ....५-११ नंदी अने मंगलनु अपेक्षाकृत भेदाभेदपj... ............. 'मङ्गल पदना निक्षेपो. .......५-७ पदार्थ मात्रमा चार निक्षेप उतारवानो निर्देश ............. 'इन्द्र पदना निक्षेपो ... ( गाथा १३-नाम अने स्थापनानो फरक. गाथा १४ टीका - द्रव्य निक्षेपर्नु लक्षण) 'इन्द्र 'पदना भावनिक्षेपामा विरोध अने तेनुं समाधान ....... .......८-९ नाम इन्द्र अने स्थापनाइन्द्रनो तथा द्रव्यइन्द्र अने भावइन्द्रनो आपसमा फरक मंगलाचरण करवानुं प्रयोजन अने तेनी सिद्धि माटे नृप निधि विद्या मन्त्र आदि दृष्टांतो ...... १६-१८ १९ २०-२१ .... ९-१० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । गाथा पत्र २२ विषय ग्रन्थना आदि मध्य अने अंतमां मंगल करवामां शिष्ये देखा डेल विप्रतिपत्ति अने तेनुं समाधान मंगल करवामां शिष्ये बतावेल अनवस्थादोष अने तेनुं समाधान ११-४६ ११-१२ १२-१३ १४-१५ १५-१६ २४-१४८ २ नन्दी-ज्ञानपञ्चक २४ 'नन्दी' पदना निक्षेपो [ बार प्रकारनां वादित्रो] २५ प्रत्यक्ष अने परोक्षनुं लक्षण २६-२७ वैशेषिकादिकोए खीकारेल प्रत्यक्षना लक्षणमां दूषण २८ इन्द्रियथी थतुं लैङ्गिकज्ञान २९-३० प्रत्यक्ष अने परोक्षनी व्याख्या अने तेना भेदो अवधिज्ञान द्रव्य क्षेत्र काल भावथी अवधिज्ञान- खरूप ३५-३६ मनापर्यवज्ञान ३७-३८ केवलज्ञान ३९-४० आभिनिबोधिकज्ञान ४१-१४७ श्रुतज्ञान ४१-४२ श्रुतज्ञान- लक्षण अने तेना भेदो अक्षरश्रुतनुं स्वरूप ४४ पूर्वार्ध संज्ञाक्षरनुं स्वरूप ४४ उ०-४५ लब्ध्यक्षरनुं स्वरूप अने तेना भेदो ४६-५३ अत्यन्तानुपलब्धि, सामान्यानुपलब्धि अने विस्मृत्यनुपलब्धि ए त्रण अनुपलब्धिमुं तथा सादृश्यत उपलब्धि, विपक्षत उपलब्धि, उभयधर्मदर्शनत उपलब्धि, औपम्यत उपलब्धि अने आगमत उपलब्धि ए पांच उपलब्धिमुं खरूप ५४ पांच उपलब्धिओ संज्ञीने होय छे अने त्रण अनुपलब्धिओ असंज्ञिने होय छे ५५-१७ व्यञ्जनाक्षरनुं स्वरूप अने तेना जुदी जुदी रीते वे वे प्रकारो ५८-५९ व्यञ्जनाक्षरनुं अभिधेयथी भिन्नाभिन्नपणुं ६०-६४ व्यञ्जनाक्षरना स्व-परपर्यायो अने तेमनुं परस्पर संवद्धासंबद्धपणुं १६-२६ १९-२० २० २१-२२ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२-२५ २५-२६ २७ २७-२९ २९-४१ ३०-४१ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । विषय ६५-७० अक्षरनुं प्रमाण अने तेने ख्यालमां लाववामाटे आकाशना गुरु, लघु, गुरुलघु अने अगुरुलधु पर्यायोनुं निरूपण. प्रसंगोपात पुद्गलास्तिकायना गुरु, लघु आदि पर्यायोनो विचार अने तेमनुं अल्पबहुत्व. धर्मास्तिकायादि अरूपी द्रव्योना अगुरुलघु पर्यायोनो विचार ७१-७५ ज्ञान- सर्वाकाशप्रदेशोथी अनन्तगुणपणुं ७६-७७ अनक्षरश्रुत. संज्ञिश्रुत अने असंज्ञिश्रुत [गाथा ७९-८४-कालिकीसंज्ञाने आश्री संज्ञी असंज्ञीनुं निरूपण. ८५-हेतुवाद अने दृष्टिवाद संज्ञाने आश्री संज्ञी असंज्ञीनुं निरूपण.] ८८-१३४ सम्यक् श्रुत अने मिथ्याश्रुत * * * * ९०-१३१ सम्यक्त्वनुं निरूपण सम्यक्त्वना पांच प्रकार ९१-११७ सम्यक्त्वनी प्राप्तिनो क्रम ९१-९३ क्षायिकादिसम्यक्त्वनी प्राप्ति थया पछी कर्मोनी स्थिति आदिनुं प्रमाण ९४-१११ यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरण ए त्रण कर णोनी प्राप्तिनो क्रम अने ते विषये गिरिसरित्प्रस्तर, पथ, ज्वर, वस्त्र, जल, पिपीलिका-कीडीओ, पुरुष अने कोद्रवानां दृष्टान्तो अधिगमजनित-परोपदेशजनित अने नैसर्गिक सम्यक्त्व [गाथा १०५-ग्रन्थिस्थानमा रहेल भव्य अने अभव्यने द्रव्यश्रुतनो लाभ] ११२-१७ सम्यक्त्व, मिश्र अने मिथ्यात्वनां पुद्गलोनो परस्पर संक्रम अने असंक्रम ११८-२६ __ औपशमिक सम्यक्त्व [ गाथा १२५-२६-सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय त्यारे केटलां अने कयां ज्ञान प्राप्त थाय ? ] १२७-२८ सासादन सम्यक्त्व ३०-३७ ३०-३१ ३१-३६ ३६-३७ ३७-३९ ४० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । गाथा विषय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वेदक सम्यक्त्व क्षायिक सम्यत्त्व १३० १३१ १३२ सम्यक्श्रुत अने मिथ्याश्रुतनो विभाग १३३-३४ सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननो विशेष १३५-३९ सादिश्रुत अने अनादिश्रुत १४०-४२ सपर्यवसितश्रुत अने अपर्यवसितश्रुत १४३ गमिकश्रुत अने अगमिकश्रुत १४४-४६ अंगश्रुत अने अंगवाह्य श्रुत [ दृष्टिवादना अध्ययन माटे स्त्रीओनु अनधिकारिपणुं अने तेनां कारणो. पत्र ४४-४५ टिप्पणमां-पांच सो आदेश पैकीना केटलाएक आदेशोनो संग्रह ] ४२ ४१ ४२-४३ ४३-४४ ४४ ४४-४६ १४९-८०५ अनुयोगाधिकार ४६-२५४ १४९ अनुयोगाधिकार द्वारगाथा १५०-७२ १निक्षेपद्वार ४७-५८ १५० निक्षेपना एकार्थिक शब्दो ४७ १५१-५२ अनुयोगनो सात प्रकारे निक्षेप अने तेना भेदो ४७ १५३-६८ द्रव्यानुयोग, क्षेत्रानुयोग, कालानुयोग, वचनानुयोग अने भावानुयोगर्नु खरूप ४७-५१ [गाथा १६०-६१ -पृथ्वीजीवोनुं परिमाण. १६४–लिङ्गत्रिक वचनत्रिक इत्यादि सोळ प्रकारनां वचनो] १६९-७० द्रव्यादि निक्षेपोनो एक बीजामां समवतार-समावेश ५१-५२ १७१-७२ द्रव्यादिना अनुयोग अने अननुयोग विषयक . दृष्टान्तो ५२-५८ १७१ १ द्रव्यना अनुयोग अने अननुयोग विषये वत्स-गोणी-- वाछरडुं अने गायनुं उदाहरण २ क्षेत्रना अनुयोग अने अननुयोग विषये कुब्जानुं उदाहरण ३ कालना अननुयोग अने अनुयोग विषये स्वाध्यायन उदाहरण ५३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७२ १७३-८७ १७३ १७४ १७५- ७७ १७८ १७९ १८० १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ - २०७ १८८ १८९ बृहत्कल्पसूत्री पीठिकानो विषयानुक्रम विषय ४ वचनना अनुयोग अने अननुयोग विषये बधिर कुटुंबना वार्त्तालापनुं उदाहरण भावानुयोग अने अननुयोग विषयक सात उदाहरणो १ श्रावकभार्यानुं उदाहरण २ साप्तपदिकनुं उदाहरण ३ कोंकण देशवासी बाळकनुं उदाहरण ४ नकुल- नोळीआनुं उदाहरण ५ कमलामेलानुं उदाहरण ६ शाम्बनुं उदाहरण. ७ श्रेणिकनो कोप उदाहरण २ एकार्थिक द्वार एकार्थिक कथनना गुणो श्रुत, सूत्र, सिद्धान्त, शासन इत्यादि सूत्रना एकार्थिको श्रुतना निक्षेपो सूत्र अने ग्रन्थना निक्षेपो 1 सिद्धान्तना निक्षेप अने तेना प्रकारो सर्वतन्त्र सिद्धान्तनुं स्वरूप प्रतितन्त्र सिद्धान्तनुं स्वरूप अधिकरणसिद्धान्तनुं स्वरूप अभ्युपगमसिद्धान्तनुं स्वरूप शासन अने आज्ञाना निक्षेपो वचनना निक्षेपो उपदेश, प्रज्ञापना अने आगमना निक्षेपो अनुयोग, नियोग, भाषा इत्यादि अर्थना एकार्थिको ३ निरुक्तद्वार 'निरुक्त' नो अर्थ अर्थनुं - अनुयोग नियोग भाषा आदिनुं निरुक्त अने तद्विपथक दृष्टान्तो १९० - ९३ अनुयोगनुं निरुक्त अने अणुस्व वादरत्व विषये पेटा आदि दृष्टांतो १९४-९५ नियोगनुं निरुक्त अने तद्विषये उंडिकापत्रकनुं दृष्टान्त ५३ ५४-५८ ५४ ५५ ५५ -५६ ५६ ५७ ५७ ५८-६९ ५८ ५८ ५८-५९ ५९ ५९ ५९ ६० ६० ६० ६० ६० ६१ ६१ ६१-६७ ६१ ६१ ६२ ६३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६७ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । विषय भाषानुं निरुक्त अने तद्विषये प्रतिश्रुत-प्रतिशब्दनुं दृष्टान्त । १९७-९८ विभाषानुं निरुक्तं अने तद्विषये अभ्रपटलनुं दृष्टान्त १९९-२०० वार्तिक- निरुक्त अने तद्विषये चार मंखोनुं दृष्टान्त २०१ व्यक्तिकर अथवा वार्तिककारनी योग्यता । २०२-७ निक्षेप, निरुक्त, अनुयोगद्वार आदि द्वारा पदार्थनुं व्याख्यान अने अंग उपांग आदि आगमोनुं निरूपण श्रीऋषभ तीर्थकरे कयु छे तेम ज श्रीमहावीरदेवे कयु छे ? के ते करतां जुदी रीते ? ए प्रश्ननो उत्तर अने ते विषये वर्तिनी-- गाडाना चीलानुं दृष्टान्त ६५-६७ २०८-३३ ४ विधिद्वार ६७-७२ २०८ विधिना एकाथिको ६७ २०९-१० बुद्धिशाळी अने मंदमति शिष्योने लक्षीने अनुयोग आपत्रानो ____ अर्थात् सूत्रनुं व्याख्यान करवानो विधि २११-१४ बुद्धिमान् अने मंदमति शिष्योने अनुयोग-सूत्रनी वाचना आपवामाटे प्रतिपादन करेल भिन्न भिन्न विधिमाटे आचार्य उपर रागद्वेष आदि दोषोनो आरोप अने तेनुं समाधान ६७-६८ २१५-२३ अतिपरिणामक, अपरिणामक आदि एकांत अयोग्य शिष्योने अनुयोग अर्थात् सूत्रार्थनी वाचना नहि आपवामां रागद्वेषनो अभाव अने तद्विषये दारु-लाकडं, धातु, व्याधि, बीज, काटुक, लक्षण, स्वप्न आदि दृष्टान्तो । २२४-३३ कालान्तरमा योग्यता प्राप्त करी शके एवा शिष्योने क्रमसर अनुयोग आपी योग्यता प्राप्त कराववामां राग-द्वेषनो अभाव अने तद्विषये अग्नि, बालक, ग्लान, सिंह, वृक्ष, करील, हस्ती, शरवेध, पत्रच्छेद्य, प्लवक, घटकार, पटकार, चित्रकार, धमक आदि दृष्टांतो अने तेनो उपनय ७०-७२ २३४-४० ५ प्रवृत्तिद्वार ७२-७४ २३४-३७ अनुयोगनी प्रवृत्ति क्यारे थाय ? ते विषये चतुर्भंगी अने गो--गायनुं दृष्टान्त ७२ २३८-३९ उद्यमी आचार्य प्रमादी शिष्योने अनुयोगमा प्रवृत्त करे छे तद्वि षये आर्यकालकनुं दृष्टान्त Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४१-४५ २४६-५६ २५६-५७ २५८-७२ २५८-७० २५८-६४ २६५-७० २७१-७५ २८८ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम | विषय ६ 'केन वा द्वार अनुयोगदाताना गुणो अने तेमनी योग्यता ७ 'कस्य वा' द्वार अनुयोग कया सूत्रनो करवो ? अनुयोग दरेक सूत्रनो थइ शके छे पण अत्यारे कल्प - व्यवहारसूत्रनो अनुयोग प्रस्तुत छे. कल्प व्यवहार ए अंग के अंगो, श्रुतस्कंध के श्रुतस्कन्धो, अध्ययन के अध्ययनो, उद्देश के उद्देशा ए पैकी शुं छे ? एनुं निरूपण ८ अनुयोगद्वारद्वार उपक्रम, निरोप, अनुगम अने नय ए चार अनुयोगनां द्वारो ए द्वारो निरूपण करवानुं कारण ९ भेदद्वार उपक्रमद्वार लौकिक उपक्रम [ २५८-५९ – लौकिक द्रव्योपक्रम २६० - लौकिक क्षेत्रोपक्रम २६१ – लौकिक कालोपक्रम २६२— लौकिक अप्रशस्त भावोपक्रम अने तद्विषयेणिका, ब्राह्मणी अने अमात्यनां दृष्टान्तो २६३–६४—लौकिक प्रशस्त भावोपक्रम ] छ प्रकार शास्त्रीय उपक्रम अने तेमां प्रस्तुत अध्ययननो यथायोग्य समवतार निक्षेपद्वार २७६-३२९ १० लक्षणद्वार २७६-७७ अल्पग्रंथ, महार्थ आदि सूत्रनां लक्षणो २७८-८१ अलीक, उपघातजनक, अपार्थक आदि सूत्रना बत्रीस दोषो २८२-८७ निर्दोष, सारवत्, हेतुयुक्त, अलङ्कृत आदि सूत्रना आठ गुणो अने बीजा विशेष गुणो ओघनिष्पन्न, नामनिप्पन्न अने सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपनुं खरूप नाक्षर, अधिकाक्षर आदि उच्चारना दोषोथी रहित यथावस्थित सूत्र ने बोलवानी रीत पत्र २७ 46146 ७६-७८ ७८ ७८-८३ ७८-८२ ७९-८१ ८०-८२ ८२-८३ ८३-१०० ८३ ८४ ८५-८६ ८७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । गाथा पत्र विषय २८९ द्रव्यहीन अने द्रव्याधिकमां हानि दर्शावतुं अविरतिकार्नु एक बाईनुं उदाहरण २९०-९४ हीनाक्षर-अक्षरो पडी जाय तेम के अधिकाक्षर-नकामा अक्षरो वधारीने सूत्र बोलवामां प्रायश्चित्त अने तेथी हानि दर्शावतुं विद्याधर अने अभयकुमारनुं अने अशोक-कुणालसंप्रतिराजनुं उदाहरण अने ए ज आशयने मळतुं लोक प्रसिद्ध कामियसरोवरवासी वांदरानुं उदाहरण ८८-९० २९६ व्यत्यानेडित अने व्याविद्ध दोषनुं स्वरूप अने ए माटे अनु क्रमे पायस-खीरनुं अने आवलीनुं उदाहरण २९७ स्खलित, मिलित आदि दोषोनुं स्वरूप २९८ व्यत्यानेडितादि दोषोनुं प्रकारान्तरे स्वरूप २९९-३०१ हीनाक्षरादिदोषयुक्त सूत्र उच्चारवामां प्रायश्चित्तो ९१-९२ ३०२-८ संहिता, पद, पदार्थ आदि सूत्रव्याख्याना छ प्रकारो, तेनुं ___ स्वरूप अने ए व्याख्यानी सूत्र साथे घटना करवानी रीत ९२-९४ ३०९ सूत्र, पद, पदार्थ, पदनिक्षेप आदि सूत्रव्याख्याना रूपान्तरे पांच प्रकारो ९४ ३१०-१५ सूत्रपदनुं निरुक्त अने तेना संज्ञासूत्र आदि भेदो ९४-९५ ३१६ संज्ञासूत्रनुं वरूप ३१७ कारकसूत्रनुं खरूप ३१८ प्रकरणसूत्रनुं स्वरूप [ उत्सर्गसूत्र अपवादसूत्र उत्सर्गापवादसूत्र अपवादोत्सर्गसूत्रनुं खरूप] ३१९-२४ उत्सर्ग अने अपवादनो भावार्थ, उत्सर्गने लीधे अपवाद ! के अपवादने लीधे उत्सर्ग !, उत्सर्ग केटला ? अने अपवाद केटला ? उत्सर्ग श्रेयस्कर अने बलवान् ! के अपवाद ? ३२५ नाम, नैपातिक, उपसर्ग आदि पदोनुं स्वरूप ९८ ३२६-२७ सामासिक, ताद्धितिक, धातुकृत आदि पदार्थ- स्वरूप ९८-९९ ३२८-२९ निर्णयप्रसिद्धिनुं स्वरूप ३३०-३३ ११ तदर्हद्वार कल्प-व्यवहारना अनुयोगने लायक शिष्यो antar३३४८०५ १२ पर्षद्वार १०१-२५४ For Private Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३४-६१ विषय अनुयोगने लायक पर्षदनी अर्थात् शिष्योनी परीक्षा करवा माटे मुद्रशैलादि दृष्टांतो ३३५-३७ मुद्गशैल-पुष्करावर्त्तमेघनुं दृष्टांत अने मुद्गशैल जेवा शिष्यने अनुयोग आपवामां दोषो ३३८ काळी जमीननुं उदाहरण ३३९-४२ कुटनुं-घडानुं दृष्टान्त बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम | चालणीनुं दृष्टान्त ३४३–४५ मुद्गशैल, काणो घडो अने चालणी समान शिष्योनो 'अनुयोग सांभळ्या पछी पोते केटलं अने क्यां सुधी याद राखी शके छे' ए अर्थने सूचवतो परस्परनो वार्त्तालाप ३४५ - ६१ परिपूणक, हंस, महिष, मेष, मशक - मच्छर, जळो, बीलाडी, जाहक, कोई यजमाने चार ब्राह्मणो वच्चे आपेली एक गाय, कृष्णनी अशिवोपशमनी भेरी, आभीरी - भरवाडणनां दृष्टांतो ३६२-६३ योग्य शिष्यने सूत्रार्थनी वाचना नहि आपवामां अने अयोग्यने आपवामां प्रायश्चित्त प्रकारान्तरे जाणकार अज्ञान अने दुर्विदग्ध एम त्रण प्रकारनी पर्षदा ३६४-७७ ३६५-६६ जाणकार पर्षदानुं स्वरूप ३६७-६८ अज्ञान पर्षदानुं स्वरूप ३६९-७२ दुर्विदग्ध पर्षदानुं स्वरूप अने त्वरितग्राही - उतावळीया दुर्वि - दग्धवैयाकरणनुं दृष्टांत ३७३-७५ भाष्यकारे पोताना जमानाना आचार्योनी परिस्थितिनुं करेलुं तटस्थ सूचन ३७६-७७ दुर्विदग्ध वैद्यपुत्रनुं दृष्टांत अने तेनो दुर्विदग्ध शिष्यो साथै उपनय ३७८ - ९९ त्रीजी रीते लौकिक लोकोत्तर एम वे प्रकारनी पर्पदा ३७९-९८ पूरयन्ती, छत्रांतिका, बुद्धि, मन्त्री अने राहस्थिकी एम पांच प्रकारनी लोकिक लोकोत्तर पर्षदा अने तेनुं वर्णन कल्प-व्यवहारना अनुयोगमाटे लोकोत्तर छत्रांतिक पर्षदानुं अधिकारिप ३९९ २९ पत्र १०१-८ १०१ १०२ १०२ १०३ १०३ १०४-८ १०८ १०९-१२ १०९ १०९-११० ११० १११ ११२ ११२-१६ ११२-१६ ११६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० गाथा ४०३-४ ४००–८०५ कल्प-व्यवहारना अनुयोगमाटे लायक गणेल छत्रांतिक पर्षदाना गुणो ४००-१ छत्रान्तिक पर्षदाना गुणोनी द्वारगाथा ४०२ ४०५-७१४ ४०५ ४०६-७ ४०८ ४०९-१० ४११-१४ ४१५-७० ४१५ ४१७-६९ ४१७ ४१८-२४ बृहत्कल्पसूत्री पीठिकानो विषयानुक्रम । जघन्य, विषय १ बहुश्रुतद्वार जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट बहुश्रुतनुं स्वरूप २ चिरप्रत्रजितद्वार मध्यम अने उत्कृष्ट चिरप्रत्रजितनुं स्वरूप ३ कल्पिकद्वार * x * कल्पिकद्वारनी द्वारगाथा * सूत्रकल्पिक द्वार सूत्रोना अध्ययनमा अधिकारी अने तेनी मर्यादा अर्थकल्पिकद्वार सूत्रोना अर्थने शीखवामाटे अधिकारी तदुभयकल्पिकद्वार एक साधे सूत्र अने अर्थना अध्ययनमा अधिकारी उपस्थापनाकल्पिकद्वार उपस्थापना अर्थात् छेदोपस्थापनचारित्रने योग्य कोण ? शिष्यनी परीक्षा कर्या सिवाय उपस्थापना करनारने प्रायश्चित्तादि षड्जीवनिका अध्ययनना अर्थाधिकारो. छ प्रकारों द्रव्यकल्प. उपस्थापनानो क्रम विचारकल्पिकद्वार विचारभूमीमां अर्थात् स्थंडिलभूमीमां एकलो जवा माटे अधिकारी कोण ? अधिकारीने एकला मोकलवामाटे प्रायश्चित्त आदि X X X स्थंडिलभूमीतुं निरूपण X स्थंडिल निरूपणानां द्वारो भेदद्वार स्थंडिलभूमीना प्रकारो. आपातसंलोक आदि स्थंडिलोनुं वर्णन पत्र ११७-२५४ ११७ ११७ ११७ ११७-२१७ ११७ ११८ ११८ ११८-१९ ११९-२० १२१-३८ १२१ १२१-३८ १२१ १२१-२३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४२५-२९ ४३०-५५ अपायद्वार ४३० - ३७ स्थंडिलभूमीमां स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु आदिना आपातथीआव-जाथी उभी थती अडचणो अने तेवी स्थंडिलभूमीनो उपयोग करवामां लागता दोषो ४५६-६१ ४३८ - ४२ संज्ञाभूमी जवानो वखत वखतसर अने विना वखते संज्ञाभूमी जवानो विधि अने प्रायश्चित्त वगेरे ४४३-४४ विशुद्ध स्थंडिलभूमीनां लक्षणो ४६२ ४४५ स्थंडिलभूमीना १०२४ भांगाओ - प्रकारो ४४६–५१ औपघातिक, विषम, शुषिर, चिरकालीन, विस्तीर्ण, दूर, नजीक, चिलवाळी आदि स्थंडिलभूमीओनुं वर्णन ४५२ - ५५ अविधिथी अस्थंडिलमां संज्ञाभूमी जवाथी लागतां अन्य आचार्यना मतथी प्रायश्चित्तो वर्जनाद्वार ४६३-६९ ४७० बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । विषय शोधिद्वार अस्थंडिलनो उपयोग करवाथी लागतां प्रायश्चित्तो 6 संज्ञाभूमी जवामाटे त्याज्य दिशा वगेरेनुं निरूपण. " अणुजा ह जस्सुग्गहो” बोलीने स्थंडिलभूमीनो उपयोग. संज्ञाभूमि जतां रजोहरण, दंड, जलपात्र आदि पकड़ी राख - वानो विधि संज्ञाभूमी गया पछी आचमननो विधि. सचित्त आदि स्थंडिलभूमीनो उपयोग करवामाटे प्रायश्चित्तो अनुज्ञाद्वार विचारभूमीमा अनुज्ञात स्थंडिलभूमीओ कारणविधि यतनाद्वारो X विचारभूमी माटे कारणो, अनुज्ञात स्थंडिलभूमीओ अने तेमाटेनी यतनाओ X X X विचारभूमीमां स्वतंत्रपणे जवामाटे अधिकारी लेपकल्पिकद्वार पात्र लेप करवामाटे (रंगवामाटे ) लेप लाववानो अधिकारी पात्रलेप शास्त्रविहित तेम ज तीर्थंकरोए उपदिष्ट छे ४७१-५३० ४७१ ४७२ ४७३ - ७६ 'पात्रनो लेप करवामां अनेक दोषो होइ तीर्थकरोए ते माटे उपदेश करेल न होवो जोइए' ए शंकानुं समाधान X ३१ पत्र १२३-२५ १२५-३२ १२५-२७ १२७-२८ १२९ १२९ १३०-१३१ १३१-३२ १३२-३४ १३५ १३५-३८ १३८ १३५-५४ १३८ १३९ १३९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । गाथा १४० विषय पत्र ४७७-८१ पात्रने लेप नहि करवामां नुकशान अने छकायनी विराधना आदि दोषो ४८२-८७ शिष्ये पोतानी मतिकल्पनाथी सूचवेल पात्रने माटे लेप लाव वानो, तेने लेप करवानो अने ते लेप करेल पात्रने सूकाववानो विधि अने ते सामे आचार्यनो विरोध १४१-४३ ४८८ पात्रने लेप करवा अगाउ आचार्यनी ते माटे आज्ञा लेवी, तेम न करनारने प्रायश्चित्त अने दोषो ४९१-९५ पात्रने लेप करवा माटे लेप लेवानो विधि १४४ ४९६-९९ पात्र माटे लेप लेवा अगाउ गाडाने हांकनारनी रजा लेवी १४५ ५००-१० पात्रमाटे लेप लेतां छकायानी जयणा. पोते अगर जे गाडानो लेप लेवो ते वनस्पतिकाय आदि उपर होय ते रीते लेप लेवामा प्रायश्चित्तो. लेप लावीने गुरुने निवेदन करQ. गुरुने तेम ज बीजा साधुओने लेपनी आवश्यकता होय तो तेमाटे निमंत्रण १४५-४९ ५११-२२ पात्रने लेप करवानो अने तेने सूकववा वगेरेनो विधि १४९-५२ पात्रने लेप करवामाटे आणेल गाडानी मळीने मजबूत कप डामा नाखी, तेने अंगुठो, तर्जनी अने वचली आंगळीनी मददथी गाळी, तेनाथी पात्रने एक वे अगर त्रण वार लेप करवो. वधाराना लेपने भांगेल तूटेल पात्राने अट्टक अर्थात् कूटो लगाडवा माटे रू साथे मेळववो. एम करतां य वधे तो ते लेपनुं परिष्ठापन करवामाटे तेने रू साथे राखमां भेळववो. लेप करेल पात्रने लेप मजबूत थाय ते माटे घुटवा लायक पाषाण वगेरेथी घुटवू. लेप करेल पात्र सूकायुं न होय अथवा हवावाळु होय त्यारे शें करवू ?. लेप करेल पात्रने. जीवादिनी हिंसा न थाय ते माटे राख लगाडवी. ओस धुमस वगेरे अप्कायादिनी रक्षामाटे कइ ऋतुमां पात्रने सूकववामाटे खुल्लामा क्यां सुधी राखतुं ? अने क्यारे न राखq? पात्रने केटला लेप करवा ? अने लेप करवानुं कारण १५२ ५२४-२९ तज्जातलेप, युक्तिलेप अने द्विचक्रलेप एम त्रण प्रकारना लेपोर्नु अने भांगेल : पात्रने सांधवामाटेना मुद्रित ५२३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३३ गाथा पत्र १५२-५३ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । विषय नौबन्ध अने स्तेनकबन्धनुं तेम ज जघन्य मध्यम अने उत्कृष्ट लेपो, खरूप ५३० खतंत्रपणे लेप लाववा माटेनो अधिकारी ५३१-४० पिण्डकल्पिकद्वार ५३१-३२ पिण्ड अर्थात् गौचरचर्यामाटे अधिकारी ५३३-४० पिण्ड लेतां उद्गम उत्पादना एषणा वगेरे दोषो पैकीना जे दोषो लागे तेमाटेनां प्रायश्चित्तो । १५३ १५४-५८ १५४ .. १५४-५८ १५८-७४ १५८ १५८-६८ १५८-६१ १६१-६८ १६८-७४ १६८ ५४१-६०२ शय्याकल्पिकद्वार ५४१-४३ शय्या अर्थात् वसतिना रक्षणमाटे अने ग्रहणमाटे अधिकारी ____ अने अनधिकारी तेम ज प्रायश्चित्तो ५४४-७९ रक्षणकल्पिक ५४४-५३ वसतिने सूनी मूकीने जवाथी उत्पन्न थता दोषो ५५४-७९ बाळसाधुने वसति सोंपीने जवाथी उत्पन्न थता दोषो ५८०-६०२ ग्रहणकल्पिक ५८० वसतिना ग्रहणमाटे अधिकारी ५८१-८७ सात सात प्रकारना मूलगुणकरण अने उत्तरगुणकरण आदि वसतिना उपघातो-दूषणो अने प्रायश्चित्तो ५८८ संसक्त वसति ५८८ उ०-९२ ब्रह्मचर्यप्रत्यवाया, आत्मप्रत्यवाया अने दर्शनप्रत्यवाया एम त्रण प्रकारना प्रत्यवाय-हरकतवाळी वसति अने प्रायश्चित्तो ५९३-६०२ कालातिक्रान्त, उपस्थान, अभिक्रान्त, अनभिक्रान्त, वर्ण्य, महावय॑ वगेरे नव प्रकारनी वसतिओ, तेमाटेनां प्रायश्चित्तो अने तेने लगती यतनाओ १६९-७० १७० १७१ १७१-७४ ६०३-४८ ६०३-५ १७४-९३ १७४-७५ वस्त्रकल्पिकद्वार 'वस्त्र' पदना निक्षेपो द्रव्यवस्त्रनो अधिकार अर्थात् प्रकृत प्रसङ्गमा उपयोग वस्त्र लेवामां विधि- पालन न करे ते माटे प्रायश्चित्तो मलयगिरिकृत पीठिकाटीकानो विभाग समाप्त ६०६ १७६ १७६ D Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । गाथा पत्र विषय आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिए अनुसंधान करेल पीठिकाटीका आचार्य श्रीक्षेमकीर्त्तिए करेल टीकार्नु मंगलाचरण, उपोद्धात ____ अने टीकाना अनुसंधाननो निर्देश (वस्त्रकल्पिकद्वार चालु) १७७-७८ ६०७-८ वस्त्र लेवामाटेनां ६०६ गाथाथी चालु प्रायश्चित्तो १७८-७९ ६०९-१४ वस्त्र लेवा माटे औद्देशिक, प्रेक्षा, अन्तर अने उज्झितधर्मा ए __ चार प्रतिमाओ अने तेनुं स्वरूप । १७९-८२ ६१५-४८ वस्त्र लेवामाटे गच्छवासीओनी सामाचारी १८२-९३ ६१५-६१८ गच्छवासीने वस्त्र लेबानो विधि । १८२-८३ ६१९-२४ गच्छवासीने वस्त्र लेवा जवानो विधि अने एथी विरुद्ध वर्त नारने तेम ज वस्त्र लेवामाटे वस्त्रदाताने दबावनारने, तेनी स्तुति वगेरे करनारने तेम ज वस्त्र लेवा पहेलां 'ए कोर्नु छ ? पहेलां ए शुं हतुं ?' इत्यादि नहिं पूछनारने लागता दोषो अने प्रायश्चित्तो १८३-८६ ६२५-३१ वस्त्र लेवा पूर्वे 'ए कोर्नु छ ?' ए पूछवानुं कारण १८६-८८ ६३२-४२ वस्त्र लेवा अगाउ 'ए कोर्नु छ ?' ए प्रश्न सांभळी गरीब, दुर्भग, पदभ्रष्ट राजा, मंत्री, चोर, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, धावमाता, आदिने थयेल अप्रीतिने-रीसने शांत करवानो इलाज १८८-९१ ६४३-४८ वस्त्र लेवा अगाउ 'ए वस्त्रने तमे शा उपयोगमा लेशो ? अथवा ए शा उपयोगमा आवतुं हतुं ?' ए पूछवानुं कारण अने ते न पूछवाथी उत्पन्न थता पुरःकर्मादि दोषो १९१-९३ ६४९-६८ पात्रकल्पिकद्वार १९३-९८ ६४९ पात्र लाववा माटे अधिकारी १९३ ६५० 'पात्र'ना निक्षेपो ६५१ द्रव्यपात्र भावपात्रनुं स्वरूप १९४ ६५२-५३ अलाबुनां, लाकडानां अने माटीना एम त्रण प्रकारनां पात्रो अने तेना उत्कृष्ट मध्यम अने जघन्य आदि प्रकारो अने तेना लेवामां विपर्यास थतां लागतां प्रायश्चित्तो ६५४-६८ पात्र लेवामाटेनी चार प्रतिमाओ® खरूप अने तेमाटे विशेष विधि १९५-९८ ६६९-८७ अवग्रहकल्पिकद्वार १९९-२०६ ६६९-७१ देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गाथापत्यवग्रह आदि अवग्रहना पांच १९३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय प्रकार अने तेना बळवान् अबळवान् पणानो निर्देश अने ते दरेकना द्रव्य क्षेत्र काल भाव एम चार चार प्रकारो १९९-२०० ६७२ - ८० देवेन्द्र क्षेत्रावग्रह, चक्रवर्त्तिक्षेत्रावग्रह, गाथापतिक्षेत्रावग्रह, सागारिक क्षेत्रावग्रह अने साधर्मिक क्षेत्रावग्रहनुं स्वरूप ६८१ - ८७ देवेन्द्र चक्रवर्ती आदिना द्रव्य काल अने भावावग्रहनुं स्वरूप ६८८-७१४ विहारकल्पिकद्वार ६८८ गीतार्थविहार अने गीतार्थनिश्रित विहार ६८९ - ९२ गीतार्थनो अर्थ अने गीतार्थ अने गीतार्थनिश्रितनुं खरूप ६९३ जघन्य मध्यम उत्कृष्ट गीतार्थनुं स्वरूप ६९४-९५ एकलविहारना दोषो अने प्रायश्चित्त ६९६-९७ एकलविहारीनुं मंदपणुं अने मंदपणानुं स्वरूप ७०३-७ ६९८-७०२ एकलविहारीना ज्ञान दर्शन चारित्रनी भयंकर हानिनुं स्वरूप अयोग्य आचार्य करवामां आवे अथवा अयोग्य पोते आचार्य पदने धारण करे ते माटेनां प्रायश्चित्तो आचार्यपदने योग्यनुं स्वरूप ७०८ - १२ ७१३-१४ कल्पिकद्वारनो उपसंहार बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । * * ७१५-५० उत्सारकल्पिकद्वार ७१५-१६ उत्सारकल्प करनार - करावनारने प्रायश्चित्त अने लागता दोषो ७१७ उत्सारकल्प करनार - करावनार द्वारा थती मिथ्यात्वनी वृद्धि अने ते विषये परमाणुपुद्गलने पंचेन्द्रिय तरीके ओळखावनार उत्सारकल्पिक आचार्यनुं दृष्टान्त उत्सारकल्पिकने लागतो संयम विराधना दोष ७१८ ७१९-२३ उत्सारकल्पिकने लागतो योगविराधना दोष अने तद्विषये ७३२ ७३३-३६ * ३५ उत्सारकल्पने करावनारनुं स्वरूप उत्सारकल्पनी लायकात सूचवता गुणो पत्र २००-३ २०३-६ २०६-१६ २०६ २०६-८ २०८ २०८ २०९ २१०-१२ २१२-१४ २१५-१६ २१६ घण्टाशृगालनं दृष्टान्त २२०-२२ ७२४- २६ उत्सारकल्पिकने लागतो ख, पर अने प्रवचननी हानिनो दोष २२३ - २४ ७२७-२८ क्रमसर सूत्रोनो अभ्यास करवामां थता लाभो २२४-२५ ७२९-३१ उत्सारकल्पिकने उपर जणान्युं तेम दोषो अने प्रायश्चित्त लागतां होय तो उत्सारकल्पनुं नाम वर्णन आदि शा माटे ? ए प्रकारनी शिष्यनी शंकानो उत्तर २१७-३३ २१७ २१७-१९ २१९ २२५–२६ २२६ २२७ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ गाथा पत्र २२८ २२८ २२९ . . . २३० २३१ २३१-३३ २३३-३५ २३६ २३७ बृहत्कल्पसूत्रनी पीठिकानो विषयानुक्रम । विषय ७३७-३८ अन्य आचार्यनी मान्यता मुजब उत्सारकल्पनी लायकात सूचवता गुणो अयोग्यने उत्सारकल्प कराववामां प्रायश्चित्त ७४० उत्सारकल्प करवानां कारणो ७११-४३ उत्सारकल्पिकने अधिकार. ___ बीजाना पुण्यने ढांकी देनार रक्तपटभिक्षुनुं उदाहरण ७४४ दृष्टिवादनो उत्सार करवामाटे कारणो ७४५-५० उत्सारकल्प करनार माटे काल, अकाल, खाध्याय, अखाध्याय आदिनो अभाव ७५१-६५ ४ अचंचलद्वार गतिचंचल स्थानचंचल भाषाचंचल अने भावचंचलनु स्वरूप ७५७-५८ ५ अवस्थितद्वार लिङ्गानवस्थित अने चारित्रानवस्थितनुं खरूप ७५९ ६ मेधावीद्वार अवग्रहणमेधावी धारणामेधावी अने मर्यादामेधावीनुं स्वरूप ७६० ७ अपरिस्रावीद्वार लौकिक लोकोत्तरिक भावपरिस्रावी अपरिस्रावीन खरूप अने ते विषे अनुक्रमे अमात्य अने बटुकीनां दृष्टान्तो ७६१ ८ 'यश्च विद्वान् द्वार ७६२-९ ९ 'पत्त' द्वार तितिणिक, चलचित, गाणगणिक, दुर्बलचारित्र, आचार्यपरि भाषी, वामावर्त, पिशुन, आदिअदृष्टभाव, अकृतसामाचारी, तरुणधर्मा, गर्वित वगेरे छेदसूत्रार्थने अयोग्यतुं स्वरूप । ७९१ अनुज्ञातद्वार ७९२-८०५ परिणामकद्वार ७९२-९७ परिणामक, अपरिणामक अने अतिपरिणामक शिष्योर्नु स्वरूप अने तेमनी समज अने अणसमजनुं खरूप ७९८-८०२ परिणामक, अपरिणामक वगैरे शिष्योनी परीक्षामाटे आम्र, वृक्ष, बीज वगेरे दृष्टांतो ८०३-४ छेदसूत्रोना अर्थने सांभळवानो विधि परिणामकद्वारनो उपसंहार अने पीठिकानी समाप्ति For Pratere sunarose only २३७-३८ २३८ २३८ २३८-४८ २४८ २४९-५४ २४९-५० २५१-५२ २५२ २५३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यश्रीभद्रबाहुखामिविनिर्मितखोपज्ञनियुक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । आचार्यश्रीमलयगिरिपादविरचितयाऽर्धपीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकी-- चार्यवरानुसन्धितया शेषसमग्रवृत्त्या समलङ्कृतम् । पीठिका। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ જેન આત્માનંદ સભા પ્રાપ્ય પુસ્તકો ક્રમ વિગત | કિંમત ) ૦ ૧ ત્રિશષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ ૨-૩-૪ પુસ્તક ... ૨ ત્રિશષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ ....... દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૧......... દ્વાદશારે નયચક્રમ ભાગ-૨....... દ્વાદશારે નયચક્રમ ભાગ-૩.......... ૬ સ્ત્રીનિવણ કેવળી ભુક્તિ પ્રકરણ ............ જિનદત્ત આખ્યાન..... ૮ સાધુ-સાધ્વી આવશ્યક ક્રિયા સૂત્ર પ્રત... ૯ કુમાર વિહાર શતક પ્રતાકારે......... ૧૦ પ્રાકૃત વ્યાકરણ ...... ૧૧ આત્મક્રાંતિ પ્રકાશ ........... ૧૨ નવસ્મરણાદિ સ્તોત્ર સંદોહ. ૧૩ જાણ્યું અને જોયું....................... ૧૪ સુપાર્શ્વનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨ ..... ૧૫ કથાર– કોષ ભાગ-૧ .. ૧૬ જ્ઞાન પ્રદિપ ભાગ ૧-૨-૩ સાથે. ૧૭ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૧.... ૧૮ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨ ....... ૧૯ શત્રુંજય ગિરિરાજ દર્શન.. ૨૦ વૈરાગ્ય ઝરણા ............ ૨૧ ઉપદેશમાળા ભાષાંતર... ૨૨ ધર્મ કૌશલ્ય..................... ૨૩ નમસ્કાર મહામંત્ર.. ૨૪ પુણ્યવિજય વિશેષાંક .. ૨૫ આત્મવિશુદ્ધિ .......... ૨૬ જૈનદર્શન મીમાંસા . ૨૭ શત્રુંજય તીર્થનો ૧૫મો ઉદ્ધાર.... ૨૮ આત્માનંદ ચોવિસી.... ૨૯ બ્રહ્મચર્ય ચારિત્ર પૂજાદિત્રયી સંગ્રહ ..... ૩૦ આત્મવલ્લભપૂજા .. ૩૧ નવપદજી પૂજા................... ૩૨ ગુરુભક્તિ ગદુંલી સંગ્રહ.. ૩૩ ભક્તિ ભાવના..................... ૩૪ જૈન શારદાપૂજન વિધિ. ૩૫ જંબુસ્વામી ચરિત્ર ..... ૩૬ ચાર સાધન ......... ૩૭ શ્રી તીર્થંકર ચરિત્ર (સચિત્ર). ૫૦-૦૦ ૫૦-૦૦ ૫૦૦-૦૦ ૩૫૦-૦૦ ૩પ૦-૦૦ .. ૨૫-૦૦ •.... ૧૫-૦૦ ૨૦-૦૦ ૨૦-૦૦ ૫૦-૦૦ .. ૫-૦૦ ૭-00 ૧૦-૦૦ ૨૦-૦૦ ૩૦-૦૦ ૪૦-૦૦ ૪૦-૦૦ ૮૦-૦૦ ૧૦-૦૦ . ૩-૦૦ ૩૦-૦૦ ... ૧૦-૦૦ .. ૫-૦૦ ૧૦-૦૦ ૧૦-૦૦ ૧૦-૦૦ ૨-૦૦ ૨-૦૦ ••••• પ-00 ૫-00 પ-00 ૨-00 ૨-00 ૫-૦૦ ૧૫-૦૦ .. ૨૦-૦૦ ૧૫0-00 ...... Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमो त्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ पूज्यश्रीभद्रबाहुखामिविनिर्मितखोपज्ञनिर्युक्त्युपेतं बृहत्कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसङ्कलितभाष्योपबृंहितम् । आचार्यश्रीमलयगिरिपादविरचितया पीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकीर्त्या चार्यविदृब्धया शेषवृत्त्या समलङ्कतम् । पीठिका। प्रकटीकृतनिःश्रेयसपदहेतुस्थविरकल्प-जिनकरूपम् । वृत्तिकनम्राशेषनरा-ऽमरकल्पितफलकल्पतरुकल्पम् ॥ १॥ द्विहितं मालम् नत्वा श्रीवीरजिनं, गुरुपदकमलानि बोधविपुलानि । कल्पाध्ययनं विवृणोमि लेशतो गुरुनियोगेन ॥ २ ॥ भाष्यं क चाऽतिगम्भीरं ?, क चाऽहं जडशेखरः । तदत्र जानते पूज्या, ये मामेवं नियुञ्जते ॥ ३ ॥ अद्भुतगुणरत्ननिधौ, कल्पे साहायकं महातेजाः । दीप इव तमसि कुरुते, जयति यतीशः स चूर्णीकृत् ॥ ४ ॥ इह शिष्याणां मङ्गलबुद्धिपरिग्रहाय शास्त्रस्याऽऽदौ मध्येऽवसाने चावश्यं मङ्गलमभिधात- कि व्यम् , यत आदिमङ्गलपरिगृहीतानि शास्त्राणि पारगामीनि भवन्ति, मध्यमङ्गलपरिगृहीतानि 10 द्विहितः शिष्यबुद्धिप्वारोपितानि स्थिरपरिचितान्युपजायन्ते, पर्यन्तमङ्गलसमलङ्कतानि शिष्य-प्रशिष्यपर- शास्त्रस्या म्परागमनतः स्फातीभवन्ति । उक्तं च तं मंगलमादीए, मज्झे पजंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय निद्दिढें ॥ तस्सेव य थेजत्थं, मज्झिमयं अंतिमं पि तस्सेव । अव्वोच्छितिनिमित्तं, सिस्स-पसिस्सादिवंसस्स ॥ [विशेषाव. गा. १३-१४] 16 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपोद्धातः तत्राऽऽदिमङ्गलं पापप्रतिषेधकत्वादिदं सूत्रम्-'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए" (उद्देशः १ सूत्रं १) इति, मध्यमङ्गलं "कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं जाव अंगमगहातो इत्तए" (उ०१ सू० ५१) एवमादि, पर्यवसानमङ्गलं "छव्विहा कप्पट्टिती पण्णत्ता" (उ० ६ सू० १४) इत्यादि । तच्च मङ्गलं चतुर्धा 5 वक्ष्यमाणखरूपम् । तत्र यद् नोआगमतो भावमङ्गलं तद् द्विविधं सूत्रभणितं सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितं च, भाष्यभणितमित्यर्थः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेर्भाष्यस्य च सम्प्रत्येकग्रन्थत्वेन जातत्वात् । अथ कः सूत्रमकार्षीत् ? को वा नियुक्तिम् ? को वा भाष्यम् ? इति, उच्यते-इह पूर्वेषु यद् नवमं प्रत्याख्याननामकं पूर्व तस्य यत् तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन् विंशतितमे प्राभृते मूलगुणेषूतरगुणेषु चापराधेषु दश विधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तमुपवर्णितम् , कालक्रमेण 10 च दुःषमानुभावतो धृति-बल-वीर्य-बुद्ध्या-ऽऽयुःप्रभृतिषु परिहीयमानेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि जातानि, ततो 'मा भूत् प्रायश्चित्तव्यवच्छेदः' इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुखामिना कल्पसूत्रं व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः । इमे अपि च कल्प-व्यवहारसूत्रे सनियुक्तिके अल्पग्रन्थतया महार्थत्वेन च दुःषमानुभावतो हीयमानमेधा-ऽऽयुरादिगुणानामिदानीन्तनजन्तूनामल्पशक्तीनां दुर्महे दुरवधारे जाते, ततः सुख1B ग्रहण-धारणाय भाष्यकारो भाष्यं कृतवान् , तच्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तयनुगतमिति सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः । एष शास्त्रस्योपोद्धातः । अनेन चोपोद्धातेनाभिहितेन सूत्रादयोऽर्था अतिव्यक्ता भवन्ति, यथा दीपेनाऽपवरके तमसि । उक्तं च वत्तीभवंति दवा, दीवेणं अप्पगासे उबरए। वत्तीभवंति अत्था, उवघाएणं तहा सत्थे ॥ [कल्प बृ. भा.] 20 उपोद्घाताभिधानमन्तरेण पुनः शास्त्रं खतोऽतिविशिष्टमपि न तथाविधमुपादेयतया विराजते, यथा नभसि मेघच्छन्नश्चन्द्रमाः । उक्तं च मेघच्छन्नो यथा चन्द्रो, न राजति नभस्तले । उपोद्घातं विना शास्त्रं, न राजति तथाविधम् ॥ तत्र सूत्रभणितं "नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे" (उ०१ सू०१) 25 इत्यादि । सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितमिदम् १ "तं च मंगलं चउन्विहं, णाममंगलं ठवणामंगलं दव्वमंगलं भावमंगलमिति । एयाणि आवस्सए पुवं वणियाणि (पुव्वभणियाणि प्र०)। णवरं भावमंगले इमो विसेसो-जं तं णोआगमओ भावमंगलं तं दुविहं, सुत्तभणियं च सुत्तप्फासियणिजुत्तिभणियं च,भाष्यभणितमित्यर्थः । तत्थ सुत्तमणियं “णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा आमे तालपलम्बे अभिण्णे पडिग्गाहेत्तए" इत्येवमादि प्रागभिहितं । सुत्तप्फासियणिजुत्तिभणियं पुण इमाणं दोण्हं अज्झयणाणं अप्पग्गंथ-महत्थाणं सुहुम-णितणतणेण य दुग्गहण-दुद्धराणं 'दुस्समाणुभावेण य अप्पसत्तिणो पुरिस' त्ति काउं सुहगहण-धारणा-संति-मंगलणिमित्तं आयरियो भासं (भस्सं प्र०) काउकामो आदावेव (आदाविदं प्र०) गाथासूत्रमाह-काऊण णमोकार गाहा ।” इति चूर्णिः ॥ २र्युक्ती इ° मो ३ ॥ ३°ति अत्था दी मो ३ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतो भाष्यगाथा १-२] पीठिका । काऊण नमोकारं, तित्थयराणं तिलोगमहियाणं । नियुक्ति कप्पन्नवहाराणं, वक्खाणविहिं पवक्खामि ॥१॥ मङ्गलम् 'कृत्वा' विधाय 'नमस्कार' प्रणामम् , केभ्यः ? इत्याह-'तीर्थकरेभ्यः' तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ-द्वादशाङ्गं प्रवचनं तदाधारः सङ्घोवा, तत्करणशीलास्तीर्थकरास्तेभ्यः। गाथायां षष्ठी चतुर्थ्यथें प्राकृतत्वात् । उक्तं च ___ छट्ठिविभत्तीए भन्नइ चउत्थी इति । किंविशिष्टेभ्यः ? इत्याह-'त्रिलोकमहितेभ्यः' त्रयो लोकाः समाहृताः, समवसरणे त्रयाणामपि सम्भवात् । तथाहि-समागच्छन्ति भगवतां तीर्थकृतां समवसरणेष्वधोलोकवासिनो भवनपतयः, तिर्यग्लोकवासिनो वानमन्तर-तिर्यक्पञ्चेन्द्रिय-मनुष्य-]ज्योतिष्काः, ऊर्ध्वलोकवासिनः कल्पोपपन्नका देवाः । त्रिलोकेन महिताः-पूजिताः त्रिभिर्वा लोकैर्महितास्त्रिलोकमहितास्तेभ्यः । 10 नमस्कारं कृत्वा किम् ? इत्याह-कल्पश्च व्यवहारश्च कल्प-व्यवहारौ तयोः 'व्याख्यानविधिम्' अनुयोगविधिं प्रकर्षेण भृशं वा वक्ष्यामि प्रवक्ष्यामि ॥ १॥ ननु कल्पो व्यवहारश्चेति द्वौ ग्रन्थौ, ततः 'कल्प-व्यवहारयोः' इति प्राप्तम् , कथमुच्यते 'कल्प-व्यवहाराणाम्' ? इति, अत आह भाष्यकृत् सकयपाययवयणाण विभासा जत्थ जुजते जंतु । अज्झयणनिरुत्ताणि य, वक्खाणविही य अणुओगो ॥२॥ मलयगिरिप्रभृतिव्याकरणप्रणीतेन लक्षणेन संस्कारमापादितं वचनं संस्कृतम् , प्रकृतौ भवं प्राकृतं स्वभावसिद्धमित्यर्थः, तेषां संस्कृत-प्राकृतवचनानां 'विभाषा' वैविक्त्येन भाषणं कर्तव्यम् । तच्चैवम्ए-ओकारपराइं, अंकारपरं च पायए नत्थि । 20 प्राकृतव-सगारमज्झिमाणि य, क-चवग्ग-तवग्गनिहणाई [नाट्य शास्त्र अ. १७ श्लो.६] संस्कृत योरुपअस्या इयमक्षरगमनिका-एकारपर ऐकारः, ओकारपर औकारः, अंकारपर अः इति विस- लक्षणम् र्जनीयाख्यमक्षरम् , तथा वकार-सकारयोर्मध्यगे ये अक्षरे श-पाविति, यानि च कवर्ग-चवर्गतवर्गनिधनानि ङ-अ-ना इति, एतान्यक्षराणि प्राकृते न सन्ति ॥ तत एतैरक्षरैविहीनं यद् वचनं तत् प्राकृतमवसातव्यम् । एभिरेव ऐ औ अः श ष ङ 25 न इत्येवंरूपैरुपेतं संस्कृतम् । एषां संस्कृत-प्राकृतवचनानां विभाषा “जत्थ जुज्जते जंतु" 'यत्र' प्राकृते संस्कृते वा 'यद्' वचनम्-एकवचन-द्विवचनादि 'युज्यते' घटामटति तद् वक्तव्यम् । तत्र संस्कृते एकवचन द्विवचन बहुवचनं च भवति, यथा-वृक्षः वृक्षौ वृक्षाः; प्राकृते त्वेकवचनं बहुवचनं च, न तु द्विवचनम् , तस्य बहुवचनेनाभिधानात्, "बहुवयणेण दुवयण"मिति वचनात् । ततः 'कप्पव्ववहाराण'मित्यदोषः ॥ 30 अथ कल्पशब्दस्य व्यवहारशब्दस्य च कोऽर्थः ? को वा तयोः कल्प-व्यवहाराध्ययनयोः प्रतिविशेषः? तत आह–'अध्ययननिरुक्तानि च' वक्तव्यानि, निश्चितमुक्तं निरुक्तम् , अक्षरार्थ इत्यर्थः, अध्ययनयोः निरुक्तानि अध्ययननिरुक्तानि, तानि च वक्तव्यानि । तद्यथा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपोद्धातः कल्पश.. कल्पशब्दोऽनेकार्थाभिधायी कचित् सामथ्र्ये, यथा-वर्षाष्टप्रमाणश्चरणपरिपालने कल्पः, ब्दस्य नि. समर्थ इत्यर्थः । कचिद वर्णनायाम् , यथा-अध्ययनमिदमनेन कल्पितम्, वर्णितमित्यर्थः । रुक्तम् कचिच्छेदने, यथा-केशान् कर्तर्या कल्पयति, छिनत्तीत्यर्थः । क्वचित् करणे क्रियायाम् , यथाकल्पिता मयाऽस्याऽऽजीविका, कृता इत्यर्थः । कचिदौपम्ये, यथा-सौम्येन तेजसा च यथाक्रम6 मिन्दु-सूर्यकल्पाः साधवः । कचिदधिवासे, यथा-सौधर्मकल्पवासी शक्रः सुरेश्वरः । उक्तं च सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा । औपम्ये चाऽधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥ इह सर्वेष्वप्यर्थेषु गृह्यते, सर्वत्रापि घटमानत्वात् । तथाहि-सामर्थे तावदेवम्-कल्पाध्ययनमधीत्यातीचारमलिनस्य साधोः समर्थः प्रायश्चित्तेन विशोधिमापादयितुम् । वर्णनेऽपि-या10वन्तः प्रायश्चित्तप्रकारास्तान् वर्णयतीदमध्ययनम् ; अथवा मूलगुणान् उत्तरगुणांश्च कल्पयति वर्णयतीति कल्पः । उक्तं च कप्पम्मि कप्पिया खलु, मूलगुणा चेव उत्तरगुणा य । ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ता-ऽऽभवंते य ॥ [व्य० भा० पी० गा० १५४] छेदनेऽपि-तपःशोधिमतिक्रान्तस्य पञ्चकादिच्छेदनेन पर्याय छिनत्ति । करणेऽपि यद् दचं 15 प्रायश्चित्तं तत्र तथा प्रयत्नं करोति कल्पाध्ययनवेत्ता यथा तत् पारं नयति; अथवा कल्पयति जनयत्याचार्यकमिति कल्पः, तथाहि-करोत्याचार्यकं कल्पाध्ययनवेत्ता सम्यगिति। औपम्येऽपिकल्पाध्ययनवेदनाद् भवति पूर्वधराणां कल्पः सदृश इति कल्पः, तथाहि-कल्पाध्ययनेऽधीते भवति पूर्वधरसहशः प्रायश्चित्तविधावाचार्यः । अधिवासेऽपि-कल्पाध्ययनवेत्ता कल्पे मासकल्पे वर्षाकल्पे वा कारणमन्तरेण परिपूर्ण कारणवशत ऊनमतिरिक्तं वा, अथवा कल्पे स्थविरकरुपे 20 जिनकल्पे वाऽधिवसतीति कल्पः ॥ व्यवहा• तथा विधिवत् अवहरणाद् व्यवहारः, यदि वा विधिवद्वपनाद् हरणाच्च व्यवहारः; यस्य नाऽऽ शब्दस मवति तस्य हापयति, यस्याऽऽभवति तस्मै ददाति व्यवहाराध्ययनवेत्तेति व्यवहार इत्यर्थः । निरुक्तम् उक्तं च अत्थिय-पच्चत्थीणं, हाउं एकस्स ववति वीयस्स । एएण उ ववहारो, अहिगारों एत्थ उ विहीए ॥ [व्य० भा० पी० गा० ५] तदेवं कल्पस्य व्यवहारस्य च पृथग् विभिन्नं निरुक्तमिति महान् प्रतिविशेषः ॥ "क्क्खाणविहि" इत्यस्य व्याख्यानम् अनुयोग इति ॥२॥ तत्र तमेव व्याख्यानविधिमभिधातुकाम इदमाह नंदी' यं मैगलठ्ठा, पंचग दुग तिग दुगे य चोदसए। अंगगयमणंगगए, कायन्च परूवणा पगयं ॥ ३॥ अनुयोगारम्माय प्रथमतो मङ्गलार्थ नन्दिर्वक्तव्यः। स च "पंचग" ति ज्ञानपञ्चकात्मकः। तच्च ज्ञानपञ्चकं द्विकेन भेदेन व्यवस्थितम् , तद्यथा-प्रत्यक्षं च परोक्षं च । प्रत्यक्षस्य त्रिको भेदोऽवघि-मनःपर्याय-केवल मेदात् , परोक्षस्य द्विक आभिनियोधिक श्रुत भेदात् । तत्र श्रुतस्य चतुर्दशको Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३-५] पीठिका। भेदः । तथा कुतोऽपि विशेषात् श्रुतं 'अङ्गगतमनङ्गगतं' अङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्यं चेत्यर्थः । एतेषां पदानां प्ररूपणा कर्तव्या । ततः प्रकृतमभिधातव्यम् ॥ ३ ॥ तत्र "नंदी य मंगलट्ठा" (गाथा ३) इत्यस्य भावनार्थमाह [म गल वा दः] नंदी मंगलहेडं, न यावि सा मंगलाहि वइरित्ता। कजाभिलप्पनेया, अपुढो य पुढों य जह सिद्धा ॥४॥ 'नन्दिः' ज्ञानपञ्चकरूपः 'मङ्गलहेतोः' मङ्गलनिमित्तं वक्तव्यः । आह यदि मङ्गलनिमित्तं गन्दीम जलयानन्दिर्वक्तव्यः ततः स मङ्गलादेकान्तेन भिन्नः प्राप्तः, अन्यथा 'तदुत्पादन निमित्तं तस्योपादान' पेिक्षया मिति व्यवहारानुपपत्तेः; उपादानं हि तस्य सिद्धस्य सतो भवति, उत्पाद्यं चाद्याप्यसिद्धम् , ततः मेदामें दत्वम् कथमनयोरभेदः ? किन्तु भेद एव; तत आह-न चापि सः' नन्दिर्मङ्गलाद व्यतिरिक्तः, अपि-10 शब्दाद् व्यतिरिक्तोऽपि स्यादव्यतिरिक्त इत्यर्थः । कथमेतच्छ्रद्धेयम् ? इति चेत्, अत आह"कजे"त्यादि। यथा कार्या-ऽभिलाप्य-ज्ञेयानि कारणा-ऽभिलाप-ज्ञानेभ्यः पृथक्त्वा-ऽपृथक्त्वसिद्धानि तथा नन्देमङ्गलमपि । तथाहि-कार्यं पटः, कारणं तन्तवः, तत्र तन्तव एव पुरुषव्यापारमपेक्ष्याऽऽतान-वितानभावेन परिणममानाः पटकार्यरूपतया परिणमन्ते, तेषु च तथापरिणतेषु सत्सु न कार्य-कारणयोर्भेदः किन्तु अभेदः; एवमिहापि नन्दिनिपञ्चकाभिधानरूप उत्तरोत्तर-15 शुभाध्यवसायविशेषसम्भवसव्यपेक्षतर-तमभावेन परिणममानो वाञ्छिताधिगतिलक्षणमङ्गलरूप. तया परिणमत इति नन्दि-मङ्गलयोर भेदः । प्राचीनां त्ववस्थामपेक्ष्य भेदः, यथा तन्तुभ्यः पटस्य । तथाऽभिलापशब्देन कदाचिदभिलाप्यस्याभिलाप्यमानता उच्यते, 'अभिलपनमभिलापः' इति व्युत्पत्तेः; कदाचित् तद्वाचकशब्दः, 'अभिलाप्यते वस्त्वभिलाप्यमनेने ति व्युत्पादनात् । तत्र यदाऽभिलाप्यमानतोच्यते तदाऽभिलापा-ऽभिलाप्ययोरभेदः, धर्म-धर्मिभावात् ; यदा तु 20 तद्वाचकशब्दस्तदा भेदः, शब्दा-ऽर्थयोर्भिन्नदेशस्थत्वाद् भिन्नखरूपत्वाच्च । ज्ञानशब्देनापि क्वचिद् ज्ञेयस्य ज्ञानमत्तोच्यते, 'ज्ञातिर्ज्ञान मिति भावे व्युत्पादनात् ; कदाचिदात्मधर्मः, 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञान'मिति करणे व्युत्पत्तेः । तत्र यदा ज्ञायमानता तदा ज्ञान-ज्ञेययोरभेदः, धर्मि-धर्मभावात् ; यदा त्वात्मधर्मस्तदा भेदः, भिन्नखरूपत्वात् । एवमिहापि नन्दिशब्दो यदा भाववचनः 'नन्दनं नन्दि'रिति तदा नन्दनं-समृद्धीभवनं वाञ्छितस्याधिगतिरित्यनर्थान्तरम् , मङ्गलमपि चैवंखरूप-25 मिति परस्परमभेदः, यदा तु प्राचीनावस्थामपेक्ष्य करणसाधनो नन्दिशब्दः 'नन्द्यतेऽनेनेति नन्दि'रिति तदा भेदः, कालभेदेन भेदादिति ॥४॥ सम्प्रति नन्देर्मङ्गलस्य च प्ररूपणा कर्तव्या, तत्र मङ्गलशब्दोच्चारणमिति स्पष्टं मङ्गलबुद्धिहेतुर्भवतीति प्रथमतो मङ्गलशब्दस्य प्ररूपणामाहनाम ठवणा दविए, भावम्मि य मंगलं भवे चउहा । मङ्गल एमेवे होइ नंदी, तेसिं तु परूवणा इणमो ॥५॥ पदनिमङ्गलं 'चतुर्धा' चतुःप्रकारं भवति, तद्यथा-नाममङ्गलं स्थापनामङ्गलं द्रव्यमङ्गलं भावमङ्गलं १ 'अङ्गगतम्' अङ्गप्रविष्टम् 'अनङ्गगतम्' अङ्गबाह्यं चेत्यर्थः भा० ॥ २°व भवति नं° ता० ॥ 30. "क्षेपाः Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममलम् स्थापनामङ्गलम् सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मङ्गलवादः च । 'एवमेव' नामादिभेदेन चतुःप्रकारो भवति नन्दिः । तेषां च' नाममङ्गलादीनाम् ‘इयं' वक्ष्यमाणखरूपा प्ररूपणा ॥ ५॥ तामेवाह एगम्मि अणेगेसु वे, जीवद्दव्वे वे तव्विवक्खे वा । मंगलसन्ना नियता, तं सन्नामंगलं होइ ॥६॥ । एकस्मिन् जीवद्रव्ये 'तद्विपक्षे वा' अजीवद्रव्ये अनेकेषु वा जीवद्रव्येष्वजीवद्रव्येषु वा या मङ्गलमिति संज्ञा 'नियता' नियमिता तद् नाम-नामवतोरभेदोपचारात् 'संज्ञामङ्गलं' नाममङ्गलं भवति ॥ ६ ॥ उक्तं नाममङ्गलम् , स्थापनामङ्गलमाह जा मंगल ति ठवणा, विहिता सब्भावतो व असतो वा । तत्थ पुण असम्भावे, मंगलठवणागतो अक्खो ॥ ७॥ 10 जे चित्तभिर्ति विहिया, उ घडादी ते य हुंति सम्भावे । तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु ॥८॥ या मङ्गलमिति स्थापना 'सद्भावतो वा' सद्भूताकारनिवेशनेन 'असतो वा'सद्भूताकारस्याभावतो विहिता मा स्थापनामङ्गलम् । नत्र पुनरमद्भाचे स्थापनामङ्गल मङ्गलस्थापनागतोऽक्षः, उपलक्षणमेतद्, वराटकादिर्वा । इयमत्र भावना-अक्ष-वराटकादिषु या मङ्गलमिति स्थापना विहिता, न तत्र 18 कश्चिन्मङ्गलानुगत आकार इत्यसद्भावतः स्थापनामङ्गलम् ॥ ७॥ ये तु चित्रभित्तौ-चित्रकुड्ये विहिता घटादयः, आदिशब्दात् स्थालादिपरिग्रहः, ते 'सद्भावे' सद्भावतः स्थापनामङ्गलानि भवन्ति । तत्र ये देवलोकेषु चित्रभित्तौ विहिता घटादयस्ते स्थापना. मङ्गलानि यावत्कथिकानि भवन्ति, अर्थादापन्नं यानि मनुष्यलोके तानीत्वराणि । यावत्कथिकानि नाम शाश्वतिकानि, इत्वराण्यशाश्वतानि ।। ८ ॥ द्रव्यमङ्गलमाह--- उत्सरगुणनिष्फन्ना, सलक्खणा जे उ होति कुंभाई। तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ट मंगलगा ॥९॥ णेगंतियं अणचंतियं च दव्वे उ मंगलं होइ। इह उत्तरगुणनिष्पन्नत्वं मूलगुणनिष्पन्नापेक्षया, ततः प्रथमतस्तभाव्यते-मूलो नाम पृथिवीकायादिजीवः, तस्य गुणात्-प्रयोगात् पुद्गलानां द्रव्यादित्वेन व्यापारणाद् निष्पन्नं मूलगुणनि25 ष्पन्नं मृद्रव्यादि । तस्मादुत्तरगुणेन-परापरप्रयोगेण चक्र-दण्ड-सूत्रोदकादि-पुरुषप्रयतेनेत्यर्थः, ये निष्पन्नाः 'सलक्षणाः' लक्षणसम्पन्नाः “अच्छिद्रा अखण्डा वारिपरिपूर्णाः पद्मोत्पलप्रतिछनाः" इत्यादिलक्षणोपेताः कुम्भादयः, आदिशब्दात् स्थालादिपरिग्रहः, तद् द्रव्यमङ्गलं भवति । यथा लोकेऽष्टौ मङ्गलानि ॥ ९॥ तत् पुनरनन्तरोक्तं द्रव्यमङ्गलमनैकान्तिकमनात्यन्तिकं च भवति । तथाहि-न पूर्णकलश एकान्तेन सर्वेषां मङ्गलम् , येन चौरस्य कर्षकस्य च शकुनतया रिक्तं घटं 30 प्रशंसन्ति शकुनविदः, गृहप्रवेशे पुनः पूर्णम् । उक्तं च १-२य ता. विना॥ ३°णाकयो अ° ता.॥ ४°त्तिलिहिया तुघता०॥ ५ पन्ना मूल मो ३ ॥ ६"ते णं चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचच्चागा आविद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥" राजप्रश्नीये पत्र ६३-१। जीवाभिगमे ३ प्रतिपत्तौ पत्र २०२-२॥ द्रव्यम- 20 अलम् Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्का भाप्यगाथा ६-१३] पीठिका। चोरस्स करिसगस्स य, रित्तं कुडयं जणो पसंसेइ । - गेहपवेसे मन्नइ, पुन्नो कुंभो पसत्यो उ ।। तत एवमनैकान्तिकम् । नाप्यात्यन्तिकम् , यथा कोऽपि शोभनैर्द्रव्यमङ्गलैर्विनिर्गतः, तेन चाग्रे किश्चिदशोभनं दृष्टम् , येन तानि सर्वाण्यपि प्राक्तनानि प्रतिहतानि, तत एवमनात्यन्तिकमिति । उक्तं द्रव्यमङ्गलम् , अधुना भावमङ्गलमाहतविवरीयं भावे, तं पि य नंदी भगवती उ ॥१०॥ भावम ङ्गलम् 'तद्विपरीतम्' ऐकान्तिकमात्यन्तिकं च 'भावे' भावविषयं मङ्गलम् । तथाहि-न तद् भावमङ्गलं कस्यचिद्भवति कस्यचिन्न भवति, किन्तु सर्वस्याविशेषेण भवतीत्यैकान्तिकम् ; न च केनाप्यन्येन प्रतिहन्यत इत्यात्यन्तिकम् । 'तच्च' भाक्मङ्गलं भगवान् नन्दिर्वक्ष्यमाणोऽवगन्तव्यः। गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् ॥ १०॥ 10 आह यथा नामादीनि चत्वारि मङ्गले समवतारितानि तथा किमन्येष्वप्यवतार्यन्ते ? किंवा न? इति, उच्यते-अवतार्यन्ते, सर्वस्यापि चतुःप्रत्यवतारान्तर्गतत्वात् । एतदेवाहजह इंदो ति य एत्थं, तु मग्गणा होति नाममादीणं । प्रतिवस्तु सव्वाणुवायि सन्ना, ठवणादिपया उ पत्तेयं ॥ ११ ॥ निक्षेपयथा इन्द्र इति उक्ते 'अत्र' इन्द्रे नामादीनां चतुर्णा मार्गणा भवति । तथाहि-किमनेन 169 वतारः नामेन्द्र उक्तः ? उत स्थापनेन्द्रः ? आहोखिद् द्रव्येन्द्रः ? उताहो भावेन्द्रः ? इति । तथा सर्वत्रापि द्रष्टव्या । उक्तं च जत्थ य जं जाणिज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणिज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ॥ [अनुयो० पत्र १०] तत्र 'संज्ञा' नाम सर्वेषु-नाम-स्थापना-द्रव्य-भावेषु अनुपाति-अनुवर्तनशीलम् । तथाहि-20 नामेन्द्रोऽपि स्थापनेन्द्रोऽपि द्रव्येन्द्रोऽपि भावेन्द्रोऽपि च इन्द्र इत्यभिधानेनाविशेषत उच्यते । स्थापनादीनि तु पदानि 'प्रत्येकं' खखव्यवस्थितानि, न परस्परमनुगमनशीलानि, ततो न नामप्रवृत्तिमात्रदर्शनतो नामेन्द्रप्रतिपत्तयः किन्तु भिन्नलक्षणवशात् ॥ ११ ॥ अतस्तल्लक्षणमाहअत्ताभिप्पायकया, सन्ना चेयणमचेयणे वा वि। नामेन्द्रः ठवणादीनिरविक्खा, केवल सन्ना उ नामिंदो ॥१२॥ चेतनेऽचेतने वा द्रव्ये या आत्माभिप्रायेण-खेच्छया इन्द्रप्रभृतिः संज्ञा कृता, साऽपि स्थापनादिसापेक्षा स्यादत आह-स्थापनादीनां स्थापना-द्रव्य-भावानां निरपेक्षा, किमुक्तं भवति?यत्र स्थापनादीनामेकमपि नास्ति किन्तु 'केवला' एका संज्ञा तदर्थनिरपेक्षा स नामेन्द्रः ॥ १२ ॥ उक्तं नामेन्द्रलक्षणम् , अधुना स्थापनेन्द्रलक्षणमाहसम्भावमसम्भावे, ठवणा पुण इंदकेउमाईया । 30 स्थापनेन्द्र 'स्थापना' स्थापनेन्द्रः पुनः सद्भावेऽसद्भावे च 'इन्द्रकेत्वादिका' ईन्द्रकेतुप्रभृतिको द्रष्टव्यः, १°ति ठवणमा ता० ॥ २ यया किमनेन कार जे. ॥ ३ °मादीसु ता० ॥ ४ “इन्द्रकेतुः केतुरुच्छ्रये, इन्द्रोच्छ्य इत्यर्थः । आदिशब्दाद् (आदिग्रहणादू.प्र०) इन्द्रप्रतिमा ।" इति चूर्णौ ॥ 25 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामस्थापनयो क्षणम् सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मङ्गलवादः अत्राऽऽदिशब्दादिन्द्रप्रतिमा-ऽक्ष-वराटकादिपरिग्रहः । इयमत्र भावना-या इन्द्र इति स्थापना अक्ष-वराटिकादिषु असद्भावेन, या चेन्द्रकेविन्द्रप्रतिमादिषु सद्भावतः स स्थापनेन्द्रः ॥ आह नाम-स्थापनयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते इत्तरमणित्तरा वा, ठवणा नामं तु आवकहं ॥ १३ ॥ विशेषः 5 "इत्तर" इत्यादि । स्थापना इत्वरा अनित्वरा च भवति, यावद्रव्यभाविनी अयावद्रव्य भाविनी चेत्यर्थः; नाम पुनर्नियमात् 'यावत्कथिकं' यावद्व्यभावि; एष प्रतिविशेषः ॥ १३ ॥ द्रव्येन्द्रमाहद्रव्येन्द्रः ग्वे पुण तल्लद्धी, जस्सातीता भविस्सते वा वि। जो वा वि अणुवउत्तो, इंदस्स गुणे परिकहेइ ॥१४॥ 10 'द्रव्ये' द्रव्यविषयः पुनः इन्द्रो यस्य 'तल्लब्धिः' इन्द्रलब्धिः अतीता भविष्यति च स प्रतिपत्तव्यः । किमुक्तं भवति ?-यः पूर्वमिन्द्रत्वं प्राप्तो यश्च प्राप्स्यति स यथाक्रमं भूतभावत्वाद् भावि भावत्वाच्च द्रव्येन्द्रः । उक्तं चद्रव्यनि भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । क्षेपल तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः, सचेतना-ऽचेतनं कथितम् ॥ 16 यो वाऽपि इन्द्रस्य गुणान् परस्मै परिकथयति, परमनुपयुक्तः, सोऽपि द्रव्येन्द्रः, “अनुपयोगो द्रव्य"मिति वचनात् ॥ १४ ॥ उक्तो द्रव्येन्द्रः, सम्प्रति भावेन्द्रमाह - भावेन्द्रः जो पुण जहत्थजुत्तो, सुद्धनयाणं तु एस भाविदो। इंदस्स व अहिगारं, वियाणमाणो तदुवैउत्तो ॥१५॥ यः पुनः 'यथार्थेन' यथावस्थितेनार्थेन परमैश्चर्यलक्षणेन "इदु परमैश्वर्ये” इति वचनात् 20 साक्षादिन्द्रनाम-गोत्राणि कर्माणि वेदर्यंत इत्यर्थः, स भावेन्द्रः । एषः 'शुद्धनयानां' शब्दादीनां यथावस्थितार्थग्राहकाणां वर्तमान विषयिकाणां सम्मतः, न शेषो नामेन्द्रादिः । अथवा 'इन्द्रस्य' इन्द्रशब्दस्य 'अधिकारम्' अर्थ जानन् 'तदुपयुक्तः' तस्मिन्-इन्द्रशब्दार्थे उपयुक्तो भावेन्द्रः, "उपयोगो भावनिक्षेपः" इति वचनात् ॥ १५ ॥ अत्र पर आह न हि जो घडं वियाणइ, सो उ घडीभवइ नेय वा अग्गी । नाणं ति य भावो त्ति य, एगढमतो अदोसो त्ति ॥ १६ ॥ न हि यो घटं विजानाति स घटीभवति, यस्य वा अग्निविज्ञानं सोऽग्निः, प्रत्यक्षविरोधात् ; ततो यदुक्तं "इंदस्स वाऽहिगारं विजाणमाणो तदुवउत्तो" (गाथा १५) इति तन्मिथ्या । अत्र सूरिराह-ज्ञानमितिवा भाव इति वा, चशब्दादध्यवसाय इति वा उपयोग इति वा एकार्थम् , अतोऽदोषः । इयमत्र भावना-अर्था-ऽभिधान-प्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः, तथाहि-घटोऽपि वाह्यो 30 घट इत्युच्यते, घटशब्दोऽपि घट इति, घटज्ञानमपि घट इति; ज्ञानं च ज्ञानिनोऽपृथग्भूतम् , अतो घटज्ञान्यपि घट इत्युच्यते; अग्निज्ञान्यपि अग्निरित्यदोषः ॥ १६॥ एतदेव भावयति १“अणुवओगो दवमिति कट्ट" अनुयोगद्वारसूत्रे पत्र १५-१ ॥ २ अधिकारं ता० ॥ ३ °वजुत्तो ता० ॥ ४°यमान ° मो ३ ॥ ५ सो त घ° ता०॥ ६ सो उ ता० ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३-२०] पीठिका । जैमिदं नाणं इंदो, न व्यतिरिच्चति ततो उ तन्नाणी। तम्हा खलु तब्भावं, वयंति जो जत्थ उवउत्तो ॥ १७ ॥ यद् इदं इन्द्र इति ज्ञान तस्मान 'ज्ञानी (तज्ज्ञानी) इन्द्रज्ञानी व्यतिरिच्यते । तस्माद् यो यत्र' इन्द्रादौ उपयुक्तः तस्य तद्भाव' इन्द्रादिभावं तत्त्वविदस्सूरयो वदन्ति ॥ १७ ॥ ज्ञान-ज्ञानिनोरभेद एव कथं सिद्धः । इति चेत्, उच्यते-विपक्षेऽनेकदोषप्रसङ्गात् । तमेवाह चेयण्णस्स उ जीवा, जीवस्स उ चेयणाओ अन्नत्ते । दवियं अलक्खणं खलु, हविज प य बंधमोक्खा उ॥१८॥ चैतन्यस्य जीवात् जीवात् (जीवस्य) चेतनाया अन्यत्वे 'द्रव्य' जीवद्रव्य ‘अलक्षण चेतनालक्षणा जीवः" इतिलक्षणरहितं भवेत् । चेतनाया घटादिवज्जीवादप्येकान्तव्यतिरिक्तत्वात् “लक्षणाभावे च लक्ष्यस्याऽप्यभावः" इति खरशृङ्गवदत्यन्तासन् जीवः । यश्चाऽत्यन्तासन् स न बध्यते, 10 बन्धस्य वस्तुधर्मत्वात् ;नाऽपि मुच्यते, बन्धाभावादिति बन्ध-मोक्षावपि न स्याताम् । अथ मन्येथाः 'अचेतनोऽपि स बध्यते मुच्यते च' इति तदप्यऽयुक्तम् , अचेतनानामप्येवं धर्मास्तिकायादीनां बन्ध-मोक्षप्रसक्तेः । तस्मात्साधूक्तम् “इन्द्रशब्दार्थं जानन् तदुपयुक्तो भावेन्द्रः" (गाथा १५) इति ॥ १८ ॥ सम्प्रति नामेन्द्र-स्थापनेन्द्रयोः प्रकारान्तरेण प्रतिविशेषमभिधित्सुराह जह ठवणिंदो थुव्वइ, अणुग्गहत्थीहिँ तह न नामिंदो। 15 नामेन्द्र एमेव दव्वभावे, पूयाथुतिलद्धिनाणत्तं ॥१९॥ स्थापने न्द्रयोयथा स्थापनेन्द्रो अनुग्रह एवार्थोऽनुग्रहार्थः स येषामस्ति तेऽनुग्रहार्थिनस्तैः वाग्भिः व्येन्द्रभा. स्तूयते पुष्पादिभिरर्च्यते च, न तथा नामेन्द्रो माणवकः । ततो महान् नामेन्द्र-स्थापनेन्द्रयोः । वेन्द्रयो श्व विशेषः प्रतिविशेषः । एवमेव' अनेनैव प्रकारेण द्रव्येन्द्रे भावेन्द्रे च पूजा-स्तुति-लब्धिभिर्नानात्वमवसातव्यम् । तद्यथा-द्रव्येन्द्रोऽपि नामेन्द्र इवाऽनुग्रहार्थिभिः न स्तूयते नाऽपि पूज्यते, यस्तु 20 भावेन्द्रः स स्थापनेन्द्र इव स्तूयते पूज्यते च; ततो द्रव्येन्द्र-भावेन्द्रयोरपि महान् प्रतिविशेषः। अन्यच्च द्रव्येन्द्र इन्द्रलब्धिहीनः, यस्तु भावेन्द्रः स तल्लब्धिसम्पन्नः । तथाहि-स सामानिकत्रायस्त्रिंशकादिपरिवृतो विशिष्टद्युतिमान् स्फीतं राज्यमनुभवति । उपयोगचिन्तायामपि भावेन्द्र उपयोगलब्धिमान् , द्रव्येन्द्र उपयोगलब्ध्या परित्यक्तः ॥ १९॥ ___ तदेवमुक्तः सर्वत्र चतुष्कनिक्षेपप्रदर्शनायेन्द्रशब्दस्य निक्षेपः । सम्प्रति प्रस्तुतमुच्यते-तत्र 25 परः प्रश्नयति 'किमर्थ मङ्गलग्रहणम्?' इत्याह - विग्धोवसमो सद्धा, आयर उवयोग निजराऽधिगमो। मङ्गलभत्ती पभावणा वि य, निवनिहि विज्जाइ आहरणा ॥२०॥ प्रहणमङ्गले कृते सति रोगादिविघ्नोपशमो भवति । तदुपशमे च प्रतिबन्धकाभावान्महता प्रबन्धे- प्रयोजनाऽऽचार्येणाऽनुयोगः प्रारभ्यते । तथाऽनुयोगप्रारम्भे च शिष्यस्य शास्त्रग्रहणे महती श्रद्धोप- 30" १ जमियं पगयं णाणं इंदो न वतिरित्त त्ति ततो ता० । “जमितं पगतं गाधा कंठा' इति चूर्णौ ॥ २ नत्ति ता. विना ॥ ३°क्खो वा ता० ॥ ४ जध ठ° ता० ॥ ५ आतर° ता० ॥ बृ०२ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हरणम् सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मङ्गलवादः जायते । श्रद्धावतश्च शास्त्रावधारणे महानाऽऽदरः । कृतादरस्य शास्त्रविषयेऽनवरतमुपयोगः । यदा यदा चोपयोगस्तदा तदा सम्यग्ज्ञानत्वान्महती ज्ञानावरणीयस्य कर्मणो निर्जरा । ज्ञानावरणकर्मनिर्जरणाच स्फुटः स्फुटतरः शास्त्रस्याधिगमः । अधिगतशास्त्रस्य च गुरौ शास्त्रे प्रवचने च निःकृत्रिमा भक्तिरुल्लसति । ततः प्रभावना, तां दृष्ट्वाऽन्येषामपि तथा श्रद्धादीनां करणात् । 5 यदि पुनर्न क्रियते मङ्गलं तत एषां विघ्नोपशमादिभावानामप्रसिद्धिः । अत्र 'उदाहरणानि' दृष्टान्ता नृप-निधि-विद्यादयः, आदिशब्दाद् योगो मन्त्राश्च परिगृह्यन्ते । नृपोदा तत्रेयं नृपदृष्टान्तस्य भावना, यथा-कोऽपि पुरुषः कार्यार्थी राजानमधिगन्तुकामो मङ्गलभूतानि पुष्पादीन्यादाय तत्समीपमुपगच्छति । उक्तं च पुप्फपुडियाइ पयंपइ, गोरसघडओ करेइ कज्जाइ । मणिबंधम्मि पयलिते, साणुम्गह होंति सबगहा ॥ उपगत्य चाऽञ्जलिं करोति, पादयोश्च प्रणिपतति, ततो राजा तुष्यति, तुष्टे च तस्मिन् यस्तदधीनोऽर्थः स सिध्यति । अथैवमुपचारं न करोति तदा न तुष्यति, तोषाभावे च तदधीनस्यार्थिस्या प्रसिद्धिः॥ निधिवि- एवं निधिमुत्खनितुकामो विद्यां मन्त्रं वा साधयितुकामो यदि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावयुक्तद्यामन्त्र. 15 मुपचारं करोति, तद्यथा-द्रव्यतः पुष्पादिषु, क्षेत्रतः स्मशानादिषु, कालतः कृष्णपक्षचतुर्दश्यादृष्टान्त दिषु, भावतः प्रतिलोमा-ऽनुलोमोपसर्गसहिते, तदा निधिं विद्यां मन्नं वा साधयति । द्रव्याधुपचाराभावे ते निध्यादयो न सिध्यन्ति । तस्माद् यो यत्रोपचारः स तत्र कर्त्तव्यः ॥ २० ॥ __ एतदेवाह जो जेण विणा अत्थो, न सिज्झई तस्स तन्विहं करणं । विवरीय अभावेण य, न सिज्झई सिज्झई ईहरा ॥ २१॥ योऽर्थों येन विना न सिध्यति तस्य निष्पत्तये तद्विधं करणमवश्यमुपादातव्यम् , यथा घट साधयितुकामेन चक्र-दण्ड-मृत्पिण्डादिकम् । यतो विपरीतैः करणैः सर्वथा करणानामभावेन च सोऽधिकृतोऽर्थो न सिध्यति, यथा घटं साधयितुकामस्य विपरीततुरि-वेमाद्युपकरणोपादाने सर्वथा चक्र-दण्ड-सूत्रोदकादीनामुपकरणानामभावे वा घटः । 'इतरथा' अविपरीतोपकरणसद्भावे 25 सिध्यति, यथा घटं साधयितुकामस्य यथावस्थितानां चक्र-दण्ड-सूत्रोदकादीनामुपादाने घटम् - (घटः) । न सिध्यन्ति च मङ्गलमन्तरेण विघ्नोपशमादयो भावा इति मङ्गलोपादानं ॥ २१ ॥ पुनरप्याह यदि शास्त्रस्याऽऽदि-मध्या-ऽवसानेषु मङ्गलम् , ततः सामर्थ्यादिदमायातम् 'अपान्तरालद्वयममङ्गलम्' इति, अत्राह जयवि य तिढाणकयं, तह वि हुँ दोसो न बाहए इयरो। तिसमुन्भवदिटुंता, सेसं पि हु मंगलं होइ ॥ २२ ॥ यद्यपि 'त्रिषु स्थानेषु' आदि-मध्या-ऽवसानरूपेषु कृतं मङ्गलं तथापि 'इतरः' अपान्तरालद्वयामङ्गलवलक्षणो दोषो न बाधते, तस्यैवाभावात् । कथमभावः ? इति चेत् , अत आह-"तिस१ चूर्णिप्रत्यन्तरे "गंधपुडिआइ" इति पाठः ॥ २ इधरा ता० ॥ ३ जति वि ता० ॥ ४ य ता० ॥ भावना 20 30 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २१-२४] पीठिका । ११ मुम्भवे"त्यादि । त्रिभ्यः-गुड-समिति-घृतेभ्यः समुद्भवो यस्य स मोदकः तदृष्टान्तात् शेषमपि 'हुः' निश्चितं मङ्गलं भवति । इयमत्र भावना-मोदक इव सकलं शास्त्रं त्रिधा विभज्यते, तत्राऽऽदिमो भाग आदिमङ्गलेन मङ्गलीकृतः, मध्यमो मध्यमङ्गलेन, अन्तिमोऽन्तमङ्गलेन, ततः कुतोऽपान्तरालद्वयामङ्गलत्वप्रसङ्गः ? ॥ २२ ॥ __ स्यादेतत् , यदिदं शास्त्रमारब्धमेतदाऽऽदि-मध्या-ऽवसानेषु सर्वात्मना मङ्गलम् ततो यद्यन्यत् । तस्य मङ्गलमुपादीयते तदाऽनवस्थाप्रसङ्गः-कृतेऽपि मङ्गले पुनरन्यन्मङ्गलमुपादेयम् विशेषाभावात् , तत्राऽप्यन्यदित्येवं मङ्गलानन्त्यप्रसक्तेः । अथ नन्दी मङ्गलम् , शास्त्रं पुनरमङ्गलम् , केवलं तद्नन्द्या मङ्गलीक्रियते, नन्वेवं तर्हि यदा नन्दीव्याख्यानमकृत्वा शास्त्रं व्याख्यातुमारभ्यते तदा शास्त्रममङ्गलम् , अमङ्गलत्वाच्च न ज्ञानम् , ज्ञानाभावाच न कर्त्तव्यस्तस्याऽनुयोग इति, अत्राह न वि य हु होयऽणवत्था, न वि य हु मंगलममंगलं होइ। 10 अप्पपराभिबत्तिय, लोणुण्हपदीवमादि व्व ॥ २३ ॥ नाऽपि च 'हुः' निश्चितं भवत्यनवस्था, यतो नन्दी शास्त्रादनान्तरभूता, शास्त्रं च खतः समस्तं मङ्गलम् , न च तस्य मङ्गलभूतस्य सतोऽन्यन्मङ्गलमुपादीयते, ततो नाऽनवस्थाप्रसङ्गः । यदापि नन्द्या व्याख्यानमकृत्वा शास्त्रमारभ्यते तदापि तच्छास्त्रं मङ्गलमिति तदमङ्गलं न भवति । एवं तावन्नन्द्या अनर्थान्तरतायाममङ्गलत्वमनवस्था च परिहृता । सम्प्रत्यर्थान्तरत्वमधिकृत्य परिहियते-15 यद्यपि शास्त्रादर्थान्तरभूता नन्दी तथाप्यमङ्गलत्वमनवस्था च न भवति,कथम्? इत्याह-"अप्पपर" इत्यादि । नन्दी आत्मनापि मङ्गलं शास्त्रमपि च मङ्गलीकरोति, शास्त्रमप्यात्मनाऽपि मङ्गलं नन्दीमपि च मङ्गलीकरोति । एवमात्म-पराभिव्यक्तितो द्वयोरपि मङ्गलयोरेकीभूतयोः सुष्ठुतरो मङ्गलभावो भवति। कथमिव? इत्यत आह-“लोणुण्हपदीवमादि ब" । यथा द्वयोर्लवणयोरेकीभूतयोः सुष्ठुतरो लवणभावः, द्वयोर्वा उष्णयोरेकत्र मिलितयोः सुष्ठतर उष्णतरभावः, यथा वा द्वयोः प्रदीपयोः 20 समीचीनतरः प्रकाशभावः, आदिशब्दान्मधुर-शीतल-स्नेहादिद्रव्याणां परिग्रहः; एवमिहापि द्वयोर्मङ्गलयोरेकीभूतयोः सुष्ठुतरो मङ्गलभावः । स्यादेतत् , एवमपि प्रसजत्यनवस्था, तृतीयादिमङ्गलोपादाने सुष्टुतममङ्गलभावोपपत्तेः; न प्रसजति, प्रयोजनाभावात् , तथा लोकव्यवहारदर्शनात् । तथाहि-लोके कस्यचिदातुरस्य शर्करापलद्वयमौषधं केनाऽपि भिषग्वरेणोपादेशि, तत्र यद्यपि माल. तृतीयादिशर्करापलप्रक्षेपे विशिष्टतमो मधुरभावो भवति तथापि तन्न प्रक्षिप्यते, प्रयोजनाभावात् । 250 एवमिहाप्यन्यत् तृतीयादिकं मङ्गलं नोपादीयते, प्रयोजनाभावादिति ॥ २३ ॥ समाप्तिः तदेवं "नंदी य मंगलहा" (गाथा ३) इति व्याख्यातम् । अधुना मङ्गलस्येव नन्द्या अपि चतुःप्रकारं निक्षेपमाह [नन्दी-ज्ञानपश्चकम् ] 'नंदी चतुक्क दवे, संखब्बारसग तूरसघातो । भावम्मि नाणपणगं, पञ्चक्खियरं च तं दुविहं ॥ २४ ॥ निक्षेपाः १"त्रिसमुद्भवः, कश्वासौ ? मोदकः, त्रिभिः-गुड-घृत-समितैरुद्भूतः” इति चूर्णौ ॥२व्वत्ती, लो° ता.॥ ३.क्तिता द्वयो का २ जे. । “एवं अप्पपराभिवत्तितो दोण्हं पि मंगलाणं एकीभूयाणं सुट्टयरं मंगलभावो भवति ।" इति चूर्णिः॥४नंदि चउकं ता० ॥ 30 नन्दी पदस्य Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष जीवोअर सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् नन्धाश्चतुष्को निक्षेपः, तद्यथा-नामनन्दी स्थापनानन्दी द्रव्यनन्दी भावनन्दी च । तत्र नामस्थापने सुप्रतीते। द्रव्यनन्दी द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च । तत्राऽऽगमतो नन्दिशब्दार्थज्ञाता तत्र चाऽनुपयुक्तः, “अनुपयोगो द्रव्यम्” इति वचनात् । नोआगमतस्विधा-ज्ञशरीरं भव्यशरीरं तव्यतिरिक्ता च । तत्र यद् नन्दीशब्दार्थज्ञस्य शरीरं जीवविषमुक्तं तद् भूतभावत्वाद् ज्ञशरीर5 द्रव्यनन्दी । यस्तु बालको नेदानीं नन्दीशब्दार्थमवबुध्यतेऽथ चाऽवश्यमायत्यां भोत्स्यते स भाविभावत्वाद् भव्यशरीरद्रव्यनन्दी । तद्व्यतिरिक्ता शङ्खद्वादशकस्तूर्यसङ्घातः । स चायम् ___ भंभा मुकुंद मद्दल, कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला । तूर्यद्वादशकम् काहल तलिमा वंसो, पणवो संखो य बारसमो ॥ भावतो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च । तत्राऽऽगमतो नन्दिशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः। 10 तत्र मूलद्वारगाथायां यत् "पंचके"ति (गाथा ३ ) भणितं तस्य व्याख्यानमाह-भावे नोआ. गमतो नन्दी 'ज्ञानपञ्चकं' पञ्चविधं ज्ञानम्-आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानं च । “दुग"ति (गाथा ३) अस्य व्याख्यानम्-'तद्' ज्ञानपञ्चकं द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-प्रत्यक्षम् 'इतरच्च' परोक्षम् ॥ २४ ॥ सम्प्रति प्रत्यक्ष-परोक्षयोः खरूपमाह जीवो अक्खो तं पड़, जं वति तं तु होइ पञ्चक्खं ।। परोक्षयोः 15 परतो पुण अक्खस्सा, वस॒तं होइ पारुक्खं ॥२५॥ खरूपम् "अश् भोजने" अश्नाति-भुङ्क्ते यथायोगं सर्वानानिति अक्षः, यदि वा “अशौङ् व्याप्ती अश्नुते-ज्ञानेन व्यामोति सर्वान् ज्ञेयानिति अक्षः-जीवः, उभयत्राऽप्यौणादिकः सक्प्रत्ययः, तं प्रतिअवधानेन यद् वर्तते ज्ञानं तद् भवति प्रत्यक्षम् । तथा द्रव्येन्द्रिय-मनांसि पुद्गलमयत्वात् पराणि, तेभ्यः पुनरक्षस्य वर्तमानं ज्ञानं भवति परोक्षम् । किमुक्तं भवति ?-यदिन्द्रियद्वारेण 30 मनोद्वारेण वाऽऽत्मनो ज्ञानमुपजायते तत् परोक्षम् , पृषोदरादित्वात् परशब्दात् परः सकारागमः। __ यदि वा परैर्द्रव्येन्द्रिय- मनोभिः उक्षा-सम्बन्धो यस्मिस्तत् परोक्षमिति व्युत्पत्तिः ॥ २५ ॥ अत्रैव मतान्तरं दूषयितुमाहवैशेषि केसिंचि इंदियाई, अक्खाई तदुवलद्धि पचक्खं । कायुक्तस्य प्रत्यक्ष तं तु न जुज्जइ जम्हा, अग्गाहगमिंदियं विसए ॥ २६ ॥ जी. भा. २६ वि. आ. ९० लक्षण- - 25 केषाश्चिद्' वैशेषिकादीनामक्षाणीन्द्रियाण्यभिप्रेतानि, तेषामुपलब्धिः प्रत्यक्षम् , एवं च स्य दूषितलम् "चाक्षुषादिविज्ञानं प्रत्यक्षम्" इत्यापनम् । एतद् दूषयति-"तंतु" इत्यादि । 'तद्' वैशेषिकाद्युक्तं 'न युज्यते' न घटामञ्चति, यस्माद् ‘इन्द्रियं' चक्षुरादि पुद्गलमयत्वेनाचेतनत्वात् स्वरूपेणाग्राहक 'विषयस्य' रूपादेः । ततः कथमुपपद्यते तदुपलब्धिः प्रत्यक्षम्' ? उपलब्धेरेवाभावात् ॥२६॥ तमेवोपलव्ध्यभावं भावयति30 न वि इंदियाइँ उपलद्धिमंति विगतेसु विसयसंभरणा । जह गेहगवक्खाई, जो अणुसरिया स उवलद्धा ॥ २७॥ [दश. भा. गा. ४०] १ युजति ता० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथा २५-३२] पीठिका । न वै इन्द्रियाण्युपलब्धिमन्ति, तेषु विगतेष्वपि तद्विषयस्य संस्मरणात् , यथा गेहगवाक्षाः। किमुक्तं भवति?-यथा गेहगवाक्षरुपलब्धेष्वर्थेषु गेहगवाक्षाणामुपरमेऽपि पुरुषस्य संस्मरणभावान्न ते गवाक्षा उपलब्धारः, तथा विगतेष्वपीन्द्रियेषु तद्विषय उपलभ्यत आत्मनेति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः, 'तस्योपलम्भः' इतिव्यवस्था हि तस्य स्मरणेन व्याप्ता, अन्यथा तव्यवस्थायाः कर्तृमशक्यत्वात् , तद्विरुद्धं चात्रान्यस्य स्मरणमुपलभ्यत इति । कथम्? कस्तत्रोपलब्धा? इति चेत्, 5 अत आह-योऽनुस्मा स तत्रोपलब्धा, आत्मा उपलब्धा इत्यर्थः । तथा च प्रयोगः-येषु विगतेष्वपि यद्विषयो येन स्मर्यते स तत्रोपलब्धा, यथा गेहगवाक्षेषु पुरुषः, विगतेष्वपि चेन्द्रियेषु तद्विषयः स्मर्यत आत्मना । स्मरणं हि प्रतिनियतत्वान्निमित्तवत्त्वेन संव्याप्तम् , न चोपलम्भादन्यन्निमित्तमस्ति, ततो विपक्षाद् व्यापकानुपलब्ध्या निवर्तमानमुपलम्भपूर्वकत्वेन व्याप्यत इति प्रतिबन्धसिद्धिः ॥ २७ ॥ सम्प्रतीन्द्रियाश्रितस्य लैङ्गिकत्वं व्यवस्थापयतिधमनिमित्तं नाणं, अग्गिम्मि लिंगियं जहा होइ । इन्दिय. तहे इंदियाइलिंगं, तं नाणं लिंगियं न कह ? ||२८|| जज्ञान स्य लैङ्गियथा 'धूमनिमित्तं' धूमाल्लिङ्गादुपजायमानमग्नौ लिङ्गिनि ज्ञानं लैङ्गिकं भवति, तथा 'इन्द्रि- कत्वम् यादिलिङ्गं' इन्द्रियादिभिर्लिङ्गैरुपजायमानं रूपादिषु चाक्षुषादि विज्ञानं कथं लैङ्गिकं न भवति ? तदपि लैङ्गिकमेवेति भावः ॥ २८ ॥ अन्यच्चअपरायत्तं नाणं, पञ्चक्खं तिविहमोहिमाईयं । परोक्षजं परतो आयत्तं, तं पारोक्खं हवइ सव्यं ॥ २९ ॥ योाख्या यद् ज्ञानम् 'अपरायत्तं' नोत्पत्तौ परस्य वशवर्ति तत् प्रत्यक्षम् । तच्च वक्ष्यमाणं त्रिविधम- तत्प्रभे दाश्च वध्यादिकम् । यच्चोत्पत्तौ 'परतः' परस्याऽऽयत्तं तत् सर्वं भवति परोक्षम् । चाक्षुषादिकमपि च विज्ञानमुत्पत्तौ परस्य चक्षुरादेरायत्तम् अतः परोक्षम् ॥ २९ ॥ सम्प्रति त्रिविधं प्रत्यक्षं द्विविधं च परोक्षमुपदर्शयति ओहि मणपजवे या, केवलनाणं च होति पच्चक्खं । आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं चेव पारोक्खं ॥ ३० ॥ अवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानं च भवति प्रत्यक्षम् । आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं च परोक्षम् ॥ ३० ॥ 25 अवधिज्ञानम् तत्राऽवधिज्ञानं चतुर्विधम् , तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतस्तावदाहविवरीयवेसधारी, विजंजणसिद्ध देवताए वा । द्रव्यतोछाइय सेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा ॥ ३१ ॥ अवधि. पुढवीई तरुगिरीया सरीरादिगया य जे भवे दवा । परमाणू सुहदुक्खादओ य ओहिस्स पचक्खा ॥ ३२ ॥ १°राइत्तं ता० ॥ २°मोधिमातीयं ता० ॥ ३ गाथायुगलमिदं चूर्णिकृद्भिः “अच्चतमणुवलद्धा." ३३ गाथाया अनन्तरं व्याख्यातम् ॥ ४य ता.॥ ५वीय त ता०॥ प्रत्यक्ष 20 30 ज्ञानम् Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् नेपथ्यपरावर्त्ततो गुटिकाप्रयोगतः स्वरपरावर्त्ततो वर्णपरावर्ततो विपरीतं वेषं धारयन्तीति विपरीतवेषधारिणस्ते, तथा ये विद्यासिद्धा अञ्जनसिद्धा देवतया वा च्छादिताः, ये च तैः सेवितसे विनः, ये च वीजादयः कुशूलादिन्यस्तास्ते सर्वेऽवधिज्ञानिनः प्रत्यक्षाः ॥ ३१ ॥ तथा यानि पृथिव्यां यानि तरुषु यानि च गिरिषु, गाथायामेकवचनं समाहारत्वात् , 5 द्रव्याणि, यानि च शरीरादिगतानि द्रव्याणि, ये च परमाणवः, ये 'सुख-दुःखादयः' इन्द्रियमनः-शरीरखास्थ्या-ऽखास्थ्यरूपास्तेऽप्यवधेः प्रत्यक्षाः ॥ ३२ ॥ अचंतमणुवलद्धा, वि ओहिनाणस्स होंति पञ्चक्खा । (जी.भा.३६] ओहिन्नाणपरिगया, दव्या असमत्तपजाया ॥३३॥ अत्यन्तं चक्षुरादिनाऽनुपलब्धा अपि पदार्था अवधिज्ञानस्य भवन्ति प्रत्यक्षाः । अवधिज्ञानेन 10 च द्रव्याणि 'परिगतानि' परिज्ञातानि भवन्ति असमाप्तपर्यायाणि, न समस्ताः पर्याया द्रव्याणां ज्ञातुं शक्यन्त इति भावः । यदि हि समस्तानपि पर्यायान् जानीयोत्ततः स केवली भवेत् ॥३३॥ उक्तं द्रव्यतोऽवधिज्ञानम् , अधुना क्षेत्रादित आहक्षेत्रादि खित्तम्मि उ जावइए, पासइ दैव्वाइँ तं न पासइ या । तोऽवधि काले नाणं भइयं, को सो दव्वं विणा जम्हा ॥ ३४ ।। ज्ञानम् 15 क्षेत्रे जघन्यत उत्कर्षतो वा यावन्ति (यावति) द्रव्याणि पश्यति तत् क्षेत्रं न पश्यति, अवधिज्ञा नस्य मूर्तविषयत्वात् , “रूपिष्ववधेः” (तत्त्वार्थ० १-२८) इति वचनात् , क्षेत्रस्य चामूर्तत्वात् । तत्र जघन्यतः क्षेत्रपरिमाणं "जावतिया तिसमयाऽऽहारगस्स०" ( आव० नि० गाथा ३०) इत्यादिना, उत्कर्षतः “सम्बबहुअगणिजीवा०" ( आव०नि० गाथा ३१ ) इत्यादिनाऽभिहितम् । शेषं तु तदन्तर्गतं मध्यममिति । तथा 'काले' कालविषये ज्ञानं 'भक्तं' विकल्पितम् , 20 भवति वा न वेति भावः । कथम् ? इति चेत् , उच्यते-इह यदि कालद्रव्यं समयक्षेत्रभावि समयमानं परिणाम्यभ्युपगम्यते तदा तदमूर्त्तत्वान्नाऽवधिज्ञानविषयः । यदि पुनः कोऽसौ नाम 'द्रव्यं' द्रव्यपर्यायं विनाऽन्यः कालः ? यस्माद् द्रव्यस्यैवाऽवस्थाविशेषः कालः, यत उक्तम् दव्वस्स चेव सो पज्जातो इति । तदा सोऽवधिज्ञानिनः प्रत्यक्षः, पर्यायाणामपि कतिपयानामवधिज्ञानगोचरत्वात् । भावतोऽ25 नेन्तान् भावान् जानाति सर्वभावानामनन्तभागम् । शेषं तु वक्तव्यमावश्यकटीकातोऽवसा तव्यम् (मल० पत्र ५०-१) ॥ ३४ ॥ उक्तमवधिज्ञानम् , अधुना मनःपर्यवज्ञानमाहमनःपर्यवज्ञानम् तं मणपजवनाणं, जेण वियाणाइ सन्निजीवाणं । [जी.भा. ८६] दटुं मणिजमाणे, मणदव्वे माणसं भावं ॥ ३५ ॥ १ "अच्चंत सव्वकालं" इति चूर्णौ ॥ २°यात् नूनं स भा० डे०॥ ३ दव्वाह तं ता० । चर्णिकृद्भिरेतत्पाठानुसारेण व्याख्यातम्-"खेत्तम्मि पुन्बद्धं । जावतिए जहणेणं तिसमयाहारगसुहमपणगजीवावगाहणामेत्ते उक्कोसेणं सव्वबहअगणिजीवपरिच्छित्ते पासइ दवादि, आदिग्गहणेणं वण्णादि, तमितिखेत्तं ण पेच्छइ, यस्मादुक्तम्-"रूपिष्ववधेः" तचारूपि खेत्तं, अतो ण पेच्छति ।" इति ४ भतियं ता० ॥ ५°नन्तभावान् मो ३ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ३३-३९] पीठिका। येन संज्ञिजीवानां मनोद्रव्याणि "मणिजमाणे” इति मन्यमानानि' मननेन व्यापार्यमाणानि दृष्ट्वा 'मानसं भावं जानाति' चिन्तितमर्थमवबुध्यते तन्मनःपर्यवज्ञानम् ॥ ३५ ॥ एतदेव सनिदर्शनं भावयति जाणइ य पिहजणो वि हु, फुडमागारेहि माणसं भावं । [जी.भा.८७] एसवमा तस्स भव तस्सवमा, मणदव्यपगासिए अत्ये ॥ ३६ ।। जो.भा. 'पृथग्जनोऽपि' लोकः 'हुः' निश्चितं [म्फुटम् ] आकारैर्मानसं भावं जानाति, एवमेव 'तस्यापि' मनःपर्यवज्ञानिनो मनोद्रव्यप्रकाशितेऽर्थे उपमा द्रष्टव्या । किमुक्तं भवति ?-यथा प्राकृतो लोकः स्फुटमाकारैर्मानसं भावं जानाति तथा मनःपर्यवज्ञान्यपि मनोद्रव्यगतानाकारानवलोक्य तं तं मानसं भावं जानातीति । एतदपि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैर्यथा नन्धध्ययने (मल० पत्र ९९-२) तथा चिन्तनीयम् ॥ ३६ ॥ गतं मनःपर्यवज्ञानम् , अधुना केवलज्ञानमाह 10 केवलज्ञानम् पंकसलिले पसाओ, जह होइ कमेण तह इमो जीवो। [जी. भा.९०] आवरणे झिजंते, विसुज्झए केवलं जाव ॥ ३७॥ यथा पङ्ककलुषिते सलिले कतकचूर्णयोगतः 'प्रसादः' प्रसन्नता क्रमेण भवति, तथाऽयं जीवोऽपूर्वकरणगुणस्थानकादारभ्य क्षपकश्रेणिमारूढो विशुद्ध-विशुद्धतराध्यवसायप्रभावतःक्षीय-16 माणे आवरणे तावद् विशुध्यति यावत् क्षीणकषायगुणस्थानकचरमसमये ज्ञानावरणपश्चकाऽन्तरायपञ्चक-दर्शनावरणचतुष्टयक्षयं कृत्वाऽनन्तरसमये केवलज्ञानमासादयति ॥ ३७॥ कथैम्भूतं यत्केवलम् ? इत्याह दवादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु केवलन्नाणं । अणिवारियवावारं, अणंतमविकप्पियं नियतं ॥ ३८ ॥ केवलज्ञानं 'द्रव्यादिकृत्स्नविषयं' द्रव्यादीनि कृत्स्नानि-समस्तानि विषयो यस्य तत्तथा, 'केवलम्' असहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वाद् , 'एकम्' असाधारणमनन्यसदृशत्वात् , अनिवारितव्यापारं अविरहितोपयोगत्वात् , अनन्तं ज्ञेयानन्तत्वाद्, 'अविकल्पितं' विकल्परहितं-भेदरहितमित्यर्थः, प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमात् , 'नियतं' सर्वकालभावि ॥ ३८ ॥ उक्तं केवलज्ञानम् , अधुना परोक्षमामिनिबोधिकज्ञानमभिषित्सुराह-- 25 आभिनिबोधिकज्ञानम् पच्चक्ख परोक्खं वा, जं अत्थं अहिऊण निद्दिसह । तं होइ अभिणिबोहं, अभिमुहमत्थं न विवरीयं ॥ ३९॥ १०णाइ पिज ना०॥ २°णे खिजं ता० ॥ ३ "तस्स य इमाणि एगट्ठियाणि-दव्वादिक. गाहा । दव्वादिकसिविसर्य ति वा, केवलं ति वा, एग ति वा, केवलणाणं ति वा, अणिवारियवावारं ति वा अविरहितोवेयोगमित्यर्थः, अणंतं ति वा ज्ञेयं प्रति, अविकप्पितं ति वा निर्भेदं हीनोत्कर्षवं प्रति, कियन्तं कालमविकल्पितम् ? इति चेत् , उच्यते-नियतं नित्यमित्यर्थः ।” इति चूर्णौ ॥ ४ व्वातिक ता० ॥ ५ मेकं तु ता०॥ . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय मनसो विषयः श्रुतस्य भेदाः अक्षर श्रुतम् सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ नन्दी - ज्ञानपञ्चकम् 'प्रत्यक्षम् ' इन्द्रियविषयं परोक्षम्' इन्द्रियविषयातिक्रान्तं यद् अर्थमूहित्वा 'निर्दिशति' निर्णयपुरस्सरं ब्रूते 'एष एवंभूतोऽर्थः ' इति, तद् अर्थं प्रति 'अभिमुखं' यथार्थविषयं आभिनिबोधिकम्, 'न विपरीतं' नाऽनर्थाभिमुखम्, तस्यायथार्थतया मिथ्यारूपत्वात् ॥ ३९ ॥ तच्च द्विधा - इन्द्रियनिश्रितमनिन्द्रियनिश्रितं च । अनिन्द्रियं मनः । सम्प्रतीन्द्रियाऽनिन्द्रिय5 योर्विषयविभागमाह अत्थानंतरचारिं, नियतं चित्तं तिकालविसयं तु । अत्थे पडणे, विणियोगं इंदियं लहइ ॥ ४० ॥ अर्थे - शब्दादाविन्द्रियव्यापारादनन्तरं चरति - व्याप्रियत इत्येवंशीलमर्थानन्तरचारि, इन्द्रिये प्रथमं व्यापृते पश्चान्मनो व्याप्रियत इति भावः ; 'नियतं' नियतार्थविषयम्, नैककालम ने कवि10 षयमित्यर्थः, ‘चित्तं' मनः । पुनः कथम्भूतम् ? इत्याह- 'त्रिकालविषयं ' त्रिष्वपि कालेषु यथायोग्यं विषयो यस्य तत्तथा । 'इन्द्रियं पुनः ' चक्षुरादिकं 'विनियोगं' व्यापारं लभते 'प्रत्युत्पन्ने' वर्त्तमानेऽर्थे वर्त्तमानार्थविषयम् नाऽतीता ऽनागतार्थविषयमिति भावः ॥ ४० ॥ श्रुतज्ञानम् १६ मतिविसयं मतिनाणं, मतिपुव्वं पुण भवे सुयन्नाणं । तं पुण समतिसमुत्थं, परोवदेसा व सव्वं पि ॥ ४१ ॥ मतिज्ञानं 'मतिविषयं' मत्यनुसारि, यस्य यादृशी मतिस्तस्य तदनुसारं मतिज्ञानं प्रवर्त्तत इत्यर्थः । श्रुतज्ञानं पुनर्भवति ' मतिपूर्वं' मतिकारणकम् श्रुतज्ञानं हि वाच्य - वाचकभावेन शब्दप्लावितस्याऽर्थस्य ग्रहणम्, वाच्य वाचकभावेन च शब्दः प्रवर्तते मत्यवधारितेऽर्थ इति । 'तत् पुनः' श्रुतज्ञानं सर्वमपि मूलभेदापेक्षया द्विविधम्, तद्यथा - स्वमतिसमुत्थं 'परोपदेशाद्वा' 20 परोपदेशसमुत्थं चेत्यर्थः । तत्र स्वमतिसमुत्थं प्रत्येकबुद्धानां पदानुसारिप्रज्ञानां वा, परोपदेशसमुत्थमस्मदादीनाम् ॥ ४१ ॥ तत् कतिविधम् ? इति तद्भेदप्रदर्शनार्थमाह 15 30 अक्खर सण्णी सम्मं, सौंईयं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंगपवि, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥ ४२ ॥ अक्षरश्रुतं संज्ञिश्रुतं सम्यक् श्रुतं सादिश्रुतं सपर्यवसितं गमिकम् अङ्गप्रविष्टमिति । एतानि 25 सप्ताऽपि पदानि सप्रतिपक्षाण्यवगन्तव्यानि ततश्चतुर्दशप्रकारं भवति । तद्यथा - अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं संज्ञिश्रुतमसंज्ञिश्रुतं सम्यक्श्रुतं मिथ्याश्रुतं सादिश्रुतमनादिश्रुतं सपर्यवसितमपर्य - वसितं गमिकमगमिकम् अङ्गप्रविष्टमनङ्गप्रविष्टं च ॥ ४२ ॥ तत्राऽक्षरश्रुतप्रतिपादनार्थमाहअक्खरतिगरूवणया, पढमनयादेसतो न तं खरति । अभिलप्पा पुण भावा, होंति खरा अक्खरा चैव ॥ ४३ ॥ अक्षर त्रिकस्य - संज्ञाक्षरस्य लब्ध्यक्षरस्य व्यञ्जनाक्षरस्य चेत्यर्थः रूपणका - प्ररूपणा कर्त्तव्या । १ " परोक्षं जं अणुमाणोवम्मेहिं गेण्हति, अणुमाणेण जधा - णदीपूरएणं वासं, सद्देण संखं, ओवम्मेण - गाईओ (गावीए प्र०) गवयं” इति चूर्णो ॥ २ उता० ॥ ३ सारि मति' कां० ॥ ता० ॥ ५ पुण अत्था, होंति ता० ॥ ४ सातीयं Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४०-४६] पीठिका । 5 संज्ञाक्ष लब्ध्य तत्र यद व्यञ्जनाक्षरं तत् प्रथमनयः-नैगमनयस्तस्याऽऽदेशेन 'न क्षरति' न स्वभावाच्चलति, नित्यमित्यर्थः । तथा च तन्मतानुसारिणो मीमांसका नित्यं शब्दमातिष्ठमानाः प्रतीता एव । ये पुनरभिलाप्या भावास्ते क्षराश्च भवन्त्यक्षराश्च । तत्र क्षरा घटादयः, अक्षरा धर्मास्तिकायादयः ॥ ४३ ॥ अथ कीदृशं संज्ञाक्षरम् ? इति तत्प्रतिपादनार्थमाह संठाणमगाराई, अप्पाभिप्पायतो वे जं जैस्स । यद् लिपिभेदतः संस्थानमकारादेः, यथा-कलशाकृतिः टकारः, तत् तथासस्थानविशिष्टमका- रम् रादि संज्ञाक्षरम् । अथवा 'आत्माभिप्रायतः' आत्मेच्छया यद् यस्य संस्थानं चिह्नविशेषरूपं क्रियते तत् संज्ञाक्षरम् ॥ सम्प्रति लब्ध्यक्षरमाहलद्धी पंचविगप्पा, जस्सुवलब्भो उ जो अत्थो ॥४४॥ क्षरम् लब्धिः 'पञ्चविकल्पा' पञ्चभेदा । अत्र 'लब्धिः ' इति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् 10" 'लब्ध्यक्षरम्' इति प्रतिपत्तव्यम् । ततोऽयमर्थः-पञ्चविधं लब्ध्यक्षरम् , तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियल ध्यक्षरं जिह्वेन्द्रियलब्ध्यक्षरं चक्षुरिन्द्रियलब्ध्यक्षरं घ्राणेन्द्रियलब्ध्यक्षरं स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्यक्षरं च । उपलक्षणमेतत् , तेन षष्ठं नोइन्द्रियलब्ध्यक्षरमप्यवगन्तव्यम् । अथ कीदृशं षट्प्रकारमपि लब्ध्यक्षरम् ? अत आह-'यस्य' श्रोत्रादेः श्रोत्र-चक्षु-र्घाण-जिहा-स्पर्शनेन्द्रियाणां मनसश्च य उपलभ्यः 'अर्थः' शब्दादिस्तमुपलभ्य याऽक्षराणां लब्धिरुपजायते तत् श्रोत्रेन्द्रियादिलब्ध्य-15 क्षरम् । किमुक्तं भवति ?-श्रोत्रेण शङ्खशब्दमुपलभ्य तदनन्तरं 'शङ्ख' इत्येवंरूपयोर्द्वयोरक्षरयोर्या लब्धिस्तत् श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरम् ॥ ४४ ॥ प्रकारान्तरेण लब्ध्यक्षरभेदानाहसामन्न विसेसेण य, दुविहुवलद्धी उ पढमिय अभेया । प्रकारातिविहा य अणुवलद्धी, उवलद्धी पंचहा विईया ॥४५॥ न्तरेण अथवा 'उपलब्धिः' उपलब्ध्यक्षरं 'द्विविधं द्विप्रकारम् , तद्यथा--'सामान्येन विशेषेण च' 20 लब्ध्यक्षसामान्यलब्ध्यक्षरं विशेषलब्ध्यक्षरं चेति भावः । तत्र 'प्रथमिका' सामान्योपलब्धिः-सामान्योपलब्ध्यक्षरं अभेदम् , सामान्ये भेदाभावात् । इहोपलब्धिरनुपलब्ध्यपेक्षा, ततस्तस्या अपि प्ररूपणा कर्तव्येत्यत आह-'त्रिविधा' त्रिप्रकाराऽनुपलब्धिः । या पुनः 'द्वितीया' विशेषोपलब्धिः-विशेषोपलब्ध्यक्षरं सा ‘पचधा' पचप्रकारा ॥४५।। तानेव त्रीन् पच च भेदानाह अचंता सामन्ना, य विस्सुती होइ अणुवलद्धीओ। सारिक्ख विवक्खोभय, उवमाऽऽगमतो य उवलद्धी ॥ ४६॥ लब्धि त्रिक अनुपलब्धिरेवं त्रिधा भवति । तद्यथा-'अत्यन्ताद्' एकान्तेनानुपलब्धिः सामान्याद् विस्मृ- व तेश्च । उपलब्धिरपि पञ्चप्रकारैवम्-सादृक्षतो विपक्षतः 'उभयतः' उभयधर्मदर्शनत औपम्यत पलब्धि. पच्चकं च आगमतश्च ॥ ४६॥ तत्र प्रथमतोऽत्यन्तानुपलब्धिमाह १ यउ(यत्तदुक्तं व्य भा० डे० ॥ २ अत्ताभि ता० ॥ ३ य ता० ॥ ४ तस्स ता. कां. विना ॥ ५ "वज्राकृतिर्मकारः" इति चूर्णौ । “कस्मिंश्चिल्लिपिविशेषेऽर्धचन्द्राकृतिष्टकारः, घटाकृतिष्ठकारः" इति विशेषावश्यकटीकायां पृ. २५६ मलधारी हेमचन्द्रसूरिः॥ ६ “यथा पुष्करसार्या लिप्यां वभिखादि" इति चूर्णौ ॥ ७ नाऽत्रेन्द्रियक्रममेदः कारणिकः किन्तु स्वाभाविकः ॥ ८ सामान ता० ॥ ९ वीया ता० ॥ Jain Education internattras 25 अनुप Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्ता दनुपलब्धिः रनुप. सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवइ । नुपलब्धिः दट्ट पि न याणंते, बोहिय पंडा फणस सत्तू ॥४७॥ अर्थस्य दर्शनेऽपि कस्यचित्तदर्थविषया 'लब्धिः' अक्षराणां लब्धिरेकान्ततो न सम्भवति । तथा च 'बोधिकाः' पश्चिमदिग्वर्तिनो म्लेच्छाः पनसं दृष्ट्वाऽपि 'पनसः' इत्येवं न जानते, तेषां 5 पनसस्याऽत्यन्तपरोक्षत्वात् , न हि तद्देशे पनसः सम्भवति । तथा 'पाण्डाः पाण्डुमथुरावासिनः सक्तून् दृष्ट्वाऽपि 'सक्तवोऽमी' इति न जानते, तेषां हिं सक्तवोऽत्यन्तपरोक्षाः, ततो न तदर्शनेऽपि तदक्षरलाभः ॥ ४७ ॥ सम्प्रति सामान्यादनुपलब्धिमाहसामान्या अत्थस्स उग्गहम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवति । सामन्ना बहुमज्झे, मासं पडियं जहा दहूं ॥४८॥ 10 अर्थस्यावग्रहेऽपि तदन्येनार्थेन 'सामान्यात्' सादृश्यादेकान्ततः 'लब्धिः' अक्षरलब्धिर्न सम्भवति । यथा बहुमध्ये पतितं माषं दृष्ट्वाऽपि तदन्येन सामान्यान्न तदक्षरे लभते ॥ १८॥ विस्मृतेरनुपलब्धिमाहविस्मृते अस्थस्स वि उवलंभे, अक्खरलद्धी न होइ सव्वस्स । लब्धिः पुबोवलद्धमत्थे, जस्स उ नामं न संभरति ॥ ४९ ॥ 15 अर्थस्य पूर्व पश्चाच्चोपलम्भेऽपि सर्वस्य 'अक्षरलब्धिः ' तद्विषयाऽक्षरलब्धिर्न सम्भवति । कस्य न भवति ? इत्यत आह-यस्याऽर्थे विवक्षितार्थविषयं पूर्वोपलब्धं नाम न संस्मरति ॥४९॥ तदेवमुक्ता त्रिविधाऽप्यनुपलब्धिः । अधुना सादृक्षतो विपक्षतश्चोपलब्धिमाहतो विप सारिक्ख-विवक्खेहि य, लभति परोक्खे वि अक्खर कोइ । क्षतचोपलब्धिः सबलेर-बाहुलेरा, जह अहि-नउला य अणुमाणे ॥ ५० ॥ 20 कश्चित् परोक्षेऽप्यर्थे दृश्यमानार्थसादृश्यादक्षरं लभते, यथा 'शाबलेय-बाहुलेयाः' शाबलेयबाहुलेयाक्षराणि । तथाहि-कश्चित् शाबलेयं दृष्ट्वा तत्सादृश्यात् परोक्षेऽपि बाहुलेये तदक्षराणि लभते 'ईदृशो बाहुलेयः' इति । तथा कश्चिद वैपक्ष्येण परोक्षेऽर्थे तदक्षरं लभते, यथा-अहिदर्शनान्नकुलानुमाने नकुलदर्शनाद्वा सर्पानुमाने ॥ ५० ॥ सम्प्रत्युभयधर्मदर्शनत उभयाक्षरलब्धिमाहउभय25 एगत्थे उवलद्ध, कम्मि वि उभयत्थ पञ्चओ होइ । धर्मद शेनत ___अस्सतरि खर-ऽस्साणं, गुल-दहियाणं सिहरिणीए ॥५१॥ 'कस्मिंश्चिद्' उभयधर्मयोगिनि उभयावयवयोगिनि वा एकस्मिन्नर्थे उपलब्धे उभयत्र परोक्षे ब्धिः 'प्रत्ययः' तदक्षरलाभो भवति । यथा 'अश्वतरे' वेगसरे दृष्टे खरस्याऽश्वस्य च प्रत्ययः-तदक्ष. रलाभः । यथा वा शिखरिण्यामुपलब्धायां गुड-दनोः प्रत्ययः-गुड-दध्यक्षरलाभः ॥ ५१ ॥ 30 औपम्यत उपलब्धिमाह १पणस ता० ॥२°स्सुवग्ग भा० डे० । स्स उवग्ग मो० कां० ले० ॥ ३-४ व ता०॥ ५ क्खेण वि ल° ता० ॥ ६°तरे खरऽसाणं ता० विना ॥ साहक्ष. उपल Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७-५६ ] पीठिका | पुव्वं पि अणुवलद्धो, घिप्पर अत्थो उ कोइ ओवम्मा । जह गोरेवं गवयों, किंचिविसेसेण परिहीणो ॥ ५२ ॥ पूर्वमनुपलब्धोऽपि कोऽप्यर्थ औपम्याद् गृह्यते, यथा गौरेवं गवयः, नवरं किञ्चिद्विशेषेण परिहीनः, कम्बलकविरहित इत्यर्थः । अत्रेयं भावना - 'यथा गौस्तथा गवयः' इति श्रुत्वा कालान्तरेणाटव्यां पर्यटन् गवयं दृष्ट्वा 'गवयोऽयम्' इति यदक्षरजातं लभते एषा औपम्योप - 6 लब्धिः ॥ ५२ ॥ इदानीमागमत उपलब्धिमाह - अत्तागमप्यमाणेण अक्खरं किंचि अविसयत्थे वि । भवियाsभविया कुरवो, नारग दियलोय मोक्खो य ॥ ५३ ॥ आप्ताः - सर्वज्ञाः तत्प्रणीत आगम आप्तागमः, स एव प्रमाणमाप्तागमप्रमाणम्, तेन अविषयेऽप्यर्थे किञ्चिदक्षरं लभते । यथा - भव्योऽभव्यो देवकुरव उत्तरकुरवो नारका देवलोको मोक्षः, 10 चशब्दादन्ये च भावाः । इयमत्र भावना - आप्तागमप्रामाण्यवशात् तस्मिंस्तस्मिन् वस्तुनि योऽक्षरलाभ:, यथा- भव्य इति अभव्य इति देवकुरव इत्यादि, सा आगमोपलब्धिः ॥ ५३ ॥ एषा सर्वाऽप्युपलब्धिः संज्ञिनां भवति, असंज्ञिनां तु का वार्ता ? इत्यत आहओण असनीण अत्थलंभे वि अक्खरं नत्थि । १९ --- तं पुण हत्थ नियतं अजहत्थं वा वि वंजणं दुविहं । एगमगपरिययं, एमेव य अक्खरेसुं पि ।। ५६ ।। अत्थो चिrसनीणं, तु अक्खरं निच्छए भयणा ॥ ५४ ॥ असंज्ञिनाम् ‘अर्थलाभेऽपि' अर्थदर्शनेऽपि 'उत्सन्नेन' एकान्तेन 'नास्यक्षरं' नैवाक्षरलाभः । तथाहि शङ्खशब्दं श्रुत्वाऽपि न तेषामेषा लब्धिरुपजायते, यथा 'अयं शङ्खशब्द:' इति । एवं शेषेन्द्रियेष्वपि भावनीयम् । संज्ञिनां पुनः 'अर्थ एवाक्षरं' अर्थोपलम्भकाल एवाक्षरलाभः, यथा शङ्खशब्दश्रवणकाल एव 'शङ्खशब्द:' इति । 'निश्चये पुनः भजना' 'शङ्खशब्द एवायम्, शार्ङ्गशब्द एवायम्' इति वा निश्चयगमनं स्याद्वा न वा । एवं शेषेन्द्रियेष्वपि भावनीयम् ॥ ५४ ॥ 20 गतं लब्ध्यक्षरम्, अधुना व्यञ्जनाक्षरमाह- अत्थाभिर्वजगं वंजणक्खरं इच्छितेतरं वदतो । औपम्य त उप लब्धिः रूवं व पगासेणं, वंर्जेति अत्थो जैओ तेणं ॥ ५५ ॥ इह यद् विवक्षितं तदेव यदि वदति, यथा 'अधं भणिष्यामि' इति तदेव ब्रूते, तदा तद् ईप्सितम् । अन्यद् विक्षित्वाऽन्यच्चेदुच्चरति तदा तद् 'इतरद्' अनीप्सितम् । ईप्सित - 25 मितरद्वा वदतो यद् अर्थाभिव्यञ्जकमभिधानं तद् व्यञ्जनाक्षरम् । अथ कस्माद् व्यञ्जनाक्षरमुच्यते ? नाऽभिधानाक्षरम् ? अत आह- 'रूपमिव' घटादिकमिव 'प्रकाशेन' दीपादिना तमसि वर्त्तमानम् 'अर्थः' घटादिः 'यतः' यस्माद् 'व्यज्यते' प्रकटीक्रियते 'तेन' कारणेन व्यञ्जनाक्षरमित्युच्यते ॥ ५५ ॥ १ गो एवं ता० ॥ २ उस्सन्ने ता० ॥ ३ इत्यादि कां २ ॥ ४ वज्जति ता० विना ॥ ५ जयो ता० ॥ ६ अत्र "विवक्ष्य" इति स्याच्चेत् साधु ॥ ७ परिगयं ता० विना ॥ आगम त उप लब्धिः 15. असंज्ञि नामक्ष. रानुपलब्धिः व्यञ्जना क्षरम् व्यञ्जना क्षरस्य 30 भिन्नभि अप्रकारैः द्वैविध्यम् Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्म-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् सक्कय-पाययभासाविणियुत्तं देसतो अणेगविहं । अभिहाणं अभिधेयातो होइ भिण्णं अभिण्णं च ॥ ५७ ॥ 'तत् पुनः' व्यञ्जनं द्विविधम् यथार्थनियतमयथार्थं वा । यथार्थनियतं नाम अन्वर्थयुक्तम् , यथा-क्षपयतीति क्षपणः, तपतीति तपन इत्यादि । अयथार्थं यथा-नेन्द्रं गोपयति तथापीन्द्र5 गोपकः, न पलमश्नाति तथापि पलाश इत्यादि । अथवा तद् व्यञ्जनं द्विधा-एकपर्यायमनेकपर्यायं च । एकः पर्यायः-अभिधेयो यस्य तदेकपर्यायम् , यथा-अलोकः स्थण्डिलमित्यादि, अलोकशब्देन ह्यलोकत्वलक्षण एक एव पर्यायोऽभिधीयते, स्थण्डिलशब्देन स्थण्डिलत्वमेकमिति । अनेके पर्यायाः-अभिधेया यस्य तदनेकपर्यायम् , यथा-जीव इति, जीवशब्देन हि जीवोsप्युच्यते सत्त्वोऽपि प्राण्यपि भूतोऽपि च, जीवादयश्च प्रतिनियतविशेषाः । तथा चोक्तम् प्राणा द्वि-त्रि-चतुः प्रोक्ताः, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ ततो भवति सामान्येन जीवशब्दस्यानेकपर्यायाभिधायकत्वमिति । एवमेव' एका-ऽनेकभेदेनाक्षरेष्वपि द्रष्टव्यम् । तद्यथा-द्विविधं व्यञ्जनम् , एकाक्षरमनेकाक्षरं च । एकाक्षरं धीः श्रीरित्यादि, अनेकाक्षरं वीणा लता माला इत्यादि ॥ ५६ ॥ 15 अथवा द्विप्रकारम्-संस्कृतभाषाविनिर्युक्तम् , यथा-वृक्ष इति, प्राकृतभाषाविनियुक्तं च, यथा-रोक्खो इति । 'देशतः' नानादेशानाश्रित्यानेकविधम् , यथा-मगधानाम् ओदनः, लाटानां कूरः, द्रमिलानां चौरः, अन्ध्राणाम् इडाकुरिति । तथा तद् 'अभिधानं' व्यञ्जना. क्षरम् अभिधेयाद् भिन्नमभिन्नं च । तत्र भिन्नं प्रतीतम् , तादात्म्याभावात् ॥ ५७ ॥ तमेव तादात्म्याभावमाह खुर-अग्गि-मोयगोच्चारणम्मि जम्हा उ वयण-सवणाणं । ण वि छेदो ण वि दाहो, णं वि पूरण तेण भिण्णं तु ॥ ५८॥ भिन्नाभि- __यस्मात् क्षुरशब्दोच्चारणेऽग्निशब्दोच्चारणे मोदकशब्दोच्चारणे च यथाक्रमं वदतो वदनस्य शृण्वतः श्रवणस्य न च्छेदो नाऽपि दाहो नाऽपि पूरणम् , अतो ज्ञायतेऽभिधेयादभिधानं भिन्नम् , अन्यथा तादात्म्यसम्बन्धात् क्षुरादयोऽपि तत्र सन्तीति वदनस्य श्रवणस्य च च्छेदादिष25 सङ्गः॥५८॥ अभिन्नत्वं नाम सम्बद्धत्वम् , तथा च लोकेऽप्यभिन्नशब्दः सम्बद्धवाची व्यवयिते, यथा-अयमस्माकं खादन-पानेनाऽभिन्नः, सम्बद्ध इत्यर्थः । ततस्तदेव सम्बद्धत्वं भावयति जम्हा उ मोयगे अभिहियम्मि तत्थेव पञ्चओ होइ । ण य होइ सो अणत्ते, तेण अभिण्णं तदातो ॥ ५९॥ यस्मान्मोदकेऽभिहिते तत्रैव' मोदके प्रत्ययो भवति नाऽन्यत्र । न च 'सः' नियमेन तत्र प्रत्ययः 30 'अन्यत्वे' असम्बद्धत्वे सति भवति, सम्बन्धाभावतो नियामकाभावेनाऽन्यत्रापि तत्प्रत्ययप्रसक्तेः । 'तेन' कारणेन ज्ञायते 'तद्' अभिधानम् 'अर्थादभिन्नम्' अर्थेन सह वाच्य-वाचकभावसम्बद्धम् ॥ ५९ ॥ १ण पूरणं तेण ता० ॥ २ य ता० ॥ ३ इ ता० ॥ ४ °त्थादो ता० ॥ व्यञ्जना. 20 क्षरस्या भिधेयाद् नवम् Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बद्ध भाष्यगाथाः ५७-६३] पीठिका । एकेक्कमक्खरस्स उ, सप्पजाया हवंति इयरे य । व्यजना क्षराणां संबद्धमसंबद्धा, एकेका ते भवे दुविहा ॥ ६०॥ खपरव्यञ्जनस्य यान्यक्षराणि तस्याक्षरस्यैकैकस्य द्विविधाः पर्यायाः, तद्यथा-वपर्यायाः 'इतरे च' पर्यायाः परपर्यायाः । तत्र अवर्णस्त्रिधा-हस्खो दीर्घः प्लुतश्च, पुनरेकैकस्त्रिधा-उदात्तोऽनुदात्तः खरितश्च, तेषां प. पुनरेकैको द्विधा-सानुनासिको निरनुनासिकश्च, एवमष्टादशप्रकारो अवर्णः । उक्तञ्च- सम्बद्धाहूख-दीर्घ-प्लुतत्वाच्च, त्रैखोपनयेन च । लंच अनुनासिकभेदाच्च, सङ्ख्यातोऽष्टादशात्मकः ।। (ग्रन्थाग्रम्-५०० ) एते अवर्णस्य खपर्यायाः । तथा ये एकैकाक्षरसंयोगतो द्विद्यक्षरसंयोगत एवं यावन्तो घटन्ते संयोगास्तावत्संयोगवशतो येऽवस्थाविशेषा ये च तत्तदर्थाभिधायकत्वखभावास्तेऽपि तस्य खपर्यायाः । इतरे च तत्रासन्तः परपर्यायाः । एवमिवर्णादीनामपि खप-10 र्यायाः परपर्यायाश्च वक्तव्याः । येऽपि परपर्यायास्तेऽपि तस्येति व्यपदिश्यन्ते, व्यवच्छेद्यतया तेषां तद्विशेषकत्वात् , यथा-अयं मे पर इति । 'ते च' खपर्यायाः परपर्यायाश्च एकैके द्विविधा भवन्ति, तद्यथा-सम्बद्धा असम्बद्धाश्च ॥ ६० ॥ एतदेव भावयति ___ अस्थित्ते संबद्धा, होति अकारस्स पञ्जया जे उ । ते चेव असंबद्धा, णत्थित्तेणं तु सव्वे वि ॥ ६१ ॥ 16 । ये अकारस्य 'पर्यायाः' स्वपर्यायास्ते तत्रास्तित्वेन सम्बद्धा भवन्ति । नास्तित्वेन पुनस्त एव सर्वेऽप्यसम्बद्धाः, तत्र तेषां नास्तित्वाभावात् ।। ६१ ॥ एमेव असंता वि उ, णत्थित्तेणं तु होति संबद्धा । ते चेव असंबद्धा, अत्थित्तेणं अभावत्ता ॥ ६२ ॥ 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण असन्तः परपर्याया अपि नास्तित्वेन भवन्ति सम्बद्धाः, ते चैव 20 परपर्याया अस्तित्वेनासम्बद्धाः, तेषामस्तित्वस्य तत्राभावत्वात् ॥ ६२ ॥ अत्रैव निदर्शनमाह घडसद्दे घ-ड-कारा, हवंति संबद्धपज्जया एते । ते चेव असंबद्धा, हवंति रहसद्दमादीसु ॥ ६३ ॥ घंटशब्दे ये घकार-टकारा-ऽकारास्तेषां ये पर्यायास्त एते भवन्ति तत्रास्तित्वेन सम्बद्धाः, तेषां तत्र विद्यमानत्वात् । त एव धकार-टकारा-ऽकारपर्याया रथशब्दादिपु भवन्त्यस्तित्वेनाऽ-25 सम्बद्धाः, तेषां तत्राऽभावात् । तदेवमस्तित्वेन स्वपर्यायास्तत्र सम्बद्धाः अन्यत्र चाऽसम्बद्धा उपदर्शिताः । एतदुपदर्शने चैतदर्थादापन्नम्-ते स्वपर्यायास्तत्र नास्तित्वेनाऽसम्बद्धाः, अन्यत्र तु सम्बद्धाः । तथा ये रथशब्दस्य स्वपर्यायास्ते तत्रास्तित्वेन सम्बद्धाः, तेषां तत्र विद्यमानत्वात् , घटशब्देनाऽसम्बद्धाः, तेषां तत्रासत्त्वात् । त एव च रथशब्दे नास्तित्वेनाऽसम्बद्धाः, घटशब्दे तु सम्बद्धा इति ॥ ६३ ॥ तदेवं वपर्यायाः परपर्यायाश्च प्रत्येकं सम्बद्धा असम्ब-30 द्धाश्च निदर्शिताः । अधुना खपर्यायान् दर्शयति १°या य होंति इतरे या ता. ॥ २ एकैकं भा० ॥ ३ "घडसद्दे० गाधा । घडसद्दे त्ति घडाभिधाणे घकार-डकारा संबद्धपज्जव त्ति घटेऽभिधेये । ते चेव त्ति धकार-डकारा असंबद्धा रहसहमादीसु रहस्साभिधेयादिसु ॥” इति चूर्णिः ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्स्वरू. काशस्य भगुरुल णम् 15 सनियुक्ति-भाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् संजुत्ता-ऽसंजुत्तं, इय लभते जेसु जेसु अत्थेसु । विणिओगमक्खरं ते, सि होंति सम्भावपजाया ॥६४ ॥ 'ईति' एवं घटशब्द-रथशब्दादिगतेन प्रकारेण संयुक्तमसंयुक्तं वा 'अक्षरम्' अकारादिकं येषु येप्वर्थेषु विनियोगं लभते ते तेषां 'सद्भावपर्यायाः' स्वपर्याया भवन्ति । अर्था दिदमाया 5 तम्-अपरे परपर्याया इति ॥ ६४ ॥ अक्षरस्य तदेवमभिहितं व्यञ्जनाक्षरम् , तदभिधानाचाभिहितं त्रिविधमप्यक्षरम् । तत्र न केवलप्रमाणम् मप्यक्षरं संज्ञाक्षराद्युच्यते किन्तु ज्ञानमपि । तत्र शिष्यः प्रश्नयति-कियत्प्रमाणं तदक्षरम् ? पनिरूप- उच्यते, सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणम् । कथमेतावत्प्रमाणम् ? उच्यते-इहैकैक आकाशप्रदेशः णार्थ चा. खल्वनन्तैरगुरुलघुपर्यायैः संयुक्तः, ते च सर्वेऽप्यगुरुलघुपर्याया ज्ञानेन ज्ञायन्ते; न च येन 10 खभावेनैको ज्ञायते तेनापरोऽपि, तयोरेकत्वप्रसङ्गात् , किन्त्वन्येन खभावेन, ततो यावन्तोऽगुगुरु-लघुगुरुलघु- रुलघुपर्यायास्तावन्तो ज्ञानखभावाः; उक्तञ्च जावइय पज्जवा ते, तावइया तेसु नाणभेया वि । [कल्प वृ.भा.] घुपर्यायाणां इति भवति सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणम् । आह च बृहद्भाष्यम्निरूप. अक्खरमुच्चइ नाणं, तं पुण होज्जाहि किंपमाणं तु । भण्णइ अणंतगुणियं, सवागासप्पएसेहिं ॥ किह होइ अणंतगुणं, सव्वागासप्पदेसरासीतो? । भन्नइ जं एकेको, आगासस्सा पदेसो उ ॥ सजुत्ताऽणतेहि, अगुरु[य]लघुपज्जवेहि नियमेण । तेण उ अणंतगुणिय, सव्वागासप्पएसेहिं ॥ [कल्प वृ.भा.] 20 पुनरपि शिष्यः प्राह-कथमेतदवसीयते 'एकैक आकाशप्रदेशोऽनन्तैरगुरुलघुपर्यायैरुपेतः' ? उच्यते-इह द्विविधं वस्तु, रूपिद्रव्यमरूपिद्रव्यं च । तत्र रूपिद्रव्यं चतुर्की, तद्यथा-गुरु लघु गुरुलघु अगुरुलघु च । एतदप्युच्यते व्यवहारतः, निश्चयतः पुनर्द्विविधमेव गुरुलघु अगुरुलघु च । तथा चाह णिच्छयतो सव्वगुरुं, सव्वलहुं वा ण विजते दव्वं । पुद्रला __ ववहारतो तु जुजति, बादरखंधेसु णऽण्णेसु ॥ ६५ ॥ माश्रित्य निश्चयतः' निश्चयनयमतेन न किञ्चिद् द्रव्यं 'सर्वगुरु' एकान्तगुरु, यदि स्यादेकान्तगुरु गुरु-लध्वादिप तत एकान्तेनैव पतनधर्मि स्यात् , न च पतति, तस्मान्न विद्यते सर्वगुरु; नाऽपि 'सर्वलघु' ोयाणां एकान्तलघु, यदि स्यादेकान्तलघु ततो न कदाचित् पतति, अथ कदाचित् पतति तस्मान्न सर्वविचारः लघ्वपि । 'व्यवहारतः' व्यवहारनयमतेन पुनर्युज्यते सर्वगुरु सर्वलघु च । केषु ? इत्याह30 'बादरस्कन्धेषु' बादरत्वपरिणामपरिणतेप्वनन्तप्रादेशिकेषु स्कन्धेषु, 'नान्येषु' सूक्ष्मपरिणामप १ से हुंति सभाव ता० ॥ २ "संजुत ति व्यक्षरादि अभिधाणं, जहा-कण्णा मीणा (वीणा प्र०) इत्यादि । असंजुत्तं एगक्खरमभिधाणं, जहा-धीः श्रीरित्यादि । इय त्ति एवं लभति ति पावति भावेस अभिधेतेसु विणियोगन्ति अभिधानखम् , ते से होंति सम्भावपजाया संबद्धा इति वाक्यशेषः॥" ३ लघुत्वात् ततो का. मो० ॥ स्तिकाय- 25 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४-६७] पीठिका । 16 रिणतेषु । तत्र गुरु द्रव्यं यथा-अयस्पिण्डः, लघु यथा-अर्कतूलम् , गुरुलघु यथा-वायुः, अगुरुलघु परमाण्वादि । निश्चयतः पुनरेवं द्विविधद्रव्यभावना-परमाण्वादेरारभ्य सङ्ख्यातप्रदेशात्मकोऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मको यश्चानन्तप्रदेशात्मकः सूक्ष्मस्कन्धः कार्मणप्रभृतिक एते अगुरुलघवः, बादराः स्कन्धा औदारिक वैक्रिया-ऽऽहारक-तैजसरूपा गुरुलघवः । सम्प्रति गुरुलघुद्रव्याणामगुरुलघुद्रव्याणां चाऽल्पबहुत्वेन वर्गणाश्चिन्त्यन्ते-तत्र बादरस्कन्धेषु जघन्य-मध्यमो-5 त्कृष्ट भेदभिन्नेष्वेकोत्तरवृद्ध्या प्रवर्धमाना वर्गणा अनन्ता भवन्ति, ताश्च तावद् द्रष्टव्या यावत् सर्वोत्कृष्टो बादरस्कन्धः ॥ ६५॥ तत्तो य वग्गणाओ, सुहुमाण भवंतऽणंतगुणियातो। परमाण य एका, संखे संखेयरेऽसंखा ॥ ६६ ॥ 'ताभ्यः' समस्तबादरस्कन्धगताभ्यो वर्गणाभ्यः 'सूक्ष्माणाम्' सूक्ष्मानन्तप्रदेशकस्कन्धाना-10 मनन्तगुणिता वर्गणाः । तथा परमाणूनां समस्तानामेका वर्गणा । 'संखे संखे'त्ति सङ्ख्येयप्रदेशेषु प्यादिप्रभृति उत्कृष्टं सङ्ख्यातं यावत्सङ्ख्याताः, सङ्ख्यातस्य सङ्ख्यात भेदभावात् । 'इतरस्मिन्' असङ्ख्येयप्रदेशेऽसङ्ख्येया वर्गणाः, असङ्ख्यातस्याऽसङ्ख्यातभेदभिन्नत्वात् ॥ ६६ ॥ इय पोग्गलकायम्मी, सम्वत्थोवा उ गुरुलहू दव्या । उभयपडिसेहिया पुण, अणंतकप्पा बहुवियप्पा ।। ६७॥ 'ईति' एवमुपदर्शितेन प्रकारेण 'पुद्गलकाये' पुद्गलास्तिकाये गुरुलघुद्रव्याणि सर्वस्तोकानि । 'उभयप्रतिषेधितानि' सञ्जातगुरुलयप्रतिषेधानि अगुरुलघूनीत्यर्थः पुनद्रव्याणि 'अनन्तकल्पानि' अनन्तभेदानि । तत्रानन्तभेदत्वं गुरुलघुद्रव्येष्वप्यस्ति, तत आह-'बहुविकल्पानि' विकल्पातिशयेन बहुभेदानि ॥ ६७ ॥ सम्प्रति पर्यायपरिमाणमल्पबहुत्वेन चिन्त्यते-इह पञ्च राशयः क्रमेण स्थाप्यन्ते, तद्यथा- 20 रूपिद्र व्यगतपरमाणुराशिः सङ्ख्यातप्रदेशकस्कन्धराशिः असङ्ख्यातप्रदेशकस्कन्धराशिः सूक्ष्मानन्तप्रदेशक- गुरुलस्कन्धराशिः बादरानन्तप्रदेशकस्कन्धराशिश्च । तत्र बादरानन्तप्रदेशस्कन्धराशौ योऽन्तिमः स र्यायाणा१ "लघु यया-मूलगपत्तं आव.पत्र-२९ । गुरुलघु यथा-वायुः । अगुरुलघु आकाशम्" इति चूर्णौ ॥ मल्पब२ "निश्चयात्तु गुरु-लघवः सर्वे पुद्गलाः, यस्मात् परमाणोरपि गुरु-लघुभावो विद्यते । कथम् ? यदि तस्यै- हुलम् | गुरुभावो न स्यात् ततोऽनन्तपरमाणुसमवायेऽपि गुरुत्वं न स्यात् , ततश्चासत्कार्यप्रसङ्गः, असत्कार्ये च वैशेषिकादिसिद्धान्तप्रसङ्गः, यस्मादमी दोषास्तस्मात् परमाणौ गुरुत्वं विद्यते । एवं लघुत्वमपि । अगुरुलघवश्व सर्वेऽमूर्तास्तिकायाः । अतो आवेक्खिता पसिद्धी एतेसिं ॥” इति चूर्णौ ॥ ३ एतद्दाथासमनन्तरं चूर्णिकृद्भिः “पोग्गलस्थिकायगुरुलहुपजवाणं परिमाणं भग्णति" इत्यवतीर्य "वे गुरुलहु०" गाथा ६८ तथा टीकाकृद्भिरनादृता “पंतपएसाणं.” इति गाथा व्याख्याताऽस्ति । दृश्यतां चतुर्विंशतितमे पत्रे टिप्पणी ३ ॥ ४°णूणं ए° ता० ॥ ५ इति पो ता०॥ ६ "इति पोग्गल. गाधा । उभयपडिसेधिया णाम अगुरुलहू, ते णयमयाउ अत्थि अन्नसिद्धते, इह ण भणिया चुण्णिकारेण, सिद्धते य “वादरमिह गुरुलहुयं, अगुरुलहुं सेसयं सव्वं ।" इह पुण पगए बादरीहोताणं पोग्गलाणं गुरुपजाया बर्राति लहुपज्जाया हायंति, सुहुमीहवंताण पुण लहुपज्जवा वटुंति गुरुपजाया हायति ॥ केण० गाहा ।" इति चूर्णौ ॥ धादिप Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ नन्दी - ज्ञानपञ्चकम् र्वोत्कृष्टो बादरस्कन्धस्तत्र बहवो गुरुलघुपर्यायाः सर्वस्तोका अगुरुलघुपर्यायाः । इह बादरस्कन्धेष्वप्यगुरुलघवः पर्यायाः सन्ति, परमुत्कलिता गुरुलघुपर्याया इति त एव तत्र शेषकालं गण्यन्ते । सम्प्रति तु वस्तुस्थितिश्चिन्त्यते इत्यल्पबहुत्व चिन्तायां ते चिन्तिताः । तस्मात्सर्वोत्कृष्टाद् बादरस्कन्धाद् येऽधस्तना बादरस्कन्धास्तेषु गुरुलघुपर्यायाः क्रमेणानन्तगुणहान्या द्रष्टव्याः, अगुरुलB घुपर्यायाः पुनरनन्तगुणवृद्ध्या । एवं च तावज्ज्ञातव्यं यावत्सर्वजघन्यो बादरस्कन्धः । उक्तञ्च— परमाणु संखऽसंखा, सुहुमाणताण बायराणं च । एएसिं रासीतो, कमेण सव्वे ठवेऊणं ॥ सिं जो अंतिमओ, सव्वुकोसो य बाय संधो । तस्स बहू गुरुलहुया, अगुरुलहू पज्जवा थोवा ॥ तत्तो हिट्ठाहुत्ता, अणंतहाणीऍ गुरुलहू नेया । अगुरुलहू वुद्धीए, एवं ता जाव उ जहन्नो || 10 15 20 एतदेवाह - ते गुरुलहुपजाया, पण्णा छेदेण वोकसित्ताणं । जी बायरो जहणो, अनंतहाणी हायंता ॥ ६८ ॥ ते गुरुलघुपर्यायाः प्रज्ञाच्छेदनकेनाऽगुरुलघुपर्यायेभ्यः 'व्युत्कृष्य' पृथक् कृत्वा सर्वोत्कृष्टाद् बादरस्कन्धादधस्तनेषु बादरस्कन्धेप्वनन्तगुणहान्या हीयमानास्त वद्रष्टव्या यावज्जघन्यो बादरस्कन्धः, अगुरुलघुपर्यायास्तु क्रमेणानन्तगुणवृद्ध्या प्रवर्धमानाः । ततः परं सूक्ष्मानन्तप्रदेशादिषु स्कन्धेषु केवला अगुरुलघुपर्याया एव क्रमेणानन्तगुणवृद्ध्या प्रवर्धमाना द्रष्टव्याः, ते च तावद् यावत् परमाणवः । उक्तञ्च - ते परं सुहुमाओ, अनंतवुड्डीऍ नवर बढता । अगुरुलहो चिय केवल, जा परमाणू य ता नेया ॥ ॥ ६८ ॥ १ बहुचिन्ता कां २ भा० ॥ २ थूरदविसु जाव तु, अणंतहाणीय परमाणू इत्युत्तरार्थं ता० । चूर्णिकृतैष एव पाठ आहतः । दृश्यतां टिप्पणी ३ ॥ ३ गाथेयं चूर्णिकृतैवं व्याख्याता - " ते गुरु० गाधा । ते गुरुपजाया लघुपज्जाया य प्रज्ञाच्छेदेन अवणिजति थूलदविएहिं आढवेत्ता जाव परमाणू । थूला बादरपरिणता अनंतपदेसिता संधा, तेसिं गुरुपज्जा एहिंतो लघुपजाया अनंतगुणहीणा । तदणंतरा सुहुमपरिणया अनंतपएसिया संधा, तेसिं बादरपरिणताणंत एसिय खंधलघुपजाए हिंतो अनंतगुणहीणा गुरुपज्जाया, तग्गुरुपज्जा एहिंतो य अनंतगुणवड्ढिया लहुपजाया । एवं जहा जहा बहुमा तहा तहा गुरुपजाया अनंतहाणीए हायंति, लहुपज्जाया अनंतवुड्ढीए वडुंति, जाव दुपएसियलहुपजएहिंतो अनंतगुणहीणा परमाणुगुरुपज्जाया, तग्गुरुपजाए हिंतो य अनंतगुणवड्डिया लहुपज्जाया" । एतद्गाथानन्तरमेव टीकाक्रुद्भिरनादृता "णंतपसाणं” इति गाथा चूर्णो व्याख्याताऽस्ति । तथा हि"आह भणिया पोग्गलाणं गुरु-लहुपजायाण हाणी बुड्ढी य । एतेसिं पुण के कतो बहुया थोवा वा ? उच्यते - सव्वथोवा अणतपएसिया संधा तपसाणं पिय, सव्त्रत्थोवा उ बादरा खंधा । तेसि पि वग्गणाओ, हवंति णंताओ सट्टाणे ॥ तप गाइद्धं । ते केवविया भेदेणं ? तेसिं० पच्छद्धं । जहा कुचिकन्नस्स गावीणं (१) ॥ तत्तो य० पुव्वर्द्ध” ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६८-७२] पीठिका । तदेवं पर्यायपरिमाणमप्यल्पबहुत्वेन चिन्तितम् । साम्प्रतमरूपिद्रव्यं चिन्त्यते । तच्चतुर्धा, तद्यथा-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायः जीवास्तिकायश्च । एतेषां किमगुरुलघुपर्यायपरिमाणम् ? अत आह केण हवेज विरोहो, अगुरुलहूपजवाण उ अमुत्ते । अचंतमसंजोगो, जहियं पुण तविवक्खस्स ॥ ६९ ॥ यत्र 'अमूर्ते' धर्मास्तिकायादौ 'तद्विपक्षस्य' गुरुलघुपर्यायजातस्य 'अत्यन्तम्' एकान्तेन 'असंयोगः' अघटना तत्रागुरुलघुपर्यायाणां केन 'विरोधः' विनाशनं भवेत् ? नैव केनचित् । ततः केनापि विनाशाभावात् सदैव प्रतिप्रदेशमनन्ता अगुरुलघुपर्यायाः॥६९॥ तथा चाऽऽह-. एवं तु अणंतेहिं, अगुरुलहूपजवेहि संजुत्तं । होइ अमुत्तं दव्वं, अरूविकायाण उ चउण्हं ॥ ७० ॥ एवं तु सति चतुर्णामपि 'अरूपिकायानाम्' अरूपिणामस्तिकायानां धर्मास्तिकायप्रभृतीनामेकैकाख्यं यदमूर्त(त) द्रव्यं तद् भवति प्रत्येकमनन्तैरगुरुलघुपर्यायैः संयुक्तम् ॥ ७० ॥ ___ तदेवं भावित एकैक आकाशप्रदेशोऽनन्तैरगुरुलघुपर्यवैरुपेतः । सम्प्रति यथा ज्ञानं सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणं भवति तथा दर्शयति उवलद्धी अगुरुलहू, संजोग-सरादिणो य पजाया। एतेण हुंतऽणंता, सव्वागासप्पएसेहिं ॥ ७१॥ चतुर्णामप्यस्तिकायानां पुद्गलास्तिकायस्य च ये अगुरुलघवः पर्यायाः, उपलक्षणमेतत् , बादरस्कन्धानां गुरुलघुपर्यायाश्च, यावन्तश्चाक्षरेषु वरूपतोऽभिलाप्यभेदतो वा संयोगाः, यैश्चोदात्तादिभिः खरैरभिलप्यन्ते भावाः, आदिशब्दाद् ये चान्ये शकुनरुतादिगताः स्वरविशेषाः, ये च जीव-पुद्गलगताश्चेष्टाविशेषास्ते सर्वेऽपि गृह्यन्ते, एतेषां सर्वेषामप्युपलब्धिर्भवति । न च येन 20 खभावेनैकस्य तेनैवान्यस्य किन्तु भिन्नेन । तत एतेन प्रकारेण ज्ञानस्य खभावाः सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः ॥ ७१ ॥ तदेवमुक्तं सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणं ज्ञानम् । इदानीं यथा तदक्षरमुच्यते तथा भावयति णाणं तु अक्खरं जेण खरति ण कयाइ तं तु जीवातो। तस्स उ अणंतभागो, न वरिजति सव्वजीवाणं ॥ ७२ ॥ 25 १ निरोहो ता० । “निरंभणं निरोहो" इति चूर्णी ॥ २ जहेय पुण ता.॥ ३"उवलद्धी० गाहा । उपलम्भनमुपलब्धिः ज्ञानमित्यर्थः । कस्य ? इति, अत्रोच्यते-धर्मा-धर्म-जीवपोग्गलत्थिकाय-अद्धासमयाणं सवपगारेहिं उवलंभणं उपलब्धिः । अगुरुलह त्ति सम्वागासपदेसाणं एकेकस्स आगासपदेसस्स अणंता अगुरुलहुपजाया । संजोग त्ति ते भावा जावतिएहिं अक्खरसंजोगेहिं अभिलप्पंति त्रिकालविषये । सरादि त्ति त एव भावा उदात्तादिभिः खरैरभिलप्यन्ते, आदिग्रहणाद् या चान्या काचिचेष्टा, शकुनरुताद्या वा स्वरा गृह्यन्ते । पर्यायशब्दः अन्तेऽभिहितः प्रतिपदमुपतिष्ठते, यथाउपलब्धिपर्यायः, एवं सर्वत्रानेन करणेनानन्ता ज्ञानपर्यायाः सर्वाकाशप्रदेशेभ्यः ॥” इति चूर्णौ ॥ ४ सम्बाकासप्पदेसेहिं ता० ॥ ५ एनद्गाथाया अनन्तरं चूर्णिता "अविभागे हिं" गाथा ७३ व्याख्याताऽस्ति । दृश्यतां षड्रिंशतितमे पत्रे टिप्पणी २॥ वृ०४ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् 'येन' कारणेन न कदाचिदपि 'तद्' ज्ञानं जीवात् 'क्षरति' भ्रंशमुपयाति तेन कारणेन ज्ञानमक्षरमुच्यते । कथमेतदवसीयते 'न कदाचिदपि ज्ञानं जीवात् क्षरति' ? इति, अत आह–'तस्य' अक्षरस्यानन्तभागोऽतिप्रबलेनापि ज्ञानावरणोदयेन संसारस्थानां सर्वजीवानां नाऽऽवियते । उक्तञ्च5 सश्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतो भागो निचुग्याडिओ (नन्दीसूत्रे सूत्र ४२ पत्र १९५) इति । नित्योद्घाटो नाम नित्यापावृतः ।। ७२ ॥ केन पुनराच्छाद्यते येन ज्ञानस्यानन्तभागो नित्यापावृतः ? इत्याह-- एकेको जियदेसो, नाणावरणस्स हूंतऽणंतेहिं । _अविभागेहाऽऽवरितो, सव्वजियाणं जिणे मोत्तुं ॥ ७३ ॥ 10 'जिनान्' केवलज्ञानिनो मुक्त्वा शेषाणां सर्वजीवानाम् एकैको जीवप्रदेशो ज्ञानावरणीयस्य कर्मणोऽनन्तैः ‘अविभागैः' अविभागपरिच्छेदैः, येषां ततोऽप्यधो विभागः कर्तुं न शक्यते तेऽविभागपरिच्छेदाः, तैरावृतः ॥ ७३ ॥ — यद्येवं कथमनन्तभागो ज्ञानस्य नित्यापावृतः ? इत्याह-.. जैति पुण सो वि परिजेज तेण जीवो अजीवयं गच्छे । 15 सुट्ट वि मेहसमुदए, होति पभा चंद-सूराणं ॥ ७४ ॥ यथा 'सुष्ठपि' अतिशयेनापि मेघसमुदये जाते तथाखभावत्वात् चन्द्र-सूर्याणां प्रभा भवति, तथा प्रत्यक्षत उपलब्धेः; एवमेकैकस्य जीवप्रदेशस्यानन्तैर्ज्ञानावरणाविभागपरिच्छेदैरावरणेऽपि तथास्वभावत्वाद् ज्ञानस्यानन्तभागो नित्योद्घाटित एव । यदि पुनः सोऽध्यात्रियेत तत एकान्ततो निश्चेतनत्वाज्जीवः 'अजीवतां गच्छेत्' अजीवो भूयात् , घटवत् ॥ ७४ ॥ 20 ननु कथमुच्यते 'अनन्तभागो नित्योद्घाटः' ? यावता समस्ति पृथिव्यादीनां सर्वथा ज्ञानमावृतम् , अत आह अव्वत्तमक्खरं पुण, पंचण्ह वि थीणगिद्धिसहिएणं । णाणावरणुदएणं, बिंदियमाई कमविसोही ॥ ७५ ॥ १°त्याप्रावृ भा० । एवमग्रेऽपि ॥ २ गाथेयं मूलपुस्तकादर्शेष्वित्थरूपोपलभ्यते अविभागेहि अणंतेहि णाणावरणस्स एक्कमेको उ। होति पतेसो वरितो, सन्चजियाणं जिणे मोत्तुं ॥ चर्णिकृद्भिरेतदनुसारेणैव व्याख्यातम् । तथाहि-"अविभागेहि. गाहा । अविभागेहिं ति न सकंति छउमत्थेणं चक्खुणा विभयितुं पलिच्छेदा इति वाक्यशेषः, अंसा भेदा उत्तरपगडीओ इत्यनर्थान्तरम् । तैरविभागैरनन्तैीनावरणीयस्य कर्मणः सर्वजीवानामेकैकः प्रदेश आवृतो जिनान् मुक्खा ॥ अक्षरमित्येतस्याभिधानस्येयं व्याख्या-णाणं तु अक्खरं. गाधा । कहमजीवत्तं गच्छेत् ? अज्ञवात् । यश्चाज्ञः स निश्चेतनो भवति, घटवत् । तस्मात् सुष्ठस्याऽऽवृतोऽसौ, न निश्चेतनः । कथम् ? यथा सुट्ट वि मेहसमुदओ ॥ आह णणु पुढविमादीणं पंचण्हं सव्वहा आवरितं गाणं ? उच्यते-अव्वत्तमक्खरं० गाधा।" इति ॥ ३ गाथेयमनादृता चूर्णिकृद्भिः। दृश्यतां टिप्पणी २॥ ४ प्यात्रियते तत भा० विना ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव्यगाथा: ७३-७८] पीठिका । अनश्वर 'पञ्चानामपि' पृथिवीकायिकादीनां वनस्पतिकायपर्यन्तानां स्त्यानगृद्धिनिद्रासहितेन ज्ञानावरणोदयेन 'अक्षरं' ज्ञानम् 'अव्यक्तं' सुप्त-मत्त-मूच्छितादेरिवास्फुटम् , अतो न तत्रापि सर्वथा ज्ञानमावृतम् , तथापि पृथिवीकायिकानामत्यस्फुटम् , ततोऽप्कायिक-तेजस्कायिक-वायुकायिकवनम्पतिका यिकानां क्रमेण विशुद्धतरम् । इदं चूर्णिकारवचनाल्लिखितम् । ततः क्रमेण द्वीन्द्रियादावक्षरस्य विशुद्धिस्तावद्रष्टव्या यावदनुत्तरोपपातिनाम् , ततोऽपि चतुर्दशपूर्विणाम् । उक्तञ्च तं चिय विसुज्झमाणं, बिंदियमादी कमेण विन्नेयं । जा होतऽणुत्तरसुरा, सब विसुद्धं तु पुवधरे ॥ (कल्प वृ. भा.] इह यद्यपि प्रागक्षरं सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणं केवलमभिप्रेतम् , नित्यापावृतोऽप्यनन्तभागस्तस्यैव, तथापि केवलज्ञानस्येव श्रुतज्ञानस्याप्यनन्तभागो नित्यापावृत इति तेनान्ते 10 योजना कृता ॥ ७५ ॥ उक्तमक्षरश्रुतम् । इदानीमनक्षरश्रुतमाहउंससियं नीससियं, णिच्छूट खासियं च छीयं च।। श्रुतम् णिस्सिघियमणुसार, अणक्खरं छलि आदीयं ॥ ७६ ॥ ऊर्ध्वं श्वसनमुच्छ्वसितम् , अधः श्वसनं निःश्वसितम् , निष्ठ्यतं कासितं क्षुतं निस्सिचितं च प्रतीतम् , 'अनुस्वारम्' अनुस्खारवत् , 'शेण्टितम्' गोपजनस्य प्रतीतम् । आदिशब्दाद् जम्भित- 15 मणितादिपरिग्रहः । एतद् 'अनक्षरम्' अनक्षरश्रुतम् । उच्चसितादिभ्योऽपि हि विवक्षितार्थप्रतिपत्तिर्भवति, न च तदक्षरात्मकम् , अतोऽनक्षरश्रुतम् ॥ ७६ ॥ तत्र यथाऽनक्षरादप्यर्थप्रतिपत्तिरुपजायते तथा निदर्शनेन प्रतिपादयति टिष्टि त्ति नंदगोवस्स बालिया वच्छए निवारेइ । टिहि ति य मुद्धडए, सेसे लट्ठीनिवाएणं ॥ ७७ ॥ नन्दगोपस्य वालिका क्षेत्रादिकं रक्षन्ती 'वत्सकान्' बालगोरूपान् ‘टिट्टि' इति अनुकरणानुरूपमनुकार्यमुच्चरन्ती निवारयति । तथा ये मुग्धाः-हरिणादयः तानपि 'टिट्टि' इत्येवं निवारयति । 'शेपास्तु' पण्डप्रभृतीन् यष्टिनिपातेन निवारयति । अत्र 'टिट्टि' इत्येतदनक्षरमपि वत्सादीनां प्रतिषेधलक्षणार्थप्रतिपत्तिहेतुरुपजायत इत्यनक्षरश्रुतं निदर्शितम् । एवं शेषमपि भावनीयम् ॥७७॥ उक्तमनक्षरश्रुतम् । अधुना संज्ञिश्रुतमाह-- सन्नाणेणं सण्णी, कालिय हेऊ य दिद्विवाए य। आदेसा तिणि भवे, तेसिं च परूवणा इणमो ॥ ७८ ॥ संत्यसं ज्ञिश्रुते संज्ञानेन संज्ञी, 'संज्ञानं संज्ञा, सा यस्यास्ति स संज्ञी' इति व्युत्पत्तेः । तत्र त्रय आदेशा भवन्ति, तद्यथा-"कालिय" त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् कालिक्युपदेशेन हेतूपदेशेन दृष्टिवादोपदेशेन च ।। ७८ ।। १ "तं च सव्यथोवं पुढविकाइयाणं, कस्मात् ? निश्चेष्टलात् । ततः क्रमाद् यावद् वनस्पतिकाइयाणं विसुद्धतरम् ।" इति चूर्णिः ॥ २ उस्ससि ता० ॥ ३ कासि ता० ॥ ४ तित्ति त्ति ता० ॥ ५ छच्छ त्ति ता० ॥ ६संजाणणेण स ता.॥ 20 25 30 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिक्यु 10 सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् तत्र कालिक्युपदेशेन संज्ञा यस्य ईहा-ऽपोह-मार्गण-गवेषणादयो मनोव्यापाराम्ते कथं भवन्ति ? इत्यत आह खंधेऽणंतपएसे, मणजोगे गिज्झ गणणतोऽणंते। पदेशेन संश्यसं तल्लद्धि मणेति तहा, भासादव्वे वे भासते ॥ ७९ ॥ शिनौ 5 यथा भाषालब्धिसमेतो भाषाद्रव्याण्युपादाय भाषते, [तथा] तस्मिन्-मनसि लब्धिर्यस्य सः 'तल्लब्धिः' मनोलब्ध्युपेतो मनोयोग्यान् स्कन्धाननन्तप्रदेशान् ‘गणनया' सद्ध्यानेनानन्तान् गृ. हीत्वा मनुते । किमुक्तं भवति ?-तैर्मनोद्रव्यैरीहा-ऽपोह-मार्गणातस्तांस्तान् भावान् जानाति ॥७९॥ कथम् ? इत्याह सवे जहोवलद्धी, चक्खुमतो दंसिए पगासेण । इय छविहमुवओगो, मणदव्वपगासिए अत्थे ।। ८० ॥ यथा चक्षुष्मतः 'रूपे' घटादौ 'प्रकाशेन' प्रदीपादिना 'दर्शिते' प्रकाशिते चक्षुषा उपलब्धिः 'इति' एवंम्-उक्तेन प्रकारेण मनोद्रव्यैः प्रकाशिते–मनितेऽर्थे 'घडिधः' शब्द-रूप-रस-गन्धस्पर्शा-ऽतीताऽनागतभाव विषयः स्पष्टतर उपयोगो भवति । यश्च ईहा-ऽपोहादिकरणतः स्पष्टतर उपयोगः स दीर्घकालिक्युपदेशेन संज्ञिश्रुतम् । यस्य तु मनोद्रव्याभावतो नेहादि सोऽसंज्ञी ।।८०॥ 15 अथ मनोद्रव्याभावे कथमसंज्ञिनामावगमः ? तत आह एसेव य दिटुंतो, नातिफुडे खलु जहा पंगासेणं । होउवलद्धी रूवे, अस्सण्णीणं तहा विसए ॥ ८१॥ 'एष एव' चक्षुर्लक्षणो दृष्टान्तोऽसंज्ञिनोऽर्थावगमे द्रष्टव्यः । यथा खलु चक्षुष्मतो रूपे 'प्रकाशेन' प्रदीपादिना मन्दतया नातिस्फुटे प्रकाशिते उपलब्धिर्मन्दा भवति तथा 'विषये' 20 शब्दादौ असंज्ञिनां विशिष्टमनोद्रव्यलब्ध्यभावे उपयोगो मन्दो भवति ॥ ८१ ॥ अथवाऽन्यो दृष्टान्तः अहवा मुच्छित मत्ते, पासुत्ते वा वि होइ उवलंभो। इय होति असन्नीणं, उवलंभो इंदिया जेसिं ॥ ८२॥ 'अथवा' इति दृष्टान्तस्य प्रकारान्तरोपदर्शने । मूर्च्छिते मत्ते प्रसुप्ते वा यथा अव्यक्त उप25 लम्भो भवति 'इति' एवं यति येषामिन्द्रियाणि तेषामसंज्ञिनां ततिविध उपयोगः स्फुटो भवति ॥ ८२ ॥ अथ तुल्ये चेतनत्वे किमिति संजिनां प्रागल्भ्येन चैतन्यम् ? अव्यक्तमसंज्ञिनाम् ? इति, अत आह तुल्ले छेयणभावे, जं सामत्थं तु चकरयणस्स । तं तु जहक्कमहीणं, न होइ सरपत्तमादीणं ॥ ८३ ॥ १तओ भा ता० ॥ २ वि ता. विना ॥ ३रूवे होउवलद्धी चक्खुपतोवदंसि ता० ॥ ४ "एवं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु छटो य सुमिणादिसु उवयोगो भवति मणदव्वपगासिते अत्थे" इति चूर्णौ ॥ ५ नेहा-ऽपोहादि भा० ॥ ६ पतासेणं ता० ॥ ७ वि अत्थ उव ता०॥ ८°याणि जइ ता० । “इय होइ असण्णीणं उवलंभो अव्वत्तो इंदियाणि जति तेसि ततिविधो” इति चूर्णिः ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७९-८८] पीठिका। एवं मण विसईणं, जा पडया होइ उग्गहाईसु । तुल्ले चेयणभावे, न होइ अस्सणिणं सा तु ॥ ८४ ॥ यथा तुल्ये 'छेदनभावे' छेदनत्वे यत् सामर्थ्य चक्ररत्नस्य तद् यथाक्रमहीनं, हेतौ प्रथमा, यथाक्रमहीनत्वात् शरपत्रादीनाम् , आदिशब्दादर्भादिपरिग्रहः, न भवति ॥ ८३ ॥ ___ एवम् ‘मनोविषयिणां' मनोग्राह्यो विषयो येषामस्ति ते मनोविषयिणस्तेषाम् अवग्रहादिषु। या पटुता भवति सा तुल्येऽपि चेतनभावे न भवत्यसंज्ञिनाम् , मनोद्रव्यलब्ध्यभावात् ।। ८४॥ उक्तः कालिक्युपदेशेन संज्ञी असंज्ञी च । अधुना हेतूपदेशतस्तमाहजेसि पवित्ति-निवित्ती, इट्ठा-ऽणिद्वेसु होइ विसएसु । -हेतुवादो पदेशेन ते हेउवाउ सन्नी, वेहम्मेणं घडो नायं ॥ ८५॥ संश्यसं. 'येषां' द्वीन्द्रियादीनां इष्टेषु विषयेषु प्रवृत्तिः अनिष्टेषु निवृत्तिः ते हेतुवादतः संज्ञिनः । 10 शिनी. अत्र वैधम्र्येण 'ज्ञात' दृष्टान्तो घटः, अनेन प्रयोगः सूचितः । स चायम्-द्वीन्द्रियादयः संज्ञिनः, इष्टा-ऽनिष्टविषयेषु यथाक्रमं प्रवृत्ति-निवृत्तिदर्शनात् , पुरुषवत् ; ये तु न संज्ञिनस्तेषामिष्टा-ऽनिष्टविषयेषु प्रवृत्ति-निवृत्ती अपि न स्तः, यथा घटस्य, तथा च पृथिव्यादीनामपि न स्त इष्टाऽनिष्ट विषयेषु प्रवृत्ति-निवृत्ती, तस्मादसंज्ञिनस्त इति ॥ ८५ ॥ उक्तो हेतुवादतोऽपि संज्ञी असंज्ञी च । सम्प्रति दृष्टिवादोपदेशेनोच्यते-ये सम्यग्दृष्टयस्ते 15 दृष्टिवादोदृष्टिवादोपदेशेन संज्ञिनः, शेषाः सर्वेऽपि मिथ्यादृष्टयोऽसंज्ञिनः । उक्तश्च पदेशेन संश्यसंसम्मद्दिट्ठी सन्नी, दिट्ठीवायस्स होति उवएसा । सेसा होति असन्नी, कालिय तह हेउसन्नी य ॥ [कल्प वृ.भा.] ननु सम्यग्ज्ञानं मिथ्याज्ञानं च द्वे अपि क्षायोपशमिके, ततः कस्मादेकः संज्ञी अपरोऽसंज्ञी ? इति, अत आह होइ असीला नारी, जा खलु पतिणो न रक्खए सेज्जं ।। तं पि य हु होति सीलं, असोहणं तेण उ असीला ।। ८६ ॥ एवं खओवसमिए, जे वटुंते उ नाणविसयम्मि । ते खलु हवंति सण्णी, अण्णाणी होति अस्सण्णी ॥ ८७ ॥ या खलु लोके नारी पत्युः शय्यां न रक्षति सा भवत्यशीला, यतो यद्यपि 'तदपि' पत्युः 25 शय्याया अरक्षणं शीलं तथापि तदशोभन मिति कृत्वा सा अशीला ॥ ८६ ॥ एवं तुल्येऽपि क्षायोपशमिके भावे ये 'ज्ञानविषये' सम्यग्ज्ञाने वर्तन्ते ते संज्ञिनः, 'सम्यग्ज्ञानं संज्ञा, सा येषामस्ति ते संज्ञिनः' इति व्युत्पत्तेः । ये त्वज्ञानिनस्तेऽसंज्ञिनः, कुत्सितसंज्ञकत्वात् ॥ ८७ ॥ तदेवमुक्तं संज्ञिश्रुतमसंज्ञिश्रुतं च । सम्प्रति सम्यक्श्रुत-मिथ्याश्रुते द्वे अपि युगपदाहअंगा-ऽणंगपविटुं, सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं । 30 सम्यक्श्रुतं आसज उ सामित्तं, लोइय लोउत्तरे भयणा ॥ ८८॥ मिथ्याश्रुतं १°सतीणं ता० ॥ २ °हातीसु ता० ॥ ३ °वाय स° ता० ॥ ४ वइह ता० ॥ ५ णाई ता.॥ ६पित हु ता० ॥ ७°सीलं ता० ॥ ८ ज्ञानं संज्ञानं संशा डे० ॥ जिनौ 20 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवधा सनियुक्ति-भाग्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् खरूपेण लोकोत्तरिकम् अङ्गा-ऽनङ्गप्रविष्टं सम्यक्श्रुतम् , लौकिक मिथ्याश्रुतम् । स्वामित्व. मासाद्य पुनलौकिके लोकोत्तरे च 'भजना' लौकिकमपि कदाचित् सम्यक्श्रुतं लोकोत्तरमपि मिथ्याश्रुतमित्यर्थः । तथाहि -लौकिकमपि सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं सम्यकश्रुतम् , मिथ्यादृष्टिपरि गृहीतं लोकोत्तरमपि मिथ्याश्रुतमिति ॥ ८८ ॥ 5 अथ येन सम्यक्त्वेन परिगृहीतं सम्यक्श्रुतं भवति तत् किंप्रत्ययम् ? अत आह ___आभिणिवोहमवायं, वयंति तप्पच्चयाउ सम्मत्तं । जा मणपजवनाणी, सम्मदिट्टी उ केवलिणो ॥ ८९ ॥ 'आभिनिवोधिकः' आभिनिबोधिक भेदो योऽपायो यद्वशाद् यथावस्थितार्थविनिश्चयस्तं सभ्यक्त्वस्य प्रत्ययं वदन्ति पूर्वसूरयः, सम्यग्ज्ञाने सम्यक्श्रद्धानभावात् । 'तत्प्रत्ययाच' अपायप्र10 त्ययाच्च सम्यक्त्वं तावदवसेयं यावन्मनःपर्यायज्ञानिनः, ततः परमपायस्याभावात् । केवलिनः केवलज्ञानप्रत्ययादेव सम्यग्दृष्टयः ।। ८९ ॥ अथ तत् सम्यग्दर्शनं कतिविधम् ? अत आहसम्यक्त्वस्वरूपम् उँवसमियं सासायण, खओवसमियं च वेदगं खइयं । सम्यक्त्वम् सम्मत्तं पंचविहं, जह लब्भइ तं तहा वोच्छं । ९० ॥ 15 सम्यक्त्वं पञ्चविधम् । तद्यथा-औपशमिकं सासादनं क्षायोपश मिकं वेदकं क्षायिकं च । एतत् पञ्चप्रकारमपि यथा लभ्यते तथा वक्ष्यामि ।। ९० ॥ तदेवाह--- बंधद्वितीपमाणं, सामित्तं चेव सव्वपगडीणं । प्राप्तिक्रमः को केवइयं बंधइ, खवेइ वा कित्तियं कोइ ।। ९१ ॥ सम्यक्त्वं कर्मणां क्षयत उपशमतः क्षयोपशमतश्योपजायते । क्षयादयश्च त्रयः प्रकारा 20 बद्धानां कर्मणां नाबद्धानामिति प्रथमतो बन्धतः स्थितिप्रमाणं जघन्यत उत्कर्षतश्च वक्तव्यम् , तच्चैवम्-ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टं स्थितिपरिमाणम् , मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्यः, नाम-गोत्रयोविंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः, आयुषस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि; तथा जघन्यं वेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ताः, नाम-गोत्रयोरष्टौ, शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् । तथा सर्वप्रकृतीनां सत्तामधिकृत्य स्वामित्वं वक्तव्यम्, तच्चैवम्-मिथ्या25 दृष्टि-सास्वादन-मिश्रा-ऽविरतसम्यग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्ता-ऽप्रमत्ता-ऽपूर्वकरणा-ऽनिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायो-पशान्तमोहा अष्टानामपि प्रकृतीनां खामिनः, मोहनीयवर्जानां सप्तानां क्षीणमोहाः, वेद्या-ऽऽयु-र्नाम-गोत्राणां सयोग्य-ऽयोगिकेवलिनः । तथा कः कियद् बध्नाति ? इति वक्तव्यम् , तत्र-मिथ्यादृष्टयोऽप्रमत्तान्ताः सप्तविधबन्धका वाऽष्टविधबन्धका वा, अपूर्वकरणाऽनिवृत्तिबादराः सप्तविधवन्धकाः, सूक्ष्मसम्परायाः पड्डिधवन्धकाः, उपशान्तमोह-क्षीणमोह30 सयोगिकेवलिनः सातवेदनीयैकबन्धकाः, अबन्धका अयोगिकेवलिनः । तथा को वा कियत् १चयं तु स° ता०॥ २ नाणं स ता० ॥ ३ उबसामग सासाणं ता० ॥ ४ को उ ता० ॥ ५°षत्रिंश कां० विना ॥ सम्यक्स Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ८९-९५] पाठिका। क्षपयति? इति वक्तव्यम् , तत्र-मिथ्यादृष्टय उपशान्तमोहपर्यन्ता अक्षीणाष्टप्रकृतिकाः, क्षीणमोहाः क्षीणं मोहनीयमित्यक्षीणसप्तप्रकृतिकाः, सयोग्य-अयोगिकेवलिनः क्षीणघातिकर्माणः॥२१॥ अथ कस्य कर्मण उत्कृष्टायां स्थितौ कस्य नियमत उत्कृष्टा स्थितिः? कस्य वा भजनया ? इति, अत आह आउयवजा उ ठिई, मोहोकोसम्मि होइ उक्कोसा। मोहविवजुक्कोसे, मोहो सेसा य भइयाउ ।। ९२ ॥ 'मोहोत्कर्षे' मोहनीयस्योत्कृष्टायां स्थितौ सत्यां नियमत आयुर्वर्जयित्वा शेषाणां कर्मणामुत्कृष्टा स्थितिभवति । मोहविवर्जस्य-ज्ञानावरणीयादेरुत्कर्ष-उत्कृष्टायां स्थितौ 'मोहः' मोहनीयं शेषाश्च प्रकृतयः 'भक्ताः' विकल्पिताः, कदाचिदुत्कृष्टस्थितिका भवन्ति कदाचिन्नेति भावः ॥ ___ तत्र सर्वेषां कर्मणामुत्कृष्टस्थितौ वर्तमानः प्रबलमोहाच्छादितत्वान्न किमपि सम्यग्दर्शनं 10 लभते, उक्तञ्च ___ अट्ठण्ह वि पगडीणं, उक्कोसठिईए वट्टमाणो उ । ण लभति सम्मइंसण, मिच्छत्तेणं विमोहाओ ॥ किन्तु सप्तानामायुर्वर्जानामभ्यन्तरकोटीकोट्यां वर्तमानाः(नः) । तथा चाह-- अंतिमकोडाकोडीऍ होइ सव्वासि कम्मपगडीणं । 15 पलियाअसंखभागे, खीणे सेसे हवइ गंठी ॥ ९३ ॥ आयुर्वर्जानां सर्वाणां (सर्वासां) कर्मप्रकृतीनामन्तिमायां कोटीकोट्यां स्थितायां तत्रापि पल्योपमस्यासयेयतमे भागे क्षीणे शेषे स्थितिदलिके सति सम्यग्दर्शनलाभो भवति । केवलं तदानीं सम्यग्दर्शनलाभान्तरायभूतः कर्कश-धन-रूढ-गुपिलवल्कग्रन्थिरिव दुर्भेदो धनराग-द्वेषपरिणामरूपो ग्रन्थिर्भवति, ततस्तस्मिन् भिन्ने प्रतिपत्तव्यः ॥ ९३ ॥ तस्य च भेदः करणवशात् , अतः करणवक्तव्यतामाहतिविहं च होइ करणं, अहापवत्तं तु भव्व-ऽभवाणं । त्रिविधं भवियाण इमे अन्ने, अपुरकरणाऽनियट्टी य ॥ ९४ ॥ 'करणं' नाम परिणामविशेषः । तत् 'त्रिविधम्' त्रिप्रकारं भवति । तद्यथा-प्रथमं यथाप्रवृत्ताख्यं भव्यानामभव्यानां च साधारणम् । भव्यानां पुनः इमे द्वे अन्ये करणे, अपूर्वकर- 25 णम् 'अनिवृत्तिश्च' अनिवृत्तिकरणं च ॥ ९४ ॥ साम्प्रतमेतेषामेव त्रयाणां करणानां कालविभागमाहजा गंठी ता पढमं, गठिं समतिच्छतो अपुव्यं तु । करणानां अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ।। ९५ ॥ स्थिति. यावद् ग्रन्थिस्तावत् 'प्रथमम्' यथाप्रवृत्ताख्यं करणम् । ग्रन्थि 'समतिकामतः' भिन्दानस्ये. 30 कालः १ उ ता. बिना ॥ २ च्या व डे० विना ॥ ३°डीय हो' ता० ॥ ४°यामसं° ता. विना ॥ ५°रूढगूढगुपि भा०॥ ६°मे व्य(ब)ऽण्णे ता. ॥ ७°ट्टीयं ता० ॥ ८°तो भवे बीयं ता. विना ॥ ९ पुरेक्ख° ता० ॥ 20 करणम् Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णानि दृष्टान्तः ३२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् त्यर्थः पुनः 'अपूर्वम्' अपूर्वकरणम् । अनिवृत्तिकरणं तु सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन स सम्यक्त्वपुर. स्कृतः तस्मिन् जीवे, सम्यक्त्वाभिमुखे इत्यर्थः ॥ ९५ ॥ ____ अथ यावदन्थिस्तावन्निर्गुणस्य सतः कथं कर्मराशेः क्षपणम् ? उच्यते--गिरिसरित्प्रस्तरदृष्टान्तात् । ततस्तमेव दृष्टान्तं तत्प्रसङ्गतः शेषकरणयोरपि दृष्टान्तानभिधित्सुरिगाथामाह नदि पह जर वत्थ जले, पिवीलिया पुरिस कोदवा चेव । सम्यक्त लामेऽष्टा सम्मइंसणलंभे, एते अट्ट उ उदाहरणा ।। ९६ ॥ वुदाहर- करणवशात् सम्यग्दर्शनला मे एतान्यष्टावुदाहरणानि । तद्यथा-"नदिति गिरिनदीप्रस्तरोदा हरणम् १ पथदृष्टान्तः २ ज्वरोदाहरणम् ३ वस्त्रोदाहरणम् ४ जलोदाहरणम् ५ पिपीलिकोदाहरणम् ६ पुरुषोदाहरणम् ७ कोद्रवोदाहरणम् ८ ॥ ९६ ॥ 10 तत्र प्रथमतो गिरिसरित्प्रस्तरोदाहरणं भावयति-- गिरिसरि गिरिसरियपत्थरेहिं, आहरणं होइ पढमए करणे । प्रस्तर एवमणाभोगियकरणसिद्धितो खवण जा गंठी ।। ९७ ॥ गिरिसरित्प्रस्तरैः 'आहरणं' दृष्टान्तः 'प्रथम' यथाप्रवृत्ताख्ये करणे भवति । तच्चैवम्-यथा गिरिसरित्प्रस्तरा गिरिसरिजलावेगतो घर्षण-घोलनादिना केचिद्वर्तुला भवन्ति केचित्र्यस्राः 15 केचिच्चतुरस्राः, एवम् 'अनाभोगकरणसिद्धितः' यथाप्रवृत्तकरणप्रभावतः सुदीर्घाया अपि कर्मस्थितेस्तावत् क्षपणं यावदन्थिरिति ॥ ९७ ॥ अथ "अनिवृत्तिकरणं सम्यक्त्वपुरस्कृते जीवे भवति" (गाथा ९५) इत्युक्तं तत् सम्यक्त्वं कथं लभते ? उच्यते-उपदेशतः स्वयं वा । तथा चात्र पथदृष्टान्तः उवएसेण सयं वा, नहपहो कोइ मग्गमोतरति । 20 नष्टपथः कोऽपि पुरुषः 'उपदेशेन' अन्यं पृष्ट्वा तस्योपदेशेन मार्गमवतरति, कश्चिन्मार्ग नुसारिप्रज्ञतया खयमेवेहा-ऽपोहं कृत्वा । एवमिहापि कोऽपि सम्यग्दर्शनमाचार्यादीनामुपदेशतो लभते, कश्चित्खयमेव जातिस्मरणादिना ॥ अत्रैव ज्वरदृष्टान्तमाह जरितो य ओसहेहिं, पउणइ कोई विणा तेहिं ॥ ९८॥ दृष्टान्तः ज्वरितोऽपि कश्चिदौषधैः 'प्रगुणति' प्रगुणीभवति, कश्चित्पुनः 'तैः' औषधैः 'विना' एवमेव । 25 एवमत्रापि कस्यचिद्दर्शनमोह आचार्याधुपदेशतोऽपगच्छति, कस्यचित्पुनरेवमेव मार्गानुसारितया तत्त्वपर्यालोचनतः । इह ज्वरस्थानीयो दर्शनमोहः, औषधस्थानीय आचार्याधुपदेशः ॥९८॥ इह यस्तत्प्रथमतया क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिरुपजायते सोऽपूर्वकरणवशान्मिथ्यात्वदलिकं त्रिधा करोति । तद्यथा-मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं च । अत्र वस्त्रदृष्टान्तं जलदृष्टान्तं चाऽऽह मॅइल दरसुद्ध सुद्धं, जह वत्थं होइ किंचि सलिलं वा । एसेव य दिटुंतो, दंसणमोहम्मि ति विहम्मि ॥९९॥ १ पते खलु अट्टदा ता० ॥ २ °न्यं दृष्ट्वा भा० विना ॥ ३ मतिल ता० ॥ ४ च का . ता. विना ॥ पथदृशन्तः ज्वर 30 वस्त्रज. लष्टा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण न्तः भाष्यगाथाः ९६-१०३] पीठिका। यथा किञ्चिद् वस्त्रं सलिलं वा मलिनं भवति, किञ्चिद् 'दरशुद्धम्' ईपद्विशुद्धम् , किञ्चित् शुद्धम् । एष एव दृष्टान्तो दर्शनमोहे त्रिविधे भावनीयः-तदप्यपूर्वकरणवशात् किञ्चित् शुद्धं सम्यक्त्वरूपम् , किश्चिदीषद्विशुद्धं सम्यग्मिथ्यात्वरूपम् , किञ्चित्तथैव मलिनं मिथ्यात्वरूपं स्थितमिति भावः ॥ ९९॥ ___ अत्राह-कथमभव्यास्तस्मिन् ग्रन्थिदेशेऽवतिष्ठन्ते? कथं वा ततः प्रतिपतन्ति ? भव्या वा 3 कथं ग्रन्थि विभिद्य ततः परतो गच्छन्ति ? उच्यते-पिपीलिकादृष्टान्तात् । तमेवाहअहभावेण पसरिया, अपुवकरणेण खाणुमारूढा ।। त्रिकाप्तौ चिट्ठति तत्थ काई, पिपीलिया काइ उड्डेति ॥ १००॥ पिपीलि. पच्चोरुहणट्ठा खाणुआतो चिट्ठति तत्थ एवावि । कादृष्टापक्खविहूणातो पिवीलियातो उड्डुति उ सपक्खा ॥१०१॥ 10 काश्चित्पिपीलिकाः 'यथाभावेन' अनाभोगतः 'प्रसरिताः' बिलान्निर्गत्य इतस्ततो गन्तुं प्रवृत्ताः। काश्चित्पुनरपूर्वकरणेन स्थाणुमारूढाः । तासामपि मध्ये काश्चित् 'तत्र' स्थाणावेव तिष्ठन्ति याः पक्षविहीनाः । काश्चित्सञ्जातपक्षास्ततः ‘उड्डयन्ते' ऊर्ध्वमाकाशेन गच्छन्ति ॥ १००॥ __ उत्तरार्द्धस्यैव व्याख्यानार्थमनन्तरगाथा “पच्चोरुहणट्ठा" इत्यादि । काश्चित् पक्षविहीनाः पिपीलिकाः स्थाणोः प्रत्यवरोहणार्थं 'तत्रैव' स्थाणावेव तिष्ठन्ति, अपिशब्दात् प्रत्यवरोहन्ति च । 15 यास्तु सपक्षास्ता उड्डीयन्ते । इह पिपीलिकानामितस्ततः प्रसरणं यथाप्रवृत्तकरणतः, स्थाण्यारोहणमपूर्वकरणतः, उड्डयनमनिवृत्तिकरणेन; एवमत्रापि ग्रन्थिदेशगमनं यथाप्रवृत्तिकरणेन, प्रन्थिभेदनमपूर्वकरणतः, सम्यग्दर्शनमनिवृत्तिकरणेन । यथा च काश्चन पिपीलिकाः पक्षविहीनत्वात् स्थाणावेव स्थिताः, स्थित्वा च ततः प्रत्यवतीर्णाः, तथा कोऽपि मन्दाध्यवसायतया तीव्रविशोधिरहितोऽपूर्वकरणेन ग्रन्थिभिदामाधातुमुद्यतः समुच्छलितघनराग-द्वेषपरिणामस्तत्रैव 20 तिष्ठति, स्थित्वा च पुनः पश्चात्ततः प्रतिनिवर्त्तते ॥ १०१ ॥ अत्रैवार्थे पुरुषदृष्टान्तमाहजह वा तिण्णि मणूसा, सभयं पंथं भएण वचंता । त्रिकाप्तौ वेलाइकमतुरिया, वयंति पत्ता य दो चोरा ॥ १०२॥ द्वितीयः तत्थेगो उ नियत्तो. एगो थद्धो अतिच्छितो एको। पुरुषकमैगति अहापवत्तं, भिन्नेयर धावणं तइए ॥ १०३ ॥ 25 दृष्टान्तः वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसमुच्चये । यथा त्रयो मनुष्याः सभयं पन्थानं भयेन पाठान्तरं क्रमेण व्रजन्तः 'वेलातिक्रमत्वरिताः' सन्ध्यासमापतनेन गमनवेलातिक्रमतस्त्वरमाणा ब्रजन्ति । अत्रान्तरे चोभयपार्श्वतः प्राप्तौ पाणिकृपाणकरालौ द्वौ चौरौ । तौ च हक्कयन्तावेवमाक्षिपतः-क यास्यथ यूयम् ? मरणमेव युप्माकमिदानीं समापतितमिति ॥ १०२ ॥ __ तत्र 'एकः' पुरुषस्तौ समापतन्तौ दृष्ट्वा प्रथमत एव निवृत्तः । 'एकः' पुनर्द्वितीयो हक्काश्रव- 30 णत उद्गीर्णकृपाणदर्शनतश्च भयेन 'स्तब्धः' तत्रैव स्थितः । 'एकः' तृतीयः पुनः परमसाहसिकः प्रत्युद्गीर्णखड्गस्तौ द्वावपि चौरौ पश्चात्कृत्य तत्स्थानमतिकान्तः । इह या त्रयाणामपि पुरुषाणां १ कादी ता० ॥ २ ति अग्गओ पासे । पक्ख ता० ॥ ३°मति य अ° ता० ॥ वृ०५ करण Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिकै वृहत्कल्पसूत्रे नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् प्रथमतः क्रमेण गतिः सा यथाप्रवृत्तिकरणम् , यत् पुनस्तद्भयं भिन्नं तद् 'इतरद्' अपूर्वकरणम् , यत्तु ततः परतो धावनं तत् 'तृतीये' अनिवृत्ताख्ये करणे द्रष्टव्यम् ।। १०३ ॥ ___ तदेवं दृष्टान्तद्वयमभिधाय साम्प्रतमुपनयन्नाह एवं संसारीणं, जोएं सव्वाइँ तिन्नि करणाई। भवसिद्धिसलद्धीण य, पंखालपिवीलिया उवमा ॥१०४ ॥ 'एवम्' अमुना दृष्टान्तगतेन प्रकारेण यानि त्रीणि करणानि प्रागभिहितानि तानि सर्वाणि संसारिणां योजयेत् । तत्र पिपीलिका दृष्टान्तमधिकृत्य प्रागेव योजिताः । नवरं याः पक्षवत्यः पिपीलिका उक्तास्ताभिरुपमा भवसिद्धिसलब्धिकानां द्रष्टव्या । भवैः सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः कतिपयभवमोक्षगामिन इत्यर्थः, तेऽपि कदाचित् प्रतिपतन्ति तत आह—सलब्धिः-उत्तरो10 तरविशुद्धाध्यवसायप्राप्तिर्येषां ते सलब्धिकाः, ततो विशेषणसमासस्तेषाम् । किमुक्तं भवति? सपक्षपिपीलिका इव केचित् संसारिणो भवसिद्धिकाः सलब्धिकाः स्थाणोरिव ग्रन्थिदेशादपि परतो गच्छन्ति, केचित् पुनरभव्या भव्या वा केचन पक्षविहीनपिपीलिका इव स्थाणोरिव ग्रन्थिदेशात् प्रतिपतन्ति । पुरुषदृष्टान्तमधिकृत्यैवं योजना--पुरुषस्थानीयाः संसारिजीवाः, कर्मक्षपणस्थानीयः पन्थाः, भयस्थानीयो ग्रन्थिः, द्वौ चौरौ राग-द्वेषौ; यस्तु मन्दपराक्रमो न 15 पुरतो न मार्गतः किन्तु भयेन तत्रैव स्थितस्तत्सदृशो ग्रन्थिदेशे वर्तमानो भव्योऽभव्यो वा, स च तत्र सङ्ख्येयमसहयेयं वा कालं तिष्ठति ॥ १०४ ॥ तत्र स्थितस्य को लाभः ? इति चेत् , उच्यते-श्रुतलाभः । तथा चाह--- प्रन्थिगत दट्टण जिणवराणं, पूर्य अण्णेण वा वि कजेण । भव्य स्य च मुयलंभो उ अभब्वे, हविज थंभेण उवणीए ॥ १०५ ॥ श्रुतलाभः 20 यः स्तव्धन में 'उपनीतः' उपनयं प्रापितस्तस्मिन् अभव्ये तुशब्दाद् भव्ये च भवति 'श्रुत लाभः' द्रव्यश्रुतलाभः । कथम् ? इति चेत् , अत आह-"दहणे'त्यादि । स हि ग्रन्थिकसत्त्वो भन्योऽभव्यो वा भगवतां जिनवराणां पूजां दृष्ट्वा 'अहो ! कीदृशं तपसः फलम् ?' इति परि. भाव्य तदर्थिकतया अन्येन वा कार्येण स्वर्गसुखार्थित्वादिना प्रव्रज्यामभ्युपगच्छति, ततः सामायिकादिद्रव्यश्रुतलाभः । ग्रन्थौ चैवं कियन्तं कालं स्थित्वा पुनः पश्चात् प्रतिनिवर्तते ॥१०५|| 25 येनाप्यनिवृत्तिकरणतः सम्यक्त्वमासादितं तस्यापि द्वौ प्रकारौ-केचित् परिणामतो वर्धन्ते, केचिद् हानिमुपगच्छन्ति । तत्र ये हानि गच्छन्ति ते प्रतिपतन्ति, इतरे श्रावकत्वादीनि पदानि लभन्ते । तत्र जघन्यतः समकमेव, यत उक्तम् सम्मत्त-चरित्ताई, जुगवं पुर्व व सम्मत्तं । उत्कर्षतः पुनरेवम् सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहुत्तेण सावगो होजा। चरणोवसम-खयाणं, सागरसंखंतरा होति ॥ १०६ ॥ १जोएयव्वातिं ति° भा० ता० ॥ २ पक्खा ता० ॥ चरण ना, ४°म्मत्ते पुण ल° ता०॥ ५ या पुण सा ता० ॥ स्याभव्य स्य Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ भाष्यगाथाः १०४-११०] पीठिका । एवं अपरिवडिए, सम्मत्ते देव-मणुयजम्मेसु । अन्नयरसेढिवज्जं, एगभवेणं च सव्वाइं॥१०७॥ सम्यक्त्वे लब्धे 'पल्यपृथक्त्वेन' पल्योपमपृथक्त्वे गते 'श्रावकः' देशविरतो भवति । ततश्चरणोपशम-क्षयाणामन्तराणि सद्ध्यातानि सागरोपमानि भवन्ति । इयमत्र भावना-देशविरतिप्राप्त्यनन्तरं सङ्ख्यातेषु सागरोपमेषु गतेषु चरणलाभः, तदनन्तरं भूयः सङ्ख्यातेषु सागरोप-5 मेपु गतेषूपशमश्रेणिलाभः, ततोऽपि परतः सङ्ख्येयेषु सागरोपमेप्वतिक्रान्तेषु क्षपकश्रेणिः, ततस्तद्भवे मोक्षः ॥ १०६ ॥ __‘एवं' अमुना प्रकारेणाप्रतिपतितसम्यक्त्वे देव-मनुजजन्मसु वर्तमानस्य प्रतिपत्तव्यम् । . यदि वा 'अन्यतरश्रेणिवर्ज' उपशमश्रेणिवर्ज क्षपकश्रेणिवर्ज वा एकभवेन सर्वाणि देशविरत्यादीनि प्रतिपद्यते, श्रेणिद्वयप्रतिपत्तिस्त्वेकस्मिन् भवे न भवति । यत उक्तम्- 10 मोहोपशम एकस्मिन् , भवे द्विः स्यादसन्ततः। यस्मिन् भवे तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न ॥ सम्प्रति यदुक्तं प्राग् "मिथ्यात्वमपूर्वकरणेन त्रिधा करोति" (गाथा ९९) तत्र कोद्रवदृष्टान्तमाहअप्पुव्वेण तिपुंजं, मिच्छं काऊण कोद्दवोवमया । 15 मिध्यावतिन्नि वि अवेययंतो, उवसामगसम्मदिट्ठीओ ॥ १०८॥ स्य त्रिपु अकरणे 'कोद्रवोपमया' कोद्रवदृष्टान्तेन अपूर्वकरणेन मिथ्यात्वं त्रिपुहं कृत्वाऽनिवृतिकरणेन तत्व- कोद्रवथमतया क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमासादयति । ततः परिणामवशतः कालान्तरेण मिश्रं मिथ्यात्वं दृष्टान्तः वा गच्छति । यस्त्वपूर्वकरणमारूढोऽपि मन्दाध्यवसायतया मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकर्तुमसमर्थः सोऽनिवृत्तिकरणमुपगतोऽन्तरकरणं कृत्वा तत्र प्रविष्टो न किश्चिदपि वेदयते, स च 'त्रीण्यपि' 20 त्रयाणामन्यतमदप्यवेदयमान उपशमकः सम्यग्दृष्टिरुच्यते ॥ १०८॥ "कोद्रवोपमया” (गा० १०८) इत्युक्तम् , अतस्तामेव कोद्रवोपमा मावयति जह मयणकोदवा ऊ, दरनिव्वलिया य निवलीया य । एमेव मिच्छ मीसं, सम्मं वा होति जीवाणं ॥ १०९ ॥ यथा कोद्रवास्त्रिविधा भवन्ति, तद्यथा-मदनकोद्रवाः 'दरनिर्मलिताः' ईषदपगतमदनभावाः 25 'निर्वलिताः' सर्वथाऽपगतमदनभावाः । एवं जीवानां मिथ्यात्वं त्रिधा भवति-मिथ्यात्वं 'मिथ' सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं वा ॥ १०९ ॥ जं नैसकालेणुवकमेण व, जह नासति कोद्दवाण मदभावो । गिकंच अहिगमसम्म नेसग्गियं च तह होइ जीवाणं ॥११०॥ सम्ययथा कोद्रवाणां मदनभावः केषाञ्चित् 'कालेन' एवमेवापगच्छति, केषाञ्चिद् गोमयादि- 30 क्वम् भिरुपक्रमतः; एवं केषाञ्चिद् जीवानामुपक्रमसदृशमधिगमसम्यक्त्वं भवति, केषाश्चित् कालेन १°च्छत्तं काउ कोहवे उवमा ता० ॥ २ °लियगा य ता० ॥ अधिगम Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 10 ३६ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ नन्दी - ज्ञानपञ्चकम् खत एवापगतमदनभावकोद्रवाणां सदृशं नैसर्गिकसम्यक्त्वम् । किमुक्तं भवति ? - केषाञ्चिदघिगमतो मिथ्यात्वपुद्गलाः सम्यक्त्वीभवन्ति, केषाञ्चित् स्वत एव तथा परिणाम विशेषभावतः ॥ ११० ॥ एतदेव स्पष्टयति सोऊण अहिसमेच्चे व करेइ सो वडमाणपरिणामो । मिच्छे सम्मामिच्छे, सम्मे वि य पोग्गले समयं ॥ १११ ॥ श्रुत्वा केवलिप्रभृतीनां वचः 'अभिसमेत्य वा' जातिस्मरणादिना सम्यक्त्वमवगम्य 'सः' अपूर्वकरणे वर्त्तमानो वर्धमानपरिणामः 'समकं' एककालं मिथ्यात्वपुद्गलान् त्रिधा करोति । तद्यथा-'मिच्छे' इति मिथ्यात्वपुद्गलान् सम्यग्मिथ्यात्वपुद्गलान् सम्यक्त्वपुद्गलानिति ॥ १११ ॥ अथैषां पुद्गलानां परस्परं सङ्गमो भवति किं वा न ? इति उच्यते भवतीति ब्रूमः । तथा चाह मिच्छत्ताओ मीसे, मीसस्स उ होज संकमो दोसुं । सम्मे वा मिच्छे वा सम्मा मिच्छं न पुण मीसं ॥ ११२ ॥ 'मिथ्यात्वात् ' मिध्यात्वदलिकात् सम्यग्दृष्टिः प्रवर्धमान परिणामः पुद्गलानाकृष्य मिश्रे उप1 लक्षणमेतत् सम्यक्त्वे च सङ्क्रमयति । मिश्रस्य पुद्गलानां सङ्क्रमो द्वयोर्भवति । तद्यथा - सम्य- क्त्वे मिथ्यात्वे च । तत्र सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वे सङ्क्रमयति मिथ्यादृष्टिर्मिथ्यात्वे | 'सम्यक्त्वात् ' सम्यक्त्वदलिकात् पुनः पुद्गलान्मिथ्यात्वं सङ्क्रमयति न पुनर्मिश्रमिति ॥ ११२ ॥ साम्प्रतममुमेवार्थं प्रकारान्तरेणाह 20 मिच्छत्ताओ अहवा, मीसं सम्मं च कोई संक्रमइ । मीसाओ वा सम्मं, गुणबुड्डी हायतो मिच्छं ।। ११३ ॥ ' अथवा ' इत्युक्तस्यैवार्थस्य भणनप्रकारान्तरद्योतने । 'मिथ्यात्वात् ' मिध्यात्वदलिकात् पुद्गलानाकृप्य कश्चिन्मिश्रं सम्यक्त्वं च सङ्क्रमयति । यदि वा कश्चिद्गुणैर्वृद्धिर्यस्य स गुणवृद्धि:प्रवर्धमानपरिणामः सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः 'मिश्रात्' मिश्रदलिकात् पुद्गलानादाय सम्यक्त्वं सङ्क्रमयति । 'हायक:' हीनपरिणामो मिथ्यादृष्टिरित्यर्थः मिश्रात् पुद्गलानाकृष्य मिथ्यात्वं सङ्क्रम25 यति ॥ ११३ ॥ मिच्छत्ता संकंती, अविरुद्धा होति सम्म-मीसेसु । मीसातो वा दुणि वि, ण उ सम्मा परिर्णमे मीसं ॥ ११४ ॥ मिथ्यात्वात् पुद्गलसङ्क्रान्तिः सम्यक्त्व- मिश्रयोर विरुद्धा । 'मिश्रतो वा' सम्यग्मिथ्यात्वतो १ “सोऊण०” गाथामादीकृत्य "चोद्दस दस य अभिन्ने ०” १३२ गाथापर्यन्ता गाथाश्चूर्णिकृद्भिः क्रमभेदेन व्याख्याताः । तथाहि तत्क्रमः -- सोऊण० गाथा । उवसामग० । खीणम्मि० । ऊसरदेसं० । झीमीभवंति • । उववाण । वाही असव्व० । आलंबण० । मिच्छत्तम्मि० । उवसमसम्मा० । आसादेउं । जो उ उदिणे • । जो चरिम० । दंसणमोहे० । मिच्छत्तातो मीसे० । मिच्छत्तातो अह्वा० । मिच्छत्ता संकंती • । हायंते परिनामे । सम्मत्तपोग्गलाणं० । विभंगी० । अण्णाणमती० । चोद्दस दस० ॥ २ च्या क° ता० विना ॥ ३ मीसेवियपोग्गले सम्मे ता० ॥ ४°मीसे तु भा० ता० विना ॥ ५णमति मी ता० ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १११ - ११९] पीठिका | ३७ वा पुद्गलानादाय द्वावपि सङ्क्रमयति । तद्यथा - मिध्यात्वं सम्यक्त्वं च । यथोक्तमनन्तरम् । 'सम्यक्त्वात्' सम्यक्त्वदलिकात् पुनः पुद्गलानादाय न 'मिश्र' मिश्रभावं परिणमयति ॥ ११४ ॥ हायंते परिणामे, न कुणति मीसे उ पोग्गले सम्मे । नय सोहिया सि विज्जंति केइ जे दाणि वेएज्जा ॥ ११५ ॥ सम्मत्तपोग्गलाणं, वेदेउं सो य अंतिमं गातं । पच्छाकडसम्मत्तो, मिच्छत्तं चैव संक्रमति ॥ ११६ ॥ यस्य तु सम्यग्दर्शन लाभे हीयमानः परिणामः स तस्मिन् हीयमाने परिणामे न मिश्रान् पुद्गलान् तुशब्दात् मिथ्यात्वपुद्गलांश्च सम्यक्त्वपुद्गलान् करोति । न च 'से' तस्य ' शोधिताः ' पूर्वशोषिताः केचिदन्ये पुद्गला विद्यन्ते यान् 'इदानीम् ' अधिकृतसम्यक्त्वपुञ्ज निष्ठाकाले वेदयेत् ॥ ११५ ॥ ततः सम्यक्त्व पुद्गलानामन्तिमग्रासं वेदयित्वा पश्चात्कृत सम्यक्त्वोऽपि मिथ्या - 10 त्वमेव सङ्क्रामति ॥ ११६ ॥ ११७ ॥ मिच्छत्तम्मि अखीणे, तेपुंजी सम्मदिट्ठिो नियमा । खम्म उमिच्छत्ते, दु-एकपुंजी व खवगो वा ॥ अक्षीणे मिथ्यात्वे ये सम्यग्दृष्टयस्ते नियमात् त्रिपुञ्जिनः । क्षीणे तु मिध्यात्वे द्विपुञ्जी मिथ्यात्वपुञ्जस्य क्षीणत्वाद्, एकपुञ्जी वा मिश्रपुञ्जक्षये । यदि वा क्षपकः सम्यक्त्व पुञ्जस्यापि 16 क्षये ॥ ११७ ॥ तदेवं त्रयाणामपि पुञ्जानां दृष्टान्तेन निर्णयः कृतः स्वरूपं च व्यावर्णितम्, साम्प्रतं त्रयस्याप्यवेदनत औपशमिकसम्यग्दृष्टिमाह - उवसामगसे ढिग यस्स होति उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ ११८ ॥ उपशमकश्रेणिगतस्य भवति सम्यक्त्वमौपशमिकम्, यो वा 'अकृतत्रिपुञ्ज : ' अपूर्वकरणे पुञ्जत्रयाकरणतः । तत्र क्षपकोऽपि दर्शन सप्तकस्या पूर्वकरणमारूढः पुञ्जत्रयं न करोति ततस्तव्यवच्छेदार्थमाह-अक्षपितमिथ्यात्वो यल्लभते सम्यक्त्वं तदौपशमिकं सम्यक्त्वमिति ॥ ११८ ॥ एतौ च द्वावप्यौपशमिकसम्यग्दृष्टी सम्यक्त्वमौपशमिकमन्तर्मुहूर्त्तमनुभूय तदनन्तरमवश्यं प्रतिपततः, तत्र दृष्टान्तद्वयमाह 5 औपश 20 25 वाही असन्वछिन्नो, काला विक्कुरु व्व दडदुमो । सामगान दोह वि, एते खलु होंति दिता ॥ ११९ ॥ यथा व्याधिरसर्वच्छिन्नः ‘कालापेक्षं' क्रियाविशेषणमेतत् कालमपेक्ष्येत्यर्थः पुनरुद्भवति, दग्धो वा द्रुमः कालापेक्षं यथाङ्कुरं मुञ्चति; एवमुपशमितमपि मिध्यात्वं कालमपेक्ष्य पुनरुद्रक्तीभवतीति द्वयोरपि प्रतिपातः । तथा चाह-द्वयोरप्युपशमकयोरेतौ भवतो दृष्टान्तौ ॥ ११९ ॥ 30 तत्रोपशमश्रेणिगत औपशमिकसम्यग्दर्शनी देशप्रतिपातेन वा प्रतिपतति सर्वप्रतिपातेन या । इतरोऽवश्यमेव सर्वप्रतिपातेन प्रतिपतति, मिथ्यात्वं गच्छतीत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तमाह१ ° देयुं सो भा० ॥ २ अखविए ते ता० ॥ ३ य ता० ॥ ४ जो वि य अकयतिपुंजी ता० ॥ मिकं स म्यक्त्वम् Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-भाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे आलंबणमलहंती, जह सट्टाणं न मुंचए इलिया । एवं अकयतिपुंजो, मिच्छं चिय उवसमी एति ॥ १२० ॥ इह या तृणादिषु सुखप्रदेशेन सर्वतोऽग्रेतनं स्थानं परिभाव्य ततोऽग्रेतनं स्थानं सङ्क्रामति अन्यथा पश्चाद्वलते सा इलिका यथा पुरत आलम्बनमलभमाना स्वस्थानं न मुञ्चति; एवमकृB तत्रिपुञ्जो गत्यन्तराभावाद् मिथ्यात्वमेवोपशमी याति । इयमत्र भावना - 1 - द्विविधस्तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शनप्रतिपत्ता, अतिविशुद्धो मन्दविशुद्धश्च । तत्र योऽतिविशुद्धः सोऽपूर्वकरणमारुढो मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकरोति, कृत्वा चानिवृत्तिकरणे प्रविष्टस्तत्प्रथमतया क्षायोपशमिकं सम्यग्दर्शनमासादयति सम्यक्त्वपुञ्जोदयात् । यस्तु मन्दविशुद्धः सोऽपूर्वकरणमप्यारूढस्तीत्राध्यवसायाभावात् न मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकर्त्तुमलम्, ततोऽनिवृत्तिकरणमुपगतोऽन्तरकरणं कृत्वा तत्र 10 प्रविष्टस्तत्प्रथमतया औपशमिकसम्यग्दर्शनमनुभवति, अन्तरकरणं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणम्, अतस्तदद्धाक्षयेऽन्येषां पुद्गलानामभावेतो मिध्यात्वमेति ॥ १२० ॥ एतदेवाह - ३८ [ नन्दी - ज्ञानपञ्चकम् खीणम्मि उदिन्नम्मी, अणुइज्जंते य सेसमिच्छते । अंतोमुहुर्त्तकालं, उचसमसम्मं लहइ जीवो ।। १२१ ॥ अनिवृत्तिकरणे प्रविष्टस्य यद् मिध्यात्वं उदीर्णम् - उदयावलिकाप्रविष्टं तस्मिन् क्षीणे शेषे 15 च मिथ्यात्वेऽपान्तरालेऽन्तरकरणतोऽनुदीयमानेऽन्तर्मुहूर्तं कालमौपशमिकं सम्यक्त्वं जीवो लभते, मिथ्यात्वदर्शन वेदनाऽभावात् ॥ १२१ ॥ सोऽपि कथम् ? इत्यत आह ऊसरदेसं दवेलयं च विज्झाइ वणदवो पप्प | इयमिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्मै मुणेयव्त्रं ॥ १२२ ॥ यथा वनदवः ‘ऊसरदेशं’ तृणादिरहितं प्रदेशं दग्धं वा प्राप्य विध्यायति, 'इति' एवम20 न्तरकरणे प्रविष्टस्य मिथ्यात्वपुद्गलाभावात् 'मिथ्यात्वस्य' मिथ्यादर्शनस्य अनुदयः - अवेदनम् ततस्तस्मिन् सत्यौपशमिकं सम्यक्त्वं ज्ञातव्यम् ॥ १२२ ॥ किञ्च - जिम्हीभवंति उदया, कम्माणं अत्थि सुत्त उवदेसो । उववायादी सायं, जह नेरइया अणुभवंति ॥ १२३ ॥ द्विविधेऽप्यौपशमिकसम्यग्दृष्टौ शेषाणामपि कर्मणामुदया जिल्ह्मीभवन्ति । न चैतद्वचनमा25 त्रम्, यतोऽस्त्येव 'सूत्रे' ग्रन्थान्तररूपे साक्षादुपदेशः, यथा - नैरयिका उपपातादौ सातमनुभवन्तीति ॥ १२३ ॥ एनमेव दर्शयति उववारण व सायं, नेरईओ देवकम्णा वा वि । अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं ।। १२४ ॥ १ पुंजी मिच्छम्मि उ उव ता० ॥ २वतो मिथ्यात्वपुद्गलवेदना [त्] मिथ्या भा० ॥ ३ म य अ° ता० ॥ ४ °तमित्तं उच ता० विना ॥ ५ मं लभति जीवो ता० ॥ ७ झीमीभवंति ता• । “झीमीभवंति त्ति मंदीभवंति” इति चूर्णौ ॥ इया दे° ता० ॥ ६ 'देसं तृ° भा० कां० ॥ ८ यथाऽस्त्येव भा० ॥ ९ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलाभः माप्यगाथाः १२०-१२६] पीठिका । नैरयिक उपपातेन सातमनुभवति । किमुक्तं भवति ?-उपपातकाले सातं वेदयते, तदानीं हि न तस्य क्षेत्रजा वेदना न परस्परोदीरिता नापि परमाधार्मिकोदीरितेति । अथवा 'देवकमणा' देवक्रियया सातमनुभवति, देवो हि कश्चिन्महर्द्धिकः पूर्वभवस्नेहतस्तत्र गत्वा कस्यापि कञ्चित्कालं वेदनामुपशमयति, ततः सातं वेदयते । अथवा 'अध्यवसाननिमित्त' तथाविधशुभाध्यवसायप्रवृत्तिनिमित्तं सातमासादयति, यथा सम्यग्दर्शनं लभमानः, सम्यग्दर्शनलाभे हि जात्यन्धस्य चक्षुर्लाभ इव जायते महान् प्रमोद इति । "अहवा कम्माणुभावेणं"ति अथवा तीर्थकरजन्माद्यधिकृत्य यः कर्मणां-सातवेदनीयप्रभृतीनां शुभानाम् अनुभावः-अनुभवनम् उदयेन वेदनं तेन सातमनुभवति । तथाहि-भगवतां तीर्थकृतां जन्मनि दीक्षायां ज्ञाने च तत्प्रभावतो नरकेऽप्यालोको जायते, नैरयिकाणामपि च शुभकर्मोदयप्रसरतः सातमिति ॥१२४॥ ___ अथ मिथ्यादृष्टिर्यदा सम्यक्त्वं सामति तदा स तत्समयं कति ज्ञानानि लभते ? उच्यते- 10 द्वे त्रीणि वा । तथा चाह सम्यक्त्व. लामे ज्ञाविभंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मति-सुतोहीणि । तइभावम्मि मति-सुते, सुतलंभं केइ उ भयंति ॥ १२५ ॥ 'विभङ्गी' विभङ्गज्ञानी सम्यक्त्वं परिणमयन् तत्समयं मति-श्रुता-ऽवधीन् लभते । तदभावे' तस्य-विभङ्गस्याभावे मिथ्यादर्शनी सम्यक्त्वं परिणमयन् तत्कालं ‘मति-श्रुते' मतिज्ञान-15 श्रुतज्ञाने लभते । केचित् पुनः श्रुतलाभं 'भजन्ति' विकल्पयन्ति, 'यस्याधीतं श्रुतं स लभते श्रुतज्ञानम्, इतरो न लभते' इत्याचक्षत इति भावः । तथाहि-ये स्वयम्भूरमणसमुद्रे मत्स्यास्ते प्रतिमासंस्थितान् मत्स्यान् उत्पलानि वा दृष्ट्वेहा-ऽपोहादि कुर्वन्तो जातिस्मरणतः सम्यक्त्वमासादयन्ति आभिनिबोधिकज्ञानं च, यत्तु श्रुतज्ञानं तन्नासादयन्ति, अनधीतश्रुतत्वात् । ये स्वधीतश्रुतास्ते त्रीण्यपि युगपदासादयन्ति ।। १२५ ।। एतद् दूषयितुमाह अन्नाण मती मिच्छे, जढम्मि मतिणाणतं जहा एइ। एमेव य सुयलंभो, सुयअन्नाणे परिणयम्मि ॥ १२६ ॥ यथा मिथ्यात्वे त्यक्ते मतिः 'अज्ञानम्' अज्ञानस्वरूपा मतिज्ञानतामेति एवमेव श्रुताज्ञाने 'परिणते' अपगते श्रुतलाभो भवति । किञ्च ते प्रष्टव्याः-सम्यक्त्वलाभसमये श्रुताज्ञानमस्ति ? किं वा न!, तत्र यद्याद्यः पक्षस्तर्हि तस्याज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टित्वप्रसङ्गः; अथ नास्ति तर्हि 25 श्रुताज्ञानमपि केवलमाभिनिबोधिकज्ञानी स्यात् । न चैतदुपपन्नम् , श्रुतज्ञानमन्तरेण केवलस्याऽऽभिनिबोधिकज्ञानस्याभावात् “जत्थ मतिनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मतिनाणं, दो वि एयाई अण्णोण्णमणुगयाई" इति वचनादिति ।। १२६ ।। १ किश्चि डे. भा० ॥ २“य एव मति ज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्यापि, 'जत्य मइनाणं तत्थ सुयमाणं, जस्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं' इत्यादिवक्ष्यमाणवचनप्रामाण्यात्' इत्युल्लिखन्ति स्म नन्दीवृत्तौ (पत्र ७०-१) श्रीमन्तो मलयगिरिपूज्याः, किञ्च नेक्ष्यतेऽयं पाठो मुद्रितनन्द्याम्, परं "जत्थ आभिणिबोहियणाणं तत्थ सुयणाणं, जत्थ सुयणाणं तत्थ आभिणियोहियणाणं, दो वि एयाई अण्णमण्णमणुगयाई" (पत्र १४०-१) इतिरूपः पाठो दृश्यते ॥ 20 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासादनं सम्यक्त्वम् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् वेदकं सम्यक्त्वम् 10 सासादन 15 शब्दस्य व्युत्पत्तिः ४० सासायेणो छावलितो, भूमिमपत्तो व पवडतो ॥ १२७ ॥ 'मिध्यात्वसङ्क्रमणकाले' मिथ्यात्वसङ्क्रमणाभिमुख उपशमसम्यक्त्वात् प्रतिपतन् जघन्यत B एकसामयिक उत्कर्षतः षडावलिकः सासादनो भवति । किंरूपः सः ? इत्याह- भूमिमप्राप्त इव प्रपतन् । यथा मालात् प्रपतन् भूमिमप्राप्तोऽपान्तराले वर्त्तते तथोपशमसम्यक्त्वात् प्रपतन् मिध्यात्वमद्याप्यप्राप्तोऽपान्तराले वर्त्तमानः सासादन इति ॥ १२७ ॥ अथ कथं स सम्यग्दृष्टिः उपशमसम्यक्त्वतः प्रच्यवमानत्वात् ? उच्यते - च्यवनेऽप्यव्यक्तमुपशमगुणवेदनात् । अत्रैव दृष्टान्तमाह आसादेउं व गुलं, ओहीरंतो न सुहु जा सुयति । यथा कश्चित् पुरुषो गुडमाखाद्य तदनन्तरं 'ओहीरति' निद्रायते, न पुनः सुष्ठु अद्यापि स्वपिति, स च निद्रायमाणोऽव्यक्तमाखादितगुडमाधुर्यमनुभवति; एवमुपशमसम्यक्त्वात् प्रच्यवमानो मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्तोऽव्यक्तमुपशमगुणं वेदयत इति सम्यग्दृष्टिः || सम्प्रति सासादनशब्दव्युत्पत्तिमाह 20 सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे तदेवमुक्तमौपशमिकं सम्यक्त्वम्, अधुना सासादनसम्यक्त्वमाहउवसमसम्मा पडमाणतो उ मिच्छत्तसंकमणकाले । सं आयं सायं तो, सस्सादो वा वि सासाणो ॥ १२८ ॥ 'स्त्रं' आत्मीयम् आयं सातयन् “सासादो वा वि सासाणो" 'साखादः ' अव्यक्तोपशमगुणाखादसहित इति कृत्वा 'सास्वादन: ' सह आस्वादनं यस्य स तथेति व्युत्पत्तेः ॥ १२८ ॥ अधुना क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमाह - जो उ उदिने खीणे, मिच्छे अणुदिन्नगम्मि उवसंते । सम्मभावपरिणतो, वेयंतो पोग्गले मीसो ॥ १२९ ॥ यस्तु 'उदीर्णे' उदयावलिकाप्रविष्ठे मिथ्यात्वे क्षीणे 'अनुदीर्णे' अनुदयप्राप्ते च ' उपशान्ते' उपशान्तं नाम किञ्चिन्मिथ्यात्व रूपतामपनीय सम्यक्त्वरूपतया परिणतं किञ्चिन्मिथ्यात्वरूपमेव सद् भस्मच्छन्नाग्निरिवानुद्रेकावस्थाप्राप्तम्, तस्मिन् तथारूपे सति 'पुद्गलान्' सम्यक्त्वरूपान् 'वेदयमानः' सम्यग्भावपरिणतः सः 'मिश्र ( श्रः ) ' क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः । सम्यक्त्वरूपध25 निर्देश प्रक्रमेऽपि धर्मिणा निर्देशो धर्म-धर्मिणोः कथञ्चिदभेदख्यापनार्थः । एवं पूर्वत्र परत्र च भावनीयम् ॥ १२९ ॥ इदानीं वेदकं सम्यक्त्वमाह जो चरमपोग्गले पुण, वेदेती वेयगं तयं चिंति । केसिंचि अणादेसो, वेयगदिट्ठी खओवसमो ॥ १३० ॥ 'यः' दर्शन सप्तकक्षपको यतोऽनन्तरसमये क्षीणसम्यक्त्वो भविष्यति तस्मिन् समये वर्त्त - 90 मानः सम्यग्दर्शनस्य चरमान् पुद्गलान् वेदयते, तस्य 'तत्' चरमपुद्गलवेदनं वेदकसम्यक्त्वं पूर्व [ नन्दी - ज्ञानपञ्चकम् १ °यण छा° ता० ॥ निद्दायतो” इति चूर्णो ॥ २ टीकाकृता "ओहीरेति" इति पाठानुसारेण व्याख्यातम् । "ओहीरंतो ३ सुवति ता० ॥ ४ च्छत्ते अणुइयस्मि ता० ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सम्यक्षम् भाष्यगाथाः १२७-३४] पीठिका । सूरयो ब्रुवते । 'केषाञ्चित् पुनः' बोटिकानामयमादेशः-'वेदकदृष्टिः' वेदकसम्यग्दर्शनं क्षायोपशमिकं सम्यग्दर्शनम् , सोऽनादेशः, सम्यक्त्वापरिज्ञानादिति ॥ १३० ॥ सम्प्रति क्षायिकदर्शनमाहदसणमोहे खीणे, खयदिट्ठी होइ निरवसेसम्मि । क्षायिक केण उ सम्मो मोहो, पडुच्च पुव्वं तु पण्णवणं ।। १३१॥ दर्शनमोहे 'निरवशेषे' त्रिप्रकारेऽपि क्षीणे 'क्षयदृष्टिः' क्षायिकं सम्यग्दर्शनं भवति । आह यद् मिथ्यात्वदर्शनं तद् मोहः स्यात् , तस्य सम्यग्दर्शनमोहकत्वात् , यत् 'सम्यक् सम्यग्दर्शनं तत् केन कारणेन मोहः? सूरिराह-पूर्वी प्रज्ञापनां प्रतीत्य । किमुक्तं भवति?-यथा मदनकोद्रवाणां निर्मदनीकृतानामप्योदनः स एष मदनकोद्रवौदन इति व्यादिश्यते, तेषां पूर्व समदनत्वात् ; एवं तेऽपि सम्यक्त्वपुद्गलाः पूर्व मिथ्यात्वपुद्गला आसीरन् , ते च दर्शनमोहकाः, 10 अतः पूर्वभावप्रज्ञापनामधिकृत्य तेऽपि दर्शनमोह इति व्यपदिश्यन्ते ॥ १३१ ॥ ___ आह पूर्वमिदमुक्तम्-"आसज्ज उ सामित्तं, लोइय लोउत्तरे भयणा" (गा० ८८) तत्र किं सर्वमेव द्वादशाङ्गं गणिपिटकं मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतं भवति? किं वा किञ्चिद् ? इत्यत आह चोदस दस य अभिन्ने, नियमा सम्मं तु सेसए भयणा । मति-ओहि विवचासो, वि होति मिच्छे ण उण सेसे ॥ १३२ ॥ 13 यस्य चतुर्दश पूर्वाणि यावद् दश च पूर्वाणि 'अभिन्नानि' परिपूर्णानि सन्ति तस्मिन् नियमात् सम्यक्त्वम् । 'शेषे' ('शेषके') किश्चिदूनदशपूर्वधरादौ ‘भजना' सम्यक्त्वं वा स्यान्मिथ्यात्वं वेत्यर्थः । किञ्च मतेरवधेश्च मिथ्यात्वे विपर्यासो भवति । तद्यथा-मतेर्मत्यज्ञानम् , अवधेश्च विभङ्गज्ञानमिति । श्रुतज्ञानस्य तु विपर्यासो दर्शित एव, “सेसए भयणा" इति वचनात् । 'शेषके' ('शेषे') मनःपर्यवज्ञाने केवलज्ञाने च नास्ति विपर्यासः ॥ १३२॥ 20 ___ अथ 'यदेवेदं भगवद्भिरुपदिष्टं तदेव तत्त्वम् युक्तियुक्तत्वाद् नेतरत्' इति सम्यग्दर्शनम् ज्ञानमप्येवंरूपमेवेति कः सम्यग्दर्शन-ज्ञानयोः प्रतिविशेषः ? उच्यतेदंसणमोग्गह ईहा, नाणमवातो उ धारणा जह उ । सम्यग्दर्श नसम्यग्ज्ञातह तत्तरुई सम्म, रोइंजइ जेण तं नाणं ॥ १३३ ॥ नयोविवेकः __ यथा तुल्येऽवबोधे दर्शन-ज्ञानयोर्भेदः-अवग्रह ईहा दर्शनम् , सामान्यावबोधात्मकत्वात् ; 25 अपायो धारणा च ज्ञानम् , विशेषावबोधरूपत्वात् ; तथा यस्तत्त्वानामवगमः स ज्ञानम् , या त्ववगतेषु तत्त्वेषु रुचिः-परमा श्रद्धा आत्मनः परिणाम विशेषरूपा सा सम्यग्दर्शनम् , येन तद् ज्ञानं 'रोच्यते' रुच्यात्मकं क्रियते ॥ १३३ ॥ एतदेव स्पष्टयति सोचा व अभिसमेच व, तत्तरुई चेव होइ सम्मत्तं ।। तत्थेव य जा विरुई, इतरत्थ रेई य मिच्छत्तं ॥१३४॥ सम्मत्तं गतं ॥ 30 श्रुत्वा केवलिप्रभृतीनामुपदेशम् अभिसमेत्य वा जातिस्मरणादिना या तत्त्वेषु रुचिर्भवति सा सम्यक्त्वम् । या तु तत्रैव' तत्त्वेषु विरुचिः 'इतरेषु' अतत्त्वेषु रुचिः सा मिथ्यात्वमिति ॥१३४॥ १ सम्मं मोहं प° ता० ॥ २ रोययते जे ता० ॥ ३-४ रुयी भा० ॥ T - . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ साधना. दिश्रुते सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे नन्दी-ज्ञानपञ्च लम् उक्तं सम्यक्श्रुतं मिथ्यात्वश्रुतं च । सम्प्रति साद्यनादिश्रुते आह अयोच्छित्तिनयट्ठा, एयं तु अणाइयं जहा लोए । वोच्छेयनया सादी, पप्प गईतो जहा जीवो ॥ १३५ ॥ अव्यवच्छित्तिनयो (ग्रन्थानम्-१०००) नाम द्रव्यास्तिकनयः तस्य अर्थाद्-आदे5 शात् एतत्' श्रुतज्ञानमनादिकम् उपलक्षणमेतत् अनिधनं च, यथा लोकस्त्रिप्वपि कालेषु भावादनादिरनिधनश्च; तन्मतेन हि न सतः सर्वथा नाशः, नाऽप्येकान्तेनासत उत्पाद इत्यनाद्यनिधनता । 'व्यवच्छेदनयात्' पर्यायास्तिकमतेन पुनः सादि उपलक्षणमेतत् सपर्यवसितं च, यथा गतीः 'प्राप्य' अधिकृत्य जीवः; तथाहि-नैरयिको नैरयिकत्वेनोत्पद्यमानः सादिः, तद्गतेस्तदानीमेव भावात् ; नैरयिकत्वेन तु विनश्यन् सपर्यवसितः, तस्य हि पर्यायाः प्रधानम् , 10 ते चोत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति सादि-सपर्यवसितता ॥ १३५ ॥ अथवा अन्यथा साद्यनादित्वम् , तदेवाह दव्वाइचउकं वा, पडुच्च सांदी व होजणादी वा । दवम्मि एगपुरिसं, पडुच्च सादी सनिहणं च ।। १३६ ॥ वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतने । 'द्रव्यादिचतुष्कं' द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावान् प्रतीत्य श्रुतज्ञानं 15 सादि वा स्यादनादि वा, उपलक्षणमेतत् , सपर्यवसितमपर्यवसितं च । तत्र द्रव्ये एकं पुरुष प्रतीत्य सादि-निधनम् । कथम् ? इति चेत् , उच्यते--यदा तत्प्रथमतया तदधीते तदा पूर्वमभावात् सादि । सपर्यवसानं पुनरेभिर्वक्ष्यमाणैः पञ्चभिः स्थानैः ।। १३६ ।। तान्येवाह पणगं खलु पडिवाए, तत्थेगो देवभावमासज्ज । ___ मणुये रोग-पमाया, केवल-मिच्छत्तगमणे वा ॥ १३७ ॥ 20 'प्रतिपाते' प्रतिपातविषयं खलु पञ्चकम् , पञ्चभिः स्थानैः प्रतिपात इत्यर्थः । तत्रैकः प्रतिपातो देवभावमासाद्य वेदितव्यः । द्वितीयो मनुष्ये रोगात् । तृतीयो मनुष्यभवे एव प्रमादात् । चतुर्थः केवलभावे । पञ्चमो मिथ्यात्वगमने ॥ १३७ ॥ तत्र प्रथमं प्रतिपातं देवभावमासाद्य भावयति-- चउदसपुव्वी मणुओ, देवत्ते तं न संभरइ सव्वं । देसम्मि होइ भयणा, सट्ठाणभवे वि भयणा उ ॥ १३८ ॥ ___ चतुर्दशपूर्वी मनुजो देवत्वे प्राप्ते सति 'तत्' श्रुतं सर्वं न संस्मरति, विषय-प्रमादतस्तथाविधोपयोगाभावात् ; देशे भवति ‘भजना' विकल्पना, सा त्वम्-कश्चिद्देशं स्मरति, कश्चिद्देशस्यापि देशम् , कश्चित्पुनरेकादशस्वप्यङ्गेषु सर्व स्मरति, कश्चित्तेषामपि देशमिति । तदेवं भावितो देवभावमासाद्य प्रथमः प्रतिपातः । सम्प्रति शेषान् भावयति--“सट्ठाणभवे वि भयणा 30 उ" स्वस्थानं-मनुष्यत्वं तस्मिन्नपि भवे रोगादिभिः ‘भजना' विकल्पना । तथाहि-रोगे समुत्पन्ने तथाविधपीडावशतः स्मृतेरुपहननान्न स्मरति, प्रमादतो वा गुणनाभावतोऽपगच्छति श्रुतमधीतम्, केवलज्ञानभावे वा श्रुतज्ञानस्य क्षयः, "नट्ठम्मि उ छाउमत्थिए नाणे" ( आव० १ लाओ ता० ॥ २ सादि ता० ॥ ३°णादिं ता० ॥ ४ °व्वंसि ए° ता० ॥ ५ सादिं ता० ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतस्य जीवादनन्यता भाप्यगाथाः १३५-४१] पीठिका । नि० गाथा ५३९) इति वचनात् , मिथ्यादर्शनगमने वा सर्वश्रुताभावः, अज्ञानीभवनादिति ॥ १३८ । आह श्रुतज्ञानं जीवादन्यत् ? अनन्यत् ? उच्यते-अनन्यत् । यत आह नियमा सुयं तु जीवो, जीवे भयणा उ तीसु ठाणेसु । सुयनाणि सुयअनाणी, केवलनाणी व सो होजा ॥ १३९ ॥ श्रुतं नियमाज्जीवः, तत्परिणामत्वात् । जीवे पुनः 'त्रिषु स्थानेषु' त्रीणि स्थानान्यधिकृत्य । 'भजना' विकल्पना । तथाहि-स जीवः कदाचित् श्रुतज्ञानी भवति कदाचित् श्रुताज्ञानी कदाचित्केवलज्ञानीति ॥ १३९। सम्प्रति क्षेत्रतः कालतो भावतश्च सादि-सपर्यवसिततामाह - खित्ते भरहेरवए, काले उ समातो दोणि तत्थेव ।। श्रुतस्य सादिसभावे पुण पण्णवगं, पण्णवणिजे ये आसंजा ॥ १४ ॥ पर्यवक्षेत्रतः पञ्च भरतानि पञ्चैरावतान्यधिकृत्य, काले 'तत्रैव' पञ्चसु भरतेषु पञ्चखैरावतेषु द्वे 10 सितलम् समे' अवसर्पिणीमुत्सर्पिणी चाधिकृत्य सादि-सपर्यवसितम् , यावत् तीर्थकृतां तीर्थानुवृत्तिस्तावद् भवति शेषकालं नेति कृत्वा । भावे पुनः प्रज्ञापकं प्रज्ञापनीयांश्च भावानासाद्य सादि पर्यवसितम् ॥ १४० ॥ कथम् ? इत्याह उपयोग-सर-पयत्ता, ठाणविसेसा य हुंति पण्णवगे। गति-ठाण-भेय-संघाय-वन्नमादी य भावम्मि ॥१४१ ॥ 15 प्रज्ञापकस्य कदाचिदुपयोगः शुभो भवति कदाचिदशुभः । एकैकोऽपि कदाचित्तीवः कदाचिन्मध्यमः कदाचिन्मन्दः । स्वरोऽपि कदाचिदुदात्तः कदाचिदनुदात्तः कदाचित्वरितः । प्रयत्नो नाम--आदरः स क्षणे क्षणेऽन्यादृशः । 'स्थानविशेषाः' स्थानप्रकाराः वीरासनाद्याः। एषामुत्पादे प्रज्ञापकस्यापि तेन तेन भावनोत्पादो विनाशे च विनाशः । प्रज्ञापकस्योत्पादे विनाशे च श्रुतज्ञानस्यापि तदात्मकत्वादुत्पादो विनाशश्च । तत एवं प्रज्ञापकमधिकृत्य सादि-सपर्यव- 20 सितम् , अधुना प्रज्ञापनीयान् भावानधिकृत्य तद् भावयति-"गति" इत्यादि । पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् ‘गतिः' इति गतिलक्षणो धर्मास्तिकायः परिगृह्यते । स जीवस्य पुद्गलस्य वा गतिपरिणामपरिणतस्योपग्रहे वर्तित्वात् तस्यैव स्थानपरिणामपरिणतस्योपग्रहे न वर्तते इत्यसौ सादि-पर्यवसितः । एवमधर्मास्तिकायोऽपि स्थानलक्षणो जीवस्य पुद्गलस्य वा स्थानपरिणतस्योपग्रहे वर्तित्वात् तस्यैव गतिपरिणामपरिणतस्योपग्रहे न वर्तते इति सादि-सपर्यवसितः । अथवा 25 गतिपरिणतं द्रव्यं भूत्वा स्थानपरिणतं भवति, स्थानपरिणतं भूत्वा गतिपरिणतम् । यदि वा "ठाण"त्ति एकप्रदेशावगाढं भूत्वा द्विप्रदेशावगाढं भवति, द्विप्रदेशावगाढं भूत्वा एकप्रदेशावगाढम् , एवं विस्तरेण सर्वाऽवगाहना द्रष्टव्या । तथा पुद्गलस्कन्धानां तेन तेन प्रकारेण भेदो भवति । तेषामेव च द्विप्रदेशादीनां सङ्घातः । तथा “वण्ण"ति परमाणुः कालवर्णपरिणतो भूत्वा नीलवर्णपरिणतो भवति, नीलवर्णपरिणतो भूत्वा कालवर्णपरिणतः, एवं विस्तरेण 30 वर्णपरिणामो वक्तव्यः । आदिशब्दाद् गन्ध-रस-स्पर्श-संस्थानानां परिग्रहः, तेऽप्येवं वक्तव्याः १५ ता० ॥ २ °सज कां० ले. भा० ॥ ३ 'नादीनां भा० ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [नन्दी-ज्ञानपञ्चकम् सुरभिगन्धपरिणतो भूत्वा दुरभिगन्धपरिणतो भवति इत्यादि विस्तरेणोपयुज्य वक्तव्यम् । इत्थं च प्रज्ञापनीयभावानां प्रज्ञापने श्रुतज्ञानमपि तथा तथा परिणमत इति सादि-सपर्यवसितं द्रष्टव्यम् ॥ १४१ ॥ चतुष्कमधिकृत्यानाद्यपर्यवसितत्वमाहश्रुतस्या दव्वे नाणापुरिसे, खेत्ते विदेहाइँ कालो जो तेसु । नाद्यपयवसि. खयउवसम भावम्मि य, सुयनाणं वट्टए संययं ॥ १४२ ॥ तखम् 'द्रव्ये' द्रव्यतो नानापुरुषान् प्रतीत्य, क्षेत्रतः पञ्च विदेहान् , 'तेष्वेव च' पञ्चसु विदेहेषु यः कालस्तं कालमधिकृत्य, भावे क्षयोपशमरूपे श्रुतज्ञानं 'सततं' सर्वकालं वर्तत इत्यनाथप र्यवसितता ॥ १४२ ॥ सम्प्रति गमिकमगमिकं चाहगमिकश्रुतमगमिक भंग-गणियादि गमियं, जं सरिसगमं चै कारणवसेणं । श्रुतं च 10 गाहादि अगमियं खलु, कालिय तह दिट्ठिवाए य ॥ १४३ ॥ 'दृष्टिवादो गमिकम् , कालिकश्रुतमगमिकम्' एतद् बाहुल्येनोच्यते अतोऽपवदति"भंगगणिये"त्यादि पूर्वार्धम् । कालिकश्रुते दृष्टिवादे वा यत्र भङ्गाः-चतुर्मङ्गादयः गणितंसकलनादि, आदिग्रहणेन क्रियाविशाले पूर्वे यत् छन्दः प्रकृतं तत् सदृशगममिति तस्य परिग्रहः; यच्च 'कारणवशेन' अर्थवशेन सदृशगमम् , यथा निशीथस्य विंशतितम उद्देशकः, 16 एतद् गमिकम् । शेषं गाथादि आदिशब्दात् श्लोकादिपरिग्रहः अगमिकम् ॥ १४३ ॥ सम्प्रत्यङ्गगतमनङ्गगतं च प्रतिपादयतिभजश्रुत गणहर-थेरकयं वा, आदेसा मुक्कवागरणतो वा । मनमश्रुतं धुव-चलविसेसतो वा, अंगा-ऽणंगेसु णाणत्तं ॥ १४४॥ यद् गणधरैः कृतं तदङ्गप्रविष्टम् । यत्पुनर्गणधरकृतादेव स्थविर्निर्मूढम् ; ये चादेशीः, 20 यथा-आर्यमङ्गुराचार्यस्त्रिविधं शङ्खमिच्छति-एकभविकं बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्य समुद्रो द्विविधम् बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसुहस्ती एकम्-अभिमुखनामगोत्रमिति; यानि च र्मुक्तकानि व्याकरणानि, यथा-"वर्ष देव! कुणालायाम्" इत्यादि, तथा १ भावेसु य ता. ॥ २ सततं ता० ॥ ३ तु ता०॥ ४ अत्र हि नयान्तरविकल्पिताः पदार्था आदेशत्वेन निर्दिष्टा अवसातव्याः, अन्यथा “वर्ष देव ! कुणालाथाम्" इत्यादिकानां पञ्चशतादेशानामत्र मुक्तकव्याकरणत्वेन निर्दिष्टखादादेशानां मुक्तकानां चामेदापत्तेः ॥ ५'श'पदस्य द्रव्यनिक्षेपमधिकृत्यैतदादेशत्रिकम् । एतच्चादेशत्रिकं नियुक्तिकृता सूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमे पौण्डरीकाध्ययने द्रव्यपौण्डरीकव्याख्याने सङ्ग्रहीतम् । तथाहि"एतदेव द्रव्यपौण्डरीकं विशेषतरं दर्शयितुमाहएगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य । वि देसा, व्वम्मि य पोंडरीयस्स ॥१४६॥ वृतिः-'एगे'त्यादि । एकेन भवेन गतेनानन्तरभव एव यः पौण्डरीकेषूत्पत्स्यते स एकभविकः । तथा तदासन्नतरः पौण्डरीकेषु बद्धायुष्कः । ततोऽप्यासन्नतमः 'अभिमुखनामगोत्रः' अनन्तरसमयेषु यः पौण्डरीकेषू. त्पद्यते । एते' अनन्तरोताम्रयोऽप्यादेशविशेषाः द्रव्यपौण्डरीकेऽवगन्तव्या इति ॥" पत्र २६७-६८ ॥ ६ मुक्तकव्याकरणानि किल नियुक्तिकृद-भाष्यकृदादिभिरादेशान्तरतया निर्दिष्टानि यानि प्रन्थान्तरेवितखतो विप्रकीर्णानि दृष्टिपथमवतीर्णानि तान्यत्र निष्टायन्ते Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १४२-४५ ] पीठिका | "मरुदेवा भगवती अनादिवनस्पतिकायिका तद्भवेन सिद्धा" इत्यादिः एतत्स्थ विरकृतम् आदेशा मुक्तकव्याकरणतश्च अनङ्गप्रविष्टम् । अथवा ध्रुव-चलविशेषतोऽङ्गाऽनङ्गेषु नानात्वम् । तद्यथा- ध्रुवं अप्रविष्टम्, तच्च द्वादशाङ्गम्, तस्य नियमतो निर्यूहणात् ; चलानि प्रकीर्णकानि, तानि हि कदाचिन्निर्यूह्यन्ते कदाचिन्न, तान्यनङ्गप्रविष्टमिति ॥ १४४ ॥ आह दृष्टिवादे सर्वमेव वचोगतमवतरति, ततः किमर्थमङ्गगतानां निर्यूहणम् ? इति, तत आह जर वि य भूयावादे, सव्वस्त वयोगयस्त ओयारो । निजूहणा तहा विय, दुम्मे पप इत्थी य ॥ १४५ ॥ यद्यपि च 'भूतवादे' दृष्टिवादे सर्वस्य वचोगतस्यावतारः तथापि शेषाणामङ्गानामनङ्गानां च निर्यूहणा दुर्मेधसः पुरुषान् प्रतीत्य स्त्रियश्च । नहि प्रज्ञावत्योऽपि स्त्रियो दृष्टिवादं पठन्ति ॥ १४५ ॥ किं कारणम् ? अत आह— "अत्र वृद्धसम्प्रदायः - आरुहए पवयणे पंच आएससयाणि जाणि अणिबद्धाणि । तत्थेगं - मरुदेवा ण वि अंगे ण उवंगे पाठो अत्थि जहा - 'अच्चतं थावरा होइऊण सिद्ध' त्ति । बिइयं - सयंभूरमणे समुद्दे मच्छाणं पउमपत्ताण य सव्वसंठाणाणि अस्थि वलयसंठाणं मोत्तुं । तइयं - त्रिण्डुस्स सातिरेगजोयणसयसहस्सविउव्वणं । चउत्थं - करड - ओकुरुडा दोसट्टियरुवज्झाया, कुणालाणयरीए निद्धमणमूले वसही, वरिसासु देवयाणुकंपणं, नागरेहिं निच्छुहणं, करडेण रूसिएण वृत्तं - " वरिस देव ! कुणालाए,” उक्कुरुडेण भणियं - "दस दिवसाणि पंच य ।” पुणरवि करडेण भणियं - " मुट्ठिमेताहिं धाराहिं,” उक्कुरुडेण भणियं -" जहा रतिं तहा दिवं ॥ १ ॥" एवं वोत्तूणमवक्ता, कुणालाए वि पण्णरस दिवस अणुबद्धवरणं जाणवया सा जलेण उक्कंता, तओ ते तइयवरिसे साप णयरे दो वि कालं काऊन अहे सतमाए पुढवीए काले णरगे बावीससागरोवमट्ठिईया रइया संवृत्ता । [ पंचमं - ] कुणालाणयरीविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्स केवलणाणसमुप्पत्ती ।" आवश्यक हारिभद्री टीका पत्र ४६५ । आवश्यक चूर्णी प्रथमभाग पत्र ६०१ ॥ ४५ "वीरो आदेसंतरतो आयंगुलेण चुलसीविमंगुलुन्त्रिद्धो, उस्सेहंगुलतो पुण सत्तसहसतं ( सतमट्टस ) भवति ।" अनुयोगद्वार चूर्णी पत्र ५५ ॥ "यत्र तीर्थंकरा विहरन्ति तत्र देशे पञ्चविंशतियोजनानाम् आदेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थंकरातिशयात् न वैरादयोऽनर्था भवन्ति ।" विपाक टीका पत्र ६४ ॥ “आदेसेण वा गन्भट्ठमस्स दिक्खति त्ति ।” निशीथचूर्णो ॥ "मरुदेवी वि आएसंतरेण नाभितुल्ल त्ति ।” सिद्धप्राभृतवृत्तौ पत्र १० ॥ "बाहुलाओ सुत्तम्मि सत्त पंच य जहण्णमुक्कोसं । इहरा हीणब्भहियं, होज्जंगुल - धणुपुहुतेहिं ॥ अच्छेरयाई किंचि वि, सामन्नसुए न देखियं सव्वं । होज्ज व अणिबद्धं चिय, पंचसया एसवयणं व ॥" विशेषावश्यके गाथा ३१७०-७१ ॥ "अहवाऽऽउअमुचतं च सुत्तभणिअं जण्णमियरं च । सामण्णं ण विसेसा, पंचसयादेसवयणं व ॥” विशेषणवती गाथा ८१ ॥ " करड • महकरड निरओ, वीरंगुट्टेण चालिओ मेरू । तह मरुदेवा सिद्धा, अश्चंतं थावरा होउं ॥ १ ॥ बलयागारं मोतुं, सयंभुरमणम्मि सव्व आगारा । मीण-पउमाण एवं आएसा [ सुयअवद्धा] ॥ २ ॥ सुरलोयषाविमज्झे, मच्छाई नत्थि जलयरा जीवा । गेविज्जे न हु वावी, वाविभभात्रै जलं नत्थि ॥ ३ ॥ " सिद्धान्तविचारप्रन्थे ॥ 5 10 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरान- 10 सनियुक्ति-भाप्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः दृष्टिवादा तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुब्बला य धीईए। द्यध्ययने स्त्रीणाम इति अतिसेसज्झयणा, भूयावादो उ नो थीणं ।। १४६ ॥ नधिकारि दृष्टिवादे हि बहवो विद्यातिशयाः सर्वकामप्रदा उपवर्ण्यन्ते, सा च स्त्री स्वभावात् 'तुच्छा' त्वं तत्का . रणानि च अल्पसत्त्वा, तथा 'गौरवबहुला' स्तोकायामप्यर्थवृद्धौ मानातिरेकतो व्यर्थसम्भवात् , 'चलेन्द्रिया' 5 स्वभावत एव तदिन्द्रियाणामतिलम्पटत्वात् , तथा 'धृत्या' मानसेनाऽवष्टम्भन दुर्बला, 'इति' अस्मात् कारणात् अतिशेषाणि-अतिशायीनि अध्ययनानि-महापरिज्ञा-अरुणोपपातादीनि 'भूतवादश्च' दृष्टिवादो न स्त्रीणामनुज्ञातः ॥ १४६ ॥ __ तदेवमुक्तं चतुर्दशभेदं श्रुतज्ञानम् अङ्गगता-ऽनङ्गगतविशेषश्च । आह परः-केन पुनः कारणेनाक्षरा-ऽनक्षरश्रुते प्रथममुपात्ते ? तत आह Kणतीति सुयं तेणं, सवणं पुण अक्खरेयरं चेव । क्षरश्रुतयोः तेणऽक्खरेयरं वा, सुयनाणे होति पुव्वं तु ॥ १४७ ।। पूर्वोपादाने ___ इह यस्मात् प्रतिपत्ता तद् उच्यमानं शृणोति तेन कारणेन तत् श्रुतमित्युच्यते, 'श्रूयत कारणम् इति श्रुतम्' इति व्युत्पत्तेः । श्रवणं पुनः ‘अक्षरेतरं चैव' अक्षरस्य इतरस्य च-अनक्षरस्य, 'तेन' कारणेन श्रुतज्ञाने प्ररूप्यमाणे पूर्वमक्षरमनक्षरं चोपात्तमिति ॥ १४७ ॥ 15 सम्प्रति यदुक्तं मूलद्वारगाथायां "प्रकृतम्" ( गाथा ३) इति तत्प्ररूपणार्थमाहअत्र 'प्र. इत्थं पुण अहिगारो, सुयनाणेणं जतो हवति तेणं । कृते श्रुत सेसाणमप्पणो वि य, अणुयोग पईव दिटुंतो ॥ १४८ ।। ज्ञानेनाधिकारः तदेवं मङ्गलनिमित्तं पञ्च ज्ञानानि प्ररूपितानि । एतेषु च पञ्चसु ज्ञानेषु मध्येऽत्राधिकारः श्रुतज्ञानेन । किं कारणम् ? अत आह-'यतः' यस्मात् कारणात् 'तेन' श्रुतज्ञानेन 'शेषाणाम्' 20 आभिनिबोधिका-ऽवधि-मनःपर्याय-केवलानामात्मनश्च 'अनुयोगः' भाषणं भवति । अत्र दृष्टान्तः प्रदीपः-यथा प्रदीपो घटादीनामात्मनश्च प्रकाशकः एवं श्रुतज्ञानं शेषाणामात्मनश्चानुयोगकारकम् । उक्तं च सुयनाणं महिड्डीयं, केवलं तदणंतरं । अप्पणो सेसगाणं च, जम्हा तं परिभावगं । 25 तेन कारणेन अत्र श्रुतज्ञानेनाऽधिकारः ॥ १४८ ॥ तस्य च श्रुतज्ञानस्योद्देशक-समुद्देशादि चतुष्टयं भवति, तत्राऽनुयोगेऽधिकारः, स चैतेद्वारैरनुगन्तव्यः-- [अनुयोगाधिकारः] निक्खेवेगट्ट निरुत्त विहि पवित्ती य केण वा कस्स । तद्दार भेय लक्खण, तदरिह परिसा य सुत्तत्थो ॥१४९ ॥ 30 अनुयोगस्य 'निक्षेपः' नामादिन्यासो वक्तव्यः । तदनन्तरं तस्यैकार्थिकानि । तदनु निरुक्तं वक्तव्यम् । ततः को विधिरनुयोगे कर्तव्ये इति विधिर्वक्तव्यः । तथा 'प्रवृत्तिः' प्रसवोऽनुयो १°ला धितीए य ता० ॥ २ °वातो य नो थीए ता० ॥ ३ सुणेती ता. विना ॥ ४°ण अप्पता०॥ ५तत्र कां० ले० ॥ द्वारगाथा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा : १४६ - ५४ ] पीठिका | गस्य वक्तव्यः । तदनन्तरं केनाऽनुयोगः कर्त्तव्य इति वक्तव्यम् । ततः परं कस्य शास्त्रस्य कर्त्तव्य इति । तदनन्तरं तस्य - अनुयोगस्य द्वाराणि - उपक्रमादीनि वक्तव्यानि, तत्र तेषामेव भेदः । ततः परं सूत्रस्य लक्षणम् । तदनन्तरं तस्य - सूत्रस्य अर्हाः - योग्याः । ततः परं परिषत् । ततः सूत्रार्थः । एष द्वारगाथासङ्क्षेपार्थः, व्यासार्थस्तु प्रतिद्वारं वक्ष्यते ॥ १४९ ॥ तत्र प्रथमतो निक्षेपद्वारमाहनिक्षेप द्वारम् निक्खेवो नासोत्तिय, एग सो उ कस्स निक्खेवो । अणुओस्स भगवओ, तस्स इमे वन्निया भैया ॥ १५० ॥ निक्षेपः न्यास इत्येकार्थम् । पर आह-स निक्षेपः कस्य कर्तव्यः ? सूरिराह - अनुयोगस्य भगवतः । ' तस्य च' निक्षेपस्य 'इमे' वक्ष्यमाणा वर्णिता भेदाः ।। १५० ।। तानेवाह - नामं वा दविए, खेत्ते काले य वयण भावे य । सो अणुओगस्स उ, निक्खेवो होड़ सत्तविहो ॥ १५१ ॥ नामानुयोगः स्थापनानुयोगो द्रव्यानुयोगः क्षेत्रानुयोगः कालानुयोगो वचनानुयोगो भावानुयोगश्च । एषोऽनुयोगस्य सप्तविधो निक्षेपः ॥ १५१ ॥ ४७ 5 तत्र नाम - स्थापने प्रतीते इति ते अनादृत्य शेषाणां द्रव्याद्यनुयोगानां भेदानाह - सामित्त करण-अहिगरणतो य एगत्त तह पुहत्ते य । नाठवेणा मोतुं इति दव्वादीण छन्भेया ॥ १५२ ॥ ‘स्वामित्वं' सम्बन्धः ‘करणं' साधकतमम् 'अधिकरणं' आधारः, एतैः प्रत्येकमेकत्वेन 'पृथक्त्वेन च' बहुत्वेन पञ्चानां द्रव्यादीनामनुयोगो वक्तव्यः । 'इति' एवं नाम स्थापनां च मुक्त्वा द्रव्यादीनामनुयोगस्य प्रत्येकं षड् भेदा भवन्ति । तद्यथा - द्रव्यस्य वा १ द्रव्याणां वा २ द्रव्येण वा ३ द्रव्यैर्वा ४ द्रव्ये वा ५ द्रव्येषु वा ६ अनुयोगो द्रव्यानुयोगः । एवं क्षेत्र - काल - वचन - 20 भावानुयोगानामपि प्रत्येकं षड्भेदताऽवसेया ॥ १५२ ॥ तत्र प्रथमतो द्रव्यस्यानुयोगमाह - दव्वस्स उ अणुओगो, जीवद्दव्वस्त वा अजीवस्स । maao य भैया, हवंति दव्वाइया चउरो ॥। १५३ ।। द्रव्यस्यानुयोगो द्विधा - जीवद्रव्यस्य वा अजीवद्रव्यस्य वा । एकैकस्मिन्ननुयोगे द्रव्यादिका - श्चत्वारो भेदाः । किमुक्तं भवति : -- जीवद्रव्यानुयोगोऽजीवद्रव्यानुयोगो वा प्रत्येकं द्रव्यतः 25 क्षेत्रतः कालतो भावतश्च भवति ॥ १५३ ॥ तत्र जीवद्रव्यानुयोगं द्रव्यादित आहदब्वेणिक्कं दव्यं, संखतीतप्पदेसमोगाढं । 10 अनुयोगस्य निक्षेपाः निक्षेप स्यै कार्थिकानि काले" अणादिनिहणं, भावे नाणाइयाऽणंता ॥ १५४ ॥ द्रव्यतो जीवद्रव्यमेकम्, क्षेत्रतोऽसङ्ख्ये यप्रदेशावगाढम्, कालतोऽनाद्यनिधनम्, भावतो ज्ञानादिकाः पर्याया अनन्ताः, तद्यथा - अनन्ता ज्ञानपर्यायाः, अनन्ता दर्शनपर्यायाः, अनन्ताश्चा- 30 रित्रपर्यवाः, अनन्ता अगुरुलघुपर्यवः || १५४ | १ गट्टा सो ता० ॥ २वणं मो ता० ॥ ३ वेगं द° ता० ॥ ४ 'खादी' ता० ॥ ५ लेणादिअणिह ता० ॥ 15 द्रव्याद्य नुयोगानां प्रभेदाः द्रव्यस्या• नुयोगः जीवद्रव्या नुयोगः Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीब द्रव्यस्या नुयोगः द्रव्येण द्रव्यैः द्रव्ये द्रव्याणा मनुयोगः 15 द्रव्येष्वनुयोगः 5 30 ४८ अधुना द्रव्यादिभिरजीवद्रव्यस्यानुयोगमाह एमेव अजीवस्स वि, परमाणू देव्वमेगदव्वं तु । खेत्ते एगपएसे, ओगाढो सो भवे नियमा ।। १५५ ॥ समयाइ ठिति असंखा, ओसप्पिणीओ हवंति कालम्मि | वणादि भावणंता, एवं दुपदेसमादी वि ।। १५६ ॥ 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण 'अजी वस्यापि' अजीवद्रव्यस्याप्यनुयोगो वक्तव्यः । तद्यथापरमाणुर्द्रव्यत एकं द्रव्यम्, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढः, कालतो जघन्यतः स्थितिः 'समयादि' एको द्वौ त्रयो वा समयाः, उत्कर्षतः 'असङ्ख्याः' असङ्ख्येयां अवसर्पिण्य उत्सर्पिण्यश्च भवन्ति, भावतोऽनन्ता वर्णादिपर्यायाः, तद्यथा - अनन्ता वर्णपर्यवाः, अनन्ता गन्धपर्यवाः, यावदनन्ताः 10 स्पर्शपर्यवा इति । एवं ‘द्विप्रदेशादेरपि' द्विप्रदेशिकस्य त्रिप्रदेशिकस्य यावदनन्तप्रदेशिकस्योपयुज्य वक्तव्यम्, तद्यथा - द्विप्रदेशिकः स्कन्धो द्रव्यत एकं द्रव्यम्, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढो द्विपदेशावगाढो वा, कालतो जघन्यतः स्थितिः समयादिः, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यव सर्पिण्य इत्यादि ॥ १५५ ॥ १५६ ॥ सम्प्रति द्रव्याणामनुयोगमाहदव्वाणं अणुयोगो, जीवमजीवाण पजवा नेया । तत्थ वि यमग्गणाओ, गेगा सट्ठाण परठाणे ॥ १५७ ॥ द्रव्याणामनुयोगो द्विधा - जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां च । किंरूपोऽसौ ? इत्याह- ' पर्यायाः' प्ररूप्यमाणा ज्ञेयाः, तथाहि — कैति विधा भदन्त ! पर्यायाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विविधाः, तद्यथाजीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां च । तत्राप्यनेकाः स्वस्थाने परस्थाने च मार्गणाः, ताश्चैवम्-नैरयिकाणामसुरकुमाराणां च कति पर्यायाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अनन्ताः । अथ केनार्थेनेदमुच्यते ? 20 गौतम ! नैरयिकोऽसुरकुमारस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः प्रत्येकमेकद्रव्यत्वात्, प्रदेशार्थतयाऽपि तुल्यः प्रत्येकं लोकाकाशप्रदेशतुल्य प्रदेशत्वात् स्थित्या चतुःस्थानपतितः, भावतः षट्स्थानपतितः, ततो भवन्ति नैरयिकाणामसुरकुमाराणां च प्रत्येकं पर्याया अनन्ताः । अजीवद्रव्याणां पर्यायेवेवं स्वस्थाने परस्थाने च मार्गणा - परमाणुपोग्गलाणं भंते! दुपएसियाण य संधाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता । से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ ? गोयमा ! पर25 माणुपोग्गले दुपएसियस्स खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले परसट्टयाए हीणे, नो तुल्ले नो अहिए, जह ही परसहीणे ठिईए चउट्टाणवडिए वण्णादिपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए । ततो भवन्ति द्वयानामपि प्रत्येकमनन्ताः पर्यायाः । एवमनेकधा जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां चाऽनुयोगः सूत्रे तत्र तत्र प्रदेशेऽभिहितो भावनीयः ॥ १५७ ॥ तदेवं द्रव्यस्य द्रव्याणां चेति स्वामित्वं गतम्, इदानीं करणे एकत्व-बहुत्वाभ्यामनुयोगमाह - वत्तीए अक्खेण व, करंगुलादीण वा वि दव्वेण । अक्खेहि उदव्वेहिं, अहिगरणे कप्प कप्पेसु ॥ १५८ ॥ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृचिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः १ दव्वे एक्कदव्वं तु ता० ॥ २° या उत्सर्पिण्य अवसर्पिण्यश्च भा० विना ॥ ३-४ एतानि सर्वाण्यपि सूत्राणि प्रज्ञापनोपाने पचमे पर्यायाख्ये पदे वरीवृत्यन्ते ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १५५ - ६३ ] पीठिका | वेर्तिः:- नाम खटिका तथा कृता शलाका तया, अक्षेण वा कराङ्गुल्या वा, आदिशब्दात् प्रलेपकादिना वा यः क्रियतेऽनुयोगः स द्रव्येणाऽनुयोगः । द्रव्यैरनुयोगो यद्बहुभिरक्षैः क्रियते-ऽनुयोगः । 'अधिकरणे' एकस्मिन् द्रव्येऽनुयोगः, यदा एकस्मिन् कल्पे स्थितोऽनुयोगं करोति । यदा तु बहुषु कल्पेषु स्थितस्तदा द्रव्येष्वनुयोगः ॥ १५८ ॥ उक्तो द्रव्यानुयोगः षड्भेद:, सम्प्रति क्षेत्रस्य क्षेत्राणां चानुयोगमाहपन्नत्ति जंबुदीवे, खित्तस्मादि होइ अणुयोगो । खित्ताणं अणुयोगो, दीवसमुद्दाण पन्नत्ती ॥ १५९ ॥ क्षेत्रस्यानुयोगो भवति जम्बूद्वीपस्य प्रज्ञप्तिः, आदिशब्दादन्यस्यापि द्वीपस्य योऽनुयोगः स क्षेत्रस्यानुयोगः। क्षेत्राणामनुयोगो द्वीपसमुद्राणां प्रज्ञप्तिः, द्वीपसागर प्रज्ञप्तिरित्यर्थः ॥ १५९ ॥ क्षेत्रेणानुयोगमाह 10 जंबुद्दीवपमाणं, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं । एवं मविजमाणा, हवंति लोगा असंखिजा ॥ १६० ॥ जम्बूद्वीप्रमाणं प्रस्थकं पृथिवीकायिकानां मापनाय कृत्वा जम्बूद्वीपप्रमाणेन प्रस्थकेन ते पृथिवीकायिका माप्यन्ते, मापयित्वा मापयित्वा चालोके प्रक्षिप्यन्ते, एवं माप्यमाना असछ्येया लोका भवन्ति, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रमाणमलोकखण्डमापूरयन्तीत्यर्थः ॥ १६० ॥ क्षेत्रैरनुयोगमाह खित्तेहिँ बहू दीवे, पुढ विजियाणं तु पत्थयं काउं । एवं मविजमाणा, हवंति लोका असंखिजा ॥ १६१ ॥ ४९ खित्तम्मि उ अणुयोगो, तिरियंलोगम्मि जम्मि वा खेते । अड्डाइयदीवेसुं, अद्धछवीसाऍ खित्तेसु ॥ १६२ ॥ बृ०७ 5 क्षेत्रस्य क्षेत्राणां चानुयोगः क्षेत्रैरनुयोगो यथा-'बहून्' त्रिप्रभृतीन् द्वीपान् पृथिवीकायिकानां मापकरणाय प्रस्थकं पृथिवीकृत्वा तेन पृथिवीकायिकान् मापयेत्, मापयित्वा मापयित्वा चालोके प्रक्षिपेत्, ते चैवं 20 जीवानां माप्यमाना असङ्ख्येया लोका भवन्ति ॥ १६९ ॥ सम्प्रति क्षेत्रे क्षेत्रेषु चानुयोगमाह परिमाणम् ५ क्षेत्रेणा • नुयोगः पृथिवी - जीवानां 15 परिमाणम् क्षेत्रे क्षेत्रेषु चा क्षेत्रेऽनुयोगो यथा - तिर्यग्लोकेऽनुयोगो यस्मिन् वा ग्रामे नगरे उपाश्रये वा । क्षेत्रेष्वनुयोगो नुयोगः यथा-अर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु यदि वाऽर्द्धषड्विंशतिषु जनपदेषु ॥ १६२ ॥ अधुना कालस्य कालानां [ कालेन कालै: ] चानुयोगमाह 25 क्षेत्रैरयोगः काल स्य कालानां कालेन कालस्स समयरूवण, कालाण तदादि जाव सव्वद्धा । arous विहारो, काले हि उ सेसकायाणं ॥ १६३ ॥ कालस्यानुयोगो यत् समयस्य प्ररूपणा । कालानामनुयोगो यत् समयादीनां - समया-ऽऽव- कालैश्वालिकाप्रभृतीनां यावत् सर्वाद्धा तावत् प्ररूपणम् । कालेनानुयोगः अनिलानां - वायुकायिका - 30 नुयोगः १ “वत्ती णाम सेडिया सलाग कय लिया" इति चूर्णिः ॥ २ " अधिकरणे - दव्वे एगम्मि कप्पे, सामलीए त्ति भणियं होति" इति चूर्णिः ॥ ३ प्रक्षिप्यन्ते ते चै भा० ॥ ४त् तत्रैवं मो० डे० ॥ ५°रिए लो ता० ॥ ६ वे ता० ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाय्वादि भिर्बद्धानां देहानां परिमाणम् काले कालेषु चानुयोगः वचनस्य वचनानां चानुयोगः वचनषोडश कम् 5 10 15 सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः नामपहारः, यथा - वायुकायिकवैक्रियशरीराणि बद्धानि पल्योपमस्या सङ्ख्येयभागमात्रेण कालेनापहियन्ते । कालैरनुयोगः 'शेषकायानां' पृथिवीकायिकादीनाम्, यथा - औदारिकशरीराणि बद्धानि असङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपह्रियन्त इति ॥ १६३ ॥ अधुना काले कालेषु चानुयोगमाह- कालम्मि वियपोरिसि, समासु तिसु दोसु वा वि कालेसु । कालेऽनुयोगः द्वितीयस्यां पौरुष्याम् । कालेष्वनुयोगः अवसर्पिण्यां तिसृषु समासु, तद्यथा–सुषमदुःषमायाः पश्चिमे भागे दुःषमसुषमायां दुःषमायामिति; उत्सर्पिण्यां द्वयोः समयोः - दुःषमासुषमायां सुषमादुःषमायां च ॥ उक्तः षट्द्मकारोऽपि कालानुयोगः, सम्प्रति वचनस्य वचनानां चानुयोगमाह - वयणस्से गवयाई, वयणाणं सोलसण्हं तु ॥ १६४ ॥ “वयणस्से”त्यादि । वचनस्यानुयोगः 'एकवचनादेः' एकवचन द्विवचन बहुवचनानामन्यतमस्य, यथा- ईदृशमेकवचनमित्यादि । वचनानामनुयोगः त्रयाणामप्येकवचनादीनां खरूपकथनं षोडशानां वा वचनानाम् । तानि च षोडश वचनान्यमूनि लिंगतियं वयणतियं, कालतियं तह परुक्ख पच्चक्खं । उवणय-ऽवणयचउक्कं, अज्झत्थिययं तु सोलसमं ॥ अस्या [अ]क्षरगमनिका –— 'लिङ्गत्रयम्' इयं स्त्री अयं पुमान् इदं कुलम् । 'वचनत्रिकम्' एकवचनं द्विवचनं बहुवचनमिति । 'कालत्रिकम्' अकरोत् करोति करिष्यति च । परोक्षवचनं यथा स इति । प्रत्यक्षवचनम् एष इति । उपनयः - स्तुतिः अपनयः - निन्दा तयोश्चतुष्कमुपनया-ऽपनयचतुष्कम्, यथा-रूपवती स्त्रीत्युपनयवचनम्, कुरूपा स्त्रीत्यपनय20 वचनम्, रूपवती स्त्री किन्तु दुःशीलेत्युपनया - ऽपनयवचनम्, कुरूपा स्त्री किन्तु सुशीलेत्य - नयोपनयवचनम् । तथा अन्यच्चेतसि निधाय विप्रतारकबुद्ध्या अन्यद् बिभणिपुर पि सहसा यच्चेतसि तदेव यद् वक्ति तत् षोडशमध्यात्मवचनम् ॥ ॥ १६४ ॥ वयणायरियाई, इक्केणुतो बहूहि वयणेहिं । चणे खओवसमिए, वयणेसु उ णत्थि अणुओगो ॥ १६५ ॥ वचनेनानुयोगो यथा - कोडप्याचार्यः केनाऽप्याचार्येण भिक्षुणा श्रावकेण वा भणितः 'अनुयोगमिच्छाकारेण कुरु' ततः सोऽनुयोगं करोति । वचनैरनुयोगः बहुभिराचार्यादिभिर्भणितोऽनुयोगं करोति । अथवा वचनेनानुयोगो नाम आचार्यादीनामन्यतम एकेन वचनेनानुयोगं करोति, यथा-समभावः सामायिकमिति । कश्चिद् बहुभिर्वचनैः सविस्तरमिति । वचने क्षायोपशमिके स्थितस्यानुयोगो वचनेऽनुयोगः । वचनेष्वनुयोगो नास्ति, क्षयोपशमभावस्य सर्वत्राप्येकत्वेन 30बहुत्वा॒सम्भवात् । यदि वा व्यक्तिविवक्षया बहुष्वाचारादिषु वचनेषु स्थितस्यानुयोगो बहुवचनेध्वनुयोगः ॥ १६५ ॥ सम्प्रति भावानुयोगं षट्कारमाहभावस्सेगतरस्स उ, अणुयोगो जो जहडिओ भावो । दोमा सनिकासे, अणुयोगो होति भावाणं ।। १६६ ॥ वचनेन वचनैः वचने वचनेषु 25 चानुयोगः ५० भावस्य भावानां चानुयोगः Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 भाष्यगाथाः १६४-६९) पीठिका। __ भावस्यानुयोगः औदयिकादीनां भावानामन्यतमो यो यथास्थितो भावस्तस्य कथनम् । भावानामनुयोगो द्विकादीनां भावानां सन्निकाशे-संयोगे यावन्तो भङ्गा भवन्ति तेषां कथनम् ॥ १६६ ॥ ____ भावेण संगहाईअन्नयरेणं दुगाइभावेहिं । भावेन भावम्मि खओवसमे, भावेसु य नत्थि अणुयोगो॥ १६७॥ भावे भावेनानुयोगः सङ्ग्रहादीनां पञ्चानां भावानामन्यतमेन । ते च सङ्ग्रहादयः पञ्च भावा इमे- भावेषु . चानुयोगः पंचहिं ठाणेहिं सुयं वाइज्जा, तं जहा-संगहट्ठयाए, उवग्गहट्ठयाए, निज्जरट्टयाए, सुयपजवजाएणं, अव्वुच्छित्तीए ये । (स्थानाङ्गे ५ स्थाने ३ उद्देशे सूत्रं ४६८ पत्रं ३५०) तत्र-कथं ममैते शिष्याः सूत्रार्थसङ्ग्राहकाः सम्पत्स्यन्ते ? इति सङ्ग्रहार्थता, कथं नु नाम गीतार्था भूत्वा वस्त्राद्युत्पादनेन गच्छस्योपग्रहकरा भविष्यन्ति ? इत्युपग्रहार्थता, ममाप्येतान् 10 वाचयतः कर्मनिर्जरा विपुला भविष्यतीति कर्मनिर्जरायंता, तथा श्रुतपर्यवजात-श्रुतपर्यायराशिर्ममापि वृद्धि यास्यतीति चतुर्थ श्रुतपर्यवजातं कारणम्, श्रुतस्य शिष्य-प्रशिष्यपरम्पराङ्गतया अव्यवच्छित्तिर्भूयादिति पञ्चममव्यवच्छित्तिकारणम् ।। __ भावैरनुयोगः एतेषां पञ्चानां भावानां द्विवादिभिर्भावः । भावेऽनुयोगः क्षायोपशमिके। भावेषु त्वनुयोगो नास्ति, क्षायोपशमिकभावस्यैकत्वात् ॥ १६७ ॥ अहवा आयाराइसु, भावेसु उ एस होइ अणुओगो।। सामित्तं आसज व, परिणामेसु बहु विहेसुं ॥ १६८॥ अथवा भावेष्वप्येषोऽनुयोगो भवति। केषु ? इत्याह-आचारादिषु द्वादशखङ्गेषु ये भावास्तेषु, अथवा खामित्वमासाद्य ये औदयिकादयो बहवः परिणामास्तेषु, यदि वा क्षायोपशमिकोऽपि भावः प्रतिक्षणमन्यथाऽन्यथा परिणमते ततस्तेषु व्यवस्थितस्य व्याख्यां कुर्वतो भावेष्वनुयोगः 30 ॥ १६८ ॥ अथ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानां परस्परं समवतारोऽस्ति ? न वा ? अस्तीति ब्रूमः । कथम् ? इत्याहदव्वे नियमा भावो, न विणा ते यावि खित्त-कालेहि। परस्परं खित्ते तिण्ह वि भयणा, कालो भयणाय तीसुं पि ॥ १६९ ॥ समवतारः द्रव्ये नियमाद्भावः, भावं विना द्रव्यस्याऽसम्भवात् , नहि तदस्ति द्रव्यं यद्भावशून्यमिति । 25 "न विणा ते यावि खित्त-कालेहिं" इति न च 'तावपि' द्रव्य-भावौ क्षेत्र-कालाभ्यां विना । तथाहि-क्षेत्रं विना न द्रव्यम् , आधारमन्तरेणाऽऽधेयस्याऽसम्भवात् ; ततस्तद्गतो भावोऽपि न क्षेत्रं विना; कालं विना द्रव्य-भावाभावः समयक्षेत्रापेक्षया, नहि समयक्षेत्रे तदस्ति द्रव्यं भावो वा यः कालं विना । अन्यत्र तु नैष नियमः, तथा चाह-क्षेत्रे 'त्रयाणामपि' द्रव्य-कालभावानां भजना । तत्र काल: समयक्षेत्रे भवति अन्यत्र नेति कालभजना । द्रव्य-भावावपि 30 १“सुत्ते वा मे पजवयाते भविस्सति, सुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्ठयाते" इति पाठो मुद्रितस्थानाङ्गे ॥ २°लो नियमा उतीसं ता० । “एतेस पुण दव्व-खेत्त-भावेस णियमा कालो भवति । आह कथमेतदवगन्तव्यम् ? इति, उच्यते-........'कालो णियमा तु तीसुं पि'त्ति समयखेत्तमहिकिचा।" इति चूर्णी । द्रव्यादीनां Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्याद्य सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः लोकाकाशे स्तो नाऽलोके । यद्यप्यलोकेऽप्यगुरुलघवः पर्यायाः सन्ति तथापि द्रव्यस्य भावो नाद्रव्यस्य, अलोकाकाशं च क्षेत्रत्वे न विवक्षितमिति भावस्याप्यभाव इति । कालः पुनर्भजनया 'त्रिष्वपि' द्रव्य-क्षेत्र-भावेषु, समयक्षेत्रादन्यत्र कालस्यासम्भवात् ॥ १६९ ॥ साम्प्रतमाधारा-ऽऽधेयभावयोजनामाहद्रव्यादीना आधारो आधेयं, च होइ दैव्वं तहेव भावो य । माधारा-.: खित्तं पुण आधारो, कालो नियमा उ आधेयो ॥ १७० ॥ ऽऽधेय... लविभागः द्रव्यं भावश्चाधार आधेयश्च भवति । तत्र द्रव्यमाघारो भावस्य, आधेयं क्षेत्रस्य । भाव आधारः कालस्य, आधेयो द्रव्यस्य । क्षेत्रं पुनर्नियमादाधारः, तस्याऽन्यस्याऽऽधारस्याऽभावात् , __"खप्रतिष्ठितमाकाशम्" इति वचनात् । कालो नियमादाधेयः, तस्य द्रव्ये क्षेत्रे भावे चावस्था10 नात् ॥ १७०॥ उक्तोऽनुयोगः, तद्विपरीतोऽननुयोगः । तत्र दृष्टान्तानभिधित्सुराह वत्स(च्छ)ग गोणी खुजा, सज्झाए चेव बहिरउल्लावे । नुयोग. ___ गामिल्लए य वयणे, सत्तेव य हुंति भावम्मि ॥ १७१ ॥ विषयेननुयोग द्रव्यानुयोगे द्रव्याननुयोगे च वत्स-गावाबुदाहरणम्-जइ गोदोहगो जो पाडलाए विषये च वत्सगो तं बाहुलाए मुयइ, बाहुलेयं वा वत्सगं पाडलाए मुयइ तो अणणुयोगो भवइ, दुद्ध 15 कज्जस्स य अप्पसिद्धी । एवमिहावि जइ जीवलक्खणेणं दोहयत्थाणीओ साहू अजीवं परू वेइ, अजीवलक्खणेण वा जीवं तो अणणुयोगो । तं भावं अन्नहा गिण्हइ, तेण अत्थो विसंवयइ, अत्थे विसंवइए चरणं विसंवयइ, चरणेणं विसंवइएणं मुक्खाभावो, मोक्खाभावे दिक्खा निरत्थिया । जइ पुण जो जाए वत्सगो तं ताए मुयइ तो अणुयोगो भवइ, तस्स य दुद्धकजस्स पसिद्धी । एवमिहावि जइ जीवलक्खणेणं जीवं परूवेइ, अजीवलक्खणेणमजीवं 20 तो अणुयोगो भवइ । तस्स य मुक्खलक्खणस्स कज्जस्स पसिद्धी ॥ क्षेत्रस्याप्यननुयोगोऽनुयोगश्च भवति । तत्राननुयोगे कुजोदाहरणम्-पइट्ठाणं नयरं । सालवाहणो राया । सो वरिसे वरिसे भरुयच्छे नहवाहणं रोहेइ । जाहे य वरिसारतो भवति ताहे सयं नयरं पडियाइ, एवं कालो वच्चइ । अन्नया तेणं रन्ना रोहगेणं गइल्लएणं अस्थाणियमंडवियाए निच्छूढं । तस्स पडिग्गहधारी खुज्जा । सा चिंतेइ-अपरिभोगा एसा25 ऽऽदिट्टा, नूणमेस राया जाइउकामो । तीसे राउलगो जाणसालिओ परिजियओ । तीए तस्स कहियं । सो पए जाणाइ पमक्खिओ, पयट्टियाणि य । तं द8 सेसगो वि खंधावारो पयट्टिओ । राया रहसि एकल्लो धूलिभएण पयट्टो, जाव सव्वो खंधावारो पयढिओ दिट्ठो । राया चिंतेइ-न मए कस्सइ कहियं, कहमेएहिं नायं ? । गविटुं परंपरगेणं जाव खुज त्ति । सा पुच्छिया । तीए तहेव अक्खायं । अत्र यन्मण्डपिकायां निष्ठयूतमेषोऽननु30 योगः । एवं यदि क्षेत्रं जीवा-धनुःपृष्ठादिभिर्गणितविसंवादेन प्ररूपयति तदाऽननुयोगः, यदा त्वविसंवादि कथयति तदाऽनुयोगः, यथा कुलायाः 'अपरिभोगं क्षेत्रं जातम्' इति प्ररूपयन्त्याः ॥ १ दवे तहेव भावे य ता० ॥ २°णो नाम रा° मो० डे० ॥ ३ नरवणं भा० मिना । चूर्णी-"णधवाहणं" इति । आव० मल० वृत्तौ चूर्णौ च “णहवाहणं" इति पाठः ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७०-७१] पीठिका । ५३ ___ कालस्यानुयोगेऽननुयोगे च स्वाध्याय उदाहरणम् - एगो साहू पाओसियं परियटुंतो रहसेण कालं न याणाति । सम्मदिट्टिया य देवया तं हियट्टयाए संबोहेइ मिच्छादिट्टियाए भएणं । सा तक्कस्स घडं भरेउं महया सद्देणं उग्घोसेइ-महियं महियं ति । सो तीसे कन्नारोडयं असहमाणो भणइ-अहो ! तकस्स वेल त्ति । सा भणइ-जहा तुझं सज्झायस्स वेला । उवउत्तो 'मिच्छा दुक्कडं' भणइ । देवताए अणुसासिओ-मा एवं काहिसि, मा मिच्छादिट्टिगाए छलिजिहिसि । तस्स अकाले सज्झायंतस्स अणणुयोगो । तम्हा काले पढियवं, तो अणुयोगो भवति ॥ वचनस्यानुयोगेऽननुयोगे च द्वे उदाहरणे-बधिरोल्लापो ग्रामेयकश्च । एगम्मि य गामे बहिरकुडुंब परिवसइ, थेरो थेरी य । ताणं पुत्तो हलं वाहेइ । अन्नया सो हलं वाहेउं गओ खित्ते हलं वाहेइ । अण्णो य मणूसो तेण पासेणं जाइ। तेण सो पंथं 10 पुच्छिओ । सो बहिरो चिंतेइ–एस बलद्दे सिंगेइ । तओ भणइ-अरे! मम घरे जाइलगा बलद्दा, कहमेए सिंगेसि ? न हवसि-ति हलं उवत्तेउं तस्स पहाविओ । इयरो चिंतेइगहिल्लओ एस । संपट्टिओ । तस्स य भज्जा भत्तं घित्तुमागया। सो भज्जाए कहेइ-बइल्ला सिंगिय त्ति । सा चिंतेइ-एस भगइ 'अलोणयं भत्तं'ति । तओ भणइ-लोणियं भवउ मा वा, ते माऊए सिद्धं । सा घरं गया सासूए कहेइ-'अलोणयं तव पुत्तो भणइ । सा य कत्तं-15 तिया चिट्टइ । तओ चिंतेइ-एसा भणइ 'अइथूलं कत्तेसि' । ताए पडिभणियं-थूलं वा भवउ वरडं वा, थेरस्स पुत्तं होहिइ । सा थेरं सदावेत्ता भणइ-सवं एयं अतिथूलं तो तव पुत्तं होहिइ । तत्थ तिला विसारिया । सो रक्खगो आसि । सो चिंतेइ-एसा भणइ 'तुमे तिला खाइया' । ततो सवहं करेइ-पीएमि ते जीवियं जैइ एगं पि तिलं खाएमि । एवं जइ एगवयणेणं परवेयत्वं दुवयणेण परूवेइ, दुवयणेण वा एगवयणेणं तो अणणुयोगो। अह तह 20 चेव परूवेइ तो अणुयोगो॥ ग्रामेयकोदाहरणमेवम्-एका नागरमहिला भत्तारे मए 'कट्ठाईणि वि ता अकीयाणि घेच्छामु' त्ति अजीवमाणी खुड्डलयं पुत्तं घेतुं गामे पवुत्था । सो दारतो वढं तो मायरं पुच्छइकहिं मम पिया ? । तीए भणियं-मओ सो। केण इ जीवियाइओ ?। भणइ-ओलग्गाए । तो खायं अहमवि ओलग्गामि । सा भणइ-न याणसि । तओ पुच्छइ-कहमोलग्गिज्जइ ? | 25 भणिओ-विणयं करेज्जासि । केरिसो विणओ ? । जुक्कारो कायवो, नीयं चंकमियत्वं, छंदागुवत्तिणा भवियत्वं । सो भणइ-एवं काहामो । सो नगरं पहाविओ । अंतरा य तेण वाहा निलुक्का दिट्टा, वड्डेणं सद्देणं जुक्कारो कओ । तेण सद्देणं मिगा पलाया । तेहिं घेतं पहओ। तेण सब्भावो कहिओ । मुक्को भणिओ य-जया एरिसं पिच्छिज्जासि तया निलकंतेण सणियमागंतवं, न उल्लाविजइ, सणियं वा । तओ इंतेण रयगा दिट्टा । ताहे निलकंतो सणियं 30 एइ । तेसिं च रयगाणं दिणे दिणे पुत्ताई हीरंति । तओ ठाणयं बद्धं रक्खंति इंते चोरे। 'एस चोरो निलुकंतो एति' तओ बंधिउं पिट्टिओ। सब्भावे कहिए मुक्को भणिओ य-भणि १ माया य डे० ॥ २ जय एगं भा० ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोयाधिकारः जासि 'सुद्धं भवउ, खारो पडउ' । सो नगरसम्मुहं एइ । एगत्थ बीयाणि वाविजंति । तेण भणियं-सुद्धाणि हवंतु, खारो पडउ । तओ तेहिं 'किमकारणवेरिओ एवं भासइति पिट्टिओ । सम्भावे कहिए मुक्को भणिओ य-एरिसे कर्ज एवं भन्नइ ‘एरिसं बहुं हवतु, गड्डाओ भरह एयस्स' । तओ वच्चंतो एगत्थ मयगं निजंतं दट्टण भणइ-बहुं भवउ एरिसं.। 6 तत्थ वि पिट्टिओ । सम्भावे कहिए मुक्को भणिओ य-एरिसे कजे एवं भन्नइ 'अञ्चंतवियोगो भवउ एरिसेणं कजेणं' । तओ गच्छंतो एगत्थ विवाहे भणइ-एरिसेणं कजेणं अच्चंतवियोगो भवउ । तत्थ वि पिट्टिओ । सब्भावे कहिए मुक्को भणिओ य-एरिसे कज्जे एवं भणियवं निच्चं एरिसगाणि पिच्छंतया होह, सासयं भवउ' । तओ वच्चंतो एगत्थ नियलबद्धं दंडियं दद्रुण भणइ-निच्चं एरिसयाणि पिच्छता होह, सासयं च एवं हवउ । तत्थ वि 10 हओ । सब्भावे कहिए मुक्को भणिओ य-एरिसे कजे एवं भणिज्जासि 'एयाओ मे लहुं मुक्खो भवउ' । तओ गच्छंतो एगत्थ केइ मित्तसंघाडयं करिते पिच्छइ । तत्थ भणइएयाओ भे लहुं मोक्खो भवउ । तत्थ वि पिट्टिओ । सब्भावे कहिए मुक्को गओ नगरे । तत्थ एगस्स दंडिकुलपुत्तगम्स अल्लीणो सेवंतो अच्छइ । अन्नया दुब्भिक्खे अंबिलजाऊ सिद्धिल्लिया। भज्जाए सो भणिओ-जाहि महायणमज्झाओ सहावेहि जेण भुंजइ, सीयला अजोग्गा 15 भविस्सइ । तेण गंतूण महायणमज्झे वड्डेणं सद्देणं भणिओ-एहि एहि सीयली किल होइ अंबिलजाऊ । सो लजिओ घरं गओ । तेणं अंबाडिओ भणिओ य-एरिसे कज्जे सणियं कन्ने कहिज्जइ । अन्नया गेहं पलित्तं । तस्स भज्जाए भणियं-लहुं सदावेह ठक्कुरं । सो गंतुं सणियं कहेइ । जाव सो तस्स अक्खाइ ताव सवं घरं ज्झामियं । तत्थ वि अंबाडिओ भणिओ य-एरिसे कज्जे न वि आगम्मइ, अक्खायगेण अप्पणा चेव पाणिएण वा 20 गोभत्तेण वा विज्झविजइ, गोरसो वा छुब्भइ, अंबिलो वि पल्हत्थिज्जइ, जहा तहा विज्झविजइ । अन्नया तस्स दंडिकुलपुत्तगस्स हाऊण धूविंतस्स धूमो निगच्छइ । तओ सो गोभत्तं गोमुत्ताइयं च छुभेइ । एवं जो अन्नम्मि कहेयचे अन्नं कहेइ तस्स अणणुओगो । सम्म कहिजमाणे अणुयोगो ॥ ____ भावे भावस्य विषयेऽनुयोगेऽननुयोगे च सप्तोदाहरणानि भवन्ति ।। १७१ ॥ तान्येवाह सावगभजा सत्तवइए य कुंकणगदारए नउले । कमलामेला संबस्स साहसं सेणिए कोवो॥ १७२ ॥ प्रथममुदाहरणं श्रावकभार्या । द्वितीयं साप्तपदिकः पुरुषः । तृतीयं कौङ्कणकदारकः । चतुर्थ नकुलः । पञ्चमं कमलामेला । षष्ठं सम्बस्य साहसम् । सप्तमं 'श्रेणिके' श्रेणिकस्य कोपः ॥ तत्र श्रावकभार्योदाहरणमिदम्-एगो सावगो अन्नं महिलं दटुं अज्झोववन्नो दुब्बली30 भवइ । भजाए पुच्छिओ । निब्बंधे कहियं । ताए भणियं-आणेमि । ताहे सा संज्झासमए तीसे अविरइयाए तणएहिं वत्थेहिं अप्पाणं नेवत्थित्ता अंधयारे अल्लीणा । सो तीए समं अच्छिओ । तओ बीयदिवसे अद्धिई पकओ 'वयं खंडियं' । ताए भणियं-मा अद्धिई पकरेहि, १°वद्धयं दं भा० ॥ २ एयं ह° भा० ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७२] पीठिका । न खंडियं, अहं चेव आगया । साभिन्नाणं पत्तियावियो । एवं जो ससमयवत्तवयं परसमयवत्तव्यं भणइ, ओदइयभावलक्खणेणं उवसमियभावलक्खणं परूवेइ ताहे अणणुयोगो भवति । सम्मं परू विजमाणे अणुयोगो ॥ साप्तपदिकोदाहरणमेवम–एगम्मि पच्चंतगामे एगो ओलग्गयमणूसो साह-माहणाईणं न सुणेइ नेव अल्लियइ न वा वसहिं देइ 'मा मम धम्मं कहेहिइ, तो हं मा सदयो होहा-5 मिति । अन्नया तं गामं साहुणो आगया पडिस्सयं मग्गंति । ताहे सो गोहिल्लएहिं 'एएसिं वसहिं न देसि ति एएहि य पवंचिओ होउ'ति तस्स घरं कहियं । 'इत्थ एरिसो तारिसो सावगो'त्ति ते पुच्छंता गया । दिट्टा, जाव न चेव आढाइ । तत्थ एगेण साहुणा भणियं- . जइ न चेव सो एसो, अहवा पवंचिया मो ति । तं सोऊण ते पुच्छिया। जहावतं कहियं । सो चिंतेइ-अहो ! अकजं, मं ताव पवंचंतु, साहुणो कह पवंचिंति ? । ताहे 'मा तेसिं 10 समो होउ'त्ति तेण भणियं-देमि वसहिं जइ मम धम्मं न कहेह । साइहिं भणियं-एवं होउ ति । दिन्नं घरं । वासारत्ते वैत्ते आपुच्छंति-विहरामो । ताहे पयट्टा साहुणोऽन्नत्थ विहरि । तेण अणुबइया । सीमापजंते धम्मो कहिओ । तत्थ न किंचि तरइ घेत्तुं मूलगुणं उत्तरगुणं वा मंसविरई वा । पच्छा सत्तवइयं वयं दिन्नं मारेउकामेणं जावइएणं कालेणं सत्तपयाई ओसक्किजंति एवइयं कालं पडिक्खित्ता मारेयवं 'संबुज्झिस्सइ'ति काउं । गया साहुणो । 15 अन्नया चोरियाए गओ। अवसउणेण नियत्तो रतिं सणियं घरं एइ । तदिवसं तस्स भगिणी आगएल्लया पुरिसनेवत्थं काउं भाउज्जाइयाए समं नडपिच्छैगा गया । चिरेण आगया निदकंता तह चेव एगंतस्सयणे सइया । इयरो य आगओ पिच्छइ 'परपुरिसो' त्ति असिं उक्करिसित्ता 'आहणामि' त्ति ववसिओ । वयं संभरियं । ठिओ ‘सत्तपयंतरं अच्छामि' ति। एयम्मि अंतरे भगिणीए बाहा भाउजाइयाए अक्कंतिया । ताए दुक्खाविजंतीए भणियं-30 अवणेहि मे बाहातो सीसं । तेण सरो सन्नाओ-भगिणी मे एसा पुरिसनेवत्थिय ति । दिट्टा । लजिओ जाओ 'अहो ! मणेणं अकजं कयं' ति । उवणओ जहा सावगभजाए। सो संबुद्धो पबइओ॥ कोङ्कणकदारकोदाहरणमिदम्--कोंकणगविसए एगो दारगो । तस्स माया मया । पिया से अन्नमहिलं न लहइ 'सवत्तिपुत्तो अच्छइ' त्ति काउं । अन्नया सपुत्तो कट्टाणं गओ, 25 ताहे णेण चिंतियं-एयस्स भएणं महिलियं न लभामि–ति मारेमि । तओ पुत्तो भणिओवच्छ ! कंडं आणेहि । सो पहाविओ । अण्णेण कंडेण विद्धो । दारएण लवियं-किं कंडं खित्तं ? विद्धो मि । पुणो वि खित्तं । रडतो मारिओ । पुवं 'अयाणंतेण विद्धो मिति अणणुयोगो, 'मारिजामि' ति एवं नाए अणुयोगो । अहवा 'सारक्खणिजं मारेमि'ति अणणुयोगो, सारक्खंतस्स अणुयोगो। एवं अन्नम्मि परूवियत्वे अन्नं परूवेमाणस्स विपरीतत्वादननु-30 योगः, यथाभूतं प्ररूपयतोऽनुयोगः ॥ १°ग्गइमणू भा० विना ॥ २ वित्ते भा० ॥ ३ °च्छणगया डे० ॥ ४ यथारूपं प्ररू° भा०॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः नकुलोदाहरणमिदम्-एगा चारभडिया गम्भिणी । अन्ना वि नउलिणी गम्भिणी तत्थ य लिहए एइ य जाइ य । ताओ समगं पसूयाओ । चारभडाए चिंतियं-मम पुत्तस्स रमणओ नउलो भविस्सइ-ति तस्स पहियं देइ खीरं च । अन्नया दुवारे तीसे अविरइयाए कंडंतीए तत्थ मंचुल्लियाए सो दारगो ओयारिओ । तत्थ सप्पेण चडित्ता खाइओ मओ । इओ य 5 इयरेण नउलेण मंचुल्लियाए उयरंतो दिट्ठो खंडीकओ । ताहे सो रुहिरलित्तेणं तुंडेण तीसे अविरइयाए मूलं गंतुं चाडूणि करेइ । ताए नायं-एएण मम पुत्तो खतिओ । मुसलेण आह. णित्ता मारिओ । ताहे धावंती गया पुत्तमूलं, जाव सप्पं खंडाखंडीकैयल्लयं पासेइ, ताहे दुगु. णतरमद्धिई पगया । तीसे अविरइयाए पुबमणणुयोगो, पच्छा अणुयोगो । एवं जो अन्नं परूवेयवं अन्नं परूटेइ तस्स अणणुयोगो, जो तं चेव परूवेइ तस्स अणुयोगो॥ 10 कमलामेलोदाहरणम्-बारवईए बलदेवपुत्तस्स पुत्तो सागरचंदो नाम कुमारो, रूपेण य उकिट्टो सबेसि संबाईणं इ8ो । तत्थ य बारवईए वत्थवस्स चेव अण्णम्स रण्णो कमलामेला नाम धूया उक्किट्ठसरीरा । सा य उग्गसेणनत्तुस्स धणदेवस्स वरिल्लिया । इओ य नारओ सागरचंदस्स कुमारस्स सगासं आगओ । अब्भुट्टिओ । उवविढं समाणं पुच्छइकिंचि भयवं! अच्छेरयं दिटुं ? । आम दिढें । कहिं ? । इहेव बारवईए नयरीए कमला16 मेला नाम दारिया । कस्सइ दिन्निया ? । आमं । कस्स? । उग्गसेणनत्तुस्स धणदेवस्स । तओ सो भणइ-कहं मम ताए समं संजोगो होज्जा ? । 'न याणामु' त्ति भणित्ता गओ । सो य सागरचंदो तं सोउं न वि आसणे न वि सयणे धिइं लहइ । तं दारियं फलए पासंतो नामं च गिण्हतो अच्छइ । नारओ वि कमलामेलाए अंतियं गओ। ताए पुच्छिओकिंचि अच्छेरयं दिटुं ? । नारओ भणइ-दुवे दिट्टाणि, रूवेण सागरचंदो, विरूंवत्तणेण 20 धणदेवो । तओ सागरचंदे मुच्छिया धणदेवे विरता । नारएण आसासिया । तेण गंतुं सागरचंदस्स आइक्खियं, जहा 'इच्छइ'ति । ततो य सागरचंदस्स माया अन्ने य कुमारा अन्ना-मरति नूणं सागरचंदो । संबो आगओ जाव पिच्छइ सागरचंदं विलवमाणं । ताहे अणेण पच्छओ धाइऊण अच्छीणि दोहि वि हत्थेहिं च्छाइयाणि । सागरचंदेण भणियं-कमलामेले ! । संवेणं भणियं-नाहं कमलामेला, कमलामेलो हं । सागरचंदेण 25 भणियं-आमं, तुमं चेव कमलामेलं दारियं मेलेहिसि । ताहे तेहिं कुमारेहिं संबो भणिओ कमलामेलं मेलेहि सागरचंदस्स । न मन्नइ । तओ मजं पाएऊण अब्भुवगच्छाविओ। तओ विगयमओ चिंतेइ-अहो! मए आलो अब्भुवगओ, किं सक्का इयाणिं निवहिउं ?-ति पजुनं पन्नत्ति विजं मग्गइ । तेण दिन्ना । तओ जम्मि दिवसे धणदेवस्स विवाहो तम्मि दिवसे विजाए पडिरूवं विउविऊणं कमलामेला अवहरिया रेवए उज्जाणे नीया । संबप्प30 मुहा कुमारा उज्जाणं गंतुं नारयस्स रहस्सं भिंदित्ता कमलामेलं सागरचंदं परिणावित्ता तत्थ किड्डंता अच्छंति । विजापडिरूवगं पि विवाहे वट्टमाणे अट्टहासं काऊणं उप्पइयं । १ मओ य । इयरेण मो० चूर्णौ च ॥ २ पुत्तगो ख° कां० ॥ ३ °कइल्ल भा० ॥ ४ चूर्णी आव० हारि० वृत्तौ च “णभसेण" इति दृश्यते ॥ ५ कुरूवेण भा० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७२] पीठिका। तओ जाओ खोभो । न नजइ 'केण इ हरिय?' ति । नारओ पुच्छिओ भणइ-दिट्ठा रेवइऐ उज्जाणे केण वि विज्जाहरेण अवहरिया । तओ सबल-वाहणो नारायणो निग्गओ । संबो विजाहररूवं काऊण जुज्झिउं संपलग्गो । सवे दसाराइणो पराइया । तओ नारायण सद्धिं लग्गो । तओ जाहे णेणं णायं 'रुट्टो ताउ' ति तओ से चलणेसु पंडिओ । कण्हेण अंबाडिओ । तओ संवेग भणियं-एसा अम्हेहिं गवक्षण अप्पाणं मुयंती दिट्ठा ।। तओ कण्हेण उग्गसेणो अणुगमिओ । पच्छा इमाणि भोगे भुंजमाणाणि विहरति । अन्नया . भयवं अरिट्टनेमिसामी समोसरिओ । तओ सागरचंदो कमलामेला य सामिसगासे धम्म सोऊण गहियाणुव्वयाणि संवुत्ताणि । तओ सागरचंदो अट्ठमि-चउद्दसी सुं सुन्नघरे वा सुसाणे. वा एगराइयं पडिमं ठाइ । धणदेवेणं एयं नाऊणं तंबियाओ सुईओ घडावियाओ । तओ सुन्नघरे पडिमं ठियस्स वीससु वि अंगुलीनहेसु अक्कोडियाओ। तओ सम्ममहियासमाणो 10 वेयणाभिभूओ कालगतो देवो जाओ । ततो बिइयदिवसे गवेसिंतेहिं दिट्ठो । अक्कंदो जाओ। दिट्ठाओ सूईओ । गवेसिंतेहिं तंबकुट्टगसगासे उवलद्धं-धणदेवेण कारावियाओ । रूसिया कुमारा धणदेवं मग्गंति । दुण्ह वि बलाणं जुद्धं संपलग्गं । तओ सागरचंदो देवो अंतरे ठाऊण उवसामेइ । पच्छा कमलामेला भयवओ सगासे पवइया । इत्तियं पसंगेण भणियं । इत्थ सागरचंदस्स कमलामेलं संवं मन्नमाणस्स अणणुयोगो, 'नाहं कमलामेल' ति भणिए 15 अणुयोगो । एवं जो विवरीयं परूवेइ तस्स अणणुयोगो, जहाभावं परूवेमाणस्स अणुयोगो॥ सम्बस्य साहसमुदाहरणम्-जंबवती नारायणं भणइ-एका वि मए पुतस्स अणाडिया न दिट्टा । नारायणेण भणियं-अज दाएमि । ताहे नारायणेणं जंबवईए आभीरीरूवं कयं, अप्पणो आभीररूवं । दो वि तकं घेत्तुं बारवई उइन्नाणि महियं विकंति । संवेण दिट्टाणि । आभीरी भणिया-महियं किणामि ति एहि । सा अणुगच्छइ । आभीरो से मग्गेण 20 एइ । सो संबो एगं देउलियं पवेसइ । आभीरी भणइ-नाहं पविसामि, मोल्लं देहि । सो भणइ-दिजइ, पविसाहि । सा भणइ-एत्थ चेव ठिओ तकं गिण्हाहि । सो भणह-अवस्स पविसियत्वं । नेच्छइ ताहे हत्थे लग्गो । आभीरो उद्धाइऊण समं लग्गो। संबो जुद्धमहिट्टिओ । आभीरो वासुदेवो जाओ, इयरी वि जंबवई । तओ लजिओ अंगुष्टिं काऊण पलाइओ। बिइयदिवसे मड्डाए आणिजंतो खीलगं घडेइ । वासुदेवेण पुच्छिओ-किं एयं 25 घडिजइ ? । संबो भणइ-जो परिवासियं बोल्लं काहिइ तस्स मुहे कुट्टिजिहि ति । इत्थं पढमं अणणुयोगो, नाए अणुयोगो । एवं जो विरूवं परूवेइ तस्स अणणुयोगो, तहभावं परूवेमाणस्स अणुयोगो॥ श्रेणिककोपोदाहरणम् -रायगिहे नयरे सेणिओ राया । चिल्लणा तस्स भारिया । सा वद्धमाणसामि तित्थयरं वंदित्ता वेयालियवेलाए माहमासे नगरं पविसइ । अंतरा पहे 30 साहू पडिमापडिवण्णतो दिट्ठो। तीए रत्तिं सुत्तियाए कह वि हत्थो विलंबिओ । जया १°वई उ° मो० कां० ले ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाथिकाभिधाने 15 ५८ मनियुक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः सीएणं गहिओ तया चेइयं । पवेसिओ सउडिमझे हत्थो । तस्स हत्थस्स तणएणं सीएणं सवं सरीरं सीएण गहियं । पच्छा ताए भणियं-स तपस्वी किं करिष्यति साम्प्रतम् ? । पच्छा रन्ना सेणिएण चिंतियं-संगारदिण्णओ को वि । रुटेण पभाए अभओ भणिओसिग्धं अंतेउरं पलीवेहिं । सेणिओ गओ सामिणो मूलं । अभएण हत्थिसाला पलीविया । 5 सामि पुच्छइ-चिल्लणा एगपत्ती अणेगपत्ती वा ? । सामिणा भणियं-एगपत्ती । तओ 'मा डज्झिहि' त्ति तुरियं नियत्तो । अभओ य निग्गच्छइ । तेण भणियं-पली वियं ? । अभओ भणइ-आमं । सेणिओ भणइ-तुमं किं तत्थेव न पडिओ? । पडिभणइ-अहं पवइस्सामि, किं मे अग्गिपवेसेण ? । ताहे ‘मा ज्झिजिहि' त्ति पच्छा अभएण भणियं-न डज्झइ । सेणियस्स चेल्लणाए पुर्व अणणुयोगो, पुच्छिए अणुयोगो । एवं विवरीए परूविए अणणुयोगो, जहाभावं 10 परूविए अणुयोगो ॥ १७२ ॥ तदेवमुक्तं निक्षेपद्वारम् । इदानीमेकार्थिकद्वारं वक्तव्यम् , तत्र तिष्ठतु तावदेतत् , एकार्थिकाभिधाने को गुणः ? इत्यत आह-- एकार्थिकद्वारम् बंधाणुलोमया खलु, सुत्तम्मि यं लाघवं असम्मोहो । सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेए ॥ १७३ ॥ गुणाः ___ एकार्थिकाभिधाने यान्यर्थपदानि गाथादिभिर्वद्ध(बन्दु)मिष्यन्ते तेषां बन्धेऽनुलोमता भवति, अननुकूलाभिधानपरिहारेणानुकूलाभिधाने बन्धो भवतीत्यर्थः । अनुकूलेन चाभिधानेन बद्धे सूत्रे सूत्रस्य लाघवं भवति । तथा विवक्षितार्थस्य 'असम्मोहः' निस्सन्दिग्धा प्रतीतिः, यथा शक इति वा पुरन्दर इति वा इन्द्र इति वा इत्याद्युक्ते शक्रशब्दार्थस्य । तथा शास्ता-तीर्थकरस्तस्य 20 गुणास्तेषां दीपना-प्रकाशना भवति, यथा-अहो ! भगवान् एकैकस्यार्थस्य बहूनि पर्यायना मानि जानाति स्म । एते एकार्थिनामभिधाने गुणा भवन्ति ॥ १७३ ॥ सम्प्रत्यैकार्थिकानि वक्तव्यानि, तामि द्विधा-सूत्रस्याऽर्थस्य च । तत्र प्रथमतः सूत्रस्याऽऽह सुय सुत्त गंथ सिद्धंत सासणे आण वयण उवएसो । पण्णवणमागमे इय, एगट्ठा पजवा सुत्ते ॥ १७४ ॥ 25 श्रुतं सूत्रं ग्रन्थः सिद्धान्तः शासनम् आज्ञा वचनम् उपदेशः प्रज्ञापना आगमः 'इति' एते दश 'पर्यायाः' एकार्थाः सूत्रस्य ॥ १७४ ॥ एतेषां च सर्वेषामपि पदानां नामादिकश्चतुष्को निक्षेपः । तत्र सर्वत्रापि नाम-स्थापने द्रव्यत आगमतो नोआगमतो ज्ञशरीर-भव्यशरीरे प्रतीते । शेषं वक्तव्यम् । तत्र श्रुतमधिकृत्याह दव्वसुयं पत्तग-पुत्थएसु जं पढइ वा अणुवउत्तो। निक्षेपाः 30 आगम-नोआगमओ, भावसुयं होइ दुविहं तु ॥ १७५ ॥ आगमओ सुयनाणी, सुओवउत्तो य होइ भावसुयं । सो सुयभावाऽणनो, सुयमवि उवओगओऽण नं ॥ १७६ ॥ १°भावे प° भा० कां ॥ २ उ ता० ॥ ३°ण आग° ता० ॥ ४°वेऽण° ता. ॥ सूत्रस्यैकार्थि काने श्रुतस्य Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथाः ९७३-८० ]. पीठिका | ५९ नोआगमतो द्रव्यश्रुतं ज्ञशरीर - भव्यशरीरव्यतिरिक्तं पत्रक - पुस्तकेषु न्यस्तम्, यच्च वाऽनुपयुक्तः पठति तद् नोआगमतो द्रव्यश्रुतम् । भावश्रुतं द्विविधम्-आगमतो नोआगमतश्च ॥ १७५ ॥ तत्राऽऽगमतो भावश्रुतं श्रुतज्ञानी 'श्रुतोपयुक्तः' श्रुतज्ञानोपयोगवान्, “उपयोगो भावनिक्षेपः” इति वचनात् । अथ कथं श्रुतज्ञानी श्रुतोपयुक्तो भावश्रुतम् ? अत आहयस्मात् 'सः' श्रुतज्ञानी श्रुतभावादनन्यः, श्रुतमपि जीवस्वभावादुपयोगादनन्यत्, ततः स एव 5 श्रुतज्ञानी भावश्रुतम् ॥ १७६ ॥ नोआगमतो भावश्रुतमाह जं तं दुसत्तगविहं, तमेव नोआर्गमो सुर्य होइ । सामित्तासंबद्धं, समिईस हियस्स वा जं तु ।। १७७ ॥ यत् 'तत्' प्रागभिहितं ‘द्विसप्तविधं ' चतुर्दशविधमक्षरश्रुतादि, यदि वा द्वादशप्रकारमङ्गप्रविष्टमाचारादि द्विविधमङ्गबाह्यं कालिकमुत्कालिकं चेति चतुर्दशविधं श्रुतज्ञानं तदेव 'स्वामि - 10 त्वासम्बद्धं' पुरुषेषु खामित्वेनासम्बद्धम्, पुरुषेभ्यः पृथग्विवक्षितमित्यर्थः, नोआगमतो भावश्रुतम् । यदि वा समितिसहितस्य पुरुषस्योपयुक्तस्य 'यत्' श्रुतं तद् नोआगमतो भावश्रुतम् । अत्र नोशव्दो मिश्रवाची || १७७ ॥ अधुना सूत्रद्वारमाह पंचविहं पुण दव्वे, भावम्मि तमेव होइ सुत्तं तु । द्रव्यतो नोआगमतो व्यतिरिक्तं सूत्रं पञ्चविधम्, तद्यथा - अण्डजं हंसगर्भादि, बोण्डजं 15 कार्पासिकम्, कीटजं कृमिर। गम्, वालजमूर्णामयम्, वल्कजं सनसूत्रादि । नोआगमतो भावसूत्रं 'तदेव' यदनन्तरं नोआगमतो भावश्रुतमुक्तम् ॥ ग्रन्थद्वारमाह- सच्चित्ताई गंथो, दव्वे भावे इमं चैव ।। १७८ ॥ द्रव्यतो नोआगमतो व्यतिरिक्तो ग्रन्थस्त्रिविधः 'सचित्तादिः ' सचित्तः अचित्तो मिश्रश्च । एष त्रिविधोऽप्युपरि प्रथमसूत्रे वक्ष्यते । भावे ग्रन्थः ' इदमेव ' कल्पाध्ययनम् ॥ १७८ ॥ 20 अधुना सिद्धान्तद्वारमाह जेण सिद्धं अत्थं, अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो । सो सव-पडीतंतो, अहिगरणे अभ्रुवगमे य ॥ १७९ ॥ येन कारणेन प्रमाणतः सिद्धमर्थम् ' अन्तं नयति' प्रमाणकोटिमारोहयतीति तेन कारणेन सिद्धान्त उच्यते । स एष द्रव्यतो नोआगमतो व्यतिरिक्तः पुस्तक - पत्रन्यस्तः । भावतश्चतु - 25 र्विधः, तद्यथा-सर्वतन्त्रसिद्धान्तः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः अधिकरणसिद्धान्तः अभ्युपगम सिद्धान्तश्च ॥ १७९ ॥ तत्र सर्वतन्त्र सिद्धान्तमाह संति पमाणात पमेयसाहगाई तु सव्वतंतो उ । जव वसुमई, आपो य दवा चलो ऊ ॥ १८० ॥ सन्ति 'प्रमाणानि' प्रत्यक्षादीनि प्रमेयसाधकानि, तथा स्थैर्यवती पृथिवी, आपो द्रवाः, 30 चलो वायुः, एष सर्वतन्त्रसिद्धान्तः, सर्वेषु तन्त्रेष्वस्यार्थस्य सिद्धत्वात् ॥ १८० ॥ १ गमे सुयं ता० ॥ २ तत्र मो० भा० ॥ ३ पुण सुन्तं, दव्त्रे भावस्मि होइ सुत्तं तु ता० विना ॥ ४ णाणि प° ता० ॥ ५ 'गाई ति सन्त्र' ता० ॥ ६ वातो ता० ॥ सूत्रस्य निक्षेपाः ग्रन्थस्य निक्षेपाः सिद्धान्त निक्षेपाः सर्वतत्र. सिद्धान्तः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः प्रतितन्त्रसिद्धान्तमाहप्रतितन्त्र जो खलु सप्तसिद्धो, न य परततेसु सो उ पडितंतो । सिद्धान्तः निच्चमणिचं सव्वं, निच्चानिचं च इचाई ॥ १८१ ॥ यः खल्वर्थः स्वतन्त्रसिद्धो न परतन्त्रेषु स प्रतितन्त्रसिद्धान्तः । यथा-सर्वं नित्यं साङ्ख्यानाम् , सर्वमनित्यं क्षणिकवादिनाम् , सर्व नित्या-ऽनित्यमाहेताना मित्यादि ॥ १८१ ॥ अधिकरणसिद्धान्तमाहअधिक सो अहिगरणो जहियं, सिद्धे सेसं अणुत्तमवि सिज्झे । रणसि जह निच्चत्ते सिद्धे, अन्नत्ता-ऽमुत्तसंसिद्धी ॥ १८२ ॥ यस्मिन् सिद्धे शेषमनुक्तमपि सिध्यति, यथा आत्मनो नित्यत्वे सिद्धे शरीरादन्यत्वसंसि10द्विरमूर्तत्वसंसिद्धिश्च । एषोऽधिकरणसिद्धान्तः ॥ १८२ ॥ अभ्युपगमसिद्धान्तमाहअभ्युप जे अब्भुविच कीरइ, सिच्छाएँ कहा स अब्भुवगमो उ। गमसिद्वान्तः सीतो वही गयजूह तणग्गे मग्गु-खरसिंगा ॥ १८३॥ यत् 'अभ्युपेत्य' खेच्छया अभ्युपगम्य वादकथा क्रियते, यथा-शीतो वह्निः, गजयूथं तृणाने, मद्गोः-जलकाकस्य खरस्य च शृङ्गमिति । स एषोऽभ्युपगमसिद्धान्तः ॥ १८३ ।। 15 सम्प्रति शासनमाज्ञां चाहशासना ___ कडकरणं दव्वे सासणं तु दवे व दबओ आणा। . ऽऽज्ञयो दवनिमित्तं वुभयं, दुनि वि भावे इमं चेव ॥ १८४ ॥ निक्षेपार नोआगमतो द्रव्यशासनं व्यतिरिक्तं 'कृतकरणं' मुद्रा इत्यर्थः । आज्ञाऽपि द्रव्यतो नोआगमतो व्यतिरिक्ता सैव मुद्रा । अथवा 'द्रव्यनिमित्तं' द्रव्योत्पादननिमित्तं यत् 'उभयं' शास20 नमाज्ञा तद् द्रव्यशासनं सा.द्रव्याज्ञा । 'द्वे अपि च' शासना-ऽऽज्ञे भावत इदमेवाध्ययनम् । किमुक्तं भवति ?-नोआगमतो भावशासनं भावाज्ञा च इदमेव कल्पाख्यमध्ययनम् । तथाहिय एतस्याज्ञां न करोति सोऽनेकानि मरणादीनि प्रामोति ॥ १८४ ॥ इदानीं वचनद्वारम् , वचनं वागित्येकार्थम् , ततो वाचमधिकृत्याह--- दव्ववती दवाई, जाई गहियाइँ मुंचइ न ताव । निक्षेपाः 25 आराहणि दबस्स वि, दोहि वि भावस्स पडिवक्खो ॥ १८५ ॥ यानि भाषायोग्यानि द्रव्याणि भाषात्वेन गृहीतानि, न तावद्यापि मुञ्चति सा नोआग. मतो व्यतिरिक्ता द्रव्यवाक् । अथवा द्रव्यस्य 'आराधनी' यथाखरूपप्रतिपादिका सा द्रव्यवाक् । द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भावस्य प्रतिपक्षो वक्तव्यः । किमुक्तं भवति ?-यानि भापायोग्यानि द्रव्याणि भाषात्वेन परिणमय्य मुञ्चति सा नोआगमतो भाववाक्, अथवा या जीवस्य भावं 30 ज्ञानादिकमाराधयति अजीवस्य घटादेवर्णादिकं सा नोआगमतो भाववाक् ॥ १८५॥ १ सन्तीति नित्यं डे० ॥ २ दोण्ह वि ता. । “दोण्ह व ति सासण-आणाणं” इति चूर्णिः॥ ३वता० ॥ वचनस्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १८१-८९ ] साम्प्रतमुपदेश-प्रज्ञापना-ऽऽगमानाह पीठिका | दवाण दव्वभूओ, दव्ट्ठाए व विजमाईया | उपदेश प्रज्ञाप अह दव्वे उवएसो, पन्नवणा आगमे चैव ॥ १८६ ॥ FISS. 5 corridoभूतो द्रव्यार्थं वा वैद्यादय उपदेशादि कुर्वन्ति एष द्रव्यतो नोआगमतो गमानां व्यतिरिक्त उपदेशः प्रज्ञापना आगमश्च । इयमत्र भावना - यद्वैद्य आतुरस्यौषधद्रव्याणामुपदेशं निक्षेपाः करोति, यं वा साधुरनुपयुक्त उपदेशं ( ग्रन्थाग्रम् - १५०० ) कथयति, अथवा यद्वैद्य 'एष मम द्रव्यं दास्यति' इति द्रव्यनिमित्तमौषधद्रव्याणामुपदेशं करोति एष नोआगमतो व्यतिरिक्तो द्रव्योपदेशः । तथा यः कश्चिद्रव्याणि प्रज्ञापयति, भावं वा प्रज्ञापयन् अनुपयुक्तः, यदि वा 'एष मम किञ्चिद्दास्यति' इति द्रव्यनिमित्तं प्रज्ञापनां द्रव्यादीनां करोति एषा नोआगमतो व्यतिरिक्ता द्रव्यप्रज्ञापना । तथा यद्धिरण्यादीनामागमं सङ्ग्रहं करोति, यो वा साधुर - 10 नुपयुक्त आगमं पठति, यं वाऽऽगमं वैद्यो वृत्तिनिमित्तं पठति स नोआगमतो व्यतिरिक्तो द्रव्यागमः । तथा य उपयुक्त उपदिशति प्रज्ञापयति पठति वाऽऽगमम् एते नोआगमतो भावत उपदेश-प्रज्ञापना-ऽऽगमाः ।। १८६ ॥ साम्प्रतमर्थै कार्थिकान्याह ―――――― ६१ अणुयोगो य नियोगो, भास विभासा य वत्तियं चैव । er अणुओगस्स उ, नामा एगडिया पंच ॥ ९८७ ॥ अनुयोगो नियोगो भाषा विभाषा वार्त्तिकं च एतानि पञ्चानुयोगस्यैकार्थिकानि । तत्रानुकूल: सूत्रस्यार्थेन योगोऽनुयोगः । निश्चितो योगो नियोगः । अर्थस्य भाषणं भाषा | विविधप्रकारैर्भाषणं विभाषा । वृत्तौ भवं वार्त्तिकम्, यदेकस्मिन् पदे यदर्थापन्नं तस्य सर्वस्यापि भाषणम् ॥ १८७ ॥ उक्तान्यैकार्थिकानि, सम्प्रति निरुक्तद्वारमाह 1 निरुक्तद्वारम् १ वोच्छिति अत्थ ता० ॥ २ “उंडिया णाम लेहस्स मुद्दा" इति चूर्णौ ॥ 16 कानि 20 निच्छियमुत्त निरुत्तं तं पुण सुत्ते य होइ अत्थे य । सुते उचरिं च्छं, अत्थनिरुत्तं इमं तत्थ ।। १८८ ॥ उ० " निश्चितमुक्तं निरुक्तम् । तच्च द्विधा - सूत्रस्यार्थस्य च । तत्र सूत्रस्योपरि “नेरुत्तियाणि तस्स " ( गाथा ३११ ) इत्यादिना ग्रन्थेन वक्ष्ये । अर्थनिरुक्तं पुनः 'इदं' वक्ष्यमाणम् ॥ १८८॥ तदेव विवक्षुः प्रथमतस्तद्विषयान् दृष्टान्तान् वक्तव्यान् सूचयति अणु वायरे य उंडिय, पर्डिसुया चेव अब्भपडले य । वत्तिय चउक्कभंगो, निरुत्तादी वत्तणी व जहा ॥ १८९ ॥ त्र दृष्टा अनुयोगे अणुत्वे बादरत्वे च दृष्टान्तो वक्तव्यः । नियोगे 'उण्डिका' उण्डिकापत्रक - न्ताच दृष्टान्तः, उण्डिका- मुद्रा । भाषायां प्रतिश्रुतदृष्टान्तः । विभाषायामभ्रपटलः । वार्त्तिके चत्वारो भङ्गाः, तत्र मङ्खदृष्टान्तः । तथा निरुक्तादीनि यथा वर्द्धमानखाम्याख्यातवान् तथा किमूष - 30 भादयोऽपि ? उतान्यथा ? उच्यते - तथेति, केवलज्ञानस्य तुल्यत्वात् ; यथा 'वर्त्तनी' मार्गः सा सर्वजनपदेषु प्रमाणत एकैव भवति ॥ १८९ ॥ तत्र प्रथममनुयोगद्वारमाह अर्थस्यैकार्थि 25 अर्थनिरुक्तं त Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाग्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः अनुयोगः अणुणा जोगो अणुजोगो, अणु पच्छाभावओ य थेवे य । जम्हा पच्छाऽमिहियं, सुत्तं थोवं च तेणाणू ।। १९० ॥ इह अनुयोग [ इति अणुयोग ] इति वा शब्दसंस्कारः । तत्र 'अनुना' पश्चाद्भूतेन योगोऽनुयोगः, अथवा 'अणुना' स्तोकेन योगः अणुयोगः । तथा चाह-अणु इति पश्चाद्भावे 5 स्तोके च । यस्मात् पश्चात् 'अभिहितं' कृतं सूत्रं स्तोकं च तेन अणु इति भण्यते । अर्थः पुनरननुः, पूर्वमुक्तत्वात् , बादरश्च, वहुत्वात् ।। १९० ॥ एवमाचार्येणोक्ते शिप्यः प्राह पुव्वं सुत्तं पच्छा, य पगासो लोइया वि इच्छंति । पेलोसरिसे सुत्ते, अत्थपया हुंति बहुया वि ॥ १९१ ॥ ननु पूर्व सूत्रं पश्चात् 'प्रकाशः' अर्थः, 'तान् तान् भावान् प्रकाशयतीति प्रकाशः' इति 10 व्युत्पत्तेः, सूत्राभावे तु स कस्य स्यात् ! ; अपि च लौकिका अप्येवमेवेच्छन्ति, तथा चोक्तं तैरेव पूर्व सूत्रं ततो वृत्तिवृत्तेरपि च वार्तिकम् । सूत्र-वार्तिकयोर्मध्ये, ततो भाप्यं प्रवर्तते ॥ ततो यद्वदथ यूयं 'पूर्वमर्थः पश्चात्सूत्रम्' इति तन्न घटां प्राञ्चति । यदपि च ब्रूथ 'सूत्र15 मणुः, अर्थो बादरः' इति तदपि न सम्यक्, यत एकस्यां पेडायां बहूनि वस्त्राणि मान्ति तत्र पेडाया एव वादरत्वं युज्यते, तद्वशाद् बहूनि वस्त्राणि मान्ति स्म; एवमत्रापि 'पेडासदृशे' पेडास्थानीये सूत्रे बहून्यर्थपदानि वर्तन्ते, ततः सूत्रमेव बादरीभवितुमर्हति नार्थ इति ॥१९१।। न च महत्त्वमेकान्तेनार्थस्य, कस्मात् ? इत्याह इकं वा अस्थपयं, सुत्ता बहुगा वि संपयंसंति । उक्खित्तनायमाइसु, अयमवि तम्हा अणेगंतो ॥ १९२ ॥ __ एकमर्थपदं बहूनि सूत्राणि सम्प्रदर्शयन्ति, यथा उत्क्षिप्तज्ञाते 'अनुकम्पा कर्त्तव्या' इत्यर्थों बहुभिः सूत्रैर्वर्णितः । आदिशब्दात् सङ्घाटादिषु ज्ञातेषु 'न वर्णहेतोराहारयितव्यम्' इत्यादिपरिग्रहः । तस्मादयमनेकान्तो यत् 'अर्थो महान्' इति ॥ १९२ ॥ आचार्यः प्राह-यत्त्वयोक्तं 'पूर्व सूत्रं पश्चादर्थः' इति तन्न भवति, कथम् ! इत्याह अत्थं भासइ अरिहा, तमेव सुत्तीकरैति गणधारी । ___ अत्थं च विणा सुत्तं, अणिस्सियं केरिसं होजा ।। १९३ ।। अर्थ भाषतेऽर्हन् । 'तमेव' अर्हद्भाषितमर्थ सूत्रीकुर्वन्ति गणधारिणः । अर्थ च विना सूत्रम् 'अनिश्रितम्' अर्थनिश्रारहितं कीदृशं स्यात् ? असम्बद्धं स्यात्, “दशदाडिमे"त्यादिवाक्यवदिति भावः । अपि च लौकिका अपि शास्तारः प्रथमतोऽर्थ दृष्ट्वा सूत्रं कुर्वन्ति, 30 अर्थमन्तरेण सूत्रस्यानिष्पत्तेः । यदप्युक्तं 'पेडावहादरं सूत्रम् , अर्थोऽणुः' इति तदप्यश्लीलम् , यतस्तस्या एव पेडाया एकं वस्त्रमादाय तेनानेकाः पेडा बध्यन्ते, तथैकस्मादर्थाद्वहूनि सूत्रा १ जोगणुजोगो ता० ॥ २ पेडास ता० ॥ ३ अतम° ता० ॥ ४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गे प्रथमं ज्ञातमिदम् ॥ ५ ज्ञाताधर्मकथाङ्गे द्वितीयं ज्ञातमिदम् ॥ ६ होइ ता. विना ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९९०-९६ ] पीठिका | ६३ व्यर्वाक् तेनैव बध्यन्ते । एवं च वस्त्रस्थानीयस्यार्थस्य महत्त्वम्, पेडास्थानीयस्य तु सूत्रस्याणुत्वमेव । यदप्युक्तं 'न च महत्त्वमेकान्तेनार्थस्य' इत्यादि तदप्यपरिभावित परिभाषितम्, यत उत्क्षिप्तज्ञातादिषु सत्त्वानुकम्पादिकोऽर्थस्तावन्मात्रस्य सूत्रस्य, अशेषस्य तु शेषोऽर्थः ॥ १९३॥ उक्तोऽनुयोगः, अधुना नियोगमाह अहिगो. 'जोगो निजोगो, जहा दाहो भवे निदाहो ति । अत्थनिउत्तं सुतं, पसवइ चरणं जओ मुक्खो ॥ १९४ ॥ ‘निः' आधिक्ये, अधिको योगो नियोगः, यथाऽतिदाहो निदाहः । कस्य केन सहाधिक्यम् ? इति चेद् उच्यते - सूत्रस्यार्थेन । आधिक्येन योगस्य किं फलम् ? इति चेद् अत आह- अर्थेन सममाधिक्येन नियुक्तं सूत्रं 'चरणं' चारित्रं प्रसूते, यतः संसाराद् मोक्षः ॥ १९४ ॥ अत्रैव प्रसवने दृष्टान्तमाह 5 नियोगः 10 वच्छ नियोगे खीरं, अत्थनियोगेण चरणमेवं तु । पेंत्त दंडियमुभयं दंडियसरिस तर्हि अत्थो । १९५ ॥ यथा गौर्वत्सेन नियुक्ता सती क्षीरं प्रसूते, एवमर्थेन समं नियुक्तं सूत्रं चरणं प्रसूते । यदि पुनरेकं केवलं सूत्रं स्यात् नार्थस्तेन सङ्गृहीतो भवेत् ततश्चरणप्रसवस्याभावः, यथा वत्स - नियोगाभावे गोः क्षीरप्रसवस्याभावः । अर्थोऽपि केवलः सूत्रविहीनो न कार्यसाधकः, यथा 15 केवलो वत्सः । अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह - "पत्तग दंडिय उभयं" ति 'पत्रकं' लेखः 'दण्डिका ' लेखस्योपरि मुद्रानियोगः 'उभयं' पत्रकं दण्डिका च । इयमत्र भावना - तिन्न पुरिसा रायाणमोलग्गंति । राया तुट्टो । कम्मिइ नगरे पसाओ कओ । तत्थ एगेण पुरिसेण जे तम्मनयरे रायपुरिसा तेसिं जोगं पत्तयमाणीयं परं मुद्दारहियं । बिइएण दंडिया चेव केवला । तइएणोभयं । तत्थ जेण मुद्दारहियं पत्तयमाणीयं सो रायपुरिसेहिं भणिओ - 20 नत्थि पत्तगस्सोपरि मुद्दा विणिओग तिन मन्नेमो । बिइओ भणिओ - अस्थि इयं मुद्दा, परं को रन्ना पसाओ कओ ? को वा न कउ ? त्ति न जाणामो त्ति, तम्हा न देमो ति । तइएणोभयं दरिमयं ति सबं जहत्थियं लद्धं । एव दृष्टान्तः ॥ अयमर्थोपनयः-पत्रकसदृशं सूत्रम्, दण्डिकासदृशोऽर्थः । यथा पत्रकं केवलं दण्डिका वान कार्यस्य प्रसाधिका, उभयं तु प्रसाधकम्, एवं सूत्रमर्थश्च पृथग् न चरणप्रसाधकः, ' उभयं तु प्रसाधकम् ॥ १९५ ॥ सम्प्रति प्रतिश्रुतदृष्टान्तोपेतं भाषाद्वारमाह 25 पडिस गस्स सरिसं, जो भासइ अंत्थमेगु सुत्तस्स । सामइय बाल पंडिय, साहु जईमाइया भासा ।। १९६ ॥ यैथा गिरिकुहर-कन्दरादिषु यादृशः शब्दः क्रियते तादृशः प्रतिशब्द उत्तिष्ठति, एवं यो १ जोग नि ता ॥ २ दाहा भवे ता० ॥ ३ मोक्खो ता० ॥ ४ पत्ता उंडियमुभयं, उंडियसरि सो ता० । चूर्णिकृताऽयमेव पाठः स्वीकृतोऽस्ति ॥ ५ अत्थमो उ सुत्तस्स । लामातिय बाल पंडिय साहु जतिमातिया ता० ॥ ६ “ जधा जलतले जारियो सद्दो कीरति तारिलो चेव पहिसद्दतो उट्ठति" इति चूर्णौ ॥ उण्डिका पत्रकदृष्टान्तः भाषा अत्रार्थे प्रतिश्रु दृष्टा न्तश्च Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तश्च सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः यादृशं सूत्रं तस्य तादृशमर्थमेकं भाषते तस्य तद् भाषणं भाषा । यथा समभावः सामायिकम् , द्वाभ्यां-बुभुक्षया तृषा वाऽऽगलितो बालः, पापात् डीनः-पलायितः पण्डितः, अथवा पण्डाबुद्धिः सा संजाताऽस्येति पण्डितः, साधयति मोक्षमार्गमिति साधुः, यतते सर्वात्मना संयमानुष्ठानेप्विति यतिः, आदिशब्दात् तपतीति तपन इत्यादिपरिग्रहः ॥ १९६ ॥ 6 साम्प्रतमभ्रपटलदृष्टान्तसमन्वितं विभाषाद्वारमाहविभाषा एकेणं एकदलं, तहिं कयं 'विइएण बहुतरगा । अत्रार्थे तइएण छाइयं तं, तिल्लं-अविलमादुवाएहिं ।। १९७ ॥ ऽभ्रपटलदष्टा एगए दु-तिगाई जो अत्थे भणइ सा विभासा उ । असइ य आसु य धावइ, न य सम्मइ तेण आसो उ ।। १९८ ।। 10 एकेन च्छत्रकारेण त्रयाणामात्मीयशिष्याणां छत्राच्छादनार्थमभ्रपटलानि दत्तानि 'छत्राण्याच्छादयत' । तत्रैकेन शिष्येण एकमभ्रपटलदलं तत्र च्छत्रे कृतम् , द्वितीयेनाऽऽत्मीयच्छत्रे बहुतराणि द्वि-त्रि-चतुःप्रभृतीनि अभ्रपटलानि लापितानि, तृतीयेन च बहून्यभ्रपटलानि दत्त्वा तैला-ऽम्लादिभिरुपायैस्तच्छत्रं सर्वात्मनाऽऽच्छादितम् । किमुक्तं भवति ?-तान्यभ्रपटलदलानि लापितानि तैला-ऽम्लादिभिस्तीमित्वा सर्वथा निर्भेदं कृतम् । एष दृष्टान्तः, 15 अयमर्थोपनयः-प्रथमशिप्यसदृशो भाषकः, द्वितीयशिष्यसदृशो विभाषकः ॥ १९७ ॥ तथा चाह-य एकस्मिन् द्वि-त्रादीनान् वक्ति, यथाऽनातीत्यश्वः, यदि वाऽऽशु धावति न च श्राम्यतीत्यश्वः, एष विभाषकः, तस्य भाषणं विभाषा । तृतीयशिष्यसदृशो व्यक्तिकरः । उक्तञ्च पढमसरिच्छो भासगो, बिइय विभासो य तइय वित्तिकरो । इति । ॥ १९८ ॥ 20 सम्पति मङ्खदृष्टान्तोपेतं वार्तिकद्वारमाह सामाइयस्स अत्थं, पुव्वधर समत्तमो विभासेई । वार्तिकम् चउरो खलु मंखसुया, वत्तीकरणम्मि आहरणा ॥ १९९ ॥ यः सामायिकस्यार्थं 'पूर्वधरः' चतुर्दशपूर्वधारी सन् समस्तम् 'ओ' इति पादपूरणे विभापते, यतः परं किमपि न वक्तव्यमस्ति स व्यक्तिकरो वार्तिककर इत्येकार्थो । तसिंश्च व्यक्ति25 करणे चत्वारः खलु मङ्खसुता आहरणानि ॥ १९९ ॥ तान्येवाह फैलँगितको गाहाहिं, विइओ तइओ य वाइयत्थेणं । मख तिन्नि वि अकुटुंबभरा, तिगजोग चउत्थओ भरइ ॥ २०० ॥ १ "अधवा पण्डा-बुद्धिः, इणु गतौ, पण्डामनुगतः पण्डितः । साधुकारी साधुः ।" इति चूर्णौ ॥ २ गाथायुगलमिदं मूल-टीकालिखितप्रतिकृतिषु “एगपए उ दुगाई. १९७ एक्कणं एकदलं. १९८" इत्येवं व्यस्ततया वरीवृत्यते, किञ्च वृत्तिकृता चूर्णिकृता चापि क्रमभेदेनैतद्गाथायुगलं व्याख्यातमिति यथातझ्याख्याक्रममुपन्यस्तमस्माभिः ॥ ३ वितियपण बहुयतरा ता० ॥ ४°पए दुतिगाई ता.॥ ५ °सु पधा ता० ॥६°सेंति ता० ॥ ७ गाथेयं चूर्णी "जे जम्मि.' गाथा २०१ अनन्तरं व्याख्याताऽस्ति । ८ फल एणेको गाहाय वितियओ तइयओ वाचितत्येणं । ता० ॥ चतुष्कदृष्टान्तः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९७ - २०४ ] पीठिका | ६५ चत्वारो मङ्खाः । तेषामेकः फलकं गृहीत्वा हिण्डते, न गाथा उच्चरति, नापि वाचा कमप्यर्थं भाषते स न किञ्चिल्लभते । द्वितीयो न फलकं गृह्णाति, केवलं गाथाः पठन् हिण्डते सोऽपि न किञ्चिल्लभते । तृतीयो न फलकं गृह्णाति, नापि गाथा उच्चरति, परं वाचा कमप्यर्थं भाषते सोऽपि न किञ्चिल्लभते । चतुर्थस्तु फलकं गृहीत्वा गाथाः पठन् तासामर्थं च भाषमाणो हिण्डते, सर्वत्र लभते । आद्यास्त्रयोऽकुटुम्बभराः, चतुर्थः 'त्रिकयोगे' त्रिकयोगसम्प्र-5 युक्तः कुटुम्बभरः । एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः - व्यक्तावपि चत्वारो भङ्गाः - एकस्य सूत्रमायाति नार्थः, द्वितीयस्यार्थो न सूत्रम्, तृतीयस्य सूत्रमप्यायाति अर्थोऽपि चतुर्थस्य न सूत्रं नाऽप्यर्थः । अत्र द्वावाद्यौ चतुर्थश्च आद्यत्रिमङ्खपुरुषवन्न मोक्षलक्षणस्वकार्यप्रसाधकाः, तृतीयस्तु चतुर्थमङ्खवदात्मनो मोक्षप्रसाधकः || २०० || आह सम्प्रति कीदृशो व्यक्तिकरः ? इत्यत आह -- जे जम्मि जुगे पवरा, तेसि सगासम्मि जेण उग्गहियं । परिवाडीण पमाणं, वुच्छं वैत्तीकरो स खलु ॥ २०१ ॥ ये यस्मिन् युगे 'प्रवराः ' प्रधानाः तेषां 'सकाशे' समीपे 'येन' ग्रहण - धारणासमर्थेन अवगृहीतम्, कतिभिः परिपाटीभिः ? इत्यत आह-परिपाटीनां परिमाणमग्रे वक्ष्ये, स खलु तदा व्यक्तिकरः || २०१ ॥ अत्र शिष्यः प्राह निक्खेवा य निरुत्तार्णि जा य कहणा भवे पगासस्स । जह रिसभाईयाssहं किमेवं वद्धमाणो वि ॥ २०२ ॥ नायज्झयणाहरणा, इसिभासियमो पन्नगसुया य । एए हुंति अनियया, निययं पुण सेसमुस्सण्णं ॥ २०४ ॥ ४ °णि चेव जा १ 'गसंयुक्तः भा० ॥ २ वोच्छिति व ता० ॥ ३ वित्ति° ता० विना ॥ तु कहणा पकालस्स । जह रिसभादी आहु य तहेव किं वद्ध ता० । चूर्णिकृदभिमतोऽयं पाठः || ५ यावच्चतु कां० भा० ॥ ६ यावत्कथ' भा० ॥ बृ० ९ 10 ये निक्षेपाः चतुष्क- सप्तकादयः, यानि च निरुक्तानि सूत्रा - ऽर्थयोरनन्तरमुक्तानि, यो च चतुर्भिरनुयोगद्वारैः 'प्रकाशस्य' अर्थस्य कथना, चशब्दादेकार्थिकानामपि याँ च कथना, एतानि यथा 'ऋषभादयः' त्रयोविंशतिस्तीर्थकरा आख्यातवन्तः तथा किमेवं भगवान् वर्ध - 20 मानखाम्यप्याख्याति ? किं वाऽन्यथा ? इति उच्यते - तथैव ॥ २०२ ॥ ननु ते उच्चतराः, भगवान् वर्धमानखामी पुनः सप्तरत्त्रिप्रमाणः, ततः कथं तस्य तथैवाख्यानम् ? अत आह— धिय-संघणे तुल्ला, केवलभावे य विसमदेहा वि । केवलनाणं तं चिय, पनवणिज्जा य चरमे वि ॥ २०३ ॥ यथा विषमदेहा अपि तीर्थकृतो धृति संहनने केवलभावे च तुल्याः तथा प्ररूपणायामपि 25 तुल्याः । यतः 'चरमेऽपि' भगवति वर्धमानखामिनि तदेव केवलज्ञानं त एव च प्रज्ञापनीया भावा ये ऋषभादीनाम्, ततः कथं न तुल्या प्ररूपणा ? ॥ २०३ ॥ यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति 16 30 व्यतिकरः Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्तः जर . .... सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः ज्ञाताध्ययनेषु यानि आहरणानि दृष्टान्ताः ते हि कदाचित्त एव भवेयुर्ये ऋषभादिभिरुपन्यस्ताः, केचिदन्यथा वा ये प्रत्युत्पन्ना इति । तथा यानि ऋषिभाषितानि प्रकीर्णकश्रु. तानि च एतानि 'अनियतानि' कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्न भवन्ति; यानि च भवन्ति तान्यपि कदाचित् तथार्थयुक्तानि कदाचिद् अन्यथार्थोपेतानि । शेषं पुनः 'उत्सन्नं' प्रायेण 5 नियतम् ॥ २०४ ॥ आह कः पुनरत्र दृष्टान्तो यथा वर्धमानखाम्यपि तथैवाख्याति ? इति दृष्टान्तमाहवर्तनी जह सव्वजणवएसुं, एकं चिय सगडवत्तिणिपमाणं ।। विसमाणि य वत्थणी, सगडाईणं तह निरुत्ता ॥ २०५ ॥ यथा शकटादीनाम् , आदिशव्दाद् गळ्यादिपरिग्रहः, यद्यपि 'विषमाणि वस्तूनि' केषाञ्चि10 महान्ति केषाञ्चित् क्षुल्लकानि तथापि सर्वेष्वपि जनपदेषु एकमेव तदा तदा शकटवर्तिन्याः प्रमाणम् , सर्वत्राक्षाणां चतुर्हस्तप्रमाणत्वात् ; तथा निरुक्तानि, उपलक्षणमेतत् , निक्षेपादीनि च प्ररूपणामधिकृत्य तुल्यानि ॥ २०५॥ आह नन्ववश्यं पूर्वरथानां सम्प्रतिरथानां च विस्तरस्यास्ति विशेषः, एवं महाप्रमाणानां पूर्वमनुष्याणामल्पप्रमाणानामधुनातनमनुष्याणां [च ] विशेषो भवति, तत आह जइ वि य वत्थू हीणा, पुग्विल्लरहेहि संपयरहाणं ।। तह वि जुगम्मि जुगम्मी, सहत्थचउहत्थगा अक्खा ॥ २०६ ॥ यद्यपि पूर्वतनरथेभ्यः साम्प्रतरथानां वस्तूनि हीनानि तथापि युगे युगे सर्वत्राऽऽत्महस्तेन चतुर्हस्तका अक्षाः, ततः सर्वेष्वपि जनपदेष्वेकं शकटवर्तिन्याः प्रमाणम् । तथा यद्यपि पूर्वकाले महाप्रमाणा मनुष्याः सम्प्रतिकाले त्वल्पप्रमाणाः, तथापि सर्वेषां तदेव केवलज्ञानं 20 तदेव संहननं त एव च प्रज्ञापनीया भावा इति तुल्या प्ररूपणा ॥ २०६ ॥ ननु पञ्चधनुःशतिकप्रभृतीनां महान्ति इन्द्रियाणि, तेन तेषां प्रभूततरक्षेत्रे विषयोपलम्भविशेषः तथा केवलोपलम्भविशेषोऽपि स्याद् ? अत आह पुरिमेहिँ जइ वि हीणा, इंदियमाणा उ संपयनराणं । तह वि य सिं उवलद्धी, खित्तविभागेण तुल्ला उ ॥ २०७॥ 25 'पूर्वेभ्यः' पूर्वकालभाविभ्यः पुरुषेभ्यो यद्यपि 'साम्प्रतनराणां' सम्प्रतिमनुष्याणामिन्द्रि यमानानि हीनानि तथाप्यात्माङ्गुलमधिकृत्य क्षेत्रविभांगेनैषां तुल्या उपलब्धिः । तथाहिश्रोत्रादीन्द्रियप्रमाणं श्रोत्रादीन्द्रियविषयप्रमाणं चाऽऽत्मामुलतः, तच्च यथा पूर्वमनुष्याणां द्वादशयोजनादिकं क्षेत्रप्रमाणं तथाऽधुनातनमनुष्याणामपि । तथा चोक्तम् सोइंदियस्स णं भंते! केवइए विसए पन्नत्ते ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जइ30 भागाओ उक्कोसेणं वारसहिंतो जोयणेहिं[तो अच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविट्ठाति सद्दातिं सुणेति] इत्यादि (प्रज्ञापना पञ्चदशमिन्द्रियपदम् उ० १ सू० १९५)। एवं हीना-ऽधिकशरीरप्रमाणत्वेऽपि केवलेनोपलम्भस्तुल्य एवेति न कश्चिद्दोषः । अन्यच १°डाणि इणं तह निरुत्तं ता० ॥ २ भागे तेषां भा० हे. ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 विधेरे. विधिः भाष्यगाथाः २०५-११] शरीराश्रितानीन्द्रियाणि, ततः शरीरप्रमाणविषये तदाश्रितानामिन्द्रियाणामपि प्रमाणविशेषभावात् तद्विषयक्षेत्रोपलम्भविशेषः ॥ २०७ ॥ गतं निरुक्तद्वारम् । अधुना विधिद्वारावसरः, तत्र प्रथमतो विधेरेकाथिकान्याहविधिद्वारम् अणुपुवी परिवाडी, कमो य नायो ठिई य मजाया । कार्थिकानि होइ विहाणं च तहा, विहीऍ एगट्टिया हुंति ॥ २०८॥ आनुपूर्वी परिपाटी क्रमो न्यायः स्थितिः मर्यादा विधानमित्येतानि विधेरेकार्थिकानि भवन्ति ॥ २०८ ॥ तत्र येन विधिनाऽनुयोगः कर्त्तव्यस्तमाहसुत्तत्थो खलु पढमो, विइओ निजुत्तिमीसिओ भणिओ। धीमतः शिष्यानातइओ य निरवसेसो, एस विही भणिय अणुयोगे ॥ २०९॥ 108 श्रित्यानुप्रथमस्य श्रोतुः प्रथमं तावत् सूत्रार्थः कथनीयः । यथा-"नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्ग- योगस्य थीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए" (उ० १ सू० १) इति सूत्रम् । अस्यार्थःन इति प्रतिषेधे, 'न कल्पते' न वर्तते इत्यर्थः, नैषां ग्रन्थो विद्यत इति निर्ग्रन्थाः तेषाम्, वा विभाषायाम् , निम्रन्थीनां वा, 'आमम्' अपक्वम् , तलो वृक्षः, तले भवं तालं फलमित्यर्थः, प्रलम्बं-मूलम् , तदपि तस्यैव तलवृक्षस्य प्रतिपत्तव्यम् , ततः समाहारः, 'अभिन्नम्' अव्यपग-15 तजीवं प्रतिग्रहीतुमिति । एवं तावत् कथयितव्यं यावदध्ययनपरिसमाप्तिः । ततो द्वितीयस्यां परिपाट्यां 'नियुक्तिमिश्रितः' पीठिकया सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या च समन्वितः, सोऽपि यावदध्ययनपरिसमाप्तिस्तावत् कथनीयः । 'तृतीयः' तृतीयस्यां परिपाट्यामनुयोगो निरवशेषो वक्तव्यः, पद-पदार्थ-चालना-प्रत्यवस्थानादिभिः सप्रपञ्चं समस्तं कथयितव्यमिति भावः । एष विधिरनुयोगे ग्रहण-धारणादिसमर्थान् शिष्यान् प्रति वेदितव्यः ॥ २०९॥ मन्दमतीन् प्रति प्रकारान्तरेणाऽनुयोगविधिमाहमूयं हुंकारं वा, बाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा । मन्दमतत्तो पसंगपारायणं च परिणिट्ट सत्तमए ।। २१० ॥ तीन् शि ध्यानाधिप्रथमतो मूकं शृणुयात् , किमुक्तं भवति ?-प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीमासीत । ततो । त्यानुयोगद्वितीये श्रवणे हुकारं दद्यात् , वन्दनं कुर्यादित्यर्थः । तृतीये 'बाढकारं कुर्यात्' 'बाढमेवमे- 26 स्य विधिः तत् , नान्यथा' इति प्रशंसेदित्यर्थः । चतुर्थे गृहीतपूर्वा-ऽपरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात् , यथा 'कथमेतद् ?' इति । पञ्चमे 'मीमांसा' प्रमाणजिज्ञासां कुर्यात् । पष्ठे तदुत्तरोतरगुणप्रसङ्गः पारगमनं चाऽस्य भवति । ततः सप्तमे परिनिष्ठा, गुरुवदनुभाषत इत्यर्थः । यत एवं मन्दमेधसां श्रवणपरिपाट्या विवक्षिताध्ययनार्थावगमः ततस्तान् प्रति सप्तवारान् अनुयोगो यथाप्रतिपत्ति कर्त्तव्यः ॥ २१० ॥ अत्र परावकाशमाह चोएइ राग-दोसा, समत्थ परिणामगे परूवणया। एएसिं नाणत्तं, तुच्छामि अहाणुपुव्वीए ॥ २११ ।। १°या एते ता० ॥ २ °ही होति अणु ता० ॥ ३ °दोसे स ता० ॥ १० 30 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः शिष्येणा- शिष्यः 'नो(चो)दयति' प्रश्नयति-'समर्थे' ग्रहण-धारणासमर्थे तथा परिणामके, उपलक्षणनुयोग मेतत् , ग्रहण-धारणा[]समर्थेऽतिपरिणामके ऽपरिणामके] च या प्ररूपणा तया युष्माकं रागदातरि गुरौ राग- द्वेषौ प्रसजतः । तथाहि-तिसृभिः परिपाटीभिरेकान् ग्राहयतो रागः, अपरान् सप्तभिः परिपाद्वेषत्वा- टीभिर्गाहयतो द्वेषः; तथा परिणामकान् ग्राहयतो रागः, इतरानतिपरिणामका-ऽपरिणामकान् पादनम् 5 परिहरतश्च द्वेषः । एतेषां' ग्रहण-धारणासमर्था-ऽसमर्थानां परिणामकादीनां च 'यथाऽऽनुपू॰' क्रमेण नानात्वं वक्ष्ये ॥ २११ ॥ तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयन् प्रथमतो ग्रहण-धारणासमर्था-ऽसमर्थान् प्रति राग-द्वेषावाह मच्छरया अविमुत्ती, पूयासकार गच्छइ य खिन्नो । दोसो गहणसमत्थे, इयरे रागो उ वुच्छेयो ॥ २१२ ॥ 10 ग्रहण-धारणासमर्थ शिष्यं तिसृभिः परिपाटीभिहियत एतावन्ति कारणानि स्युः-एष बहुशिक्षितो मम सपनो भविष्यति, ततो मत्सरतया तिसृभिः परिपाटीभिस्तस्य प्र(मा)हणम् , अन्यथा एकया परिपाट्या तं ग्राहयेत् । 'अविमुक्तिः' इति एष सूत्रा-ऽर्थेषु समाप्तेषु मां मोक्ष्यते, इतरथा तु शिष्यपरिवारत्वेन वर्तत इत्यविमुक्तिकारणम् । अथवा गृहीतसूत्रा-ऽर्थस्यास्य पूजासत्कारो भविष्यति । 'खिन्नो वा' परिश्रान्तोऽन्यं गणं गमिष्यति । “वोच्छेय(यो)"ति 15 मद्वसतौ चानुयोगस्य व्यवच्छेदो भविष्यति, अन्यस्य तथाविधशिष्यस्याभावात् । एवं कारणानि सम्भाव्य ग्रहण-धारणासमर्थे तिसृभिः परिपाटीभिरनुयोगं वदतो द्वेषः । 'इतरस्मिन्' जडे रागः, यथातदवबोधमनुयोगस्य प्रवर्तनात् ॥ २१२ ॥ अत्राऽऽचार्यः प्राहभाचार्यस्य निरवयवो न हु सेको, सयं पगासो उ संपयंसेउं । प्रतिवचः कुंभजले वि हु तुरिउज्झियम्मि न हुँ तिम्मए लिट्ठ ॥२१३ ॥ 20 'न हु' नैव सूत्रस्य 'प्रकाशः' अर्थः 'सकृद्' एकया परिपाट्या निरवयवः' समस्तः सम्प्रदर्शयितुं शक्यः, तस्य ग्रहण-धारणासमर्थस्यापि तथाऽवधारयितुमशक्यत्वात् । एतदेव प्रतिवस्तूपमया द्रढयति-न हि कुम्भजलेऽपि त्वरितमुज्झिते लेष्टुः सर्वात्मना तिम्यते, एवमेषोऽपि ग्रहण-धारणासमर्थोऽपि नैकया परिपाट्याऽवधारयितुमीश इति तिसृभिः परिपाटीभिर नुयोगकथनमित्यदोषः ॥ २१३ ॥ 25 साम्प्रतमतिपरिणामका-ऽपरिणामकान् परिहरतो द्वेषाभावमाह सुत्त-ऽत्थे कहयंतो, पारोक्खी सिस्सभावमुवलब्भ । __ अणुकंपाऍ अपत्ते, निजूहइ मा विणस्सिज्जा ॥ २१४ ॥ 'परोक्षी' परोक्षज्ञानोपेतः शिप्येभ्यः सूत्रा-ऽर्थो कथयन् विनया-ऽविनयकरणादिना तेषां शिष्याणां भावम्-अभिप्रायमुपलभ्य 'अपात्राणि' अपात्रभूतान् शिष्यान् अनुकम्पया 30 'नि!हयति' अपवदति-न तेभ्यः सूत्रा-ऽौँ कथयति, श्रुताशातनादिना मा विनश्येयुरिति कृत्वा ॥ २१४ ॥ अत्रैवार्थे दृष्टान्तमा(न्ताना)ह १ गच्छिति य ता० ॥ २ दोसा ग° ता० ॥ ३ य वोच्छेदो ता० ॥ ४ मम प्रसन्नो भवि भा० विना ॥ ५ सका भा० ता० ॥६ वि ता० ॥ ७त्तऽत्थं क° ता० ॥ ८°पाय अं ता० ॥ ९ "णिजहति ति न तेभ्य अपवाग्रं कथयतीत्यर्थः" इति। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका | दारुं धाउं वाही, बीए कंकडुय लक्खणे सुमिणे । एतेण अजोग्गे, एवमाई उदाहरणा ।। २१५ ।। 'एकान्तेनायोग्ये' अपरिणामकेऽतिपरिणामके च दारु धातुः व्याधिः वीजानि काकटुको लक्षणं स्वप्न इत्येवमादीनि ' उदाहरणानि ' दृष्टान्ताः ॥ २१५ ॥ तत्र दारुदृष्टान्तमाहको दोसो एरंडे, जं रहदारुं न कीए तत्तो । को वा तिणिसे रोगो, उवजुञ्ज जं रहेंगे || २१६ ॥ 'एरण्डे' 'एरण्डको द्वेषो यत् तस्मात् 'रथदारु' रथयोग्यं दारु न क्रियते ?, को वा तिनिशे रागो यदुपयुज्यते स रथाङ्गेषु ? ॥ २१६ ॥ भाष्यगाथाः २१२-२० ] जं पिय दारुं जोग्गं, जैस्स उ वत्थुस्स तं पि हु न सका । जो उमणिविउं, तच्छण दल - वेह - कुस्सेहिं ॥ २१७ ॥ 'यदपि' वस्तु '[यस्य] वस्तुनः' अक्षादेर्योग्यं दारु तदपि तक्षण दल - वेध - कुशैर निर्माप्य योजयितुमशक्यं किन्तु निर्माप्य, एवमिहापि योग्योऽपि यावदवक्तनैः सूत्रैर्न परिकमितस्तावन्न कल्पं व्यवहारं वाऽध्यापयितुं योग्यः । तत्र तक्षणं प्रतीतम्, दलानि द्विधा त्रिधा वा काष्ठस्य पाटनम्, वेधः प्रतीतः, कुशो यो वेधे प्रान्तः प्रवेश्यते ॥ २१७ ॥ सम्प्रति धातुदृष्टान्तमाहएमेव अधाउं उज्झिऊण धाऊण कुणइ आयाणं । न य अकमेण सक्का, धाउम्मि वि इच्छियं काउं ॥ २९८ ॥ 'एवमेव' राग-द्वेषौ विना अधातुं त्यक्त्वा धातूनामादानं करोति, न च धातावप्यक्रमेणेप्सितं कर्त्तुं शक्यं किन्तु क्रमेण; एवमिहाप्ययोग्यान् परिहरतो योग्यानपि क्रमेण ग्राहयतो न द्वेषः ॥ २९८ ॥ अधुना व्याधिदृष्टान्तमाह - ―――― १ रती त° ता० ॥ २ रातो उ° ता० ॥ ५° तेण य जतणासज्झो ता० ॥ ६ य ता० ॥ ६९ arati नाउँ, मोतुमवीए उ करिसतो सालिं । वह विरोहण जोगे, न यावि से पक्खवाओ उ ॥ २२० ॥ यथा कर्षको बीजमवीजं च ज्ञात्वा अवीजानि मुक्त्वा 'शालिं' शालिवीजानि वपति, न च तस्मिन् विरोहणयोग्ये वीजे "से" तस्य कर्षकस्य पक्षपातः ' रागः, एवमत्रापि भावनीयम् ॥ २२० ॥ सम्प्रति काकटुकदृष्टान्तमाह 6 सुहसज्झो जत्तैणं, जत्तासज्झो असझवाही हैं। जह रोगे पारिच्छा, सिस्ससभावाण वि तहेव ॥ २१९ ॥ यथा रोगे वैद्येन परीक्षा क्रियते, यथा- एष सुखसाध्यः, एष यत्नेन साध्यः, एष चासाध्यव्याधिः यत्नेनाप्यसाध्यः । परीक्षाऽनन्तरं च राग-द्वेषौ विना तदनुरूपा प्रवृत्तिः, एवं शिष्यस्वभावानामपि ‘तथैव' राग-द्वेषाभावेन परीक्षा क्रियते, तदनुरूपा च प्रवृत्तिः ॥ २१९ ॥ अधुना बीजदृष्टान्तमाह 25 10 - 20 15 धातु 30 ३ तस्स ता० ॥ ४ 'म्मवियं त° ता० ॥ ७ वी ना ता० ॥ ८ साली ता० ॥ दादयो दृष्टान्ताः दारु दृष्टान्तः दृष्टान्तः व्याधि दृष्टान्तः बीज दृष्टान्तः Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ . दृष्टान्तः लक्षणदृष्टान्तः खान- 10 सनियुक्ति-भाग्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः कंकहुए को दोसो, जं अग्गी तं तु न पयई दित्तो । काइटुक को वा इयरे रागो, एमेव ये सूवकारस्स ॥ २२१ ॥ को द्वेषोऽमेः काङ्कटुके यदग्निर्दीप्तोऽपि तं न पचति !, को वा इतरस्मिन् रागो यत् पाचयति !, नैव कश्चित् । एवमत्रापि भावनीयम् ॥ २२१ ॥ अधुना लक्षणदृष्टान्तमाह जे उ अलक्खणजुत्ता, कुमारगा ते निसेहिउं इयरे।। रज्जरिहे अणुमन्नइ, सामुद्दो नेय विसमो उ ॥ २२२ ।। यथा 'सामुद्रः सामुद्रलक्षणपरिज्ञाता राज्ञि व्यपगते तस्य ये कुमारा अलक्षणयुक्तास्तान् निषिध्य 'इतरान्' लक्षणोपेतान् राज्यानिनुमन्यते, न च स तथाऽनुमन्यमानः 'विषमः' राग-द्वेषवान् , एवमत्रापि द्रष्टव्यम् ॥ २२२ ॥ स्वप्नद्दष्टान्नमाद - जो जह कहेइ सुमिणं, तस्स तह फलं कहेइ तन्नाणी । दृष्टान्तः रत्तो वा दुट्ठो वा, न यावि वत्तव्ययमुवेह ॥ २२३ ।। यो यथा खप्नं कथयति तस्य तथा 'तज्ज्ञानी' खमज्ञानी खमफलं कथयति, न च स तथा कथयन् रक्त इति वा द्विष्ट इति वा वक्तव्यतामुपैति, एवमत्रापि ॥ २२३ ॥ एवमेकान्तेनायोग्या ये शिप्यास्तेषां परिहारे राग-द्वेषाभावे दृष्टान्ता अमिहिताः । सम्प्रति 16 कालान्तरयोग्यानपरिणतान् क्रमेण परिणामयतो राग-द्वेषाभावे दृष्टान्तमा(न्ताना) ह अम्यादयो ___ अग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमाईया। अपरिणयजणे एए, सप्पडिवक्खा उदाहरणा ॥ २२४ ॥ 'अपरिणते जने' कालान्तरयोग्ये एतानि 'सप्रतिपक्षाणि' पूर्वमयोग्यतायां पश्चाद् योग्यतायामित्यर्थः उदाहरणानि । तद्यथा-अनिर्बालो ग्लानः सिंहो वृक्षः 'करीलं' वंशकरीलम् , 20 आदिशब्दाद्वक्ष्यमाणहस्त्यादिदृष्टान्तपरिग्रहः ॥ २२४ ॥ तत्र प्रथमममिदृष्टान्तमाहअग्नि जह अरणीनिम्मविओ, थोवो विउलिंधणं न चाएइ । दहिउं सो पज्जलिओ, सव्वस्स वि पञ्चलो पच्छा ।। २२५ ॥ एवं खं थूलबुद्धी, निउणं अत्थं अपञ्चलो घेत्तुं । सो चेव जणियबुद्धी, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा ॥ २२६ ॥ 25 यथा अरणिनिर्मापितः स्तोको वहिर्विपुलमिन्धनं न दग्धुं शक्नोति, स एव पश्चात् प्रज्व लितः सर्वस्यापीन्धनजातस्य दहने 'प्रत्यलः' समर्थः ।। २२५ ॥ ____ एवमग्निदृष्टान्तेन प्रथमतः शिप्यः स्थूलबुद्धिः सन् निपुणमर्थ ग्रहीतुमप्रत्यलः । पश्चात् स एव शास्त्रान्तरैः 'जनितबुद्धिः' उत्पादितबुद्धिः सर्वस्यापि शास्त्रस्य ग्रहणप्रत्यलो भवति ॥ २२६ ॥ बालदृष्टान्तमाहबाल- 30 देहे अभिववृते, बालस्स उ पीहगस्स अभिवुड्डी । दृष्टान्ती अइबहुएण विणस्सइ, एमेवऽहुणुट्टिय गिलाणे ॥२२७॥ • १ तं न पचते इद्धो ता० ॥ २ य सुत्तकारस्स ता० ॥ ३ निसिद्धि ता० ॥ ४ रत्तो त्ति य दुट्टो त्ति य न ता० ॥ ५ तु ता० ॥ दृष्टान्ताः दृष्टान्तः ग्लान Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ वृक्ष 'करील दृष्टान्ताः 10 भाष्यगाथाः २२१-३१] पीठिका। बालस्य देहे' अभिवर्द्धमाने तदनुसारेण दातव्यस्य 'पीहकस्य' आहारस्यापि(स्याभि)वृद्धिर्भवति, देहवृद्ध्यनुसारतः पीथकमपि क्रमशो वर्द्धमानं दीयते इति भावः । यदि पुनरतिबहु दीयते तदा स विनश्यति । ग्लानदृष्टान्तमाह - 'एवमेव' बालगतेन प्रकारेणाधुनोत्थितेऽपि ग्लाने वक्तव्यम्-यथा ग्लानोऽप्यधुनोस्थितः क्रमेणाभिवर्द्धमानमाहारं गृह्णाति, एकवारमतिप्रभूतग्रहणे विनाशप्रसङ्गात् । एवं शिप्योऽपि क्रमेण योग्यतानुरूपं शास्त्रमादत्ते, प्रथमत एवा-5 तिनिपुणार्थशास्त्रग्रहणे बुद्धिमङ्गप्रसक्तेः ॥ २२७ ॥ सिंहादिदृष्टान्तानाहखीर-मिउपोग्गलेहि, सीहो पुट्ठो उ खाइ अट्ठी वि । सिंहरुक्खो विवन्नओ खलु, वंसकरिल्लो य नहछि जो ।। २२८ ॥ ते चेव विवढेता, हुंति अछेजा कुहाडमाईहिं । तह कोमला वि बुद्धी, भजइ गहणेसु अत्थेसु ॥ २२९ ॥ सिंहः प्रथमतः क्षीर-मृदुपुद्गलैः स्वमात्रा पोष्यते । ततः पुष्टः सन् अस्थीन्यपि स खादति । तथा वृक्षो द्विपर्णो वंशकरीलम् एतौ द्वावपि प्रथमतो नखच्छेद्यौ, ततः पश्चादभिवर्द्धमानौ यतस्ततः कुठारादिभिरप्यच्छेद्यौ भवतः । एवं शिप्यस्यापि प्रथमतः कोमला बुद्धिर्भवति, ततः सा गहनेष्वर्थेषु 'भज्यते' भङ्गमुपयाति । क्रमेण तु शास्त्रान्तरदर्शनतोऽभिवर्द्धमाना कठोरा कठोरतरोपजायते इति न कचिदपि भङ्गमुपयाति ॥ २२८ ॥ २२९ ॥ 15 एतदेवोपदिशन्नाह निउणे निउणं अत्थं, थूलत्थं थूलबुद्धिणो कहए। बुद्धीविवद्धणकरं, होहिइ कालेण सो निउणो ॥ २३०॥ निपुणे निपुणमर्थ कथयेत् , स्थूले स्थूलमर्थ कथयेत् । कथम्भूतम् ? इत्याह-बुद्धिविवर्द्धनकरम् । एवं सति स कालेन निपुणो भवति, अन्यथा बुद्धिभङ्गप्रसङ्गतो न स्यात् ३० ॥ २३० ॥ साम्प्रतमादिशब्दसूचितान् हस्त्यादीन् दृष्टान्तानाहसिद्धत्थए वि गिण्हइ, हत्थी थूलगहणे सुनिम्माओ। हस्त्यादयो सरवेह-छिज-पवए, घड-पड-चित्ते तहा धमए ॥ २३१ ॥ हस्ती स्थूलमहणे सुनिर्मातः सन् पश्चात् सिद्धार्थकानपि गृह्णाति । तथाहि-नवको हस्ती शिष्यमाणः प्रथमं काष्ठानि ग्राह्यते, तदनन्तरं क्षुल्लकान् पाषाणान् , ततो गोलिकाः, ततो25 बदराणि, तदनन्तरं सिद्धार्थकानपि । यदि पुनः प्रथमत एव सिद्धार्थकान् ग्राह्यते ततो न शक्नोति ग्रहीतुमिति । एवं खरवेध-पत्रच्छेद्य-प्लवक-घटकारक-पटकारक चित्रकारक-धमकाश्च दृष्टान्ता भावनीयाः। ते चैवम्-प्रथमं धानुष्कः स्थूलद्रव्यं व्यर्द्ध शिक्षति, पश्चात्स वालम् , पश्चादतिसुनिर्मातः खरेणापि विध्यति । तथा पत्रच्छेद्यकार्यपि प्रथममकिञ्चित्करैः पत्रैः शिक्ष्यते, ततो यदा निर्मातो भवति तदा ईप्सितं पत्रच्छेद्यं कार्यते । तथा प्लवकोऽपि प्रथमं वंशे लगयित्वा 30 प्लान्यते, ततः पश्चादभ्यस्यन् आकाशेऽपि तानि तानि करणानि करोति । घटकारोऽपि प्रथमतः शरावादीनि कार्यते, पश्चात् शिक्षितो घटानपि करोति । पटकारोऽपि प्रथमतः स्थूलानि १°हे परिव भा० ॥ २ अट्ठीणि ता० ॥ ३ द्विवर्णो भा० विना ।। दृष्टान्ताः Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ 16 सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः चीवराणि शिक्ष्यते, ततः सुशिक्षितः शोभनानपि पटान् वयति । चित्रकारोऽपि प्रथममण्डकं चित्रयितुं शिक्ष्यते, ततः शेषानवयवान् , पश्चात् सुशिक्षितः सर्व चित्रकर्म सम्यक् करोति । धमकोऽपि पूर्वं शृङ्गादीनि धमयति (धमति), पश्चाच्छलम् ॥ २३१ ॥ अत्रैवोपनयन्नाह जत्थ मई ओगाहइ, जोग्गं जं जस्स तस्स तं कहए । परिणामा-ऽऽगमस रिसं, संवेगकरं सनिव्वेयं ॥ २३२ ॥ यथैते हस्त्यादयः क्रमेण निर्माप्यन्ते एवं शिष्यस्यापि यत्र मतिरवगाहते यस्य च यद् योग्यं शास्त्रं तस्य तत् कथयति । कथम्भूतम् ? इत्याह–'परिणामा-ऽऽगमसदृशं' यस्य यादृशः परिणामो यस्य च यावानागमस्तत्सदृशम् , यथा-ईदृशपरिणामस्येदम् एतावदागमस्य पुनरिदमिति । पुनः किंविशिष्टं कथयितव्यम् ?, अत आह-'संवेगकरं' सिद्धिदेवलोकः सुकुलो10त्पत्तिरित्यादेरभिलाषः संवेगस्तत्करणशीलं संवेगकरम् , तथा नरकः तिर्यग्योनिः कुमानुषत्वमित्यादेविरक्तता निर्वेदस्तकरणशीलं निर्वेदकरम् ॥ २३२ ॥ तदेवं योग्येऽपि क्रमेण दाने राग-द्वेषाभाव उक्तः । 'सम्प्रति शिष्येष्वाचार्येण परिणामकत्वं परीक्ष्यानुयोगः कर्त्तव्यः, शिष्यैरप्याचार्य परीक्ष्य तस्य सकाशे श्रोतव्यम्' इति शिष्या-ऽऽचार्यपरस्परविधिमतिदेशत आह गिण्हंत-गाहगाणं, आइसुएसु उ विही समक्खाओ। सो चेव य होइ इहं, उज्जोगो वनिओ नवरं ॥ २३३ ॥ गृढतां-शिष्याणां ग्राहकस्य-आचार्यस्य 'आदिसूत्रेषु' सामायिकादिषु यो विधिः समाख्यातः "गोणी चंदण" (आव० नियु० गाथा १३६) इत्यादिलक्षणः स एवेह निर. वशेषो वक्तव्यः । यस्तु शिष्याणामनुयोगकथने 'उद्योगः' उद्यमो यथा तिसृभिः परिपाटीभि20 रथवा सप्तभिः कर्त्तव्यः, स नवरं सप्रपञ्चमुपवर्णितः ॥ २३३ ॥ गतं विधिद्वारम् । अधुना प्रवृत्तिद्वारं वक्तव्यम् । प्रवृत्तिः प्रवाहः प्रसूतिरित्येकार्थाः । कथमनुयोगः प्रवर्तते ! इति । सा च प्रवृत्तिर्द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतः प्रवृत्तिमाहप्रवृत्तिद्वारम् अणिउत्तो अणिउत्ता, अणिउत्तो चेव होइ उ निउत्ता। नि(ने)उत्तो अणिउत्ता, उ निउत्तो चेव उ निउत्ता ।। २३४ ॥ निउत्ता अनिउत्ताणं, पवत्तई अहव ते वि उ निउत्ता। दवम्मि होइ गोणी, भावम्मि जिणादयो हुंति ॥ २३५ ॥ द्रव्यतः प्रसवे गौदृष्टान्तो भवति, भावे जिनादयः । तत्र गवि दोहकेन सह चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-दोहकोऽनियुक्तो गौरप्यनियुक्ता १ दोहकोऽनियुक्तो गौर्नियुक्ता २ दोहको 30 नियुक्तो गौरनियुक्ता ३ दोहको नियुक्तो गौरपि नियुक्ता ४ । एवमाचार्य-शिष्येष्वपि भङ्गचतुष्टयं योजनीयम् , तच्चाग्रे योक्ष्यते । तत्र तृतीये भङ्गे नियुक्त आचार्यों बलादप्यनियुक्तानां १ "तिद्धी य देवलोगो, सुकुलुप्पती य होति संवेगो । णरओ तिरिक्खजोणी, कुमाणुसत्तं च णिवेतो ॥१॥” इति चूर्णौ ॥ २ रणीयशी भा० ॥ ३°व ते वि उ ता० ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २३२-३९] पीठिका । शिष्याणामनुयोगं प्रवर्त्तयति । यदि वा द्वितीये भङ्गे तेऽपि शिष्या नियुक्ता अनियुक्तमाचार्यमनुयोगे प्रवर्त्तयन्ति । एवं तृतीये द्वितीये च भङ्गेऽनुयोगस्य प्रवृत्तिः । प्रथमे तु सर्वथा न भवति । चतुर्थे प्रवृत्तिनिःप्रतिपक्षा ॥ २३४ ॥ २३५ ॥ तत्र गोदृष्टान्तविषयं भङ्गचतुष्टयं व्याख्यानयति अप्पण्डया य गोणी, नेव य दुद्धा समुजओ दुर्बु । खीरस्स कओ पसवो, जइ वि य सा खीरदा घेणू ॥ २३६ ॥ बीए वि नत्थि खीरं, "थेवं व हविज एव तइए वि । अत्थि चउत्थे खीरं, एसुवमा आयरिय-सीसे ॥२३७॥ अहवा अणिच्छमाणमवि किंचि उजोगिणो पवत्तंति । तइए सारिते वा, होज पवित्ती गुणिते वा ॥ २३८॥ 10 गौरप्रसुता, नैव च दोग्धा तां दोग्धुं समुद्यतः, ततो यद्यपि सा क्षीरदा धेनुस्तथाप्यस्मिन् प्रथमभने कुतः क्षीरस्य प्रसवः ? नैव कुतश्चित् ॥ २३६ ॥ द्वितीयेऽपि भङ्गे 'दोहकोऽनियुक्तो गौनियुक्ता' इत्येवंरूपे नास्ति क्षीरम् , दोहकस्यानियुक्तत्वात् । अथवा गौः प्रस्नुतेति स्तनेषु गलत्सु स्तोकं क्षीरं भवेत् । एवं तृतीयेऽपि भङ्गे 'दोहको नियुक्तो गौरनियुक्ता' इत्येवंलक्षणे नास्ति क्षीरप्रसवः, स्तोकं वा स्याद् दोहकगुणेन । 15 चतुर्थे पुनर्भङ्गे गौरपि प्रस्नुता दोहकोऽपि नियुक्त इत्यस्ति क्षीरप्रसवः । एषा उपमा' भङ्गचतुष्टयात्मिका आचार्य-शिप्ययोरप्यनुयोगस्य प्रसवे वेदितव्या । तथाहि-आचार्योऽप्यनियुक्तः शिष्या अपि अनियुक्ता इति प्रथमभङ्गे नास्त्यनुयोगस्य प्रवृत्तिः । अनियुक्त आचार्यः शिष्या नियुक्ता इति द्वितीयेऽपि भङ्गे नानुयोगः, आचार्यस्यानियुक्तत्वात् ॥ २३७ ॥ अथवा अनियुक्तमाचार्यमनिच्छन्तमपि उद्योगिनः शिप्याः किञ्चित्प्रतिपृच्छादिभिरनुयोगं 20 कर्तुं प्रवर्त्तयन्ति, ततो भवति द्वितीयेऽपि भङ्गेऽनुयोगस्य प्रवृत्तिः । 'तृतीये' 'आचार्यों नियुक्तः शिष्या अनियुक्ताः' इत्येवंरूपे नास्त्यनुयोगस्य सम्भवः, अथवा पुनः पुनः सारयत्याचार्य अथवा श्रोतुमनिच्छन्तमपि शैलसमानं कश्चिच्छ्रोतारं पुरतो विन्यस्य ‘मा नश्यत्वनुयोगः' इति 'गुणयति' गुणननिमित्तमनुयोगं कुर्वति भवेदनुयोगः ॥ २३८ ॥ अत्र दृष्टान्तः कालकाचार्यः । तमेवाह सागारियमप्पाहण, सुवन्न सुयसिस्स खंतलक्खेण । कहणा सिस्सागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च ॥ २३९ ॥ चार्यकउजेणीए नयरीए अञ्जकालगा नामं आयरिया सुत्त-ऽत्थोववेया बहुपरिवारा विहरति । थानकम् तेसिं अञ्जकालगाणं सीसस्स सीसो सुत्त-ऽत्थोववेओ सागरो नाम सुवनभूमीए विहरइ । ताहे अजकालया चिंतेंति-'एए मम सीसा अणुओगं न सुणंति तओ किमेएसिं मज्झे 30 चिट्ठामि ?, तत्थ जामि जत्थ अणुयोगं पवत्तेमि, अवि य एए वि सिस्सा पच्छा लजिया १दोद्धा ता० ॥ २ दोर्द्ध ता० ॥ ३ विइए ता० ॥ ४ थोवं ता० ॥ ५°चार्याः भा० ॥ ६°य अप्पा ता० ॥ 25 कालका ०१० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनियुक्ति-भाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः सोच्छिहिति । एवं चिंतिऊण सेज्जायरमापुच्छंति-कहं अन्नत्थ जामि ? तओ मे सिम्सा सुणेहिंति, तुमं पुण मा तेसिं कहेजा, जइ पुण गाढतरं निबंध करिज्जा तो खरंटेड साहेजा, जहा-सुवन्नभूमीए सागराणं सगासं गया । एवं अप्पा हित्ता रत्तिं चेव पसुत्ताणं गया सुवण्णभूमि । तत्थ गंतुं खंतलक्खेण पविट्ठा सागराणं गच्छं । तओ सागरायरिया 'खंत'त्ति काउं 5 तं नाढाइया अव्भुट्टाणाईणि(ईहिं) । तओ अत्थपोरिसीवेलाए सागरायरिएणं भणिया-खंता ! तुम्भं एयं गमइ ? । आयरिया भणंति-आमं । 'तो खाई सुणेह'त्ति पकहिया, गवायंता य कहिंति । इयरे वि सीसा पभाए संते संभंता आयरियं अपासंता सवत्थ मग्गिउं सिज्जायरं पुच्छंति । न कहेइ, भणइ य-तुभं अप्पणो आयरिओ न कहेइ मम कहं कहेइ ? । ततो आउरीभूएहिं गाढनिब्बंधे कए कहियं, जहा-तुभच्चएण निवेएण सुवनभूमीए सागराणं 10 सगासं गया । एवं कहित्ता ते खरंटिया । तओ ते तह चेव उच्चलिया सुवनभूमि गंतुं । पंथे लोगो पुच्छइ-एस कयरो आयरिओ जाइ ? । ते कहिंति अञ्जकालगा। तओ सुवन्नभूमीए सागराणं लोगेण कहियं, जहा-अन्जकालगा नाम आयरिया बहुस्सुया बहुपरिवारा इहागंतुकामा पंथे वट्ठति । ताहे सागरा सिम्साणं पुरओ भगति-मम अजया इंति, तेसिं सगासे पयत्थे पुच्छीहामि ति । अचिरेणं ते सीसा आगया । तत्थ अग्गिल्लेहिं पुच्छिज्जंति15 किं इत्थ आयरिया आगया चिटुंति ? । नस्थि, नवरं अन्ने खंता आगया । केरिसा ? । वंदिए नायं 'एए आयरिया' । ताहे सो सागरो लजिओ 'बहुं मए इत्थ पलवियं, खमासमणा य वंदाविया' । ताहे अवरण्हवेलाए 'मिच्छा दुक्कडं' करेइ ‘आसाइय'त्ति । भणियं च णेण-केरिसं खमासमणो ! अहं वागरेमि ? । आयरिया भणंति-सुंदरं, मा पुण गवं करि जासि । ताहे धूलीपुंजदिटुंतं करे(रे)ति-धूली हत्थेण घेत्तुं तिसु टाणेसु ओयारेति-जहा एस 20 धूली ठविजमाणी उखिप्पमाणी य सव्वत्थ परिसडइ, एवं अत्थो वि तित्थगरेहितो गणहराणं गणहरेहिंतो जाव अम्हं आयरि-उवज्झायाणं परंपरएणं आगयं, को जाणइ कस्स केइ पज्जाया गलिया?, ता मा गचं काहिसि । ताहे 'मिच्छा दुक्कडं' करित्ता आढत्ता अजकालिया सीस-पसीसाण अणुओगं कहेउं । सम्प्रत्यक्षरगमनिका-सागारिकः-शय्यातरस्तस्य अप्पाहणं-सन्देशकथनम् । स्वयमा25 चार्याणां सुवर्णभूमौ सुतशिप्यस्य-शिप्यस्यापि शिप्यस्य सागराभिधानस्य "खंतलक्खेण" वृद्धव्याजेन गमनम् । पश्चाच्छिप्याणां सागारिकेण कथना, यथा-आचार्याः सुवर्णभूमौ सागरस्यान्तिकं गताः । ततः शिष्याणां तत्रागमनम् । सागरं गर्वमुद्वहन्तं प्रति धूलीपुञ्जोपमानमिति ॥ २३९ ।। चतुर्थभङ्गमधिकृत्याह निउत्तो उभउकालं, भयवं कहणाएँ वद्धमाणो उ । 30 गोयममाई वि सया, सोयव्वे हुँति उ निउत्ता ॥ २४० ॥ 'नियुक्तः' उभयकालमनुयोगं करोति । 'नियुक्ताः' उभयकालं शृण्वन्ति । अत्र कथनायां दृष्टान्तो भगवान् वर्द्धमानखामी । श्रोतव्ये सदा नियुक्ता दृष्टान्ता भवन्ति गौतमादयः ॥ २४० ॥ गतं प्रवृत्तिद्वारम् । इदानीं केन वेति द्वारमाह Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २४०-४४] पीठिका । केन वेति द्वारम् देस-कुल-जाइ-रूवी, संघइणी धिइजुओ अणासंसी। अनुयोग दातुर्गुणाः अदिकंथणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवको ॥ २४१ ॥ जियपरिसो जियनिदो, मज्झत्थो देस-काल-भावन्नू । आसन्नलद्धपइभो, नाणाविहदेसभासन्नू ॥२४२॥ पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तऽत्थतदुभयविहन्नू । आहरण-हे उ-उवणय-नयनिउणो गाहणाकुसलो ॥ २४३ ॥ ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं ॥ २४४ ॥ युतशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते-देशयुतः कुलयुत इत्यादि । तत्र यो मध्यदेशे जातो यो 10 वाऽर्द्धषड्विंशतिषु जनपदेषु स देशयुतः, स ह्यार्यदेशभणितिं जानाति, ततः सुखेन तस्य समीपे शिष्या अघीयत इति तदुपादानम् । कुलं पैतृकम् , तथा च लोके व्यवहारः-इक्ष्वाकुकुलजोऽयम् नागकुलजोऽयमित्यादिः, तेन युतः प्रतिपन्नार्थनिर्वाहको भवति । जातिर्मातृकी, तया युतो विनयादिगुणवान् भवति । रूपयुतो लोकानां गुणविषयबहुमानभाग् जायते, “यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति" इति प्रवादात् । संहननयुतो व्याख्यायां न श्राम्यति । धृति-1B युतो नातिगहनेष्वर्थेषु भ्रममुपयाति । 'अनाशंसी' श्रोतृभ्यो वस्त्राद्यनाकाङ्की । 'अविकत्थनः' नातिबहुभाषी । ['अमायी' न शाठ्येन शिष्यान् वाहयति ।] स्थिरा-अतिशयेन निरन्तराभ्यासतः स्थैर्यमापन्ना अनुयोगपरिपाट्यो यस्य स स्थिरपरिपाटिः, तस्य हि सूत्रमर्थो वा न मनागपि गलति । 'गृहीतवाक्यः' उपादेयवचनः, तस्य ह्यल्पमपि वचनं महार्थमिव प्रतिभाति ॥२४१॥ 'जितपरिषत्' न महत्यामपि पर्षदि क्षोभमुपयाति । 'जितनिद्रः' रात्रौ सूत्र-20 मर्थं वा परिभावयन् न निद्रया बाध्यते । 'मध्यस्थः' सर्वेषु शिष्येषु समचित्तः । देशं कालं भावं जानातीति देश-काल-भावज्ञः, स हि देशं कालं भावं च लोकानां ज्ञात्वा सुखेन विहरति, शिष्याणां चाभिप्रायान् ज्ञात्वा तान् सुखेनानुवर्तयति । 'आसन्नलब्धप्रतिभः' परवादिना समाक्षिप्तः शीघ्रमुत्तरदायी । नानाविधानां देशानां भाषा जानातीति नानाविधदेशभाषाज्ञः, स हि नानादेशीयान् शिष्यान् सुखेन शास्त्राणि ग्राहयति ॥ २४२ ॥ पञ्चविध आचारः- 23 ज्ञानाचारादिरूपस्तस्मिन् 'युक्तः' उद्युक्तः, खयमाचारेष्वस्थितस्यान्यानाचारेषु प्रवर्तयितुमशक्यत्वात् । सूत्रा-ऽर्थग्रहणेन चतुर्भङ्गी सूचिता-एकस्य सूत्रं नार्थः, द्वितीयस्याथों न सूत्रम् , तृतीयस्य सूत्रमप्यर्थोऽपि, चतुर्थस्य न सूत्रं नाप्यर्थः; तत्र तृतीयभङ्गग्रहणार्थं तदुभयग्रहणम् , सूत्रा-ऽर्थ-तदुभयविधीन् जानातीति सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः । आहरणं-दृष्टान्तः, हेतुश्चतुर्विधो यापकादिः या दशवैकालिकनियुक्तौ, यदि वा द्विविधो हेतुः कारको ज्ञापकश्च, तंत्र 30 १ अहवा वि इमो हेऊ, विन्नेओ तत्थिमो चउविअप्पो । जावग थावग वंसग, लूसग हेऊ चउत्थो उ ॥ अध्य० १ गाथा ८६॥ २ "तत्र कारको यथा-मृत्पिण्ड-चक्र-सूत्रोदक-कुलालसामग्रीलक्षणो हेतुर्घटादीनां निर्वर्तकत्वात् कारकः । ज्ञापको यथा-तैल-स्थाल-वर्ति-ज्योतिःसामग्रीनिष्पनः प्रदीपलक्षणो हेतुः वस्त्र-शयना. ऽसनानामनेकेषां तमा भव्यजकत्वाद ज्ञापकः ।" इति चूर्णिकृतः॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः कारको घटस्य कर्त्ता कुम्भकारः, ज्ञापको यथा - तमसि घटादीनामभिव्यञ्जकः प्रदीपः, उपनयः–उपसंहारः, नयाः - नैगमादयः, एतेषु निपुण आहरण हेतूपनय - नयनिपुणः; सहि श्रोतारमपेक्ष्य तत्प्रतिपत्त्यनुरोधतः क्वचिद् दृष्टान्तोपन्यासं क्वचिद् हेतूपन्यासं करोति, उपसंहारनिपुणतया सम्यगधिकृतमर्थमुपसंहरति, नयनिपुणतया नयवक्तव्यतावसरे सम्यक्प्रपञ्चं वैवि5 क्त्येन नयानभिधत्ते । ‘ग्राहणाकुशल: ' प्रतिपादनशक्त्युपेतः ॥ २४३ ॥ खसमयं परसमयं वेत्तीति खसमय-परसमयवित्, स च परेणाक्षिप्तः सुखेन स्वपक्षं परपक्षं च निर्वहति । 'गम्भीर ः ' अतुच्छखभावः । 'दीप्तिमान्' परवादिनामनुद्धर्पणीयः । 'शिवः' अकोपनः, यदि वा यत्र तत्र वा विहरन् कल्याणकरः । 'सोमः' शान्तदृष्टिः । गुणाः - मूलगुणा उत्तरगुणाश्च तेषां शतानि तैः कलितो गुणशतकलितः । 'युक्तः ' समीचीनः प्रवचनस्य - द्वादशाङ्गस्य सारम् -अर्थं कथ10 यितुम् ॥ २४४ ॥ कस्माद्गुणशतकलित इष्यते ? इति चेद् अत आह— गुणस्स वणं, घयपरिसितु व्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स ने सोहर, नेहविहूणो जह पईवो ॥ २४५ ॥ यो मूलगुणादिषु गुणेषु सुस्थितस्तस्य वचनं घृतपरिसिक्तपावक इव 'भाति' दीप्यते । गुणहीनस्य तु न शोभते वचनम्, यथा स्नेहविहीनः प्रदीपः । उक्तञ्च – आयारे वहतो, आयारपरूवणाअसंकंतो । आयारपरिब्भट्टो, सुद्धचरणदेसणे भइओ ॥ गतं न वेति द्वारम् । अधुना कस्येति द्वारमाह - कस्येति द्वारम् 15 20 25 जइ पवयणस्स सारो, अत्थो सो तेण कस्स कायन्वो । एवंगुणन्निएणं, सव्त्रसुयस्साsss देसी ॥ २४६ ॥ यदि प्रवचनस्य सारो अर्थस्तर्हि स तेन एवंगुणान्वितेन कस्य कर्त्तव्यः ? किं सर्वश्रुतस्य ? उत 'देशस्य' श्रुतस्कन्धादेः ? इति ॥ २४६ ॥ अत्र सूरिराह को कलाणं निच्छ, सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्वो । कप्प - व्यवहाराण उ, पगयं सिस्साण थिजत्थं ॥ २४७ ॥ को नाम जगति कल्याणं नेच्छति : ततः सर्वस्यापि श्रुतस्यानुयोग ईदृशेन वक्तव्यः । केवलं कल्पो व्यवहारश्चापवाद बहुलस्ते नैतयोरनुयोगे विशेषत एतादृशेन 'प्रकृतम्' अधिकृतमधिकारः, एवंगुणयुक्तेनैव कल्प - व्यवहारयोरनुयोगः कर्त्तव्य इत्यर्थः । कस्मादेवमुच्यते ? इति चेत्, उच्यते - शिष्याणां स्थिरीकरणार्थम् ॥ २४७ ॥ तदेव स्थिरीकरणं भावयतिसुस्सग्गठियप्पा, जयणान्नातो दरिसतो वि । तासु न वह नूणं, निच्छयओ ता अकरणिजा ॥ २४८ ॥ यदा नाम यथोक्तगुणशतकलितः कल्प-व्यवहारयोरनुयोगं करोति तदा शिष्या एवमव 30 ॥ २४५ ॥ १ न भायति ने ता० ॥ २ स्नेहेन वि' डे० ॥ ३ इस वक्तव्वो ता० ॥ ४ रस कां० ०ता० ॥ ५ लस्तेन तयो भा० मो० विना ॥ ६°वम् ? उच्यते - शिष्या० भा० विना ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २४५-५३ ] पीठिका | बुध्यन्ते - एष स्वयमुत्सर्गस्थितात्मा, अथ च कल्पे व्यवहारे च यतनया पञ्चकादिपरिहाणिरूपया प्रतिसेवना अनुज्ञाताः प्रदर्शयति, ततः प्रतिसेवना यतनयाऽनुज्ञाता अपि प्रदर्शयन् स्वयं तासु न वर्तते, किन्तु केवलमुत्सर्गमाचरति, तदेवं ज्ञायते नूनम् - निश्चयेनैता यतनानुज्ञाता अपि प्रतिसेवनाः 'अकरणीयाः' न समाचरितव्याः ॥ २४८ ॥ किञ्च जो उत्तमेहिं पहओ, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं । आयरियम्मि जयंते, तदणुचरा केण सीईजा ॥ २४९ ॥ यः 'उत्तमैः' गुरुभिः 'प्रहृतः' क्षुण्णः ' मार्गः' पन्थाः स शेषाणां दुर्गमो न भवति, किन्तु सुगमः । तत्र आचार्ये 'यतमाने' यथोक्त सूत्रनीत्या प्रयत्नवति 'तदनुचराः' तदाश्रिताः शिष्याः केन हेतुना सीदेयुः ? नैव सीदेयुरिति भावः । तत एतेन कारणेन कल्प-व्यवहारयोरनुयोगे विशेषत एतादृशेन प्रकृतम् ॥ २४९ ॥ अणुओम्मिय पुच्छा, अंगाई कप्प छक्कनिक्खेवो । ७७ 5 सुखंधे निक्खेवो, ईकेको चउत्रिहो होइ ॥ २५० ॥ अनुयोगेऽङ्गादेः पृच्छा वक्तव्या, तदनन्तरं कल्पस्य षट्को निक्षेपः, ततः श्रुते स्कन्धे च एकैकस्मिन् निक्षेपश्चतुर्विधो भवति वक्तव्यः । एष द्वारगाथा समासार्थः ॥ २५० ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतोऽनुयोगेऽङ्गादेः पृच्छामाह 10 जर कप्पादणुयोगो, किं सो अंगं उयाहु सुयखंधो । अज्झणं उद्देसो, पडिवक्खंगादिणो बहवो ॥। २५१ ॥ यदि कल्पादेः आदिशब्दाद् व्यवहारस्य ग्रहणम् अनुयोगः ततः किं सोऽङ्गम् ? उताहो श्रुतस्कन्धः ? अध्ययनम् ? उद्देशो वा ? । अमीषां चाङ्गानां प्रतिपक्षा बहवोऽङ्गादयो द्रष्टव्याः । इयमत्र भावना - यदि नामैतादृशेनाचार्येणानुयोगः कल्पस्य व्यवहारस्य च कर्त्तव्यः ततः स 20 कल्पो व्यवहारो वा किमङ्गम् अङ्गानि ? श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः ? अध्ययनम् अध्ययनानि ! उद्देश उद्देशाः ? ॥ २५१ ॥ अत्र सूरिराह 15 सुखंधी अज्झयणा, उद्देसा चैव हुंति निक्खिप्पा | सेसाणं पडिसेहो, पंचण्ह वि अंगमाईणं ।। २५२ ॥ श्रुतस्कन्धोऽध्ययनानि उद्देशा एते त्रयः पक्षा भवन्ति 'निक्षेप्याः' स्थाप्या आदरणीया 25 इत्यर्थः । शेषाणां पञ्चानामप्यङ्गादीनां प्रतिषेधः । तद्यथा - कल्पो व्यवहारो वा नाङ्गं नानानि श्रुतस्कन्धो नो श्रुतस्कन्धाः अध्ययनं नाध्ययनानि नो उद्देशः उद्देशाः ॥ २५२ ॥ तम्हा उ निक्खिविस्सं, कप्प व्यवहारमो सुयक्खंधं । अज्झणं उद्दे, निक्खिवियव्वं तु जं जत्थ ॥ २५३ ॥ यस्मादेवं तस्मात् कल्पं निक्षेप्स्यामि व्यवहारं निक्षेप्स्यामि श्रुतं निक्षेप्स्यामि स्कन्धं निक्षे- 30 स्यामि अध्ययनं निक्षेप्स्यामि उद्देशं निक्षेप्स्यामि । यच्च यत्र निक्षेप्तव्यं नामादि चतुष्प्रकारं षट्पकारं वा [तत्] तत्र वक्ष्यामि । तत्र कल्पस्य षड्विधो नामादिको निक्षेपः । १ सीएजा ता० ॥ २ एकेक च ता० ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग द्वाराणि 5 ७८ सनिर्युक्ति-भाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे 25 यत उक्तं प्राग् द्वारगाथायाम् — अज्झयणस्स उ ओहे, उद्देस्स्सऽणुगमे भणिओ ॥ २५४ ॥ 'आद्ययोर्द्वयोः ' कल्प-व्यवहारयोर्यथाक्रमं षट्कस्य चतुष्कस्य च निक्षेपस्य स्वस्थानं भवति नाम निष्पन्ने निक्षेपे, ततः स तत्र वक्तव्यः; तत्र कल्पस्य पञ्चकल्पे व्यवहारस्य पीठिका - याम् । अध्ययनस्य चतुष्प्रकारो निक्षेपः ओघ निष्पन्ने निक्षेपेऽभिधास्यते । उद्देशस्य च 'अनुगमे' उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमे भणितः करिष्यते ॥ २५४ ॥ 10 "कप्प छक्कनिक्खेवो" (गा० २५०) व्यवहारस्य चतुर्विधो नामादिनिक्षेपः ॥ २५३ ॥ एतयोः स्वस्थानमाहआइल्लाणं दुह वि, सट्टाणं होइ नाम निष्पन्ने । सम्प्रति “सुय खंधे निक्खेवो" ( गा० २५०) इत्यादिव्याख्यानार्थमाह-नामसुयं ठवणसुयं, दव्वसुयं चैव होइ भावसुयं । एमेव होइ खंधे, पनवणा तेसि पुच्चुत्ता ।। २५५ ॥ श्रुतस्य चतुष्प्रकारो नामादिको निक्षेपः, तद्यथा - नामश्रुतं स्थापनाश्रुतं द्रव्यश्रुतं भावश्रुतं च । 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण स्कन्धेऽपि चतुःप्रकारो निक्षेपः, तद्यथा-नामस्कन्धः स्थाप16 नास्कन्धो द्रव्यस्कन्धो भावस्कन्धश्च । एतेषां प्रज्ञापना पूर्वमावश्यके उक्ताऽवधारणीया ॥ २५५ ॥ गतं कस्येति द्वारम् । अधुना तद्वा[रद्वा]रं वक्तव्यम्- अनुयोगद्वारद्वारम् [ अनुयोगाधिकारः 20 कल्पस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तद्यथा - उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयाश्च । एतेषां च प्ररूपणा यथाऽनुयोगद्वारे तथा कर्त्तव्या । सा च तावद् यावत् सूत्रानुगमः सूत्रस्पर्शिक - निर्युक्त्यनुगमश्च । अनुयोगद्वाराणि नाम अनुयोगस्य - अर्थस्य मुखानि उपाया इत्यर्थः ॥२५६॥ आह किमर्थमनुयोगद्वाराणि कृतानि ? किमर्थं वा चत्वारि ? एकमेव द्वारमस्तु, अत आह— अद्दारगं अनगरं, एगद्दारे य होइ पलिमंथो । चउदारे तेण भवे, देस पएसे य छिंडीओ ।। २५७ ।। यथा 'अद्वारकम् ' अकृतद्वारमनगरम्, एकस्मिंश्च द्वारे कृते भवति 'परिमन्थः ' निर्गच्छद्भिः प्रविशद्भिश्चाश्व-हस्त्यादिभिः सङ्घट्टः, तेन कारणेन तन्नगरं चतुर्द्वारं भवति । तत्रापि 'देशे' द्वारकुक्ष्यादिलक्षणे प्रदेशे च तत्र तत्रानेकाश्छिण्डिका भवन्ति । एवमकृतानुयोगद्वार मेकान्तेनागम्यम्, अकृतद्वारनगरवत् ; कृतैकानुयोगद्वारमपि दुरधिगमम् कृतैकद्वारकनगरवत् ; 30 तेन चत्वार्यनुयोगद्वाराणि कृतानि । गतं [तद्वार ] द्वारम् ॥ चत्तारि दुवाराई, उवकम निक्खेव अणुगम नंया य । काऊ परूवणयं, अणुगम-निजुत्ति सुत्तस्स ।। २५६ ॥ " भेदद्वारम् इदानीं भेदद्वारम्-यथा नगरस्य देशेषु प्रदेशेषु च छिण्डिका भवन्ति तथाऽनुयोगस्यापि १ नए य ता० ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .5 क्रमः भाष्यगाथाः २५४-६१] पीठिका। चतुर्णा द्वाराणामवान्तरभेदाः । तत्रोपक्रमो द्विभेदः, तद्यथा-लौकिकः शास्त्रीयश्च । लौकिकः उपक्रमषड्विधः-नामोपक्रमः स्थापनोपक्रमो द्रव्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रमः कालोपक्रमो भावोपक्रमश्च ॥२५॥ द्वारम् तत्र नाम-स्थापने प्रतीते । द्रव्योपक्रममाहसच्चित्ताई तिविहो, उवक्कमो दधि सो भवे दुविहो। लौकिको द्रव्योपपरिकम्मणम्मि एको, विइओ संवट्टाए उ ॥ २५८ ॥ नोआगमतो व्यतिरिक्तो द्रव्योपक्रमस्त्रि विधः-'सचित्तादिः' सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च । एकैको द्विविधः-परिकर्मणि संवर्तनायां च ॥ २५८ ॥ एतदेव व्याख्यानयति जेण विसिस्सइ रूवं, भासा व कलासु वा वि कोसल्लं । परिकम्मणा उ एसा, संवद्रण वत्थुनासो उ ॥ २५९ ॥ येन रूपं 'विशिष्यते' विशिष्टतरं क्रियते, यथा सुवर्णे कटकरूपतापादनं कृष्णवर्णे वा 10 गौरवर्णताजननम् ; तथा येन भाषा विशेष्यते स्पष्टवर्णोच्चारणादिरूपा क्रियते, यथा शुकसारिकादीनाम् ; यच्च वा 'कलासु' द्वासप्ततिसङ्ख्यासु कौशलमुपजन्यते एषा परिकर्मणा । संवरीना वस्तुनाशः, यथा-सुवर्णे कटकत्वं भज्यते पुरुषो वा मार्यते । तत्र सचित्ते परिकर्मणा यथा-नटस्य नेपथ्यं क्रियते, शुको वा पाठ्यते, पुरुषो वा द्वासप्ततिकला अवगाह्यते, संवर्तना यथा-पुरुषो मार्यते । अचित्ते परिकर्मणा यथा-सुवर्णे कटकं क्रियते, संवर्तना-कटकं भज्यते । 15 मिश्रे परिकर्मणा यथा-साभरणो नटो चारुवेवं कार्यते, पुरुषो वा साभरणो द्वासप्ततिकल्प ग्राह्यते, संवर्तना यथा-सायुधः पुरुषो मार्यते ॥ २५९ ॥ गतो द्रव्योपक्रमः । सम्प्रति क्षेत्रोपक्रममाह. नावाएँ उवक्कमणं, हल-कुलियाईहिँ वा वि खित्तस्स । क्षेत्रोपसम्मज-भूमिकम्मे, पंथ-तलागाइएसुं तु ॥ २६० ॥ यन्नावा आदिशब्दादुडुपादिभिश्च नदी तरति, अथवा हल-कुलिकादिभिर्यत् क्षेत्रस्य' इक्षुक्षेत्रादेरुपक्रमणम् , यदि वा यत् क्रियते गृहादीनां सम्मार्जनं भूमिकर्म वा देवकुलादीनाम् , यच्च वा पथः-मार्गस्य शोधनम् तडागं वा खन्यते, आदिग्रहणेनावटादिषु यत् परिकर्म खननादिलक्षणम् । एष समस्तोऽपि क्षेत्रोपक्रमः ॥ २६० ॥ कालोपक्रममाहछायाएँ नालियोइ व, कालस्स उवक्कमो विउपसत्थो । 25 लौकिकः कालोप'रिक्खाईचारेसु व, साव-वियोहेसु व दुमाणं ॥२६१॥ 'छायया' शङ्कुच्छायया 'नालिकया' घटिकया यः कालो ज्ञायते, यथा एतावान् कालो गत इति । किंविशिष्टः ? इत्याह-"विउपसत्थो" विदः-विद्वांसस्तैः प्रशस्तः-प्रशंसितः, यथा सुष्ठु ज्ञात इति, एष कालोपक्रमः । यदि वा रि(ऋ)क्षं-नक्षत्रम् आदिशब्दाबहपरिग्रहः तेषां चारेषु यत्परिज्ञानम् , यथा-नक्षत्रमिदमेतावन्तं कालमशुभम् , ग्रहो वाऽमुकराशावेतावन्तं कालं 30 स्थायी इत्यादि । यच्च वा 'द्रुमाणां' शमी-चिञ्चिनिकाप्रभृतीनां खापे विबोधे च दृष्टे ज्ञायते, यथा-गतोऽस्तमादित्य उदितो वेति । एष कालोपक्रमः ॥ २६१ ॥ १°णाईओ ता० विना ॥ २°याय व ता० ॥ लौकिकः क्रमः 20 क्रमः Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः भावोपक्रमो द्विघा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । उभयमप्याहलौकिको गणिगा मरुगीऽमच्चे, अपसत्थो भावुवकमो होइ । प्रशस्तो आयरियस्स उ भावं, उवक्कमिजा अह पसत्थो ॥ २६२ ॥ भावोपक्रमः अप्रशस्तं संसारनिबन्धनत्वादशोभनं यद् भावस्योपक्रमणमेष भावोपक्रमोऽप्रशस्तः । अत्र तत्रार्थ दृष्टान्तो गणिका 'मरुकी' ब्राह्मणी तृतीयोऽमात्यः । दृष्टान्ताश्च एगा गणिया चउसट्ठिकलापंडिया । तीए चित्तसभाए सबमणूसजाईणं जाइकम्मं सिप्पाणि कुवियपसायणं च लिहावियं । ताहे जो कोइ मेहुणट्टी एइ तं भणइ-चित्तसमं पिच्छ जेण नज्जइ किंजाईओ? केरिसो वा एस ? । ताहे सो तत्थ जाइकम्मं सिप्पाणि कुवियपसायणं च दुटुमवस्समेव भणइ जं जत्थ सुकयं दुक्कयं वा । ताहे सा जाणइ-अमुगजाईओ, अमुगं 10.सिप्पं जाणइ, कुवियपसायणे दारुणसभावो इत्थिनिजिओ वा । एवं नाउं तहा उवचरइ । एस गणियादिद्रुतो॥ मरुगीदिटुंतो इमो-एगा मरुगी । सा चिंतेइ-कहं मज्झ धीयाओ सुहियाओ हवे. जा। तओ जा जाहे परिणिजइ ताहे तं सिक्खवेइ-भत्तारस्स दुक्कमित्ता चडतं पण्हीए आहणिज्जासु । तत्थ पढमाए आहओ पायं मदिउमारद्धो, परिचुंबिया 'हा ! दुक्खाविय'ति । 15 ताए माऊए सिहं । मायाए भन्नइ-दोसो भे जातो (दासभोजतो) एस तव । बिइयाए आहओ । सो रुटित्ता उवसंतो। माऊए सिढें । सा भणति-तुमं पि दासभोगेणं एवं मुंजाहि, परं मा अतिआयतं । तइयाए आहतो । रुट्टो । पिट्टिया । उहिचा गतो । माऊए कहियं । तीए भणियं–एस उत्तमो, चकिया चिहिज्जा, देवयमिव उवचरेजा, भर्तृदेवताका हि नारी । पच्छा कहं कह वि गमित्ता पसाइओ । जहा-एस अम्हं कुलधम्मो, उवायकं वा इच्छियं, 20 कोउगा वा कयं ॥ अमात्यदृष्टान्तो यथा-एगस्स रण्णो आहेडएणं निग्गयस्स आसेण मुत्तियं । पडिनियत्नो राया. तेणेव मग्गेणाऽऽगओ पासइ मुत्तं तह चेव ट्ठियं । तओ सुचिरं निरिक्खिता चिंतियमणेण-जइ इत्थ तडागं होइ तो सुंदरं । अमच्चेण तस्स भावं नाऊण तडागं खणावियं । तडे पायववण( ग्रन्थानम्-२०००)संडाणि आरोवियाणि । अन्नया रन्ना निग्गएणं 28 दिटुं, पुच्छियं-कस्सेयं तडागं ? । अमच्चेण भणियं-तुभं । कहं । तओ अमचेण सव्वं सिटुं । राया तुट्ठो अमच्चस्स ॥ उक्तोऽप्रशस्तो भावोपक्रमः । प्रशस्तमाह-आचार्यस्य यद् भावमुपक्रामति एष प्रशस्तो भावोपक्रमः ॥ २६२ ॥ आचार्यस्य भावमुपक्रम्य किं कर्त्तव्यम् ? अत आहलौकिका जो जेण पगारेणं, तूसइ कार-विणयाणुवत्तीहिं। प्रशस्तो 30 आराहणाइ मग्गो, सु चिय अव्वाहओ तस्स ॥ २६३ ॥ 'यः' आचार्यों येन प्रकारेण 'कार-विनयानुवृत्तिभिः' कारेण-वैयावृत्त्यादिकरणेन यथापादौ प्रक्षालनीयौ, विश्रामणा कर्तव्या, ग्लानादीनां नित्यं वैयावृत्त्यं कर्तव्यमित्यादि; तथा १°गाऽम° ता० ॥ २ "दासभोजो एस तव" इति चूर्णी पाठः ॥ भावोप- 30 क्रमः Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः २६२-६७] पीठिका । विनयस्य यावन्तो भेदास्तेषां मध्ये या येन विनयेनानुवृत्तिः-सर्वेप्वर्थेप्वप्रतिकूलता तया तुष्यति तस्य तमवश्यं कुर्यात् । किं कारणं येन येन कृतेन तुप्यति तत् कर्त्तव्यम् ? अत आह-'तस्य' आचार्यस्याराधनाया एषोऽव्याहतः 'मार्गः' पन्थाः ॥ २६३ ॥ किञ्च आगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुजा । तह वि य सिं न विकूडे, विरहम्मि य कारणं पुच्छे ॥ २६४ ॥ । आकारः-दिगवलोकनादिस्तेन इङ्गितं-परिज्ञानं यदन्तर्गतस्य भावस्य तत्र कुशल आकारेङ्गितकुशलः, अथवाऽऽकारः-दिगवलोकनादिरिङ्गितं-सूक्ष्मचेष्टाविशेषस्ताभ्यामन्तर्गताभिप्रायलक्षणे कुशल आकारेङ्गितकुशलस्तं शिष्यं 'पूज्याः' आचार्या [वदेयुः । किं ] वदेयुः ? इत्याह-'श्वेतं वायसं' यथा परतः श्वेतो वायसस्तिष्ठतीति, तथापि "सिं" तेषां पूज्यानां तद् वचनं स शिप्यः 'न विकुट्टयेत्' न प्रतिषेधयेत् , यथा-न भवत्ययं श्वेतः, वायसः कृष्ण इति; 10 केवलं 'विरहे' जनापगमे एकान्ते कारणं पृच्छेत्-कथं तदा गुरुपादैरुपदिष्टं 'श्वेतो वायसः' ? इति । तत्राऽऽचार्येण वक्तव्यम्-सत्यम् , न भवति श्वेतो वायसः किन्तु मया त्वत्परिज्ञानार्थमुक्तम् , यथा-किमेष मद्वचनं कोपयति न वा ? इति ॥ २६४ ॥ उक्तो भावोपक्रमः, तदभि. धानाच्च लौकिकः। सम्प्रति शास्त्रीयो वक्तव्यः, स च भावेऽन्तर्भवतीति भावोपक्रमतया तमेवाहभावे उवक्कम वा, छव्यिहमणुपुचिमाइ वण्णेउं । 15 षड्विधः शास्त्रीय जत्थ समोयरइ इमं, अज्झयणं तत्थ ओयारे ।। २६५ ॥ वाशब्दः प्रकारान्तरसूचने । अथवा भावोपक्रमं षड्विधं' आनुपूर्वी-नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-ऽर्थाधिकार-समवतारलक्षणं वर्णयित्वा यत्रेदमध्ययनं समवतरति तत्रावतारयितव्यम् । तद्यथा-आनुपूर्वी त्रिधा, पूर्वानुपूर्वी पश्चादानुपूर्वी अनानुपूर्वी च ॥ २६५ ॥ तत्र दुहं अणाणुपुब्बी, न हवइ पुव्वाणुपुविओ पढमं । पच्छाणुपुति बिइयं, जइ उ दसा तेण बारसमं ॥ २६६ ॥ द्वे एवाध्ययने कल्पो व्यवहारश्च, न च द्वयोरनानुपूर्वी भवति, ततोऽत्र पूर्वानुपूर्वी वा प्रतिपत्तव्या पश्चानुपूर्वी वा । तत्र पूर्वानुपूर्व्या प्रथमं पश्चादानुपूर्व्या द्वितीयम् । केचिदाचार्याः प्राहु:-कल्प-व्यवहार-दशा एकश्रुतस्कन्धः, तन्मतेन यदि दशा अपि गण्यन्ते तदा पूर्वानुपूर्व्या प्रथमं पश्चानुपूर्व्या द्वादशमम् अनानुपूर्व्या एकादिकाया एकोत्तरिकाया 25 द्वादशगच्छगतायाः श्रेणेरन्योऽन्याभ्यासे यावन्तो भङ्गकाः प्रथमान्तिमवर्जास्तावन्तो भेदा द्रष्टव्याः ॥ २६६॥ सव्वज्झयणा नामे, ओसन्नं मीसए अवतरंति । जीवगुण नाण आगम, उत्तरऽणंगे य काले य ॥ २६७ ॥ 'नाम्नि' षड्डिधनाम्नि समवतरति । षड्डिधे च नाम्नि भावाः प्ररूप्यन्ते । तत्र 'मिश्रके' 30 क्षायोपशमिके भावे समवतरन्ति यतः सर्वाण्यप्यध्ययनानि उत्सन्नम् अत इदमपि क्षायो१°श्चानु भा०॥ २ उद्धप्रायेणतं अत ('उत्सन्नं' प्रायेण, अत) डे० ॥ उपक्रमः . बृ०११ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 सनियुक्ति-भाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः पशमिकनान्यवतरति । प्रमाणद्वारमङ्गीकृत्य गुणप्रमाणे । तदपि द्विधा-जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्र जीवगुणप्रमाणे समवतरति । तदपि ज्ञान-दर्शन चारित्रभेदात् त्रिधा, तत्र ज्ञानगुणप्रमाणे समवतरति । तदपि चतुर्धा-प्रत्यक्षमनुमानमागम उपमानं च, तत्राऽऽगमे । सोऽपि द्विधा-लौकिको लोकोत्तरिकश्च, तत्र लोकोत्तरिके । सोऽपि द्विधा-अङ्गप्रविष्टोऽनङ्ग5 प्रविष्टश्च, तत्रानङ्गप्रविष्टे । सोऽपि द्विधा–कालिक उत्कालिकश्च, तत्र कालिके । नयप्रमाणे तु न समवतरति, कालिकश्रुते नयानां समवताराभावात् । सहयाप्रमाणे तु कालिकश्रुतपरिमाणसङ्ख्यायां समवतरति ॥ २६७ ॥ पज्जव पुव्वुदिहा, संघाया पजव-ऽक्खराणं च । मुत्तूण पञ्जवा खलु, संघायाई उ संखिज्जा ।। २६८ ॥ 10 कल्पस्य व्याख्यानेऽनन्ताः पर्यवाः, ते च पूर्व-नन्याम् “सबागासपएसगं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणियं पज्जवक्खरं निष्फजई" (पत्र १९५) इत्यनेनोद्दिष्ठाः-कथिताः । सङ्घाता द्विधा-पर्यवाणामक्षराणां च । तत्र पर्यवसङ्घाता अनन्तास्तान् ‘पर्यवान्' पर्यवसङ्घातान् मुक्त्वा शेषाः खलु 'सङ्घातादयः' अक्षरसङ्घातादयः सयेयाः, तद्यथा-सङ्ख्येया अक्षरसङ्घाताः, सङ्ख्येयाः श्लोकाः, सङ्ख्याता वेष्टका इत्यादि ॥२६८॥ उस्सन्नं सव्वसुयं, ससमयवत्तवया समोयरइ । अहिगारो कप्पणाए, समोयारो जो जहिं एस ॥ २६९ ॥ 'उत्सन्नं' सर्वकालं सर्वश्रुतं स्वसमयवक्तव्यतायां समवतरति । अर्थाधिकारे मूलगुणेषुत्तरगुणेषु चापराधमापन्नानां प्रायश्चित्तकल्पनायाम् ॥ २६९ ॥ सम्प्रति यदुक्तं 'खसमयवक्तव्यतायां समवतरति' तदिदानी सिंहावलोकितेनापवदति परपक्खं दूसित्ता, जम्हा उ सपक्खसाहणं कुणइ। नो खलु अदूसियम्मी, परे सपखंजसा सिद्धी ॥ २७० ॥ परसमयवक्तव्यतायामप्यवतरति, यस्मात् परपक्षं दूपयित्वा स्वपक्षसाधनं करोति, न खल्वदूषिते परपक्षे स्वपक्षस्याञ्जसा व्यक्ता प्रधाना वा सिद्धिर्भवति, ततः परसमयवक्तव्यतायामवतारः । तदेवमिदं कल्पाध्ययनमुपक्रमे आनुपूर्यादौ यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र समवतारि28 तम् ॥ २७० ॥ गत उपक्रमः । सम्प्रति निक्षेपमाह निक्खेवो होइ तिहा, ओहे नामे य सुत्तनिष्फन्ने । अज्झयणं अज्झीणं, आओ झवणा य तत्थोहे ॥ २७१ ॥ निक्षेप स्त्रिविधः-ओघनिष्पन्नो नामनिप्पन्नः सूत्रालापकनिप्पन्नश्च । तत्रौघनिप्पन्नश्चतुर्विधः, तद्यथा-अध्ययनमक्षीणमायः क्षपणा च ॥ २७१ ॥ इकिकं तं चउहा, नामाईयं विभासिङ ताहे । भावे तत्थ उ चउसु वि, कप्पज्झयगं समोयरइ ।। २७२ ॥ १ “पमाणे भावपमाणे समोतरति, तं तिविह-गुणप्पमाणं णयप्पमाणं संखप्पमागं, गुणप्पमाणे समो. तरति" इति चूणौँ ॥ २'व्ययं सना ॥ ३॥ तित' ता. ॥ ४ "उं ओहे ता० ॥ 20 निक्षेपद्वारम् ओपनि- पन्नो निक्षेपः 30 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २६८-७६ ] पीठिका | ८३. 'एकैकम्' अध्ययनादिकं यथा अनुयोगद्वारे तथा नामादीनां भेदतश्चतुर्धा विभाष्य चतुर्ष्वपि 'तत्र' तेष्वध्ययनादिषु 'भावे' भावविषये तु कल्पाध्ययनमिदं समवतरति ॥ २७२ ॥ गत ओघनिष्पन्नो निक्षेपः । सम्प्रति नामनिप्पन्नमाह नामे छवि कप्पो, दव्वे वासि - परसादिएहिं तु । खेत्ते काले जहुवकमम्मि भावे उ पंचविहो ॥ २७३ ॥ नामनिष्पन्ने निक्षेपे कल्प इति नाम । स च षोढा, तद्यथा - नामकल्पः स्थापनाकल्पो द्रव्यकल्पः क्षेत्रकल्पः कालकल्पो भावकल्पश्च । तत्र नाम - स्थापने प्रतीते । व्यकल्पो येन वासी- परश्वादिना द्रव्येण कल्प्यते तद् द्रष्टव्यम् । क्षेत्रकल्पो यथाक्षेत्रोपक्रमः । कालकल्पो यथाकालोपक्रमः । भावकल्पः 'पञ्चविधः ' पञ्चप्रकारः || २७३ ॥ तमेवाह छवि सत्तविहे वा, दसविह वीसइविहे य बायाला । जस्स उ नत्थि विभागो, सुव्त्रत्त जलंधकारो से ॥ २७४ ॥ भवतः कल्पः षडिधः सप्तविधो दशविधो विंशतिविधो द्वाचत्वारिंशद्विधश्च । एते पञ्चापि प्रकाराः पञ्चकल्पे व्याख्यातास्तथा ज्ञातव्याः । यस्य त्वेषः 'विभागः ' पञ्चप्रकार भावकल्पपरिज्ञानं नास्ति 'से' तस्य सुव्यक्तं जडान्धकारः ॥ २७४ ॥ गतो नामनिप्पन्नो निक्षेपः । सम्प्रति सूत्रालापकन्रिप्पन्नं प्रत्याह पत्तो वि न निक्खिप्पर, सुत्तालावस्स इत्थ निक्खेवो । सुत्तागमे वैच्छं, इति अत्थे लाघवं होइ ॥ २७५ ॥ नामनिष्पन्नो 5 निक्षेपः 10 15 सूत्रालापकनि पन्नो यद्यपि सूत्रालापकस्य निक्षेपः 'प्राप्तः ' प्राप्तावसरस्तथापि स प्राप्तोऽपि 'अत्र' निक्षेपप्रक्रमे निक्षेपः न निक्षिप्यते, किन्त्वितोऽस्ति तृतीयमनुयोगद्वारमनुगम इति तत्र सूत्रानुगमे वक्ष्ये । यतः 'इति' एवं सति अर्थे लाघवं भवति । तथाहि - सूत्रालाप कनिक्षेपः सूत्रगतानामालापकानां 20 निक्षेपः, ते च सूत्रगता आलापाः सूत्रे सति सम्भवन्ति, ततः सूत्रानुगम एव तनिक्षेपो ज्यायान्, इह तु तन्निक्षेपकरणे महत् प्रतिपत्तिकष्टम् || २७५ ॥ अनुगमे च त्रीणि द्वाराणि, तद्यथा - लक्षणं तदह पर्षत् सूत्रार्थश्च । प्रथमं लक्षणद्वारमाह लक्षणद्वारम् लक्खणओ खलु सिद्धी, तदभावे तं न साहए अत्थं । सिद्धमिदं सव्वत्थ वि, लक्खणजुत्तं सुयं तेण ॥ २७६ ।। इह लक्षणहीनं सूत्रं न भवति, यतो लक्षणयुक्तस्य सूत्रस्यार्थः लक्षणहीनस्य त्वर्थाभावः, ततो यन्निमित्तमुपनिबद्धं सूत्रं तस्याप्रसिद्धिरेव । तथा चाह - लक्षणतः खलु विवक्षितस्यार्थस्य सिद्धिः, तदभावे' लक्षणाभावे 'तत्' सूत्रं न साधयति विवक्षितमर्थम् । इदं च 'सर्वत्रापि ' लोके सिद्धम्-यत् किञ्चिन्मण्यादि द्रव्यं लाभार्थं क्रीतं तलक्षणहीनं लाभं न साधयति । 30 तेन कारणेन लक्षणयुक्तं सूत्रमिप्यते ॥ २७६ ॥ अथ कीदृशं लक्षणयुक्तं सूत्रम् ? अत आह— १ परसुमाईसु । खेत्ते ता विना ॥ २ "दव्वकप्पो जं वासि परसुमादीहिं दव्वेहिं किंपि कपिजति" इति चूर्णौ ॥ ३ या ता० ॥ ४ " एसा गाधा जत्रा पंचकप्पे तथा विभासितव्वा" इवि चूर्णिः ॥ ५ वोच्छिति इति सत्थे ता० ॥ ६ लोकसि° कां० डे० विना ॥ अनुगम द्वारम् 25 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः त्सूत्रस्य 10 15 सूत्रस्य अप्परगंथ महत्थं, बत्तीसादोसविरहियं जं च । लक्षणानि लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहि य गुणेहि उववेयं ॥ २७७॥ 'अल्पग्रन्थम्' अल्पाक्षरम् महार्थम् , अत्र चत्वारो भङ्गाः-अल्पाक्षरमल्पार्थम् यथाकार्पासादिकम् , अल्पाक्षरं महार्थम् यथा-सामायिक-कल्प-व्यवहारादि, महाक्षरमल्पार्थम् 5 यथा-"जीमूते इति वा अञ्जणे इति वा” इत्यादिभिर्बहुभिरक्षरैर्वर्णव्यावर्णनम् , महाक्षरं महार्थम् यथा-दृष्टिवादः । तत्र यद् अल्पाक्षरं महार्थं तादृशं सूत्रमिप्यते । तथा यद् द्वात्रिंशद्दोषविरहितं तदिप्यते । ते च द्वात्रिंशद्दोषा वक्ष्यमाणाः । तथाऽष्टभिर्गुणैर्वक्ष्यमाणैर्यद् उपेतं तदिप्यते । एवम्भूतं सूत्रं लक्षणयुक्तम् ॥ २७७ ॥ अधुना द्वात्रिंशद्दोषानाह अलियमुवघायजणयं, अवत्थग निरत्थयं छलं दुहिलं । द्वात्रिंश निस्सारमहियमूणं, पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं ॥ २७८ ॥ दोषाः कमभिन्न वयणभिन्नं, विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च । अणमिहियमपयमेव य, सभावहीणं ववहियं च ॥ २७९ ॥ काल-जइ-च्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावत्तीदोसो, हवइ य असमासदोसो उ ॥ २८० ॥ उवमा-रूवगदोसो, परप्पवत्तीय संघिदोसो य । एए उ सुत्तदोसा, बत्तीसं हुंति नायव्वा ॥ २८१ ॥ अलीकं द्विविधम्-अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवश्च । तत्राभूतोद्भावनं यथा-श्यामाकतन्दुलमात्रो जीव इत्यादि । भूतनिह्नवो यथा-नास्ति जीव इत्यादि १। 'उपघातजनक' यत् परस्योपघाते वर्तते, यथा-"न मांसभक्षणे दोषः" (मनुस्मृति अ० ५ श्लो० ५६) इत्यादि २ । 20 'अपार्थकं' यस्यावयवेष्वों विद्यते न समुदाये, असम्बद्धमित्यर्थः, यथा-"शङ्खः कदल्यां कदली च भेर्याम्" अथवा वंजुलपुप्फुम्मीसा, उंबर-वडकुसुममालिया सुरभी । वरतुरगस्स विरायइ, ओलइया अग्गसिंगेसु ॥ ३। 'निरर्थकं' यस्यावयवेष्वर्थो न विद्यते, यथा-डित्थः डवित्थः वाजनः ४ । छलं यथा25 अस्त्यात्मा यद्यस्ति आत्मा तर्हि यद् यदस्ति स स आत्मा प्रामोति, नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि वा ५ । द्रोहणशीलं गुहिलं यत् पुण्य-पापापलपनादि, यथा एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः।। इत्यादि ६ । 'निस्सारं' यत्र सारः-अर्थो न विद्यते, यथा-अस्थि-चर्मशिलापृष्ठं वृद्धाः ७ । 'अधिक' यत् पञ्चानामवयवानामन्यतरेण समधिकम् ८ । 'ऊनम्' एषामन्यतमेन हीनम् ९ । पुनरुक्तं त्रिवि30 धम्-अर्थपुनरुक्तं वचनपुनरुक्तं उभयपुनरुक्तं च । तत्रार्थपुनरुक्तं यथा-इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति, वचनपुनरुक्तं यथा-सैन्धवमानय लवणं सैन्धवमानयेत्यादि, उभयपुनरुक्तं यथा-क्षीरं क्षीरम् १०। 'व्याहतं' यत्र पूर्वमपरेण बाध्यते, यथाकर्म चास्ति फलं चास्ति, भोक्ता नास्ति च निश्चयः । ११ । १ लिंगविभिन्नं विभत्तिभिन्नं च ता. विना ॥ २ य ता० ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २७७-८२] पाठिका। 'अयुक्तं' यद् बुद्ध्या विचिन्त्यमानं न युक्तिं सहते, यथा तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्त्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥ १२ ॥ २७८ ॥ क्रमभिन्नं यथा-धरणीधरेन्द्र-चन्द्र-पद्म-सागरान् गम्भीर-नयन-मुख-बल-स्थैर्यगुणैर्जयति १३ । 'वचनभिन्नं' यत्रैकवचनप्रसङ्गे द्विवचन बहुवचनं वा क्रियते, द्विवचन बहुवचनव्य-5. त्यासो वा १४ । 'विभक्तिभिन्नं' यत्र विभक्तेरन्यथा प्रयोगः १५ । 'लिङ्गभिन्नं' यत्र स्त्रीलिङ्गे. पुल्लिङ्गं नपुंसकलिङ्गं वा क्रियते, एवं शेषयोरपि द्रष्टव्यम् १६ । 'अनभिहितं' नाम यत् खसमयेऽनुक्तमात्मन इच्छया भण्यते १७ । 'अपदं' नाम यत्र गाथापदे गीतिकापदं वानवासिकापदं वा क्रियते १८ । 'स्वभावहीनं' यस्य यो यत्रात्मीयः खभावस्तेन तत् शून्यमभिधीयते, यथा-स्थिरो वायुरिति १९ । 'व्यवहितं' नाम यत्र किञ्चिद् निर्दिश्याऽन्यद् विस्तरेण 10. वर्णयित्वा पुनस्तत् प्रकृतमभिधीयते २० ॥ २७९ ॥ कालदोषो यत्रातीता-ऽनागत-वर्तमानकालव्यत्यासकरणम् २१ । यतिः नाम विश्रामस्तस्य दोषो यतिदोषः, यत्र श्लोके गाथायां वृत्ते वा खलक्षणप्राप्तः पदच्छेदो न क्रियतेऽस्थाने वा क्रियते, यथा जयति जईणं पवरो, गुणनिगरो नाणकिरणउज्जोओ। लोईसरो मुणिवरो, सिरिवच्छधरो महावीरो ॥ २२ ।। छविदोषो नाम यत्र परुषा छविः क्रियते २३ । समयविरुद्धं यथा-वैशेषिको ब्रूते 'प्रधानं कारणम्' जैनो वदति 'नास्ति जीवः' इत्यादि २४ । वचनमात्रं यथा-कश्चिस्कीलकं निहत्य ब्रूयात्-इदं लोकमध्यमित्यादि २५ । अर्थापत्तिदोषो यथा-ब्राह्मणो न हन्तव्यः अर्थादापन्नं शेषजनो हन्तव्य इति २६ । 'असमासदोषः' यत्र समासे प्राप्ते समा- 20 सरहितानि पदानि भण्यन्ते २७ ॥ २८० ॥ उपमादोषो यथा-काञ्जिकमिव ब्राह्मणस्य सुरा पेया २८ । रूपकदोषो यथा-पर्वतो रूप्यमान आत्मीयैरङ्गैः शून्यो वर्ण्यते २९ । 'परप्रवृत्तिदोषः' यत्र सुबहुमप्यर्थ वर्णयित्वा निर्देशं न करोति ३० । 'पददोषः' स्याद्यन्ते तिवाद्यन्तं तिवाद्यन्ते वा स्याद्यन्तं करोति ३१।। 'सन्धिदोषः' यत्र भवन्नपि सन्धिर्न क्रियते विसर्गलोपं वा कृत्वा पुनः सन्धि करोति ३२ । 25 एते द्वात्रिंशत्सूत्रदोषा भवन्ति ज्ञातव्याः ॥ २८१ ॥ अष्टभिर्गुणैरुपेतमित्युक्तम् अतस्तानेवाष्टौ गुणानाह निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ॥ २८२॥ निर्दोषं १ सारवत् २ हेतुयुक्तम् ३ अलङ्कृतम् ४ उपनीतं ५ सोपचारं ६ मितं ७ 30 मधुरम् ८ इति ॥ २८२ ॥ तत्र निर्दोषादिपदव्याख्यानार्थमाह १ "गुणणिगरो कामियनिरुवमसुहओ" इति चूर्णौ ॥ २ “छविः अलङ्कारविशेषः" इति आव० हारि० वृत्तौ पत्र ३७५ ॥ सूत्रस्याटौ गुणाः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चशब्द सून्चिता अपरे सूत्रगुणाः ८६. 20 5 दोषाः खल्वलीकादयः प्रागभिहितास्तैर्वर्जितं निर्दोषम् १ । सारवद् नाम 'बहुपर्यायम्' एकैकस्मिन्नभिधेये यत्रानेकान्यभिधानानीत्यर्थः २ । हेतुयुक्तं साधर्म्येण वैधम्र्येण वा हेतुना युक्तम्, अथवा हेतुः कारणं निमित्तमप्यनर्थान्तरम्, ततो यत् सकारणं तद् हेतुयुक्तमिति, यथा—“सुत्तत्तं सेयं जागरियत्तं वा सेयं" इत्यादि ३ ॥ २८३ ॥ अलङ्कृतं यत्रोपमादिरलङ्कारः । तत्रोपमायुक्तम्, यथा - " सूरेव सेणाइ समत्तमाउहे " । आदिग्रहणेन - नियमा अक्खरलंभो, माउक्कमनिङ्कुरं छवीजमगं । महुरत्तणमत्थघणत्तणं च सुते अलंकारा ॥ 10 इति परिग्रहः ४ । उपनीतं खलु वदन्ति 'सोपनयं' सोपसंहारम् ५ । अनुपचारं नाम यत् 'काहलं ' फल्गुप्रायम्, तद् विपरीतं सोपचारम् ६ । मितं पदैः श्लोकादिभिर्वा, अमितं दण्डकैः ७ । मधुरं त्रिधा— सूत्रमधुरमर्थमधुरमुभयमधुरम् ८ । एतैरष्टभिर्गुणैरुपेतम् ॥ २८४ ॥ 15 चशब्दात् 30 अपक्खरम संदिद्धं, सारखं विस्सओमुहं । विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३ कांड, अ. ५, श्लो. १. अत्थोभमणवज्रं च, सुत्तं सव्वन्नु भासियं ॥ २८५ ॥ अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतोमुखं 'अस्तोभं' स्तोभकरहितं अनवद्यम् इत्थम्भूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितम् ॥ २८५ ॥ तत्राल्पाक्षरं प्रतीतम् । असन्दिग्धादिपदव्याख्यानार्थमाहअत्थे दोस् ती व सामन्नभिहाणओ उ संदिद्धं । जह सिंघवं तु आणय, अत्थबहुत्तम्मि संदेहो ॥ २८६ ॥ उय- वइकारो हत्तिय, हीकाराई य थोभगा हुंति । व होइ गरहियं, अगरहियं होइ अणवत्रं ॥ २८७ ॥ यस्मिन्नर्थेऽभिधीयमाने द्वयोस्त्रिषु चार्थेषु सामान्याभिधानतः सन्देह उपजायते तत् सन्दि25 ग्धम्, यथा-सैन्धवमानयेत्युक्ते किं वस्त्रस्य ग्रहणम् ? आहोश्चित्पुरुषस्य ? उताहो लवणस्य ? इत्यर्थबहुत्वे सन्देहः । सारवत् नवनीतभूतम् । विश्वतोमुखं यत् सर्वतोऽधिकृतमर्थं प्रयच्छति ॥ २८६ ॥ अस्तोभा ऽनवद्ययोर्व्याख्यानमाह - “उय इत्यादि" उत-वै-हॉ-हिप्रभृतीनामकारण प्रक्षेपाः स्तोभकाः तद्रहितमस्तोभकम् । अवद्यं भवति गर्हितं तत्प्रतिषेधादगर्हितमनवद्यम् ॥ २८७ ॥ एवंगुणजातीयं सूत्रं कथमुच्चरितव्यं पठनीयं वा ? तत आह सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे दोसा खलु अलियाई, बहुपज्जायं च सारखं सुतं । साहमेयरहेऊ, सकारणं वा वि हेउजुयं ॥ २८३ ॥ rants अलंकारो, सोवणयं खलु वयंति उवणीयं काहलमणोवयारं, दंडगममियं तिही महुरं ॥ २८४ ॥ [ अनुयोगाधिकारः २ १ तहा ता० विना ॥ श० १२ उ० २ पत्र ५५७ प्रभृ° भ० विना ॥ ॥ " सुत्ततं भंते! साहू ? जागरियत्तं साहू ?" इत्यादिरूपं सूत्रं भगवत्यां ३ “उत वै द्द ही अकारणे एवमादीनां प्रक्षेपः" इति चूर्णो ॥ ४ °हादि • Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका | artisarai अहियमविच्चामेलियं अवाइद्धं । अक्खलियं च अमिलियं, पडिपुन्नं चेव घोसजुयं ॥ २८८ ॥ अहीनाक्षरम् । ‘अनधिकम्' अधिकाक्षररहितम् । 'अव्यत्याग्रेडितं' नाम यदस्थानेन पदघटनम्, यथा--- भाष्यगाथाः २८३ - ९० ] प्राप्तराज्यस्य रामस्य, राक्षसाः प्रलयं गताः । इत्यत्र “प्राप्तराज्यस्य रामस्य राक्षसाः" इत्यादि तद्रहितम् । यदि वाऽन्यान्यदर्शनानुगतशास्त्रान्तरपल्लवप्रक्षेपरहितमव्यत्याग्रेडितम् । 'अव्याविद्धं यत् तस्य सूत्रस्याच स्तनपदमुपरि उपरितनमधो न क्रियते । 'अस्खलितं' यद् उपलाकुलभूमौ हलमिव पदादिभिर्न स्खलितम् । ‘अमिलितं' यद् ग्रन्थान्तरवर्त्तिभिः पदैरमिश्रितम्, यथा - सामायिकसूत्रे दशवैकालिकोतराध्ययनादिपदानि न क्षिपतीति । प्रतिपूर्णं पदादिभिः । 'घोषयुतं' यथावस्थितैरुदात्तादि- 10 भिर्घोषैर्युक्तम् ॥ २८८ ॥ तत्र यदुक्तमहीनाक्षरमिति तत्र हीनं द्विधा - द्रव्यहीनं भावहीनं च । द्रव्यहीने उदाहरणमाह तित्त- कडुओसहाई, मा णं पीलिज ऊणते देइ । पण न तेहि अहिएहिं मरइ वालो तहाहारे ।। २८९ ॥ ए गए अविरइया पुत्तो गिलाणो । तीए विज्जो पुच्छिओ । तेण ओसहाणि दिन्नाणि | 15 सा चिंतेइ - इमाणि कडुय - तित्ताणि मा निपीडिज्जा । तओ णाए अद्धाणि अवणीयाणि । सो तेहिं न पगुणीकओ, मओ ॥ तओएगा ऊणगं पीहगं देइ, तीसे विमओ ॥ अक्षरगमनिका—तिक्त-कटुकौषधानि माऽमुं बालं पीडयेयुरिति न तानि परिपूर्णानि ददाति किन्त्वर्द्धानि । न च तैरर्द्धितैर्बालः प्रगुणति किन्तु म्रियते । तथा आहारे ऊने म्रियते । एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपऩयः: - यथा तौ बालावेकभविकं दुःखं भावहीनं सूत्रमुच्चरति पठति वाऽक्षरैर्हीनमित्यर्थः तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु । राणामतिचरतश्चतुर्गुरु । अनवस्थायां चतुर्गुरु । मिथ्यात्वे चतुर्लघु । विराधना द्विविधा - आत्मविराधना संयमविराधना च । तत्राऽऽत्म विराधना प्रमत्तं देवता छलयेत्, अन्यो वा साधुर्ब्रूयात्-किं विद्रवसि सूत्रम् ?, तत्र कलहप्रसङ्गेऽस्थिभङ्ग - मरणादिदोषप्रसङ्गः । सूत्रं हीनं कुर्वता संयम विराधित एव ॥ २८९ ॥ कथम् ? इत्याह 25 अक्खर पाइएहिं, हीणऽइरेगं च तेसु चेव भवे । ➖➖▪▪▪▪▪ ८७ दो वि अत्थविवत्ती, चरणे य अयो य न य मुक्खो ॥ २९० ॥ हीनं नाम अक्षर-पदादिभिरूनम् । 'तैरेव' अक्षर - पदादिभिः 'अतिरेकं' साधिकम् । 'द्वयोरपि' हीनाक्षरेऽधिकाक्षरे चेत्यर्थः ' अर्थव्यापत्तिः' अर्थस्य विसंवादः । 'अतश्च' अर्थस्य विसंवादे चरणस्य विसंवादः । चरणविसंवादात् 'न मोक्षः' मोक्षाभावः । मोक्षाभावे सर्वा 30 दीक्षा निरर्थका । एष भावहीने दोषः ॥ २९० ॥ तस्मिन्नेव भावहीने दृष्टान्तमाह १ “आणं तित्धयराणं अतिचरति क, अणवत्थाए को, मिच्छते के" इति चूर्णौ ॥ आया य न य ता विना ॥ सूत्रोचार णपद्धतिः प्राप्तौ एवं यो 20 भावही - आज्ञां तीर्थङ्क- नम् २ र द्रव्यहीने द्रव्याधि के चावि. रतिकाद्विकोदाहरणम् हीनाक्ष• रमधिकाक्षरे वा सूत्रं पठ तां संयमादिनाशः Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः भावहीने विजाहर रायगिहे, उप्पय पडणं च हीणदोसेणं । विद्याधरअभय सुणणा सरणा गमणं, पयाणुसारिस्स दाणं च ॥ २९१ ॥ कुमारोदा- रायगिहे सामी समोसढो । तत्थ एगो विजाहरो वंदिउं पडिनियत्तो विजं आवाहेइ । हरणम् तस्स तीए विज्जाए कइ वि अक्खराणि विस्सरियाणि । सो उप्ययणं पडणं च करेइ । 5 अभओ तं दतॄण तस्स सगासं गओ पुच्छइ । तेण सिढें । अभएण भणियं-जइ ममं पि देसि तो उज्जयारेमि । इयरेण पडिवन्नं । तओ अभओ भणइ-तो खायं भण एगं पयं । तेण भणियं । अभएण सुयं । ताहे अभयेण पयाणुसारिणा ताणि अक्खराणि सरियाणि । विज्जाहरो उप्पइत्ता गओ अभयस्स विजं दाउं ॥ अक्षरगमनिका-राजगृहे विद्याधरः कतिपयविद्याक्षरगलनाद् हीनदोषेणोत्पतनं पतनं 10 च करोति । ततो विद्यापदानामभयस्य श्रवणाद(णां) । तच्छ्रवणतोऽभयस्य पदानुसारिप्रज्ञया विस्मृतपदानां स्मरणात्(णा) । तदनन्तरं पदानुसारिणोऽभयस्य विद्यादानं कृत्वा विद्याधरस्य स्वस्थाने गमनम् ॥ २९१ ॥ अधिकमपि द्विधा-द्रव्ये भावे च । तत्र द्रव्याधिके तथैव द्वे अविरतिके दृष्टान्त औषधैः पीह केन च । एवं तावदक्षर-पदादिभिरधिके सूत्रे दोषा मासलघुप्राय श्चित्तादयः प्रागुक्ताः । सम्प्रति भावाधिके एवोदाहरणमाहभावाधि- 15 पाडलऽसोग कुणाले, उज्जेणी लेहलिहण सयमेव । केऽशोक अहिय सवत्ती मत्ताहिएण सयमेव वायणया ॥ २९२ ॥ कुणालसम्प्रति मुरियाण अप्पडिहया, आणा सयमंजणं निवे गाणं ।। राजोदा गामग सुयस्स जम्म, गंधयाऽऽउदृणा कोइ ॥ २९३ ॥ चंदगुत्तपपुत्तो , बिंदुसारस्स नत्तुओ। 20 असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं ॥ २९४ ॥ पाडलिपुत्ते नयरे चंदगुत्तपुत्तस्स बिंदुसारस्स पुत्तो असोगो नाम राया । तस्स असोगस्स पुत्तो कुणालो उजेणीए । सा से कुमारभुत्तीए दिन्ना । सो खुड्डलओ। अन्नया तस्स रन्नो निवेइयं, जहा-कुमारो सायरेगट्ठवासो जाओ । तओ रन्ना सयमेव लेहो लिहिओ, जहा-अधीयतां कुमारः । कुमारस्स मायसवत्तीए रन्नो पासे ठियाए भणियं-आणेह, पासामि 25 लेहं । रन्ना पणामिओ । ताहे तीए रन्नो अन्नचित्तत्तणओ सलागाप्रान्तेन निष्ठयूतेन तीमित्वा अकारस्योपरि अनुखारः कृतः । 'अन्धीयताम्' इति जायं । पडिअप्पिओ रन्नो लेहो । रन्ना वि पमत्तेण न चेव पुणो अणुवाइओ। मुदित्ता उज्जेणिं पेसिओ । वाइओ। वाइगा पुच्छिया-किं लिहियं ? ति । पुच्छिया न कहिंति । ताहे कुमारेण सयमेव वाइओ । चिंतियं च णेणं-अम्हं मोरियवंसाणं अप्पडिहया आणा, तो कहं अपणो पिउणो आणं 30 अइक्कमेमि ? । तत्तसिलागाए अच्छीणि अंजियाणि। ताहे रन्ना नायं । परितप्पिता उजेणी अन्न १ ले. विनाऽन्यत्र-तो उजयारेमि भा० कां० । तो अजयारेमि डे० मो० । "तो उजुवारेमि" चूर्णौ ॥ २°णि । तओ विजा भा० ॥ ३ को त्ति ता० ॥ ४ तु ता० ॥ ५ °प्पणा पि° कां. ले. डे.॥ हरणम् Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २९१-९५] पीठिका । कुमारस्स दिन्ना । तस्स वि कुमारस्स अन्नो गामो दिन्नो । अन्नया तस्स कुणालस्स अंधयस्स पुत्तो जाओ । सो य अंधकुणालो गंधवे अईव कुसलो । अन्नया अन्नायचजाए गायतो हिंडइ । तत्थ रन्नो निवेइयं, जहा-एरिसो तारिसो गंधविओ अंधलओ । रन्ना भणियं आणेह । आणीओ । जवणीअंतरिओ गायइ । ताहे अईव राया असोगो अक्खित्तो। ताहे भणइ-किं देमि ? । इत्थ कुणालेण गीयं-"चंदगुत्तपपुत्तो य" (गाथा २९४) इत्यादि। गाथा । ताहे रन्ना पुच्छियं-को एस तुमं? । तेण कहियं-तुन्भं पुत्तो । जवणियं अवसारेउं कंठे घेत्तुं अंसूपाओ कओ । भणियं च णेण-किं कागिणीए वि नारिहसि जं कागिर्णि जायसि ? । अमच्चेहिं भणियं-रायपुत्ताणं रज्जं कागिणी । रन्ना भणियं-किं काहिसि अंधगो रजेणं ! । कुणालो भणइ-मम पुत्तो अस्थि । कया जाओ? । संपइ भूओ। आणीओ। संपइ ति से नामं कयं । रजं दिन्नं ।। ____10 अक्षरगमनिका—'पाटले' पाटलिपुत्रके नगरे अशोको राजा । कुणालस्तस्य पुत्रः । उज्जयिन्यां राज्ञः खयमेव तद्योग्यलेखलिखनम्-अधीयतामिति । मात्राधिके सति न वाचकैर्वाच्यते । ततः खयमेव वाचना । ततो 'मौयोणामप्रतिहता आज्ञा' इति विचिन्त्य स्वयं तप्तशिलाकया नेत्रयोरञ्जनम् । ततो नृपे ज्ञानं । ततः परितप्य स राज्ञा ग्रामगतः कृतः । ततः सुतस्य जन्म । गन्धर्वेण समस्तस्यापि लोकस्य 'आवर्तना' आवर्जनं निवेदनम्-कोऽप्य-10 न्धोऽतीव गन्धर्वे कुशल इति । ततस्तस्याऽऽनयनम् । परितोषे याच्या गाथा-"चन्द्रगुप्तप्रपौत्र" इत्यादि । अत्राप्युपनयः स एव ॥ २९२ ॥ २९३ ॥ २९४ ॥ अथवा भावाधिके इदं लौकिकमाख्यानम् भावाधिक कामियसरस्स तडे वंजुलरुक्खो महइमहालओ । तत्थ किर रुक्खे विलग्गिउं जो सरे व वानरोदा. हरणम् पडइ सो जइ तिरिक्खजोणिओ तो मणूसो भवइ, अह मणूसो पडति तो देवो भवइ, 20 अह बिइयं वारं पडइ तो प्रकृतिमेव गच्छइ । तत्थ वानरो सपत्तिओ पाणियं पाउं ओयरइ । अन्नया पाणीयपायणट्टाए आगओ । सो संलावं प्रकृतिगमनविरहितं श्रुत्वा सपनीकश्चिन्तयति-रुक्खं विलग्गिउं सरे पडामो जा माणुसजुयलं भवामो । पडियाणि । उरालं माणुसजुयलं जायं । सो भणइ-पुणो पडामो जाव देवजुयलं होमो । इत्थी वारेइ-को जाणइ जइ न हुजा ? । पुरिसो भणइ-जइ न हुज्जामो किं माणुसत्तणं पि अम्हं नासिहिडू ? । वारिज-25 माणो वि पडिओ वानरो जाओ । पच्छा रायपुरिसेहिं गहिया सा इत्थी रन्नो भज्जा जाया । इयरो वि मायारएहिं गहिओ गदाओ ? सिक्खाविओ । अन्नया ते मायारगा रन्नो पुरओ पेच्छं दिति । राया देवीए समं पिच्छइ । ताहे सो वानरो देविं निज्झायंतो अभिलसइ । ताहे ताए अणुकंपाए वानरो भणिओ जो जहा वट्टए कालो, तं तहा सेव वानरा ।। मा वंजुलपरिभट्ठो, वानरा पडणं सर ॥ २९५॥ यो यथा वर्तते कालः 'त' कालं तथा सेवख वानर ! । वञ्जुलवृक्षादेकवारं परिभ्रष्ट:१°इओ ज° मो० डे० त०॥ 0 बृ.१२ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेडितम् च सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः पतितः सन् मया तदा भणितः-'मा भूयो वञ्जुलवृक्षात् सरसि पतनं कुरु, प्रकृतिं यास्यसि' इति एतत् स्मर.। एवं भावतोऽधिकेऽर्थस्य विसंवाद इत्यादिका विभाषा तथैव ॥ २९५ ॥ सम्प्रति 'अविच्चामेलियं अव्वाइद्धं' इत्येते द्वे पदे व्याख्यानयतिअव्यत्या विचामेलण अन्नुन्नसत्थपल्लव विमिस्स पयसो वा। ___ तं चेव य हिदुवरिं, वायद्धे आवली नायं ॥ २९६ ॥ अव्याविद्धं व्यत्यानेडितं नाम अन्यान्यशास्त्रपल्लव विमिश्रणम् । तत्र द्रव्यतो व्यत्यानेडिते पायसमुदाहरणम्- जहा कोलिया वइयं गया । तत्थ तेहिं 'परमन्नं रंधेमो' [त्ति ] दुद्धं आदहितं । इत्थ अंज छुब्भइ तं तं पायसो भवइ ति तंदुला चवला मुग्गा तिला कुक्कुसा छूढा । तं सवं विणटुं 10 अकिंचिकरं जायं ॥ एवमेव भावे सूत्रं व्यत्यानेडयति-"सबभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पासउ ।" (दशवै० अध्य० ४ गा० ९) अत्रेदमपि घटत इति कृत्वा क्षिपति श्रूयतां धर्मसर्वखं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।। __ आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥ ( इतिहाससमुच्चये) 15 भावतो व्यत्यानेडितं सूत्रं कुर्वतोऽर्थस्य विसंवाद इत्यादि विभाषा प्रागिव यावद् दीक्षा निरर्थिका । तदेव च सूत्रमध उपरि व्यत्यासेन क्रियमाणं व्याविद्धम् । तच्च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यव्याविद्धे आवली 'ज्ञातम्' उदाहरणम्___एगा आभीरी नगरं गया । तीसे वयंसिया वाणिगिणी । सा हारं पोएइ । इयरी भणइ आणेहिं, अहं हारं पोएमि । ताए पणामिओ । इयरीए उप्परिवाडीए पोइओ । वाणिगिणी 20 वक्खित्ता आसि । पच्छा ताए दटुं भणिया-हा पावे ! विणासिओ हारो, महदुष्कर्म कृतम् ॥ भावव्याविद्धमेवम् , यथा अहिंसा संजमो तवो, धम्मो मंगलमुक्कट्ठ । जस्स धम्मे सया मणो, देवा वि तं नमसंति ॥ (दश० अ० १ गा०१) एवं व्याविद्धे भावतोऽर्थस्य विसंवाद इत्यादि विभाषा पूर्ववद् यावद् दीक्षा निरर्थिका । 25 तस्मादव्याविद्धमुच्चरितव्यम् ॥ २९६ ॥ अधुना स्खलित-मिलिता-ऽप्रतिपूर्णा-ऽघोषयुतानां व्याख्यानमाह खलिए पत्थरसीया, मिलिए मिस्साणि धनवावणया । स्खलितमिलिता. मत्ताइ-बिंदु-वन्ने, घोसा इ उदत्तमाईया ॥ २९७ ॥ दिपदानां स्खलितं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्ये 'प्रस्तरसीता' प्रस्तराकुलं क्षेत्रम् , तस्मिन् हि 30 वाह्यमानानि हल-कुलिकादीनि उत्स्फिट्य अन्यत्र निपतन्ति । एवं भावस्खलितं यदन्तराऽन्तरा आलापकान् मुञ्चति, यथा-धम्मो, अहिंसा, देवा वि तं नमसंति, (दश० अ० १ गा० १) पुप्फेसु भमरा जहा (दश० अ० १ गा० ४) । पच्छित्तं तं चेव, दोसा य । मिलितमपि १ वा ओदत्त ता॥ व्याख्या Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. भाष्यगाथाः २९६-९९] पीठिका । द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतो मिलितं बहूनां व्रीहि-यवादीनां धान्यानामेकत्र मिश्रीकृतानां वापनता-वापनम् । भावतो मिलितं यद् अन्यस्यान्यस्योद्देशकस्याध्ययनस्य वा आलापकानेकत्र मीलयति सर्व जिनवचनमिति कृत्वा । यथा--"सत्वे पाणा पियाउगा" (आचा० श्रु० १ अ० २ उ० ३) “सबजीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं" [दश.अ.६ गा.११] न नज्जड़ किं कालिय उक्कालिय छेयसुय वा ? । अत्र प्रायश्चित दीपाश्च प्राग्वत् । 5 परिपूर्ण द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतः परिपूर्णो घटः । भावे परिपूर्ण मात्रादिभिःमात्राभिः आदिग्रहणात् पदैः बिन्दुभिः वर्णैः-अक्षरैश्चापरिपूर्णे तदेव प्रायश्चित्तं दोषाश्च । मात्राभिरपरिपूर्ण यथा-"धम्म मंगलमुक्कटुं" । पदैरपरिपूर्ण यथा-"धम्मो उक्टिं" । बिन्दुभिरपरिपूर्ण यथा-"धम्मो मंगलमुक्किट्ठ" इति । वर्णैरपरिपूर्णं यथा-"धं में ल उक्कटुं" इत्यादि । घोषा उदात्तादयः, तत्र उच्चैरुदात्तः, नीचैरनुदात्तः, समाहारः स्वरितः । उच्चैःशब्देन यथा-10 "उप्पन्ने इ वा" इत्यादि । नीचैःशब्देन यथा-"जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ" (निशीथ उ०१ सू. १) इत्यादि । घोषैरयुक्तं कुर्वतस्तदेव प्रायश्चित्तं त एव च दोषाः ॥ २९७ ।। सम्प्रति व्यत्यानेडितादीनां पञ्चानां प्रकारान्तरेणार्थमभिधातुकाम आहमुत्तूण पढम-बीए, अक्खर-पय-पाय-बिंदु-मत्ताणं । व्यत्याने डितादिसव्वेसि समोयारो, सट्टाणे चेव चरिमस्स ॥ २९८ ॥ पदानां प्रथम-हीनाक्षरं द्वितीयम्-अधिकाक्षरम् एते द्वे पदे मुक्त्वा शेषाणां पञ्चानां घोषयुतवर्जा- व्याख्यानाम् अक्षर-पद-पाद-बिन्दु-मात्राणां समवतारः कर्त्तव्यः । यथा-व्यत्यानेडितं नामान्यान्य- न्तरम् शास्त्राणामक्षरैः पदैः पादैबिन्दुभिर्मात्राभिर्घोषैर्वा । व्याविद्धं तस्यैव शास्त्रस्य अधस्तनान्युपरि उपरितनान्यधोऽक्षर-पदा[दी]नि यत् करोति । स्खलितं पञ्चभिरेव पदादिभिः । मिलितं यथासामायिकपदे दशवकालिकोत्तराध्ययनप्रभृतीनामनेकानि पदानि मीलयति । अपरिपूर्ण 20 पञ्चभिरेवाक्षरादिभिः स्वगतैः । “सट्टाणे चेव चरिमस्स" [अ]घोषयुतं घोषैरेवापरिपूर्ण नाक्षरादिभिः ॥ २९८ ॥ साम्प्रतमेतेषु हीनाक्षरादिषु प्रायश्चित्तमाहखलिय मिलिय वाइद्धं, हीणं अच्चक्खरं वयंतस्स । सूत्रं हीना. विच्चामेलिय अप्पडिपुने घोसे य मासलहुं ।। २९९ ॥ क्षराद्यु-. स्खलितं मिलितं व्याविद्धं हीनाक्षरमत्यक्षरं व्यत्यानेडितमपरिपूर्णघोषं च वदतः प्रत्येकं 25 प्रा. प्रायश्चित्तं मासलघु । खामिन आज्ञाभङ्गे चतुर्गुरु, यथा स तथाऽन्येऽपि करिष्यन्तीति चतुर्गुरु। त्तम् । यथोक्तकारी न भवतीति मिथ्यात्वे चतुर्लघु । विराधना द्विविधा-आत्मविराधना संयमविराधना च । आत्मविराधना-देवतया छलनम् । संयमविराधना-कोऽपि साधुर्वारयेत् ‘मा स्खलितादीनि कुरु' ततः कलहतोऽस्थिभङ्गाद्यात्मविराधनायां परिताप-महाग्लानाद्यारोपणा संयमविराधना । सूत्रस्यान्यथोच्चारणेऽर्थविसंवादः, अर्थविसंवादे चरणाभावः, चरणाभावे मोक्षाभाव इति 30 दीक्षा निरर्थिका । लघुग्रहणाद् गुरुकमपि सूचितम् , इखोत्या यथा दीर्घस्य सूचनम् । तत्र गुरुकमिति वा अनुद्धातीति वा कालकमिति वा गुरुकस्य नामानि । लघुकमिति वा उद्धातितमिति वा शुक्लमिति वा लघुकस्य नामानि ॥ २९९ ॥ १°द्धातमि डे० ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ 10 सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहस्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः अत्र गुरु-लघुविशेषविस्तरपरिज्ञानार्थमाचार्यस्त्रिविधं प्रायश्चित्तं दर्शयति, तद्यथा-दानप्रायश्चित्तं तपःप्रायश्चित्तं कालप्रायश्चित्तं च । तत्र दानप्रायश्चित्तं गुरुकं लघुकं च । एवं तपः-कालप्रायश्चित्ते अपि गुरु-लधुके प्रत्येकं वक्तव्ये । तत्र दानप्रायश्चित्तं गुरुकमाह जे तु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुगं । जे पुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ ॥ ३०० ॥ यस्य वा तस्स वा तपसो गुरुकस्याष्टमादेरगुरुकस्य निर्वृतिकादे(निर्विकृतिकादे)यन्निरन्तरदानं तद् भवति दानप्रायश्चित्तं गुरु । यत् पुनः सान्तरमष्टमादेर्गुरुकस्य तपसो दानं तद् गुर्वपि खलु भवति लघु, यथा-आपत्तिश्चतुर्लघुकस्य षड्लघुकस्य वा तत्राष्टम-दशमानि सान्तराणि दीयन्ते । एष दानप्रायश्चित्ते गुरु-लघुकयोर्विशेषः ॥ ३०० ॥ सम्प्रति तपः-कालयोराह काल-तवे आसज व, गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो। कालो गिम्हो उ गुरू, अट्ठाइ तवो लहू सेसो ॥ ३०१ ॥ कालं तपश्चासाद्य गुर्वपि लघु भवति, लवपि च गुरु । तत्र कालो ग्रीष्मो गुरुः, तपोsष्टमादि, शेषः कालस्तपश्च लघु । इयमत्र भावना-लध्वपि यद अष्टमादिना तपसा उह्यते तत् तपोगुरु, यन्निर्विकृतिकादिना षष्ठपर्यन्तेनोह्यते तत् तपोलघु; तथा यद् ग्रीष्मे काले उह्यते 15 तत् कालगुरुं, वर्षाराने हेमन्ते वोह्यमानं काललघु ॥ ३०१ ॥ तदेवं यतः स्खलिताधुच्चारणे प्रायश्चित्तमाज्ञा-ऽनवस्था-मिथ्यात्व-विराधनाश्व दोषाः तस्मात् सूत्रं स्खलितादिदोषरहितमुच्चारणीयं पठनीयं च । एवं च पठितस्य सूत्रस्य व्याख्या कर्तव्या । तत्र व्याख्यालक्षणमाह संहिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो। षड् मेदाः चालणा य पसिद्धी र्य, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥ ३०२ ॥ 20 संहिता १ पदं २ पदार्थः ३ पदविग्रहः ४ चालना ५ प्रसिद्धिश्च ६ । एवं षड्डिधं' षट्प्रकारं व्याख्यालक्षणं 'विद्धि' जानीहि ॥ ३०२ ॥ तत्र संहितेति कोऽर्थः ? इत्याह सन्निकरिसो परो होइ संहिया संहिया व जं अत्था। संहिता लोगुत्तर लोगम्मि य, हवइ जहा धूमकेउ त्ति ॥ ३०३ ॥ यो द्वयोर्बहूनां वा पदानां 'परः' अस्खलितादिगुणोपेतो विविक्ताक्षरो झटिति मेधाविना25 मर्थप्रदायी 'सन्निकर्षः' सम्पर्कः स संहिता । अथवा यद् अर्थाः संहिता एषा संहिता । सा द्विधा-लौकिकी लोकोत्तरा च । तत्र लौकिकी 'यथा धूमकेतुः' इति, यथा इति पदं धूम इति पदं केतुरिति पदम् ॥ ३०३ ॥ तिपयं जह ओवम्मे, धूम अभिभवे केउ उस्सए अत्थो। पदार्थः पदवि को सुत्ति अग्गि उत्ते, किंलक्खणो दहण-पयणाई ।। ३०४ ।। प्रहर १गिंभो उ ता० ॥२ अत्र चर्णिकृता "तेण दोसविउत्तं सुत्तं विधीये उच्चारेयव्यं" इत्यवतीर्य "सुत्तं पदं पदत्यो." इति गाथा ३०९ व्याख्याताऽस्ति । तदनन्तरं च “अण्णे भणंति" इत्यवतीर्य “संहिता य पदं०" इति गाथा ३०२ व्याख्याताऽस्ति ॥ ३ संघिया ता० ॥ ४ य पंचहा वि° ता० ॥ ५ को सो त्ति ता०॥ व्याख्यायाः Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ चालना भाष्यगाथाः ३००-३०८] पीठिका । ___ 'यथा धूमकेतुः' इति संहितासूत्रं त्रिपदम् । सम्प्रति पदार्थ उच्यते-यथेत्यौपम्ये, धूम इत्यभिभवे, “धूवि धूनने" इति वचनात् , केतुरित्युच्छ्ये । एष पदार्थः । धूमः केतुरस्येति धूमकेतुरिति पदविग्रहः । कोऽसौ ? इति चेत् अग्निः । एवमुक्ते पुनराह-स किंलक्षणेः । सूरिराह-'दहन-पचनादि' दहन-पचन-प्रकाशनसमर्थोऽर्चिष्मान् ॥ ३०४ ॥ __ अत्र चालनां प्रत्यवस्थानं चाह जइ एव सुत्त-सोवीरगाई वि होंति अग्गिमक्खेवो । न वि ते अग्गि पइन्ना, कसिणग्गिगुणनिओ हेऊ ॥ ३०५ ॥ प्रत्यव स्थानं च दिलुतो घडगारो, न वि जे उक्खेवणाइ तकारी । जम्हा जहुत्तहेऊसमनिओ निगमणं अग्गी ॥ ३०६॥ यदि नाम दहन-पचनादिस्तर्हि शुक्ल-सौवीरकादयोऽपि दहन्ति, करीषादयोऽपि पचन्ति, 10 खद्योत-मणिप्रभृतयोऽपि प्रकाशयन्ति ततस्तेऽप्यनिर्भवितुमर्हन्ति, एषः 'आक्षेपः' चालना । अत्र प्रत्यवस्थानमाह-'नैव शुक्लादयोऽग्निर्भवन्ति' इति प्रतिज्ञा, 'कृन गुणसमन्वितत्वात्' इति हेतुः, दृष्टान्तो घटकारः, यथा हि घटकर्ता मृत्पिण्ड-दण्ड-चक्र-सूत्रोदक-प्रयत्नहेतुकस्य घटस्य कात्स्न्येनाभिनिवर्तकः, अभिनिवृत्तस्य चोत्क्षेपणोद्वहनसमर्थः, यथाऽन्ये पुरुषाः; न च ये घटस्योत्क्षेपणादयस्तत्कारी घटस्याभिनिवर्तकः । एवमत्रापि यो दहति पचति प्रकाशयति 15 च यथास्वगतेन लक्षणेनासाधारणः स एव यथोक्तहेतुसमन्वितः परिपूर्णोऽग्निर्न शुक्लादय इति निगमनम् ॥ ३०५ ॥ ३०६ ॥ सम्प्रति लोकोत्तरे संहितादीनि दर्शयतिउत्तरिऍ जह दुमाई, तदत्थहेऊ अविग्गहो चेव । लोकोत्तरे को पुण दुमु त्ति वुत्तो, भण्णइ पत्ताइउववेओ ॥ ३०७ ।। संहितातदभावे न दुमु त्ति य, तदभावे वि स दुमु त्ति य पइन्ना । तगुणलद्धी हेऊ, दिलुतो होइ रहकारो ॥ ३०८ ।। लोकोत्तरे "जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं" (दश० अ० १ गा० २) इति संहिता । अत्र पदानि-यथा इति द्रुम[स्य] इति पुप्पेष्विति भ्रमर इति आपिबतीति रसमिति । अधुना पदार्थ उच्यते-'यथा' इत्यौपम्ये । हुँ गतौ, द्रवति-गच्छति अध उपरि चेति द्रुमः, औणादिको मक्प्रत्ययः, तस्य दुमस्य । पुष्प विकसने, पुष्पन्ति-विकसन्तीति 23 पुष्पाणि, अच् , तेषु । भ्रम अनवस्थाने, भ्राम्यति निरन्तरमिति भ्रमरः, औणादिको अरः १ “एकपदलान्नास्ति विग्रहः" इति चूर्णी ॥ २°ग्गि अक्खे ता.॥ ३ “अत्र प्रसिद्धिं करोत्याचार्यः-यदभिहितमनेन 'यदि दहनादिलक्षणोऽनिर्भवति तेन तर्हि शुक्ला. दयोऽप्यग्निर्भवन्ति' इत्यत्र ब्रूमः-'असदेतत्' इति नः प्रतिज्ञा, 'कृत्स्नाग्निगुणसमन्वितत्वात्' इति हेतुः, दृष्टान्तो घटकारः, यथा हि घटकर्ता मृत्पिण्ड-चक्र-सूत्रोदक-प्रयत्नहेतुकस्य घटस्य कात्स्येनाभिनिर्वर्तको भवति अभिनिवृत्तस्य चोरक्षेपणोद्वहनसमर्थों यथा भवति तथाऽन्येऽपि पुरुषाः, नारक्षेपणोद्वहनादिसामादेव तेषां घटकर्तृवं भवति, किमेवं न गृह्यते ? घटकर्तुरेवैकस्य घटकारलं विद्यते नेतरेषाम् ? तस्मात् कृत्न गुणान्वितखात् पश्यामोऽमेरेवैकस्याग्निलं विद्यते न शुक्लादीनामिति निगमनम् ।" इति चूर्णिः॥ ४"दु द्रु गतो, द्रुमः, दोहिं वा मातो द्रुमः ।" इति न्चूर्णिः ॥ 20 दीनां यो जनम् Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्याल सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः प्रत्ययः । पा पाने, आङ् मर्यादायामभिविधौ वा, तस्य तिपि आपिबतीति रूपम् । रस आखादने, रस्यते-आखाद्यत इति रसः, कर्मण्यौणादिकः अकारप्रत्ययः, तम् । अत्र व्यस्तपदत्वाद्विग्रहाभावः, तथा चाह-"तदत्थहेऊ अविग्गहो चेव" तेषां-पदानामर्थस्य हेतुः 'अविग्रह एव' न विग्रहद्वारेणात्र पदार्थ इत्यर्थः । अत्र चालना-नोदक आह-'कः' कीह5 ग्लक्षणो द्रुम उक्तः १ । सूरिराह-भण्यते, 'पत्राद्युपेतः' पत्र-पुष्प-फलादिसमन्वितः । उक्तञ्च पत्र-पुष्प-फलोपेतो, मूल-स्कन्धसमन्वितः । एष वृक्ष इति ज्ञेयो, विपरीतमतोऽन्यथा ।। यदि पत्राद्युपेतो द्रुमस्तर्हि यदा परिशटितपाण्डुपत्रादिर्दुमो भवति तदा तस्याद्रुमत्वं प्रामोति, एषा चालना । अत्र प्रत्यवस्थानम्-'तदभावेऽपि स द्रुमः' इति प्रतिज्ञा, 'तद्गुण10लब्धित्वात्' इति हेतुः, दृष्टान्तो रथकारः; यथा हि रथकारस्य रथकरणे प्रयत्नमकुर्वाणस्यापि रथकर्तृत्वं तद्गुणलब्धित्वात्, एवं परिशटितपाण्डुपत्रस्यापि द्रुमस्य तद्गुणलब्धेरनिवृत्तत्वादव्या हतं द्रुमत्वमिति ।। ३०८ ।। सम्प्रति मतान्तरेणान्यथा व्याख्यालक्षणमाहमतान्त सुत्तं पयं पयत्थो, पयनिक्खेवो य निन्नयपसिद्धी । रेण व्या पंच विगप्पा एए, दो सुत्ते तिनि अत्थम्मि ॥ ३०९ ॥ क्षणम् 16 प्रथमतोऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । ततः 'पदं' पदच्छेदो विधेयः । तदन न्तरं पदार्थः कथनीयः । ततः 'पदनिक्षेपः' पदार्थनोदना । तदनन्तरं 'निर्णयप्रसिद्धिः' निर्णयविधानम् । पदविग्रहः पदार्थेऽन्तर्भूतः । एवमेते पञ्च 'विकल्पाः' प्रकारा व्याख्यायां भवन्ति । अत्र सूत्रं पदमिति द्वौ विकल्पौ सूत्रे प्रविष्टौ । 'त्रयः' पदार्थ-तदाक्षेप-निर्णयप्रसिद्ध्यात्मका अर्थ इति ॥३०९॥ यदुक्तमधस्तात् "सूत्रनिरुक्तमुपरि वक्ष्यामि" (गा० १८८) 20 इति तद् वक्तुकाम आह सुत्तं तु सुत्तमेव उ, अहवा सुत्तं तु तं भवे लेसो। __ अत्थस्स सूयणा वा, सुवुत्तमिई वा भवे सुत्तं ॥३१० ॥ ___ अर्थेन अबोधितं सुप्तमिव सुप्तं प्राकृतशैल्या सुत्तं । अथवा सूत्रं नाम तद् भवति 'श्लेषः' तन्तुरूपमित्यर्थः, तथा (यथा) तन्तुना द्वे त्रीणि बहूनि वा वस्तूनि एकत्र संहन्यन्ते । एवमे25 केनापि सूत्रेण बहवोऽर्थाः सङ्घात्यन्त इति सूत्रमिव सूत्रम् । अर्थस्य सूचनाद्वा सूत्रम् । सुष्टु उक्तमिति वा सूक्तम् , प्राकृतशैल्या तु सुत्तमिति ॥ ३१० ॥ सम्प्रति सूत्रशब्दस्यैव निरुक्तान्याह नेरुत्तियाइँ तस्स उ, सूयह सिव्वइ तहेव सुवइ त्ति । अणुसरति त्ति य भेया, तस्स उ नामा इमा हुंति ॥ ३११ ॥ १°तस्ततो मो० डे० ॥ २ चूर्णिकारेण "सुत्तं पयं." इति गाथयाऽनन्तरमेवोच्यमानं व्याख्यालक्षणं मौलिकत्वेनाङ्गीकृतम्, “संहिया य०" (गा० ३०२) इत्यादिनोक्तं पुनर्व्याख्यालक्षणं मतान्तरतयोपदर्शितम् । दृश्यतां पत्र ९२ टि. २ ॥ ३ त ता०॥ ४ सूतणा ता० ॥ ५°मित्ति व भ° ता.॥ ६ एगट्ठियाई तस्स ता० । गायेयं चूर्णिकृता "पासुत्त०" ३१२ गाथाऽनन्तरं विवृता वर्तते ।। सूत्र निरुकम् Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ३०९-१५] पीठिका । 'तस्य' सूत्रस्य निरुक्तान्यमूनि-सूचयतीति सूत्रम्, अथवा सीव्यतीते सूत्रम् , यदि वा सुवतीति सूत्रम् , अथवाऽनुसरतीति सूत्रम् इति निरुक्तस्य भेदाः । नामानि पुनस्तस्य 'इमानि' सुप्तादीनि वक्ष्यमाणार्थानि भवन्ति ॥ ३११ ॥ तान्येवार्थतो व्याख्यानयति पासुत्तसमं सुत्तं, अत्थेणाबोहियं न तं जाणे। लेससरिसेण तेणं, अत्था संघाइया बहवे ॥ ३१२ ॥ __यथा द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः प्रसुप्तः सन् न किञ्चित्तासां कलानां जानाति, एवमर्थेनाबोधितं न किञ्चिदर्थविशेषं जानाति । यदा त्वर्थेन प्रबोधितं भवति तदा सर्वेषां तदन्तजैतानां भावानां ज्ञायकमुपजायते, यथा स एव पुरुषः प्रबोधितस्तासां कलानाम् , अतः प्रसुप्तसमं सूत्रम् । अथवा श्लेषसदृशं तत् सूत्रं, तथाहि-तेन 'श्लेषसहशेन' तन्तुसदृक्षण बहवोऽर्थाः सङ्घातितास्ततः श्लेषसदृशम् ॥ ३१२ ॥ सम्प्रति 'अर्थस्य सूचनात्' (गा० ३१०) इति व्याख्यानयति सूइज्जइ सुत्तेणं, सूई नट्ठा वि तह सुएणऽत्थो। सिव्वइ अत्थपयाणि व, जह सुत्तं कंचुगाईणि ॥ ३१३ ॥ यथा सूची नष्टा 'सूत्रेण सूच्यते' सूत्रेणैवोपलक्ष्यते तथा श्रुतेनार्थः सूच्यत इति अर्थस्य सूचनात् सूत्रम् । एतेन 'सूचयति' (गा० ३११) इति निरुक्तं व्याख्यातम् । अधुना 15 'सीव्यति' (गा० ३११) इति व्याख्यानयति-यथा सूत्रं कञ्चकादीनि सीव्यति एवमर्थपदान्यनेकानि सीव्यतीत्यर्थस्य सीवनात् सूत्रम् ॥ ३१३ ॥ "सुवति ति" (गा० ३११) अस्य व्याख्यानमाह सूरमणी जलकतो, व अत्थमेवं तु पसवई सुत्तं । वणियसुयंध कयवरे, तदणुसरंतो रयं एवं ॥ ३१४॥ यथा सूर्यकान्तोऽग्नौ जलकान्तो जले दीप्ति श्रवति एवं सूत्रमर्थ प्रसवतीति सूत्रम् । अनुसरणं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतो वणिक्सुतोऽन्धः कचवरे दृष्टान्तः एकस्य वणिजः पुत्रोऽन्धः । वणिजा चिन्तितम्-मा एष वराकोऽनिर्विष्टं भक्तं भुङ्गाम् , 'परिभवस्थानमन्यथा गाढतरं भविष्यति' इति द्वौ स्तम्भौ निहत्य तत्र रज्जुर्बद्धा । ततः सोऽन्धपुत्रो रज्वनुसारेण कचवरं बहिस्त्याज्यते ।।। ___ एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-वणिक्स्थानीय आचार्यः, अन्धस्थानीयाः साधवः, रज्जुस्थानीयं सूत्रम् , कचवरस्थानीयमष्टप्रकारं कर्म । तथा चाह-एवं' वणिक्सुतान्धदृष्टान्तप्रकारेण 'तत्' सूत्रमनुसरन् 'रजः' अष्टप्रकारं कमें कचवरस्थानीयमपनयति, ततः सरणात् सूत्रम् । सुष्ठुक्तं सूक्तमिति नाम तु सुप्रतीतमिति न व्याख्यातम् ॥ ३१४ ।। अर्थ तत् सूत्रं कतिविधम् ? इत्यत आहसन्ना य कारगे पकरणे य सुत्तं तु तं भवे तिविहं । सूत्रस्य उस्सग्गे अववाए, अप्पे सेए य बलवंते ॥ ३१५ ॥ मेदाः १णिसुय अंध ता.॥ 20 25 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा. सूत्रम् सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः सूत्रं त्रिविधम् , तद्यथा-सञ्ज्ञासूत्रं कारकसूत्रं प्रकरणसूत्रं च । अथवा द्विविधं सूत्रम्"उस्सग्गे"त्ति औत्सर्गिकं "अववादि"त्ति आपवादिकम् । तत्र किं उत्सर्गा अल्पे ? उत अपवादाः । तथा उत्सर्गोऽपवादो वा स्वस्थाने श्रेयान् बलवाँश्च, अपरस्थानेऽवलवाँश्चा)याँश्च । एष द्वारगाथासमासार्थः ॥ ३१५॥ । साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः संज्ञासूत्रमाह उवयार अनिदुरया, कज्जित्थीदाणमाहु नित्थका । जे छऍ आमगंधादि, आरं सन्ना सुयं तेणं ॥ ३१६ ॥ यत् सामयिक्या संज्ञया सूत्रं भण्यते तत् संज्ञासूत्रम् । यथा-"जे छेए से सागारियं परियाहरे।" तथा-'आमगंधा' इति "सवामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिवए" (आचारांग 10 श्रु० १ अ० २ उ० ५) तथा-'आरं'ति "आरं दुगुणेणं पारं एगगुणेणं' इति । यच्छेकः सः 'सामारिकं' मैथुनं परियाहरे' परिवर्जयति । तथा आमम्-अविशोधिकोटिः, गन्धंविशोधिकोटिः, परिज्ञा द्विविधा-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च, तत्र ज्ञपरिज्ञया सर्वमामगन्धं परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्याय निरामगन्धः सन् परि-समन्तात् ब्रजेत् अप्रतिबद्धो विहरेदित्यर्थः । आरः-संसारस्तं 'द्विगुणेन' रागेण द्वेषेण च परिवर्जयति, 'पारं' 15 मोक्षस्तमेकेन गुणेन-राग-द्वेषपरिहारलक्षणेन साधयति । अथ कः संज्ञासूत्रेण गुणः ? इत्यत आह-"उवयारे"त्यादि पूर्वार्द्धम् । संज्ञावचनं हि क्वचिजुगुप्सितेऽर्थे प्रयुज्यमानं तद्विषयमुपचारवचनं भवति । उपचारवचनेन च भण्यमाने तस्मिन् जुगुप्सितेऽर्थे न निष्ठरतेति अनिष्ठरता । तथाकार्ये समापतिते स्त्रियाः-साळ्याः सूत्रदानमाहुः पूर्वसूरयः, ततस्तस्याः साधुसमीपे पठन्त्याः सुखेनालापको दीयते, अन्यथा व्यक्तमभिधीयमाने कथा भिन्ना भवति, ततः 20 सा 'नित्थक्का' निर्लज्जा जायते । यादृशे च कार्ये साध्वी साधुसमीपे पठति तदुपरिष्टावक्ष्यते । तेन संज्ञासूत्रमिष्यते ।। ३१६ ॥ ___ कारगसूत्रं नाम यथा-आहाकम्मन्नं भुंजमाणे समणे निग्गंथे कइ कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा! आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ । से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ ? (श० १ उ० ९) इत्यादि प्रज्ञप्तेरालापकः । ननु सर्वज्ञप्रामाण्यादेवैतच्छुद्धीयते यथाऽऽधाकर्म 25 भुञ्जान आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां बन्धकः, ततः कस्मादुच्यते "केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते" इत्यादि ? तत आह सबर्नुपमाणाओ, जइ वि य उस्सग्गओ सुयपसिद्धी । वित्थरओऽपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा ॥ ३१७ ।। यद्यपि सर्वज्ञप्रामाण्यात् 'उत्सर्गतः' एकान्तेन श्रुतस्य सर्वस्यापि प्रसिद्धिः तथापि विस्तर30 तोऽपायानां दर्शनं स्यात् 'इति' तस्मादधिकृतार्थप्रसिद्धिकारकं “से केणटेण"मित्यादि सूत्रमुपन्यस्यते ॥ ३१७ ॥ इदानीं प्रकरणसूत्रमाह १"जे छेए से सागारियं न सेवए" इति सूत्रमाचाराङ्गे श्रु० १ अ० ५ उ० १॥ २ °नुप्पामण्णा जति वि ता० ॥ कारक सूत्रम् Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका | पगरणओ पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेव - निन्नयपसिद्धी । - गोम सिञ्जा, अग - नालंदइजा य || ३१८ ॥ प्रकरणतः सूत्रं नाम यत्र स्वसमय एवाक्षेप - निर्न (र्ण) यप्रसिद्धिरुपवर्ण्यते, यथा - नेमिप्रव्रज्या गौतमकेशी आर्द्रकीयं नालन्दीयमिति ॥ ३१८ ॥ तदेवमुक्तं सञ्ज्ञादिभेदतस्त्रिप्रकारं सूत्रम् । अथुनोत्सर्गा ऽपवादभेदतो द्विविधमुच्यते । 5 उत्सर्गतत्रोत्सर्गसूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आगे तालपलंवे अभिन्ने पडिगाहि- सूत्रम् ए (उ० १ सू० १) । अववाइयं जहा - कप्पर निग्गंधाणं पक्के तालपलंवे भिन्नेऽभिन्ने अपवादवा पडिगाहित्तए (उ० १ सू० ३ ) । अथवा त्रिविधं सूत्रम् - उत्सर्गसूत्रमपवादसूत्रमुत्सर्गा-सूत्रम् पवादसूत्रं च । तत्रौत्सर्गिकमापवादिकं चोक्तम् । उत्सर्गापवादसूत्रं पुनरिदम्-नो कप्पइ निग्गं- उत्सर्गाथाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोयं आदित्तए वा आयमितए वा अन्नत्थागादेहिं रोगा- 10 पवाद - केहिं ( उ० ५ सू० ४७-४८ ) । अथवा चतुर्विधं सूत्रम् - औत्सर्गिकमापवादिकमुत्सर्गापवादमपवादौत्सर्गिकम् । तत्राऽऽद्यानि त्रीण्युक्तानि चतुर्थमपवादौत्सर्गिकमिदम्, यथाचम्मं मंसं च दलाहि मा अट्टियाणि ॥ आह उत्सर्ग इत्यपवाद इति वा कोऽर्थः ! उच्यतेजग्गुग्गो, अववाओ तस्स चैव पडिवक्खो । सूत्रम् उगा विनिवतियं, धरेइ सालंयमवत्राओ ॥ ३१९ ॥ उद्यतः सर्गः– विहार उत्सर्गः । 'तस्य च ' उत्सर्गस्य प्रतिपक्षोऽपवादः । कथम् ? इति चेद् अत आह—उत्सर्गाद् अध्वा ऽवमौदर्यादिपु 'विनिपतितं' प्रच्युतं ज्ञानादिसालम्बमपवादो धारयति ॥ ३१९ ॥ ननु स उत्सर्गादपवादं गतः सन् कथं न भवतो भवति : उच्यतेधावंतो उव्वाओ, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं । किं वा मउई किरिया, न कीरये असहुओ तिक्खं ॥ ३२० ॥ - सर्वोऽप्यस्माकं प्रयासो मोक्षसाधननिमित्तम्, स च मोक्षं तथा साधयति नेतरथा । दृष्टान्तोऽयम् — यथा कोऽपि पाटलिपुत्रं गच्छन् धावन् 'उद्वातः ' श्रान्तो भवति तदा किं न 'क्रमेण' स्वभावगत्या मार्गज्ञः सन् गच्छति ? गच्छत्येवेति भावः, केवलं चिरेण तत् पाटलिपुत्रमवाप्नोति, यदि पुनः श्रान्तोऽपि धावति तदा अपान्तराल एव म्रियते; एवमत्राप्यध्वादौ तादृशे कार्येऽपवादमप्रतिपद्यमानो विनश्यति । किं वा रोगिणस्तीक्ष्णां क्रियामसहमानस्य मृद्वी क्रिया 25 न क्रियते ? क्रियत एवेत्यर्थः । यथैतद् एवमत्राप्युत्सर्गात् परिभ्रष्टस्यापवादगमनम् ॥ ३२० ॥ ननु किमुत्सर्गादपवादप्रसिद्धि: : उतापवादादुत्सर्गस्य : तत आह भाष्यगाथाः ३१६-२१ ] ______ 'उन्नयमविक्ख निन्नस्स पसिद्धी उन्नयस्स निनाओ । इय अन्नुन्नपसिद्धा, उस्तग्ववायम तुला || ३२१ ॥ बृ० १३ ९७ १ नमिप्रव्रज्या गौतम केशीयं के शिगौतमीयमिति द्वे अध्ययने उत्तराध्ययने क्रमशः नवम त्रयोविंशतितमे ॥ २ आर्द्रकीयं नालन्दीयमिति द्वे अध्ययने सूत्रकृदङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे क्रमशः षष्ट-सप्तमे ॥ ३ “अभिकखसि मे दाउँ जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि मा य अद्वियाणि" इति आचाराने श्रु० २ चू० १ अ० १ ० १० ॥ ४°म° ता० ॥ ――― प्रकरण सूत्रम् अपवादो सर्गसूत्रम् उत्सर्गापवादयो 16 रर्थः 20 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पदम् पदार्थः सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः यथोन्नतमपेक्ष्य निम्नस्य प्रसिद्धिः निम्नाच्चोन्नतस्य प्रसिद्धिः 'इति' एवम् ' अन्योऽन्यप्रसिद्धौ' उत्सर्गादपवादोऽपवादादुत्सर्गः प्रसिद्ध इति द्वावप्युत्सर्गा - ऽपवादौ तुल्यौ ॥ ३२१ ॥ तदेवमुत्सर्गापवादद्वारमुक्तम् । इदानीमत्पद्वारमुच्यते । शिष्यः पृच्छति - भगवन् ! किमुसर्गा अल्पे ? उतापवादाः ? उच्यते- तुल्याः । यत आह जावया उस्सग्गा, तावइया चैव हुंति अववाया । जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ॥ ३२२ ॥ 5 ९८ 25 30 यावन्त उत्सर्गास्तावन्तोऽपवादाः, यावन्तोऽपवादास्तावन्त उत्सर्गाः । कथम् ? इति चेद् उच्यते-सर्वस्यापि प्रतिषेधस्यानुज्ञाभावाद् द्वयेऽपि तुल्याः ॥ ३२२ ॥ 10 साणे सहाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए । सट्टा-पट्ठाणा, यहुंति वत्थूतो निफन्ना ॥ ३२३ ॥ शिष्यः पृच्छति-किमुत्सर्गः श्रेयान् बलवाँश्च ? उतापवादः ? | सूरिराह - 'एते खलु' उत्सर्ग अपवादाश्च खस्थाने स्वस्थाने श्रेयांसो बलिनश्च भवन्ति, परस्थाने परस्थानेऽश्रेयांसो दुर्बलाश्च । अथ किं स्वस्थानम् ? किंवा परस्थानम् ? अत आह— स्वस्थान- परस्थाने वस्तुतो 15 निष्पन्ने ॥ ३२३ ॥ अथ वस्त्वेव न जानामि, किं तद् वस्तु ? इति उच्यते -पुरुषो वस्तु । तथा चाह संथरओ सङ्काणं, उस्सग्गो असहुणो परद्वाणं । इय सट्टा परं वा न होइ वत्थू विणा किंचि ॥ ३२४ ॥ ‘संस्तरतः’ निस्तरत उत्सर्गः स्वस्थानम् अपवादः परस्थानम्, 'असहस्य' असमर्थस्य - य 20 संस्तरीतुं न शक्नोति तस्यापवादः स्वस्थानमुत्सर्गः परस्थानमिति । एवममुना प्रकारेण पुरुषलक्षणं वस्तु विना न किञ्चित् स्वस्थानं परस्थानं वा, किन्तु पुरुषो वस्तु संस्तरति न वेति अतः पुरुषात् स्वस्थानं परस्थानं वा निष्पद्यते । तत उक्तं प्राक् “खस्थान - परस्थाने वस्तुतो भवतो निष्पन्ने" ( गाथा ३२३ ) || ३२४ ॥ गतं सूत्रद्वारम् । अधुना पदद्वारमाहनाम निवाउवसग्गं, अक्वाइय मिस्सयं च नायव्वं । पंचविहं होइ पर्य, लक्खणकारेहिँ निद्दिद्धं ॥ ३२५ ॥ सम्प्रति "सेय - बलवंते" इति द्वारद्वयं व्याचिख्यासुराह ‘पञ्चविधं' पञ्चप्रकारं पदं 'लक्षणकारैः' पदलक्षणविद्भिः 'निर्दिष्टम्' आख्यातम् । तद्यथाअश्व इति नामिकम्, खलु इति नैपातिकम्, परि इत्यौपसर्गिकम्, पचति इत्याख्यातिकम्, संयत इति मिश्रम् ॥ ३२५ ॥ उक्तं पदम् । अधुना पदार्थद्वारमाह हो पत्थो चहा, सामासिय तद्धिओ य धाउकओ । रुत्तिओ उत्थो, तिन्ह पयाणं पुरिल्लाणं ॥ ३२६ ॥ 'त्रयाणां पूर्वाणां पदानां' नाम-निपातौपसर्गिकाणां चतुर्विधः पदार्थो भवति । तद्यथासामासिकः तद्धितो धातुकृतो नैरुक्तश्च चतुर्थः । तत्र सामासिकः सप्तधा - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थः भाष्यगाथाः ३२२-२९] पीठिका। दंदे य बहुवीही,' कम्मधारय दिगूयए चेव । सामासिकः पदार्थः तप्पुरिस अबईभावे, एगसेसे य सत्तमे ॥ तत्र द्वन्द्वो यथा-दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्ठौ । बहुव्रीहिर्यथा-फुल्ला इमम्मि गिरिम्मि कुडय-कयम्बा सो इमो गिरी फुल्लकुडय-कयंबो । कर्मधारयः-श्वेतः पटः श्वेतपटः । द्विगु: त्रीणि मधुराणि त्रिमधुरम् । तत्पुरुषो-वने हस्ती वनहस्ती । अव्ययीभावः-गङ्गायाः । समीपं उपगङ्गम् । एकशेषो यथा-पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषाः, एवं वृक्षा इत्यादि । उक्तः सामासिकः । सम्प्रति तद्धित उच्यते-सोऽष्टप्रकारः । उक्तञ्चकम्मे सिप्पे सिलोगे य, संजोग-समीवओ य संजूहे । ताद्धितिका पदार्थः ईसरियाऽवच्चेण य, तद्धियअत्यो उ अट्टविहो ॥ तत्र कर्मतो यथा-तृणहारकः । शिल्पतो यथा-तन्तुवायः । 'श्लोकतः' श्लाघातो 10 यथा-श्रमणः संयत इत्यादि । संयोगतो यथा-राज्ञः श्वसुरः । समीपे यथा-गिरिसमीपे नगरम् । संव्यूहतो यथा-मलयवतीकार इत्यादि । ऐश्वर्यतो यथा-राजा युवराज इत्यादि । अपत्यतः-तीर्थकरमाता चक्रवर्तिमाता इत्यादि ॥ ___ उक्तस्तद्धितः । सम्प्रति धातुकृत उच्यते-भू सत्तायाम् परस्मैभाषा इत्यादि । नैरुक्तः-- धातुकृतः मह्यां शेते महिष इत्यादि ॥ ३२६ ॥ आद्यानां त्रयाणां पदानामेष पदार्थः । सम्प्रत्याख्या- 15 नरुक्तश्च तिकपदस्य मिश्रपदस्य च पदार्थमाहकारगकओ चउत्थे, मिस्सपदे मिस्सओ चउत्थो उ । आख्याति कः मिश्रश्व सामासिओ सत्तविहो, हवइ पयत्थो उ नायव्वो ॥ ३२७॥ पदार्थः 'चतुर्थे' आख्यातिके पदे पदार्थः 'कारककृतः' क्रियाकृतः । मिश्रपदे मिश्रपदार्थः । तत्र यः सामासिकः पदार्थः स सप्तविधो ज्ञातव्यः, स च प्रागेवोपदर्शितः ॥ ३२७ ॥ 20 उक्तः पदार्थः । इदानीमाक्षेपं प्रसिद्धिं चाह___ अक्खेवो सुत्तदोसा, पुच्छा वा तत्तो निन्नयपसिद्धी । आक्षेपः __ आयपया दो सुत्ते, उवरिल्ला तिनि अत्थम्मि ॥ ३२८॥ निर्णय प्रसिद्धिश्च आक्षेपो नाम यत् सूत्रदोषा उच्यन्ते पृच्छा वा क्रियते । 'ततः' तदनन्तरं 'निर्णयप्रसिद्धिः' प्रत्यवस्थानम् । एतेषु च सूत्र-पदादिषु पञ्चसु मध्ये आये द्वे पदे सूत्रेऽन्तर्भवतः, 25 'उपरितनानि त्रीणि' पदार्थप्रभृतीनि पदानि अर्थे भवन्ति ॥ ३२८ ॥ अथ पदस्य किं परिमाणम् ? अत आह अथवसा हवइ पयं, अत्थो इच्छियवसेण विन्नेओ। इच्छा य पकरणवसा, पगरणओ निच्छओ सत्थे ॥ ३२९ ॥ यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदम् , अतोऽर्थवशाद्भवति पदम् । अर्थस्य किं परिमाणम् ? अत 50 आह-अर्थ ईप्सितवशेन विज्ञेयः, इच्छावशेनेत्यर्थः । इच्छायाः किं प्रमाणम् ? अत आह-इच्छा च 'प्रकरणवशात्' प्रकरणानुरोधत इच्छायाः परिमाणम् । प्रकरणस्य च निश्चयः १°ही, बोद्धव्वे कम्मधारय दिगू य । तप्पुरिसऽन्वइभावे इतिरूपा गाथा चूर्णौ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः 'शास्त्रे' शास्त्रानुसारतः ॥ ३२९ ॥ गतं लक्षणद्वारम् । एवंगुणयुक्तस्य सूत्रस्य कोऽर्हः ? इत्यनेन सम्बन्धेन तदर्हद्वारमापतितम् । तत्र सोऽहं उण्डिकादिदृष्टान्तस्योपनयभूतस्तत आहतदर्हद्वारम् उंडिय भूमी पेढिय, पुरिसग्गहणं तु पढमओ काउं । __ एवं परिक्खियम्मी, दायव्वं वा न वा पुरिसे ॥ ३३०॥ नवे नगरे निवेश्यमाने प्रथमतः 'उण्डिका' या यस्य योग्या भूमिस्तस्य तत्पदानार्थ मुद्रा पात्यते, ततो भूमिशोधनम् , तदनन्तरं पीठिका । एवमत्रापि प्रथमतः पुरुषग्रहणं कृत्वा तदनन्तरं परीक्षा कर्तव्या-किमयमपरिणामकः ? अतिपरिणामकः ? परिणामको वा ! इति । एवं पुरुषे परीक्षिते दातव्यं न वा ? अपरिणामिकेऽतिपरिणामिके वा न दातव्यं परिणामिके 10 दातव्यमिति गाथासङ्केपार्थः ॥ ३३० ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीपुराह अभिनवनगरनिवेसे, समभूमिविरेयणक्खरविहन्नू । पाडेइ उंडियाओ, जा जस्स सठाणसोहणया ॥ ३३१ ॥ खणणं कोण ठवणं, पेढं पासाय रयण सुहवासो । इय संजम नगरुंडिय, लिंग मिच्छत्तसोहणयं ॥ ३३२॥ वय इट्टगठवणनिमा, पेढं पुण होइ जाव सूयगडं । पासाओ जहिं पगयं, रयणनिभा हुंति अत्थपया ॥ ३३३ ॥ अभिनवे नगरे निवेश्यमाने प्रथमतो भूमिः परीक्ष्यते । परीक्ष्य च तस्याः समभूमिविरेचन विधीयते । तदनन्तरमक्षरविधिज्ञो या यस्य योग्या भूमिस्तस्य तस्याः प्रदानार्थ 'उण्डिकाः' अक्षरसहिता मुद्रिकाः पातयति । (ग्रन्थानं २५००) ततः स्वस्थानस्य शोध20 नता-शोधनम् ॥ ३३१॥ ततः खस्याः स्वस्या भूमेः खननम् । तदनन्तरं द्रुधणैरिष्टकाशकलानि प्रक्षिप्य तेषां कुट्टनम् । ततस्तस्योपरि इष्टकानां स्थापनम् , तच्च तावद् यावत् पीठम् । ततस्तस्य पीटस्योपरि प्रासादकरणम् । तदनन्तरं तेपां प्रासादानां रनैरापूरणम् । ततः सुखेन वासः-परिवसनम् । एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः--भूमिग्रहणस्थानीयं पुरुषग्रहणम् , शुद्धं पुरुष परीक्ष्य तस्य 25 प्रव्रज्यादानमित्यर्थः । ततः 'इति' एवमुक्तप्रकारेण नगरस्थानीये संयमे स्थाप्यते । तत उण्डिकास्थानीयं रजोहरणादि लिङ्गं दीयते । तदनन्तरं मिथ्यात्वस्याज्ञानस्य च कचवरस्थानीयस्य शोधनम् ॥ ३३२ ॥ ततः शोधयित्वा मिथ्यात्वं समूलभुत्खत्य स्थिरीकरणनिमित्तं सम्यक्त्वद्रुघणैर्यच्छेषमवतिष्ठते मिथ्यात्वपुद्गलात्मकं तत् कुट्टयित्वा भरगच्छन्नाग्निमिव कृत्वा तत उपरि इष्टकास्थापननिभानि 30 व्रतानि दीयन्ते । तत आवश्यकमादिं कृत्वा यावत् सूत्रकृतं तावत् पीठं भवति । ततो यकाभ्यां प्रकृतं तौ कल्प-व्यवहारौ प्रासादस्थानीयौ दीयेते । तत्रार्थपदानि यानि तानि रत्ननिभानि ॥ ३३३ ॥ १पाउंति उता० ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३०-३७] पीठिका। गतं तदर्हद्वारम् । अधुना पर्षद्वारम् , यस्याः कल्प-व्यवहारौ दीयेते सा शैलघनादिभिईष्टान्तैः परीक्षितव्येति तानेव दृष्टान्तानाह पर्षवारम् न्तः सेलघण कुडग चालिणि, परिपूणग हंस महिस मेसे य । ___ मसग जलूग विराली, जाहग गो भेरि आमीरी ॥ ३३४ ॥ प्रथमः शैलघनेन दृष्टान्तः । तत्र शैल इति मुद्गप्रमाणः पाषाणो मुद्गशैलः, घनः पुष्करसंवतको महामेघः । तदृष्टान्तभावना एवम् मुग्गसेलस्स पुक्खलसंवट्टगस्स य महामेहस्स विसंवाओ । मुद्गसेलगो भणइ-जइ तुम मुद्रशैल मम तिलतुसमित्तमवि सकेसि खंडिउं तो सचं तुमं पोक्खलसंवट्टउ त्ति । सो पडिभणइ-जइ घनदृष्टा तुम एगधारानिवायमवि सक्केसि सहिउं तो सच्चं तुम मुग्गसेलो ति । एवं पडिभणिता मुट्ठिप- 10 माणमित्ताहिं धाराहिं वरिसिउं पयट्टो । ततो सत्तरतं वरिसित्ता चिंतेइ-सो विराओ होज्जा । तओ टिओ । तओ मुग्गसेलो चिगचिगंतो अच्छइ । ताहे सो मुग्गसेलओ तं गजइ आगारेइ य, जहा-जं तं भणियं तं कहिं गयं ? ति । मेहो लज्जिओ विलक्खीभूओ। एवं सेलसमं सिस्समेगो आयरिओ गाहेउं न सक्को । तओ अन्नो भणइ-अहं गाहेमि । सो वि किलिस्सित्ता निविजइ, न सक्कइ गाहेउं ॥ ॥ ३३४ ॥ एतदेवाह- 15 उल्लेऊण न सका, गजइ इय मुग्गसेलओ रने । तं संवगमेहो, सोउं तस्सोवरिं पडइ ॥ ३३५ ॥ रेविउ त्ति ठिओ मेहो, उल्लो य न व ति गजइ य सेलो । सेलसमं गाहिस्सं, निधिजइ गाहगो एवं ।। ३३६ ॥ आर्दीकर्तुं न शक्यः 'इति' एवं मुद्गशैलकोऽरण्ये गर्जयति । 'तच' मुद्गशैलवचनं श्रुत्वा 30 संवर्तकमेघस्तस्योपरि 'पतति' सप्तरात्रं वर्षतीत्यर्थः ॥ ३३५ ॥ तदनन्तरं द्रावित इति विचिन्त्य स्थितो मेघः । आद्रों न वा ? 'इति' एवं 'शैलः' मुद्गशैलो गर्जयति । एष दृष्टान्तः, उपनयमाह-शैलसमं ग्राहयिष्यामि इति कृतप्रतिज्ञः ‘एवं' पुष्करावर्तकदृष्टान्तप्रकारेण ग्राहको निर्विद्यते ॥ ३३६ ॥ न केवलं निर्विद्यते किञ्चायमपरो दोषःआयरिए सुत्तम्मि य, परिवाओ सुत्त-अत्थपलिमंथो। समं शिअण्णेसि पि य हाणी, पुट्ठा वि न दुद्धदा वंझा ॥ ३३७॥ क्षयतो आचार्ये परिवादो यथा-अयमयोग्यः शिक्षापयितुम् , कथमन्यथा ईदृशं शिक्षयति । दोषाः सूत्रपरिवादो यथा-नूनमेतादृशमेवेदं सूत्रं यदेतादृशः पठति । सूत्रा-ऽर्थपलिमन्थ एवम्-यावत् स ग्राह्यते तावदात्मना न गुणयति न चाथै परिभावयति ततः स्वतः सूत्रा-ऽर्थव्याघातः । 30 तथा 'अन्येषामपि' श्रोतृणां सूत्रा-ऽर्थहानिः, निरन्तरं तच्छिक्षणे व्यापृतत्वात् । न च तस्य १ प्रथमतः शैल° त० ॥ २ मुग्गसे भा० ॥ ३ तत्थ अ° मो० ॥ ४ तस्सुपरि ता० ॥ ५दवि मो०॥ 25 मुद्रशैल. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णभूम्युदाह रणम् फुटोदाहरणम् १०२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः तथाशिक्षणे कश्चिदुपकारः, केवलं सुबहुरपि तत्र क्लेशः क्रियमाणो निरर्थकः । एतदेव प्रतिवस्तूपमया दर्शयति-स्पृष्टाऽपि वन्ध्या गौर्न दुग्धदा भवति, एवं सोऽपि शिष्यमाणो न किञ्चिदवगाहते ॥ ३३७ ।। शैलघनप्रतिपक्षे च शिष्ये कृष्णभूमकल्पे दातव्यम् । तथा चाह बुट्टे वि दोणमेहे, न कण्हभोमाउ लोट्टए उदयं । । गहण-धरणासमत्थे, इय देयमछित्तिकारिम्मि ॥ ३३८ ॥ कृष्णभूमे प्रदेशे द्रोणमेघेऽपि वृष्टे यद् यत्र पतत्युदकं तर्त्तथैव प्रविशति, न पुनस्तस्मात् कृष्णभूमादन्यत्र लोटते । 'इति' एवं ग्रहण-धारणासमथे अव्यवच्छित्तिकारिणि देयं सूत्रम् ॥ ३३८ । अधुना कुटद्वारमाह भाविय इयरे य कुडा, पसत्थ-अपसत्थमाविया दुविहा । 10. पुप्फाईहिँ पसत्था, सुर-तिल्लाईहिँ अपसत्था ॥ ३३९ ॥ अम्मा य अचम्मा वि य, पसत्थवम्मा य हुँति अग्गिज्झा। अपसत्थअवम्मा वि य, तप्पडिवक्खा भवे गिज्झा ॥ ३४० ॥ __'कुटाः' घटाः । ते द्विधा-भाविता इतरे च । तत्र ये भावितास्ते द्विधा-प्रशस्तभाविता अप्रशस्तभाविताश्च । तत्र ये पुष्पादिभिर्भावितास्ते प्रशस्तभाविताः । सुरा-तैलादिभिर्भाविताः 16 अप्रशस्ताः' अप्रशस्तभाविताः । पुष्पादिभिरित्यत्राऽऽदिग्रहणात् कर्पूरादिपरिग्रहः । सुरातैलादिभिरित्यत्र वशादिग्रहणम् ॥ ३३९ ॥ तत्र ये प्रशस्तभावितास्ते द्विविधाः-वाम्या अवाम्याश्च । वाम्या नाम ये तं भावं च्याव. यितुं शक्याः, इतरे अवाम्याः । येऽप्यप्रशस्तभावितास्तेऽपि द्विधा-वाम्या अवाम्याश्च । तत्र ये प्रशस्तभाविता वाम्या ये चाप्रशस्तभाविता अवाम्यास्तेऽग्राह्याः । ये तु 'तत्प्रतिपक्षाः' 20 प्रशस्तभाविता अवाम्या ये चाप्रशस्तभाविता वाम्यास्ते ग्राह्याः। एते द्रव्यकुटाः । एवं भावकुटाः शिष्या अपि परिभावनीयाः ॥ ३४० ॥ तथा चाह कुप्पवयण-ओसनेहिँ भाविया एवमेव भावकुडा । संविग्गेहिँ पसत्था, वम्माऽवम्मा य तह चेव ॥ ३४१॥ 'एवमेव' अनेनैव द्रव्यकुटदृष्टान्तप्रकारेण भावकुटा अपि द्रष्टव्याः । तद्यथा-भाविता 25 अभाविताश्च । तत्र भाविता द्विविधाः-प्रशस्तभाविता अप्रशस्तभाविताश्च । तत्र ये कुप्रवच नैरवसन्नैश्च भावितास्तेऽप्रशस्तभाविताः, ये संविमै वितास्ते 'प्रशस्ताः' प्रशस्तभाविताः । एकैके द्विविधाः-वाम्या अवाम्याश्च । तत्र ये प्रशस्तभाविता वाम्या ये चाप्रशस्तभाविता अवाम्या एते अग्राह्याः । ये च प्रशस्तभाविता अवाम्या ये चाप्रशस्तभाविता वाम्या एते द्वयेऽपि ग्राह्याः । ये अवाम्यास्ते सुचिरेणापि कालेन तं भावं न परित्यजन्ति, ततः पश्चात्ते 30 निश्रापदं लब्ध्वा पापपरा जायन्ते । ग्राह्या नाम कथनयोग्याः, अग्राह्या अकथनीयशास्त्राः॥३४१॥ जे पुण अभाविया ते, चउबिहा अहविमो गमो अन्नो। छिडकुड खंड बोडे, सगले य परूवणा तेसिं ॥ ३४२ ।। १ शिक्ष्यमा ले. भा० ॥ २ भूमिक° मो० ॥ ३ °भूमिप्र मो० त० ॥ ४ त्तत्रैव मो० ॥ ५ कुड भिनखंडे सग° ता०॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३८-४४] पीठिका। १०३ ये पुनस्तैलादिभिरभावितास्ते निर्विवादं परिग्राह्याः। एतदेकेषामाचार्याणां मतेन भणितम् । अथवाऽयमन्यो गमः, किमुक्तं भवति ?-अन्ये आचार्या यदा कुटद्वारं प्राप्तं भवति तदा ते एवं प्ररूपयन्ति-द्विविधाः कुटाः-द्रव्यकुटा भावकुटाश्च । द्रव्यकुटाश्चतुर्विधाः, तद्यथाछिद्रकुटः खण्डकुटो बोडकुटः सकलकुटः । तेषां' चतुर्णामपि प्ररूपणा कर्त्तव्या, सा चैवम्छिद्रकुटो नाम यस्याधश्छिद्रम् , तत्र यत् प्रक्षिप्यते तत् सर्वं गलति । खण्डकुटो नाम यस्य: कर्णी बोटी, स पानीयमूनं गृह्णाति । बोटकुटो यस्यैकपाधै कपाल भेदः, तत्र स्तोकं तिष्ठति । सकलो नाम सम्पूर्णस्तत्र यत् क्षिप्यते तत् सर्व तिष्ठति । एवं शिष्या अपि चत्वारो भवन्ति, तद्यथा-छिद्रकुटसमानः खण्डकुटसमानो भिन्नकुटसमानः सकलकुटसमानश्च । एते भावकुटाः । छिद्रकुदसमानो यावत् कथ्यते तावत् स्मरति, उत्थितः किमपि न स्मरति । खण्डकुटसमान ऊनं गृह्णाति । भिन्नकुटसमानः स्तोकम् । सकलकुटसमानः समस्तम् । तथा 10 चास्या एव गाथाया इयं व्याख्यानभूता गाथा जे पुण अभाविया ते, वि गज्झ चउहा कुडा व होतऽण्णे । छिड्नुकुड बोड खंडे, सगले य परूवणा तेसिं ।। ततो नाधिकृतव्याख्यानविरोधः । एतेषां सकलकुटसदृशं वर्जयित्वा शेषाणां ये मुद्गशैलसमानस्य दोषास्ते द्रष्टव्याः । सकलकुदसमानस्य त्वव्यवच्छित्तिकारित्वात् कथनीयम् ।। ३४२ ॥ 15 सम्प्रति चालनीदृष्टान्तो यथा-चालिन्यामुदकं प्रक्षिप्यमाणमेवाधस्तादपगच्छति । एवं यस्यैकेन कर्णेन प्रविशति द्वितीयेन निर्गच्छति स चालनीसमानस्तस्यापि न कथनीयम् , मुद्गशैलस्येवानेकदोषप्रसङ्गात् ॥ सेले य छिद्द चालिणि, मिहो कहा सोउ उठियाणं तु।। छिड्डाऽऽह तत्थ विहो, सरिंसु सुमरामि नेयाणि ॥ ३४३ ॥ 200 'चालनीएगेण विसइ वीएण नीइ कनेण चालिणी आह । समानां शिष्याणां घन्न स्थ आह सेलो, जं पविसइ नीई वा तुझं ॥ ३४४ ॥ मिथः तेषां मुद्गशैल-च्छिद्रकुट-चालनीसमानानां शिष्याणां व्याख्यां श्रुत्वोत्थितानामेवरूपा संकथाः मिथः कथा प्रावत-कथयत आर्याः ! केन किमवधारितम् ? । तत्र छिद्रकुटसमानो ब्रूते यावत् तत्र मण्डल्यामुपविष्ट आसीत् (आसं) तावत् स्मृतवान् , उत्थितस्य सर्व । विस्मृतम् ॥ ३४३ ॥ चालनीसमान आह-ममैकेन कर्णेन 'विशति' प्रविशति द्वितीयेन निर्गच्छति । शैल. समानः प्राह-धन्याः स्थ यूयम् यद् युष्माकं कर्णेषु प्रविशति निर्गच्छति च, मम तु मन्दभाग्यस्य मूलत एव न प्रविशति ॥३४४॥ चालनीप्रतिपक्षस्य कथयितव्यम् , यत आह तावसखउरकढिणयं, चालणिपडिवक्खु न सवइ दवं पि। 30 चालिन्याः प्रतिपक्षस्तापसस्य भाजनं खउरम्, विस्वरस-भल्लातकरसाभ्यां लिप्तत्वात् 'कठि१धन्नो त्थ ता. विना ॥ २ नीति वि य तु ता० ॥ ३ “जाव तत्थ मंडलीए अच्छिताइओ ताव सुमरियाइओ अहं, उठियस्स सव्वं विस्सरितं" इति चूर्णिकृतः॥ मुद्रशैल. छिद्रकुट Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि पूणक दृष्टान्तः हंसष्टान्तः महिष स्ष्टान्तः मेष - शन्तः १०४ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे . [ अनुयोगाधिकारः नम्' अतिशयेन धनं तद् 'द्रवमपि' पानीयमपि, आस्तामन्यदित्यपिशब्दार्थः, न श्रवति, तादृशस्याव्यवच्छित्तिकारित्वाद् दातव्यम् || अधुना परिपूर्णकदृष्टान्तः परिपूर्णगं पिव गुणा, गलंति दोसा य चिट्ठति ॥ ३४५ ॥ परिपूर्णको नाम येन घृतपूर्णयोग्यं पानं गाल्यते, तत्र सारो गलति कल्मषं तिष्ठति, एवं b यस्य गुणा गलन्ति दोषास्तिष्ठन्ति स परिपूणकसमानः, तस्मिन्न कथनीयम्, शैलसमानोक्तदोषप्रसङ्गात् ॥ ३४५ ॥ आह किं भट्टारकवचनेऽपि दोषाः सन्ति येनोच्यते ' दोषास्तिष्ठन्ति' इति ? तत्राह - सव्वन्नुप्पामन्ना, दोसा उ न हुंति जिणमये के वि । जं अणुवउत्तकहणं, अपत्तमासज्ज व हेवंति || ३४६ ॥ 10 सर्वज्ञप्रामाण्यान्न केचिद् जिनमते दोषा विद्यन्ते । उक्तञ्च– वीतरागा हि सर्वज्ञाः, न मिथ्या ब्रुवते वचः । यस्मात् तस्माद् वचस्तेषां, तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ केवलं यद् अनुपयुक्तस्याचार्यस्य कथनम् अथवा परः श्रोता अपात्रं तद् आसाद्य गुणा अपि सर्पमुखे प्रविष्टं दुग्धमिव दोषीभवन्ति ॥ ३४६ ॥ सम्प्रति हंसदृष्टान्तभावनामाहअंतणेण जीहाइ कूइया होई खीरमुदगम्मि | 15 हंसो मोत्तूण जलं, आपियर पयं तह सुसीसो || ३४७॥ परिपूणकप्रतिपक्षो हंसः । तथाहि - हंसस्य जिह्वां अम्ला, ततो जिह्वाया अम्लत्वेन तत्सम्पर्कतः क्षीरमुदके कूचिका भवन्ति, ततो जलं मुक्त्वा यत् 'पयः' क्षीरं कूचिकाभूतं तद् आपिबति । एवं यो गुणान् गृह्णाति दोषान् त्यजति तस्य हंससमानस्य दातव्यम् ॥३४७॥ महिषदृष्टान्तमाह--- 20 यथा महिषस्तृषापीडितः पानीयं पास्यामीति बुद्ध्या कञ्चिद् हृदमवतीर्णः । स प्रथममेव प्रविष्टः सन् सर्वमुदकं लोलयति - कलुषयति तावद् यावत् कर्दमीभवति । तच्च तथाकर्दमी - 25 भूतं नात्मना पिबति नापि यूथं पिवति । एवं यः शिष्यः प्रारब्धे व्याख्याने विग्रहेण - यथा अमुको भिक्षायां न गच्छति अमुक एतादृशस्तादृश इति विकथाभिर्नानाप्रकाराभिः यदि वा ‘अथकपृच्छाभिः' अप्रस्तावपृच्छाभिराचार्यं तथा परिश्रमयति यथा न तस्य कथयति नाप्यन्यस्य गणस्य स एष कुशिप्यस्तस्मै न कथनीयम् ॥ ३४८ ॥ यस्तु महिषसदृशप्रतिपक्षों मेषसदृशस्तस्मै कथनीयम् । तथा चाह 30 सयमवि न पियइ महिसो, न य जूह पिर्वैह लोलियं उदयं । विग्गह-विकहाहिं तहा, अथकपुच्छाहि ये कुसीसो ॥ ३४८ ॥ अवि गोपयमिवि पिवे, सुढिओ तणुयत्तणेण तुंडस्स । न करेइ कलस तोयं, मेसो एवं सुसीसो वि ॥ ३४९ ॥ १ हवेज्जा ता० ॥ २ जिन्भाए कृतिगा ता० ॥ ३ आतियंति पयं तह सुसिस्सो ता० ॥ ४ पियति कलुसितं तोयं ता० ॥ ५ य अभागी ता० ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३४५-५५] पीठिका। १०५ दृष्टान्तः 10 दृष्टान्तः 'मेषः' एडकः सः 'अपि' सम्भावनायां गोप्पदेऽपि 'तोयं' पानीयं जानुभ्यामधो निपत्य "सुढिओ"त्ति सुष्ठादृतो भूत्वा 'तुण्डस्य' वदनस्य तनुत्वेन पिबति, न च तथा पिबन् तत् तोयं कलुषं करोति । एवं यः सुशिष्य आचार्यमनुत्तेजयन् गृह्णाति स मेषसदृश इति तस्मै दातव्यम् ॥ ३४९॥ सम्प्रति मसकदृष्टान्तमाहमसगो व तुदं जच्चाइएहिं निच्छुभई कुसीसो वि। 5 मशकयथा मसगो लगन्नेव दुःखापयति, ततः पश्चादुड्डाप्यते । एवं यः शिष्यो जात्यादिभिस्तुदति-हीलयति स तुदन् निष्काश्यते, तादृशस्य दानेऽसङ्खडादिदोषप्रसङ्गात् । जलुगा व अमितो, पियइ सुसीसो वि सुयनाणं ॥ ३५० ॥ जलौका. मसकप्रतिपक्षो जलौका, यथा सा शरीरे लमा अदुःखापयन्ती रुधिरमापिबति, उक्तञ्च- दृष्टान्तः दंसो तिक्खनिवाएण, अप्पणो वह मिच्छई। जलुगा वि तदेवत्थं, मद्दवेणोपसप्पई ॥ एवं यः शिष्य आचार्यम् 'अदूनयन्' अदुःखापयन् श्रुतज्ञानमापिबति तस्मिन् सुशिष्ये दातव्यम् ॥ ३५० ॥ अधुना बिडालीदृष्टान्तमाहछड्डेउं भूमीए, खीरं किल पिवइ मुद्ध मजारी । बिडाली. परिसुट्टियाण पासे, सिक्खइ एवं विणयभंसी ॥ ३५१ ॥ 'मुग्धा' अपण्डिता मार्जारी किल क्षीरं भूमौ छर्दयित्वा पिबति । एवं यो गौरवमात्मनो धारयन् मण्डल्यां न शृणोति, किन्तु यदा पर्षदः श्रोतार उत्थिता भवन्ति तदा तेषामनुभाषमाणानां पार्थे उपविश्य शृणोति तस्मै न दातव्यम् ॥ ३५१ ॥ अधुना जाहकदृष्टान्तमाह पाउं थोवं थोवं, खीरं पासाणि जाहगो लिहइ। .. एमेव जियं काउं, पुच्छइ मइमं न खेएइ ॥ ३५२ ॥ जोहकः स्तोकं स्तोकं क्षीरं पीत्वा पार्धाणि लेढि । एवमेव यो मतिमान् पूर्वगृहीतं जितं कृत्वा पृच्छति न पुनः खेदयति गुरुम् , तस्मिन् जाहकसदृशे दातव्यम् ॥ ३५२ ॥ गोदृष्टान्तमाहअन्नो दुझिहि कल्लं, निरस्थयं किं वहामि से चारि । गोदृष्टान्तः चउचरणगवी य मया, अवण्ण हाणी य मरुयाणं ॥ ३५३ ॥ 25 मा णे हुज अवनो, गोवज्झा मा पुणो य न दलिजा । वयमवि दोन्झामो पुण, अणुग्गहो अन्नदृढे वि ॥ ३५४ ॥ सीसा पडिच्छगाणं, भरो ति ते वि य हु सीसगभरो त्ति । न करिति सुत्तहाणी, अन्नत्थ वि दुल्लहं तेसिं ॥ ३५५ ॥ एकेनाविरतेन चतुर्णा चरणानां-चतुर्वेदब्राह्मणानां गौर्दता । ते तां दिने दिने वारकेण 30 दुहन्ति । तत्र यदा यस्य वारको भवति स तदा चिन्तयति-सुपोषितामप्येनां कल्येऽन्यो धोक्ष्यति, ततः पोषणफलं नैवाहमुपजीविष्यामीति किमिति निरर्थिकामस्य(मस्याः) चारिं १९ जह पियति ता० ॥ २ जाहकः तिर्यग्विशेषः ॥ ३ य वडुयाणं ता. बिना ॥ जाहक 20 दृष्टान्तः बृ.१४ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरीदृष्टान्तः १०६ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः बहामि ? । एवं चिन्तयित्वा दुग्ध्वा तां मुञ्चति । तत एवं सा चारिरहिता मृताः । तेषां च मरुकाणामवर्णो जातः, यथा - अमी गोहन्तार इति । पुनर्दानहानिश्च जाता, मारयन्तीति कृत्वा न कोऽपि तेभ्यः पुनर्गेदानं ददातीत्यर्थः । एवं गोस्थानीया आचार्याः, धिंग्जातिस्थानीयाः शिष्याः, ते चिन्तयन्ति-वयं ध्रुवाः, प्रतीच्छकाः सूत्रार्थं गृहीत्वा गन्तुकामाः, ततस्ते D करिष्यन्ति प्रत्युपेक्षण - भिक्षा-पादधावनानि । प्रतीच्छका अपि चिन्तयन्ति - एष शिष्याणां भारः, वयं सूत्रा ऽर्थे गृह्णीमः । एवं शिष्यैः प्रतीच्छ कैश्वाचार्यस्याक्रियमाणे स सर्वमात्मना करोति । ततो वातिक-पैत्तिक - श्लेष्मिकै रोगातर्गृहीतः किं ददातु ?, एवं सूत्रा ऽर्थहानिर्जाता. 7 अन्यत्रापि च गच्छान्तरे तेषां श्रुतज्ञानं दुर्लभम् ॥ तथैकेनाविरतेन चतुर्णां चतुर्वेदानामेका गौर्दत्ता । तत्र यदा यस्य वारको भवति स तदा 10 चिन्तयति-माऽस्माकमवर्णो भूयात्, यथा- अमीभिर्गोहत्या कृता, मा च पुनर्गोघातकत्वमवधार्य भूयो गां न दद्यात्, अन्यच्च वयं पुनरपि स्ववारके धोक्ष्यामः, अन्यदुग्धेऽपि च मम महाननुग्रहः । एवं चिन्तयित्वा प्रभूतं तृणपानीयं ददाति । ईदृशेष्वाचार्यभक्तिमत्सु दातव्यम् || ३५३ || ३५४ || ३५५॥ 15 20 सम्प्रति भेरीदृष्टान्तमाह - 25 कोमुइया [ तह ] संगामिया य दुब्भूइया य भेरीओ | हस्त आसि तहया, असिवोवसमी चउत्थी उ ।। ३५६ ॥ बारवती नगरी । कण्हो वासुदेवो । तस्स तिणि भेरीतो - कोमुइया संगामिया दुब्भूतिया य गोसीसचंदणमईयातो देवयापरिग्गहियातो । चउत्थी असिवोवसमणी, सा जत्थ तालिज्जइ तत्थ छम्मासे सबरोगा पसमंति जो तं सद्दं सुणति ॥ अक्षरगमनिका-कृष्णस्य तदा तिस्रो भेर्य आसन्, तद्यथा-- कौमुदिक सङ्ग्रामिकी दुर्भूतिका च । चतुर्थी अशिवोपशमनी ॥ ३५६ ॥ तस्या उत्पत्तिमाह Raviसा गुणगाहि केसवा नेमिवंद सुणदंता । आसरयणस्स हरणं, कुमारमंगे य पुययुद्धं ॥ ३५७ ॥ नेहि जितो मि ति अहं, असिवोवसमीऍ संपयाण च । छम्मासियधोसणया, पर्समेति न जायए अन्नो ।। ३५८ ॥ आगंतु वाहिखोभो, महिड्डि मोल्लेण कंथ डंडणया । अट्टम आराहण अन्न भेरि अन्नस्त ठेवणं ॥ ३५९ ॥ सक्को सभा भणति - केसवा सबे गुणगाहिणो नीययुद्धं च न करेंति । तत्थ एगो देवो असतो भइ - अहं अगुणे गिण्हा वेमि नीययुद्धं च कारेमि त्ति । कण्हस्स नेमिवंदगस्स 30 सखंधवारस्य पट्टिल्लियस्स अंतरा सुणहरूवं कसिणं दुब्भिगंधं मयल्लयं विउबियं । दंता से पंडरया अतीव सोभमाणा विउधिया । ताहे सो खंधावारो जाहे ते पएसं पत्तो ताहे उत्तरिज एहि मुहं ठता अन्येन प्रदेशेन गया ( गयो ) । कण्हेणं पच्छा एंतेण पुच्छियं । सुणहो कुहिओ १° मुइभूया संगा ता० ॥ २ 'समति न य जा° ता० ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५६-६० पीठिका | १०७ ति । ताहे सो तेण चैव परसेण आगतो, मुहं न चेव ठइयं, न वि य विरूवं कथं, एयं च पुणो भणियं - अहो ! सुणयस्स पंडुरा दंता सोहंति । जाहे न खुभितो ताहे पडिइंतस्स आसरयणमणेण अवहरियं । कहियं वासुदेवस्स । संबाइया कुमारा निग्गया । ते युद्धे भगा । ततो सयं वासुदेवो निग्गतो । दिट्ठो अणेण आसो निज्जूंतो । भणितो अणेणं किं आसं हरसि ? | देवो भणइ - अमुंगो विज्जाहरो, जुद्धं मग्गामि । वासुदेवो भणइ - बाढं जुज्झामो 15' के रिसेणं ? 'ति पुच्छितो भणति - पुएहिं । वासुदेवो भणति - नाहमेरिसेणं जुद्धेण जुज्झामि, पराजितो हं, नेहि आसं । ताहे देवो सरूवं काउं भणइ - सच्चं सक्को भासइ । कहियमणेण सत्रं । भणइ-वरं मग्गसु । वासुदेवो भणइ - मम असिवोवसमणि मेरिं देह, जीए ताडिया जत्थ सो सुइ तत्थ छम्मासे रोगायंको न भवइ, पुव्वुप्पण्णा खिप्पामेव उवसति । दिन्ना मेरी । गतो देवो ॥ 10 अक्षरंगमनिका—शॆक्रस्य स्वसभायां केशवानां प्रशंसा, यथा- गुणग्राहिणः केशवा इति, उपलक्षणमेतत्, नीचयुद्धकारिणश्च । ततो नेमिवन्दनार्थं कृष्णे प्रचलितेऽन्तरां शुनों विकुर्वणम्, दन्ताश्च शोभनाः कृताः । कृष्णेन तथैव दन्ताः प्रशंसिताः । ततः प्रत्यागच्छतोऽश्वरलहरणम् । तत्र च शस्त्रप्रभृतीनां कुमाराणां भने स्वयं वासुदेवे युद्धार्थमुपस्थिते देवः पुतयुद्धमुक्तवान् । ततो वासुदेवो ब्रूते - नय अश्वम्, जितोऽहमस्मीति । ततः प्रत्यक्षी - 16 भूय वरयाच्ञानन्तरमशिवोपशमिन्या भेर्याः सम्प्रदानं कृतवान् । ततः ' षण्मासिकी' षष्ठे षष्ठे मासे तस्या घोषणा । ततः पूर्वोत्पन्नो रोगः प्रशाम्यति, अन्यश्च षण्मासान् यावन्न जायते ।। ३५७ ॥ ३५८ ॥ तत्थ अन्नदेसीओ महड्डितो वाणिओ सीसवेयणाते गहिओ आगओ । तस्स वेज्जेणं गोसीसचंदणमुवइङ्कं । अण्णत्थ अलब्भमाणे रहस्सिययं बहुमुलं दाउं ततो मेरीए खंडमेगं 20 गहियं । तेण भेरीताडणं तत्थऽण्णं खंडं लाइयं । एवमन्नन्नखंडप्पयाणेण तेण सा भेरी कंथा कया । पच्छा से तारिसी सद्दो न होइ, न य रोगा उवसमंति । ततो लोगस्स बहूरोगे जाणित्ता सद्दं च तारिस अमुणमाणेण कण्हेण भेरी जोयाविया जाव कंथा कया । ततो सो भेरिपाल सकुलो उच्छादितो । ततो पुणो वि अट्टमेणं भत्तेणं तं देवं आराहित्ता अण्णा भेरी मग्गिया । लद्धा । अण्णो भेरीपालो ठवितो । सो आयरेण रक्खद । एवं जो सीसो 25 आलावए लद्धे समाणे अण्णं लोइयं लोउत्तरियं वा आलावगं लाएइ सो वि कंथं करेइ । तस्मात् तस्यापि न दातव्यम् ॥ अक्षरगमनिका — व्याधिना क्षोभो यस्यासौ व्याधिक्षोभः आगन्तुको महर्द्धिकः, तस्य मूल्येन भेरीखण्डप्रदानम् । एवमन्यान्यदाने सा कन्थाऽभवत् । ततो भेरीपालस्य दण्डनम् । अष्टमेन देवस्याराधनम् । अन्यभेरीप्रदानम् । अन्यस्य भेरीपालस्य स्थापनम् । एवं सूत्रा - ऽर्थी 30 कन्थीकुर्वतो न दातव्यम् ॥ ३५९ ॥ इदानीमाभीरीदृष्टान्तमाह मुक्कं तया अगहिए, दुपरिग्गहियं कयं तथा कलहो । fugra इयर विकिय, गएसु चोरेहि ऊणग्घो ॥ ३६० ॥ १ चोरा य ऊ° ता० ॥ आभीरी.. दृष्टान्तः Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-भाप्यवृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे मानिहव इय दाउ, उवजुंजिय देहि किं विचितेसि । विच्चामेलणदाणे, किलिस्ससी 'तं च हं चैव ॥ ३६१ ॥ एगा आभीरी सगडाणि घयस्स भरिता भत्तारेण समं नगरं विक्कया गया अण्णेहिं आभीरेहिं घयविकएहिं समं । तत्थ सो आभीरो उवरिं विलग्गओ सगडस्स हेट्ठा आभीरी छतीसे आभीरीए घघडए पणामेति । तत्थ तेण नायं - गहितो । तीए नायं न ताव मुंचति । ततो घडो पडित्ता भिन्नो । ताहे सा आभीरी भणति-तुमे अगहितो चेव मुक्को । आभीरो भणइ - तुमाए दुग्गहियं कथं । एवं तेसिं 'तुमं तुमं'ति भणंताणं कलहो जातो । पच्छा सो आभीरो सगडातो उयरित्ता निसट्टं पिट्टित्ता । जं पि चिट्टइ घयं तं पिछड्डियलयंत सिं भंडताणं सुणएहिं चट्टियं भूमीए वा पविद्धं । ताव अण्णेहिं घयविक्कएहिं घयं विक्कीयं । 10 ता ताई पविक्कीयाइं । जाओ ऊणो अग्यो । तेसु य घयविक्कगेसु सगामं गएसु सायं एकल्लयाई जायाई चोरेहिं उच्छूढाई ॥ अक्षरगमनिका — आभीरी ब्रूते - त्वयाऽगृहीते मुक्तम् । आभीरः प्राह - दुःपरिगृहीतं त्वया कृतम् । एवं तयोर्विवदतोः कलहो जातः । आभीर्याः पिट्टनम् । इतरेषु च विक्रायकेषु गतेषु चौरग्रहणं घृतस्य च ऊनोऽर्घः । एव दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः - एवं यः शिष्य आलापकं 16 व्यत्याम्रेडयन् आचार्यैः 'मा एवं भण' इत्युक्तो ब्रूते - त्वयैवैवमालापको दत्तः । आचार्यः प्राह- नाहमेवं दत्तवान् किन्तु त्वया विनाशितः । स प्राह मा निहुष्व, न वर्तते खयमेव दत्त्वाऽन्यथा वक्तुम्, अद्यापि न किमपि विनष्टम्, उपयुज्य देहि, माऽन्यद् विचिन्तय, व्यत्याम्रेडनेन हि दाने त्वं चाहं च क्लिश्यावहे इति । एवं यो निष्ठुरं वदति कलहं वा कुरुते तस्मै न दातव्यम् ॥ ३६० ॥ ३६१ ॥ 20 बिइया आभीरी तहेव नगरं गया । तहेव घयघडो भिन्नो । ताहे आभीरी भणइ न तुमं दोसो, मम एस दोसो | आभीरो भणइ न तुमं, ममं ति । ताहे सा वालुया गहिया । उहोद तावत्ता सीयलं काउं सवं घयं निरवसेसं गहियं । सत्थिल्लएहिं समं गया । न य चोरेहिं गहिया । न य घयस्स ऊणो अग्धो जातो ॥ १०८ योग्या-sयोग्यशिष्यवाचनाऽदान 30 दाने प्रायश्चितम् एवं यः शिष्यो 'मा व्यत्याम्रेडय' इत्युक्तः सन् मिथ्यादुष्कृतं ददाति 'मया विनाशितम्' 25 इति । यदि वाऽऽचार्यैरेवानुपयुक्तैस्तदा दत्तं ततस्ते ब्रुवते - मिथ्यादुष्कृतम्, मयैवानुपयुक्तेनान्यथा प्रदत्तमिति । तत एतावता उपशाम्यति । तस्मादेतादृशस्य दातव्यम् ॥ साम्प्रतमेतेषां मुद्गशैलसद्दक्षादीनामा भीरीसदृशपर्यवसानानां दाना -ऽदाने प्रायश्चित्तमाहसेल- कुडछिद्द चालिणि, सुद्धो चउगुरुग घडदुवे होंति । परिपूर्ण महिस मसए, बिरालि आभीरि एमेव ॥ ३६२ ॥ एमेव गोणि भेरी, हंसे मेसे य जाहग जलूगा । चल हुगमदाणम्मी, पावति एएस आयरितो ।। ३६३ ॥ १ तं अहं तान् ॥ २° सङ्कं पि' भा० चूर्णौ च ॥ ३ विक्रय के यिके° डे० ॥ कां० मो० त० । विक्र [ अनुयोगाधिकारः Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mar पर्षत् भाष्यगाथाः ३६१-६७] १०९ मुद्गशैल-च्छिद्रकुट-चालनीसमानानां गुणनालक्षणे कार्य समापतिते सूत्रमर्थ वा प्रयच्छन् शुद्धः, न खलु तत्र स्वस्यान्येषां वा शिष्याणां सूत्रा-ऽर्थहानिः । अकार्ये पुनरेतेषु सूत्रा-ऽर्थों प्रयच्छतश्चतुर्गुरु । तथा 'घटद्विके' प्रशस्तवाम्येऽप्रशस्तावाम्ये अथवा बोडकुटे भिन्नकुटे व्याख्यानद्वयेन सङ्घहतश्चतुष्तेषु प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चतुर्गुरु । परिपूणकसदृशे [महिषसमाने] मशकतुल्ये बिडालीसमाने आभीरीसदृशेऽप्रशस्तगौसमुपलक्षितधिग्जातीयतुल्ये कन्थाकारिभेरी-5. पालकसदृशे एतेषु सप्तसु सूत्रा-ऽर्थी प्रयच्छतः प्रत्येकं प्रायश्चित्तम् 'एवमेव' चतुर्गुरुकमित्यर्थः ॥ एतेषां ये प्रतिपक्षा हंसादयो ये च प्रशस्तगो-भेरीदृष्टान्तसूचितास्तेषां सूत्रा-ऽौँ प्रयच्छन् शुद्धः । यदि पुनर्न ददाति तदा प्रायश्चित्तं प्राप्नोति चतुर्लघु ॥ ३६२ ॥ ३६३ ॥ प्रकारान्तरेण पर्षनिरूपणार्थमाहजाणंतिया अजाणंतिया य तह दुबियड्डिया चेव । पर्षदः तिविहा य होइ परिसा, तीसे नाणत्तगं वोच्छं ।। ३६४ ॥ अथवा त्रिविधा पर्षत् , तद्यथा-जानती अजानती दुर्विदग्धा च । 'तस्याः' त्रिविधाया अपि नानात्वं वक्ष्ये ॥ ३६४ ॥ प्रतिज्ञातमेव करोतिगुण-दोसविसेसन्नू, अणभिग्गहिया य कुस्सुइमतेसु । 15 जानती सा खलु जाणगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवजा ॥ ३६५ ॥ या गुण-दोष विशेषज्ञा 'कुश्रुतिमतैः' अपरकुतीर्थिकसिद्धान्तमतैरनभिगृहीता, गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे, सा खलु "गुणतत्तिल्ला" गुणयनवती अगुणवर्जा जानती पर्षत् ।। ३६५ ।। सम्प्रति येऽस्याध्ययनस्य योग्यास्तानाह खीरमिव रायहंसा, जे घोटंति उ गुणे गुणसमिद्धा। 20 दोसे वि य छडंती, ते वसभा धीरपुरिस त्ति ॥ ३६६ ॥ ये 'गुणसमृद्धाः' विनयादिगुणसमन्विताः क्षीरमिव राजहंसा गुणान् 'घोटयन्ति' आखादयन्ति, येऽपि केचनानुपयोगप्रभवा दोषास्तानपि च 'छर्दयन्ति' परित्यजन्ति ते 'वृषभाः' निशीथेन गीतार्थी धीरपुरुषा अधिकृतस्याध्ययनस्य योग्याः ॥३६६ ।। अजानतीं पर्षदमाहजे होति पगयमुद्धा, मिगछावग-सीह-कुकुरगभूया। 25 अजानती रयणमिव असंठविया, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा ॥ ३६७॥ पर्षत ये प्रकृत्या स्वभावेन मुग्धा मृग-सिंह-कुकुरशावभूता, गाथायां शावशब्दस्यान्यत्रोपनिपातः प्राकृतत्वात् , भूतशब्द औपम्ये, ततोऽयमर्थः-यथा मृगादिशावा अरण्यादानीय यदि रोचते तर्हि भद्रकाः क्रियन्ते अथवा क्रूराः, एवं ये प्रकृत्या मुग्धाः परतीर्थिकैश्चाभावितास्ते यथा भण्यन्ते तथा कुर्वन्ति । तथा रत्नमिव असंस्थापिताः, यथा रत्नमसंस्थापितं यादृशोऽभिप्राय-30 स्तादृशं घटित्वा क्रियते एवमेतेऽपि यथा रोचते तथा क्रियन्ते । तथा चाह-सुखप्रज्ञापनीयाः 'गुणसमृद्धाः' विनयादिगुणनिधयः ॥ ३६७ ॥ १°ताः यथा रत्नमसंस्थापिताः यथा रत्न डे• मो० विना ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10: 15 ११० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकार: जे खलु अभाविया कुस्सुतीहि न य ससमए गहियसारा । अकिलेसकरा सा खलु, वयर छक्कोडिसुद्धं वा ॥३६८ ॥ ये खलु 'कुश्रुतिभिः' कुसिद्धान्तैः अभाविता न च खसमये गृहीतसारा सा खल्वक्लेशकरा अजानती पर्पत् । षट्कोटिशुद्धं वज्रमिव गुणनिधानम् । षट्कोटिशुद्धं नाम यत् स्वभावतः 5 षट्खपि दिक्षु शुद्धम् ॥ ३६८ ।। सम्प्रति दुर्विदग्धां पर्पदमाहदुर्विदग्धा किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य । पर्षत् दुवियडगा उ एसा, भणिया परिसा भवे तिविहा ॥ ३६९ ।। किश्चिन्मात्रग्राहिणः पल्लवग्राहिणः त्वरितग्राहिणः । एवमेषा दुर्विदग्धा पर्पत् 'त्रिविधा' त्रिप्रकारा भणिता ॥ ३६९ ॥ तत्र किञ्चिन्मात्रग्राहिणीमाह नाऊण किंचि अन्नस्स जाणियवे न देत ओगासं । न य निजितो वि लज्जइ, इच्छइ य जयं गलरवेण ॥ ३७० ॥ ज्ञात्वा किञ्चिद् अन्यस्य ज्ञातव्ये नावकाशं ददाति, न च निर्जितोऽपि लज्जते, केवलं 'गलरवेण' महागलप्रमाणेनारटन् जयमिच्छति ॥ ३७० ।। पल्लवग्राहिणीमाह न य कत्थइ निम्मातो, ण य पुच्छइ परिभवस्स दोसेण । वत्थी व वायपुण्णो, फुट्टइ गामिल्लगवियड्ढो ।। ३७१ ।। ग्रामेयकेषु विदग्धो ग्रामेयकविंदग्धो न च कुत्रचिन्निर्मातः, सर्वत्र पल्लवमात्रग्राहित्वात् । न च परं पृच्छति, 'परिभवो मे भविष्यति' इति परिभवस्य दोषेण । केवलं बस्तिरिव वातपूर्णः 'पण्डितोऽयम्' इति लोकप्रवादगर्वितः स्फुटति' स्फुटन्निव तिष्ठति ॥ ३७१॥ त्वरितग्राहिणीमाहदुर्विदग्ध- 20 दुरहियविजो पच्चंतनिवासो वावदूक कीकाको । वेयाकरण खलिकरण भोइपुरतो, लोगुत्तर पेढियागीते ॥ ३७२ ॥ एकः पुरुषो व्याकरणसूत्राणि किञ्चित् पठितानि कृत्वा प्रत्यन्तं ग्रामं गत्वा ब्रते-अहं वैयाकरणः । तत्र स ग्रामेयकैराभीरैः परिगृहीतः । वृत्तिः पुष्टा कृता । ततः सुखेन तत्र निवसति । अन्यदा तत्र वावदूकरछात्रैः परिवृतः पुस्तकभारेण समागतः । ततस्तैः प्रत्यन्तग्राम25 वासिभिस्तस्य शिष्याः पृष्टाः-क एष समागतः ? । तैरवादि-वैयाकरणः । ततस्ते प्रत्यन्त ग्रामवासिनो ब्रुवते-अस्माकमप्यस्ति वैयाकरणः, तेन सह शब्दगोष्ठी भवतु । तैः प्रतिश्रुतम् । जात एकत्र मेलापकः । ततो दुरधीतविद्येनोक्तम्-काग इति कथं भण्यते । वैयाकरणनोक्तम-काक इति । दुरधीतविद्ये नोक्तम्-अन्योऽपि लोकः काकमय भणांत, को विशेषा व्याकरणस्य ? अह भणामि क्रीकाकः । एवमुक्ते स मोनमध्यतिष्टत् । ततो गायक30 र्हसितम् उत्कृष्टिश्च कृता 'अस्माकं पण्डितेनैष पराजितः' इति । पश्चात् स वैयाकरणः 'प्रद्वेषमापन्नो नगरं गत्वा यस्य भोजिकस्य स ग्रामस्तेन कर्षयित्वा तस्य पुरतः खलीकृत्य ग्रामान्निष्काशितः । एष दृष्टान्तः । १ छक्कोडिपरिसुद्धं भा० ता. विना ॥ २°ति ऊवासं ता० ॥ ३ कारो ता. विना ॥ दृष्टान्तः Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३६८-७६ ] पीठिका | १:११ एवं लोकोत्तरेऽपि कोऽपि कस्याप्याचार्यस्य शिष्यः किञ्चित् पीठिकामात्रं शिक्षयित्वा एकाकी प्रत्यन्तनगरं गत्वा तद्गतानन्यान गीतार्थान् द्रावयति, अकरणीयान्यपि च करोति, अप्रायश्चित्तेऽपि च प्रायश्चित्तं ददाति, अन्यं पूजा - सत्कार - गौरव हानिभयतो न च पृच्छति । पश्चादन्ये गीतार्थास्तत्रागतास्तैर्द्रावितः प्रायश्चित्तं च तस्य दत्तं दिक् च तस्यापहृता ॥ गाथाक्षरयोजना त्वियम् - दुरधीतविद्यः कोऽपि प्रत्यन्तनिवासः । तत्रैको 'वावदूकः' 5 महाविद्वान् वैयाकरणः समागतः । तस्य तेन विवादे 'कीकारः कृतः ' उपहासपूर्वकमुत्कृष्टिः कृता । ततः स वैयाकरणो वावदूको नगरं गत्वा भोजिकपुरतस्तस्य खलीकरणमकार्षीत् । एवं लोकोत्तरेऽपि 'पीठिकागीते' पीठिकामात्रेण गीतार्थकर्त्तव्यं या करोति सैषा दुर्विदग्धा पर्षत् ॥ ३७२ ॥ आयरियत्तणतुरितो, पुवं सीसत्तणं अकाऊ । हिंडति चोपायरितो, निरंकुसो मत्तहत्थि व ॥ ३७३ ॥ कोऽपि शिष्यो दशवैकालिकमात्रं पठित्वा आचार्यत्वत्वरितः प्रत्यन्तं ग्रामं नगरं वा गत्वा पीठिकायां निविष्ट आत्मानमाचार्यमभिमन्यते । स एवं शिष्यत्वमकृत्वा निरङ्कुशो मत्तहस्तीव 'चोप्पो' चोक्षो मूर्खः सन् आचार्यो 'हिण्डते' - परिभ्रमति ॥ ३७३ कीदृशं तस्य मूर्खत्वम् ? अत आह— छनालयम्मि काऊ कुंडियं अभिमुहंजली सुढितो । गेरू पुच्छति पसिणं, किन्नु हु सा वागरे किंचि ॥ ३७४ ॥ 'गेरुकः' परिव्राजकः 'षट्नाले' त्रिदण्डे कुण्डिकां कृत्वा कृताञ्जलिरभिमुखः 'खाद्यतः ' पादपतितः 'पृच्छति' प्रश्नयति, किन्नु सा कुण्डिका तथाऽऽपृच्छ्यमाना किञ्चित् परिव्राजकस्य 'व्यागृणो (णा) ति ? नैव किञ्चन । यादृशं तस्याः कुण्डिकाया आचार्यत्वं तादृशमेतस्यापि ॥ ३७४ ॥ 20 सीसा वि य तुरंती, आयरिया वि हु लहुं पसीयंति । -10 तेण दरसिक्खियाणं, भरितो लोगो पिसायाणं ॥ ३७५ ॥ शिप्या अप्याचार्यपदपरिपालनाय त्वरन्ते, आचार्या अपि 'लघु' शीघ्रं प्रसीदन्ति, न पुनः परिभावयन्ति, यथा-नाद्यापि परिपूर्णमधीतमिति । तत ईषच्छिक्षितानामत एव 'पिशा - चानां ग्रथिलानां लोको भृतः ॥ ३७५ ॥ 25 ते गच्छ मते पुच्छा, अन्नहि वालुंक देवि कहि चिना । तोत्थेण कति य, विज्ञनिसिद्धे ततो दंडो || ३७६ ॥ 15 एगो विज्जो राउले अलग्गइ । सो मतो । रण्णाः पुच्छियं - अस्थि से पुत्तो ? । कहियंअत्थि, नवरं विज्जयमसिक्खितो । रण्णा भणियं वच्च, पढाहि, तदवस्था चैव ते भोगा । ततो अन्नत्थ गंतुं पढितुमारद्धं । तत्थ अइयाए पुरोहडे चरंतीए गलए वालुकं लग्गं, चिर्भि - 30 टमित्यर्थः । सा विज्जसमीवमाणिया । विज्ज्ञेण पुच्छियं कर्हि चिण्णा एसा ? । कहियं पुरो हडे । तेणं नायं-चिब्भिर्ड लग्गं ति । पोतं गलए बंघिउं तहा वलियं जहां तस त्ति भग्गं, : १र्वकं चोत्कु भा० ॥ २ तो उदर° ता० ॥ ३ ओस ता ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विविधा पर्षत् पञ्चविधा लौकिकी पत् ११२ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः निम्गयं गलयातो | तेण वेज्जपुत्तेण चिंतियं-एस उवातो विज्जियाए किरियाए । पडिनियतो रणो अल्लीणो । पुच्छितो रण्णा - सिक्खियं विज्जयं ? ति । तेण भणियं - सिक्खियं । ततो रणा 'सिग्धं सिक्खियं, अहो ! मेहावी'ति सक्कारो कतो । अन्नया रण्णो महादेवीए गलगंड उट्ठितं । सो वाहितो भणइ कहिं चिण्णेल्लिया ? । तेहिं भणियं पुच्छामो | इयरेण * भणियं -भण 'पुरोहडे' । तेहिं चिंतियं नूणं वेज्जरहस्समेयं । ततो भणियं - पुरोहडे चिण्णा । पच्छा तेण गलए साडगेण आवेढेत्ता मारिया । पच्छा रण्णा अण्णे विज्जा पुच्छिया- किं सत्थनिद्देसेण कया किरिया ! उयाहु ओसत्थेण ? । तत्थ विवादे विज्जेहिं निसेहिओ । पच्छा सारीरेण दंडेण दंडितो ॥ अक्षरगमनिका—‘चिकित्सके' वैद्ये मृते राज्ञः पृच्छा-अस्ति तस्य पुत्रः ? । कथितम् - अस्ति, 10 परमशिक्षितो वैद्यकस्य । राज्ञा भणितम् - अन्यत्र गत्वा पठ । स गतः । तत्र वालुकामजागले वेष्टन भिद्यमानं दृष्ट्वा 'लब्धं वैद्यरहस्यम्' इति विचिन्त्य प्रतिनिवृत्तः । तत्र देव्या गलगण्डमभवत् । स आकारितः पृष्टवान्-क चीर्णा ? | 'तोषार्थेन' तोषनिमित्तं कथयन्ति - रोडे । ततः सा पोता वेष्टनेन मारिता । स विवादे वैद्येन निषिद्धः । ततः शारीरो दण्डस्तस्व राज्ञा कृतः । एष दृष्टान्तः || ३७६ ।। उपनयमाह 16 कारण निसेवि लहुसग, अगीयपच्चय विसोहि दहूण | सव्वत्थ एव पचतगमण गीयागते दंडो ॥ ३७७ ॥ आचार्येणान्यस्य कस्यापि साधोः कारणनिषेविणोऽगीतप्रत्ययनिमित्तं किञ्चिद् यथालघु प्रायश्चित्तं दत्तम्, विशोधिः प्रायश्चित्तमित्यनर्थान्तरम्, (, तद् दृष्ट्वा चिन्तयति - सर्वत्रैवं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । ततः प्रत्यन्ते ग्रामे नगरे वा तस्य गमनम् । तत्र गतः स ब्रूते - अह20 मपि जानामि प्रायश्चित्तम् । तत्र निष्कारणं प्रतिसेविते भणति-भण 'मया कारणे प्रतिसेवि - I तम्' । तत एवमुक्ते स ब्रूते - त्वं शुद्धस्तथापि किञ्चिद्गीतार्थत्वप्रत्ययं प्रायश्चित्तं ददामि । एवंकुर्वन् पश्चादन्येषां गीतार्थानामागमनम् एतैरन्यैर्गीतार्थैर्दृष्टः । तैर्द्रावितो दिक् च तस्यापहृता । ईशा ये पुरुषाः सा दुर्विदग्धा पर्षत् । एतस्या यो ददाति सूत्रमर्थं वा तस्मै प्रायश्चित्तं चतुगुरु । जानत्या अजानत्याश्च सूत्राऽर्थाप्रदाने चतुर्लघु ॥ ३७७ ॥ अथवा द्विविधा पर्षत् 25 लौकिकी लोकोत्तरा च । तत्र लौकिकी पञ्चविधा, तामेवाह पूरंती छत्तंतिय, बुद्धीमंती रहस्सिया चेव । पंचविह खलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चैव ॥ ३७८ ॥ पूरयन्ती छत्रवती बुद्धिर्मन्त्री राहस्थिकी च एवं लौकिकी लोकोत्तरा च खलु पञ्चविधा पर्षत् ॥ ३७८ ॥ तत्र लौकिकीं पञ्चप्रकारामपि दर्शयति — 30 पूरंतिया महाणो, छत्तविदिना उ ईसरा बितिया । समयकुसला उ मंती, लोइय तह रोहिणिज्जा या ।। ३७९ ॥ महाजनः पूरयन्तिका पर्यत् । वितीर्णच्छत्रा ईश्वरा द्वितीया छत्रान्तिका । स्वसमयकु Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७७ -८४ ] पीठिका | ११३ शला तृतीया बुद्धिपर्षत् । चतुर्थी मन्त्री । पञ्चमी राहस्थिकी 'रोहिणीया नाम' वनिका - अन्तःपुरमहत्तरिका । एषा लौकिकी पञ्चप्रकारा पर्षत् || ३७९ ।। तंत्र पूरयन्तिका माहनी हम्मियमि पूरति, रण्णो परिसा न जा घरमतीति. जे पुण छत्तविदिन्ना, अयंति ते बाहिरं सालं ॥ ३८० ॥ पूरयन्तिका छत्रान्ति यदा राजा निर्गच्छति तस्मिन् निर्गते यः कोऽपि महान् जनः स सर्वोऽपि राज्ञो ढौकते हैं का च यावहं नायाति सा पर्षत् पूरयन्तिका । ये पुनः 'छत्र वितीर्णाः' प्रदत्तच्छत्रा राजानो भटभोजिकाश्च ते बाह्यां शालां यावदागच्छन्ति शेषा वार्यन्ते एषा छत्रान्तिका छत्रवती पत् ॥ ३८० ॥ बुद्धिपर्षदमाह– जे लोग- वेय-समएहिं को विया तेहि पत्थिवो सहिओ । समयमतीतो परिच्छह, परप्पवायागमे चैव ॥ ३८१ ॥ ये 'लोक-वेद-समयेषु' लोके वेदे समये चेत्यर्थः 'कोविदाः' कुशलास्तैः सहितः पार्थिवः 'समयम्' अवसरम् ‘अतीतः ' प्राप्तः सन् परप्रवादानामागमाः परप्रबादागमास्तान् परीक्षते एषा बुद्धिपर्षत् ॥ ३८१ ॥ मन्त्रिपर्षदमाह जे रायसत्यकुसला, अतकुलीया हिता परिणया य । माइकुलीया वसिया, मंतेति निवो रहे तेहिं ॥ ३८२ ॥ ये 'राजशास्त्रेषु' कौटिल्यप्रभृतिषु कुशला राजशास्त्रकुशलाः 'अतत्कुलीयाः' न राजकुले भवाः न पैतृकेण सम्बन्धेन सम्बद्धा इत्यर्थः 'हिताः ' हितान्वेषिणः 'परिणताः ' वयसा 'मातृकुलीयाः' मातृकेण सम्बन्धेन सम्बद्धाः 'वशिकाः' आयत्ताः तैः सह रहसि नृपो मन्त्रयति एषा मन्त्रिपर्षद् || ३८२ ॥ रोहिणीयां पर्पदमाह - १ अपंति ता० ॥ २ देव ! दु° डे० ले० भा० ॥ वृ० १५ कुविया तोसेयव्वा, रयस्सला वारअण्णमासत्ता । छण्ण पगासे य रहे, मंतयते रोहिणिजेहिं ।। ३८३ ॥ या देवी राज्ञः कुपिता तां रोहिणीया निवेदयन्ति । ते वा दूतत्वेन प्रसादननिमित्तं प्रेष्यन्ते, यथा - युष्माभिः सा देवी तोषयितव्या । तथा या 'रजखला' ऋतुस्राता तां रोहिणीयाः कथयन्ति । यस्या वा यस्मिन् दिवसे वारकस्तं राज्ञस्तस्याः कथयन्ति । याऽपि कन्या यौवनप्राप्ता तामपि परिणयनाय राज्ञे निवेदयन्ति । 'अन्नमासत्त'त्ति अन्यासक्ता - व्यभिचारि - 25 णीत्यर्थः तामपि राज्ञः कथयन्ति, यथा- एषा देवी दुश्चारिणीति । अन्यान्यपि यानि च्छन्नानि प्रकाशानि च 'रहांसि' रतिकार्याणि तानि रोहिणीयैः सह राजा मन्त्रयते । एषा पञ्चमी राहस्थिका पर्षत् ॥ ३८३ ॥ तदेवमुक्ता पञ्चप्रकाराऽपि लौकिकी पर्पत् । सम्प्रति लोकोत्तरे पञ्चविधां पर्पदमाहआवासगमादी या (जा), सुत्तकड पुरंतिया भवे परिसा । द समादि उवरिमसुया, हवति उ छत्तंतिया परिसा ॥ ३८४ ॥ आवश्यकमादिं कृत्वा यावत् सूत्रकृतमङ्गं तावदधीतश्रुता पूरयन्ती पर्षत्, न खल्वत्र 10 बुद्धि पर्षत् मन्त्रि 15 पत् 20 रोहिणीया पर्षद् 30 पञ्चविधा लोकोत्तरा पर्षद् Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोय - बेइय-सामाइए सत्थेसु जे समोगाढा | समय- परसमय विसारया य कुसला य बुद्धिमती ॥ ३८५ ॥ ये च लौकिकेषु वैदिकेषु सामायिकेषु च शास्त्रेषु समवगाढाः स्वसमय पर समयविशारदाः कुशलाः सा बुद्धिमती पर्षत् ॥ ३८५ || आह किं प्रयोजनं बुद्धिपर्षदा ? तत आहआसन्नपतीभत्तं, खेयपरिस्समजतो तहा सत्थे । कहमुत्तरं च दाहिसि, अमुगो किर आगतो वादी ॥ ३८६ ॥ बुद्धिपर्षदा सह श्रमं कुर्वत आसन्न प्रतिभत्वमुपजायते । तथा यः शास्त्रे निरन्तरव्याख्याकरणतः खेदपरिश्रमस्तस्य जयो भवति । कदाचित् परिश्रमे जातेऽपि व्याख्याकरणतस्तं परिश्रममपनयति । तथा सा बुद्धिपर्षद् एवं शिक्षयते - अमुकः किल आगतो वादी ततः कथं स्वमुत्तरं दास्यसि ? | एवं बुद्धिपदा सह कृताभ्यासः सुखं परप्रवादिनं निगृह्णाति ॥ ३८६ ॥ उक्त बुद्धिपद् । मन्त्रिपर्षदमाह– 6 10 15 ११४ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः कश्चनापि साधुः पठन् निरुध्यते । दशाश्रुतस्कन्धमादिं कृत्वा येषामुपरितनानि श्रुतानि सा छत्रान्तिका पत्, तत्र हि ये परिणामिकास्ते न निवार्यन्ते, शेषास्त्वपरिणामिका अतिपरिणामिकाश्च निवार्यन्ते ॥ ३८४ ॥ पुत्रं पच्छा जेहिं, सिंगणादित विही समणुभूतो । ore वेदे समए, कयागमा मंतिपरिसा उ ॥ ३८७ ॥ यैः पूर्वं गृहवासे पश्चात् श्रमणभावे ' शृङ्गनादितविधि : ' सर्वेषु कार्येषु मध्ये शृङ्गभूतं यत् कार्यं तत् शृङ्गनादितमुच्यते तद्विधिः समनुभूतः सा लोके वेदे समये च कृतागमा मन्त्रिपर्षद् || ३८७ ॥ एतदेव व्याचिख्यासुराह - 20 25 गिवासे अत्थसत्थे को विया केइ समणभावम्मि | जेसु सिंगभूयं तु सिंगनादि भवे कजं ॥ ३८८ ॥ पूर्वं गृहवासे अर्थशास्त्रेषु पश्चात् श्रमणभावे खसमय-परसमयेषु ये केचित् कोविदाः सा मन्त्रिपर्षद् । कार्येषु शृङ्गभूतं यत् कार्यं तत् शृङ्गनादितं भवति ॥ ३८८ ॥ किं तद् ? इत्याह तं पुण चेइयनासे, तद्दव्वविणास दुविहभेदे | भत्तोव हिवोच्छेदे, अभिवायण बंध-घायादी ।। ३८९ ॥ 'तत्' पुनः शृङ्गनादितं कार्यं 'चैत्यविनाशः' लोकोत्तमभवन- प्रतिमाविनाशः, 'तद्रव्यवि - नाशनं' चैत्यद्रव्यविनाशनं चैत्यद्रव्यविद्रावणम्, तथा द्विविधो भेदः - मरणमुत्प्रवाजनं वा, यो वा 'भक्त' भिक्षां वारयति उपधिं वा, यथा-मा कोऽप्यमीषां भक्तमुपधिं वा दद्यादिति भक्त30 व्यवच्छेद उपधिव्यवच्छेदो वा, तथा कोऽपि धिग्जातीयो ब्रूते - ब्राह्मणान् अभिवादयतवन्दध्वमिति, यो वा बन्धापयति पिट्टयति, आदिग्रहणाद् यो निर्विषयानाज्ञापयति आक्रोशय वा प्रद्विष्टो राजादि, तद् अभिवादन-बन्ध-घातादि च शृङ्गनादितं कार्यम्, तद्विधिर्यैः समभूतः सा मन्त्रिपर्षद् ॥ ३८९ ॥ १ भक्तं पानं वा भा० ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ भाष्यगाथाः ३८५-९४ ] पीठिका। वितहं ववहरमाणं, सत्थेण वियाणतो निहोडेइ । अम्हं सपक्खदंडो, ने चेरिसो दिक्खिए दंडो॥ ३९० ॥ राजादि वितथं व्यवहरन्तं मन्त्रिपर्षदन्तर्गतो 'विज्ञायकः' स्वसमय-परसमयशास्त्रकुशलः शास्त्रेण 'निहेठयति' सुखं वारयति, यथा-अस्माकं सपक्षे दण्डो भवति सङ्घो दण्डं करोतीत्यर्थः, न च राजा प्रभवति, नापि प्रपन्नदीक्षाकस्यैतादृशो दण्डः । एषा मन्त्रिपर्षत् ॥ ३९० ॥5 सम्प्रति राहस्थिकी पर्षदमाह सल्लद्धरणे समणस्स चाउकण्णा रहस्सिया परिसा । अजाणं चउकण्णा, छक्कण्णा अटकण्णा वा ॥ ३९१॥ द्विविधं शल्यम्-द्रव्यशल्यं भावशल्यं च । द्रव्यशल्यं कण्टकादि । भावशल्यं मायानिदान-मिथ्यात्वानि, अथवा भावशल्यं मूलोत्तरगुणातिचारः । ततः श्रमणस्य भावशल्योद्ध-10 रणे आचार्यसमीपे आलोचयत इत्यर्थः राहस्यिकी पर्षद् भवति । कथम्भूता ? इत्यत आह'चतुष्कर्णा' द्वावाचार्यस्य द्वौ साधोरिति चत्वारः कर्णा यत्र सा । तथा आर्याणां चतुष्कर्णा षट्कर्णा वा । तत्र यदा निम्रन्थी निर्ग्रन्थ्याः पुरत आलोचयति तदा चतुष्कर्णा, यथा निम्रन्थस्य निर्ग्रन्थपार्थे आलोचयतः । यदा त्वद्वितीयस्थविरगुरुसमीपे आलोचयति सद्वितीया भिक्षुकी तदा षट्कर्णा । सद्वितीयतरुणगुरुसमीपे सद्वितीयाभिक्षुक्या आलोचयन्त्या अष्ट-15 कर्णा ॥ ३९१ ॥ तत्र प्रथमतः संयतस्य चतुष्कर्णां भावयति-- आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवजितो गुरुसगासे । एगतमणावाए, एगो एगस्स निस्साए ॥ ३९२ ॥ एकान्ते अनापाते 'एकः' अद्वितीयः 'एकस्य' अद्वितीयस्याचार्यस्य 'निश्रया' तत्पुरत इत्यर्थः 'गौरवपरिवर्जितः' ऋद्धि-रस-सातगौरवपरित्यक्तः, गौरवाद्धि सम्यगालोचयितव्यं न 20 भवतीति तत्प्रतिषेधः, 'गुरुसमीपे' आलोचनार्हाचार्यसमीपे आलोचनां प्रयुङ्क्ते ॥ ३९२ ॥ . कथम् ? इत्याह विरहम्मि दिसाभिग्गह, उकुडुतो पंजली निसेजा वा । एस सपक्खे परपक्खे मोत्तु छण्णं निसिज्जं च ॥ ३९३ ॥ एकान्तेऽपि यत्र कोऽपि न तिष्ठति तत्र 'विरहे' छन्ने प्रदेशे पूर्वं गुरोर्निषद्यां कृत्वा पूर्वा-35 मुत्तरां चरन्तिकां वा दिशमभिगृह्य वन्दनकं दत्त्वा उत्कुटुकः प्रबद्धाञ्जलिः अथाऽसौ व्याधिमान् प्रभूतं चाऽऽलोचनीयं ततो निषद्यामनुज्ञाप्यालोचयति । एष सपक्षे आलोचनाविधिः । 'परपक्षे नाम संयती तत्र च्छन्नं मुक्त्वा आलोचना दातव्या, निषद्या च न कार्यते । इयमत्र भावना-यदा संयती संयतस्य पुरत आलोचयति तदा छन्नं वर्जयति, किन्तु यत्र लोकस्य संलोकस्तत्राऽऽलोचयति, निषद्यां चाऽऽचार्यस्य न करोति, आत्मनाऽप्युत्थिता आलो-30 चयति ॥ ३९३ ॥ श्रमणीमधिकृत्यालोचनाविधेश्चतुष्कर्णत्वमाह आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवजिया उ गणिणीए । एगंतमणावाए, एगा एगाएँ निस्साए ॥ ३९४ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सनियुक्ति-भाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे -[ अनुयोगाधिकारः ___ श्रमणी गौरवपारेवर्जिता गणिन्याः पुरत आलोचनां प्रयुक्ते। व? इत्याह-एकान्तेऽनापाते 'एका' अद्वितीया 'एकस्याः' अद्वितीयाया गणिन्या निश्रया । ततो गुरुसमीपे श्रमणस्येव श्रमण्या अपि गणिन्याः पुरत आलोचयन्त्याश्चतुष्कर्णा पर्षद् भवति ॥ ३९४ ॥ षटकर्णामाह आलोयणं पउंजइ, एगते बहुजणस्स संलोए । अब्बितियथेरगुरुणो, संविईया भिक्खुणी निहुया ॥ ३९५ ॥ अद्वितीयस्थविरगुरुसमीपे सद्वितीया भिक्षुकी 'निभृता' निर्व्यापारा न दिशो नापि विदिश आलोकयति, .नापि यत्किञ्चिदुल्लापयतीत्यर्थः । एवम्भूता सती एकान्ते बहुजनस्य संलोके आलोचनां प्रयुते ॥ ३९५ ॥ अथ कीदृशी तस्या द्वितीया भवति ? इत्यत आह नाण-दंसणसंपन्ना, पोढा वयस परिणया । . इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसे विइजिया ॥ ३९६ ॥ ज्ञान-दर्शनसम्पन्ना 'प्रौढा' समर्था या संयतस्य तस्या वा भावं विज्ञाय न मन्त्रणं कर्तुं ददाति, किन्तु वदति यद्यालोचितं तर्हि व्रजामो नो चेदालोचनयाऽपि न प्रयोजनमिति । तथा 'वयसा परिणता' परिणतवयाः । तथा 'इङ्गिताकारसम्पन्ना' इङ्गितेनाऽऽकारेण च यस्य 15 यादृशो भावस्तस्य तं जानातीत्यर्थः । एवम्भूता सा तस्या द्वितीया भणिता । सा पुनः किय ह्रे तिष्ठति ? उच्यते--एके सूरयो वदन्ति-यत्रोभयोराकारा दृश्यन्ते तावन्मात्रे । अपरे ब्रुवते यत्र श्रवणं शब्दस्येति ॥ ३९६ ॥ अष्टकर्णामाह--- आलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए । सब्बितियतरुणगुरुणो, सबिइया भिक्खुणी निहुया ॥ ३९७ ॥ 20 एकान्ते बहुजनस्य संलोके सद्वितीयस्य तरुणगुरोः समीपे सद्वितीया भिक्षुकी निभृता आलोचनां प्रयुक्ते । तत्र भिक्षुक्या यादृशी द्वितीया तादृशी प्रागुक्ता ॥ ३९७ ।। सम्प्रति यादृश आचार्यस्य द्वितीयस्तादृशमाह-- नाणेण दंसणेण य, चरित्त-तव-विणय-आलयगुणेहिं । वयपरिणामेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो ।। ३९८ ॥ 25 ज्ञानेन दर्शनेन चारित्रेण तपसा विनयेन 'आलयगुणैः' बहिश्चेष्टाभिः प्रतिलेखनादिभिरुपशमगुणेन च तथा वयःपरिणामेन 'अभिगमेन' सम्यकशास्त्रार्थकौशलेन युक्तो भवति आचार्यस्य 'इतरः' द्वितीयः ॥ ३९८ ॥ . उक्ता पञ्चप्रकाराऽपि पर्षद् । सम्प्रति 'कयाऽधिकारः ?" इति प्रतिपादयति छत्तंतियाएँ पगयं, जइ पुण सा होजिमेहि उववेया । . तो देति जेहिं पगयं, तदभावे ठाणमादीणि ॥ ३९९ ॥ अत्र च्छत्रान्तिकया पर्षदा 'प्रकृतम्' अधिकारः । शेषाः पर्पद उच्चरितसदृशा इति प्ररूपिताः । तत्र यदि सा छत्रान्तिका पर्षद 'एभिः' वक्ष्यमाणैर्गुणैरुपेता भवति तदा यकाभ्या १ सब्बितिया ता०॥ 30 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणाः द्वारम् भाष्यगाथाः ३९५-४०५] पीठिका । मत्र प्रकृतं तौ कल्प-व्यवहारौ सूरयो ददति । तदभावे' वक्ष्यमाणगुणाभावे स्थानादीति आदिग्रहणेन प्रकीर्णकानां परिग्रहः ददति ॥ ३९९ ॥ अथ के ते गुणाः ? इत्यत आहबहुस्सुए चिरपव्वइए, कप्पिए य अचंचले ।। कल्प व्यवहार अबट्ठिए य मेहावी, अपरिस्सावी य जे विऊ ॥ ४००॥ श्रवणापसे य अणुण्णाते, भावतो परिणामगे । ध्यापना... धिकारिणी एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ ॥४०१॥ बहुश्रुतश्विरप्रवजितः कल्पिकोऽचञ्चलः अवस्थितो मेधावी अपरिश्रावी यश्च 'विद्' विद्वान् प्रभूताशेषशास्त्रपरिमलितबुद्धिः ॥ ४०० ॥ ___ 'पत्ति'त्ति पात्रं प्राप्तो वा, तथा अनुज्ञातः सन् भावतः परिणामकः, एतादृशो महाभागोऽनुयोगं श्रोतुमर्हति, सामर्थ्यात् कल्प-व्यवहारयोः । एष द्वारगाथाद्वयस पार्थः । विस्तरार्थः 10 प्रतिद्वारं वक्ष्यते ॥ ४०१॥ तत्र प्रथमं बहुश्रुतद्वारमाहतिविहो बहुस्सुओ खलु, जहण्णओ मज्झिमो उ उकोसो। बहुश्रुतआयारपकप्पे कप्प नवम-दसमे य उक्कोसो ॥ ४०२॥ त्रिविधः खलु बहुश्रुतः, तद्यथा-जघन्यो मध्यम उत्कृष्टश्च । तत्र 'आचारप्रकल्पः' निशीथं तद्धारी जघन्यो बहुश्रुतः । मध्यमः 'कप्प' त्ति कल्प-व्यवहारधरः । उत्कृष्टो नवम-10 दशमपूर्वधरः ॥ ४.०२ ॥ सम्प्रति चिरप्रवजितद्वारमाह चिरपव्वइओ तिविहो, जहण्णओ मज्झिमो य उकोसो। .. . चिरप्रव. तिवरिस पंचग मज्झो, वीसतिवरिसो य उक्कोसो ॥४०३ ॥ जितद्वारम् चिरप्रव्रजितस्त्रिविधः, तद्यथा-जघन्यो मध्यम उत्कृष्टश्च । तत्र त्रिवर्षप्रव्रजितो जघन्यश्चिप्रवजितः । पञ्चवर्षप्रव्रजितो मध्यमः । विंशतिवर्षप्रवजित उत्कृष्टः ॥ ४०३ ॥ अथ केन बहुश्रुतेन चिरप्रव्रजितेन चाधिकारः ? इत्यत आह बहुसुय चिरपव्वइओ, उ एत्थ मज्झेसु होति अहिगारो। एत्थ उ कमे विभासा, कम्हा उ बहुस्सुओ पढमं ॥ ४०४॥ अत्र बहुश्रुतश्विरप्रवजितश्च यो मध्यस्ताभ्यामधिकारः । गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे । अत्र क्रमे' कमविषये विभाषा कर्तव्या, सा चैवम्-कस्मात् प्रथमं बहुश्रुत उक्तः ? यतः प्रथमं 25 प्रवज्या भवति, ततः श्रुतम् , ततः प्रथमं चिरप्रवजितस्योपादानं युज्यते; नैष दोषः, नियमविशेषप्रदर्शनार्थ ह्येवमुपादानम्-यो बहुश्रुतः स नियमाचिरप्रव्रजितः, येन त्रिवर्षप्रवजितस्य निशीथमुद्दिश्यते, पञ्चवर्षप्रव्रजितस्य कल्प-व्यवहारौ, विंशतिवर्षप्रव्रजितस्य दृष्टिवादः, तेन न दोष, इति ॥ ४०४ ॥ सम्प्रति कल्पिकद्वारमाह सुत्ते अत्थे तदुभय, उंबह विचार लेव पिंडे य । सिजा वत्थे पाए, उग्गहण विहारकप्पे य ॥ ४०५ ॥ कल्पिको द्वादशविधः, तद्यथा-सूत्रे १ अर्थे २ 'तदुभयस्मिन्' सूत्राथोंभयलक्षणे ३ १ पढमो ता० ॥ २ उवट्ठ वीचा ता० ॥ 30 कल्पिक -द्वारम् Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः उपस्थापनायां ४ विचारे ५ पात्रलेपे ६ पिण्डे ७ तथा शय्यायां ८ वस्त्रे ९ पात्रे १० अवनहणे ११ विहारकल्पे च १२ । एष प्रतिद्वारगाथासमासार्थः ॥ ४०५ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः सूत्रकल्पिकमाह-~ सूत्र सुत्तस्स कपितो खलु, आवस्सगमादि जाव आयारो । कल्पिक: 6 तेण पर तिवरिसादी, पकप्पमादी य भावेणं ॥ ४०६ ॥ आवश्यकमादिं कृत्वा यावदाचारस्तावत् सर्वोऽपि सूत्रस्य कल्पिको भवति, न खल्वेतावत् सूत्रं यावत् कोऽपि पठन् विनिवार्यते । ततः परं त्रिवर्षप्रव्रजितमादिं कृत्वा यद् यद् व्यवहारे दशमोद्देशकपर्यन्ते यथा भणितं तत् तथोपदिश्यते यावद्विंशतिवर्षपर्यायः सर्वश्रुतानुपाती भवति । नवरमाचारप्रकल्पमादिं कृत्वा यान्यपवादबहुलान्यध्ययनानि यानि चाति७शायीन्यरुणोपपातप्रभृतीनि तानि यदा भावे परिणतो भवति तदोद्दिश्यन्ते ॥ ४०६ ॥ आह त्रिषु वर्षेष्वपरिपूर्णेष्वाचारे पठिते किं कुर्यात् ? अत आह– सुत्तं कुणति परिजितं, तदत्थगहणं पइण्णगाई वा । इति अंग-ऽज्झयणेसुं, होति कमो जाहगो नायं ॥ ४०७॥ यत् पठितं सूत्रं तत् परिजितं कुर्यात् । यदि वा तस्य सूत्रस्यार्थग्रहणं विदध्यात्, प्रकीर्णकादि वा सूत्रतोऽर्थतश्चाधीते । एवमङ्गानामध्ययनानां चातिशायिनां यावत् कल्पिको भवति तावदेष क्रमो ज्ञातव्यः । जाहकज्ञातं चात्र पूर्वोपन्यस्तमुपन्यसनीयम् , जाहक इव परिजितौ सूत्रा-ऽर्थी कुर्यादिति भावार्थः ॥ ४०७ ॥ अर्थकल्पिकमाह __अत्थस्स कप्पितो खलु, आवासगमादि जाव सूयगडं । कल्पिकः मोत्तूंणं छेयसुयं, जं जेणहियं तदहस्स ॥ ४०८ ॥ 20 आवश्यकमादिं कृत्वा यावत् सूत्रकृतमङ्गं तावद् यद् येनाधीतं स तस्यार्थस्य कल्पिको भवति । सूत्रकृताङ्गस्योपर्यपि च्छेदश्रुतं मुक्त्वा यद् येनाधीतं सूत्रं स तस्य-सूत्रस्य समस्तस्याप्यर्थस्य कल्पिको भवति । छेदसूत्राणि पुनः पठितान्यपि यावदपरिणतस्तावन्न श्राव्यते, यदा तु परिणतो भवति तदा कल्पिकः ॥ ४०८ ॥ अधुना तदुभयकल्पिकमाहतदुभय तदुभयकप्पिय जुत्तो, तिगम्मि एगाहिएसु ठाणेसु । पियधम्मऽवज्जभीरू, ओवम्मं अजवइरेहिं ॥ ४०९ ॥ तदुभयं-सूत्रमर्थश्च तस्मिन् कल्पिको युक्तः। किमुक्तं भवति ? यो द्वावपि सूत्रा-ऽौँ युगपद् ग्रहीतुं समर्थः स तदुभयकल्पिकः । अथवा तदुभयकल्पिकः 'त्रिके एकाधिकयोः स्थानयोर्युक्तः' त्रिकं नाम सूत्रमर्थस्तदुभयं च, तत्र सूत्रादर्थोऽधिकः, अर्थादधिकमुभयम् , एव मेकस्मादर्थादधिके ये उभे स्थाने सूत्रा-ऽर्थरूपे तत्र युक्तः-योग्यः स तदुभयकल्पिकः । 30 अथवा प्रियधर्मा इति चत्वारो भङ्गाः सूचिताः-प्रियधर्मा नामैको न दृढधर्मा १ दृढधर्मा नामैको न प्रियधर्मा २ एकः प्रियधर्माऽपि दृढधर्माऽपि ३ एको न प्रियधर्मा नापि दृढधर्मा ४ । अत्र चतुर्थभङ्गोऽवस्तु । शेषभङ्गत्रिके यत एकस्मादेकैकगुणयुक्तात् स्थानात् प्रथमभङ्गरू१ परिणतं मो० ३० त० ॥ २ तूण छेदसुत ता० ॥ अर्थ कल्पिक: 25 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा: ४०६-४१३] पीठिका। ११९ पाद् द्वितीयभङ्गरूपाद् वा येऽधिके स्थाने प्रियधर्मत्व-दृढधर्मत्वलक्षणे तयोर्युक्तः । स च नियमादवद्यभीरुर्भवति, अवयं-कर्म तस्माद्भीरुः, तत आह-"अवज्जभीरू" स तदुभयक. ल्पिकः । अत्रौपम्यमार्यवः, [सः ] बालभावे कर्णाभ्याहृतं सूत्रं कृतवान् , पश्चात् तस्योद्दिष्टं समुद्दिष्टमनुज्ञातम् अर्थश्च तदैव द्वितीयपौरुष्यां कथितः । एवमन्यस्यापि द्रष्टव्यम् ॥ ४०९॥ तथा चाह पुव्वभवे वि अहीयं, कण्णाहडगं व बालभावम्मि । उत्तममेहाविस्स व, दिजति सुत्तं पि अत्थो वि ॥ ४१० ॥ यस्य पूर्वभवेऽधीतमागच्छति बालभावे वा कर्णाहृतं कृतं तस्य, उत्तममेधाविनो वा युगपत्सूत्रमप्यर्थोऽपि च दीयते । एष उभयकल्पिकः ॥ ४१० ॥ साम्प्रतमुपस्थापनाकल्पिकमाह अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। 10 उपस्थाप दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ॥ ४११ ॥ नाकल्पिकः सूत्रेऽसमाप्ते उपस्थाप्यमाने उपस्थापयितुः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । कथम्भूताः ? इत्याह-द्वाभ्यां गुरवः, तद्यथा-तपसाऽपि गुरुकाः कालेनापि गुरुकाः । अथ सूत्रं प्राप्तस्तथापि तस्यार्थमकथयित्वा यदि तमुपस्थापयति तदा तस्य चत्वारो लघुकाः, नवरं कालेनैकेन लघवः । अथ कथितोऽर्थः परं नाद्याप्यधिगतः अथवाऽधिगतः परमद्यापि न सम्यक् तं श्रद्द-10 धाति तमनधिगतार्थमश्रद्दधानं वा उपस्थापयतश्चत्वारो लघुकाः, नवरमेकेन तपसा लघवः । अथाधिगतार्थमप्यपरीक्ष्योपस्थापयति तदा चत्वारो लघुकाः, तपसाऽपि कालेनापि च लघवः । न केवलमेतत् प्रायश्चित्तं किन्त्वाज्ञादयश्च दोषाः । तथा सर्वत्र षण्णां जीवनिकायानां यद् विधास्यति तत् सर्वमुपस्थापयन् प्राप्नोति । तस्माद् यत एवं प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषास्तस्मान्नापठिते षड्जीवनिकासूत्रे नाप्यनधिगतेऽथें नापि तस्मिन्नपरीक्षिते उपस्थापना कर्त्तव्या ।। ४११॥20 अथ कियन्तः पइजीवनिकायामर्थाधिकाराः ? तत आहजीवा-जीवाभिगमो, चरित्तधम्मो (ग्रन्थाग्रम्-३०००) तहेव जयणाय। षड्जीव निकाया उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणियाएँ अहिगारा ॥ ४१२ ॥ अर्थाधिपइजीवनिकायामिमे पञ्चाधिकाराः, तद्यथा-प्रथमो जीवा-ऽजीवाभिगमः । द्वितीयो महा- काराः व्रतसूत्रादारभ्य चारित्रधर्मः । तृतीयो “जयं चरे जयं चिट्टे" (दश० अ० ४ गा० ८) इत्या- 25 दिना यतना । तदनन्तरमुपदेशः । ततो धर्मफलम् । एते च विस्तरतो दशवकालिकटीकातः परिभावनीयाः ॥ ४१२ ॥ तत्राऽऽस्तामुपस्थापना, कथं स प्रव्राजयितव्यः' इति तदेवोच्यते । तत्र षड्विधो द्रव्यकल्पो वक्तव्य इति तमभिधित्सुराह पव्वावण मुंडावण, सिक्खावण उवह संभुंजणा य संवसणा । घटप्रकारो एसो उ दवियकप्पो, छव्विहतो होति नायव्यो ।। ४१३ ॥ १ इत आरभ्याप्रेतना गाथाश्चर्णिकृता क्रमभेदेन व्याख्याता दृश्यन्ते-अप्पत्ते अकहित्ता० ४११ पढिए य कहिय० ४१४ पवावण मुंडावण. ४१३ जीवाजीवाभिगमो. ४१२ अप्पत्ते अकहिता. ४१५॥ २ सिखावण उघट्ट भुंज संवसणा ता० ॥ 30दव्यकल्पः Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः प्रव्रांजना नाम यो धर्मे कथितेऽकथिते वा प्रवजामीत्यभ्युत्थितः [सः] प्रथमतः पृच्छयतेकस्त्वम् ! कुतो वा समागतः? किंनिमित्तं वा प्रव्रजिष्यति । तत्र यदा पृच्छापरिशुद्धो भवति तदा प्रवाजयितुमभ्युपगम्यते, अभ्युपगम्य च प्रशस्तेषु द्रव्यादिष्वाचार्यः खयमेवाष्टाग्रहणं करोति । एतावता प्रव्राजनाद्वारम् । तदनन्तरं स्थिरहस्तेन लोचे कृते रजोहरणमर्पयित्वा तस्य सामायिकसूत्रं दीयते, ततः- “सामायिक मे दत्तम् इच्छामोऽनुशिष्टिम्" इति; सूरयो ब्रुवतेनिस्तारकेपारगो भव, क्षमाश्रमणानां गुणैर्वर्धख । एषा मुण्डापना । “सिक्खावण"ति तदनन्तरं द्विविधामपि शिक्षा ग्राह्यते, तद्यथा-ग्रहणशिक्षामासेवनाशिक्षां च । ग्रहण शिक्षा नाम पाठः, आसेवनाशिक्षा सामाचारीशिक्षणम् । यदा द्विविधामपि शिक्षा ग्राहितो भवति तदा स उपस्थाप्यते प्रशस्तेषु द्रव्य-क्षेत्रादिषु । द्रव्यतः शालिकरणे इक्षुकरणे चैत्यवृक्षे वा । क्षेत्रतः 10 पद्मसरसि सानुनादे चैत्यगृहे वा । कालतश्चतुर्थ्यष्टम्यादिवर्जितासु तिथिषु । भावतोऽनुकूले नक्षत्रे, यदि तस्य जन्मनक्षत्रं न ज्ञायते तदाऽऽचार्यस्यानुकूले नक्षत्रे सुन्दरे मुहूर्ते यथाजातेन लिङ्गेन तद्यथा-रजोहरणेन निषद्याद्वयोपेतेन मुखपोतिकया चोलपट्टेन च वामपार्श्वे स्थापयित्वा एकैकं महाव्रतं त्रीन् वारान् उच्चार्यते यावद् रात्रिभोजनम् । अथ ते द्वौ त्रयो बहवों वा भवेयुस्ततो यथावयोवृद्धम् ; अथ ते क्षत्रिया राजपुत्राः तत्र यः खत एवासन्नतर आचार्यस्य 16 स रत्नाधिकः क्रियते, इतरो लघुः; अथ द्वावप्युभयतः पार्श्वयोः समौ व्यवस्थितौ तदा तौ द्वावपि समरलाधिको व्रतेषूच्चारितेषु प्रदक्षिणां कारयित्वा पादयोः पात्यते (पात्येते) भाण्यते (भाण्येते) च-महाव्रतानि ममारोपितानि, इच्छामोऽनुशिष्टिम् , शेषाणामपि साधूनां निवेदयामि । गुरुर्भणति-निवेदय । इदं च भणति-निस्तारकपारगो भव, क्षमाश्रमणानां च गुणैर्वर्धख । एवमुपस्थिते द्विविधः सङ्ग्रहः साधोः, यथा-अहं तव आचार्यः, अमुकस्ते उपा30 ध्यायः । साळ्यास्त्रिविधः सङ्ग्रहः, तत्र तृतीया अमुका ते प्रवर्तिनी । एवमुपस्थाप्य केषा ञ्चित् पञ्चकल्याणकं केषाश्चिदभक्तार्थ केषाञ्चिदाचाम्लं केषाश्चिन्निर्विकृतिकमपरेषां न किञ्चित्, किंबहुना ! यद् यस्य तपःकर्म आवलिकागतं स तद् दत्त्वा तेन सहैकत्र मण्डल्यां सम्भुक्के, संवसनं च करोति । शैक्षकपरिपालना चेयम्-यावन्नोपस्थाप्यते तावन्न भिक्षां हिण्डापयितव्यः ॥ ४१३ ॥ कथं पुनरुपस्थापनीयः ? इत्यत आह पढिए य कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाए सो कप्पो। छकं तीहि विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेण ॥ ४१४ ॥ सूत्रं प्रथमतः पाठयित्वा तदनन्तरमर्थ कथयित्वा ततः 'अधिगतोऽनेनार्थः, सम्यक् श्रद्धानविषयीकृतश्च' इति परीक्ष्य यदा. 'षट्कं' षड्जीवनिकायान् 'त्रिभिः' मनो-वाक्-कायविशुद्धं भावतो न परानुवृत्त्या परिहरति । कथं परिहरति ? इत्यत आह-नवकभेदेन षदकम् , मनसा खयं 30 परिहरति अन्यैः परिहारयति परिहरन्तमन्यं समनुजानाति, एवं वाचा कायेन च प्रत्येकं त्रयस्त्रयो भेदा द्रष्टव्याः ॥ ४१४ ॥ १°ष्यसि त डे० त० कां० ॥ २ °कः पा° भा० मो० ॥ 25 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१४ - १८] पीठिका | एष उपस्थापनायाः कल्पः । सम्प्रति विचारकल्पमाह अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणम्मि चउगुरुगा । दोहि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ॥ ४१५ ॥ पढितेय कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सो उ । तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेणं ॥ ४१६ ॥ सूत्रे लक्षणे ओघ निर्युक्तिलक्षणे वा अप्राप्ते यदि विचारभूमावेकाकिनं प्रस्थापयति तदा तस्य प्रायश्चितं चत्वारो गुरुकाः । ते च द्वाभ्यां गुरुकाः, तद्यथा - तपो गुरुकाः कागुरुकाश्च । अथ प्राप्तेऽपि श्रुते तदर्थमकथयित्वा कथनेऽपि 'अधिगतस्तदर्थो न वा ' इत्यपरिज्ञाय अधिगतमपि 'सम्यक् श्रद्दधाति न वा ?' इत्यपरीक्ष्य यदि प्रेषयति तदा प्रत्येकमकथनेऽधिगमेऽपरीक्षणे च तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । ते च विचाराधिकारात् सर्वत्रापि 10 च द्वाभ्यां लघवः, तद्यथा - तपोलघुकाः काल्लघुकाश्च । न केवलमेतत् प्रायश्चित्तं किन्त्वाज्ञादयश्च दोषाः । संयमविराधना त्वेवम् सोऽप्राप्तश्रुतादित्वादेकाकी प्रस्थापितः षट्सु जीवनकायेषु संज्ञां व्युत्सृजेत्, उड्डाहं चाऽस्थण्डिले व्युत्सृजन् कुर्यात् । विरुद्ध दिगादिषु व्युत्सर्जने - नाऽऽयुषोऽपगमत आत्मविराधना ॥ ४१५ ॥ तस्माद् - यदा सूत्रं सप्तसप्तकादिरूपं पठितं भवति तस्य चार्थः कथितोऽधिगतोऽधिगम्य च सम्यक् 15श्रद्धानविषयीकृतस्ततो निशीथोकेन प्रकारेण परीक्ष्यमाणः 'त्रिविधं' सचितमचितं मिश्रं च स्थण्डिलं परिहारविषयेण नवकभेदेन 'त्रिभिः' मनो- वाक्- कायैर्विशुद्धं परिहरति, तद्यथासचितं स्थण्डिलं तद् मनसा स्वयं न गच्छति नाप्यन्यान् गमयति न चाप्यन्यं गच्छन्तमनुजानाति । एवं वाचा ३ कायेनापि ३ । एवं मिश्रमचित्तं चापातसंलोकादिदोषदुष्टम् । स भवति विचारकल्लिकः ॥ ४१६ | विचारभूमौ गतेन स्थण्डिले उपवेष्टव्यम्, अतः स्थण्डिले 20 वक्तव्ये येऽर्थाधिकारास्तानभिधित्सुर्द्वारगाथामाहस्थण्डिलनिरूपणा १२१ १ सप्तसप्तिकाख्या आचाराङ्गसूत्रे द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीया चूलिका ॥ बृ० १६ 5 अचित्तेण अचित्तं, मीसेण अचित्त छकमीसेणं । सच्चित्त छक्कएणं, अचित्त चउभंग एकेके ॥ ४१८ ॥ 30 अचित्ते स्थण्डिले पन्थानमधिकृत्य त्रयो भेदाः - अचितं स्थण्डिलम चित्तेन पथा गम्यते १ ; अचित्तं मिश्रेण पथा २, केन मिश्रेण ? इत्यत आह - षट् कायमिश्रेण; तथा अचित्तं 'सचि भेया सोहि अवाया, वज्रणया खलु तहा अणुष्णा य । कारणविहीय जयणा, थंडिल्ले होंति अहिगारा ॥ ४१७ ॥ प्रथमतो भेदाः स्थण्डिलस्य वक्तव्याः । तदनन्तरं स्थण्डिले व्युत्सृजतः 'शोधि:' प्रायश्चि- 25' चम् । ततोऽपायाः । तदनन्तरं वर्जनद्वारम् । ततः परमनुज्ञा । ततः कारणविधिः । तदनन्तरं यतना । एते वक्ष्यमाणाः स्थण्डिले अधिकाराः ॥ ४१७ ॥ तत्र प्रथमतो भेदद्वारप्रतिपादनार्थमाह विचार कल्पः स्थण्डिलनिरूप णायाम श्रीधिकाराः स्थण्डिलस्य भेदाः Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आपात. १२२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे । अनुयोगाधिकारः तेन पथा' स पन्थाः सचित्तः, कथम् ? इत्याह-'षट्केन' पद्भिर्जीवनिकायैः ३; एवमचित्ते स्थण्डिले त्रयो भेदाः । एवं मिश्रे ३ सचिते ३ च । एतेषां अचित्त-मिश्र-सचित्तानामेकैकस्मिन् भने चतुर्भङ्गी ॥ ४१८ ॥ तामेवोपदर्शयति-- . अणवायमसंलोए, अणवाए चेव होति संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए ॥ ४१९ ॥ अनापातमसंलोकमिति प्रथमो भङ्गः, अनापातं संलोकवदिति द्वितीयः, आपातवदसलोकमिति तृतीयः, आपातवत् संलोकवदिति चतुर्थः । गाथायां मत्वर्थीयप्रत्ययस्य लोपः प्राकृतत्वात् , अभ्रादित्वाद्वा अकारप्रत्ययः । अमीषां चतुर्णा भङ्गानां प्रथमो भङ्गोऽनुज्ञातः, शेषाः प्रतिकुष्टाः । निर्ग्रन्थीनां तृतीयोऽनुज्ञातः ॥ ४१९ ॥ चतुर्थ स्थण्डिलं व्याख्यानयति तत्थाऽऽवायं दुविहं, सपक्ख-परपक्खतो उ नायव्वं । वत् सं. दुविहं होइ सपक्खे, संजय तह संजतीणं च ॥ ४२० ॥ लोकवत् संविग्गमसंविग्गा, संविग्ग मणुण्ण एतरा चेव । स्थण्डिलम् असं विग्गा वि य दुविहा, तप्पक्खिय एयरा चेव ॥ ४२१ ॥ 'तत्र' आपातवत्-संलोकवतोर्मध्ये 'आपातम्' आपातवद् द्विविधं ज्ञातव्यम् , तद्यथा10 'स्वपक्षतः परपक्षतश्च' स्वपक्षापातवत् परपक्षापातवच्चेत्यर्थः । तत्र 'स्वपक्षे' खपक्षविषये द्विविध. मापातवत् , तद्यथा-'संयतानां संयतीनां च' संयतापातवत् संयत्यापातवच्चेति भावः ॥४२०॥ __ संयता अपि द्विविधाः-संविना असंविमाश्च । संविमा उद्यतविहारिणः, असंविनाः शिथिलाः पार्थस्थादयः । संविमा अपि द्विविधाः-'मनोज्ञाः' साम्भोगिकाः 'इतरे' अमनोज्ञाः असाम्भोगिकाः । असंविग्ना अपि द्विविधाः-'तत्पाक्षिकाः' संविमपाक्षिकाः 'इतरे' असं विम2० पाक्षिकाः ॥ ४२१ ॥ उक्तं खपक्षापातवत् । सम्प्रति परपक्षापातवत् प्राह परपक्खे वि य दुविहं, माणुस तेरिच्छगं च नायव्यं । एकेकं पि य तिविहं, पुरिसित्थि नपुंसगं चेव ॥ ४२२ ॥ 'परपक्षेऽपि' परपक्षविषयेऽप्यापातवद् द्विविधं ज्ञातव्यम्-'मानुषं तैरश्चं च' मनुष्यापातवत् तिर्यगापातवच्चेत्यर्थः । 'एकैकमपि' मानुषं तैरश्चं च त्रिविधम् , तद्यथा-पुरुषवत् स्त्रीवद् नपुं2 सकवच, पुरुषापातवत् रूयापातवद् नपुंसकापातवच्चेति भावः ॥ ४२२ ॥ पुरिसावायं तिविहं, दंडिय कोडुबिए य पागइए । ते सोयऽ-सोयवादी, एमेव नपुंस-इत्थीसु ॥ ४२३ ॥ 'पुरुषापातं' पुरुषापातवत् त्रिविधम् , तद्यथा-'दण्डिके कौटुम्बिके प्राकृते च' दण्डिकपुरुषापातवत् कौटुम्बिकपुरुषापातवत् प्राकृतपुरुषापातवच्चेत्यर्थः । दण्डिका राजकुलानुगताः, 30 कौटुम्बिकाः शेषा महर्द्धिकाः, इतरे प्राकृताः । 'ते च' त्रयोऽपि प्रत्येकं द्विविधाः-शौचवा. दिनोऽशौचवादिनश्च । 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण नपुंसक-स्त्रियोरपि वक्तव्यम् । किमुक्तं भवति ?-नपुंसकापातवत् रूयापातवच्च प्रत्येकं प्रथमतो दण्डिकादिभेदतस्त्रिविधम् । ततः शौचवायशौचवादिभेदतः पुनरेकै द्विविधम् ॥ ४२३ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ भाष्यगाथाः ४१९-२६] पीठिका। उक्तं मनुष्यापातवद् । अधुना तिर्यगापातवदाह दित्तमदित्ता तिरिया, जहण्णमुक्कोस मज्झिमा तिविहा । एमेवेत्थि-नपुंसा, दुगुंछिय-ऽदुगुंछिया नवरं ॥ ४२४ ॥ तिर्यञ्चो द्विविधाः-दृप्ता अदृप्ताश्च । दृप्ता दर्पवन्तः, अदृप्ताः शान्ताः । ते प्रत्येक त्रिविधाः-जघन्या उत्कृष्टा मध्यमाश्च । जघन्या एडकादयः, मध्यमा महिषादयः, उत्कृष्टा । हस्त्यादयः । एते किल पुरुषा उक्ताः । एवमेव स्त्री-नपुंसका अपि वक्तव्याः । नवरं ते दृप्ता अदृप्ताश्च प्रत्येकं द्विविधा विज्ञेयाः, तद्यथा-जुगुप्सिता अजुगुप्सिताश्च । जुगुप्सिता गर्दभ्यादयः, इतरे अजुगुप्सिताः । उक्तमापातवत् । संलोकवद् मनुष्येष्वेव द्रष्टव्यम् । ते च मनुष्यास्त्रिविधाः, तद्यथा-पुरुषाः स्त्रियो नपुंसकाश्च । एकैके प्रत्येकं त्रिविधाः-प्राकृताः कौटुम्बिका दण्डिकाश्च । पुनरेकैके द्विविधाः-शौचवादिनोऽशौचवादिनश्च । उक्तञ्च- 10 आलोगो मणुएसुं, पुरिसित्थि-नपुंसगाण बोधवो । पायय कुडुबि दंडिय, असोय तह सोयवादीणं ।। तदेवमापात-संलोको चरमभङ्गे, द्वितीये आपातः, तृतीये संलोकः । उक्ता भेदप्रभेदयुक्ता एते स्थण्डिलभेदाः ॥ ४२४ ॥ गतं भेदद्वारम् । अधुना शोधिद्वारमाह मणुय-तिरिएसु लहुगा, चउरो गुरुगा य दित्ततिरिएसु । 15 शोधिद्वा तिरियनपुंसित्थीसु य, मणुयस्थि-नसगे गुरुगा ॥ ४२५ ॥ मनुष्याणां शौचवादिनां पुरुषाणां तिरश्चां च पुरुषाणामहप्तानामापाते गाथायां सप्तमी षष्ठ्यर्थे संज्ञा व्युत्सृजतः प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । “गुरुगा य दित्ततिरिएसु" इति दृप्तानां तिरश्चामापाते चत्वारो गुरुकाः । तथा 'तिर्यनपुंसक-स्त्रीषु' तिर्यग्योनीनां नपुंसक-स्त्रीणां दृप्तानामापाते "मणुस्सत्थी (मणुयत्थि) नपुंसगे" इति मनुष्याणां स्त्री-नपुंसकानां शौचवादिना-20 मापाते प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः ॥ ४२५ ॥ मणुय-तिरियपुंसेसुं, दोसु वि लहुगा तवेण कालेण । कालगुरू तवगुरुगा, दोहिँ गुरू अद्धोकंती वा ॥ ४२६ ॥ मनुष्याणामशौचवादिनां पुरुषाणां तिरश्चामहप्तानां पुरुषाणामापाते द्वयानामपि पृथक् पृथक् प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकास्तपसा कालेन च लघवः । मनुष्यस्त्री-नपुंसकानामशौचवादिनामापाते 25 चत्वारो गुरुकाः द्वाभ्यां गुरुकाः, तद्यथा-कालगुरुकास्तपोगुरुकाः । अर्धपक्रान्तिर्वा द्रष्टव्या। सा चैवम्-तिरश्चां दृप्तानां पुरुषाणामापाते मनुष्याणां गृहिणां पाषण्डिनां वा पुरुषाणामशौचवादिनामापाते चत्वारो लघुकाः कालगुरुकाः, तिर्यस्त्री-नपुंसकानामहप्तानामजुगुप्सिता १ "मणुयतिरिएसु' गाथाष्टकं कण्ठ्यम् । सोधि त्ति गतम् ।" इत्यनेन चूर्णिप्रन्थेन चर्णिकृता "भद्द तिरी पासंडे." ४२९ गाथां यावत् शोधिद्वारसत्कं गाथाष्टकमावेदितम् इति "पागय कोडंबिय." इति ४२७ गाथाटीकायां टीकाकृद्भिः “उक्तं च" इति उल्लिख्य यत् “पागइयऽसोयवादी." इत्यादि माथात्रिकं निष्टङ्कितं रमतेन भाष्यसत्कमिति सम्भावयामः । न खल्वेतत् "पागइयसोयवादी." इत्यादिकं गाथात्रिकमसत्पार्श्ववर्तिनीषु भाष्यप्रतिषु कापि दृश्यते ॥ तत् Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १२४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः नामापाते कालगुरुकाः चत्वारो लघुकाः, तेषामेव तिर्यक्स्त्री-नपुंसकानां दृप्तानां जुगुप्सितानां चापाते चत्वारों लघुकास्तपोगुरवः, मनुष्यस्त्री-नपुंसकानामशौचवादिनामपि त एव तपोगुरवश्चत्वारो लघुकाः ॥ ४२६ ॥ इयमेकेषामाचार्याणां मतेनाख़्वक्रान्तिरुपदर्शिता । सम्प्रति भाष्यकारोऽन्यथाऽर्धीवक्रान्तिमाह पागय कोडंबिय दंडिए य अस्सोय-सोयवादीसु।। चउगुरुगा जमलपया, अहवा चउ छ व गुरु-लहगा ॥ ४२७॥ प्राकृते कौटुम्बिके दण्डिनि च प्रत्येकमशौचवादिनि शौचवादिनि चार्धवक्रान्तिरवसेया । सा चैवम्-प्राकृतानामशौचवादिनां पुरुषाणामापाते चत्वारो लघुकास्तपसा कालेन च लघवः, तेषामेव शौचवादिनां प्राकृतपुरुषाणामापाते त एव चत्वारो लघवः कालगुरुकाः; कौटुम्बिकानाम10 शौचवादिनां पुरुषाणामापाते कालगुरुकाश्चत्वारो लघवः, तेषामेव कौटुम्बिकपुरुषाणां शौचवादिनामापाते चत्वारो लघवस्तपोगुरुकाः; दण्डिकपुरुषाणामशौचवादिनामापाते तपोगुरुकाश्चतुर्लघवः, तेषामेव शौचवादिनामापाते चतुर्लघवो द्वाभ्यां गुरुकास्तपसा कालेन च । उक्तश्च पागइयऽसोयवादी, पुरिसाणं लहुग दोहि वी लहुगा । ते चेव य कालगुरू, तेर्सि चिय सोयवादीणं ॥ ते च्चिय लहु कालगुरू, कोडंबीणं असोयवादीणं । तेसिं चिय ते चेव उ, तवगुरुगा सोयवादीणं ॥ दंडिय असोय ति चिय, सोयम्मि य दोहि गुरुग चउलहुगा । एस पुरिसाण भणिओ, इत्थि-नपुंसाण वी एवं ॥ "चउगुरुगा जमलपदा" इति 'यमलपदानि' स्त्री-नपुंसकलक्षणानि चतुर्गुरुकानि वक्त. 20 व्यानि । तानि चैवम्-प्राकृतस्त्रीणामशौनवादिनीनामापाते चत्वारो गुरुकाः द्वाभ्यां लघवः, तद्यथा-तपसा कालेन च, तासामेव शौचवादिनीनां चत्वारो गुरुकाः कालगुरवः; कौटुम्बिकस्रीणामशौचवादिनीनामापाते कालगुरवश्चत्वारो गुरुकाः, तासामेव शौचवादिनीनामापाते नया गुरुकाश्चत्वारो गुरवः; एवमेव दण्डिकस्त्रीणामशौचवादिनीनाम पि, शौचवादिनीनां न त्याग गुरुका द्वाभ्यां गुरवस्तपसा कालेन चः एवमेव नपुंसकानामप्यापाते वक्तव्यम् । अमेव 25 मतान्तरमाह-अथवा स्त्रीणामापाते चतुर्गुरुका उत्प्रकारेण तपसा कालेन च विशषिताः ! नपुंसकानामापाते षड्लघवो यथोक्तक्रमेण तपः-कालविशेषिताः ॥ ४२७ ॥ सम्प्रति तिर्यगापातमधिकृत्यार्द्धापक्रान्तिमाह तिरिएसु वि एवं चिय, अदुगुंछ-दुगुंछ-दित्त-दित्तेसु । ___ अमणुण्णेयर लहुगो, संजतिवग्गम्मि चउगुरुगा ॥ ४२८ ॥ 50 एवमेव' अनेनैव प्रकारेण तिर्यक्ष्वजुगुप्सित-जुगुप्सित-दृप्ता-ऽदृप्तेष्व‘पक्रान्तिरवसेया, __ तद्यथा-प्राकृतपुरुषगृहीतानामदृप्तानां तिर्यक्पुरुषाणामापाते चत्वारो लघवो द्वाभ्यां लघुकास्तपसा कालेन च, तेषामेव च दृप्तानां त एव चत्वारो लघवः कालगुरुकाः; कौटुम्बिकपरि१°नां चापा डे. ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भाष्यगाथाः ४२७-३१ ] पीठिका | १२५ गृहीतानामपि तिर्यक्पुरुषाणामदृप्तानामापाते च त एव कालगुरुकाश्चत्वारो लघवः, तेषामेव नां तपोगुरवश्चत्वारो लघुकाः; दण्डिकपरिगृहीतानां तिर्यक्पुरुषाणामदृप्तानामापाते त एव चत्वारो लघवस्तपोगुरुकाः तेषामेव दृप्तानामापाते चतुर्लघुका द्वाभ्यां गुरवस्तपसा कालेन च; तथा प्राकृतपरिगृहीतानां स्त्रीणां नपुंसकानां च तिरश्चामजुगुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुका द्वाभ्यां लघवस्तपसा कालेन च तेषामेव जुगुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुकाः 3 काल गुरवः; कोटुम्बिकपरिगृहीतानां तिर्यक्त्री नपुंसकानामापाते त एव कालगुरुकाश्चत्वारो गुरवः, तेषामेव जुगुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुकास्तपोगुरवः एत एव दण्डिकपरिगृहीतानामपि तिर्यक्स्त्री - नपुंसकानामदृप्तानामापाते द्रष्टव्याः, दृप्तानामापाते चत्वारो गुरुका द्वाभ्यां गुरवः कालेन तपसा च । उक्ता तिर्यक्ष्वप्यर्द्धापकान्तिः, सम्प्रति स्वपक्षापाते शोधिमाह - अमनोज्ञानाम्-असाम्भोगिकानां संविमानाम् इतरेषां च - असं विमानामापाते प्रायश्चित्तं लघुको 10 मासः । 'संयतीवर्गे समापतति' संयतीनामापाते चत्वारो गुरुकाः ॥ ४२८ ॥ सम्प्रति प्रागुक्तमेवार्थमुपदिदर्शयिषुराह - भद्द तिरी पाडे, मणुयाऽसोएहिं दोहिं लहु लहुगा । कालगुरू वगुरुगा, दोहि गुरू अड्डोकंति दुगे ।। ४२९ ॥ भद्रेषु - अदृप्तेषु तिर्यक्षु पुरुषेषु मनुष्येषु गृहस्थेषु पाषण्डिषु चाऽशौचवादिष्वापतत्सु 15 चत्वारो लघुकाः द्वाभ्यां लघवः । मनुष्यस्त्री - नपुंसकानां शौचवादिनामापाते चत्वारो गुरुका द्वाभ्यां गुरवः, तद्यथा - तपोगुरुकाः कालगुरुकाश्च । शेषेषु तु तिर्यग् - मनुष्य भेदेषु 'द्विके' तपः- काललक्षणे 'अर्द्धापकान्तिः ' क्वचित् तपोगुरुका क्वचित् कालगुरुकेत्येवंरूपाऽवसातव्या । सा च प्राक् प्रदर्शिता ॥ ४२९ ।। गतं शोधिद्वारम् । इदानीमपायद्वारमाहअमणुण्णेयरगमणे, वितहायरणम्मि होड़ अहिगरणं । परदवकरण दहूं, कुसील सेहादिगमणं च ॥ ४३० ॥ अमनोज्ञानाम्-असाम्भोगिकानां संविनानाम् इतरेषां चं- असं विमानां गमने - आपात सत वितथाचरणे दृश्यमाने भवति परस्परमधिकरणम् । इयमत्र भावना - आचार्याणां परस्परमन्यथा सामाचार्यः, ततोऽसाम्भोगिकानां सामाचारीवितथाचरणदर्शने 'नैषा सामाचारी' इति परस्परमधिकरणं प्रवर्त्तते । इतरे कुशीलाः पार्श्वस्थादयस्ते प्रचुरेण वारिणा पुतप्रक्षालनं कुर्वन्ति, 26 ततस्तेषां कुशलानां प्रचुरद्रवेण पुनर्निर्लेपकरणं दृष्ट्वा शैक्षकाणाम् आदिशब्दात् शौचवादिनां मन्दधर्मिणां च गमनं तेषां समीपे भवति ॥ ४३० ॥ 20 अपाय द्वारम् निग्गंथाणं पढमं, सेसा खलु होंति तेसि पडिकुड्डा । दव अप्प कलस असती, अवण्ण पुरिसेसु पडिसेहो ॥ ४३१ ॥ यत एवमापाते दोषास्तस्मान्निर्ग्रन्थानां प्रथमं स्थण्डिलम् - अनापातमसंलोकमित्येवंरूपम्, 30 शेषाणि त्रीणि खलु 'तेषां' निर्ग्रन्थानां 'प्रतिकुष्टानि' प्रतिषिद्धानि । अथ परपक्षापातं तत्रापि पुरुषापातं व्रजति तदा नियमतो द्रवमकलुषं परिपूर्णं च नेतव्यम्, अन्यथा 'द्रवे' पानीये अल्पे कलुषे वा यदि वा 'असति' विना पानीयेन गतो भवेत् ततस्ते दृष्ट्वा 'अवर्णम्' Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः अश्लाघां कुर्युः, यथा-अशुचयोऽमी, न केवलमवर्णं कुर्युः किन्तु प्रतिषेधोऽपि तैः क्रियते, यथा-मा कोऽप्यमीषामशुचीनां भक्तं पानं वा दद्यात् । एष पुरुषेषु-पुरुषापाते दोषः ॥४३१॥ सम्प्रति स्त्री-नपुंसकापाते दोषानाह आय पर तदुभए वा, संकाईया हवंति दोसा उ । पंडिस्थिसंगगहिते, उड्डाहो पडिगमणमादी ॥ ४३२ ॥ ____ स्त्रीणां नपुंसकानां चापाते आत्मनि परे तदुभयस्मिन् वा शङ्कादयो दोषा भवन्ति । तत्रात्मनि साधुः शङ्काविषयीक्रियते, यथा-एष किमप्युद्भामयति? ; परैः स्त्री नपुंसको वा शक्यते, यथा-एते पापकर्माण एनं साधुं कामयन्ते इति; तदुभयस्मिन् यथा-द्वावप्येतौ परस्परमत्र मैथुनार्थमागतौ । तदेवमुक्ता शङ्का । आदिशब्दादवर्णादिदोषपरिग्रहः । तथा रूयापाते नपुं10 सकापाते वा स साधुरात्म-परोभयसमुत्थेन दोषेण स्त्रिया पण्डकेन वा सार्द्ध सङ्ख-मैथुनं कुर्यात् , तत्र केनचिदगारेण दृष्ट्वा गृहीतः स्यात् ततः प्रवचनस्योड्डाहः । तथा स उड्डाहित इति कृत्वा प्रतिगमनादीनि कुर्यात् ॥ ४३२ ॥ __ अस्मिन्नेव चतुर्थे स्थण्डिले तिर्यगापाते दोषानाह आहणणादी दित्ते, गरहियतिरिएसु संकमादीया।। एमेव य संलोए, तिरिए वज्जित्तु मणुएसु॥ ४३३ ॥ ___'दृप्ते' दृप्ततिर्यगापाते आहननादयो दोषाः । आहननं शृङ्गादिभिस्ताडनम् , आदिशब्दाद मूर्छागमन-मारणादिपरिग्रहः । 'गर्हितेषु तिर्यक्षु' गर्हिततिर्यक्स्त्री-नपुंसकापाते शङ्का मैथुने, आदिशब्दात् प्रतिसेवेतापीत्यादयो दोषाः । यथा आपाते दोषा उक्ता एवमेव संलोकेऽपि तिर्यग्योनिकान् वर्जयित्वा मनुष्येषु द्रष्टव्याः। किमुक्तं भवति ?-एषां संलोके नास्ति कश्चिदन20न्तरोदितो दोषः, मनुष्याणां तु स्त्री-पुरुष-नपुंसकानां संलोके ये आपाते दोषास्ते वेदितव्याः ॥४३३ ।। यद्यपि कदाचिदात्म-परोभयसमुत्था मैथुने दोषा न भवेयुस्तथाप्यमी सम्भाव्यन्ते जत्थऽम्हे पासामो, जत्थ य आयरइ नातिवग्गो णे। परिभव कामेमाणो, संकेयगदिनको वा वि ॥ ४३४ ॥ यत्र वयममुमागच्छन्तं पश्यामो यत्र चाऽस्माकं ज्ञातिवर्गो निरन्तरम् 'आचरति' विचा25 रार्थमागच्छति तत्रास्माकं परिभवं कामयमानो दत्तसङ्केतो वा समागच्छति ॥४३४॥ किञ्च कलुस दवे असतीय व, पुरिसालोए हवंति दोसा उ पंडित्थीसु वि य तहा, खद्धे वेउविए मुच्छा ॥ ४३५ ॥ 'द्रवे' पानीये कलुषे 'असति' अविद्यमाने वा पुरुषालोके 'दोषाः' प्रागुक्ता अवर्णादयो भवन्ति । तथा पण्डः-नपुंसकः, पण्डेषु स्त्रीषु च संलोकमानेषु खद्धे वैकुर्विके वा सागारिके 30 दृष्टे मूर्छा भवेत् । इयमत्र भावना-नपुंसकः स्त्री वा सागारिकं खभावत एवातिस्थूलं लम्ब च यदि वा कषायितम् अथवा वातदोषेण वैकुर्विकं दृष्ट्वा तद्विषयाभिलाषमूर्छामापन्ना तं साधुमुपसर्गयेत् तस्मात् त्रयाणामपि संलोको वर्जनीयः ॥ ४३५ ॥ १°हित्थीसंग ता॥ २ °म्हे वचामो ता० ॥ ३ °तीए व पुरिसलोए ता• विना ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १३२-३९] पीठिका। गतं चतुर्थं स्थण्डिलम् , इदानीं तृतीयमापातवदसंलोकमधिकृत्य दोषानाह-- आयसमुत्था तिरिए, पुरिसे दव कलुस असति उड्डाहो । आयोभय इत्थीसुं, अतिति णिते य आसंका ॥ ४३६ ॥ तिर्यगापाते आत्मसमुत्था दोषाः, तद्यथा-स्त्रीणां नपुंसकानां चापाते मैथुनाशकादयो दोषाः । दृप्तानां तिर्यक्पुरुषाणामापाते आत्मन उपघातः । तथा 'पुरुषे' मनुष्यपुरुषापाते द्रवे० कलुषे असति वा प्रवचनस्योड्डाहः । तथा स्त्रीषु चशब्दान्नपुंसकेप्वागच्छत्यु गच्छत्सु च. 'आत्मोभयविषया' आत्मोभयग्रहणं परस्योपलक्षणं आत्म-परोभयविषया आशङ्का । सा च प्रागेव भाविता ॥ ४३६ ॥ आवायदोस तइए, बिइए संलोयतो भवे दोसा। ते दो वि नत्यि पढमे, तहिं गमणं तत्थिमा मेरा ॥ ४३७॥ 10 तृतीये स्थण्डिले आपातदोषः, द्वितीये च संलोकतो दोषा भवन्ति ते वेदितव्याः । ते च. 'द्वयेऽपि' आपातदोषाः संलोकदोषाश्च प्रथम स्थण्डिले न सन्ति ततस्तत्र गमनं विधेयम् । तत्रेयं मर्यादा ॥ ४३७ ॥ तामेवाह कालमकाले सन्ना, कालो तइयाएँ सेसगमकालो। पढमा पोरिसि आपुच्छ पाणगमपुस्फिअण्णदिसि ॥ ४३८ ॥ 15 द्विविधा संज्ञा, तद्यथा-कालेऽकाले च । तत्र काले तृतीयस्यां पौरुभ्याम् , 'शेषक' सर्वमपि प्रातःप्रभृतिकमकालः । तत्र तावदकालसंज्ञायां विधिरुच्यते 'कथं गन्तव्यम् ?'-तत्र यदि प्रथमायां पौरुप्यां भवेत् तदा पात्रमुद्राह्य पानकनिमित्तं व्रजति; अथ नोद्राहयति पात्रं ततो लोको जानीयात् , यथा-एष बहिर्गमननिमितं पानीयं गृह्णाति, ततश्चतुर्थरसिकं न दद्यात् । अपि चोद्राहिते पात्रेऽयमधिको गुणः-कोऽपि श्राद्धो अामान्तरं नगरान्तरं वा गन्तुकामः 20 प्रधावितः श्रद्धायामुत्पन्नायां तं प्रतिलाभयेत् , सोऽपि लाभो भवति शङ्काऽपि च नोपजायते, यथा-एष बहिर्गमनाय पानकनिमित्तं हिण्डते । स पुनः कीदृशं पानीयं गृह्णीयाद् ? अत आह'अपुष्पितं' अच्छं सुगन्धं चतुर्थरसिकम् , न भवति तादृशं तत उष्णोदकादि गृह्णीयात् । "अण्ण दिसि"मिति यस्यां दिशि संज्ञाभूमिः तस्यां पान कस्य न गन्तव्यम् , यदि पुनस्तस्यां गच्छति ततोऽतिरिक्तं ग्रहीतव्यम् । यदि द्वौ जनौ तदा तथा गृह्णाति यथा तृतीयस्याप्युद्ध-25. रति, किं बहुना ? यावन्तो व्रजन्ति तावतां योग्यमतिरिक्तं तथा गृह्णाति यथैकस्योद्धरति । एवं पानीयं गृहीत्वा समागतो बहिः प्रतिश्रयस्य पादौ प्रमाय॑ दण्डकं स्थापयित्वा ऐर्यापथिकी प्रतिक्रम्य आलोच्य गुरोः पानकं दर्शयित्वाऽऽपृच्छति । गुरुमापृच्छय 'संज्ञाभूमि व्रजामि' इति गच्छति । तत्र यद्यन्योऽपि कश्चिद्रजति तर्हि यथैकस्योद्धरति तावत्प्रमाणं मात्रके पानकं गृह्णाति । तच्चोद्राहितं पात्रमन्यस्य समर्प्य दण्डकं प्रमार्ण्य आवश्यिकीं कृत्वा व्रजति । यथो-30 क्तविधेरकरणे सर्वत्र प्रायश्चित्तं मासलघु ॥ ४३८ ॥ उक्तमेवार्थ स्पष्टतरमुपदर्शयति अतिरेगगहणमुग्गाहियम्मि आलोय पुच्छियं गच्छे । एसा उ अकालम्मी, अणहिंडिय हिंडिए काले ॥ ४३९ ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सनियुक्ति-भाग्य-वृतिक बृहत्कल्पसूत्रे अनुयोगाधिकार पात्रे उद्घाहिते एकजनातिरेकेण पानीयस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् । कृत्वा च गुरोः पुरत आलोच्य गुरुमापृच्छय संज्ञाभूमि गच्छेत् । एषाऽकाले संज्ञा उक्ता । सम्प्रति कालसंज्ञा वक्तव्या-काले' कालसंज्ञा अहिण्डिते हिण्डिते वा । इग्रमत्र भावना--तृतीयस्यां पौरुभ्यां कालस्य प्रतिक्रमणे कृते यावन्नाद्यापि भिक्षावेला भवति तावत संज्ञाभूमि ब्रजतिः अथवा 5 हिण्डिते समुद्दिष्टे भाजनेषु च प्रदत्तकरूपेषु यावन्नावगाह्ते चतुर्थपौरुषीकालस्तावद्गच्छति अथोत्सूरे भिक्षावेला चिरं वा हिण्डितस्ततोऽवगाढायामपि चरमपौरुप्यां गच्छति ॥ ४३९ ॥ तत्र को विधिः ! इत्याह----- ___ कप्पेऊणं पाए, एकेकस्स उ दुवे पडिग्गहगे । दाउं दो दो गच्छे, तिण्हट दवं च घेतॄणं ॥ ४४० ॥ 10 'पात्राणि कल्पयित्वा' त्रीन् कल्पान् पात्राणां निलेपनाय दत्त्वा एकैकस्य' आत्मीवात्मी यसङ्घाटकस्य द्वौ द्वौ पतगृहको दत्त्वा द्वौ द्वौ संज्ञाभूमिं गच्छेयाताम् । कथम् ? इत्याहत्रयाणामर्थाय द्रवं गृहीत्वा । पानकं हि तावत्प्रमाणं ग्रहीतव्यं यावत् पश्चादेकस्योद्धरति । इयमत्र भावना-ये ये सङ्घाटवन्तस्तेषां तेषामेको द्वौ पतगृहौ धारयति, द्वितीयश्चान्येन समं याति, तेषु चागतेषु ये प्रागितरे स्थितास्ते व्रजन्ति, इतरे चागताः पात्राणि धारयन्ति, याव15न्तश्च गच्छन्ति तावतां योग्यमेकातिरिक्त पानकं मात्रके गृह्णन्ति ॥ ४४० ॥ कथं पुनस्ते गच्छन्ति ? इत्यत आह् -- अजुयलिया अतुरिया, विगहारहिया वयंति पढमं तु । निसिइत्तु डगलगहणं, आवडणं वचमासजा ॥ ४४१ ॥ _ 'अयुगलिताः' न समश्रेणीकयुगलरूपतया स्थिताः ‘अत्वरिताः' त्वरिरहिताः 'विकथार. 20 हिताः' स्त्री-भक्तादिकथा अकुर्वाणाः 'प्रथमम्' अनापातासंलोकलक्षणं स्थण्डिलं ब्रजन्ति । तत्र 'निषद्य' उपविश्य नोर्द्धस्थिता इत्यर्थः, ऊर्द्धस्थितानां सम्यक्प्रत्युपेक्षणाऽसम्भवात् 'डगलग्रहणं कुर्वन्ति' ये भूमावसम्बद्धाः पुतनिलेपनाय लेष्टुकास्ते डगलकास्तानाददते. आदाय वैतेषां भूमावापतनं कुर्वन्ति येन वृश्चिकादिस्ततोऽपसरति । उक्तञ्च "ते डगले टिट्टिवेइ ततो जो तत्थ विच्छुगादी सोऽवसरति" ति । 25 तेषां च डगलकानां प्रमाणं 'वर्चः' पुरीषमासाद्य प्रतिपत्तव्यम् । यो भिन्न वर्षाः स जीन् इगलकान् गृह्णाति, अन्यो द्वावेकं वा ॥ ४४१ ॥ आलोइऊण य दिसा, संडासगमेव संपमजित्ता। पेहिय पमजिएसु य, जयणाए थंडिले निसिरे ॥ ४४२ ।। १"तं च अतिरेगं घेतबं, केत्तियं ? जइ दो जंतया तो तहा गेण्हति जया एगस्स उब्बरति । एवं जतिया वर्चति तत्तियाणं घेनं जघा जरि एगम्स बरति तधा घेत । आगतो नाहि पहिस्सबरस पाए पमजेत्ता दंडयं ठवेत्ता इरियावहियं पडिक मेता आलोड़ना दाइना आपुस्टि ला "नामो वयाभूमि" जति कोइ वच्चति उम्पादणयातो तप्पमाणं मत्ता पाणयं गद्धति नधा एगस्म उव्वरितं. नाधे रागावणयं अध्यास दातं दंडयं पमजित्ता आवस्सितं काउं वच्चति । अजय अकरणे मासलह । एस अकालसण्णाए विधी ।" इति चर्णिः ॥ २ तथा हिमाल य जति ता.. Kali Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाग्यगाथाः ४४०-४५] पीटिका । १२१ स्थण्डिलं गत्वा तत्र दिशामापात-संलोकवर्जनार्थमालोकनं कुर्यात् । दिश आलोक्य तदनन्तरं सण्डासकं सम्प्रमाज्य प्रक्षितेषु प्रमार्जितेषु च भूप्रदेशेषु स्थण्डिले पुरीषं 'निसृजेत्' व्युत्सृजेत् । कथम् ? इत्याह. 'यतनया' "दिसि पवण गाम सूरिए"( गा० ४५६ )त्यादिव. क्ष्यमाणलक्षणया । तत् पुनरनापातासंलोकं स्थण्डिलमेभिर्वक्ष्यमाणैर्दशभिः स्थानविशुद्धं ज्ञात. व्यम् ॥ ४४२ ॥ तान्येवाह-- अणावायमसंलोए, परस्स अणुवघातिए । विशुद्धं समे अज्झुसिरे यावि, अचिरकालकयम्मि य ॥ ४४३ ॥ स्थण्डिलम् विच्छिन्ने दरमोगाढेऽनासन्ने विलवजिए। तसपाण-बीयरहिए. उच्चारादीणि वोसिरे ॥ ४४४ ॥ अनापातमसंलोकं १ परस्यानौपघातिकं २ समं ३ अशुषिरं ४ अचिरकालकृतं ५10 विस्तीर्ण ६ दूरमवगाढं ७ अनासन्नं ८ बिलवर्जितं ९ त्रसप्राण-बीजरहित १० यत् स्थण्डिलं तत्र 'उच्चारादीनि उच्चार-प्रश्रवणप्रभृतीनि व्युत्सृजेत् ॥ ४४३ ॥ ४४४ ॥ एष एककः संयोगो दर्शितः । सम्प्रति द्विकादिसंयोगानुपदर्शयति एग-दु-ती-चउ-पंचग-छग-सत्तग-अट्ठ-नवग-दसगेहिं । संजोगा कायया, भंगसहस्सं चउव्वीसं ॥४४५ ॥ .. अमीषामनन्तरोदितानां दशानां पदानामेक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च-षट्-सप्ता-ऽष्ट-नव-दशकैः संयोगाः कर्तव्याः । तेषु च भङ्गाः सर्वसङ्ख्यया 'चतुर्विशं' चतुर्विंशत्यधिक सहस्रम् । __ अथ कस्मिन् संयोगे कियन्तो भङ्गकाः ? उच्यते-इह भङ्गानामानयनाय करणमिदम्-दशादयोऽका एकैकेन हीनास्तावत् स्थाप्यन्ते यावत् पर्यन्त एकः । ततस्ते यथाक्रममेभी राशिभिर्गुणयितव्याः, तद्यथा-दशक एककेन, नवकः पञ्चभिः, अष्टकः पञ्चदशभिः, सप्तकस्त्रिंशता, षट्को 20 द्वाचत्वारिंशता, पञ्चकोऽपि द्वाचत्वारिंशता, चतुष्कस्त्रिंशता, त्रिकः पञ्चदशभिः, द्विकः पञ्चकेन, एकक एककेन । स्थापना-~ १०.९८.७,६५४ ३२१ १ ५१५३०४२४२३०१५ ५ १ अमीषां चामीभिर्गुणाकारैर्गुणने जाता एककादिसंयोगेप्वियं भङ्गसङ्ख्या, तद्यथा--एकक-28 संयोगे दश, द्विकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशत् , त्रिकसंयोगे विशं शतम् , चतुप्कसंयोगे द्वे शते दशोत्तरे, पञ्चकसंयोगे द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके, षट्कसंयोगे द्वे शते दशोत्तरे, सप्तकसंयोगे विशं शतं, अष्टकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशत् , नवकसंयोगे दश, दशकसंयोगे एकः; एक च बसत्यादिपु विविक्ते प्रदेशे स्थण्डिलमिति । सर्वभङ्गसङ्ख्या एकत्र मीलयित्वा रूपाधिका क्रियते ततश्चतुर्विशं भङ्गसहस्रं भवति । [ उक्तं च--] भंगाणयणे करणं, दसगातो ओसरंतो जावेको । ___ एए उ गुणेयवा, इमेहि रामीहि हकमसो ॥ [कल्प बृहद् भाष्य] 30 ...१४ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . परस्या १३० सनियुक्ति-भाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे (अनुयोगाधिकारः एकग पंचम पन्नर, तीसा बायाल पंच जा ठाणा । परतो बायालीसा, पडिलोममवेहि जावेको ॥ एक्कगसंजोगादी, गुणिया लद्धा हवंति एमेते । मिलिया रूवाहिकया, भंगसहस्सं चब्बीसं ।। कल्प वृहद् भाप्च] ॥ ४४५॥ । सम्प्रत्येतानि दश शुद्धानि पदानि व्याख्यातव्यानि । ये च यत्र दोषास्ते तत्र कथनीयाः । - तत्राऽऽपातवत् संलोकवच्च पूर्वं व्याख्यातम् । इदानी परस्यौपघातिकमाह आया पवयण संजम, तिविहं उवघातियं मुणेयत्वं । पघातिक स्थण्डिलम् आराम वच्च अगणी, घायादऽसुती य अन्नत्थ ॥४४६॥ इंह पूर्वार्द्धपदानां पश्चार्द्धपदानां च यथाक्रमं योजना । सा चैवम्-'औपघातिकम्' उप10 घातप्रयोजनकं स्थण्डिलं त्रिविधं ज्ञातव्यम् , तद्यथा-आत्मोपघाति प्रवचनोपघाति संयमोपघाति च। तत्राऽऽत्मोपघाति आरामः, तत्र हि संज्ञां व्युत्सृजतो 'घातादि' पिट्टनादि । प्रवचनोपघाति 'वर्चः' वर्गोंगृहम् , तद्धि जुगुप्सितमशुच्यात्मकत्वात् , ततस्तत्र संज्ञाव्युत्सर्गे ईदृशा एते इति प्रवचनोपघातः । संयमोपघाति ‘अग्निः' अग्निस्थानम् , तत्र हि संज्ञाव्युत्सर्गे तेऽग्यारम्भिणः 'अन्यत्र' अस्थण्डिलेऽमिस्थानं कुर्वन्ति त्यजन्ति वा तां संज्ञामस्थण्डिले ॥ ४४६ ॥ 18 सम्प्रति विषमे स्थण्डिले दोषानाहविषम विसम पलोट्टणि आया, इयरस्स पलोहणम्मि छकाया । झुसिरम्मि विच्छुगादी, उभयकमणे तसादीया ॥ ४४७॥ विषमे स्थण्डिले साधुः प्रलोटेत-पतेदिति भावः, तत्र चाऽऽत्मा विराध्येत । 'इतरस्य' पुरीपस्य प्रश्रवणस्य च प्रलोटने षट् काया विराध्यन्ते, तथाहि प्रतीतमेतत्-पुरीपं प्रश्रवणं वा 20 प्रलोटत् षट् कायान् विराधयति, एषा संयमविराधना । झुषिरे दोषानाह-झुषिरे संज्ञादि व्युत्सृजतो वृश्चिकादिभिरात्मनो विराधना, आदिशब्दात् सर्पादिपरिग्रहः । उभयं-संज्ञा प्रश्रवणं तेनाऽऽक्रमणे 'त्रसादयः' बस-स्थावरप्राणा विराध्यन्ते, एषा संयमविराधना ॥ ४४७ ।। __ अथ कीदृशं चिरकालकृतं स्थण्डिलम् ? अत आहचिरकालकृतं जे जम्मि उउम्मि कया, पयावणादीहिँ थंडिला ते उ । स्थण्डिलम् 25 होति इयरे चिरकया, वासावुत्थे य वारसगं ॥ ४४८ ॥ __ यानि स्थण्डिलानि यस्मिन् ऋतौ प्रतापनादिभिः कृतानि तानि तस्मिन्नचिरकालकृतानि भवन्ति । यथा-हेमन्ते कृतानि हेमन्त एवाचिरकालकृतानि । 'इतराणि तु' ऋत्वन्तरव्यवहितानि चिरकालकृतानि, अस्थण्डिलानि तानीति भावः । यत्र पुनरेक वर्षारात्रं सगोधनो ग्राम उषितस्तत्र 'द्वादशकं' द्वादश संवत्सराणि स्थण्डिलम् , ततः परमस्थण्डिलं भवति ॥४४८॥ विस्तीर्ण 30 सम्प्रति विस्तीर्णमाहदूराव हत्थायाम चउरस, जहण्ण उक्कोस जोयणविछकं । गाढंच स्थण्डिलम् चउरंगुलप्पमाणं, जहण्णयं दूरमोगाढं ॥ ४४९॥ १°लम् पर ले. विना ॥ शुषिर ण्डिलम् Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका। भाष्यगाथाः ४४६-५२] १३१ जघन्यं विस्तीर्ण 'चतुरस्रं' चतसृष्वपि दिक्षु हस्तायामम् , उत्कृष्टं 'योजनद्विषट्कं' द्वादश योजनानि, तच चक्रवर्तिस्कन्धावारनिवेशे प्रतिपत्तव्यम् । दूरावगाढमाह-यत्राधस्तात् 'चतुरङ्गुलप्रमाणमचित्तं' चत्वार्यङ्गुलान्यचित्ता भूमिः तद् जघन्यं दूरमवगाढम्, अर्थात् पञ्चाङ्गुलप्रभृति. कमचित्तं यस्याधस्तात् तद् उत्कृष्टं दूरमवगाढम् ॥ ४४९॥ साम्प्रतमासन्नमाहदवासनं भवणाइयाण तहियं तु संजमा-ऽऽयाए । 6 आसन स्थण्डिलम् आया-पवयण-संजमदोसा पुण भावमासन्ने ॥ ४५०॥ आसन्नं द्विविधम्-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यासन्नं भवनादीनां निकटम् , आदिग्रहणाद् देवकुलानां ग्रामस्य क्षेत्रस्य पथो वृक्षस्य च परिग्रहः । यस्य हि वृक्षस्य हस्तिपदप्रमाणः स्कन्धस्तस्य समन्ततो हस्तो वर्जयितव्यः । तत्र यदि द्रव्यासन्ने व्युत्सृजति ततः संयमे आत्मनि च विराधना । तत्र यद् गृहादीनामासन्नं तत् स्थण्डिलं परित्यज्यान्यत्र स्थण्डिलं कुर्युः, 10 अथवा पानीयेन तत् प्रक्षालयेयुः ततः संयमविराधना । आत्मविराधना पिट्टनादिभावात् । भावासन्नं नाम तावत् तिष्ठति यावत् संज्ञा मनाग नागच्छति, ततोऽनधिसहः स्थण्डिलं गन्तुमशक्नुवन् अस्थण्डिले भवनादीनां वा प्रत्यासन्ने व्युत्सृजेत् , तत्र चाऽऽत्मविराधना संयमविराधना च प्राग्वत् । अथास्थण्डिलमिति कृत्वा सागारिको वा तिष्ठतीति संज्ञां धारयत्यात्मविराधना, मरणस्य ग्लानत्वस्य वाऽवश्यम्भावात् ; अनधिसहेन च सता तेन लोकपुरतोऽस्थाने 15 संज्ञाव्युत्सर्गे पुनर्जवादिलेपने वा प्रवचनोपघातः ॥ ४५०॥ सबिले त्रसप्राण-बीजोपेते दोषानाहहोति विले दो दोसा, तसेसु बीएसु वा वि ते चेव । सबिलं जसप्राण. संजोगतो य दोसा, मूलगमा होति सविसेसा ॥४५१॥ बीजसबिले संज्ञां व्युत्सृजतो द्वौ दोषौ, तद्यथा-आत्मविराधना संयमविराधना च । तत्र यदा 20 हितं च बिले प्रविशन्त्या संज्ञया प्रश्रवणेन तद्गता जीवा बाध्यन्ते तदा संयमविराधना, सर्पादिभक्षणे स्थण्डिलम् आत्मविराधना । त्रसेषु बीजेषु च 'तावेव' द्वौ दोषौ संयमा-ऽऽत्मविराधनालक्षणौ । तत्र त्रसेषु बीजेषु च प्राणव्यपरोपणात् संयमविराधना सुप्रतीता । त्रसेष्वात्मविराधना तेभ्य उपद्रवसम्भवात् , बीजेष्वात्मविराधना बीजकोशावयवानामतितीक्ष्णानां पदेषु लमतः (लगनतः) पादप्रलोटनतः पतनतो वा । तदेवमेकैकस्मिन् वर्जनीये स्थण्डिले दोषा उक्ताः । अस्माच्च 25 'मूलगमाद्' एककसंयोगरूपाद् द्विक-त्रिकादिपदानां संयोगतः 'सविशेषाः' बहु-बहुतरका [दोषाः] भवन्ति ज्ञातव्याः-द्विकसंयोगे द्विगुणाः त्रिकसंयोगे त्रिगुणा यावद् दशसंयोगे दशगुणा इति ॥ ४५१ ॥ सम्प्रति प्रागुक्तमपि प्रायश्चित्तमन्याचार्यपरिपाट्या मनाग विशेषप्रदर्शनार्थतया च पुनराहपंथम्मि य आलोए, सिरम्मि तसेसु चेव चउलहुगा। 30 पुरिसावाए य तहा, तिरियावाए ये ते चेव ॥ ४५२ ॥ पथ आसन्ने पुरुषाणामालोके झुषिरे त्रससडले च संज्ञां व्युत्सृजतः प्रायश्चित्तं चत्वारो १य तह चेव ता. विना ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्जना द्वारम् 5 सर्वासां प्राकृतादिभेदभिन्नानां स्त्रीणामापाते सर्वनपुंसकापाते च तथा भावासन्ने चिलसहिते च स्थण्डिले व्युत्सृजतः प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । प्रत्येक बीज सङ्कुले स्थण्डिले लघूनि पञ्चरात्रिन्दिवानि, अनन्त बीजसङ्कुले गुरुकाणि । 'शेषेषु' अशुद्धेषु स्थण्डिलेषु मासलघु । यच्चान्यदापद्यते तदपि सर्वमाप्नोति । यत्रासामाचारीकरणं तत्रापि मासलघु ॥ ४५३ ॥ १३२ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः लघुकाः। तथा सर्वमनुष्यपुरुषापाते सर्वतिर्यक्पुरुषापाते च प्रत्येकं 'त एव' चत्वारो लघवः । सर्वग्रहणं मनुष्येषु कौटुम्बिकादि भेदपरिग्रहार्थम् ॥ ४५२ ॥ तिर्यक्षूत्कृष्टादिभेदसङ्ग्रहार्थमाहइत्थि नपुंसावाए, भावासने बिले य चउगुरुगा । पण लहुयं गुरुगं, बीए सेसेसु मासलहुं ।। ४५३ ॥ अपमजणा अपडिलेहणा य दुपमञ्जणा दुपडिलेहा । तिय मासिय तिय पणगं, लहु काल तवे चरिम सुद्धो ॥ ४५४ ॥ संज्ञां व्युत्त्रष्टुकामो न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति मासलघु तपोगुरु काललघु, न प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति मासलघु कालगुरु तपोलघु, न प्रमार्जयति प्रत्युपेक्षते मासलघु द्वाभ्यां लघु । एवं 'त्रिके' त्रिषु स्थानेषु मासिकं लघु कालेन तपसा चोक्तप्रकारेण विशेषितम् । अथ प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति तत्र दुष्प्रत्युपेक्षिते दुष्प्रमार्जिते रात्रिन्दिवपञ्चकं लघु तपोगुरु काललघु, दुष्प्रत्यु16 पेक्षिते सुप्रमार्जिते रात्रिन्दिवपञ्चकं लघु तपोलघु कालगुरु, सुप्रत्युपेक्षिते दुष्प्रमार्जिते रात्रिदिपञ्चकं लघु द्वाभ्यां लघुकम् । एवं 'त्रिके' त्रिषु स्थानेषु पञ्चकं कालेन तपसा चोक्तप्रकारेण विशेषितम् । 'चरमे' सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमित्येवं रूपे भने 'शुद्धः' न प्रायश्चित्तभाक् ।। ४५४ ।। 10 खुड्डो धावण झुसिरे, तिक्खुत्तो अपडिलेहणा लहुगो । घर-वावि- वच्च-गोवय-ठिय-मल्लगछडणे लहुगा ॥ ४५५ ॥ इयमपि गाथाऽन्याचार्यपरिपाटिसूचिका ततो न पुनरुक्तता नाऽपि विरोधः, मतान्तरत्वात् । 'क्षुल्लकं' स्तोकं यदि 'धावनं' प्रलोठनमित्यर्थः तत्र, तथा झुषिरे स्थण्डिले, तथा त्रिकृत्वोsपत्युपेक्षणायां प्रत्येकं प्रायश्चित्तं लघुको मासः । तथा यदि गृहे संज्ञां व्युत्सृजति, वाप्याम्, वर्चो गृहे वर्चस उपरि वा, गोष्पदे वा, ऊर्द्धस्थितो वा, तथा मल्लके व्युत्सृज्य यदि परिष्ठाप25 यति तदा सर्वेष्वेतेषु स्थानेषु प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चत्वारो लघवः ॥ ४५५ ॥ गतमपायद्वारम् । इदानीं वर्जनाद्वारमाह 20 दिसि - पवण - गाम- सूरिय - छायाऍ पमजिऊण तिक्खुत्तो । जस्सुग्गहो ति काऊण वोसिरे आयमे वा वि ॥ ४५६ ॥ उत्तरदिक् पूर्वदिक् च लोके पूज्या, ततस्तस्याः पृष्ठप्रदाने लोकमध्येऽवर्णवादो भवति, 30 वानमन्तरं वा किञ्चिन्मिथ्यादृष्टि कुप्येत्, तथा च सति जीवितव्यस्य विनाशः; तस्माद् दिवा रात्रौ च पृष्ठं पूर्वस्याम्, उत्तरस्यां तु दिवा, दक्षिणस्यां दिशि रात्रौ निशाचराः सञ्चरन्ति ततस्तस्यां पृष्ठ रात्रौ वर्जयेत् । उक्तञ्च - उभे मूत्र - पुरीषे तु, दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तथा चाऽऽयुर्न हीयते ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५३-५९] पीठिका | १३३ तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठं न कुर्यात्, मी लोको ब्रूयात् - अर्घन्त्येतदेत इति, नाशिकायां चार्शांसि मा भूवन् । तथा ग्रामस्य सूर्यस्य च पृष्ठं न दातव्यम्, लोकेऽवर्णवादसम्भवान् । तथाहि - सूर्यस्य ग्रामस्य वा पृष्ठदाने लोको ब्रूते न किञ्चिज्जानन्त्येते यल्लोकोदयोतक - रस्यापि सूर्यस्य यस्मिन् ग्रामे स्थीयते तस्यापि च पृष्ठं ददतीति । तथा संसक्तमहणिश्छायायां व्युत्सृजेद् येन द्वीन्द्रियविनाशो न भवति । तथा 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् प्रमार्ण्य उपलक्षणमेतत् प्रत्युपेक्ष्य च व्युत्सृजेत् । तत्राप्रत्युपेक्षणेऽप्रमार्जने दुष्प्रत्युपेक्षणे दुष्प्रमार्जने च प्रायचित्तं प्रागुक्तम् । तथा " यस्यावग्रहः सोऽनुजानीयात् " इति अनुज्ञाय व्युत्सृजेद् आचमेद्वा । एष गाथार्थः ॥ ४५६ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीपुराह उत्तर पुव्वा पुजा, जम्माऍ निसीयरा अभिवति । घाणारसा य पवणे, सूरिय गामे अवन्नो उ ॥ ४५७ ॥ 10 उत्तरा पूर्वा च लोके पूज्या, ततो दिवा रात्रौ च पूर्वस्यामुत्तरस्यां वा पृष्ठं न दद्यात् । तथा याम्या -दक्षिणा तस्यां रात्रौ 'निशाचराः ' देवाः 'अभिपतन्ति' समागच्छन्ति, ततस्तस्यां रात्रौ पृष्ठं न दद्यात् । तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठकरणेऽशुभगन्धत्राणि ः नाशिकायां चाशस्युपजायन्ते, तस्मात् पवनस्यापि पृष्ठं न कर्तव्यम् । सूर्यस्य ग्रामस्य च पृष्ठकरणे अवर्णो लोकमध्ये यथाऽभिहितः प्राक्, ततस्तयोरपि न दातव्यं पृष्ठमिति ॥ ४५७ ॥ "छायाए" ( गाथा ४५६ ) इति व्याख्यानार्थमाह संसत्तग्गहणी पुण, छायाए निग्गयाऍ वोसिरइ । छायाऽसति उहम्मि वि, वोसिरिय मुहुत्तगं चिट्ठे ॥ ४५८ ॥ संसक्ता द्वीन्द्रियैर्ग्रहणिः–कुक्षिर्यस्यासौ संसक्तग्रहणिः, स द्वीन्द्रियरक्षणार्थं छायायां वृक्षादेर्निर्गतायां व्युत्सृजति । अथ च्छायाऽद्यापि न निर्गच्छति मध्याह्ने एव संज्ञाप्रवृत्तेः, तत - 20 श्छायायाः असति-अभावे उष्णेऽपि खशरीरच्छायां पुरीषस्य कृत्वा व्युत्सृजति, व्युत्सृज्य च 'मुहूर्तकम्' अल्पं मुहूर्तं तथैव तिष्ठति, येनैतावता कालेन स्वयोगतः परिणमन्ति । अन्यथोप्णेन महती परितापना स्यात् ॥ ४५८ ॥ अथ व्युत्सृजन् खोपकरणं कथं धरति : इत्यत आह उवगरणं वामगऊरुगम्मि मत्तो य दाहिणे हत्थे । तत्थऽण्णत्थ व पुंसे, तिहिं आयमणं अदूरम्मि || ४५९ ॥ 'उपकरणं' दण्डकं रजोहरणं च वामे ऊरौ स्थापयति, मात्रकं दक्षिणहस्ते क्रियते, डगलकानि च वामहस्तेन धरणीयानि । ततः संज्ञां व्युत्सृज्य तत्रान्यत्र वा प्रदेशे डगलकैः पुतं 'पुंसयति' रुक्षयति । पुंसयित्वा त्रिभिः नावापूरकैः चुलुकैरित्यर्थः 'आचमनं ' निर्लेपनं करोति । 30 उक्तञ्च- तिहिं नावाए पूरएहिं आयमइ निल्लेवेति वा । नावापूरओ नाम पसती इति । 15 १ " लोगो भणति - एयं चेव अग्घाति, अरिसाओ वा खुब्भंति" इति चूर्णिः ॥ २ निसियराऽणिसं देवा ता• ॥ ३ च मुहूर्त्त तथैव भा० मो० विना ॥ 25 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः तदपि चाचमनमदूरे करोति । यदि पुनर्दूरे आचमति तत उड्डाहः । कश्चिद् दृष्ट्वा चिन्तयेत्-अनिलेप्य पुते गत एष इति ॥ ४५९ ॥ सम्प्रत्यालोके प्रायश्चित्तविधिमाह आलोगं पि य तिविहं, पुरिसि-त्थि-नपुंसकं च बोधव्वं । लहुगा पुरिसालोए, गुरुगा य नपुंस-इत्थीसु ॥ ४६०॥ । आलोकमपि च 'त्रिविधं' त्रिप्रकारम् , तद्यथा-पुरुषालोकं ख्यालोकं नपुंसकालोकम् । गाथायां पदैकदेशे पदसमुदायोपलक्षणानि । तत्र पुरुषालोके प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, ख्यालोके नपुंसकालोके च चत्वारो गुरुकाः ॥ ४६० ॥ तदेवमचित्तं स्थण्डिलमचित्तेन पथा भणितम् । अथ सचित्तेन मिश्रेण वा यदा तद् गच्छति तदेदं प्रायश्चित्तम् छकाय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। 10 संघट्टण परियावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं ॥ ४६१॥ 'षटकायाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाः । तेषां मध्ये 'चतुषु पृथिव्यप्तेजोवायुरूपेषु सङ्घटनादिषु लघुकाः प्रायश्चित्तम् , 'परित्ते' प्रत्येकवनस्पतिकायेऽपि च लघुकाः, “साहारे" अनन्तवनस्पतिकायिके सङ्घटनादिषु गुरुकाः, तथा द्वीन्द्रियादीनां सङ्घट्टने परितापने च यथायोगं लघुका गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम् , 'अतिपातने' विनाशे मूलम् । इयमत्र भावना-पृथि16 वीकायं सङ्घट्टयति मासलघु, परितापयति मासगुरु, अपद्रावयति जीविताद् व्यपरोपयतीत्यर्थः चतुर्लघु । एवमप्काये तेजस्काये वायुकाये प्रत्येकवनस्पतिकाये च द्रष्टव्यम् । उक्तश्च छक्कायादिमचउसू , तह य परित्तम्मि होति वणकाए । लहु-गुरुमासो चउलहु, घट्टण परिताव उद्दवणे ॥ एतत् प्रायश्चित्तमेकैकस्मिन् दिवसे सङ्घट्टनादिकरणे । यदि पुनद्वौं दिवसौ पृथिव्यादि 20 सङ्घट्टयति तदा मासगुरु, परितापयति चतुर्लधु, जीविताद् व्यपरोपयति चतुर्गुरु । त्रीन् दिव सान् निरन्तरं पृथिव्यादीन् सट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, अपद्रावयति षड्लघु । निरन्तरं चतुरो दिवसान् सङ्घट्टने चतुर्गुरु, परितापने षड्लघु, अपद्रावणे षड्गुरु । पञ्च दिवसान निरन्तरं पृथिव्यादीनां सङ्घट्टने षड्लघु, परितापने षड्गुरु, अपद्रावणे मासिक च्छेदः । षड् दिवसान् निरन्तरं सङ्घट्टने षड्गुरु, परितापने मासिकच्छेदः, अपद्रावणे चतु25 सिच्छेदः । सप्त दिवसान् निरन्तरं पृथिव्यादीनां सङ्घट्टने मासिकच्छेदः, परितापने चतु र्मासिकः, अपद्रावणे पाण्मासिकः । अष्टौ दिवसान् निरन्तरं पृथिव्यादीनां सङ्घट्टने चातुर्मासिकच्छेदः, परितापने पाण्मासिकः, अपद्रावणे मूलम् । उक्तञ्च दोहिं दिवसेहिं मासगुरुए आढवेत्ता चउगुरुए ठाति जाव अट्ठहिं सपयं ति। अनन्तवनस्पतिकं यदि सङ्घट्टयति तदा मासगुरु, परितापयति चतुर्लघु, अपद्रावयति 30 चतुर्गुरु । द्विदिवसादिनिरन्तरसङ्घटनादिषूतरोत्तरैकैकस्थानवृद्धितः सप्तभिर्दिनैर्मूलम् । द्वीन्द्रियं सङ्घट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, जीविताद् व्यपरोपयति षड्लघु । अत्र यादिदिवसनिरन्तरसट्टनादिषु षनिर्दिवसैर्मूलम् । त्रीन्द्रियं सट्टयतश्चतुर्गुरु, परितापयतः षड्लघु, १ गाथेयं चूर्णौ नास्त्यादृता ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 अनुज्ञा भाष्यगाथाः ४६०-६३] पीठिका । जीवितायपरोपयतः षड्गुरु, अत्र पञ्चभिर्दिवसैर्मूलम् । चतुरिन्द्रियं सङ्घयतः षड्लघु, परितापयतः षड्गुरु, जीविताट्यपरोपयतो मासिकच्छेदः, अत्र चतुर्भिर्दिवसैर्मूलम् । पञ्चेन्द्रियं सङ्घयतः षड्गुरु, परितापयतः छेदः, अपद्रावयतो मूलम् , अत्र द्वयोर्दिवसयोरनवस्थाप्यम् , त्रिपु दिवसेषु पाराञ्चितम् ॥ ४६१ ।। गतं वर्जनाद्वारम् , अधुनाऽनुज्ञाद्वारमाहपढमिलगस्स असती, वाघातो वा इमेहि ठाणेहिं ।। द्वारम् पडिणीय तेण वाले, खेत्तुदग निविट्ठ थी अपुमं ॥ ४६२ ॥ __ प्रथममेव प्रथमिल्लुकम् , प्राकृतत्वात् स्वार्थे इल्लुकप्रत्ययः । प्रथमम्-अनापातासंलोकलक्षणं स्थण्डिलं तत् नास्ति ततस्तस्य प्रथमस्याभावे । अथवा सतोऽप्येभिः स्थानाघातो भवेत् । तान्येव स्थानान्याह-"पडिणीय" इत्यादि । प्रत्यनीकस्तत्र तिष्ठति । स्तेना वा पथि द्विविधाः, तद्यथा-उपकरणस्तेनाः शरीरस्तेना वा । 'व्याला वा' तत्र सर्पादयो विद्यन्ते । क्षेत्रं वा तत्र 10 जातम् । उदकेन वा तत् स्थण्डिलमस्तृितम् । ग्रामो नजिका स्कन्धावारो वा तत्र निविष्टः। स्त्री नपुंसको वा तत्र मैथुनार्थी संयतानागच्छतः प्रतीक्षते ॥ ४६२ ॥ पढमासति वाघाए, पुरिसालोगम्मि होति जयणाए। मत्तग अपमजण डगल कुरुअ तिविहे दुविहमेदो ॥ ४६३ ॥ एवं प्रथमस्य स्थण्डिलस्याभावे व्याघाते वा द्वितीयं स्थण्डिलमनापातसंलोकवद् गन्तव्यम् । 15 तत्र संयतानां साम्भोगिकानां संविमानामालोके गन्तव्यम् , तदभावे असाम्भोगिकानामपि । तत्रापरिणताः पूर्वमेव ग्राहयितव्याः, यथा-केषाञ्चिदाचार्याणां विसदृश्यः सामाचार्यः ततो यूयं मा तान् वितथसामाचारीकान् दृष्ट्वा प्रतिनोदयेत, तेऽपि यदि नोदयन्ति तर्जुदासीनाः तिष्ठथ (तिष्ठत) । एवमसङ्खडादयो दोषाः परिहृता भवन्ति । असाम्भोगिकानामप्यापातस्यासम्भवे यत्र पार्श्वस्थादीनामालोकस्तत्र गच्छन्ति । तस्याप्यभावे यत्र पार्श्वस्थादीनामापातस्तत्र 20 व्रजन्ति । तत्र क्षुल्लकादयोऽपरिणताः पूर्वं ग्राहयितव्याः, यथा-एते निर्माणो जिनाज्ञाप्रकोपिनो वितथमाचरन्ति, तद् मा यूयमेतेषां चेष्टितं चित्ते कुरुत यथा 'एतत् सुन्दरम्' इति । संयत्यापातवच्च सर्वप्रयत्नेन परिहरेत् , अन्यथा कृतसङ्केतका अत्र समागच्छन्तीति शङ्कादयः आत्म-परोभयसमुत्थाश्च दोषाः सम्भवन्ति । एषा खपक्षे यतना । सम्प्रति परपक्षेsभिधीयते । तत्र-पार्श्वस्थाद्यापातवतोऽसम्भवे "पुरिसालोगम्मि होति जयणाए" इति 'पुरु-25 षालोके' पुरुषालोकवति गन्तव्यम् , तत्र यतनया भवति कर्त्तव्यमाचमनादि । तामेव यतनामाह-"मत्तग अपमज्जण डगल कुरुग" ति प्रत्येकं मात्रकं ग्रहीतव्यम् , प्रत्येकं च प्रचुर द्रवम् , डगलकानां चाप्रमार्जनम्-न तानि डगलकानि प्रमाय॑न्ते हीलनादोषसम्भवात् , कुरुकुचाश्याचमनानन्तरं कर्तव्या । "तिविहे दुविहभेओ" इति, त्रिविधे प्रत्येकं द्विविधो भेदो द्रष्टव्यः । इयमत्र भावना-त्रिविधः परपक्षः, तद्यथा-पुरुषः स्त्री नपुंसकः । एकैकः पुन-30 द्वैिधा-शौचवादी अशौचवादी च, अथवाऽन्यथा प्रत्येकं द्विभेदता-श्रावकोऽश्रावकश्च । अथवा त्रिविधो भेदो नाम स्थविरो मध्यमस्तरुणश्च, यदि वा प्राकृतः कौटुम्बिको दण्डिकश्च । १°तो तस्सिमेहिं ता० ॥ २ °मावृतम् त० ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ___ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः एते च त्रयो भेदा यथा पुरुषस्य तथा स्त्री-नपुंसकयोरपि द्रष्टव्याः । तेषु यतनया गन्तव्यम् ॥ ४६३ ॥ कथम् ? इत्यत आह तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच आवायं । इत्थि-नपुंसालोए, परम्मुहो कुरुकुया सा य ॥ ४६४ ॥ । 'ततः' पुरुषालोकवतः स्थण्डिलात् 'परतः' पुरुषालोकवतः स्थण्डिलस्यासति पुरुषाणामशौचवादिनाम् 'आपातम्' आपातवत् स्थण्डिलं व्रजेत् । तत्र च यतना प्रागुक्ता द्रष्टव्या । तस्याप्यसम्भवे शौचवादिनामप्यापातवद् गन्तव्यम् । तस्यासम्भवे ख्यालोके नपुंसकालोके वा गन्तव्यम् । इयमत्र भावना-प्रथमतोऽशौचवादिनीनां स्त्रीणामालोके गन्तव्यम् , तत्र गतः सन् तासां पराङ्मुख उपविशेत् , यतना च सा कुरुकुचादिका कर्त्तव्या । तस्याप्यसम्भवे 10 शौचवादिनीनामप्यालोके गन्तव्यम् । तदभावे नपुंसकानामशौचवादिनामालोके । तस्यासम्भवे शौचवादिनामप्यालोके । यतना सर्वत्र सैव ॥ ४६४ ॥ तेण परं आवायं, पुरिसेयर-इत्थियाण तिरियाणं । तत्थ वि य परिहरेजा, दुगुछिए दित्तऽदित्ते य ॥ ४६५॥ 'ततः परं' शौचवादिनामपि नपुंसकानामालोकस्यासम्भवे 'पुरुषेतरस्त्रीणां' पुरुष-नपुंसक10 स्त्रीणां तिरश्चामापते व्रजेत् , तत्रापि दृप्तानदृप्तांश्च जुगुप्सितान् परिहरेत् , अपरिहारे यतनां कुर्यात् । अयमत्र भावार्थः-शौचवादिनां नपुंसकानामालोकासम्भवे तिर्यक्पुरुषाणामदुष्टानामापाते व्रजेत् , तस्यासम्भवे दुष्टानामापाते व्रजेत् , तत्रेयं यतना-दण्ड-हस्ता वारंवारेण व्युत्सृजन्ति । उक्तञ्च तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच्च आवायं । पच्छित्थि-नपुंसाणं, आलोय परम्मुहा कुरुया ॥ पच्छा तिरिपुरिसाणमदुट्ठ-दुट्ठाण वच आवायं । दुढेसु दंड-हत्था, वारंवारेण वोसिरणं ॥ तस्याप्यभावे तिर्यक्स्त्रीणामजुगुप्सितानामापातं व्रजेत् । तदसम्भवे जुगुप्सितानामप्यापातम् । तदभावे तिर्यमपुंसकानामजुगुप्सितानामापातम् । तदभावे जुगुप्सितानामप्यापातम् , 25 केवलं तत्र तथोपविशन्ति यथा परस्परं सर्वे सर्व प्रेक्षन्ते ॥ ४६५॥ तत्तो इत्थि-नपुंसा, तिविहा तत्थ वि असोयवाईणं । तहियं च सद्दकरणं, आउलगमणं कुरुकुया य ॥ ४६६ ॥ ततः स्त्री-नपुंसकानामापाते गन्तव्यम् । ते च स्त्री-नपुंसकास्त्रिविधाः, तद्यथा-प्राकृताः कौटुम्बिका दाण्डिकाश्च । ते च प्रत्येकं द्विधा-शौचवादिनोऽशौचवादिनश्च । तत्र प्रथमतोऽशौच30 वादिनामापाते वजनीयम् । तत्र च शब्दकरणमाकुलगमनं कुरुकुचा च कार्या । इयमत्र भावना-जुगुप्सितानामपि नपुंसकानामापातवतोऽसम्भवे मनुष्यस्त्रीणामशौचवादिनीनामापाते गन्तव्यम् , केवलं स्थविरसहितैः प्रविशद्भिश्च परस्परं महान्तः शब्दा उच्चारणीया येन तास्तान् १ दण्डित मो० ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६४-६८ ] पीठिका | १३७ शब्दान् श्रुत्वा निर्गच्छन्ति, आकुलीभूताश्च तत्र प्रविशन्ति येन 'व्याकुला अमी' इति ता दृष्टिक्षेपादिकं न कुर्वन्ति, अगर्त्तादिषु च स्थानेषु संज्ञां व्युत्सृजन्ति यथा शेषोऽपि लोको दूरस्थः प्रेक्षते, तेऽपि च साधवस्तथा उपविशन्ति यथा परस्परं प्रेक्षन्ते । तत एवमात्मपरोभयदोषा न सम्भवन्ति । उक्तं च तत्थ पुण थेरसहिया, आउलसद्दं करिंति पविसंता । जह सद्देणं ताओ, निंति ततो अगत्तमादी || ठाणेसु वोसिरंती, पेच्छंति य जह परोप्परं सबे । आय - परोभयदोसा, ते एवं वज्जिया होंति ॥ आचमनानन्तरं च कुरुकुचा कर्त्तव्या चशब्दान्मृत्तिकया हस्त-पुतप्रक्षालनं बहिर्मात्रकस्य कल्प इति परिग्रहः । तदसम्भवे शौचवादिनीनामपि मनुष्यस्त्रीणामापाते, तस्याभावे नपुंसका - 10 नामशौचवादिनामप्यापाते, तदसम्भवे शौचवादिनामप्यापाते गन्तव्यम् । सर्वत्रापि यतनानन्तरोक्तैव ॥ ४६६ ॥ इत्थि नपुंसावाते, जा उण जयणा उ मत्तगादीया । पुरिसावाए जयणा, स चेत्र उ मत्तगादीया || ४६७ ॥ ख्यापाते नपुंसकापाते च या पुनर्थतना मात्रकादिका अनन्तरमुक्ता सैव पुरुषापातेऽपि 15 प्राग् मात्र कादिका यतना द्रष्टव्या । एवं तावदचित्तं स्थण्डिलं चतुःप्रकारमचित्तेन पथा गम्यमुक्तम् । तदभावे मिश्रेणापि पथा तदपवादेन गच्छेत्, तदभावे सचितेनापि, तत्रापि यतना सैव प्रागुक्ता । उक्तं च — एवं अञ्चितेणं, पहेण जयणाओं भणिय चभंगो | मी- सचित्तपसु य, एस च्चिय भंग - जयणाओ || सम्प्रति मिश्रं वक्तव्यम्, यतोऽचित्तस्थण्डिलासम्भवेऽपवादतो मिश्रमपि गम्यते । तदपि चानापातासंलोकादिभेदतश्चतुष्प्रकारम्, तस्यापि च त्रयः पन्थानः, तद्यथा - अचित्तो मिश्रः सचितश्च ॥ ४६७ ॥ तानेवाह अचित्ते मी, मी मीसेण छकमीसेणं । सच्चित्तछक्कएणं, मीसे चउभंगिग पदेसे || ४६८ ॥ मिश्रं स्थण्डिलमचित्तेन पथा गम्यम् । तदभावे मिश्रेण, केन मिश्रेण ? इत्यत आह- 'षट्कमिश्रेण' पड्जवनिकायमिश्रेण । तदभावे मिश्रे स्थण्डिले षट्कायसचितेन पथा गन्तव्यम् । उक्तञ्च 5 20 पढमम चित्तपहेणं, मीसं मी सेण छकमीसेणं । ( ग्रन्थाग्रम् - ३५०० ) सच्चित्त करणं, मीसं तू थंडिलं गच्छे || 30 तच्च मिश्रं स्थण्डिलमध्वनि ग्रामानुग्रामं पथि व्रजतो द्रष्टव्यम् । तत्र मात्रकैर्यतना कर्त्तव्या । अथ मात्रकाणि न विद्यन्ते व्युत्सृजतां परिष्ठापयतां च सागारिकसम्पातस्तदा धर्मास्तिकायादिप्रदेशान् निश्रीकृत्य व्युत्त्रष्टव्यम् । उक्तञ्च - वृ० १८ 25 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेपकल्पिक द्वारम् सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे जहियं पुण सागारिय, धम्मादिपएस तहिय निस्साए । वोसिरइ एय मीसं, भणिय समासेण थंडिल्लं ॥ उक्तं मिश्रं स्थण्डिलम् । तदभावेऽपवादतः सचित्तमपि गन्तव्यम् । तदप्यनापातासंलोकादिभेदतश्चतुःप्रकारम् । तस्यापि च त्रयः पन्थानः, तद्यथा - अचित्तो मिश्रः सचित्तश्च 5 ॥ ४६८ ॥ तत्र येन क्रमेण गन्तव्यं तं क्रममाह १३८ 15 अश्चित्तेण सचित्तं, मीसेण सचित्त छकमीसेण । सच्चित्त छक्कणं, सचित्त चउभंगिय पदेसे ॥ ४६९ ॥ सचित्तमपि स्थण्डिलं चतुर्भङ्गिकम् । तत्र प्रथमतोऽनापातासंलोकं गन्तव्यम्, तदभावे द्वितीयम्, तदभावे तृतीयम्, तदभावे चतुर्थमपि । तत्र यतना प्रागेवोक्ता । तत्र च प्रथमतोऽ10 चित्तेन पथा गन्तव्यम् । तदभावे तत् सचित्तं मिश्रेम पथा गम्यम्, केन मिश्रेण ? इत्यत आह–‘षट्कमिश्रेण' षड्जीव निकायमिश्रेण । तस्यासम्भवे सचित्तेन पथा सचित्तं गन्तव्यम्, केन सचित्तेन ? 'षट्केन' षड्जीवनिकायैः । अत्रापि मात्रकैर्यतना कर्त्तव्या । मात्रकाणामभावे व्युत्सर्गे परिष्ठापने वा सागारिकसम्भवे धर्मास्तिकायादिप्रदेशानां निश्रा कर्त्तव्या । उक्तञ्च - यि मीसे जयणा, सेव सचित्ते वि होइ कायवा । मत्तादि अपरिसेसा, जा धम्मादीपएसा उ ॥ - तदेवमुक्तं स्थण्डिलम् । इदानीमेतस्य यः कल्पिकस्तमभिधित्सुराह [ अनुयोगाधिकारः पढिय सुय गुणियम गुणिय, धारमधार उवउत्तों परिहरति । आलोयाऽऽयरियादी, आयरिओ विसोहिकारो से || ४७० ॥ यस्मादजानतः प्रायश्चित्तं तस्माद् येन सप्तसप्तकादिसूत्रं पठितं पाठतः श्रुतमर्थतः तच्च 20 'गुणितम्' अभ्यस्तं वा स्यादगुणितं वा धारितं वा स्यादनवधारितं वा तथापि यः उपयुक्तः सन् स्थण्डिलं 'परिहरति' उक्तप्रकारेणोपयुक्तः परिभोगयति स विचारे कल्पिकः । तथा तेन स्थण्डिलसूत्रेण पठितेन वा श्रुतेन वा गुणितेन वा अगुणितेन वा धारितेन वा अधारितेन वा उपयुक्तो वाऽनुपयुक्तो वा यां विराधनां करोति तामाचार्यादेरालोचयति । प्रथमत आचार्यस्य पुरत आलोचयति, तदभावेऽन्यस्याप्युपाध्यायादेरालोचिते च 'से' तस्य 'विशोधिकारः ' 25 प्रायश्चित्तप्रदानेन शुद्धिकर्त्ता आचार्यः । किमुक्तं भवति ? - येद् आचार्याः प्रायश्चित्तं दद तेन स शुद्धि मापद्यते ॥ ४७० ॥ गतं विचारद्वारम् । अधुना लेपद्वारमाह-पात्रले पनिरूपणा १ चतुर्विधम् भा० ॥ २ यदा आचा° त० डे० ॥ स्कन्धे षष्ठमध्ययनम् ॥ अप्पत्ते अकहित्ता, अण हिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुका । दोहि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ॥ ४७१ ॥ 30 'सूत्रे' पात्रैषणालक्षणे अप्राप्ते यदि लेपस्याऽऽनयनाय प्रेषयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका: [ द्वाभ्यां गुरुकाः, ] तद्यथा - तपोगुरुकाः कालगुरुकाश्च । अथ प्राप्तेऽपि श्रुते तदर्थ ३ पात्रैषणाख्यमाचाराङ्गसूत्रे द्वितीयश्रुत ॥ ४६९ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६९-७५] पीठिका। १३९ मकथयित्वा कथनेऽपि 'अधिगतस्तदों न वा' इत्यपरिज्ञाय अधिगतमपि 'सम्यक् श्रद्दधाति न वा' इत्यपरीक्ष्य यदि प्रेषयति तदा प्रत्येकमकथनेऽनधिगतेऽपरीक्षणे च तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुका द्वाभ्यां लघवः, तद्यथा-तपोलघुकाः काललघुकाश्च । यत एवं प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषास्तस्मात् सूत्रे प्राप्ते तत्रापि कथिते तत्राप्यधिगते स परीक्ष्य लेपस्यानयनाय प्रेषणीयः । एष लेपस्य कल्पिकः ॥ ४७१ ॥ अञ्जकालिय लेवं, वयंति अवियाणिऊण सब्भाव । ते वत्तव्या लेवो, दिडो तेलोकदंसीहिं॥ ४७२ ॥ केचित् प्रवचनस्य 'सद्भावं' रहस्यम् 'अविज्ञाय' अविदित्वा अद्यकालिकं ले पात्रस्य वदन्ति-न एष पात्रस्य लेपः सर्वज्ञैरुक्तः किन्त्वद्य कल्येऽधुनातनसूरिभिः प्रवर्तितः; ते वक्तव्याः-दृष्टः खलु पात्रस्य लेपस्त्रैलोक्यदर्शिभिः ॥ ४७२ ।। एनामेव गाथां व्याचिख्यासुः 10 प्रथमतः पूर्वार्द्व व्याख्यानयन् लेपस्य जिनानुपदिष्टत्वं भावयति आया पवयण संजम, उवधाओ दिस्सए जओ तिविहो। तम्हा वयंति केई, न लेवगहणं जिणा वेति ॥ ४७३ ॥ यस्माल्लेपे गृह्यमाणे त्रिविध उपघातो दृश्यते, तद्यथा-आत्मनः प्रवचनस्य संयमस्य च; तस्मात् केचिद् वदन्ति-न लेपग्रहणं जिना ब्रुवते; न खलु भगवन्तः सावधं वचनमुच्चरन्ति 15 ॥ ४७३ ॥ कथं पुनरात्म-प्रवचन-संयमोपघातः ? इत्यत आह रहपडण उत्तमंगादिभंजणा घट्टणे य करपातो। अह आयविराहगया, जक्खुल्लिहणे पवयणम्मि ॥ ४७४ ॥ गमणाऽऽगमणे गहणे, तिहाणे संजमे विराहणया । महि सरि उम्मुग हरिया, कुंथू वासं रयो व सिया ॥ ४७५ ॥ 20 रथस्य-शकटस्य पतने उत्तमाङ्गादेः शरीरावयवस्य भङ्गः, तथा भाजनस्य लेपे दत्ते घट्टकेन तद दत्तलेपं पात्रं घट्टयतः 'करघातः' करस्य पीडा, एषा आत्मविराधना । यक्षाः-श्वानस्तैः शकटस्याक्षोऽनेकधा जिह्वयोल्लिखितः, साधुरपि च तत्र लेपं गृह्णाति, तमपि च भोजनयोग्ये पात्रे दास्यति ततो 'यक्षोल्लिखने' यक्षोल्लिखितलेपग्रहणे 'प्रवचने' प्रवचनस्योपघातः ।। ४७४ ॥ तथा 'त्रिस्थाने' त्रिषु स्थानेषु च 'संयमे' संयमस्य विराधना, तद्यथा-लेपग्रहणाय गमने 25 लेपं गृहीत्वा पुनर्वसतावागमने लेपग्रहणे च । तथाहि-गच्छतामागच्छतां तत्र वा मह्याःसचित्तपृथिवीकायस्य विराधना, सरित्-नदी तत्र गमने आगमने चाऽप्कायविराधना, तथा कदाचित् तैः शाकटिकैरग्निकाय उद्दीपितो भवेत् तत्र कथमप्यनुपयोगत उल्मुकचालनेऽमिकायविराधना, यत्रामिस्तत्र वायुरिति वायुविराधना, हरितकायाक्रमणे वनस्पतिकायविराधना, तथा लेपे कुन्थ्वादयः पाणा लमा भवेयुस्ततस्तद्रहणे त्रसकायविराधना, तथा गमने 30 आगमने तत्र वा वर्ष पतेत् रजो वा सचित्तवातोद्भूतमापतितं स्यात् ततस्तद्विराधनाऽपि तत्रावसेया । तदेवं यत आत्म-प्रवचन-संयमानामुपघातो न च यथा पिण्डैषणा पात्रैषणा वा १ अविभाविऊण ता० ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः जिनैर्भणिता तथा लेपैषणाऽपि तस्मान्न जिनोपदिष्टः पात्रस्य लेपः । तदेतदसमीचीनम् , पात्रलेपस्य जिनरर्थत उक्तत्वात् । पात्रैषणायां हि त्रिविधं पात्रमुक्तम् , तद्यथा-यथाकृतमल्पपरिकर्म सपरिकर्म च । तत्राल्पपरिकर्मणः सपरिकर्मणश्चावश्यं लेपेन कार्यमिति सामर्थ्यादुक्तो जिनैः पात्रस्य लेपः । अन्यच्चौधनियुक्तौ प्रपञ्चेन लेपैषणाऽप्यभिहिता । तस्माद् दृष्टस्त्रैलोक्य6 दर्शिमिलेपः ॥ ४७५ ॥ यच्च वदसि आत्मोपघातादयो दोषा इति तत्र प्रत्युत्तरमाह दोसाणं परिहारो, चोयग जयणाएँ कीरए तेसिं । पाते उ अलिप्पंते, ते दोसा होतऽणेगगुणा ॥ ४७६ ॥ हे नोदक ! ये दोषास्त्वया प्रागात्मोपघातादय उक्तास्तेषां परिहारो यतनया क्रियते, यतनया गच्छत आगच्छतो लेपग्रहणं च कुर्वतो न कश्चिदात्मोपघातादिको दोष इति भावः । 10 पात्रे तु अलिप्यमाने ते आत्मोपघातादयो दोषाः 'अनेकगुणाः' अनेकप्रकारा भवन्ति ॥ ४७६ ॥ कथम् ? इति चेद् अत आह उहादीणि उ विरसम्मि भुंजमाणस्स होति आयाए । दुग्गंधि भायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि ॥ ४७७॥ अलेपितं किल पात्रमतीव विरसं भवति, तस्मिन् भुञानस्य विरसगन्धाघ्राणत ऊर्द्धादीनि 15 भवन्ति । ऊर्द्ध-वमनम् , आदिशब्दादरुचि-मान्द्यादिपरिग्रहः । एते आत्मनि दोषाः । तथा लोको भिक्षां ददानो दुर्गन्धि भाजनं दृष्ट्वा 'गर्हयति' ईदृशा एवामी पापोपचिता इति । एष प्रवचने उपघातः ॥ ४७७ ॥ यदप्युक्तम् "यक्षोल्लिखितलेपग्रहणे प्रवचनोपघातः" (गा० ४७४) तदेतत् तावदतिसूक्ष्मम् , अन्येऽपि खलु महान्तः प्रवचनोपघाता अवश्यकर्त्तव्य. तया यतनया परिहियन्ते किं पुन:षः ? इति प्रतिपादयन्नाह पवयणघाया अन्ने, वि अस्थि ते उ जयणाएँ कीरति । आयमणभोयणाई, लेवे तव मच्छरो को णु ॥ ४७८॥ अन्येऽपि खलु 'आचमन-भोजनादयः' काञ्जिकेनाचमनं कायिक्या आचमनमनाचमनं वा पात्रे भोजनं मण्डल्यां भोजनमित्येवमादयः 'प्रवचनघाताः' प्रवचनोपघाताः सन्ति परं तेऽप्यवश्यकर्त्तव्यतया 'यतनया' सागारिकरक्षणादिरूपया क्रियन्ते । एवमवश्यग्रहीतव्ये लेपे 25 यतनया तत्कालदृष्टदोषपरिहारादिलक्षणया गृह्यमाणे को नु तव मत्सरः ? नैवासौ युक्त इति ॥ ४७८ ॥ सम्प्रत्यन्यानपि पात्रालेपे दोषानाह___खंडम्मि मग्गियम्मी, लोणे दिन्नम्मि अवयवविणासो। अणुकंपादी पाणम्मि होति उदगस्स उ विणासो ॥ ४७९ ॥ अलेपिते पात्रे कसिँश्चित् प्रयोजने समापतिते खण्डं याचितम् , तया चाऽविरत्या खण्ड30 मिति भ्रान्त्याऽनाभोगेन सैन्धवादि लवणं दत्तम् , तस्मिंश्चाले पिते भाजने केचिदवयवा अद्याप्यम्लाः सन्ति, ततस्तैरवयवैस्तस्य लवणस्य पृथिवीकायस्य विनाशः । तथा पानके याचिते कयाचिदविरत्या एते उदकस्य खादं न जानन्तीत्यनुकम्पया आदिशब्दादनाभोगेन वा उदकं दीयते तत एवमुदकस्याम्लावयवसंस्पर्शतो विनाशः ॥ ४७९ ।।। १ उड्डाती विरसम्मि ता० ॥ २ अलिप्ते पात्रे मो० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७६-८३] पीठिका। १४१ पूंयलियलग्ग अगणी, पलीवणं गाममादिणं होजा। रोट्टपणगा तरुम्मि, भिगु-कुंथादी य छम्मि ॥ ४८० ॥ कयाचिदविरत्याऽनाभोगतः साङ्गारा पूपलिका दत्ता भवेत् तत्राम्लावयवसंस्पर्शतस्तस्य विध्वंसः; यद्वा स पूपलिकालग्नोऽग्निर्दहेत्, स च साधुर्न चेतयते ततः प्रदीप्ते पात्रे परितापलगनतः सहसा तत् पात्रं त्यजेत् , तच्च कण्टकवृत्यादिमध्ये पतितमिति कृत्वा तद्दाहप्रस-5 गतो 'ग्रामादीनां' ग्रामस्य नगरस्य पाटकस्य वा प्रदीपनं भवेत् , ततो महती अग्निकायस्य विराधना । यत्रामिस्तत्र वायुरिति वायुविराधना । वनस्पतिविराधनामाह- रुहे"त्यादि । कयाचिदविरत्या 'रोट्टः' लोट्टो दत्तः, सोऽम्लावयवसंस्पर्शतः प्राणविपत्तिमामोति । तथा भृगुनाम श्लक्ष्णा राजिस्तासु पनकः सम्मूर्च्छति, सोऽन्न-पानग्रहणतो विध्वंसमापद्यते । एषा 'तरौ' वनस्पतिकाये विराधना । भृगुषु पनके सम्मूञ्छिते कुन्थ्वादयोऽपि सम्मूर्च्छन्ति, 10 तेऽवयवानामम्लभावेनान्न-पानग्रह्णतो वा विराध्यन्ते । एषा 'षष्ठे' त्रसकाये विराधना । एवं षण्णामपि कायानां पात्रस्यालेपने विराधना ॥ ४८० ॥ यदप्युक्तम् "लेपैषणा भगवद्भिोक्ता" (गा० ४७५) इति तत्र प्रतिविधानमाह पायग्गहणम्मि उ देसियम्मि लेवेसणा वि खलु वुत्ता।। तम्हा उ आणणा लिंपणा य लेवस्स जयणाए ॥ ४८१॥ 18 पात्रग्रहणे देशिते खलु लेपैषणाऽप्युक्ता द्रष्टव्या, लेपमन्तरेणावश्यं षड्जीवनिकायविराधनात् , यथोक्तमनन्तरम् । तस्माजिनोपदिष्टत्वाल्लेपस्य यतनया आनयनम् , तेन च पात्रस्य लेपनं कर्त्तव्यम् ॥ ४८१ ।। पर आह-यतनया लेपस्यानयनादि कर्त्तव्यं तत एवं क्रियताम् हत्थोवधाय गंतूण लिंपणा सोसणा य हत्थम्मि । सागारिए पभू जिंघणा य छकायजयणाए ॥ ४८२ ॥ 'यस्माल्लेपस्यानयने भारेण हस्तोपघातः तस्मात् तत्र गत्वा पात्रस्य लेपनं कर्त्तव्यम्' इति नोदकवचनम् । इदमपि नोदकवचः-लिप्तस्य पात्रस्य हस्ते धरणतः शोषणा कर्त्तव्या । अत्रोभय. त्रापि प्रत्युत्तरमग्रे दास्यते । तथा बजता प्रत्यासन्नं शय्यातरशकटमवलोक्य 'सागारिकपिण्ड एषः' इति कृत्वा न वर्जनीयम् किन्तु तत्रैव लेपग्रहणं कार्यम् , तथा तस्य शकटस्य यः प्रभुः प्रभुसन्दिष्टो वा तमनुज्ञापयेत् , अनुज्ञाप्य च कटुगन्धपरिज्ञानाय नाशामसंस्पर्शयन् तं लेपं 25 जिप्रेत् , तदनन्तरं लेपस्य ग्रहणं षट्काययतनया कर्तव्यमित्येष द्वारगाथासङ्केपार्थः ॥ ४८२ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः "गंतूण लिंपणे"ति द्वारं व्याख्यानयति चोयगवयणं गंतूण लिंपणा आणणे बहू दोसा । संपातिमादिधातो, अहिउस्सगो य गहियम्मि ॥ ४८३ ॥ नोदकवचनम्-तत्र शकटसमीपे गत्वा पात्रस्य लेपनं कर्तव्यम्, यतो लेपस्यानयने 30 बहवो दोषाः; तथाहि-भारेण हस्तोपघातः पूर्ववत् , तथा सम्पातिमानाम् आदिशब्दादसम्पा १ पूवलि° ता०॥ २ होति ता० ॥ ३ "वणस्सतिविराधणा-अतिछडाणं रोटो दिण्णो होजा, सो विद्धंसति अंबभावेण" इति चूर्णिः॥ ४ चोदक° मो० भा०॥ 20 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः तिमानां च जीवानां तत्र पतितानामुपघातः, स च कदाचिदधिको लेपो गृहीतो भवेत् ततस्तस्मिन्नधिके गृहीते 'उत्सर्गः' परिष्ठापनिकादोषः सम्पद्यते । उक्तञ्च भारे हत्थुवघातो, तत्थ य संपादिणो पडते य । पारिट्ठावणिदोसो, अहिंगम्मि य होइ आणीए । 6 एवमुक्त आचार्यः प्राह-नोदक ! तत्र पात्रे लिप्यमाने सविशेषतरा आत्मोपघातादयो दोषाः ॥ ४८३ ॥ तथा चाह ऎवं पि भाणभेदो, वियावडे अत्तणो उ उवधाओ। निस्संकियं च पायम्मि गिण्हणे ईयरहा संका ॥ ४८४ ॥ 'एवमपि तत्र गत्वा पात्रलेपनेऽपि ऊर्द्धस्थितो लेपं गृहीत्वा भाजने प्रक्षिपति, तत्र व्या10तस्य सतः कदाचिद् हस्ताद् भाजनं पतेत् , तत एवं व्याप्ते भाजनभेदः । तथा कथमपि शक टस्य पतनत आत्मनश्चोपघातः । किञ्च पात्रे लेपस्य ग्रहणे गृहीत्वा च तत्रैव पात्रस्य लेपने क्रियमाणे तेषां साक्षात् पश्यतामेवं निःशङ्कितं भवति, यथा-एतेनाशुचिना लेपेन भोजनपात्रममी लिम्पन्ति; ततो महान् प्रवचनोपघातः । 'इतरथा' तत्र पात्रालेपने शरावे च लेपस्य ग्रहणे शङ्कोपजायते-किं पात्रस्य लेपनाय उत दुःखयतः पादस्य पिण्डीबन्धनाय लेपमाददते ? 15 ततो न प्रवचनोपघातः ॥ ४८४ ।। यदप्युक्तं "भारेण हस्तोपघातः" (गा० ४८२) इति तत्रापि प्रत्युत्तरमाह जैइ वा हत्थुवधाओ, आणिजंतम्मि होइ लेवम्मि। पडिलेहणादि चेट्ठा, तम्हा उन काइ कायव्वा ॥४८५ ॥ यदि लेपे आनीयमाने भारेण हस्तोपघात इति नानयनं क्रियते तर्हि न कदाचिदपि प्रति20 लेखनादिका क्रिया कर्त्तव्या, तत्रापि यथायोगं हस्त-पादादेरुपघातसम्भवात् । तस्माद्यथा प्रतिलेखनादिका क्रियाऽवयं कर्तव्या तत्करणे गुणसम्भवाद् एवं लेपानयनमपि ॥ ४८५ ॥ तदेवं "हत्थोवघाय गंतूण लिंपणा" (गा० ४८२) इति व्याख्यातम् । अधुना “सोसणा य हत्थम्मि" (४८२) इति व्याख्यानयति जति नेवं तो पुणरवि, आणे लिंपिऊण हत्थम्मि । ____ अच्छति धारेमाणो, सद्दवनिक्खेवपरिहारी ॥ ४८६ ॥ ___ यदि नाम तत्र गत्वा पात्रं लेपनीयमिति नैवमिष्यते अनन्तरोदितानेकदोषप्रसङ्गात् ततः पुनरपि किञ्चिद् वक्तव्यम्-लेपमानीय पात्रं लिप्त्वा 'सद्रवनिक्षेपपरिहारी' सद्रवनिक्षेपपरिहारमिच्छन् हस्ते पात्रं धारयन् तावत् तिष्ठति यावल्लेपस्य शोषो भवति एवं क्रियताम् ॥४८६॥ अत्राऽऽचार्यः प्राह एवं पि हु उवघातो, आयाए संजमे पवयणे य । मुच्छादी पवडते, तम्हा उ न सोसए हत्थे ॥ ४८७ ॥ १र्य आह डे० त०॥२ चोदक कां० मो० भा० ॥ ३ एवं भायण ता० ॥ ४ इहर° ता० ॥ ५ गाथेयं नास्त्यादृता चूर्णिकृता॥ ६°श्यं क्रियते त° डे० त० ॥ 25 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४८४-९०] पीठिका। १४३ 10 'एवमपि' हस्ते धृत्वा पात्रलेपस्य शोषणेऽपि 'हुः' निश्चितमुपघातः आत्मनः संयमस्य प्रवचनस्य च । तत्राऽऽत्मोपघातो मूर्च्छया आदिशब्दात् पात्रभारेण च प्रतिपतति वेदितव्यः । संयमोपघातः षट्कायानामुपरि पतनात् । प्रवचनोपघातः पतन्तं दृष्ट्वा लोको ब्रूयात् 'दुर्दृष्टधर्माणोऽमी' इति । उक्तञ्च कायाणमुवरि पडणे, आयाए संजमे पवयणे य । उण्हेण व भारेण व, मुच्छा पवडंति आयाए । कायोवरि पवडते, अह होही संजमे विराहणया । पवयणे अदिट्टधम्मा, पडंत दटुं वए लोगो ॥ यस्मादेते दोषास्तस्मान्न हस्ते पात्रं शोषयितव्यम् । अत्र सर्वत्र नोदकस्यैवं ब्रुवतो यथाच्छन्द इति कृत्वा चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् ॥ ४८७ ॥ एवमाचार्यों नोदकं प्रतिहत्य साम्प्रतमात्मना यतनासामाचारीमाह दुविहा य होंति पाता, जुण्णा य नवा य जे उ लिप्पंति । जुण्णे दाएऊणं, लिंपति पुच्छा य इयरेसिं ॥ ४८८ ॥ यानि पात्राणि लिप्यन्ते तानि द्विविधानि भवन्ति । तद्यथा-जीर्णानि नवानि च । तत्र यानि जीर्णानि तानि नियमत आचार्याणां दर्शनीयानि, यथा-ईदृशो लेपः क्षमाश्रमणाः! 15 पात्राणामतनो वर्तते ततः सम्प्रति लिम्पामि न वा । तत्रैवं दर्शयित्वा यद्यनुज्ञा जाता ततस्तानि जीर्णानि लिम्पति नेतरथा । अदर्शयित्वा लेपने प्रायश्चित्तं मासलघु । यानि पुनर्नवानि तान्यवश्यं लेपनीयानीति कृत्वा आचार्यस्यापृच्छयाऽपि तेषाम् ‘इतरेषां' नवानां लेपनं कर्तव्यम् ॥ ४८८ ॥ अथ जीर्णानामदर्शने को दोषः ? इत्यत आह पाडिच्छग-सेहाणं, नाऊणं कोइ आगमण मायी। दढलेवे वि उ पाए, लिंपति मा तेसि दिजिज्जा ॥ ४८९ ॥ अहवा वि विभूसाए, लिपति जा सेसगाण परिहाणी। अपडिच्छणे य दोसा, सेहे काएँ यतोऽदाए ॥ ४९०॥ कश्चिन्मायी शिष्याणां प्रातीच्छिकानां चाऽऽगमनं ज्ञात्वा ‘मा तेषां दद्याद्' इति कृत्वा दृढलेपान्यपि पात्राणि भूयो लिम्पति ॥ ४८९ ॥ 25 अथवा 'न शोभनोऽग्रेतनो लेपः' इति विभूषानिमित्तमजीर्णलेपमपि पात्रं भूयः कोऽपि लिम्पति । एवं मायया विभूषानिमित्तं वा भाजनेषु तेषु लिप्तेपु या 'शेषकाणां' साधूनां प्रातीच्छिकानां शिष्याणां च परिहाणिस्तां स मायी विभूषार्थी वा प्राप्नोति । तमेव दर्शयति"अपडिच्छणे य" इत्यादि । केचित् प्रातीच्छिकाः समागतास्तद्योग्यानि च पात्राणि न सन्ति लिप्तानि तिष्ठन्तीति कृत्वा, तत एवं पार्विना तेषां प्रातीच्छिकानामप्रतीच्छने ज्ञान-दर्शन- 30 चारित्रपरिहाणिः । "सेहे काए"त्ति तथा शैक्षः कश्चिदुपस्थितोऽथ च भाजनं न विद्यते १ जुण्ण नवा चेव जे उ ता० ॥ २ °गर्म मा ता० ॥ ३ °ए अतो मो० विना ॥ ४ योऽपि लि° डे. कां.॥ 20 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेपग्रहण. 5 विधिः १४४ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः लिप्तमस्तीति कृत्वा, ततो भाजनं विना कथं स प्रव्राज्यते इति सोऽपत्राजितः काय विराधनां कुर्यात्, सा च तन्निमित्तेति ज्ञान - दर्शन - चारित्रपरिहाणिप्रत्ययं कायविराधनाप्रत्ययं च प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । यत एवमदर्शिते दोषास्तस्माद् जीर्णानि दर्शयेत् ॥ ४९० ॥ अथ केन विधिना लेपस्य ग्रहणादि कर्त्तव्यम् ? अत आह— पूर्वाह्णे लेपनिमित्तं गर्म - गमनं कृत्वा तत्र च यतनया लेपग्रहणं च कृत्वा ततः सुसंवरं यथा भवत्येवं लेपस्य यतनयाऽऽनयनं कर्त्तव्यम् । आनीते च यतनया पात्रस्य लेपना ॥ ४९१ ॥ एनामेव गाथां व्याचिख्यासुराह--- 10 पुव्वण्हे लेपगहणं, काहं ति चत्थगं केरेजाहि । असहू वासिय भत्तं, अकारलंभे व दिंतियरे ॥ ४९२ ॥ साधुना प्रतिक्रमणचरमकायोत्सर्गस्थितेन चिन्तनीयम् - किमद्य भाजनानि लेपनीयानि नवा ?, तत्र यदि लेपनीयानि ततः पूर्वाह्णे लेपग्रहणमहं करिष्यामीति विचिन्त्य 'चतुर्थकम् ' अभक्तकं कुर्याद् । अथ 'असह:' असमर्थश्चतुर्थभक्तं कर्तुं तर्हि पर्युषितं गृह्णाति भक्तम् । 15 अथ पर्युषितम् 'अकारकम् ' अपथ्यं यदि वा न लभ्यते ततः पौरुषीं न करोति किन्त्वितरे साधवो मध्याह्ने हिण्डित्वा तस्मै भक्तं ददति ॥ ४९२ ॥ 20 good dari, वग्गणं सुसंवरं काउं । लेवस आणणा लिंपणा य जयणाऍ कायव्वा ॥ ४९१ ॥ किकम्मो छंदेण छंदितो भणति लेव घिच्छामि । तुब्भं वियाणिमट्ठो, आमं तं कित्तियं किं वा ॥ ४९३ ॥ सेसे विपुच्छिऊणं, कस्तग्गो गुरुण नमिऊण | मलग-रूप गेह, जति तेसिं कपितो होति ॥ ४९४ ॥ कृतं कृतिकर्म-वन्दनं येन स कृतकृतिकर्मी । किमुक्तं भवति ? - स लेपानयनाय गन्ता प्रथममाचार्याणां वन्दनकं ददाति, दत्त्वा ते इच्छाकारेण सन्दिशत । एवमुक्ते सूरयोऽभिदधति - "छन्देण " छन्दसा विज्ञपयेति भावः । एवं छन्दसा 'छन्दितः ' निमन्त्रितः सन् भणतिगत्वा लेपं ग्रहीष्यामि । एवमुक्त्वाऽऽचार्यान् शेषसाधूंश्च वक्ति - युष्माकमप्यस्ति लेपेन प्रयो25 जनमानीयताम् । तत्र यो वक्ति आमं तं प्रति ब्रूते - कियन्तमानयामि ? किं वा लेपम् ? । तत्र यद् भणति तद् इच्छामीति प्रतिपद्य 'कृतोत्सर्गः ' उपयोग कायोत्सर्गं कृत्वा गुरून् नमस्कृत्य आवश्यक कृत्वा यदि तेषां पात्र वस्त्राणां कल्पिकस्ततो गृहेषु गत्वा मल्लकं रूतं च गृह्णाति ॥ ४९३ ॥ ४९४ ॥ अथाकल्पिकस्तत आह--- 30 गीयत्थपरिग्गहिते, अयाणओ रूय मल्लए घेतुं । छारं च तत्थ वच्चति, गहिए तसपाणरक्खट्ठा ॥। ४९५ ।। यः 'अज्ञायकः' अगीतार्थः स गीतार्थेन परिगृहीतानि रूत - मल्लकानि 'गृहीत्वा ' गृहीते सति लेपे सम्पातिमत्रसप्राणरक्षार्थं तत्र मल्लकेपुं क्षारं च गृहीत्वा व्रजति ॥ ४९५ ॥ १ 'वदाणं ले ता० ॥ २ करिस्सामि ता० बिना ॥ ३षु रक्षां च त० ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९१-५००] पीठिका । १४५ सम्प्रति यदधस्ताद् भणितं "सागारिय" (गा० ४८२) ति तयाख्यानार्थमाह वच्चंतेण य दिहूं, सागारिदचकगं तु अब्भासे ।। तत्थेव होइ गहणं, न होति सो सागरियपिंडो॥ ४९६ ॥ तेन गृहीतरूत-मल्लक-क्षारेण बजता यदि सागारिकस्य-शय्यातरस्य द्विचक्रकं-शकटम् 'अभ्यासे' निकटे प्रदेशे दृष्टम् ततस्तत्रैव तस्य लेपग्रहणं भवति । यतः स न भवति सागा-6 रिकपिण्ड इति ॥ ४९६ ॥ सम्प्रति प्रभुद्वारमाह गंतुं दुचकमूलं, अणुण्ण विजा पडं तु साहीणं । एत्थ य पभु त्ति भणिए, कोई गच्छे निवसमीवं ॥ ४९७ ॥ किं देमि त्ति नरवई, तुभं खरमक्खिया दुचकि त्ति । सो य पसत्थो लेवो, एत्थ य भद्देयरे दोसा ॥ ४९८॥ गत्वा द्विचक्रमूलं शकटस्य 'खाधीनं' प्रत्यासन्नं प्रभुमनुज्ञापयेत् , अननुज्ञापने प्रायश्चित्तं मासलघु, तस्मात् प्रायश्चित्तभीरुणा नियमतः प्रभोरनुज्ञापना कर्तव्या । अत्र प्रभुरित्युक्ते कश्चिच्चिन्तयति-राजानं मुक्त्वा कोऽन्यः प्रभुः ? इति राजाऽनुज्ञापनीय उक्तः, एवं चिन्तयित्वा नृपसमीपं गच्छेत् , गत्वा च तं राजानं धर्मलाभयेत् ॥ ४९७ ॥ ___ तत्र स नरपति—यात्-किं ददामि। साधुर्वदति-युष्माकं 'द्विचक्राणि' शकटानि खरेण-16 तैलेन प्रक्षितानि सन्ति, तत्र च यो लेपः स प्रशस्त इति तमनुजानीत । अत्र 'भद्रेतरदोषाः' भद्रकदोषाः प्रान्तदोषाश्च । तत्र भद्रकदोषा इमे-स राजाऽनुज्ञापितः सन् ब्रूयाद्-अहो ! निर्ममत्वा भगवन्त एतदप्ययाचितं न गृहन्ति, ततः स आज्ञापयेत्-यानि कानिचिन्मम विषये शकटानि तानि सर्वाण्यपि तैलेन म्रक्षणीयानि । प्रान्तः पुनरेवं चिन्तयेत्-अहो। अमी अशुचयो यदेतन्मा याचन्ते, नूनं सर्वमिदं नगरममीभिर्धर्षयितव्यमिति प्रद्वेषं यायात् , प्रद्विष्टश्च 20 घोषापयेत् , यथा-मम राज्ये न कोऽपि शकटं तैलेन म्रक्षयेत् किन्तु घृतेनान्येन वा ॥ ४९८॥ तम्हा दुचक्कपतिणा, तस्संदिद्वेण वा अणुण्णाते । कटुगंधजाणणट्ठा, जिंघे नासं अघट्टतो ॥ ४९९ ॥ यस्मादेवं भद्रक-प्रान्तदोषास्तस्माद्राजा नानुज्ञापयितव्यः । कोऽनुज्ञापयितव्यः ? इति चेद् उच्यते-यस्तस्य द्विचक्रस्य-शकटस्य पतिः-स्वामी यो वा तेन-शकटपतिना सन्दिष्टः, तेन 25 द्विचक्रपतिना तत्सन्दिष्टेन वाऽनुज्ञाते तैलस्य किल कटुको गन्ध इति 'कटुगन्धज्ञानार्थ' कटुगन्धोऽस्ति न वेति परिज्ञानार्थ नासाम् 'अघट्टयन्' असंस्पृशन् तं लेपं दूरस्थो जिप्रति । माते च यदि कटुको गन्धः समायाति ततस्तैललेप इति कृत्वा तं समादते ॥ ४९९ ॥ सम्प्रति “छक्कायजयणाए" (गा० ४८२) इति व्याख्यानयति हरिए बीए चले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए। पुढवी संपातिमा सामा, महावाते महियाऽमिते ॥ ५००॥ हरिते बीजे वा साधौ शकटे वा प्रतिष्ठिते, तथा चले बलीवर्दाभ्यां युक्ते वा शकटे, १°णातो ता०॥ 30 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे (अनुयोगाधिकारः तथा शकटेन सह बद्धे वत्से, शकटस्याधः स्थिते शुनि वा, तथा जलस्योपरि स्थिते, पृथिव्यां वा-सचित्तपृथिवीकायस्योपरि प्रतिष्ठिते शकटे, तथा सम्पातिमेषु-त्रसगणेषु सत्सु, तथा 'श्यामा' रात्रिस्तस्याम् , महावाते वा वाति, महिकायां निपतन्त्यां लेपग्रहणं नानुज्ञातम् । नाप्यमितस्य लेपस्य ग्रहणम् । एष द्वारगाथासङ्केपार्थः । व्यासार्थस्तु प्रतिद्वारं वक्ष्यते ॥५००॥ । तत्र यद्यप्यनन्तरं प्रायश्चित्तगाथाद्वयं तथापि नाव्याख्यातेपु द्वारेषु तद् व्याख्यातुं शक्यमिति प्रथमतो द्वाराणि व्याख्यायन्ते । तत्र हरितद्वारं बीजद्वारं चाधिकृत्याह हरिए वीऍ पतिट्ठिय, अणंतर परंपरे य बोधव्वे । परिताणते य तहा, चउभंगो होति नायव्यो ॥५०१॥ हरिते वीजे च साधौ शकटे वा अनन्तरं परम्परके वा प्रतिष्ठिते प्रत्येकं चतुर्भङ्गी भवति 10 ज्ञातव्या । गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । तथा हरिते बीजे च प्रत्येकं परीत्तेऽनन्ते च साधौ शकटे वाऽनन्तर-परम्परप्रतिष्ठिते प्रत्येकं चतुर्भङ्गी । इयमत्र भावना-हरितेषु साधुरनन्तरप्र. तिष्ठितो नो परम्परप्रतिष्ठितः १ परम्परप्रतिष्ठितो नानन्तरप्रतिष्ठितः २ अनन्तरप्रतिष्ठितोऽपि परम्परप्रतिष्ठितोऽपि ३ नानन्तरप्रतिष्ठितो नापि परम्परप्रतिष्ठितः ४ । एवं बीजेष्वपि साधुमधिकृत्य चतुर्भङ्गी । एवं गन्त्रीमप्यधिकृत्य हरितेपु बीजेषु च प्रत्येकं चतुर्भङ्गी द्रष्टव्या-हरि15 तेष्वनन्तरं प्रतिष्ठिता गन्त्री नो परम्परप्रतिष्ठिता इत्यादि । एवं सर्वसङ्कलनया चतुर्भङ्गीचतुष्टयं जातम् । चतुर्भङ्गीद्विकं तु साधु-गन्त्रीसंयोगतो द्रष्टव्यम् । तद्यथा-हरितेषु साधुर्गन्त्री वाऽनन्तरप्रतिष्ठिता नो परम्परप्रतिष्ठिता इत्यादि भङ्गचतुष्टयं प्राग्वत् । एवं बीजेष्वपि । सर्वसयया षट् चतुर्भङ्गयः । एतच्च चतुर्भङ्गीषट्कं किल प्रत्येकेषु हरित-बीजेपूक्तम् । एवमनन्तेप्वपि द्रष्टव्यम् । एवं मिश्रेष्वपि ॥ ५०१ ॥ साम्प्रतमत्रैव प्रायश्चित्तमुच्यते20 चउरो लहुगा गुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरुयं । छसु परितऽणंत मीसे, बीजे य अणंतर परे य ॥ ५०२ ॥ हरिते चशब्दसंसूचिते प्रत्येकेऽनन्तर-परम्परभेदतस्त्रिष्वायेषु भनेषु चत्वारो लघुका वक्तव्याः । इयमत्र भावना प्रत्येकेषु हरितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते प्रथमे भने प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, द्वितीये परम्परप्रतिष्ठिते चतुर्लघु, तृतीये भङ्गेऽनन्तरपरम्परप्रतिष्ठिते द्वे चतुर्लघुके, 25 चरमे भङ्गे शुद्धः । तथा प्रत्येकहरितेषु साधौ गन्यां चानन्तरप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्लघुनी, १ गाथेयं चूर्णिकृता इत्थंरूपा खीकृताऽस्ति हरिते बीएसु तहा, अणंतर परंपरे य विचउक्के। आता दुपदं च पयट्टितं तु पत्थं तु चउभंगो ॥ चूर्णिः-हरिते. गाधा । हरितेसु साधू अणंतरपतिट्ठिओ णो परंपरपतिहितो वा चउभंगो । एवं बीएसु विचउभंगो। हरितेसु भंडी अणंतरपतिहिता णो परंपरपतिट्टिता चउभंगो। एवं बीएसु वि चउभंगो। बिचउक त्ति साधुम्मि हरितेसु एगो चउभंगो, बितिओ बीएसु । एवं भंडीए वि दो चउभंगा भणिता । आता दुपतं च पतिद्वितं तु एत्थं तु (पतिट्टितं ति एत्थं पि प्र०) चउभंगो । दो इति वाक्यशेषः । आय त्ति साधू । हरितेस साध भंडी य अणंतरपतिट्टिताणि णो परंपरपतिहिताणि चउभंगो। एवं बीएसु वि चउभंगो॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५०१-४] पीठिका। १४७ द्वितीयभङ्गेऽपि परम्परप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्लघुके, तृतीये भङ्गे उभयोरुभयत्र प्रतिष्ठितयोश्चत्वारि चतुर्लधुकानि, चरमे भङ्गे शुद्धः । तथा हरितेष्वनन्तेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् , द्वितीयेऽपि परम्परप्रतिष्ठिते चतुर्गुरु, तृतीयेऽनन्तरपरम्परप्रतिष्ठिते द्वे चतुर्गुरुके, चरमे शुद्धः । गच्यामप्यनन्तहरितेऽनन्तरप्रतिष्ठितायां चतुर्गुरु, परम्परप्रतिष्ठितायामपि चतुर्गुरु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्गुरुके, चरमे शुद्धः । अनन्तहरितेषु साधौ गड्यां। चानन्तरप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्गुरुके, परम्परप्रतिष्ठितायामपि द्वे चतुर्गुरुके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि चतुर्गुरुकाणि, चरमे शुद्धः । तथा मिश्रेषु प्रत्येकह रितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते मासलघु, परम्परप्रतिष्ठितेऽपि मासलघु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे मासलघुके, चरमे भङ्गे शुद्धः । गड्यामप्यनन्तरप्रतिष्ठितायां मासलघु, परम्परप्रतिष्ठितायामपि मासलघु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे मासलघुके, चरमे भङ्गे शुद्धः । साधौ गन्यां चाऽनन्तरप्रतिष्ठितायां द्वे मासलघुके, परम्पर-10 प्रतिष्ठितायामपि द्वे मासलघुके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि मासलघूनि, चरमे भङ्गे शुद्धः। तथा मिश्रेष्वनन्तहरितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते मासगुरु, परम्परप्रतिष्ठितेऽपि मासगुरु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे मासगुरुके, चतुर्थे शुद्धः । गड्यामपि अनन्तरप्रतिष्ठितायां मासगुरु, परम्परप्रतिष्ठितायामपि मासगुरु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे मासगुरुके, चरमे शुद्धः । साधौ गड्यां चानन्तरप्रतिष्ठितायां द्वे मासगुरुके, परम्परप्रतिष्ठितायामपि द्वे मासगुरुके, उभयप्रतिष्ठितायां 16 चत्वारि मासगुरुकाणि, चरमभङ्गे शुद्धः । “पणग लहु गुरुग"मिति बीजेषु प्रत्येकेषु सचित्तेषु मिश्रेषु वा प्रत्येकं साधावनन्तरप्रतिष्ठिते लघुरात्रिन्दिवपञ्चकम् , परम्परप्रतिष्ठितेऽपि लघुपञ्चकम् , उभयप्रतिष्ठिते द्वे लघुपञ्चके, चरमभङ्गे शुद्धः । तथा गन्यामनन्तरप्रतिष्ठितायां लघुपञ्चकम् , परम्परप्रतिष्ठितायामपि लघुपञ्चकम् , उभयप्रतिष्ठितायां द्वे लघुपञ्चके, चरमभङ्गे शुद्धः । साधौ गड्यां चानन्तरप्रतिष्ठितायां द्वे लघुपञ्चके, परम्परप्रतिष्ठितायामपि द्वे लघु-20 पञ्चके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि लघुपञ्चकानि, चरमभने शुद्धः । एवमनन्तेषु रात्रिन्दिवपञ्चकं गुरुकं द्रष्टव्यम् । एवं बीजे चशब्दाद्धरिते च प्रत्येके सचित्तेऽनन्ते सचित्ते मिश्रे चानन्तरे परम्परे च 'षट्सु' षट्सु भङ्गेषु यथायोगं प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् ॥ ५०२ ॥ इदानीं चलादिद्वारप्रतिपादनार्थमाहदव्वे भावे य चलं, दव्वम्मी दुट्टियं तु जं दुपयं । 28 आयाएँ संजमम्मि य, दुविहा उ विराहणा तत्थ ॥ ५०३ ॥ चलं नाम द्विविधम् , तद्यथा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतश्चलं यद् 'द्विपदं' शकटं दुस्थितम् , तत्र लेपं गृढतश्चतुर्गुरुकम् । यतस्ततो द्विविधा विराधना-आत्मनि संयमे च । तत्रात्मविराधना शकटेन पतताऽभिघातसम्भवात् । संयमविराधना शकटे सञ्चाल्यमाने प्राणजात्युपमर्दनात् ॥ ५०३ ॥ 30 भावचल गंतुकामं, गोणाईअंतराइयं तत्थ । जुत्ते वि अंतरायं, वित्तसचलणे य आयाए ॥ ५०४ ॥ १त्मनि वि° कां० डे० ॥ २ जातेरुप मो० ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सनियुक्ति-माष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः भावचलं नाम 'गन्तुकाम' योज्यमानमित्यर्थः, तत्र यावद् लेपो गृह्यते तावद् बलीवर्दानां चारि-पानीयनिरोधनम् , आदिशब्दान्मनुष्याणामप्यन्तरायम् । ततो भावचलेऽपि लेपं गृह्णतश्चत्वारो लघुकाः । गतं चलद्वारम् । अधुना युक्तद्वारमाह-"जुत्ते वी"त्यादि, युक्तं नामयोक्रितबलीबदं तत् स्थापयित्वा यदि लेपं गृह्णाति ततः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, यतस्तत्रापि 6 स एवान्तरायदोषः । अन्यश्वायम्-ते बलीवर्दा वित्रस्येयुः, तत्र गच्या चलन्त्या चरणाक्रमणे आत्मविराधना, संयमविराधना त्रसादिनिपातः ॥ ५०४ ॥ सम्प्रति वत्सद्वारं श्वद्वारं चाह वच्छो भएण नासति, भंडिक्खोमे य आयवावत्ती । आया पवयण साणे, काया य भएण नासते ॥ ५०५ ॥ यत्र शकटे वत्सो बद्धः श्वा वा यस्याधस्तात् तिष्ठति बद्धो वा वर्तते, तत्र वत्से लेपं गृहतश्च10त्वारो लघुकाः शुनि चत्वारो गुरुकाः, यतो वत्सो भयेन नश्यति, तस्मिंश्च नश्यति गड्याः 'क्षोमे चलने आत्मव्यापत्तिः, तथा श्वा समागच्छन्तमपूर्व दृष्ट्वा दशति तत्रात्मोपघातः, शुना लीढं लेपममी गृहन्तीति प्रवचनोपघातः, भयेन नश्यति शुनि 'कायाः' पृथिवीकायादयो विनाशमापद्यन्ते ततः संयमोपघातश्च ॥ ५०५ ।। सम्प्रति जलस्थितद्वारं पृथिवीस्थितद्वारं चाह15 जो चेव य हरिएसुं, सो चेव गमो उ उदग पुढवीए । ___ य एव गमः प्राग् हरितेषूक्तः स एवोदके पृथिव्यां च वेदितव्यः । इयमत्र भावना-सचिचे उदके साधुरनन्तरप्रतिष्ठितो न परम्परप्रतिष्ठित इत्यादि चतुर्भङ्गी, गभ्यामप्येवं चतुर्भङ्गी, उभयोरपि चतुर्भङ्गी, तदेवं चतुर्भङ्गीत्रयं सचित्ताप्काये । एवं मिश्राप्कायेऽपि चतुर्भङ्गीत्रयमवसातव्यम् । उभयमीलने चतुर्भङ्गीषट्कम् । एवं चतुर्भङ्गीषट्कं पृथिवीकायेऽपि भावनी20 यम् । तत्र सचित्तेऽप्काये साधावनन्तरप्रतिष्ठिते प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, परम्परप्रतिष्ठितेऽपि चतुलघु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे चतुर्लघुके, चरमभङ्गे शुद्धः । गळ्यामप्यनन्तरप्रतिष्ठितायां चतुर्लघु, परम्परप्रतिष्ठितायामपि चतुर्लघु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्लघुके, चरमे शुद्धः । साधु-गज्योरनन्तरप्रतिष्ठितयोढे चतुर्लधुके, परम्परप्रतिष्ठितयोरपि द्वे चतुर्लघुके, उभयोरुभयत्र प्रतिष्ठितयोश्चत्वारि चतुर्लघुकानि, चरमभने शुद्धः । मिश्रेऽप्काये साधावनन्तरप्रतिष्ठिते मासलघु, पर25 म्परप्रतिष्ठितेऽपि मासलघु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे मासलघुके, चरमे शुद्धः । एवं गड्यामपि भन चतुष्टये वक्तव्यम् । साधु-गब्योरनन्तरप्रतिष्ठितयोढे मासलघुके, परम्परप्रतिष्ठितयोरपि द्वे मासलघुके, उभयोरुभयत्र प्रतिष्ठितयोश्चत्वारि मासलघुकानि, चरमभङ्गे शुद्धः । एवं पृथिवीकायेऽपि चतुर्भङ्गीषट्के प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् ॥ सम्प्रति सम्पातिमद्वारं श्यामाद्वारं चाह संपाइमा तसगणा, सामाए होइ चउभंगो ॥ ५०६॥ 30 "संपातिमा" इत्यादि । अथ के नाम सम्पातिमा येषु पतत्सु लेपो न गृह्यते ?, किं त्रसाः स्थावरा वा ? तत्राह–सम्पातिमास्त्रसगणा न स्थावराः । तेषु सम्पातिमेषु पतत्सु यदि लेपं गृहाति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । श्यामा-रात्रिस्तत्र चतुर्भङ्गी, तद्यथा-रात्रौ लेपं गृहाति रात्रावेव च भाजनस्य लेपं ददाति, अत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकास्तपसा कालेन Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५०५-११] पीठिका । १४९ च गुरवः, रात्रौ लेपं गृहीत्वा दिवसे भाजनस्य ददाति चत्वारो लघुकास्तपोगुरुकाः काललघवः, दिवसे लेपं गृहीत्वा रात्रौ भाजनस्य ददाति चत्वारो लघुकास्तपोलघवः कालगुरुकाः, दिवसे गृहीत्वा दिवस एव ददाति शुद्धः ॥ ५०६ ॥ महावातादिद्वारत्रयमाह वायम्मि वायमाणे, महियाए चेव पवडमाणीए।। नाणुण्णायं गहणं, अमियस्स य मा विगिंचणया ॥ ५०७॥ 'वाते' महावाते वाति तथा महिकायां प्रपतन्त्यां लेपस्य ग्रहणं नानुज्ञातं तीर्थकर-गणधरैः, महावाते वाति तदुद्धृतानां त्रस-स्थावराणां लेपसम्पर्कतो विनाशसम्भवात् महिकायां निपतन्त्यामप्कायविराधनात् । तथा अमितस्यापि लेपस्य ग्रहणं नानुज्ञातम् , मा भूद् 'विवेचनिका' परिष्ठापनिकेति कृत्वा । तत्र महावाते वाति लेपं गृहतः प्रायश्चितं चतुर्लधु । महिकायामपि निपतन्त्यां चतुर्लघु । अमितग्रहणे मासलघु ॥ ५०७ ॥ 10 एतदेव प्रायश्चित्तं प्रतिपादयन्नाह चल-जुत्त-वच्छ-महिया-तसेसु सामाएँ चेव चतुलहुगा। . दवचल साण गुरुगा, मासो लहुओ उ अमियम्मि ॥ ५०८॥ भावतश्चले बलीवर्दयुक्ते वत्से निबद्धे तथा महिकायां निपतन्त्यां त्रसेषु सम्पातिमेषु निपतत्सु श्यामायां च लेपं गृह्णतः प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । द्रव्यचले शुनि वा15 स्थिते चत्वारो गुरुकाः । अमिते गृहीते लघुको मासः । विशेषभावना तु प्रतिद्वारं प्रागेव कृता ॥ ५०८॥ एतद्दोसविमुकं, घेत्तुं छारेण अक्कमित्ताणं । चीरेण बंधिऊणं, गुरुमूल पडिकमाऽऽलोए ॥ ५०९॥ ये एते हरितादयोऽनन्तरं दोषा उक्तास्तैर्मुक्तं लेपं गृहीत्वा मा सम्पातिमानां वधो १० भूयात्' [इति ] तं 'क्षारेण' भसना आक्रम्य चीवरेण बद्धा गुरुपादमूलमागच्छति, आगम्य चैर्यापथिकी प्रतिक्रम्यालोचयति ॥ ५०९ ॥ दंसिय छंदिय गुरु सेसए य ओमत्थियस्स भाणस्स । काउं चीरं उवरिं, रूयं च छुमेज तो लेवं ॥५१०॥ आलोच्य लेपं गुरोर्दर्शयति । दर्शयित्वा गुरुं लेपेन 'छन्दयति' निमन्त्रयति । गुरुनिम-25 प्रणानन्तरं शेषकानपि साधून निमन्त्रयति । ततो यावता यस्यार्थस्तस्य तावन्तं दत्त्वा एकस्य भाजनस्य 'अवमन्थितस्य' अवाङ्मुखीकृतस्योपरि चीवरं कृत्वा तत्र लेपं रूतंच प्रक्षिपेत् ॥५१०॥ सम्प्रति लेपदानविधिमाह अंगुट्ट-पएसिणि-मज्झिमाहिं घेत्तुं घणं ततो चीरं ।। आलिंपिऊण भाणं, एकं दो तिन्नि वा घट्टे ॥ ५११ ॥ अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या मध्यमया चाङ्गुल्या लेपं गृहीत्वा घनं च चीवरमादाय तत्र ले प्रक्षिप्य निष्पीडयेत् , निष्पीड्य च एकैकभाजनमेकं द्वौ त्रीन् वा वारान् लेपयेत् । अधिकं १रेणिवं ता० ॥ २ तु तं ची ता० ॥ 30 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णोणे अंकम्मी, अण्णं घट्टेति वारवारेण । आइ तमेव दिणे, दवं रएउं अभत्तट्ठी ।। ५१२ ॥ अन्यस्मिन् भाजने घट्टिते अन्यद् अन्यद् भाजनमङ्के स्थापयित्वा वारंवारेण घट्टयति । तत्र यदि उद्वानो लेपो यदि च तस्य द्रवेण कार्यं समुत्पन्नं स चाऽऽत्मनाऽभक्तार्थी ततः सोऽभतार्थी तस्मिन्नेव दिने पात्रं लेपेनोपरज्य उद्वाने लेपे तेन 'द्रवं' पानीयमानयति । अथ नोद्वानस्ततोऽन्येषामभक्तार्थिनामहिण्डमानानां वा तत् पात्रं समर्प्यन्येन पानीयमानयेत् ॥ ५१२ ॥ अभतीणं दाउ, अण्णेसिं वा अहिंडमाणाणं । हिंडेज्ज असंथरणे, असती घेत्तुं अरइयं तु ॥ ५१३ ॥ यदि स भक्तार्थी न च पात्रस्य लेपोऽद्यापि शुष्कस्ततः 'असंस्तरणे' भोजनमन्तरेण संस्तरीतुमशक्तौ अभक्तार्थिनामन्येषां वा साधूनामहिण्डमानानां तत् पात्रं समर्प्य हिण्डेत । अन्येषामभक्तार्थिनामहिण्डमानानां वा अभावे तद् ' अरञ्जितम्' अद्याप्यपरिणतलेपं गृहीत्वा 15 हिण्डेत ॥ ५१३ ॥ न वरिजा जति तिण्णि उ, हिंडावेउं ततो णु छारेण । ओयत्तेउं हिंडइ, अन्ने व दवं से गिव्हंति ।। ५१४ ॥ यदि त्रीणि पात्राणि हिण्डापयितुं न शक्नोति ततः 'नु' निश्चितं तत् पात्रमुपाश्रये क्षारेण 'अनम्य' स्थगयित्वा हिण्डते । यदि वा 'से' तस्य योग्यं द्रवमन्ये गृह्णन्ति ततो रिक्तपात्रव20 हने न कश्चिद्वार इत्यदोषः ॥ ५१४ ॥ 10 १५० सनिर्युक्ति-भाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः तु पट्टकनिमित्तं सतकं पेषयेत् । अथ न दातव्योको यदि वा तत्राप्युद्धरितः ततः सरूतकं तं क्षारे परिष्ठापयेत् । अन्यच्चान्यच्च भाजनं लिह्वाऽन्यदन्यद् वारंवारेण वट्टणपाषाणेन घट्टयति ॥ ५११ ॥ तथा चाह लित्थारियाणि जाणि उ, घट्टगमादीणि तत्थ लेवेण । संजमभूतिनिमित्तं, ताइं भूईऍ लिंपिज्जा ।। ५१५ ।। 'तत्र' पात्रलेपने यानि लेपेन घट्टकादीनि 'लेत्थारियाणि देशीपदमेतत् खरण्टितानि 'संजमभूतिनिमित्तं' संयमविभूतिहेतोः 'भूत्या' क्षारेण तानि लिम्पेद् येन तत्संस्पर्शतस्त्रसानां 26 स्थावराणां वा विनाशो न भवति ॥ ५१५ ॥ 30 एवं लेवरगहणं, आणयणं लिंपणाय जयणा य । भणियाणि अतो वोच्छं, परिकम्मविहिं तु लित्तस्स ॥ ५९६ ॥ 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण लेपस्य ग्रहणम् आनयनं पात्रस्य लेपनाय सर्वत्र यतना एतानि भणितानि । अत ऊर्द्धं पुनर्लिप्तस्य परिकर्मविधिं वक्ष्यामि ॥ ५१६ ॥ तमेवाभिधातुकाम आह— लित्ते छाणिय छारो, घणेण चीरेण बंधिउं उन्हे | उव्वत्तण परियत्तण, अंछिय धोए पुणो लेवो ॥। ५१७ ॥ पात्रे लिसे सति यः 'क्षाणित : ' गालितः 'क्षार: ' भस्म स तत्र प्रक्षिप्यते, ततो घनेन १ अक्कमिडं अण्णं ता० ॥ २ असहू घेत्तुं ता० ॥ ३ उच्चण्णेउं ता० ॥ ४ लेवे ता० ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ :10 भाष्यगाथाः ५१२-२२] पीठिका। चीरेण बद्धा उप्णे ध्रियते, तत्र च पात्रस्योद्वर्तनं परिवर्तनं च तावत् कर्तव्यं यावद लेपः शुष्को भवति, ततः पात्रम् 'अञ्छयते' आकृप्यते, आकृष्य पानीयेन प्रक्षाल्यते, ततः प्रक्षालिते सति पुनरपि लेपो दीयते ॥ ५१७ ॥ काउं सरयत्ताणं, पत्ताधं अबंधगं कुज्जा। साणाइरक्खणट्ठा, पमन्ज छाउण्हसंकमणा ।। ५१८॥ पात्रे भूयो लिप्ते सति तस्योपरि 'सरजस्त्राणं' रजस्त्राणसहितं पात्राबन्धम् 'अबन्धकम्' अग्रन्थिकं कुर्यात् । कस्मादबन्धकं कुर्याद् ? अत आह—श्वादिरक्षणार्थ' शुन आदिशब्दान्मर्कट-मार्जारादिभ्योऽपि रक्षणार्थम् , अन्यथा हि ग्रन्थौ दत्ते सपात्रबन्धं पात्रं श्वादिभिर्नीयते । तथा छायायामुप्णे च पात्रस्य 'सङ्क्रमणे(गा)' प्रमृज्य तत् पात्रं स्थापयितव्यम् ॥५१८॥ तद्दिवसं पडिलेहा, कुंभमुहादीण होइ कायव्वा । - छण्णे य निसिं कुजा, कयकजाणं विवेगो उ ॥ ५१९ ॥ __ यस्मिन् दिने पात्रलेपनं तस्मिन्नेव दिवसे 'कुम्भमुखादीनां' घटकण्ठादीनाम् आदिशब्दात् स्थालीकण्ठादिपरिग्रहः 'प्रत्युपेक्षा भवति कर्तव्या' कुटकण्ठादीनि तस्मिन् दिने आनेतन्यानीत्यर्थः । किमर्थम् ? इत्यत आह-'निशि' रात्रौ तेषामुपरि छन्ने प्रदेशे लिप्तानि पात्राणि कुर्यादित्येवमर्थम् । तदनन्तरं तेषां घटमुखादीनां कृतकार्याणां 'विवेकः' परिष्ठापनिका ॥५१९॥ 15 अट्टगहेउं लेवाहिगं तु सेसं सरूयगं पीसे । अहवा वि न दायबो, सरूयगं छारे तो उज्झे ॥ ५२०॥ 'शेषम्' अधिकं लेपम् 'अट्टकहेतोः' अट्टकनिमित्तं सरूतकं पेषयेत् । अथवाऽपि न दातव्योऽट्टकस्ततस्तमधिकं सरूतकं लेपं 'क्षारे' भस्मनि 'उज्झेत्' परिष्ठापयेत् । अयं चार्थो यत्र भणितुमुचितस्तत्र प्रागेवोपदर्शितः (गा० ५११)। सम्प्रति तु गाथाक्रमानुलोमत उक्तः ।।५२०।। 20 पढम-चरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वजित्ता । पायं ठवे सिणेहादिरक्खणट्ठा पवेसे वा ॥ ५२१ ॥ ___ 'शिशिरे' शीतकाले प्रथमचरमे पौरुष्यौ वर्जयित्वा 'ग्रीष्मे' उष्णकाले 'तयोः' प्रथमचरमपौरुप्योरर्द्धमई वर्जयित्वा पात्रमुप्णे स्थापयेत् । प्रथमचरमपौरुप्यादिकाले तु मध्ये प्रवेशयेत् । किमर्थम् ? इत्याह- स्नेहादिरक्षार्थ' स्नेहः-अवश्यायः आदिशब्दाद् महिका-हिम- 25 वर्षादिपरिग्रहः तद्रक्षणार्थम् । इयमत्र भावना-शिशिरकाले प्रथमायां पौरुष्यामतिकान्तायामुप्णे ददाति, चरमायां तु पौरुष्यामनवगाढायां मध्ये प्रवेशयति, अन्यथा शिशिरकाले कालस्य स्निग्धतया प्रथमायां चरमायां च पौरुष्यामवश्यायादिपतनभावतो लेपविनाशप्रसकात् । उप्णकाले तु प्रथमायाः पौरुप्या अर्धेऽपक्रान्ते पात्रमुष्णे दद्यात् , चरमायास्तु पौरुप्याः पश्चिमेऽद्धेऽनवगाढे मध्ये प्रवेशयेत् , कालस्य रूक्षतया तत ऊर्दू पश्चाचावश्यायादि- 30 सम्भवात् ॥ ५२१॥ उवयोगं च अभिक्खं, करेति वासादि-साणरक्खड़ा । १ पात्रब° डे० त० ॥ २ °रकालस्य डे० ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः वावारेति व अण्णे, गिलाणमादीसु कजेसु ॥ ५२२ ॥ उष्णे च पात्रे दत्ते सति स वर्षादिभ्यो रक्षणार्थम् , वर्ष-वृष्टिः आदिशब्दाद् हिमप्रपातादिपरिग्रहः, श्वा-कुक्कुरस्तद्रक्षणार्थम् 'अभीक्ष्णम्' अनवरतमुपयोगं करोति । यदि वा ग्लानादिप्रयोजनेषु समापतितेष्वन्यान् साधून व्यापारयति, स तु तत्रैव रक्षयन् तिष्ठति ॥५२२॥ । अथ कियन्तः पात्रस्य लेपा दीयन्ते ? इत्याह एको ये जहनेणं, विय तिय चत्तारि पंच उक्कोसा। संजमहेउं लेवो, वजित्ता गारव विभूसं ॥ ५२३ ॥ पात्रस्य संयमहेतोर्जघन्येनैको लेपो दातव्यः, मध्यमतो द्वौ त्रयो वा, उत्कर्षतश्चत्वारः पञ्च वा वर्जयित्वा गौरवं विभूषां च । गौरवेणात्मनो महर्द्धिकत्वमननलक्षणेन विभूषया वा न लेपो 10 दातव्यः, किन्तु संयमस्फातिनिमित्तमिति ॥ ५२३ ॥ अणवटुंते तह वि उ, सव्वं अवणेत्तु तो पुणो लिंपे। तजाय सचोप्पडयं, घट्ट रएउं ततो धोवे ॥ ५२४ ॥ उत्कर्षतः पञ्चखपि लेपेषु यदि स लेपः नावतिष्ठते-न पात्रेण सह लोलीभवति 'ततः' तस्मिन्ननवतिष्ठमाने सर्व लेपमपनीय ततः पुनर्मूलतः पात्रं लिम्पेत् यथा स लेपोऽवतिष्ठते । 16 "तज्जाए"त्यादि । इह यद् अलाब्वादिपानं तैलादिना 'सचोप्पडं' सस्नेहं तत्र च धूलिः प्रभूता लमा तं लेपं घट्टकपाषाणेन घट्टयित्वा तद्गतेनैव च लेपेन भूयस्तत् पात्रं रञ्जयित्वा ततः प्रक्षालयति एष तज्जातो नाम लेपः ॥ ५२४ ॥ सम्प्रति लेपस्यैव भेदानाह तजाय-जुत्तिलेवो, दुचकलेवो य होइ नायव्वो। मुद्दियनावाबंधो, तेणगबंधो य पडिकुट्ठो ॥ ५२५ ॥ 20 त्रिविधो लेपो भवति ज्ञातव्यः, तद्यथा-तज्जातलेपो युक्तिलेपो द्विचक्रलेपश्च । द्विचक्रलेपो नाम शकटलेपः । तत्र लिप्यमानं लिप्तं वा यदि पात्रं कथमपि भङ्गमामुयात् ततोऽन्यस्याभावे मुद्रितनौबन्धेन बध्नीयात् न स्तेनकबन्धेन, यतो मुद्रितनौबन्ध एव तीर्थकरैरनुज्ञातः स्तेनकबन्धस्तु प्रतिक्रुष्टः ।। ५२५ ॥ साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुस्तज्जातलेपस्य प्राग्व्याख्यातत्वात् शेषपदव्याख्यानार्थमाह जुत्ती उ पत्थरायी, पडिकुट्ठा सा उ सन्निही काउं । _दय सुकुमाल असन्निहि, दुचकलेवो अतो इट्ठो ॥ ५२६ ॥ 'युक्तिः' पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् युक्तिलेपः 'प्रस्तरादिः' प्रस्तरादिकृतः, आदिशब्दाच्छर्करा-लोहकिट्ट-केदारमृत्तिकादिपरिग्रहः, सा च युक्तिः सन्निधिरिति कृत्वा तीर्थकर गणधरैः 'प्रतिकुष्टा' निराकृता । तज्जातलेपश्च कदाचिदवाप्यते । तत एतेषु लेपेषु मध्ये शक30 टलेपः सुन्दरः, यतस्तस्मिन् सुकुमारतया पानजातयो जन्तवः स्पष्टा दृश्यन्ते, दृश्यमानेषु च तेषु दया (दयां) कत्तुं शक्यते, न च तत्र सन्निधिदोषः, अतः सुन्दरत्वात् स एव द्विचक्रलेप इष्टः ॥ ५२६ ॥ १ उ ता० ॥ २ चउरोय पंच ता० ॥ OD Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५२२-३०] पीठिका । १५३ संजमहेउं लेवो, न विभूसाए वयंति तित्थयरा । सति-असतीदिटुंतो, विभूसाए होंति चउगुरुगा ॥ ५२७ ॥ लेपः पात्रस्य दातव्यः संयमहेतोर्न विभूषया, उपलक्षणमेतत् , नापि गौरवेण इति भगवन्तस्तीर्थकरा वदन्ति । संयमहेतोः पुनर्दीयमाने लेपे यदि विभूषा भवति तथापि सा संयमहेतुरेव । अत्र सत्या असत्याश्च दृष्टान्तः । तथाहि-सत्यप्यात्मानं विभूषयति असत्यपि, केवलं सती कुलाचारनिमित्तमात्मानं विभूषयतीति तुल्यमपि तद्विभूषणमदुष्टम् , इतरा जारतोषणनिमित्तमिति दोषवत् । एवं यथा सत्यसत्यौ तथा साधू, यथा विभूषणं तथा लेपः, यथा कुलाचारस्तथा संयमः, यथा जारतोषणं तथा असंयमः । विभूषया लेपं ददतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, उपलक्षणमेतत् , तेन गौरवेणापि ददत एतत् प्रायश्चित्तमवसातव्यम् । उक्तश्च 10 संजमहेऊ लेवो, न विभूसा गारवेण वा देयो। चउगुरुग विभूसाए, लिंपिते गारवेणं वा ॥ ॥ ५२७॥ मिज्जिज लिप्पमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे। मुद्दियनावाबंधे, न तेणबंधेण बंधेजा ॥ ५२८॥ तत् पात्रं लिप्यमानं लिप्तं वा कथमपि हस्तपतनादिना भिद्यत न चान्यत् पात्रं विद्यते 15 ततस्तत् पात्रं भूयो मुद्रितनौबन्धेन बनीयात् न तेनकबन्धेन ॥ ५२८॥ सम्प्रति लेपस्य जघन्यादिभेदानाह खर अयसि-कुसुंभ सरिसव, कमेण उक्कोस मज्झिम जहन्नो। नवणीए सप्पि वसा, गुले य लोणे अलेवो उ ॥ ५२९ ॥ खरसंज्ञकेन तिलतैलेन यो लेपः स उत्कृष्टः, अतसीतैलेन कुसुम्भतैलेन च मध्यमः, सर्ष-20 पतैलेन जघन्यः । उक्तञ्च सो पुण लेवो खरसन्हएण उक्कोसओ मुणेयबो । अयसि-कुसुंभिय मज्झो, सरिसवतिल्लेण य जहन्नो ॥ 'नवनीतेन' म्रक्षणेन 'सर्पिषा' घृतेन वसया च निर्वृत्तो लेपोऽलेपो ज्ञातव्यः, तस्य पात्रे सम्यग् लगनाभावाद् जुगुप्सितत्वाच्च । तथा गुडभृतेषु लवणभृतेषु वा शकटेषु तिलतैलनक्षि-25 तेष्वपि यो लेपः सोऽप्यलेपः, तस्यापि लवणाद्यवयवयोगतोऽप्रशस्तत्वात् ॥ ५२९ ॥ तदेवमुक्तो लेपस्य विधिः । साम्प्रतं लेपकल्पिकमाह पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति । आलोयायरियादी, आयरिओ विसोहिकारो से ॥ ५३० ॥. यस्मादजानतः प्रायश्चित्तं तस्माद् येन ओपनियुक्तिसूत्रम् इयं वा कल्पपीठिका पठिता 30 स्यात् श्रुता वा 'गुणिता' अत्यन्तखभ्यस्तीकृता स्याद् अगुणिता वा सा धारिता वा स्याद् १ गाथेयं चूर्णौ भिजिज. ५२८ गाथाऽनन्तरं व्याख्याताऽस्ति ॥ २°तो भूसा ता० ॥ ३ तेण एणं तु बं° ता० ॥ Jain Education Internation० २० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः अधारिता वा तथापि चेदुपयुक्तः सन् सूत्रोक्तप्रकारेण लेपं परिहरति' परिभोगयति स लेपकल्पिकः । तेन च लेपसूत्रेण पठितेनापठितेन वा गुणितेनागुणितेन वा धारितेनाधारितेन वा उपयुक्ते वाऽनुपयुक्ते वा यां विराधनामापद्यते तामाचार्यादेः पुरत आलोचयति, प्रथमत आचार्यस्य, तदभावे उपाध्यायादेरपि । आलोचिते च "से" तस्य प्रायश्चित्तप्रदानेन विशोधि 5 कारक आचार्यः ॥ ५३० ॥ उक्तो लेपकल्पिकः । सम्प्रति पिण्डकल्पिकमाहपिण्डक अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। ल्पिकः दोहिँ गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ।। ५३१ ॥ सूत्रं नाम प्रागासीदाचारगतं पिण्डैपणाध्ययनम् , इदानीं तु दशवैकालिकगतं पिण्डैपणाध्ययनम् , तस्मिन् 'अप्राप्ते' अपठिते यदि पिण्डस्यानयनाय तं प्रेषयति तदा तस्य प्राय10श्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, कथम्भूताः ? इत्याह-द्वाभ्यां गुरवः, तद्यथा-तपसाऽपि गुरुकाः कालेनापि च गुरुकाः । अथ सूत्रं प्राप्तस्तथापि यदि तस्यार्थमकथयित्वा प्रेषयति तदा चत्वारो लघुकाः, नवरमेकेन कालेन लघवः । अथ कथितोऽर्थः परं नाद्याप्यधिगतः अथवाऽधिगतः परमद्यापि न तं सम्यक् श्रद्दधाति तमनधिगतार्थमश्रद्दधानं वा प्रेषयतश्चत्वारो लघुकास्तपसै केन लघवः । अथाधिगतार्थमप्यपरीक्ष्य प्रेषयति तदा चत्वारो लघुका द्वाभ्यां लघवः, 16 तद्यथा-तपसा कालेन च ॥ ५३१ ॥ यत एवं प्रायश्चित्तमतः पढिए य कहिय अहिगय, परिहरती पिंडकप्पितो एसो। तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहरनवगेण भेदेणं ॥ ५३२ ॥ पिण्डैपणाध्ययने पठिते तस्यार्थे कथिते तेन चाधिगते उपलक्षणमेतत् सम्यक् अद्धिते च यः 'त्रिविधम्' उद्गमशुद्धमुत्पादनाशुद्धमेषणाशुद्धं 'त्रिभिः' मनोवाकायैर्विशुद्धं परि20 हारविषयेण नवकेन भेदेन परिहरति, तद्यथा-मनसा न गृह्णाति नाप्यन्यैाहयति न च गृहन्तमनुजानीते, एवं वाचा कायेनापि प्रत्येकं त्रिकं त्रिकमवसातव्यम् , एष पिण्डकल्पिकः । अत्र पिण्डनियुक्तिः सर्वा वक्तव्या, सा च ग्रन्थान्तरत्वात् स्वस्थाने एव स्थिता प्रतिपत्तव्या ॥ ५३२ ॥ इह तु षोडशानामुद्गमदोषाणां प्रायश्चित्तमभिधित्सुराह गुरुगा अहे य चरमतिग मीस बायर सपञ्चवायहडे । __ कड पूइए य गुरुगो, अज्झोयरए य चरमदुगे ॥ ५३३ ॥ "अहे य"त्ति आधाकर्म गृह्णतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । “चरमतिय"त्ति औद्देशिक द्विविधम्-ओघेन विभागेन च; तत्र विभागतो द्वादशविधम् , तद्यथा-उद्दिष्टं कृतं कर्म च; उद्दिष्टं चतुर्विधम्-औदेशिकं समुद्देशिकमादेशिकं समादेशिकं च; कृतमपि चतुर्विधम् , तद्यथा-उद्देशकृतं समुद्देशकृतमादेशकृतं समादेशकृतं च; कर्मापि चतुःप्रकारम् , तद्यथा-उद्दे. 30 शकर्म समुद्देशकर्म आदेशकर्म समादेशकर्म च; त्रयश्चतुष्कका द्वादश । इह यावन्तः केचन भिक्षाचराः समागच्छन्ति तावतः सर्वान् उद्दिश्य यत् क्रियते तद् उद्देशिकमुच्यते, पाषण्डिन उद्दिश्य क्रियमाणं समुद्देशम् , श्रमणानुद्दिश्याऽऽदेशम्, निर्ग्रन्थानधिकृत्य समादेशम् । उक्तञ्च१°तो सो उ ता० ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५३१ - ३ '५ ] पीठिका | जातिय उद्देसो, पासंडीणं भवे समुद्देसो । समणाणं आदेसो, निग्गंथाणं समादेसो ॥ १५५ एतस्मिन् द्वादशविधे विभागोद्देशिके यत् चरमं त्रिकं - समुदेशकर्म आदेशकर्म समादेशकर्म च तत्र गृह्यमाणे प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः तपः - कालविशेषिताः । “मीस "त्ति मिश्रजातं त्रिविधम्- यावन्तिकमिश्रं पाषण्डिकमिश्रं स्वगृहमिश्रं च तत्र पाषण्डिमिश्रे खगृहमिश्रे च5 प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः तपः - कालगुरवः । " बायर "त्ति द्विविधा प्राभृतिका - सूक्ष्मा बादरा च; तत्र वादरायां गृह्यमाणायां चत्वारो गुरुकाः । “सपच्चवा यह डे" ति यत्र यत्र ग्रामादौ सपत्यपायमभ्याहृतं तत्र तत्र चत्वारो गुरुकाः । तदेवं येषूनम मेदेषु गुरुकास्ते उक्ताः, सम्प्रति येषु मासगुरु तान् प्रतिपादयति - "कड पूइए य" इत्यादि । कृते उद्देशिके चतुःप्रकारेऽपि प्रत्येकं मासगुरुकं तपः-कालविशेषितम्, तद्यथा - यावन्तिके मासगुरु, समुद्देशकृते तपोगुरुकं 10 मासगुरु, आदेशकृते कालगुरुकं मासगुरु, समादेशकृते मासगुरु द्वाभ्यां गुरुकं तपोगुरुकं कालगुरुकं च । “पूतिए "त्ति भावपूतिकं द्विविधम् - सूक्ष्मं बादरं च; तत्र सूक्ष्मे नास्ति प्रायश्चित्तम् ; बादरं द्विविधम् - उपकरणे भक्तपाने च; अत्र भक्तपानपूतिके मासगुरु । “अज्झोयरए य चरमदुगे”त्ति अध्यवपूरकं त्रिविधम्, तद्यथा - यावन्तिकमध्यवपूरकं पाषण्डाध्यवपूरकं खगृहाध्यवपूरकं च; तत्र पाषण्डाध्यवपूरके खगृहाध्यवपूरके च प्रत्येकं मासगुरु 15 ॥ ५३३ ॥ उक्तानि गुरुकप्रायश्चित्तानि । अधुना लघुकप्रायश्चित्तान्यभिधित्सुराह - ओह - विभागुद्देसे, चिरठविए पागडे य उवगरणे । लोगुत्तर. पामिच्चे, परियट्टिय कीय परभावे ।। ५३४ ॥ सग्गामभिहडि गंठी, जहन्न जावंति ओयरे लहुओ । इत्तर विए सुहुमा, पणगं लहुगा य सेसेसु ।। ५३५ ॥ ओघौद्देशिके मासलघु । विभागौद्देशिके- उद्देशे मासलघु, समुद्देशे मासलघु तपोगुरु, आदेशे मासलघु कालगुरु, समादेशे मासलघु द्वाभ्यां गुरु । स्थापितं द्विविधम्- चिरस्थापितमित्वरस्थापितं च; तत्र चिरस्थापिते मासलघु । प्रादुष्करणं द्विविधम्- प्रकटकरणं प्रकाश करणं. [च]; तत्र प्रकटकरणे मासलघु । उपकरणपूतिके मासलघु । प्रामित्यं द्विविधम्-लौकिकं लोकोत्तरिकं च; लोकोत्तरिके मासलघु । परिवर्तितमपि द्विधा - लौकिकं लोकोतरिकं च; 25 तत्र लोकोत्तरिके परिवर्त्तिते मासलघु । क्रीतं द्विविधम् - द्रव्यक्रीतं भावक्रीतं च; तत्र द्रव्यक्रीतं द्विविधम्-आत्मद्रव्यक्रीतं परद्रव्यक्रीतं च; भावक्रीतमपि द्विधा - आत्मभावक्रीतं परभावक्रीतं च; तत्र परभावक्रीते मासलघु । स्वग्रामाभ्याहते मासलघु । “गठि" त्ति ग्रन्थिपिहितमुच्यते, यत्र गुड-घृतादिभाजनमुखे पोतेन चर्मणा वा स्थगयित्वा दवरकेणोपरि ग्रन्थिर्दीयते, ग्रन्थिस - हिता मुद्रा वा तदुपचाराद् ग्रन्थिरित्यर्थः, तस्मिन्नुद्भिद्यमाने मासलघु । मालापहृतं द्विवि - 30 धम्-जघन्यमुत्कृष्टं च; तत्र जघन्ये मालापहृते मासलघु । तथा यावन्तिकेऽध्यवपूर के मासलघु । तदेवं यत्र यत्र मासलघु तत् तत् स्थानमुक्तम्, इदानीं ययोः पश्च रात्रिन्दिवानि ते वदति - " इत्तर विए" इत्यादि । इत्वरस्थापिते पञ्च रात्रिन्दिवानि । सूक्ष्मप्राभूति काया - 20 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः मपि पञ्च रात्रिन्दिवानि । "लघुका य सेसेसु"त्ति येऽन्ये उद्गमदोषास्तेषु सर्वेष्वपि प्रत्येक चत्वारो लघुकाः, तद्यथा-औदेशिके कर्मणि १ यावन्तिके मिश्रजाते २ प्रकाशकरणे ३ आत्मद्रव्यक्रीते ४ परद्रव्य(ग्रन्थानम्-४०००)कीते ५ आत्मभावक्रीते ६ लौकिकेऽपमित्ये ७ लौकिके परिवर्तिते ८ परग्रामाभ्याहृते निष्प्रत्यपाये ९ पिहितोद्भिन्ने १० कपाटो6 द्भिन्ने ११ उत्कृष्ट मालापहृते १२ आच्छेद्ये १३ अनिसृष्टे १४ एतेषु चतुर्दशसु स्थानेषु चत्वारो लघुकाः ॥ ५३४ ॥ ५३५॥ तदेवमुक्तमुद्गमदोषेषु प्रायश्चित्तम् । इदानीमुत्पादनादोषेषु तदभिधित्सुराह दुविह निमित्ते लोमे, गुरुगा मायाऍ मासियं गुरुयं । सुहुमे वयणे लहुओ, सेसे लहुगा य मूलं च ॥ ५३६ ॥ 10 निमित्तं त्रिविधम्-अतीतविषयं प्रत्युत्पन्नविषयमनागतविषयं च; तत्र 'द्विविधे निमित्ते' प्रत्युत्पन्न विषयेऽनागतविषये च तथा लोभे च प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । मायायां मासगुरु । 'सूक्ष्मे' [सूक्ष्म चैकित्स्ये वचनसंस्तवे च प्रत्येकं लघुको मासः । शेषेषु तु समस्तेषूत्पादनादोषेषु प्रत्येकं चत्वारो लघवः, नवरं मूलकर्मणि मूलम् ॥ ५३६ ॥ __ सम्प्रति दशस्त्रेषणादोषेषु प्रायश्चित्तमाह ससरक्खे ससिणिद्धे, पणगं लहुगा दुगुंछ संसत्ते । उकुट्टऽणते गुरुगो, सेसे सव्वेसु मासलहू ॥ ५३७ ॥ शङ्किते-पञ्चविंशतेोषाणां मध्ये यत् शक्कितं तन्निष्पन्नमापद्यते प्रायश्चित्तम् । म्रक्षिते-- 'सरजस्केन' सचित्त-मिश्रपृथिवीकायरजोम्रक्षितेन हस्तेन मात्रकेण वा भिक्षां गृह्णतः पञ्च रात्रिन्दिवानि; सचित्त-मिश्राप्कायस्निग्धेन हस्तेन मात्रकेण वा भिक्षामाददानस्य पञ्च रात्रिन्दि. 20 वानि; अचिचेन जुगुप्सितेन-विष्ठा-मूत्र-मद्य-मांस-लशुन-पलाण्डुप्रभृतिना प्रेक्षिते गृह्यमाणे चत्वारो लघुकाः; गुड-घृत-तैलादिभिरपि कीटिकासंसक्तैर्मक्षितमाददानस्य चत्वारो लघवः; पुरःकर्मणि पश्चात्कर्मणि च चतुर्लघुकाः, अन्ये मासलघु प्रतिपन्नवन्तः; उत्कुट्टितेऽनन्ते सचित्ते वनस्पतिकायिके मासगुरु; चूर्णेऽप्यनन्ते सचित्ते मासगुरु; "सेसे सवेसु मासलहू" परीते प्रत्येके कुट्टिते चूणे वा प्रत्येकं मासलघु; मिश्रे परीते सर्वत्र मासलघु; अनन्ते 25 मासगुरु; तथा मृत्तिकालिप्तहस्ते यावन्तः सेटिकादयो मृत्तिकाया भेदास्तेषु सर्वेषु मासलघु ॥ ५३७ ।। निक्षिप्ते प्रायश्चित्तमाह चउलहुगा चउगुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरुगं । छसु परितऽणंत मीसे, बीए य अणंतर परे य ॥ ५३८ ॥ प्रत्येकसचित्तानन्तरप्रतिष्ठितमाददानस्य चत्वारो लघुकाः, प्रत्येकसचित्तपरम्परप्रतिष्ठितमपि 50 चत्वारो लघवः । अनन्तसचित्तानन्तरप्रतिष्ठितमाददानस्य चत्वारो गुरुकाः, अनन्तसचित्तपरम्परप्रतिष्ठितमपि गृह्णतश्चत्वारो गुरुकाः । प्रत्येकमिश्रेऽनन्तरप्रतिष्ठितं परम्परप्रतिष्ठितं वा गृहतो मासलघु । अनन्तमिश्रेऽनन्तरं परम्परया वा प्रतिष्ठितमाददानस्य मासगुरु । बीजेषु १°भ्रक्षितेन गृ° डे० भा० ॥ २ चत्वारो गुरुकाः डे० त०॥ ३ मासगुरु डे० त०॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 भाष्यगाथाः ५३६-३९] पीठिका। १५७ परीतेष्वनन्तरं परम्परं वा प्रतिष्ठितं गृह्णतः पञ्च रात्रिन्दिवानि लघुकानि, अनन्तेषु गुरुकाणि । अन्ये तु ब्रुवते-प्रत्येकमिश्रेऽनन्तरं परम्परं वा प्रतिष्ठितमाददानस्य लघु रात्रिन्दिवपञ्चकम् , अनन्तमिश्रेऽनन्तरं परम्परं वा प्रतिष्ठितं गृह्णतो गुरुकमिति । तथाऽपरे—प्रत्येके सचित्तमनन्तरप्रतिष्ठितं गृह्णतश्चतुर्लघवः, परम्परप्रतिष्ठितं मासलघु; तथा प्रत्येके मिश्रेऽनन्तरप्रतिष्ठितमाददानस्य लघुको मासः, परम्परप्रतिष्ठितं गृह्णतो लघु रात्रिन्दिवपञ्चकम् ; अनन्ते। मिश्रेऽनन्तरप्रतिष्ठिते मासगुरु, परम्परप्रतिष्ठिते गुरु रात्रिन्दिवपञ्चकमिति । उक्तञ्च पुढवी आऊ तेऊ, [य] परिते चेव तह य वणकाये । चउलहु अणंतरम्मी, सच्चित्ते परंपरे मासो॥ मीसाणंतर लहुगो, लहुपणग परंपरे परितेसु । एए चेव य गुरुगा, होति अणंते पइट्ठाणे ॥ इति। 10 त्रसकायेऽनन्तरप्रतिष्ठितं गृह्णतश्चतुर्लघुकम् , परम्परप्रतिष्ठितं गृह्णतो मासलघु; "तसकाये चतुलहुगा, अणंतर परंपरहिए लहुगो" इति वचनात् ॥ ५३८ ॥ एवं षड्जीवनिकायेषु प्रत्येकेऽनन्ते मिश्रे च पृथिव्यादौ बीजे च प्रत्येकेऽनन्ते मिश्रे चानन्तरं परम्परं च प्रतिष्ठितमाददानस्य प्रायश्चित्तमिति । अधुना पिहितं संहरणं चाधिकृत्य प्रायश्चित्तमाह एमेव य पिहियम्मी, लहुगा दवम्मि चेव अपरिणए । 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण पिहितेऽपि प्रायश्चित्तं वक्तव्यम् । किमुक्तं भवति :-यथा निक्षिप्ते प्रायश्चित्तमुक्तमेवं येन द्रव्येण सचित्तेनाचित्तेन मिश्रेण वाऽनन्तरं परम्परकं वा पिधीयते तत्रापि द्रष्टव्यम् , नवरमचित्तेन गुरुकेण पिहिते गृह्णतश्चतुर्गुरुकम् । संहरणे-येन मात्रकेण भिक्षा दातुकामस्तत्र यदि किञ्चित् प्रक्षिप्तं वर्तते तदन्यत्र संहृत्य ददाति तच्च संहियमाणमद्याप्यपरिणतं तस्मिन्नपरिणते द्रव्ये संहृते गृह्णतश्चत्वारो लघुकाः । दायके-प्रगलिते 20 नपुंसके चत्वारो गुरुकाः, पिञ्जन-कर्तन-लक्ष्णखण्डकरण-प्रमर्दनप्रवृत्तेषु प्रत्येक मासलघु, शेषेषु दायकदोषेषु चत्वारो लघुकाः । उन्मिश्रे-सचितानन्तमिश्रे चतुर्गुरु, मिश्रानन्तमिश्रे मासगुरु, सचित्तप्रत्येकमिश्रे चतुर्लघु, प्रत्येकमिश्रमिश्रे मासलघु ॥ वीसुम्मीसे पणगं, अणंतवीए य पणग गुरू ।। ५३९ ॥ 'विष्वगुन्मिश्रे' प्रत्येकवीजोन्मिश्रे लघु रात्रिन्दिवपञ्चकम् , अनन्तबीजोन्मिश्रे गुरु रात्रि-25 न्दिवपञ्चकम् । अपरिणते-द्रव्यापरिणते कायनिष्पन्नम् , ये कायाः प्रत्येकरूपा अनन्तरूपा वा अपरिणतास्तन्निष्पन्नमित्यर्थः। तत्र पृथिव्यादिष्वपरिणतेषु चतुर्लघुकम्, अनन्तेष्वपरिणतेषु चतुर्गुरु । उक्तञ्च दवापरिणते चउलहु, पुढवादी चउगुरू अणंतेसु । "भावापरिणते दोण्हं तु भुजमाणाणमेगो तत्य निमंतए"दश.अ. ५.उ.१गा.३७ इत्येवंरूपे लघुको मासः, “भावा-30 परिणते लघुगो" इति वचनात् । लिप्ते-आयेषु त्रिषु भङ्गेषु चत्वारो लघुकाः, चरमभङ्गेऽनेषणायां चतुर्गुरवः । छर्दिते-आयेषु त्रिषु भङ्गेषु प्रत्येकं चतुर्लघुकम्, चरमभङ्गेऽनाचीर्णम् ॥५३९॥ १ अनन्तेऽन त० विना ॥ २ बीउम्मीसे ता० ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १५८ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः संजोग सइंगाले, अणंतमीसे वि चउगुरू होति ।। वीसुम्मीसे मासो, सेसे लघुका उ सव्वेसु ॥ ५४०॥ संयोजना द्विविधा-अन्तर्बहिश्च; तत्रान्तःसंयोजनायां चत्वारो लघवः, बहिःसंयोजनायां चत्वारो गुरुकाः । अन्ये त्वन्तर्बहिर्वा संयोजनायां चत्वारो गुरुका इति प्रतिपन्नाः । प्रमाणा5 तिरिक्तमाहारयति चत्वारो लघवः । “सइंगाले"ति साङ्गारे आहार्यमाणे चत्वारो गुरुकाः । सधूमे चतुर्लघु । निष्कारणे चतुर्लघु । सचित्तानन्तमिश्रे चतुर्गुरुकम् ; एतच्च प्रागेव स्वस्थानेऽभिहितम् । तथा 'विष्वगुन्मिश्रे' पृथिवीकायादिभिः प्रत्येकैर्मिघैरुन्मिने लघुको मासः, अनन्तैरुन्मिश्रे गुरुकः । "सेसे लहुगा उ सबेसु" 'शेषेषु सर्वेष्वपि' ग्रहणैषणाभेदेषु ग्रासैषणाभेदेषु च चत्वारो लघुकाः, ते च तथैव योजिताः ॥ ५४० ॥ 10 गतः पिण्डकल्पिकः । सम्प्रति शय्याकल्पिकमाह दुविहाँ हवंति सेजा, दवे भावे य दव्य खायाती । शय्याकल्पिकः साहूहिँ परिग्गहिया, ते चेव उ भावओ सेजा ॥ ५४१॥ द्विविधा भवन्ति शय्याः-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतः 'खातादयः' खातमुच्छ्रितं खातोच्छूितं च । एता द्रव्यशय्याः साधुभिः परिगृहीता भावतः शय्या भवन्ति ॥ ५४१ ।। रक्खण गहणे तु तहा, सेजाकप्पो उ होइ दुविहो उ ।। सुन्ने बाल गिलाणे, अव्वत्ताऽऽरोवणा भणिया ॥ ५४२ ॥ शय्यायां कल्पते इति शय्याकल्पः शय्याकल्पिक इत्यर्थः । स द्विविधः-तस्या भावशय्याया रक्षणे ग्रहणे च । तत्र रक्षणे प्रोच्यते-वसतिनियमतस्तावद् रक्षयितव्या, यदि पुनर्मि क्षादिप्रयोजनतो गच्छन्तः शून्यां वसतिं कुर्वन्ति बालं ग्लानमव्यक्तं वा वसतिपालं स्थापयन्ति 20 तदा 'आरोपणा' प्रायश्चित्तं भणिता ॥ ५४२ ॥ तामेवोपदर्शयति पढमम्मि य चउलहुँया, सेसेसुं मासियं मुणेयव्वं । दोहि गुरू इक्केणं, चउथपए दोहि वी लहुयं ॥ ५४३॥ प्रथममिह गाथाक्रमप्रामाण्यात् शून्यमुच्यते । यदि शून्यां वसतिं कुर्वन्ति तदाऽऽरोपणा चत्वारो लघुका द्वाभ्यां गुरवः, तद्यथा-तपोगुरुकाः कालगुरुकाश्च । अथ बालं स्थापयन्ति 25 तदा मासलघु तपोगुरु काललघु । ग्लानं स्थापयन्ति मासलघु तपोलघु कालगुरु । 'चतुर्थपदे' अव्यक्तस्थापनलक्षणे मासलघु द्वाभ्यामपि लघुकम् , तद्यथा--तपसा कालेन च ॥ ५४३ ॥ उक्ताऽऽरोपणा । साम्प्रतमेतेष्वेव दोषा वक्तव्याः, तत्र प्रथमं तावच्छून्ये दोषानाह मिच्छत्त बडुग चारण, भडाण मरणं तिरिक्ख-मणयाणं। वसतिशून्यकरणे आदेस वाल निक्केयणे य सुन्ने भवे दोसा ।। ५४४ ॥ 30 शून्यायां वसतौ कृतायां कदाचित् शय्यातरस्य मिथ्यात्वगमनम् , बटुकप्रवेशः, चारण प्रवेशः, भटप्रवेशः, तिरश्चां मनुष्याणां वा तत्र मरणम् , 'आदेशाः' प्राघूर्णकास्तत्प्रवेशः, व्यालप्रवेशः । एते शून्ये उपाश्रये कृते दोषा भवन्ति । तथा 'निःकेतने' प्रसूतायाः स्त्रियास्तिरच्या वा निष्कासने दोषाः ॥ ५४४ ॥ तत्र प्रथमं मिथ्यात्वद्वारमाह १°हा य होति ता० ॥ २ स वेव य भा° ता० ॥ ३°हुयं ता० ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका | सोच्चा पत्तिमपत्तिय, अकयन्नु अदक्खिणा दुविह छेदो । भरियभरागमनिच्छुभ, गरिहा न लभंति वऽन्नत्थ ॥ ५४५ ॥ भेदो य मासकप्पे, जदलंभे विहारादि पावते अन्नं । बहिभुत्त निसागमणे, गरिह विणासा य सविसेसा ॥ ५४६ ॥ ते साधवो भिक्षादिनिमित्तं सर्वमात्मीयं भाण्डमादाय शून्यां वसतिं कृत्वा गताः, शय्यातरश्चागतः, दृष्टा तेन शून्या वसतिः, पृष्टं कस्यापि पार्श्वे - क गताः साधवः ?, गृहमानुषैरुक्तम् — दृश्यते शून्या वसतिस्तस्मादवश्यमन्यत्र गताः । इदं तेषां वचः श्रुत्वा यदि प्रीतिकमुपजायते यथा - यदि 'गता गता नाम' इति तदाऽऽरोपणा चत्वारो लघुकाः । अथ तस्याप्रीतिकमुत्पद्यते यथा - 'अकृतज्ञाः' एते एनमप्युपचारं न जानन्ति यथा 'आपृच्छय गन्तव्यम्' अथवा 'अदाक्षिण्याः' निःस्नेहास्ततोsनापृच्छया गता इति तदा चतुर्गुरुकम् । तथा द्विविधश्छेदः, तथाहि - 10 सप्रद्विष्टस्तेषामन्येषां वा साधूनां तद्द्रव्यस्य वसतिलक्षणस्यान्यद्रव्याणां वा भक्तपानादीनां व्यवच्छेदं कुर्यात् । “भरियभरागमनिच्छुभ" त्ति ततः स कषायितः शय्यातरो यदा ते साधवो भरितभाजनभरेणावनमन्त आगच्छन्ति तदा स्थानं न दद्यात् । तत्र यदि दिवा निष्कासयति तदा चत्वारो लघवः । तथा तैर्भरितैर्भाजनैः सहान्यां वसतिं याचमाना आगाढादिपरितापनामाप्नुवन्ति तन्निष्पन्नमपि तेषां प्रायश्चित्तं चतुर्लघु । तथा जनमध्ये गमाप्नुवन्ति - किं यूय - 15 मकाण्डे एवं निष्कासिताः । ततः 'न भव्या एते' इत्यन्यत्रापि ते वसतिं न लभन्ते । अन्यत्र च वसतिमलभमाना ग्रामादौ व्रजन्ति ततो मासकल्पभेदः । तत्र च विहारक्रमे या विराधना तन्निष्पन्नाऽपि तेषामारोपणा । तथाऽन्ये साधवो विहारादिनिर्गतास्तत्र समागताः, तत्र चान्या वसतिर्न विद्यते, स च शय्यातरस्तेषां दोषेणान्येषामपि न ददाति, ततो विहाराद्यागता वसतेरलाभे यत्ते श्वापद - स्तेनादिभ्योऽनर्थमाप्नुवन्ति तन्निष्पन्नमपि तेषां प्रायश्चित्तम् । एवं तावत् 20 कृतभिक्षाटनमात्राणामुक्ता दोषाः । अथ बहिरेव भुक्त्वा रात्रावागता वसतिं न लभन्ते तदाऽऽरोपणा चतुर्गुरु, सविशेषतराश्च गर्हादयो दोषाः, विनाशश्च श्वापदादिभ्यः । अथवा स शय्यातरः प्रथमं सम्यग्दृष्टिर्भूतः पश्चाद् 'अनापृच्छया गताः' इति भावविपरिणामतो मिध्यात्वं यायात् || ५४५ || ५४६ ।। गतं मिथ्यात्वद्वारम् । अधुना बटुकद्वारमाह- भाष्यगाथाः ५४०-४९] सुन्नं दहुं बडगा, उभासिते ठाह जड़ गया समणा । आगम पवेस संखड, सागरि दिनं ति य दियाणं ॥ ५४७ ।। संमिचेण व अच्छह, अलियं न करेमेऽहं तु अप्पाणं । उहुंचग अहिगरणं, उभयपयोसं च निच्छूढा ।। ५४८ ॥ सागरिय- संजयाणं, निच्छूढा तेण अगणिमाईहिं । जं काहिंति पट्ठा, उभयस्स वि ते तमावज्जे ॥ ५४९ ॥ शून्यां वसतिं दृष्ट्वा 'बटुकाः ' चाटाः सागारिकम् 'अवभाषन्ते' याचन्ते - अस्माकमुपाश्रयं प्रयच्छत । शय्यातरो ब्रूतेते तत्र श्रमणास्तिष्ठन्ति । बटुकैरुक्तम् - गतास्ते । शय्यातरः प्राह १ विहादि ता० ॥ २ रेमि हं ता० ॥ ९.५९ 25 30 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः तर्हि तिष्ठत यूयं यदि गताः श्रमणाः । ते स्थिताः । आगताः साधवः प्रवेष्टुं प्रवृत्ता वसतौ बटुकैर्निवारिताः-माऽत्र प्रविशथ, वयमग्रे तिष्ठामः । ततः 'असङ्खडं' कलहः परस्परमुपजायते । बटुका ब्रुवते-वसतिरस्माकं खामिना दत्ता, किमत्र युष्माकम् ? । इतरेऽपि वदन्ति खामिनैवास्माकमपि वसतिरदायि । ततः साधवः शय्यातरसकाशं गच्छन्ति । स ब्रूते-यूयम। नापृच्छया शून्यं कृत्वा गताः, मया ज्ञातम्-गता यूयं येन शून्यीकृता दृश्यते वसतिः, अतो मया 'द्विजानां' बटुकानां दत्ता वसतिः 'इति' तस्मात् 'संवृत्येन' परस्परसश्चिन्त्या यूयं बटुकाश्चैकत्र स्थाने तिष्ठत, नाहमात्मानमलीकं करोमि । तत्र यदि संवृत्येन तिष्ठन्ति तत्र पठतां प्रतिलेखनां च कुर्वतां संयतभाषाभिश्च 'उड्डञ्चकान्' देशीपदमेतद् उपहासान् कुर्युः, ततः 'अधिकरणम्' असङ्खडम् । अथवा शय्यातरो भद्रकः ततस्तान् बटुकान् निष्काश. 10 येत्, तथा च सति 'अधिकरणं' संयतप्रयोगेण वयं निष्काशिताः तस्माद् ज्ञातव्यं संयतानाम् । अथवा 'निच्छूढाः' निष्काशिताः सन्त उभयेषामपि सागारिकस्य संयतानां चोपरि प्रद्वेष गच्छेयुः । ततस्ते एवं 'निक्षिप्ताः' निष्काशिताः सन्तः प्रद्विष्टाः स्तेनप्रयोगतोऽज्यादिप्रक्षेपतश्च 'उभयस्यापि' सागारिकस्य संयतानां च यद् अनर्थजातं करिष्यन्ति तदपि' तन्निप्पन्नमपि प्रायश्चित्तं 'ते' संयताः शून्यवसतिकारिण आपद्यन्ते ॥ ५४७ ॥ ५४८॥ ५१९॥ 18 गत बटुकद्वारम् । इदानी चारणद्वारं भटद्वारं चाह एमेव चारण भडे, चारण उड्डंचगा उ अहिगतरा । निच्छूढा व पदोस, तेणा-ऽगणिमाइ जह बडया ॥ ५५०॥ 'एवमेव' बटुकगतेनैव प्रकारेण चारणे भटे च दोषा वक्तव्याः । किमुक्तं भवति ?-ये वटुकेषु दोषा उक्तास्ते चारणे भटे च प्रत्येकमवसातव्याः । नवरं चारणा(णे) बटुकेभ्योऽधिक20 तराः, यतस्ते 'उदञ्चकाः' याचकाः । इयमत्र भावना-ते चारणाः प्रपञ्चबहुलाः, ततः संयतान् प्रपञ्चय तेभ्यो याचन्ते, ततस्तैः सहैकनिवासेऽधिकतरा दोषाः । तथा चारणा भटाश्च निष्काशिताः प्रद्वेषमापन्नाः स्तेनाम्यादिभिरुभयेषामप्यनर्थ कुर्युर्यथा बटुका इति ॥ ५५० ॥ इदानी तिर्यमरणद्वारं मनुष्यमरणद्वारमादेशद्वारं चाह छड्डुणि काउड्डाहा, घाणारिस सुत्तवन्न अच्छंते । 25 इति उभयमरणदोसा, आएस जहा बडुगमाई ॥ ५५१ ॥ शून्यां वसतिं दृष्ट्वा गवादिस्तिर्यङ् अनाथमनुप्यो वा प्रविश्य म्रियते तं यदि गृहस्थैरसं. यतैः परिष्ठापयन्ति तदा 'छर्दने' परिष्ठापने पण्णां कायानां पृथिव्यादीनां विराधना । अथाऽऽत्मना परिष्ठापयन्ति तदा प्रवचनस्योड्डाहः 'उचिता एतेऽस्य कर्मणः' इति । अथवा कोऽप्येवं शङ्केत, यथा-एतैरेवायं मारितः । अथवा जुगुप्सा भवेत्-अशुचयोऽमी यद् मृतक30 माकर्षन्ति । अथैतद्दोषभयान्न ते वयं परिष्ठापयन्ति नाप्यन्यैस्त्याजयन्ति तर्हि मृतकगन्धेन संयतानां नासाशासि जायेरन् । तथाऽखाध्यायिकमिति कृत्वा सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु, अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु । सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी चाकुर्वतां यदि सूत्रं नश्यति १ शुन्या कृता भा० विना ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५५०-५५] पीठिका। १६१ चतुर्लघु, अर्थो नश्यति चतुर्गुरु । अवर्णश्च लोकेषूपजायते-प्राममध्येऽपि वसन्तः स्मशाने तिष्ठन्ति । 'इति' उपप्रदर्शने, एवम् 'उभयस्य' तिरश्चो मनुष्यस्य वा मरणे दोषाः । गतं तिर्यग्-मनुष्यमरणद्वारम् । अधुनाऽऽदेशद्वारमाह-"आदेस जहा बडुगमादी" । 'आदेशाः' प्राघूर्णकास्ते केचन शय्यातरस्य समागताः, शून्यां च वसतिं दृष्ट्वा शय्यातरेण तत्र मुक्ताः, ततो बटुक-चारण-भटेषु ये दोषास्तेऽत्रापि योजनीयाः ॥ ५५१ ॥ गतमादेशद्वारम् । अधुना व्यालद्वारं निष्केतनद्वारं चाह अहिगरण मारणाऽणीणियम्मि अच्छंते वालि आयवहो । तिरितीय जहा वाले, सूतिमणुस्सीऍ उड्डाहो ॥ ५५२ ॥ 'व्यालः' नाम सर्पः शून्यं दृष्ट्वा वसतौ प्रविशेत् , तत आगताः सन्तः श्रमणा यदि तं निष्काशयन्ति तदाऽधिकरणम् , हरितकायादीनां मध्येन तस्य गमनात् । अथवा स निष्का-10 श्यमानः प्रद्वेषगमनतो दशेत् ततो मरणम् । अथवा निष्काशने जनसम्मिलनतः स सो लोकेन मार्येत । अथैतद्दोषभीता न तं सर्प निष्काशयन्ति ततस्तस्मिन् व्याले तिष्ठति आत्मविराधना, तेन भक्षणात् । एते च व्याले दोषाः । अथ निष्केतने तानाह-"तिरितीए" इत्यादि । यदि तिर्यस्त्री प्रसूता निष्काश्यते ततः सा यथा व्यालस्तथैव नियमत इतस्ततो गच्छन्ती हरितकायादीन् व्यापादयेत् , वालकानां च तत्सम्बन्धिनां तां विना तया चानीय-15 मानानां मरणसम्भवः । अथैवं दोषभयात् सा न निष्काश्यते तदा सा तिष्ठन्ती यदा तदा वा साधूनामनर्थ कुर्यात् , तत आत्मविराधना । अथ प्रसूता मानुषी निष्काश्यते तथा (तदा) 'एतेषामियम्' इति प्रवचनोड्डाहः । साऽपि च निष्काश्यमाना कायान् विराधयेत् । लोको वा ब्रूयात्-निरनुकम्पा एते यद् बालसहितामिमां निष्काशयन्ति । सा वा निष्काश्यमाना प्रद्वेषतः साधूनामालं दद्यात् चेटरूपं वा मारयेत् ॥ ५५२ ॥ छड्डेउं व जइ गया, उज्झमणुज्झंति होति दोसा उ । एवं ता सुनाए, बाले ठविते इमे दोसा ॥ ५५३ ॥ अथवा सा तत्र प्रसूता सती तं चेटरूपं त्यक्त्वा गच्छेत् ततस्तं यदि 'उज्झन्ति' परित्यजन्ति तदा निरनुकम्पतादोषः । अथ नोज्झन्ति तदा उड्डाहः । एवमेते तावत् शून्यायां वसतौ दोषाः । बाले स्थाप्यमाने पुनरिमे ॥ ५५३ ॥बलि धम्मकहा किड्डा, पमजणाऽऽव रिसणा य पाहुडिया। बाले वसति खंधार अगणि भंगे, मालव-तणां य नाती य ॥ ५५४ ॥ रक्षके स्था. बलिद्वारं धर्मकथाद्वारं क्रीडाद्वारं प्रमार्जनद्वारम् आवर्षणद्वारं प्राभृतिकाद्वारं स्कन्धावार प्यमाने द्वारम् अनिद्वारं भङ्गद्वारं मालव द्वारं] स्तेनद्वारं ज्ञातिद्वारं च । एतैरैाले रक्षके स्थाप्यमाने दोषा वक्तव्याः ।। ५५४ ॥ तत्र प्रथमं वलिद्वारमधिकृत्य दोषानाह साभाविय तन्नीसाएँ आगया भंडगं अवहरंति । नीणेमि त्ति व वाहिं, जा पविसइ ता हरंतऽन्ने ॥ ५५५ ॥ १रिथीए जहा ता० ॥ २ वाल ठवेंते ता० ॥ ३°णा त मायी य ता० ॥ वृ० २१ 20 26 30 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः साधवः कदाचनापि कारणवशतः सप्राभृतिकायां शय्यायां स्थिताः, सप्राभृतिका नाम सार्वजनिका यत्राऽऽगत्य वलिः प्रक्षिप्यते, तत्र ये बलिकारकास्ते द्विधा तत्र समागच्छेयुः, तद्यथा-स्वभावेन वा 'उपकरणं वा हरिप्यामि' इति कैतवेन वा । तत्र ये बलिकारकाः स्वाभाविका नोपकरणहरणप्रवृत्तास्ते 'तन्निश्रया' बलिनिश्रयाऽऽगताः सन्तो बलिं कुर्वन्तो बालमे• काकिनं दृष्ट्वा सञ्जातहरणबुद्धयो भाण्डकमपहरन्ति । अथवा बलिना प्रक्षिप्यमाणेनोपकरणं लेपयुक्तं क्रियते ततः स वालो वक्ति-बहिर्नयाम्युपकरणं येन न लेपयुक्तं क्रियते, ततः स बालो यावद् बहिर्निर्गतः प्रविशति तावदत्रान्तरेऽपह रन्त्युपकरणमन्ये ॥ ५५५ ।। स्वभावत इति गतम् । कैतवमधिकृत्याह एमेव कइयवा ते, निच्छुढं तं हरंति से उपहिं । चाहिं च तुमं अच्छसु, अवणेहुवहिं व जा कुणिमो ॥ ५५६ ॥ 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण कैतवात् 'ते' समागता उपधिमपहरेयुः, तथाहि–केचन धूर्ता उपधिं हर्तुकामाः कैतवात् समागत्य क्षुल्लकं ब्रुवते-क्षुल्लक ! एष. बलिः समागच्छति ततस्त्वं बहिर्निर्गच्छ, एवं तं बहिनिष्काश्य 'से' तस्योपधिमपहरन्ति । अथवेदं वदन्ति-वयं बलिं करिष्यामः, ततो यावद् वयं बलिं कुर्मस्तावत् त्वं बहिस्तिष्ठ, मा कूरेण खरण्टयिष्यते(प्यसे), ॥ एवं तं निष्काश्य तस्योपधिमपहरन्ति । यदि वा ते एवं ब्रूयुः-यावद् वयं बलिं कुर्मस्तावदभ्यन्तरादात्मीयमुपधिमुपनय, स च बालस्तत्कार्यमजानन् एकवारं च सर्वमुपकरणं 'गेतुमशकुवन् स्तोकं गृहीत्वा निर्गत्य बहिः स्थापयित्वा यावदन्यस्य प्रविशति तावत् तदुपकरणमभ्यन्तरस्थितं धूर्तेरपहियते ।। ५५६ ॥ तदेवं बलिद्वारं गतम् । अधुना धर्मकथाद्वारमाह कतिएण सभावेण व, कहापमत्ते हरंति से अण्णे | किड्डा सयं व रिखा, पासति व तहेव किडदुगं ॥ ५५७ ॥ केचन पुरुषाः 'धर्म शृणुमः' इति कैतवेन वा खभावेन वा समागच्छेयुः । तत्र खभावत आगतानां बालमेकाकिनं दृष्ट्वा हरणबुद्धिरुपजायते । इतरे तु प्रथमत एव हरणबुद्ध्यैव समागतास्ते क्षुल्लकं ब्रुवते-कथय धर्मकथामस्माकमिति; ततः स कथां कथयितुं प्रवृत्तः प्रबन्धन च कथयति, कथाप्रमत्ते केचिदग्रत उपविष्टाः शृण्वन्ति, अन्ये तस्योपकरणमपहरन्ति । गतं 25 धर्मकथाद्वारम् । क्रीडाद्वारमाह-"किड्डा" इत्यादि । क्रीडायामपि द्विकं वक्तव्यम् । किमुक्तं भवति?-क्रीडानिमित्तमपि केचन स्वभावतं आगच्छेयुः केतवेन वा । खभावतोऽप्यागतानां बालमेकाकिनं दृष्ट्वा हरणबुद्धिरुल्लसति, तत्र स स्वयं वालः क्रीडति गोलादिना । अथ कदाचित् स क्षुल्लको यात्-न वर्ततेऽस्माकं क्रीडा; ततस्ते वदन्ति-यद्येवं तर्हि रिडाः कुरु, कः कियन्तो वारान् रिङ्कति ? एवं स बालो रिङ्खाः करोति; अथ ब्रूते-न कल्पन्ते संयतानां रिला अपि 30 कर्तुमिति; ततस्ते वदन्ति-यद्येवमस्मान् क्रीडतः पश्य, ततः स कौतुकेन क्रीडतः पश्यति; एवं स्वयं क्रीडया रिङ्खाभिर्वा पश्यन् वा क्रीडाप्रमत्त उपजायते; ततस्तथैवान्ये तेन सह क्रीडन्ति, अन्ये हरन्त्युपकरणमिति ॥ ५५७ ॥ सम्प्रति प्रमार्जनद्वारमावर्षणद्वारं च युगपदाह१°तः समाग भा० ॥ 200 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ५५६-६१] पीठिका। जो चेव बली' गमो, पमजणाऽऽवरिसणे वि सो चेव । य एव बलिद्वारे गम उक्तः स एव प्रमार्जने आवर्षणे च द्रष्टव्यः । किमुक्तं भवति ?प्रमार्जननिमित्तमावर्षणनिमित्तं वा केचित् स्वभावेन अपरे कैतवेन समागच्छन्ति, समागत्य च बलिद्वारोक्तेन प्रकारेणोपकरणमपहरन्तीति ॥ इदानीं प्राभृतिकाद्वारमाह पाहुडियं वा गेण्हसु, परिसाडणियं व जा कुणिमो ॥ ५५८ ॥ 6 'प्राभृतिका' भिक्षाऽपि भण्यते अर्चनिकाऽपि । तत्रोभयमप्यधिकृत्य दोषानाह-कैतवेन खभावेन वा केचन ब्रूयुः क्षुल्लक ! भिक्षां गृहाण, अथवा द्वारे निर्गच्छ यावद् वयं 'परिशाटनिकाम्' अर्चनिकां कुर्मः । एवमुक्तः स यावद् भिक्षामाददाति बहिर्वा निर्गच्छति तावत् तस्योपकरणं हरन्तीति ।। ५५८ ॥ गतं प्राभृतिकाद्वारम् । अधुना स्कन्धावारद्वारममिद्वारं चाह खंधारभया नासति, एस व एइ त्ति कइयवे णस्स । अगणिभया व पलायति, नस्ससु अगणी वै एति ति ॥ ५५९ ॥ कोऽपि स्वभावतः स्कन्धावारभयान्नश्यति ब्रूते च-एष सराजकः स्कन्धावारः समागच्छति, स च तथा खभावतो नश्यन् बालमेकाकिनं दृष्ट्वाऽपहरेत् । अपरः कैतवेन ब्रूते-एष क्षुल्लक ! स्कन्धावारः समायाति तस्माल्लघु पलायख पलायख, ततः स वालो नश्यति; इतरे उपधिमपहरन्ति । अमिभयादपि कोऽपि स्वभावतः पलायते, स च पलायमानो वक्ति-वहिरा-18 गच्छति नश्यतामिति । केचित् पुनः कैतवेन ब्रूयुः-मन्दभाग्याः! नश्यत नश्यत, अमिः समागच्छति ।। ५५९ ॥ ततः किम् ? इत्याह उवहीलोभ भया वा, न नीति न य तत्थ किंचि नीणेइ । गुत्तो व सयं डज्झइ, उवहिं च विणा उ जा हाणी ॥ ५६० ॥ 'उपधिलोभात्' 'उपधिर्मध्ये तिष्ठति तं मुक्त्वा कथमहं यामि ? मा कश्चिदपहरेत्' इत्युप-20 धेलोभतोऽग्निभयाद् वा स बालो बहिर्न निर्गच्छति, न च तत्र बहिः किञ्चिद् निष्काशयति, ततः कथमप्यनिसमागमने स मध्ये गुप्तः सन् स्वयं दह्यते । कैतवेनाम्यागमं कथयित्वाःबालं विप्रलम्भ्योपधिमपहरन्ति । उपधिं च विना या हानिस्तां साधवः प्राप्नुवन्ति ॥ ५६०॥ गतं स्कन्धावारद्वारमग्निद्वारं च । सम्प्रति मालवद्वारं स्तेनद्वारं चाहमालवतेणा पडिया, इयरे वा नासती जणेण समं । 26 न य गेण्हइ सारुवहि, तप्पडिबद्धो व हीरेजा ॥ ५६१ ॥ मालवा एव स्तेना मालवस्तेनाः, ते मालवग्रहणेन द्वारगाथायां (गा० ५५४) सूचिताः । 'इतरे' अन्ये स्तेनाः, स्तेनग्रहणेन । केचित्तु कैतवेन खभावेन वा युः-मालदस्तेना इतरस्तेना वा पतिताः, तत्र ये कैतवेन ब्रुवते ते पत्तनस्य ग्रामस्य वा भङ्गे जाते उपधिमपहरन्ति । स्वभावेन कथने स बालो भयान्न सारमुपधिं गृह्णाति, अग्रहणे च तदभावे महती हानिः । अथवा स 30 तस्मिन्नुपधौ प्रतिबद्धः सन् मालवस्तेनैरितरैर्वा सोपधिरपहियेत ॥ ५६१ ।। गतं मालवद्वारं स्तेनद्वारं च । सम्प्रति ज्ञातिद्वारमाह१ केयवे नस्स ता. विना ॥ २ व एसेति ता० ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे सन्नायगेहि नीते, एंति व नीयत्ति नट्ठे जं उवहिं । कहिँ नीति कयवे, कहिए अन्नस्स सो कहए ॥ ५६२ ॥ चिंधेहिँ आगमेउं, सो वि य साहेइ तुह निया पत्ता । 'नेमो उवहिग्गणं, तेहि व हं पेसितो हरइ ।। ५६३ ॥ स्वज्ञातिकाः स्वभावत आगताः, तैरेकाकी दृष्टः क्षुल्लकः, तैनीतेऽन्ये पश्चादुपधिमपहरेयुः, ततस्तन्निष्पन्नं तेषां साधूनां प्रायश्चित्तम् । अथवाऽन्येन केनापि ते वज्ञातय आगच्छन्तो दृष्टाः, तेनाऽऽगत्य क्षुल्लकस्य कथितम् - निजकास्तव समागच्छन्तीति, ततः स पलायितः, तस्मिन्नष्ठे यमुपधिं जघन्यं मध्यमुत्कृष्टं वाऽपहरन्ति तन्निष्पन्नं तेषां प्रायश्चित्तम् । एवं तावत् स्वभावतः खज्ञातीनामागमने दोषा उक्ताः, अधुना कैतवेन तदागमनकथनतो दोषानाह10 कोऽपि कैतवेनागत्य धूर्तो ब्रूते क्षुल्लक ! व ते निजकाः सन्ति ? । तेन कथितम् अमुके ग्रामे नगरे वा । तेनान्यस्य धूर्तस्य कथितं ' मा स्वयमहं ब्रुवाणो लक्ष्ये' इति ॥ ५६२ ॥ .१६४ 6 20 [ अनुयोगाधिकारः सोऽपि अन्यो धूर्तस्तेषां खज्ञातीनां चिह्नानि नामानि चागम्य तस्य क्षुल्लकस्य समीपमागच्छति, आगत्य ब्रूते - स त्वममुकानां निजकः; क्षुल्लको वक्ति - कुतस्त्वं जानासि ?; इतरो ब्रूते - किं न जानामि ते मातरममुकनामिकां पितरं चामुकमीदृशेन वर्णेन रूपेण वा ? । एवं 26 संवादे कृते स क्षुल्लको वदति -सत्यमहं तेषां निजकः; ततः स धूर्तो भाषते - ते निजकास्तव कृते समागता मयाऽमुकप्रदेशे दृष्टाः, सम्प्रति अन्ये प्रविशन्ति वदन्ति च ते-तमा - त्मीयं नेष्याम इति; ततः स पलायते, इतरे उपधिमपहरन्ति । अथवा वक्ति - तैरहं तवोदन्तवाहकः प्रेषितः; ततः स विश्वासं गच्छति, विश्वस्तस्य चोपधिमपहरेत् । अथवा वदेत्-तवाऽऽनयननिमित्तमहं तैः प्रेषितः; एवमुक्ते स बालः पलायते, इतरे तूपधिमपहरन्ति ॥ ५६३ ॥ एते पदे न रक्खति, बाल गिलाणे तहेव अव्वत्ते । निदा- कहापमत्ते, वत्ते वि य जे भवे भिक्खू || ५६४ ॥ 'एतानि' बलिप्रभृतीनि 'पदानि' स्थानानि बालो न रक्षति, खाभाविकेषु कैतवेषु वैतेषु स्थानेषु बालो विप्रतार्यते इति भावः । तथा ग्लानः 'अव्यक्तो वा' अगीतार्थो यद्वा 'व्यक्तः ' गीतार्थोऽपि च यो भवेद् भिक्षुर्निद्रा-कथाप्रमत्तः सोऽप्येतानि पदानि न रक्षति । कथास्तरङ्गव25 त्यादयो द्रष्टव्याः ॥ ५६४ ॥ ग्लानद्वारमव्यक्तद्वारं चाधिकृत्यैतदेव विशेषत आहएमेव गिलाणे वी, सयकिड्ड - कहा- पलायणे मोत्तुं । अव्वत्तो उ अगीतो, रक्खणकप्पे परोक्खो उ ।। ५६५ ।। 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण ग्लानेऽपि दोषा वक्तव्याः, नवरं खयंक्रीडा-कथा-पलायनानि मुक्त्वा । इयमत्र भावना - ये वाले दोपास्ते ग्लानेऽपि, नवरं यस्तस्यात्मसमुत्थो दोषः 30 स्वयंक्रीडात्मकः कथादोषो भयेन पलायनदोषश्च स न भवति, किन्तु स वारयितुमसमर्थः, नवा तं कोऽपि गणयति, ग्लानत्वात् । अन्यच्च स क्षुधा पिपासयाऽन्यया वा वेदनया परिताप्यमानः सन् कूजेत्, ततो लोको ब्रूयात्-अहो ! निरनुकम्पाः साधवो यदमुं त्यक्त्वा हिण्डन्ते; १ नट्टे उव° ता० ॥ २ मो० विनाऽन्यत्र - षु चैतेकेषु स्था' ले० । 'षु चैकेषु स्था° कां० ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५६२-६८] पीठिका । अपथ्यं वा लोकानीतमकल्पिकं स प्रतिसेवेतेति । तथा अव्यक्तो नाम 'अगीतः' अगीतार्थः स रक्षणकल्पे परोक्षः । किमुक्तं भवति ?-सः 'खाभाविके कैतवे वा कथमुपकरणं रक्षणीयम् ?' इति न जानाति, न वा 'खाभाविकेषु ग्लानत्वादिषु केन प्रकारेणात्मा निस्तारयितव्यः ?, कथं वा उपकरणम् ?' अतः प्रागुक्तं (गा० ५६४) "ग्लानोऽव्यक्तश्चैतानि पदानि न रक्षति"। योऽपि च व्यक्तः सोऽपि यदि निद्रालुर्भवति तरङ्गवत्यादिकथाकथनव्यसनी वा तदा न रक्षति, प्रमादबहुलत्वात् ॥ ५६५ ॥ तम्हा खलु अब्बाले, अगिलाणे वत्तमप्पमत्ते य । कप्पइ य वसहिपालो, घिइमं तह वीरियसमत्थो ॥ ५६६ ॥ यस्माद् बालादीनामेते दोषास्तस्माद् यः खल्वबालोऽग्लानो व्यक्तो निद्रा-कथादिभिरप्रमत्तः, पुनः कथम्भूतः ? इत्याह-'धृतिमान्' यस्तृषा क्षुधा वा परितापितोऽपि न शून्यां वसतिं कृत्वा 10 भक्तपानाय गच्छति स इति भावः, 'वीर्यसम्पन्नः' बलवान्, यः स्तेनानापततो निरोद्धं समर्थः अम्यादिसम्भवे तूपधिमात्मानं च निस्तारयति ईदृशः कल्पते वसतिपालः ।। ५६६ ॥ अथ कियन्त ईदृशा वसतिपालाः स्थापयितव्याः ? तत आह सति लंभम्मि अणियया, पर्णगं जा ताव होति अच्छित्ती। जहनेण गुरू चिट्ठइ, तस्संदिट्ठो विमा जयणा ॥ ५६७॥ 16 सति भैक्षस्य लाभे अनियता वसतिपालाः स्थापयितव्याः । अयमत्र भावः-यत्रैकः सङ्घाटको भैक्षस्य प्रचुरस्य लाभतोऽन्येषां त्रयाणां चतुर्णा चात्मनश्च पर्याप्तमानयति तत्र यावद्भिस्तिष्ठद्भिर्गच्छस्य पर्याप्तं भवति तावन्तस्तिष्ठन्ति; अथवा आचार्यादयः पञ्च तिष्ठन्ति यैर्गच्छः समस्तोऽपि सङ्गृहीतो वर्तते; अथवा यो ज्ञायते 'एष सूत्रा-ऽर्थग्रहण-धारणासमर्थोऽव्यव. च्छित्त्रिं करिष्यति' स आचार्यस्य सहायस्तिष्ठति । अथैवमपि न निस्तरन्ति ततो जघन्यतो 20 गुरुरेककस्तिष्ठति शेषाः सर्वे हिण्डन्ते । अथाऽऽचार्योऽपि कुलादिकार्येषु निर्गच्छति ततो य आचार्येण सन्दिष्टः 'मयि निर्गते सर्वमेतस्य पुरत आलोचनादि कार्यम्' स तिष्ठति । ततो. यत्र तानि बलिप्रभृतीनि पदानि स्वभावतः कैतवेन वा प्राप्तानि भवन्ति तत्र तेन वसतिपा लेनेयं यतना कर्तव्या ॥ ५६७ ॥ तत्र बलिपाते तावदाह अप्पुव्वमतिहिकरणे, गाहा ण य अण्णभंडगं छिविमो। 25 भणइ व अठायमाणे, जं नासह तुज्झ तं उवरि ॥५६८ ॥ साधवो हि कारणेन सप्राभृतिकायामपि शय्यायां स्थिता भवेयुः । साधूनां चेयं सामाचारी-ऋतुबद्धे काले बद्ध उपधिस्तिष्ठति वर्षाखबद्धः, तत्र सप्राभृतिकायां वसतौ वर्षाखपि समस्तं भाण्डकमेकायोगं प्रकुर्वन्ति, ततो यदि वलिकाराः समागच्छन्ति तथापि न कश्चिद् दोषः । अथ ते कथमपहरणं कर्तुकामा ज्ञातव्याः ? उच्यते-अपूर्वान् दृष्ट्वा, ये खाभावि- 30 कास्ते प्रतिदिवसमागच्छन्तः परिचिताः, ये त्वपूर्वास्ते हर्तुकामा विज्ञेयाः । ये वा अतिथौ १°णगं व जतो व हो ता० ॥ २ गाथेयं चूर्णिकृता कारणे सपाहुडि० ५६९ गाथानन्तर व्याख्याताऽस्ति ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सानयुक्ति माप्यवृत्तिक बृहत्कल्पसूत्र [ अनुयोगाधिकारः विशिष्टतिथ्यभावे वलिकरणाय समागतास्तेऽपि हर्तुकामा द्रष्टव्याः । तेऽपि यदि ब्रूयुःच्छत वयं बलिं करिष्यामः, तदा गाथा वक्तव्या पुः - निर्ग नवि लोणं लोणिजइ, न वि तुप्पिज्जइ घयं व तेलं वा । किह नाम लोगडंभग !, वट्टम्मि टविज्जए वट्टो ? || अन्नं भंडेहि वर्ण, वणकुट्टग ! जत्थ ते वहइ चंचू । भंगुरणग्गाहत!, इमे हु खदिरा बइरसारा || ततो जानते 'वयं प्रत्यभिज्ञाताः' इति । अथवा वक्तव्यम् - येषामेतदुपकरणं ते भैक्षस्थानयनाय गताः, वयं तु 'अन्यभाण्डकम् ' अन्येषामुपकरणं न स्पृशामः । ततो यदि न तिष्ठन्ति ततो भूयो भणति - शृणुत, अस्माभिर्वारिता यूयं न तिष्ठथ ततो यदत्र नश्यति तद् युष्माकमु10 परि; एवमुक्ते ते तिष्ठन्ति ॥ ५६८ ॥ 5 कारणें सपाहुंडि ठिया, बासे वि करेंति एगमायोगं । नाविय दिट्ठा वा, भैणाइ जा सारवेमुत्रहिं ॥ ५६९ ॥ कारणे सप्राभृतिकायां वसतौ स्थिता वर्षाखपि समस्तस्यापि भाण्डकस्यैकमायोगं कुर्वन्ति ततो न किञ्चित् पलायते । तत्र ये कैतवेन वलिकारकाः समागच्छन्ति तेषु यतनाविधिरुक्तः । 15 सम्प्रति स्वाभाविकेप्वाह - "सन्नाविय" इत्यादि । ये शय्यातरेणान्येन वा बलिकाराः संज्ञापिता दृष्टा वा स्वयमन्यदाऽपि बलिं कुर्वाणास्तान् प्रति भणति वसतिपालः - तावत् प्रती - क्षध्वं यावदुपधिं सारयामि; एवमुक्ते ते प्रतीक्षते ॥ ५६९ ॥ उच्चरए कोणे वा, काऊण भणाति मा हु लेवाडे । बहु पेण सारविए, तहेव जं नासती तुज्झं ॥ ५७० ।। 20 ततो वसतिपालो यदि कश्चिदस्त्यपवरकस्तत्र तदुपकरणं प्रक्षिपति, अथ नास्त्यपवरकतत एकस्मिन् कोणे सर्वमुपकरणं स्थलीकरोति भणति च - शनैर्बलिविधानं कुरुत, मा उपकरणं कूरसिक्थैः खरण्टयत । अथ ते वहवोऽगारा उन्मत्तकाः सहसैव प्रेर्य प्रविष्टा नैव सार्यमाणमुपधिं प्रतीक्षन्ते ततस्तथैव वक्तव्यं यथोक्तं प्राक्, यथा--यदत्र नश्यति तद् युप्मा - कमुपरीति ॥ ५७० ॥ धर्मकथाद्वारे यतनामाह - नत्थि कहाली मे, पुव्यं दिट्ठे व वेति गेलण्णं । दाणादि असंकाण व, आउज्जंतो परिकहेइ ।। ५७१ ॥ यदि ते कैतवेन स्वभावेन वा समागत्य धर्मकथामा पृच्छन्ति तदा वक्तव्यम् - नास्ति मे कथालब्धिः । अथ धर्मं कथयन् स पूर्वं दृष्टः ततो वदति - 'ग्लानत्वं' शिरो मे दुःखयति गलको वेति । अथ ते धर्मकथाप्रष्टारो दानश्राद्धा आदिशब्दादभिगमसम्यत्तत्वादयश्च सम्यग्ज्ञाता 30 वर्त्तन्ते ततस्तेषां दानादिश्रावकाणाम् 'अशङ्कानां शङ्काया अविषयाणां द्वारमूले स्थित्वा 25 १ 'हुडियाए वासा वि ता० विना ॥ २ साभाविय ता० ॥ ३ भणति जा ता० ॥ ४] ओवर ता• ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५६९-७५] पीठिका। १६७ 'आयोजयन्' भाण्डकविषयमुपयोगं ददानः परिकथयति, मा कथाप्रमत्ते मयि कोऽपि हरेदिति हेतोः ॥ ५७१ ॥ सम्प्रति क्रीडाद्वारे यतनामाह दर्दु पिणे न लभामो, मा किड्डह मा हरिजिहं को वि । संमजणाऽऽवरिसणे, पाहुडिया चेव वलिसरिसा ॥ ५७२ ॥ यदि केचित् तत्र कैतवेन स्वभावेन वाऽऽगत्य क्रीडन्ति तदा तान् प्रति वक्तव्यम्-वयमा । चार्यादिपार्श्वतो द्रष्टुमपि क्रीडतो न लभामहे तस्मादत्र मा क्रीडत, एतच्चैवमुच्यते 'मा कश्चिद् हरेत्' इति कृत्वा । प्रमार्जने आवर्षणे प्राभृतिकायां च यथा बलिद्वारे तथा यतना कर्तव्या ॥ ५७२ ॥ खमणं निमंतिते ऊ, खंधारे कइयवे इमं भणति । किं णे निरागसाणं, गुत्तिकरो काहिई राया ।। ५७३ ॥ 10 भिक्षां यदि कोऽपि निमन्त्रयति तदा वक्तव्यम्-ममाद्य क्षपणमिति । कैतवे च स्कन्धावारे इदं भणति-किं "णे" अस्माकं 'निरागसां' निरपराधानां 'गुप्तिकरः' रक्षाकरो राजा. करिष्यति ? ॥ ५७३ ।। यत्र तु खाभाविकः स्कन्धावारः समागच्छति तत्रेयं यतना पभु अणुप [णो व] निवेयणं तु पेल्लंति जाव नीणेमि । तह वि य अठायमाणे, पासे जंवा तरति नेउं ॥ १७४॥ 15 प्रभुः नाम राजा, अनुप्रभुः सेनाधिपतिप्रभृतिकः, तं गत्वा धर्मलाभयति-विविक्तममाकमुपाश्रयं कुरुत । ततः स मनुप्यान् ददाति, ते प्रेरयन्ति समस्तानपि लोकानुपाश्रयप्रविष्टानिति । अथ स्कन्धावारो न व्रजति किन्तु तथैव स्थितवान् , तत्र यदि कोऽपि वसति स्थाननिमित्तं प्रेरयेद् अत्रापि प्रभोरनुप्रभोर्वा निवेदनं कर्त्तव्यं येन स वारयति । अथ प्रभुरनुप्रभुर्वा न वारयति अखाधीना वा ते पुरुषास्ततो ब्रूते-यावदुपकरणं नयामि तावत् प्रती-20 क्षस्ख(क्षध्वम् ) । ततः कल्पं विस्तार्य सर्वमुपकरणं तत्र प्रक्षिप्योपरि बद्धा निष्काशयति । अथ प्रभूतमुपकरणं न शक्नोति सर्वमेकवारं नेतुं तदा त्रिपु चतुर्पु वा कल्पेषु बद्धवा कोल्लुकपरम्परकेण महाराष्ट्रप्रसिद्धकोल्लुकचक्रपरम्परन्यायेन निष्काशयति । अथ ते हरन्त्युपकरणं ततो यत् पार्श्वे सारभाण्डमक्षादि यद्वा नेतुं शक्नोति तद् नयति ॥ ५७४ ॥ सम्प्रति खाभाविकाग्नौ यतनामाह - कोल्लुपरंपर संकलि, आगासं नेइ वायपडिलोमं । अच्छुल्लूढा जलणे, अक्खाई सारभंडं तु ॥ ५७५ ॥ ज्वलने प्रवर्द्धमाने सर्वमुपकरणमेकवारमशक्नुवन् कल्पेषु चतुर्यु पञ्चसु वा बध्नाति, बद्धा च कोल्लुकचकन्यायेन परम्परया "संकलि"ति तान् पोट्टलकान् दवरकेण सकलय्य यत्र न तृणादिसम्भवस्तत आकाशं तदपि वातप्रतिलोमं तत्र नयति । अथ ज्वलनेनातिप्रसरता ते 30 'अच्छुल्लूढाः' खस्थानं त्याजितास्ततो यत् सारं भाण्डमक्षादि तद् निष्काशयन्ति ॥ ५७५॥ १ तत्रेयं भावना भा० मो० विना ॥ २°भुणो आवेदणं तु ता० ॥ 25 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १६८ 25 सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे मालव-स्तेनेषु यतनामाह असरीरतेणभंगे, पवलाए जणे उ जं तरति नेउं । न विधूमो न वि बोलो, न वति जणो कइयवेसुं ॥ ५७६ ॥ 'अशरीरस्तेनभङ्गे' ये शरीरं नापहरन्ति तैः स्तनैर्भङ्गे - प्रपलायमाने जने यद् नेतुं शक्नोति 5 तद् नयति । यदि पुनः कैतवेन केचन ब्रुवते 'अग्निः समुच्छलितः स्तेना वा द्विविधाः समापतिताः' तदा ते वक्तव्याः न वै धूमो दृश्यते " न वि बोलो" ति नापि जनस्य प्रपलायमानस्य बोलः तस्मान्न द्रवति जनो विदग्धः कैतवेष्विति ॥ ५७६ ॥ खज्ञातिद्वारे यतनामाहअन्नकुल- गोत्तकहणं, पत्तेसु वि भीयपरिस पेलेइ । पुव्वं अभीयपरिसे, भणाति लजाऍ न भणामि ॥ ५७७ ॥ जाताच ठवेमि वए, पत्ते कुड्डादिछेय संगारो । 30 ――――― मा सिं हीरे उवहिं, अच्छह जा सिं निवेएमि ॥ ५७८ ॥ यदि केचन वज्ञातय आगता वर्तन्ते न च ते तं प्रत्यभिजानते तदा 'अन्यकुल- गोत्रकथनं' कर्त्तव्यम् अन्यत् कुलमन्यच्च गोत्रमात्मनः कथयति । अथ ते सम्यग् ज्ञातारः समागता - स्तत्र यदि ते भीतपर्षदस्तदा तान् प्रेरयति - ईदृशास्तादृशा यूयम्, बन्धयामि युष्मान् राजकु15 लेनेति । अथैवमुक्तास्ते न बिभ्यति तर्हि तान् अभीतपर्षदो वक्ति- ममाप्येतदभिप्रेतमुन्निष्कमणं परं लज्जया न भणामि युष्मान्, यथा - अहमुन्निष्क्रमामीति, न वा शक्नोमि लज्जया युष्माकं समीपमागन्तुम्, तद् भव्यं कृतं यद् यूयमागताः किन्तु तिष्ठत क्षणमात्रं यावदागच्छन्ति साधवः, ततस्तेषां समीपे व्रतानि निक्षिपामि; मा वा तेषां भट्टारकाणामुपकरणं शून्ये उपाश्रये केनापि हियेत, यावच्च तेषां निवेदयामि यथा - ' अहं गमिष्यामि' इति तावत् तिष्ठत । 20. एतावतोपायेन तावत् तिष्ठति यावत् साधवः प्राप्ता भवन्ति, तत उपाश्रयकुड्यस्य च्छिद्रं पातयित्वा नश्यति सङ्केतं च करोति - अमुकस्थाने मां गवेषयत, आगत्य वा मम मिलितव्यमिति ॥ ५७७ ॥ ५७८ ॥ [ अनुयोगाधिकारः धारादी नाउं इयरे वि तर्हि दुयं समभियंति । अपाई तेसिं, अगं कर्ज दुयं एह ॥ ५७९ ॥ 'इतरेऽपि' भिक्षार्थमदन्तः साधवः स्कन्धावारमग्नि- मालव- स्तेनपतनं वा ज्ञात्वा 'द्रुतं' सत्वरं ‘समभियन्ति' समागच्छन्ति । स वा वसतिपालो भिक्षार्थं गतानां सन्देशं कथयति, यथाअमुकं कार्यमापतितमिति द्रुतमागच्छत || ५७९ ॥ गतं रक्षणद्वारम् । इदानीं ग्रहणकल्पिकमाह दुविकरणोवघाया, संसत्ता पच्चत्राय सिजविही । जो जाणति परिहरि, सो गहणे कप्पितो होति ॥ ५८० ॥ वसतेर्द्विविधं करणम्-मूलकरणमुत्तरकरणं च तेन द्विविधेन करणेनोपघातो यस्याः सा द्विविधकरणोपघाता, मूलकरणोपहता उत्तरकरणोपहता चेत्यर्थः । तथा पृथिव्युदक- तेजो- हरितत्रसप्राण-सागारिकसंयुक्ता संसक्ता । ब्रह्मत्रतादिविराधनाकारिणी प्रत्यवाया । तथा विधिर्विधानं Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५७६-८४] पीठिका। १६९ भेदः प्रकार इत्यनान्तरम् , शय्याया विधिर्वक्ष्यमाणा (गा० ५९३) नव शय्याया भेदाः । एतैर्मूलकरणादिदोषैर्यः सम्यक् परिहत्तुं जानाति स शय्याग्रहणे कल्पिको भवति ॥ ५८०॥ अथ कतिविधं मूलकरणमुत्तरकरणं वा शोधनीयम् ? अत आह सत्तेव य मूलगुणे, सोही सत्तेव उत्तरगुणेसु । संसत्तम्मि य छकं, लहु-गुरु-लहुगा चरम जाव ॥ ५८१॥ 'सप्तैव' सप्तप्रकारैव शोधिमूलगुणेषु, गाथायामेकवचनमार्षत्वात् , 'सप्तैव' सप्तप्रकारैवोतरगुणेषु शोधिः । किमुक्तं भवति ?-मूलकरणं सप्तभेदं शोधनीयं वसतेः साधुभिः, उत्तरकरणमपि सप्तविधमिति । तथा संसक्ते उपाश्रये 'षट्कं' पृथिव्यप्तेजो-वनस्पति-त्रसकाय-सागारिकलक्षणं शोधनीयम् । किमुक्तं भवति ? यथोक्तरूपेण षट्केन संसक्तायामपि न स्थातव्यम् । यदि तिष्ठति ततो लघु-गुरु-लघुका यावत् 'चरमं पाराश्चितं तावत् प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-पृथि-10 व्यादिभिः कायैः संसक्तायां तिष्ठन्ति (तिष्ठति) चत्वारो लघुकाः, हरितैरनन्तैश्चत्वारो गुरुकाः, प्रत्येकवीजैः पञ्च रात्रिन्दिवानि लघुकानि, अनन्तबीजैस्तान्येव गुरुकाणि, मित्रैः पृथिव्यादिभिर्मासलघु, मित्रैरनन्तैर्मासगुरु, बीजैः प्रत्येकैरनन्तैश्च मित्रैः सचित्तैरिव, सैः संसक्तायां चतुर्गुरु, एवं तिष्ठतः प्रायश्चित्तम् । अथ तिष्ठन् पृथिवीकायादिसङ्घटनादि करोति तदा लघुक-गुरुकादि प्रायश्चित्तम् “छक्काय चउसु लहुगा" इत्यादि(४६१)गाथया प्रागुक्तप्रकारेणाभि-15 हितं तावदवसेयं यावच्चरमं पाराञ्चितमिति ॥ ५८१ ।। "सप्तविधं मूलकरणं शोधनीयम्" इत्युक्तम् अतः सप्त मूलभेदानाह पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीतो। मूलगुणेहिँ उवहया, जा सा आहाकडा वसही ॥ ५८२ ॥ उपरितनस्तिर्यक्पाती पृष्ठवंशः, द्वौ मूलधारणौ ययोरुपरि पृष्ठवंशस्तिर्यग् निपात्यते, चतस्रश्च 20 मूलवेलय उभयोर्धारणयोरुभयतो द्विद्विवेलिसम्भवात् । एते वसतेः सप्त मूलभेदाः । एतैर्मूलगुणैः सप्तभिरुपहता या वसतिः सा आधाकृता भवति । साधून आधाय-सम्प्रधार्य कृता आधाकृता, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः ॥ ५८२ ॥ उत्तरकरणं पुनरिदं सप्तविधम् वंसग कडणोकंचण, छावण लेवण दुवार भूमी य । सप्परिकम्मा वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसु ॥ ५८३ ॥ वंशका ये वेलीनामुपरि स्थाप्यन्ते, पृष्ठवंशस्योपरि तिर्यक् 'कटनं' कटादिभिः समन्ततः पार्थानामाच्छादनम् , 'उत्कञ्चनम्' उपरि कम्बिकानां बन्धनम् , 'छादनं' दर्भादिभिराच्छादनम् , 'लेपन' कुड्यानां कर्दमेन गोमयेन च लेपप्रदानम् , “दुवार" त्ति संयतनिमित्तमन्यतो वसतेीरकरणम् , "भूमि" ति समभूमिकरणम् । एतत् सप्तविधमुत्तरकरणम् । एषा सपरिकर्मा वसतिर्मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च । एषा नियमेनाविशोधिकोटिः । अन्येऽपि चोत्तरगुणा वसतेर्वि-30 द्यन्ते तैः कृता विशोधिकोटिः ॥ ५८३ ॥ के तेऽन्ये उत्तरगुणाः ? इत्यत आह दूमिय धूविय वासिय, उजोविय बलिकडा अवत्ता य । सित्ता सम्मट्ठा वि य, विसोहिकोडी कया वसही ।। ५८४ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः ... 'दूमिया' नाम सुकुमारलेपेन सुकुमारीकृतकुड्या सेटिकया धवलीकृतकुड्या च, धूपिता अगुरुप्रभृतिभिः, वासिता पटवास-कुसुमादिभिः, 'उक्ष्योतिता' अन्धकारेऽग्निकायेन कृतो. क्ष्योता, 'बलिकृता' यत्र संयतनिमित्तं बलिविधानं कृतम् , 'अवात्ता' नाम यत्र भूमिरुपलिप्ता, सिक्ता आवर्षणकरणतः, सम्मृष्टा सम्मार्जन्या संयतनिमित्तम् । एवमुत्तरगुणैः कृता वसतिर्वि6 शोधिकोटिर्भवति ॥ ५८४ ॥ अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाह अप्फासुएण देसे, सव्वे वा दृमियादि चउलहुगा । अफासु धूमजोती, देसम्मि वि चउलहू होंति ॥ ५८५ ॥ सेसेसु फासुएणं, देसे लहु सव्वहिं भवे लहुगा। . सम्मजण साह-कुसादि छिन्नमत्तं तु सचित्तं ॥ ५८६ ॥ 10. यत्र देशतः सर्वतो वा अपाशुकेन दूमितादि आदिशब्दात् समस्तान्यपि पदानि गृही. तानि तत्र तिष्ठतः प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । यत्र पुनरगुरुप्रभृतिभिबूंपनमन्धकारेऽमिकायेनोक्ष्योतनं तत्र नियमादप्राशुकः-सचित्तोऽमिकाय इति देशेऽपि चत्वारो लघुकाः किमुत सर्वतः ? ॥ ५८५॥ 'शेषेषु' धूपितमुक्ष्योतितं च मुक्त्वा अन्येषु दूमित-वासित-बलिकृता-ऽवात्त-सिक्त16 सम्मृष्टरूपेषु भेदेषु प्राशुकेन देशतः करणे मासलधु, सर्वतश्चत्वारो लघवः । तथा यद मायते तत्र सचित्तं शाखा-कुशादि च्छिन्नमात्रं तद् यदि देशतः सर्वतो वा सम्मायने तदा चतुर्लघु ।। ५८६ ॥ मूलुत्तरचउभंगो, पढमे बीए य गुरुग सविसेसा । तइयम्मि होइ भयणा, अत्तट्ठकडो चरम सुद्धो ॥ ५८७ ॥ 20. मूलगुणाः पृष्ठवंशादयः उत्तरगुणा वंशकादयः तेषु मूलोत्तरगुणेषु चतुर्भङ्गी । गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । मूलगुणा अपि पृष्ठवंशादयः संयतनिमित्तमुत्तरगुणा अप्यविशोधिकोटिगता वंशकादयः संयतनिमित्तमिति प्रथमो भङ्गः, अत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका द्वाभ्यां गुरवः, तद्यथा-तपसा कालेन च । मूलगुणाः संयतार्थमुत्तरगुणा अविशोधिकोटिगताः खार्थमिति द्वितीयः, अत्र चत्वारो गुरुकास्तपोगुरवः काललघुकाः । “तइयम्मि होति भयण"त्ति 25 मूलगुणाः खार्थमुत्तरगुणाः संयतार्थमिति तृतीयो भङ्गस्तस्मिन् भजना । सा चेयम्-येऽत्रोत्तरगुणास्ते यद्यविशोधिकोटिगतास्तदा चतुर्गुरवस्तपोलघवः कालगुरवः, अथ विशोधिकोटिगतास्ते ततोऽप्राशुकेन देशे सर्वस्मिन् वा परिकर्मणि चत्वारो लघवः, प्राशुकेन देशतो मासलघु, सर्वतश्चत्वारो लघुकाः । आत्मार्थ मूलगुणा आत्मार्थमेव चोत्तरगुणा इत्येवमात्मार्थक तश्वरमभङ्गः शुद्धः ॥ ५८७ ॥ 30 तदेवं द्विविधकरणोपघातेति द्वारं व्याख्यातम् । अधुना संसक्तद्वारमाह पुढवि दग अगणि हरियग, तसपाण सागारियादि संसत्ता । बंभवयआदि-दसणविराहिगा पचवाया उ॥ ५८८॥ पृथिव्या उदकेनामिना हरितकेन त्रसपाणैः 'सागारिकादिभिश्च' सागारिकः-शय्यातरः Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा: ५८५-९२] पीठिका । १७१ आदिशब्दादन्यस्त्री-पुरुषगृहस्थैः ‘संसक्ता' सम्मिश्रा । तथा प्रत्यपाययति-प्रत्यपाये पातयतीति प्रत्यपाया ब्रह्मवतादीनां दर्शनस्य-सम्यक्त्वस्य विराधिका, यत्र ब्रह्मवतादीनां विराधनोपजायते सा सप्रत्यवाया शय्या इत्यर्थः ॥ ५८८ ॥ अत्रोभयत्रापि प्रायश्चित्तविधिमाह काएसु उ संसत्ते, सचित्त-मीसेसु होइ सट्ठाणं ।। सागारियसंसत्ते, लहुगा गुरुगा य जे जत्थ ॥ ५८९ ॥ 'कायैः' पृथिवीकायादिभिः सचित्तैर्मित्रैश्च संसक्ते उपाश्रये तिष्ठतः प्रायश्चित्तं 'स्वस्थानं' स्वस्थाननिष्पन्नं भवति । तद्यथा-सचित्तैः पृथिवीकायादिभिः संसक्ते चतुलघु, हरितैरनन्तैश्चतुर्गुरु, प्रत्येकबीजै रात्रिन्दिवपञ्चकं लघु, अनन्तबीजैर्गुरुकम् , मित्रैः पृथिव्यादिभिर्मासलघु, हरितैरनन्तैर्मित्रैर्मासगुरु, बीजैः प्रत्येकैरनन्तैश्च मित्रैः सचिवैरिव, त्रसकायैश्चत्वारो गुरुकाः । "सागारिय" इत्यादि पश्चिमार्द्धम् । निर्ग्रन्थानां पुरुषसंसक्ते उपाश्रये तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः, 10 स्त्रीसंसक्ते चत्वारो गुरुकाः । निर्ग्रन्थीनां स्त्रीभिः संसक्ते चतुर्लघु, पुरुषसंसक्ते चतुर्गुरु । ये च यत्राऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषास्ते च तत्र सप्रायश्चित्ता वक्तव्याः ।। ५८९ ।। गुरुगा बंभावाए, आयाए चेव दंसणे लहुगा।। ___ आणादिणो विराहण, भवंति एकेकगपयाओ ॥ ५९० ॥ 'ब्रह्मापाये' ब्रह्मप्रत्यवाये 'आत्मनि चैव' आत्मप्रत्यपाये 'गुरुकाः' चत्वारो गुरवः । 'दर्शने' 10 दर्शनप्रत्यपाये चत्वारो लघवः । 'आज्ञादयश्च' आज्ञाभङ्गादयो विराधना एकैकपदाद् भवन्ति ज्ञातव्याः, द्विविधकरणोपघातादिषु सर्वेष्वपि पदेषु यथायोगमाज्ञाभङ्गादयो विराधनाः सप्रायश्चित्ता योजनीया इत्यर्थः ॥ ५९० ॥ अथ के ब्रह्मप्रत्यवाया आत्मप्रत्यवाया दर्शनप्रत्यवाया वा ? तत आह तिरिय-मणुइत्थियातो, बंभावातो उ तिविह पडिमातो। 20 अहिबिल-चलंतकुड्डादि एवमादी उ आयाए ।। ५९१॥ आगाढमिच्छदिट्ठी, सव्वातिहि मरुग बहुजणट्ठाणा । पासंडा य बहुविहा, एसा खलु दंसणावाया ॥ ५९२ ॥ यत्र तिर्यस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो वा यदि वा यत्र 'त्रिविधाः प्रतिमाः' तिर्यस्त्रीप्रतिमा मनुष्यस्त्रीप्रतिमा देवस्त्रीप्रतिमा वा सा 'ब्रह्मापाया' ब्रह्मपत्यपाया, तस्यां स्थितानां 25 ब्रह्मवतविनाशसम्भवात् । यत्र पुनरहिबिलानि चलन्ति-चलानि कुड्यानि आदिशब्दाञ्चलवेलीधारणादिपरिग्रहः, एवमादिका 'आत्मनि' आत्मप्रत्यवाया ॥ ५९१ ॥ तथा यत्राऽऽगाढमिथ्यादृष्टिः, यत्र च सर्वेऽतिथयः समागच्छन्ति सत्रमित्यर्थः, यत्र 'मरुकाः' बटुकास्तिष्ठन्ति चट्टशाला इति भावः, यच्च बहूनामागन्तुकानां जनानां स्थानं देशिककुटीत्यर्थः, यत्र च बहुविधाः पाषण्डाः, एषा एवंरूपा बसतिः खलु दर्शनापाया' 50 दर्शनप्रत्यपाया ॥ ५९२ ॥ सम्प्रति शय्याविधिद्वारमाह कालातिकतोवट्ठाण अभिकंत अणमिकंताय । १लघवः भा०॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः वजा य महावजा, सावज महऽप्पकिरिया य ॥ ५९३ ॥ शय्या नवप्रकारा भवन्ति, तद्यथा-कालातिक्रान्ता १ उपस्थाना २ अभिक्रान्ता ३ अनभिक्रान्ता ४ वा ५ महावा ६ सावद्या ७ महासावद्या ८ अल्पक्रिया ९ च ॥ ५९३ ॥ तत्र कालातिक्रान्तादिषु प्रायश्चित्तविधिमाह कालातीते लहुगो, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु । गुरुगा तिसु जमलपया, अप्पकिरियाए सुद्धो उ ॥ ५९४ ॥ ऋतुबद्धे काले कालातिक्रान्तं तिष्ठति मासलघु, वर्षाकाले चत्वारो लघवः । 'चतुर्यु स्थानेषु' उपस्थानायामभिक्रान्तायामनभिक्रान्तायां वायां चेत्यर्थः तिष्ठतः प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः । तथा 'त्रिषु' स्थानेषु महावायां सावद्यायां महासावद्यायां चेत्यर्थः प्रत्येकं चत्वारो 10गुरवः, परं तपः-कालविशेषिताः । तद्यथा-महावायां चत्वारो गुरुकाः अतपोगुरवः, साव चायां तपोगुरवः, महासावद्यायां तपसा कालेन च गुरवः । “जमलपया" इति तपःकालयोः संज्ञा, ततोऽयमर्थः-त्रिषु स्थानेषु गुरुकाः 'यमलपदाः' यमलपदवन्तस्तपः-कालवि. शेषिता द्रष्टव्याः । अल्पक्रियायां तु तिष्ठन् शुद्धः ॥ ५९४ ॥ साम्प्रतमेतासामेव कालातिक्रान्तादीनां व्याख्यानमभिधित्सुराह- उउ-वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेजा। सच्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवजेत्ता ॥ ५९५॥ ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले च यत्र स्थितास्तस्यामृतुबद्धे काले मासे पूर्णे वर्षाकाले चतुर्मासे पूर्णे यत् तिष्ठति सा कालातिक्रान्ता वसतिः । “सच्चेव" इत्यादि । या कालमर्यादाऽनन्तरमुक्ता 'ऋतुबद्धे मासो वर्षासु चत्वारो मासाः' इति तामेव द्विगुणां द्विगुणामवर्जयित्वा यत्र 20 भूयः समागत्य तिष्ठन्ति सा उपस्थाना । किमुक्तं भवति ?-ऋतुबद्धे काले द्वौ मासौ वर्षा खष्टमासान् अपरिहृत्य यदि पुनरागच्छति तस्यां वसतौ ततः सा उपस्थाना भवति, उपसामीप्येन स्थानम्-अवस्थानं यस्यां सा उपस्थानेति व्युत्पत्तेः। अन्ये पुनरिदमाचक्षतेयस्यां वसतौ वर्षावासं स्थितास्तस्यां द्वौ वर्षाराचावन्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति अवाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थापना ॥ ५९५॥ जावंतिया उ सेजा, अन्नेहिँ निसेविया अभिकता। अनेहि अपरिभुत्ता, अनभिकंता उ पविसंते ॥ ५९६ ॥ या शय्या आचण्डालेभ्यो यावन्तिकी सा यदाऽन्यैश्चरकादिभिः पाषण्डस्थैर्गृहस्थैर्वा निषेविता पश्चात् संयतास्तिष्ठन्ति सा अभिक्रान्ता । सैव यावन्तिकी अन्यैः पाषण्डस्थैर्गृहस्थैर्वा अपरिभुक्ता तस्यां यदि संयताः प्रविशन्ति ततः साऽनभिक्रान्ता ॥ ५९६ ॥ अत्तट्टकडं दाउं, जतीण अन्नं करेंति वज्जा उ । जम्हा तं पुवकयं, वजंति ततो भवे वजा ॥ ५९७ ॥ आत्मार्थकृतां वसतिं यतिभ्यो दत्त्वा पुनरन्यामात्मार्थ कुर्वन्ति यदि ततः सा यतिदत्ता वा भवति । कया व्युत्पत्त्या ? इत्यत आह-यस्मात् तां पूर्वकृतां वसतिं गृहस्था वर्जयन्ति, 28 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ५९३-६००] पीठिका । १७३ यतिभ्यः किल दत्तत्वात् । ततो वर्ण्यत इति वा भवति सा पूर्वकृतेति ॥ ५९७ ॥ पासंडकारणा खलु, आरंभो अभिणवो महावजा । समणट्ठा सावजा, महसावजा उ साहूणं ॥ ५९८ ॥ यत्र बहूनां श्रमण-ब्राह्मणप्रभृतीनां पाषण्डानां कारणात्-कारणेन खल्वारम्भोऽभिनवः क्रियते सा महावा । 'श्रमणार्थी' पञ्चानां श्रमणानामर्थाय कृता सावद्या । या पुनरमीषा-5 मेव साधूनामर्थाय कृता सा महासावद्या ॥ ५९८ ॥ जा खलु जहुत्तदोसेहिँ वजिया कारिया सहाए । परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरिया उ ॥ ५९९ ॥ या पुनः 'यथोक्तदोषैः' कालातिक्रान्तादिलक्षणैर्वर्जिता केवलं खस्य-आत्मनोऽर्थाय कारिता परिकर्मणा च विषमुक्ता सर्वस्यापि परिकर्मणः खत एवाग्रे प्रवर्तितत्वात् सा वस- 10 तिरल्पक्रिया वेदितव्या ।। ५९९ ॥ सम्प्रति यतनां दर्शयितुकाम इदमाह हिडिल्ला उवरिल्लाहि बाहिया न उ लभंति पाहनं । पुन्वाणुनाभिणवं, च चउसु भय पच्छिमाभिणवा ॥ ६००॥ अधस्तन्य उपरितनीभिर्बाध्यन्ते, बाधिताश्च सत्यः 'न तु' नैव लभन्ते प्राधान्यम् । इयमत्र भावना-नवापि वसतयः क्रमेण स्थाप्यन्ते, तत्राप्यल्पक्रिया निर्दोषेति प्रथमम् । तद्यथा-15 अल्पक्रिया कालातिक्रान्ता उपस्थाना अभिक्रान्ता अनभिक्रान्ता वा महावा सावद्या महासावद्या च । अत्राधस्तनी अल्पक्रिया, अस्यां यद्यतिरिक्तं कालं तिष्ठति ततः सा कालातिक्रान्तया बाध्यते, सा कालातिक्रान्ता भवतीति भावः । कालातिक्रान्तामपि यदि प्रागभिहितखरूपां कालमर्यादां द्विगुणां द्विगुणामपरिहृत्योपागच्छन्ति ततः सा उपस्थानया बाध्यते, उपस्थाना सा भवतीति भावः । एवं यथासम्भवमुपयुज्य वक्तव्यम् । “पुवाणुन्न"ति आसां 20 च नवानां शय्यानां मध्ये पूर्वस्याः पूर्वस्याः अनुज्ञा वेदितव्या । किमुक्तं भवति ?-नवानां शय्यानां मध्ये या पूर्वा अल्पक्रिया सा तावत् प्रथममनुज्ञाता, लेशतोऽपि सावद्याभावात् । तस्या अभावे शेषाणां मध्ये कालातिक्रान्ता पूर्वा सा अनुज्ञाता, अल्पक्रियाया अलाभे सा आश्रयणीया इति भावः; तस्या अप्यलाभे शेषाणां पूर्वी उपस्थाना सा अनुज्ञाता; एवं या या पूर्वा सा सा अनुज्ञाता तावद् वक्तव्या यावत् सावद्या महासावद्यायाः पूर्वा सा अनुज्ञाता । 25 एवं पूर्वस्याः पूर्वस्या अलाभे उत्तरस्या उत्तरस्या अनुज्ञा वेदितव्या । "अभिणवं च चउसु भय"ति चतसृषु वसतिषु अभिनवेति दोषः सम्बध्यते अभिनवं दोषं 'भज' विकल्पय, कदाचिद् भवति कदाचिन्न भवतीति जानीहीत्यर्थः । अत्रापीयं भावना-अनभिक्रान्तायामपरिभुक्तेति कृत्वा चिरकृतायामप्यभिनवदोषो भवति, वादिषु पुनर्याः परिभुक्तास्तासु नाभिनवदोषः, एषा भजना । “पच्छिमाऽभिनव"त्ति पश्चिमो नाम महासावद्योपाश्रयः तस्मिन्नभिनवकृते वा 30 चिरकृते वा परिभुक्ते वा अपरिभुक्ते वा अभिनवदोषा भवन्ति, एकपक्षनिर्धारणात् । एतैर्मूलगुणादि(ग्रन्थानम्-४५००)दोषैर्यः परिहत्तुं जानाति स ग्रहणे कल्पिकः ॥ ६०० ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ 10 सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः कथं पुनर्जानाति परिहर्तुम् ? इति चेद् अत आह उग्गम-उप्पायण-एसणाहिँ सुद्धं गवेसए वसहि । तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवगेण मेदेणं ॥ ६०१॥ उद्गमेनोत्पादनया एषणया शुद्धां वसतिं गवेषयति । तत्र त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः। तेषु 5च उपरितनेषु सप्तसु भङ्गेष्वशुद्धां परिहर्तुं यो जानाति स ग्रहणे कल्पिकः । कथम्भूतां वसतिमुद्गमादिशुद्धां गवेषयति ? इत्यत आह-'त्रिविधां' खातादिभेदतस्त्रिप्रकारां तथा 'त्रिभिः' मनसा वाचा कायेन च विशुद्धां गवेषयति । तथा खातादीस्तिस्रोऽपि वसतीरुद्माद्यशुद्धा नवकेन भेदेन परिहरति । तद्यथा-मनसा न गृह्णाति नापि ग्राहयति नापि गृह्णन्तमनुजानीते, एवं वाचा कायेन च वक्तव्यमिति ॥ ६०१॥ पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति । आलोयणमायरिये, आयरिओ विसोहिकारो से ॥६०२ ॥ अस्या व्याख्या प्राग्वत् (गाथा ५३०) ॥ ६०२॥ उक्तः शय्याकल्पिकः । सम्प्रति वस्त्रकल्पिकमभिधित्सुराह नाम ठवणा वत्थं, दवे भावे य होइ नायव्वं । एसो खलु वत्थस्स उ, निक्खेवो चउबिहो होइ ॥६०३॥ वस्त्रं खलु चतुर्विधम् । तद्यथा-नामवस्त्रं स्थापनावस्त्रं द्रव्यवस्वं भाववस्त्रं च । एष खलु वस्त्रस्य निक्षेपश्चतुर्विधो भवति ॥ ६०३ ॥ तत्र नाम-स्थापने प्रतीते, द्रव्यवस्त्रमाह दव्वे तिविहं एगिदि-विगल-पंचेंदिएहिँ निप्फनं । सीलंगाइँ भावे, देव्वे पगयं तदट्ठाए ॥६०४॥ 20 द्रव्यवस्त्रं त्रिविधम् । तद्यथा-एकेन्द्रियनिष्पन्नं विकलेन्द्रियनिष्पन्नं पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं च । तत्रैकेन्द्रियनिष्पन्न कार्पासिकादि, विकलेन्द्रियनिष्पन्नं कौशेयकादि, पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नमौर्णिकौष्ट्रिकादि । 'भावे' भाववस्त्रमष्टादश शीलाङ्गसहस्राणि । अथ कान्यष्टादश शीलाङ्गसहस्राणि ? इति चेद् उच्यतेअष्टादश शीला ___करणे जोगे सण्णा, इंदिय भोमादि समणधम्मे य । सहस्राणि 35 सीलंगसहस्साणं, एताउ भवे समुप्पत्ती ॥ अस्या अक्षरगमनिका-करणं त्रिविधम् , तद्यथा-करणं कारापणमनुमोदनं च । त्रिविधो योगः-मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्च । संज्ञाश्चतस्रः, तद्यथा-आहारसंज्ञा भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा परिग्रहसंज्ञा च । इन्द्रियाणि पञ्च, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियं चक्षुरिन्द्रियं प्राणेन्द्रियं जिहेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियं च । 'भोमादि'त्ति भौमः पृथिवीकायविषयः समारम्भः, आदिशब्दा30 दप्कायसमारम्भस्तेजःकायसमारम्भो वायुकायसमारम्भो वनस्पतिकायसमारम्भो द्वीन्द्रियसमारम्भस्त्रीन्द्रियसमारम्भश्चतुरिन्द्रियसमारम्भः पञ्चेन्द्रियसमारम्भोऽजीवकायसमारम्भश्च । श्रम१ वत्थस्सा नि° ता० ॥ २ दविए पगतं ता• ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६०१-६०६ ] पीठिका | १७५ धर्मोऽपि दशधा - क्षान्तिर्मार्दवमार्जवमलोभता तपः सत्यं संयमस्त्यागोऽकिञ्चनता ब्रह्मचर्यं च । एतैः स्थानैरष्टादशानां शीलाङ्गसहस्राणामुत्पत्तिः ॥ तद्यथा न करेइ सयं साहू, मणसा आहारसन्नउवउत्तो | सोइ दियसंवरण, पुढ विजिए खंतिसंपन्नो || न करेइ सयं साहू, मणसा आहारसन्न उवउत्तो । सोइं दियसंवरणो, पुढविजिए मद्दवपवन्नो || एवं तावद् वक्तव्यं यावद्दशम्यां गाथायां “बंभचेरगए" इति । एते दश भङ्गाः पृथिवी - कायसमारम्भपरिहारेण लब्धाः, एवमप्कायादिपरिहारेणापि प्रत्येकं दश दश लभ्यन्ते इति सर्वसङ्कलनया जातं शतम् । एतच्च श्रोत्रेन्द्रियेण लब्धम् एवं शेषैरपीन्द्रियैः प्रत्येकं शतं शतं लभ्यते इति जातानि पञ्च शतानि । एतानि चाहारसंज्ञोपयुक्तेन लब्धानि एवं शेषाभिरपि 10 संज्ञाभिः प्रत्येकं पञ्च शतानीति सर्वसङ्ख्यया जाते द्वे सहस्रे । एते च ' न करोति' इत्यनेन पदेन लब्धे, एवं " न कारवेइ" इत्यनेन "नो अणुमन्नइ" इत्यनेन च प्रत्येकं लभ्य ( ये ) ते इति सर्वमीलने जातानि षट् सहस्राणि । [ ए ] तानि लब्धानि मनोयोगेन, एवं वाग्योगेन काययोगेनापीति सर्वसङ्ख्यया जातान्यष्टादश सहस्राणि ॥ एतैरष्टादशभिः शीलाङ्गसहसैर्नित्यप्रावृता साधवोऽवतिष्ठन्ते तत एतानि भाववस्त्रम् | 15 “दब्बे पगय”मित्यादि । अत्र द्रव्यवस्त्रेणाधिकारः, यतस्तद् द्रव्यवस्त्रं ' तदर्थाय' भाववस्त्राय भवति, भाववस्त्रस्योपग्रहं करोतीत्यर्थः । ततः प्रकृतमत्र द्रव्यवस्त्रेण || ६०४ ॥ रवि दव्वे तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं । एकं तत्थ तिहा, अहाकड - sप्पं सपरिकम्मं ।। ६०५ ॥ यद् द्रव्यवस्त्रमेकेन्द्रियादिनिष्पन्नतया त्रिविधमुक्तं तत् पुनरपि प्रत्येकं त्रिधा, तद्यथा - 20 जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । तत्र कार्पासिकं जघन्यं मुखपोतिकादि, मध्यमं पटलकादि, उत्कृष्टं कल्पादि । एवं शेषे अपि कौशेयकादिके यथायोगं भावनीये । एतेषामेकैकं 'त्रिधा त्रिप्रकारम्, तद्यथा-यथाकृतमल्पपरिकर्म सपरिकर्म च ॥ ६०५ ॥ एषामुत्पादने यथोक्तविध्यकरणे प्रायश्चित्तमाह - 5 चाउम्मासुकोसे, मासिय मज्झे य पंच य जहने । वोच्चत्थगहण करणे, तत्थ वि सट्टाणपच्छित्तं ।। ६०६ ॥ 'उत्कृष्टे' उत्कृष्टवस्त्रविषये विपर्यस्त ग्रहणे - विपर्यासेन ग्रहणे प्रायश्चितं चतुर्मासम्, मध्यमे मासिकम्, जघन्ये पञ्च रात्रिन्दिवानि । इयमत्र भावना - उत्कृष्टस्य यथाकृतस्य वस्त्रस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य विषये योगमकृत्वा यद्यल्पपरिकर्मोत्कृष्टं गृह्णाति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, यदा किल यथाकृतं योगे कृतेऽपि न लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म ग्रहीतव्यम् नान्यदा, 30 अत्र तु विपर्यय इत्युक्तरूपं प्रायश्चित्तम् । अथोत्कृष्टमेव सपरिकर्म गृह्णाति तदाऽपि चतुर्लघु । अथ यथाकृतमुत्कृष्टं वस्त्रं कृतेऽपि योगे न लब्धं तत उत्कृष्टस्याल्पपरिकर्मणो मार्गणं कर्त 25 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः व्यमेव । तत्करणाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वा सपरिकर्मोत्कृष्टं वस्त्रमाददानस्य चतुर्लघु । एवमुत्कृष्टविषये त्रीणि चतुर्लघुकानि । तथा मध्यमस्य यथाकृतस्य वस्त्रस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति मासलघु । अथ सपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति तदाऽपि मासलघु । “यदा यथाकृतं न लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म मध्यमं याचनीयम्" इति वचनतो यथा6कृतस्य योगे कृतेऽप्यलाभेऽल्पपरिकर्मण उत्पादनाय निर्गतस्तस्य विषये योगमकृत्वा यदि सपरिकर्म मध्यमं गृहाति तदाऽपि मासलघु । एवं मध्यम विषये त्रीणि मासिकानि । तथा जघन्यस्य यथाकृतस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरिकर्म जघन्यं गृहाति तदा रात्रिन्दिवपञ्चकम् । अथ सपरिकर्म जघन्यमाददाति तदाऽपि पञ्चकम् । यदा तु योगे कृतेऽपि यथा कृतं न लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म मार्गयितव्यमिति तस्योत्पादनाय निर्गतस्तद्विषये योगम10 कृत्वा सपरिकर्म गृह्णानस्य पञ्चकम् । एवं जघन्यविषये त्रीणि पञ्चकानि । एतच्च प्रायश्चित्तमधिकृतविषये योगाकरणे । योगे तु कृते लाभाभावतस्तथाग्रहणेऽपि दोषाभावः । तथाहियथाकृतस्य निर्गतः तच्च योगे कृतेऽपि न लब्धं ततोऽल्पपरिकर्मापि गृह्णानः शुद्धः । अल्पपरिकर्मणो वा निर्गतस्तद्योगे कृतेऽप्यलभमानः सपरिकर्म गृहन् शुद्धः । न केवलमेतद् विपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तं किन्तूत्कृष्टादिविपर्यस्तग्रहणे खस्थानमपि । तद्यथा-उत्कृष्टस्योत्पा16 दनाय निर्गतो मध्यमं गृह्णाति मासिकम् , जघन्यं गृह्णाति रात्रिन्दिवपञ्चकम् ; मध्यमस्य निर्गत उत्कृष्टं गृहाति चतुर्लधु, जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम् ; जघन्यस्य निर्गत उत्कृष्टं गृहाति चतुर्लघु, मध्यमं गृहाति मासलघु; सर्वत्र चाऽऽज्ञादयो दोषाः । तदेवं ग्रहणे प्रायश्चित्तखस्थानमुक्तम् । एवं 'करणेऽपि' उत्कृष्टादिकरणेऽपि खस्थानप्रायश्चित्तमवसातव्यम् । तद्यथा-उत्कृष्टं वस्त्रं छित्त्वा सीवित्वा च मध्यमकं करोति मासलघु, जघन्यं करोति रात्रिन्दिवपञ्चकम् ; मध्यम 20 छित्त्वा सीवित्वा वा उत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, जघन्यं करोति रात्रिन्दिवपञ्चकम् ; जघन्य छित्त्वा सीवित्वा वा उत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, मध्यमं करोति मासिकम् । यत एवं स्वस्थानप्रायश्चित्तं ततो विपर्यस्तग्रहण-करणे न विधेये ॥ ६०६ ॥ ग्रन्थाग्रम्-४६०० ॥ [॥ एतदन्तं पीठिकावृत्तिः श्रीमलयगिरिचरणैः सूत्रितेति भद्रम् ॥] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ आचार्यश्रीक्षेमकीर्तिसूरिभिरनुसन्धिता पीठिकावृत्तिः। ॥ ॐनमः सर्वज्ञाय ॥ नतमघवमौलिमण्डलमणिमुकुटमयूखधौतपदकमलम् । सर्वज्ञममृतवाचं, श्रीवीरं नौमि जिनराजम् ॥ १ ॥ चरमचतुर्दशपूर्वी, कृतपूर्वी कल्पनामकाध्ययनम् । सुविहिनहितैकरसिको, जयति श्रीभद्रबाहुगुरुः ॥ २ ॥ कल्पेऽनल्पमनध्यं प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरुम्बम् । श्रीसङ्घदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै ॥ ३ ॥ शिवपदपुरपथकल्पं, कल्पं विषममपि दुःषमारात्रौ । सुगमीकरोति यच्चर्णिदीपिका स जयति यतीन्द्रः ॥ ४ ॥ आगमदुर्गमपदसंशयादितापो विलीयते विदुषाम् । यद्वचनचन्दनरसैमलयगिरिः स जयति यथार्थः ॥ ५॥ श्रुतलोचनमुपनीय, व्यपनीय ममापि जडिमजन्मान्ध्यम् । यैरदर्शि शिवमार्गः, खगुरूनपि तानहं वन्दे ॥६॥ ऋजुपदपद्धतिरचनां, बालशिरःशेखरोऽप्यहं कुर्वे । यस्याः प्रसादवशतः, श्रुतदेवी साऽस्तु मे वरदा ॥ ७ ॥ श्रीमलयगिरिप्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रमन्त मतिमन्तः । सा कल्पशास्त्रटीका, मयाऽनुसन्धीयतेऽल्पधिया ॥ ८ ॥ 20 इह श्रीमदआवश्यकादिसिद्धान्तप्रतिवद्धनियुक्तिशास्त्रसंसूत्रणसूत्रधारः परोपकारकरणैकदीक्षादीक्षितः सुगृहीतनामधेयः श्रीभद्रबाहुखामी सकर्णकर्णपुटपीयमानपीयूषायमान(ण)ललितपदकलितपेशलालापकं साधु-साध्वीगतकल्प्या-ऽकल्प्यपदार्थसार्थविधि-प्रतिषेधप्ररूपकं यथायोगमुत्सर्गा-ऽपवादपदपदवीसूत्रकवचनरचनागर्भ परस्परमनुस्यूताभिसम्बन्धवन्धुरपूर्वापरसू सन्दर्भ प्रत्याख्यानाख्यनवमपूर्वान्तर्गताऽऽचारनामकतृतीयवस्तुरहस्यनिष्यन्दकल्पं कल्प- 25 नामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं नियूंढवान् । अस्य च खल्पग्रन्थमहार्थतया प्रतिसमयमपसर्पदवसर्पिणीपरिणतिपरिहीयमानमति-मेधा-धारणादिगुणग्रामाणामैदंयुगीनसाधूनां दुरवबोधतया च सकलत्रिलोकीसुभगकरणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्रीसङ्घन्दासगणिपूज्यैः प्रतिपदप्रकटितसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भुतप्रभूतप्रत्यपायजालं निपुणचरण-करणपरिपालनोपायगोचरविचार १ नमः श्रीसर्वज्ञाय डे० ले० त० । ॐनमः श्रीसवैज्ञाय का० ॥२°पीयूषोपमान ले० ॥ ३°सूचकवचन भा०॥ बृ. २३ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १७८ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः वाचालं सर्वथादूषणकरणेनाप्यदूप्यं भाष्यं विरचयाञ्चके । इदमप्यतिगम्भीरतया मन्दमेधसांदुरवगममवगम्य यद्यप्यनुपकृतपरोपकृतिकृता चूर्णिकृता चूर्णिरासूत्रिता तथापि सा निबिडजडिमजम्बालजालजटालानामस्मादृशां जन्तूनां न तथाविधमवबोधनिबन्धनमुपजायत इति परिभाव्य शब्दानुशासनादिविश्वविद्यामयज्योतिःपुञ्जपरमाणुघटितमूर्तिभिः श्रीमलयगिरिमुनी5न्द्रषिपादैविवरणकरणमुपचक्रमे । तदपि कुतोऽपि हेतोरिदानी परिपूर्ण नावलोक्यत इति परिभाव्य मन्दमतिमौलिमणिनाऽपि मया गुरूपदेशं निश्रीकृत्य श्रीमलयगिरिविरचितविवरणादूर्द्ध विवरीतुमारभ्यते । कृतं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तूयते___ इहायं कल्प-व्यवहारयोरनुयोगः प्रक्रान्तः । स च कतिभिीरैः प्ररूपणीयः ? इति स्वरूपनिरूपणायामनुयोगवक्तव्यताप्रतिबंद्धद्वारकलापसूचिका तावदियं मूलगाथा निक्खेवेगट्ट निरुत्ति विहि पवत्ती य केण वा कस्स । तदार भेय लक्खण, तयरिह परिसा य सुत्तत्थो ।। (गाथा १४९) अस्याश्च निक्षेपादीनि तदर्हपर्यन्तान्येकादश द्वाराणि व्याख्यातानि । सम्प्रति पर्षदिति द्वारमनुवर्तते । तत्र चेदं द्वारश्लोकयुगलम् बहुस्सुए चिरपदइए, कप्पिए अ अचंचले । अवट्ठिए अ मेहावी, अपरिस्साई अ जे विऊ ।। (गाथा ४००) पत्ते य अणुनाए, भावओ परिणामगे । एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ ।। (गाथा ४०१) अत्र च बहुश्रुत-चिरप्रव्रजिते द्वारे व्याख्याते, कल्पिकद्वारं व्याख्यायमानमस्ति । सोऽपि कल्पिको द्वादशविधः, तद्यथा सुत्ते अत्थे तदुभय, उवट्ट वीयार लेव पिंडे य । सिज्जा वत्थे पत्ते, उग्गहण विहारकप्पे य ॥ (गाथा ४०५) तत्र सूत्रकल्पिकादयः शय्याकल्पिकान्ता भाविताः । साम्प्रतं वस्त्रकल्पिको भाव्यते । तत्रापि गाथाचतुष्टयं श्रीमलयगिरिणैव व्याख्यातम्, इतः प्रभृति विवियते । तत्र यदुक्तमनन्तरगाथायां “वोच्चत्थगहण-करणे, तत्थ वि सट्टाणपच्छित्तं"ति तदेतद भावयति25 जोगमकाउमहागडे, जो गिण्हइ दोनि तेसु वा चरिमं । लहुगा उ तिनि मज्झम्मि मासिआ अंतिमे पंच ॥ ६०७॥ 'योग' व्यापारमुद्यममकृत्वा 'यथाकृते' यथाकृतवस्त्र विषयं यः साधुः 'द्वे' अल्पपरिकर्मसपरिकर्मणी गृह्णाति । तद्यथा-यथाकृतस्यार्थाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वा प्रथममेवाल्पपरिकर्म सपरिकर्म वा गृह्णाति । यथाकृतालाभे वा अल्पपरिकर्मणो योगमकृत्वा प्रथमत एव 30 'तयोः' अल्पपरिकर्म-सपरिकर्मणोर्मध्ये 'चरमम्' अन्त्यं सपरिकर्म गृह्णाति । तस्यैतेषु त्रिषु स्थानेषत्कृष्ट-मध्यम-जघन्यान्यधिकृत्य यथाक्रमं प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-उत्कृष्टे त्रिषु स्थानकेषु १ मुनीन्द्रपादै मो० त० कां० ॥ २ °बद्धा तावदियं भा० ले. का० ॥ ३ अत्र डे० त० ॥ ४ तदेव भाव डे० त०॥ ५°गड जो ता० ॥ ६साधुः "दुन्नि" त्ति द्वे भा० ॥ 00 जागना Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६०७ - ६०९ ] पीठिका | १७९ त्रयश्चतुर्लघवः, मध्यमे त्रीणि मासिकानि, 'अन्तिमे' जघन्ये' त्रीणि पञ्चरात्रिन्दिवनि । अत्र च भावना पूर्वगाथायां कृतेति न भूयो भाव्यते ॥ ६०७ ॥ उक्तं यथाकृता दिविपर्यासग्रहणे प्रायश्चित्तम् । सम्प्रत्युत्कृष्टादिविषये विपर्यासेन ग्रहणे करणे च तदाहएयरनिग्गओ वा, अन्नं गिण्हिज तत्थ सद्वाणं । 5 " छित्तूण सिव्विऊण व, जं कुणइ तगं न जं छिंदे ॥ ६०८ ॥ जघन्यादीनामेकतरस्यार्थाय निर्गतो वाशब्दो वैपरीत्यस्य प्रकारान्तरद्योतने 'अन्यत्' येन न प्रयोजनं तद् गृह्णीयात् तत्र स्वस्थानप्रायश्चित्तम् । तद्यथा — उत्कृष्टस्य निर्गतो मध्यमं गृह्णाति मासिकम् जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम् ; मध्यमस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु, जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम् ; जघन्यस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु, मध्यमं गृह्णाति मासलघु; तथाऽऽज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः । यत् तेन विवक्षितवस्त्रेण कार्य तस्यान्येनाप्रतिपूरणम् । जघन्येन प्रयो- 10 जने समापतिते मध्यमोत्कृष्टयोर्गृह्यमाणयोरतिरिक्तोपकरणदोषः । तथोत्कृष्टादिकं छिवा सीवित्वा वा यद् मध्यमादिकं करोति "तगं" ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्, न पुनर्यच्छिनति तन्निष्पन्नम् । तथाहि —उत्कृष्टं छित्त्वा मध्यमं करोति मासलघु, जघन्यं करोति पञ्चकम् ; मैध्यमं छित्त्वा सीवित्वा चोत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, जघन्यं करोति पञ्चकम् ; जैघन्यं सीवित्वा उत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, मध्यमं करोति मासलघु इति । एवं यत् करोति तन्निष्पन्नमेव प्राय- 15 श्चित्तमापद्यते, न पुनश्छिद्यमान - सीव्य मानवस्त्र निष्पन्नम् । अत्राप्याज्ञाभङ्गादयो दोषा द्रष्टव्याः । नवरं विराधना द्विधा -- संयम विराधना आत्मविराधना च । संयमविराधना वस्त्रे छिद्यमाने सीव्यमाने वा तद्गताः षट्पदिकादयो विनाशमापद्यन्ते । आत्मविराधना हस्तोपघातादिका । तथा यावद् वस्त्रं छिद्यते सीव्यते वा तावत् सूत्रा -ऽर्थपरिमन्थ इत्यादयो दोषा अभ्यू वक्तव्याः । यत एवं दोषजालमुपढौकते ततः कारणाभावे छेदन - सीवनादि न कर्तव्यम् 120 कारणे तु यतनया कुर्वाणः शुद्धः ॥ ६०८ ॥ अथ वस्त्रस्य गवेषणे कति प्रतिमा गच्छबासि - नाम् ? कति गच्छनिर्गतानाम् ? इत्यत आह उद्दिसि पेह अंतर, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ । उपडिमा गच्छ जिणे, दोन्हऽग्गहऽभिग्गहडनयरा ॥ ६०९ ॥ यद् वस्त्रं गुरुसमक्षम् 'उद्दिष्टं' प्रतिज्ञातं यथा 'अमुकं जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं वा 25 आनेष्ये' तदेव गृहिभ्यो याचमानस्योद्दिष्टवस्त्र मिति प्रथमा प्रतिमा । तथा "पेह" ति प्रेक्षाअवलोकनं तत्पुरस्सरं यद् वस्त्रं याच्यते तत् प्रेक्षावस्त्रम् । तथाऽभिनवं वस्त्रयुगलं परिवाय १वानि । भावना तु पूर्वगाथायां कृतैवेति न भो० ॥ २ मध्यमानि च्छित्त्वा भा० विना ॥ ३ जघन्यानि सीवित्वा भा० विना ॥ ४ इत्येतदभिधित्सुराह भा० ॥ ५ " उद्दिलिय "त्ति उद्दिष्टवत्रम् । इयमत्र भावना - यद् वस्त्रमदृट्रैव याच्यमानं 'प्रयोजनमस्माकममुकेन सौत्रिकेणौर्णिकेनापरेण वा' इत्याद्युल्लेखेन साधुभिर्गृहस्थस्य पुरत उद्दिश्यते-अभिदृष्टं धीयते तदुद्दिष्टम् । तथा "पेह"त्ति प्रेक्षणं प्रेक्षा विलोकनं निरीक्षितमिति पर्यायाः, प्रेक्षापुरस्सरं यद् वस्त्रं याच्यते भा० ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः प्रावृत्य च पुरातनं स्थापयितुकामो न तावदद्यापि स्थापयति इत्यत्र अन्तरा-अपान्तराले यद् याच्यते तदन्तरावस्त्रम् । तथा उज्झनम्-उज्झितं परित्याग इत्यर्थः, धर्मशब्दश्च यद्यपि "धर्मो यमोपमा-पुण्य-खभावा-ऽऽचार-धन्वसु ॥ (हैमाने० द्विख० ३३५) सत्सङ्गेऽहत्यहिंसादौ, न्यायोपनिषदोरपि ।" (हैमाने० द्विख० ३३६) । इति वचनादनेकेष्वर्थेषु रूढः तथाऽपीह प्रक्रमात् खभावार्थो द्रष्टव्यः, तत उज्झितमेव धर्मः-खभावो यस्य तदुज्झितधर्म परित्यागाहमित्यर्थः । एतच्च वस्त्रैषणासूत्रक्रमप्रामाण्यात् चतुर्थमेव चतुर्थकं भवति । एताश्चतस्रः 'प्रतिमाः' प्रतिपत्तयो वस्त्रस्य ग्रहणप्रकारा इत्यर्थः, “गच्छ"ति सूचकत्वात् सूत्रस्य गच्छवासिनामेताश्चतस्रोऽपि भवन्ति । "जिणे"त्ति जिनकल्पिकानां यावजीवं द्वयोरुपरितनयोः आङ्-मर्यादया ग्रहः-खीकार आग्रहः, द्वयोरेवोपरितन10 योग्रहणं नाधस्तनयोयोरित्यर्थः । तत्राप्यन्यतरस्यामभिग्रहः, किमुक्तं भवति ?—यदा तृती यस्यां ग्रहणं न तदा चतुर्थ्याम् , यदा चतुर्थ्यां न तदा तृतीयायामिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ६०९॥ अथैनामेव विवृणोति __उद्दिट्ट तिगेगयरं, पेहा पुण दगु एरिसं भणइ । अन्न नियत्थऽत्थुरिए, इतरऽवर्णितो उ तइयाए ॥ ६१०॥ 15 'उद्दिष्टं' गुरुसमक्षं प्रतिज्ञातं यद् जघन्य-मध्यमोत्कृष्टलक्षणस्य त्रिकस्य एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नवस्त्रत्रिकस्य वा एकतरम् तदेवादृष्टं सद् याच्यमानमुद्दिष्टमिति भाविता प्रथमा प्रतिमा । अथ द्वितीया भाव्यते-“पेहा पुण"त्ति प्रेक्षावस्त्रं पुनरिदम् , यथा-कोऽपि साधुः कस्याप्यगारिणः सत्कं वस्त्रं दृष्ट्वा भणति-'यादृशमेतद् वस्त्रं दृश्यते तादृशमिदमेव वा मे प्रयच्छ' इति भणन् तदेव वस्त्रं हस्तप्रान्तेन दर्शयति तत् प्रेक्षावस्त्रेमिति द्वितीया प्रतिमा । 20 सम्प्रति तृतीया भाव्यते-तस्याश्चान्तरीयोत्तरीयवस्त्रयुगलद्वारेण प्ररूपणा कर्तव्या । तथा च श्रीमद्आचाराङ्गे द्वितीये श्रुतस्कन्धे प्रथमेऽध्ययने प्रथमोद्देशके सूत्रमिदम् अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेज्जा, तंजहाअंतरिज्जगं वा उत्तरिज्जगं वा ।। अथ किमिदमन्तरीयम् ? किं वा उत्तरीयम् ? उच्यते-अन्तरीयं नाम निवसनं परिधा25 नमित्यर्थः, उत्तरीयं नाम प्रावरणं प्रच्छदपटीत्यर्थः; अथवाऽन्तरीयं यत् शय्यायामधस्तनं वस्त्रमास्तीर्यते, उत्तरीयं पुनर्यत् तदुपरि प्रस्तीर्यते । तस्मिन्नन्तरीयोत्तरीयवस्त्रयुगले 'अन्यस्मिन्' अभिनवे "नियत्थ"त्ति निबसिते परिहिते प्रावृते वेत्यर्थः । द्वितीयव्याख्यानापेक्षया शय्याया उपरि "अत्युरिइ"ति आस्तीर्णे 'इतरत्' पुराणमन्तरीयोत्तरीययुगलम् 'अपनयन्' स्थापयितुमना इत्यत्रान्तरा यद् मार्यते तदन्तरावस्त्रमिति तृतीया प्रतिमा ॥ ६१० ॥ १ इत्येव अन्त° मो० ॥ २ 'उद्दिष्टं' प्राग्निरूपितशब्दार्थम् , जघन्य भा० ॥ ३ एकतरमदृष्टमेव याच्य° भा० ॥ ४ दृश्यते ईदृशेनैव ममापि प्रयोजनम् , यद्यस्ति भवतामेपणीयं तत ईदृशं प्रयच्छ भा० ॥ ५ स्त्रम् । भाविता द्विती° भा० ॥ ६ प्रच्छादनपटी मो० ॥ ७°नम् । व्याख्याता तृती° भा० ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६१०-१३] पीठिका । सम्प्रति चतुर्थी व्याख्यानयति दव्वाइ उज्झियं दवओ उ थूलं मए न घेत्तव्वं । दोहि वि भावनिसिहूं, तमुज्झिओभट्टष्णोभटुं ॥ ६११॥ इह चतुर्थी प्रतिमा-उज्झितधर्म वस्त्रं गवेषणीयम् , तच्च चतुर्दा-द्रव्योज्झितं आदिशब्दात् क्षेत्र-काल-भावोज्झितपरिग्रहः । तत्र द्रव्योज्झितं यथा-केनचिदगारिणा प्रतिज्ञातं 'मया स्थूलं वस्त्रं न ग्रहीतव्यम्' अन्यदा तस्य तदेव केनापि वयस्यादिनोपढौकितम् , स च ब्रूते'पर्याप्तं ममैतेन, नाहं गृह्णामि' इतरोऽपि ब्रूते- 'ममाप्यलमेतेन, नाहमात्मना दत्तं पुनः स्वीकरोमि' इत्येवं द्वाभ्यामपि दायक-ग्राहकाभ्यां भावतः-परमार्थतो निसृष्टं-परित्यक्तम्, अमुष्मिन् देश-काले यदि जिनकल्पिकादिः साधुरवभाषितमनवभाषितं वा लभेत तद् द्रव्योज्झितं ज्ञातव्यम् । इह चावभाषितं याचितमनवभाषितं याच्यां विना खयमेव ताभ्यां प्रदत्तम् ।। ६११॥ 10 अथ क्षेत्रोज्झितमाह अमुगिच्चगं न भुंजे, उवणीयं तं च केणई तस्स । जं वुझे कप्पडिया, सदेस बहुवत्थ देसे वा ॥ ६१२॥ "अमुकिच्चगं" अमुकदेशोद्भवं वस्त्रं 'न भुञ्जे' न परिधान-प्रावरणोपभोगमानयामि, यथा'लाटविषयोद्भवं वस्त्रं मया न परिभोक्तव्यम्' इति केनचित् प्रतिज्ञा कृता भवेत् , अथ कदा-15 चित् तस्य "तं च"त्ति चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् तदेव 'उपनीतम्' उपढौकितं केनचित् , ततः पूर्वोक्तनीत्या ताभ्यामुभाभ्यामपि परित्यक्तं क्षेत्रप्राधान्यविवक्षया क्षेत्रोज्झितं ज्ञातव्यम् । "जं वुझे कप्पडिय"ति वाशब्दः प्रकारान्तरोपदर्शने, प्रकारान्तरेण क्षेत्रोज्झितं प्ररूप्यते इत्यर्थः । यद् वस्त्रजातम् 'उज्झेयुः' परित्यजेयुः कार्पटिकाः खदेशं प्रति व्यावृत्त्याऽऽगच्छन्तः खदेशाद्वा देशान्तरं प्रस्थिता अपान्तराले बद्दपायामरण्यानीं मत्वा 'कि तस्कराणां हेतोर्निरर्थकं 20 वस्त्रभारं वहामः ?' इति कृत्वा यदुज्झन्ति यद्वा 'बहुवस्त्रे' वस्त्रप्रचुरे देशेऽन्यत् सुन्दरतरं वस्त्रं लब्ध्या पुरातनं परिहरेयुः एतत् सर्वमपि क्षेत्रोज्झितम् ॥ ६१२ ॥ कालोज्झितमाह कासाइमाइ जं पुव्वकालजोग्गं तदनहिं उज्झे । होहिइ व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे ॥ ६१३ ॥ कषायेण रक्ता काषायी-गन्धकाषायिकेत्यर्थः, सा हि स्वभावत एवातिशीतला ग्रीष्मर्तुभ- 25 रेऽपि सकलसन्तापनिर्वापिणी शास्त्रेषु पठ्यते; यत उक्तम् सरसो चंदणपंको, अग्घइ सरसा य गंधकासाई । पाडल सिरीस मल्लिय, पियाइँ काले निदाहम्मि । आदिग्रहणेन शीतकालोचितवस्त्रपरिग्रहः । ततश्च काषाय्यादिकं यद् वस्त्रं पूर्वस्मिन्ग्रीष्मादौ काले योग्यम्-उपयोगि तद् अन्यस्मिन्' वर्षाकालादौ 'उज्झेत्' परित्यजेत् । इय-30 मत्र भावना--गन्धकाषायिकादिकं शीतवीर्यवस्त्रं यत् केनापि श्रीमता प्रीप्मे परिभुज्यते तदेव वर्षास्वनुपयोगित्वात् परिहियते, तत् तथापरिहियमाणं कालोज्झितम् , एवमुष्णवीर्यादि १ न भोत्तव्वं ता॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः -- af भावना कार्या । अथ प्रकारान्तरेणैतदेवाह - " होहिइ व" इत्यादि । भविष्यति वा गन्धकाषायिकादिकमेव एष्यति - - आगामिनि काले- वर्षा दावयोग्यमित्यभिसन्धाय 'अनागतं ' वर्षाकालादर्वागेव यदुज्झेत् तदपि कालोज्झितम् ॥ ६१३ || अथ भावोज्झितमाह - लडूण अन्न वत्थे, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स । सो वि अनिच्छइ ताई, भावुझियमेवमाईयं ॥ ६१४ ॥ कोऽपि कस्यापि पार्श्वे 'लब्ध्वा' प्राप्य 'अन्यानि' अभिनवानि वस्त्राणि ततः स पुराणानि 'अन्यस्य' कस्यचिद् ददाति सोऽपि च 'तानि' दीयमानानि जीर्णानीति कृत्वा नेच्छति तदेतद् भावं - जीर्णतापर्यायमाश्रित्योज्झितं भावोज्झितमेवमादिकं ज्ञातव्यम् । तदेवं समर्थिता तुरीयाऽपि प्रतिमा ॥ ६१४ ॥ " गच्छवासिनश्चतसृभिः प्रतिमाभिर्वस्त्रं गवेषयन्ति " ( गा० ६०९) 10 इत्युक्तम्, तत्र परः प्रश्नयति - कथा सामाचार्या ते गवेषयन्ति ? इत्युच्यते जं जस्स नत्थि वत्थं, सो उ निवेएइ तं पवत्तिस्स । सो व गुरूणं साह, निवेइँ वावारए वा वि ॥ ६१५ ॥ ‘यद्’ वर्षाकल्पा-ऽन्तरकल्पादिकं 'यस्य' साधोः 'नास्ति' न विद्यते वस्त्रं सः 'तद्' विवक्षितवस्त्राभावस्वरूपं निवेदयति 'प्रवर्तिनः ' प्रवर्त्तकाभिधानस्य तृतीयपदस्थगीतार्थस्य । सहि 15 सकलस्यापि गच्छस्य चिन्तानियुक्तः, सर्वेऽपि साधवः स्वं स्वं प्रयोजनं तस्याग्रे निवेदयन्ति । ततः 'सोऽपि ' प्रवर्त्तकः 'गुरूणाम्' आचार्याणां " साहइ" त्ति कथयति विज्ञपयतीत्यर्थः, यथा—भट्टारकाः ! नास्त्यमुकस्य साधोरमुकं वैस्त्रमिति । गच्छे चेयं सामाचारी — यदुताssभिग्रहिका भवन्ति, आभिग्रहिका नाम 'अस्माभिः सकलस्यापि गच्छस्य वस्त्राणि वा पात्राणि वा पूरणीयानि अपरेण वा येन प्रयोजनम्' इति प्रतिपन्नाभिग्रहाः, तेषामाचार्यों निवेदयति, 20 यथा--आर्याः ! नास्त्यमुकस्यामुकं वस्त्रम् । तेऽपि 'अनुग्रहोऽयमस्माकम्' इत्यभिधाय स्वाभिग्रहपरिपालनाय खयमेवोत्पादयन्ति । अथ न सन्त्याभिग्रहिकाः ततः स यदि वस्त्रार्थी साधुः स्वयमसमर्थ उत्पादयितुं ततोऽन्यं वस्त्रोत्पादनसमर्थं गुरवो व्यापारयेयुः, यथा - वस्त्राणि गवेषय । वाशब्दः पक्षान्तरद्योतने । 'अपिः' सम्भावनायाम् || ६१५ ॥ तत्राभिग्रहिकेण व्यापारितेन वा केन विधिना वस्त्रमुत्पादयितव्यम् ? उच्यतेभिक्खं चिय हिंडता, उप्पॉयंत सइ विइअं पढमासु । एवं पि अलब्भंते, संघाडेक्केक वावारे ।। ६१६ ॥ सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषीं च कृत्वा भिक्षामेव हिण्डमाना वस्त्रमुत्पादयन्ति । अथ भिक्षामटतो न लभेरन् ततः 'असति' इत्यलाभे द्वितीयस्यां पौरुप्यामर्थग्रहणं हापयित्वा तस्यामप्यलाभे ‘प्रथमायां' सूत्रपौरुप्यामुत्पादयँन्ति । अथैकः सङ्घाटकः पर्यटन् न लभेत बहूनां वा साधूना 1 5 25 १ राणे ते तुदेति ता० ॥ २ य एव ता० ॥ ३ वेद वा ता० ॥ ४ वस्त्रम् । ततः स आचार्यो यदि सन्ति गच्छमध्ये 'आभिग्रहिकाः' 'अस्माभिः स भा० ॥ ५ पाए असता• ॥ ६ मानौ एकसङ्घाटकसाधू वस्त्रमुत्पादयतः । अथ भिक्षामदन्तौ न लभेयातां ततः 'असति' भा० ॥ ७ यतः भा० ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ६१४-१९] पीठिका। मुत्पादनीयानि ततः को विधिः? इत्याह-'एवमपि' सूत्रपौरुषीहापनेऽप्येकसङ्घाटकेनालभ्यमाने बहूनां चोत्पादयितव्ये सङ्घाटकमेकैकं व्यापारयेत् । तेऽपि तथैव याचन्ते "भिक्खं चिअ हिंडता" इत्यादि । अथ तथापि न प्राप्नुयुस्ततः “वृन्दसाध्यानि कार्याणि" इति वचनाद् वृन्देन पर्यटन्ति ॥ ६१६ ।। आह च एवं पि अलब्भंते, मुत्तूण गणिं तु सेसगा हिंडे । गुरुगमणे गुरुग ओहामऽभियोगो सेहहीला य ॥ ६१७ ॥ 'एवमपि' बहुभिः सङ्घाटकैरप्यलभ्यमाने 'गणिनम्' आचार्यमेकं मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि वृन्देन हिण्डन्ते । यदि गुरवः स्वयमेव पर्यटन्ति तदा तेषां गुरूणां गमने चत्वारो गुरुकाः । "ओहामि"ति 'यद्यमी आचार्या अपि सन्त एवमितरभिक्षुवत् पर्यटन्ति नूनमेतेषामाचार्यत्वमपीदृशमेव' इति महती गुरूणामपभ्राजना भवेत् । तथा काचिदविरतिका सर्वाङ्गीणलावण्य-10 श्रियाऽलङ्कतमाचार्यमवलोक्य मदनपरवशा सती “अभियोग"त्ति कार्मणं कुर्यात् । अन्यती. र्थिका वा आचार्याणां प्रतापमसहमाना विषप्रयोगं प्रयुञ्जीरन् । अवभाषितेषु वा वस्त्रेवलब्धेषु शैक्षाणामाचार्यविषया हीला स्यात्-दृष्टा आचार्याणां लब्धिः, स्वयमपि याचमानाचीवराण्यपि न लभन्ते । यस्मादेते दोषास्तस्मादाचार्यैर्न पर्यटनीयं शेषाः सर्वेऽपि पर्यटन्ति ॥६१७॥ सव्वे वा गीयत्था, मीसा व जहन्न एकु गीयत्थो । इकस्स वि असईए, करिति तो कप्पियं एकं ॥ ६१८ ॥ ते च वृन्देन पर्यटन्तः सर्वेऽपि गीतार्था भवेयुः मिश्रा वा । मिश्रा नाम केचन गीतार्थाः केचनागीतार्थाः । तत्र यदि बहवो गीतार्था न प्राप्यन्ते तदा जघन्यत एको गीतार्थः सर्वेषामगीतार्थानामग्रणीभूय पर्यटति । अथ नास्त्याचार्य मुक्त्वाऽपरः कोऽपि गीतार्थः तत एकस्थापि गीतार्थस्य 'असति' अभावे यः प्रगल्भः सलब्धिकश्च तमेकं वस्त्रैषणामुत्सर्गापवादस-20 हितां कथयित्वा कल्पिकं कुर्वन्ति गुरव इति ।। ६१८ ॥ अथ तैः केन विधिना गन्तव्यम् ? उच्यते आवाससोहि अखलंत समग उस्सग्ग दंडग न भूमी। पुच्छा देवय लंभे, न किंपमाणं धुवं दाहि ॥ ६१९ ॥ इह समयपरिभाषया कायिकी-संज्ञाव्युत्सर्जनमवश्यं क्रियत इति व्युत्पत्तेरावश्यकमभिधी- 25 यते, तस्य शोधिः-शोधनं कार्यम् , वस्त्राणामुत्पादनाय गतानां भविष्यति न वेति प्रथममेवाऽऽवश्यकं शोधनीयमित्यर्थः । “अखलंत"त्ति उत्तिष्ठतां पादयोः शिरसि वा स्खलनं यथा न भवति तथोत्थातव्यम् ; यद्वा गुरुवचनमस्खलद्भिः-अविकुट्टयद्भिरुत्थातव्यम् । “समग"ति सर्वैरपि समकमुत्थानं कर्त्तव्यम् , न पुनरेके उत्थिताः प्रतीक्षन्ते अन्येऽद्याप्युपविष्टाः; अथवा समकं सर्वैरुपयोगसम्बन्धी कायोत्सर्गः कर्तव्यः । दण्डकाः कायोत्सर्गादारभ्य यावन्नाद्यापि 30 प्रथमलाभस्तावन्न भूमौ स्थापयितव्याः । अपरे पुनर्यावद् व्यावृत्त्य न प्रतिश्रयमागताः तावदिति ब्रुवते । "पुच्छ"ति शिष्यः पृच्छति-किंनिमित्तं कायोत्सर्गः क्रियते ? किं देवताऽऽ. राधनार्थ यदसावाराधिता सती वस्त्राण्युत्पादयति ? आहोश्चित् कायोत्सर्गप्रभावादेव वस्त्राणां Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः भूयान् लाभो भूयादिति लाभनिमित्तम् ? । अत्र सूरिः प्रत्युत्तरयति — "न" त्ति न भवति देवताऽऽराधननिमित्तं न वा लाभनिमित्तं किन्तूपयोगनिमित्तम्, उपयोजनमुपयोगः चिन्ता विमर्श इत्यनर्थान्तरम्, स च गणनाप्रमाणेन प्रमाणप्रमाणेन वा किंप्रमाणं वस्त्रं ग्रहीतव्यम् ? को वा याचितः सन् 'ध्रुवम्' अवश्यं दास्यति । यो ज्ञायते निश्चितमेष वास्यति स एव 6 प्रथमं याच्यते ॥ ६१९ ॥ अथ प्रथमं कायोत्सर्गः केनोत्सारणीयः ? इत्युच्यतेरायणिओ उस्सारे, तस्सऽसतोमो वि गीतों लद्धीओ | अग्गीतो विसद्धी, मग्गइ इअरे परिच्छंति ।। ६२० ॥ यः 'रात्निकः' रत्नाधिकः सोऽपि यदि सलब्धिकस्तदा स एव प्रथमं कायोत्सर्गम् ' उत्सारयति' पारयति । 'तस्य' रत्नाधिकस्य सलब्धिकस्य 'असति' अभावे 'अवमोऽपि' पर्यायलघु10 रपि गीतार्थो यः सलब्धिकः स प्रथमं पारयति । अथ नास्ति गीतार्थः सलब्धिकस्तत आहअगीतार्थोऽपि यः सलब्धिकः स प्रथमं पारयति, स एव चाग्रणीत्वं कुर्वन् वस्त्राणि मार्गयति । 'इतरे' गीतार्थाः ‘परीक्षन्ते' 'किं कल्पते ? न वा ?' इत्येवं पृष्ठतो लग्ना वस्त्रेषणा विधि विचारयन्तीत्यर्थः ॥ ६२० ॥ अनन्तरोदितसामाचारीवैतथ्यकरणे प्रायश्चित्तमाह— उस्सगाई वितहं, खलंत अण्णोष्णओ अ लहुओ उ । उगम विष्परिणामो, ओभावण सावगं न तओ ॥ ६२१ ॥ दाउं व उड्डरुस्से, फासुव्वरियं तु सो सयं देव | भावियकुलओभासण, नीणिइ कस्सेअ किं आसी ॥ ६२२ ॥ उत्सर्गः–कायोत्सर्गस्तमादिं कृत्वा सर्वेषु पदेषु सामाचारीं वितथां कुर्वाणस्य लघुमासः प्रायश्चित्तम् । तद्यथा— कायोत्सर्गं न कुर्वन्ति, आवश्यकं न शोधयन्ति, यमकसमकं कायो20 त्सर्गं न कुर्वन्ति, दण्डकं भूमौ लगयन्ति, पृथक् पृथग् गुरूणामादेशं मार्गयन्ति, 'इच्छाकारेण संदिसह 'ति न भणन्ति, आचार्याः 'लाभो 'त्ति न भणन्ति साधवः 'किह गिण्हामो 'त्ति न भणन्ति, आचार्याः 'जह गहियं पुबसाहूहिं' ति न भणन्ति साधवः 'जस्स य जोगं' ति न भणन्ति, एतेषु सर्वेषु असामाचारी निष्पन्नं मासलघु । आवश्यकीं न कुर्वन्ति लघु रात्रिन्दिवपञ्चकम् । “खलंत” चि स्खलन्त उत्तिष्ठन्ति गुरुवचनं वा स्खलयन्ति मासलघु । “अन्नन्नउत्ति 25 अन्यतश्चान्यतश्च व्रजन्ति न परस्परमेकया ऋजुश्रेण्या तत्रापि लघुको मासः । इत्थं सामाचारीं सम्पूर्ण कृत्वा यदि निर्गताः श्रावकमवभाषन्ते मासलघु, यतस्तस्मिन्नवभाप्यमाणे बहवो दोषाः । तानेवाह - " उग्गम" इत्यादि । कोऽपि श्रावकः साधुभिर्वस्त्रं याचितः स चिन्त " I 15 १ रातिणिओ ता० ॥ २ गीत ल° ता० ॥ ३ " काउस्सग्गं ण करेंति, आवासयं ण सोधिंति ०, खलंति समयं वाण करेंति, दंडए भूमिं छिवावेंति पादं वा ०, अण्णण्णओ जंति ण वि पिंडणं काउस्सग्गं काउं दिसावेंति अण्णो विजुयओ संदिसावेति अन्नो विजुयओ चेव०, संदिसध त्ति ण भांति ०, आयरिया लाभ त्तिण भांति ०, किध गिण्हामो त्तिण भांति ०, आवस्सिया जधासंदिद्वेल्लय त्ति ण भणति ०, आवस्सियं ण करेंति ५, जस्स य जोगं ण भणति ०, एवं करेत्ता णिग्गता जति सावयं ओभासंति ० ।" इति चूर्णिः ॥ ४°न्ति रात्रि भा० ले० कां० ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६२०-२३] पीठिका। १८५ यति-'अहो ! अमी महात्मानस्तावद् यतस्ततः कारणं विना न वस्त्राणि याचन्ते न वा गृह्णन्ति, मद्भाग्यसम्भारप्रेरिता एव सन्तोषपोषितवपुषोऽपि मामित्थं याचन्ते, तत् प्रयच्छामि यथेच्छममीषां वस्त्राणि, मम पुनरन्यान्यपि भविष्यन्ति' इति परिभाव्य सर्वाण्यपि हर्षप्रकर्षारूढः प्रदद्यात् , ततोऽभिनववस्त्रनिर्मापण-क्रयणा दिनोद्गमदोषा भवेयुः । विपरिणामो वा नवधर्मणः कस्यचिदुपासकस्य स्यात् , यथा—हुं ज्ञातममीषां श्रमणानां रहस्यम् , य एतेषा-5 मुपासको भवति तमेवमेव याच्याभिरुद्वेजयन्तीति, ततश्च धर्म प्रति विप्रतिपद्येत । यद्वा "ओहावण"ति अपनाजना भवेत् । इयमत्र भावना-तस्य श्रावकस्य कदाचिद् वस्त्राणि न भवेयुः ततो मिथ्यादृष्टयो ब्रवीरन्-अहो! अमीषां प्रतिबोधप्रसादः, यद् एतद्योग्यान्येतदीयोपासकानां वस्त्राणि न सम्पद्यन्ते लोको वा ब्रूयात्-यद्येतेषां खकीया अपि श्रावका न प्रयच्छन्ति तदाऽन्यः को नाम दास्यति ? इति । ततः श्रावकं नावभाषेत ॥ ६२१ ॥ 10 __ स श्रावको लोकलज्जया तदानीं दत्त्वा वा "उड्डुरुस्से" ति प्रद्वेषं यायात्-किमेतैरेतदपि न ज्ञातं श्रावकस्य यद् वस्त्रादि खाधीनं तदयाचितमेव ददाति ? किं तेन याचितेन ? अतः परं न गच्छाम्यमीषां सकाशमिति । यत एते दोषास्ततः श्रावकं नावभाषेतेति पूर्वगाथाया अन्त्यपदेन सम्बन्धः । यस्मादुपासकस्यैषा सामाचारी-यत् 'प्राशुकम्' एषणीयम् 'उद्वरितम्' अधिकं वस्त्रं तत् 'स्वयमेव' अयाचितोऽपि निमन्घ्य ददाति । तेन तं मुक्त्वा यान्य-15 न्यानि भावितानि साधुसंसर्गवासितानि सम्यक्त्वाद्यव्युत्पन्नमतीनि यथाभद्रकाणि कुलानि तेष्वेवावभाषणं कर्त्तव्यम् । कथम् ? इति चेद् उच्यते-तत्र यः प्रमाणभूतः पुरुषस्तं धर्मलाभयित्वा ब्रुवते-श्रावक ! साधवस्तव सकाशमागताः सन्ति, प्रयोजनमस्माकमीदृशैर्वस्त्रैरिति । यदि पुनः 'धन्यस्त्वम् , श्लाघ्यं ते जन्म जीवितम् , अनर्घ्यं सुपात्राय वस्त्रपात्रादिदानम्' इति तद्गुणविकत्थन-वस्त्रदानफलोत्कीर्तनादि करोति तदा मासलघु । ततः स याच्यमान एवं 20 ब्रूयात्- 'अहो ! मे धन्यता यस्य गृहाङ्गणं जङ्गमा इव कल्पपादपा अमी भगवन्तः खपादपल्लवैः पवित्रितवन्तः' इत्यभिधाय खयमन्येन वा गृहमध्याद् वस्त्रमानयेद् आनाययेद्वा । ततस्तस्मिन् 'नीणिइति आनीते पृच्छयते-कस्यैतद् वस्त्रम् ? किं वा आसीत् ? उपलक्षणत्वात् किं भविष्यति ? क च स्थापितमासीत् ? । यदि 'कस्यैतद् ?' इति न पृच्छन्ति तदा मासिकम् ॥ ६२२ ॥ अथ को दोषो यद्येवं न परिपृच्छयते ? उच्यते कास तऽपुच्छियम्मी, उग्गम-पक्खेवेगाइणो दोसा । किं आसऽपुच्छियम्मी, पच्छाकम्मं पवहणं व ॥ ६२३ ॥ 'कस्य सम्बन्धि ?' 'इति' एवमपृष्टे उद्गमदोषाः प्रक्षेपकादयश्च दोषा भवेयुः, आदिग्रहणानिक्षेपकपरिग्रहः । 'किमासीद् ?' इत्यपृष्टे पश्चात्कर्मदोषः प्रवहणदोपो वा सम्भवेत् । एतच्चोचरत्र भावयिष्यते ॥ ६२३ ॥ 30 अथ 'कस्य' इति पृच्छायामविधीयमानायां कथमुद्गमदोपा भवेयुः ? उच्यते कीस न नाहिह तुम्भे, तुभट्ट कयं व कीय-धोयाई । १°यम्मि उ° ता० ॥ २ °वमातिणो ता० ॥ वृ०२४ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे अएण व तु भट्टा, ठवियं गेहे न गिण्हह से ॥ ६२४ ॥ ‘कस्येदम् ?' इति पृष्टः कोऽपि ब्रूयात् — कस्मान्न ज्ञास्यथ यूयम् ? ज्ञास्यथैव, तथाप्यस्मा॑न् पृच्छथ, पृच्छतां च कथयाम : - युष्मदर्थमेव कृतमेतद् वस्त्रम्, वाशब्द उत्तरापेक्षया विक ल्पार्थः, युष्मदर्थमेव क्रीतं धौतम्, आदिशब्दाद् धूपित - वासितादिपरिग्रहः । अमुकेन वा 5 युष्मदर्थमस्मद्गृहे स्थापितम्, यतः 'से' तस्यामुकस्य गेहे न गृह्णीथ यूयमिति ॥ ६२४ ॥ अथ यदुक्तं "तुग्भट्ट कयं " ति तत्र मूलगुणकृतं वा स्यादुत्तरगुणकृतं वा । अथ के मूलगुणाः ? के चोत्तरगुणाः ? इत्याह १८६ [ अनुयोगाधिकारः तण विणण संजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पजणया । गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो ।। ६२५ ।। 10 इह संयतार्थं वस्त्रनिप्पत्तिहेतोर्यत् 'तननं' तानपरिकर्म ' वितननं च ' वानपरिकर्म क्रियते एतौ मूलगुणौ मन्तव्यौ । 'उत्तरा' उत्तरगुणरूपा 'पायनता' यद् वस्त्रं निष्पन्नं सत् खलिकां पाय्यते, उपलक्षणमिदम्, तेन यद् मोटयित्वा सलेषु प्रक्षिप्यते, तदादयो धावन- धूपनादयश्च वस्त्रस्योत्तरगुणा द्रष्टव्याः । अत्र चतुर्भङ्गी – तनन - वितनने संयतार्थं पायनमपि संयतार्थम् १, तनन-वितनने संयतार्थं पायनं स्वार्थम् २, तनन-वितनने स्वार्थं पायनं संयतार्थम् ३, तनन15 वितनने स्वार्थ पायनमपि स्वार्थम् ४ । अत्राद्येषु त्रिषु गुरुका गुरुका लघुकाश्च तपः- कालाभ्यां विशेषिताः प्रायश्चित्तम् । तद्यथा – प्रथमे भङ्गे चत्वारो गुरुकास्तपसा कालेन च गुरवः, द्वितीयेsपि चतुर्गुरुकाः तपसा गुरवः कालेन लघवः, तृतीये चत्वारो लघुकाः कालेन गुरवस्तपसा लघवः । “चरमए सुद्धु”त्ति 'चरमे' चतुर्थे ङ्गे द्वयोरपि मूलोत्तरगुणयोः स्वार्थत्वाच्छुद्धः ॥ ६२५ ॥ अथ प्रक्षेपकादयो दोषाः कथं भवेयुः ? इत्यत आह 20 समणे समणी सावग, साविग संबंधि इड्डि मामाए । राया तेणे पक्खेव अ निक्खेवगं जाणे ।। ६२६ ॥ षष्ठी-सप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् श्रमणस्य श्रमण्याः श्रावकस्य श्राविकायाः सम्बन्धिन ऋद्धिमतो मामाकसत्काया भार्याया राज्ञः स्तेनस्य च सम्बन्धी प्रक्षेपको भवति । प्रक्षेपणं प्रक्षेपकः "नानि पुंसि च " ( सि० ५ -३ - १२१ ) इति भावे णकप्रत्ययः, यथा अरोचनं अरोचक 25 इत्यादि । निक्षेपकमप्येतेष्वेव स्थानेषु जानीयादिति सङ्घहगाथासमासार्थः ॥ ६२६ ॥ साम्प्रतमेनामेव व्याख्यानयति १°स्मान् पृच्छतां कथ्यते - युष्म० भा० ॥ २ इह यत् तन्तुवायैरुभयपार्श्वयोः कीलकयुगलं निखाय तानकरूपतया तन्तवस्तन्यन्ते तत् तननम्, यत् पुनरधस्तनोपरितनयोस्तानकतन्तु सन्तानयोरन्तराले नलकप्रयोगेण तन्तव उभयतो वितन्यन्ते - व्यूयन्ते तद् वितननम्, तननं च वितननं च तनन-वितनने संयतार्थ यत् क्रियेते एतौ भा० ॥ ३ यद् वस्त्रं कूांचकेण खलिकां पाय्यते तत् पायनम्, पायनमेव पायनता, प्राकृतत्वात् स्वार्थे तल्प्रत्ययः, उपलक्षणत्वाद् घृष्ट-मृष्ट-धावन-धूपनादयोऽपि वस्त्र' भा० ॥ ४ भङ्गे द्वाभ्यामपि मूलोत्तरगुणाभ्यां निर्दोषत्वात् शुद्धः भा० ॥ ५ " मामाएण वा रायाएण तेणएण वा पक्खेवय त्ति पक्खित्तं होजा" इति चूर्णिः ॥ ६ नियुक्तिगाथा मो० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १२४-६२९] पीठिका । लिंगत्थेसु अकप्पं, सावग-नीएसु उग्गमासंका। इड्डि अपवेस साविग, इडिस्स व उग्गमासंका ।। ६२७ ॥ एमेव मामगस्स वि, सड्ढी भज्जा उ अन्नहिं ठवए । निव तप्पिडविवज्जी, मा होज्ज तदाहडं तेणे ॥ ६२८ ।। ये श्रमण-श्रमणीजना लिङ्गमात्रधारिणस्ते उद्गमादिभिर्दोषैरशुद्धानि वस्त्राणि गृह्णन्ति खय-5 मेव वा तन्तुवायैर्वाययन्ति, लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि साधर्मिकाश्च ते इति तेषु लिङ्गस्थेषु 'अकल्प्यम्' अकल्पनीयमिति हेतोः साधवो न गृह्णन्ति, ततस्ते लिङ्गस्थाः संविमबहुमानिनः सन्तो वस्त्राण्यन्यत्र यथाभद्रककुलादौ प्रक्षिपेयुः 'यदि साधवो वस्त्राणि गवेषयेयुः तदा प्रददध्वम्' इति कृत्वा । तथा श्रावकेषु उपलक्षणत्वात् श्राविकासु निजकेषु-सम्बन्धिषु भ्रातृ-भगिन्यादिषु उद्गमदोषाशङ्कया साधवो न गृह्णीयुरिति तेऽपि तथैवान्यत्र स्थापयेयुः । 'ऋद्धिमतः' 10 श्रेष्ठि-सार्थवाहादेहे यतस्ततः प्रवेशो न लभ्यन्ते, तस्य पत्नी श्राविका, सा भक्तिवशादन्यत्र प्रक्षिपेत् ; यद्वा स ऋद्धिमान् पाषण्डिनां श्रमणानां वा पुण्यार्थं वस्त्राणि दद्यात् तेषु साधूनामुदमाशङ्का, ततो निमन्त्रिता अपि न खीकुर्युः तेन सोऽपि दानश्रद्धालुस्तथैवान्यत्र प्रक्षिपेत् ॥६२७॥ _ 'एवमेव' ऋद्धिमत्प्रकारेणैव 'मामाकस्यापि' 'प्रान्तत्वेनेालुत्वेन वा कस्यापि स्वगृहे प्रवेश न ददाति' इत्येवंलक्षणस्य भार्या श्राद्धिका भक्तिभरप्रेरिता सती तथैवान्यस्मिन् गृहे स्थाप-15 येत् । 'नृपः' राजा सोऽप्यन्यत्र स्वपुरुषैः प्रक्षेपयेत् , यतस्तस्य-राज्ञः पिण्डम्-आहार-वस्त्रादिलक्षणं वर्जितुं शीलं येषां ते तत्पिण्डविवर्जिनः साधवः । किमुक्तं भवति ?-कोऽपि राजा खभावत एव भद्रकः श्रावको वा, ततः साधवोऽत्यर्थमभ्यर्थिता अपि 'न कल्पते राजपिण्डः' इति हेतोयदा न गृह्णन्ति तदा सः 'यथा तथा पुण्यमुपार्जयामि' इति विचिन्त्यान्यत्र वस्त्राणि स्थापयेत् । स्तेनस्यापि वस्त्रं न गृह्णन्ति, मा भूत् तदाहृतं' स्तेनाहृतं तीयं वस्त्रमिति, ततः 10 सोऽपि संयतभद्रकः 'मदीयं न खीकुर्वन्ति' इत्यन्यत्र प्रक्षिपेत् ।। ६२८ ॥ उपसंहारमाह एए उ अघिप्पंते, अन्नहिँ सन्निक्खिवंति समणट्ठा । निक्खेवओ वि एवं, छिन्नमछिन्नो उ कालेण ।। ६२९॥ 'एते' श्रमणादयोऽनन्तरोक्तकारणैः 'अगृह्यमाणे' वस्त्रे 'अन्यस्मिन्' भावितकुलादौ 'श्रमणार्थ' साधूनामर्थाय संनिक्षिपन्ति इत्युक्तः प्रक्षेपकः । सम्प्रति निक्षेपकः प्ररूप्यते--25 अथ प्रक्षेपक-निक्षेपकयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते-साधूनामेवार्थाय या वस्त्रस्य स्थापना स प्रक्षेपकः, यत् पुनः प्रथमं खार्थ निक्षिप्य पश्चात् साधूनामनुज्ञायते स निक्षेपकः, सोऽपि 'एवं' प्रक्षेपकवद् द्रष्टव्यः । इयमत्र भावना-यथा प्रक्षेपकः श्रमणादिषु स्तेनान्तेषु स्थानेषु भावितः तथा निक्षेपकोऽपि भावनीयः । यस्तु विशेषस्तं दर्शयति-“छिन्न" इत्यादि । स निक्षेपकः कालेन च्छिन्नो वा स्यादच्छिन्नो वा । छिन्नो नाम निर्धारितः, यदि वयं देशान्तरं 30 गताः सन्त एतावतः कालादर्वाग् न प्रत्यागच्छामः ततो युष्माभिरमूनि वस्त्राणि श्रमणेभ्यः १°त्, कुतः? इति चेद् अत आह-"तपिडविवजी" तस्य पिण्डम् भा० ॥ २ व इति कृत्वा । किमुक्तं भा० ।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः प्रदातव्यानीति । अच्छिन्नः पुनः प्रतिनियतकालविवक्षारहितः ॥ ६२९ ॥ अत्र विधिमाह - अगं कालमणागऍ, दिजह समणाण कप्पई छिने । पुण्ण समकाल कप्पर, ठवियगदोसा अईअम्मि ॥ ६३० ॥ देशान्तरं जिगमिषुः कोऽपि कस्यापि गृहे किञ्चिद् वस्त्रजातं निक्षे कामो ब्रूते — 'अमुकं' 5 विवक्षितं कालं मय्यनागते यूयं मदीयं वस्त्रं श्रमणेभ्यो दद्यात इत्यभिधाय निक्षेपकं निक्षिप्य गतोऽसौ देशान्तरं नाऽऽयातस्तावतः कालावधेरर्वाक् ततः कल्पते तद् वस्त्रम् । एवं विधिच्छिन्ने निक्षेपके किं सर्वदैव ? न इत्याह – पूर्णस्यावधेः समकालं कल्पते न परतः । कुतः ? इत्याह-स्थापनैव स्थापितकं तस्य दोषा अतीते विवक्षितकालावधौ भवन्ति । अच्छिन्ने यदा प्रयच्छन्ति तदा कल्पते ॥ ६३० ॥ अथ साधुनिक्षिप्तवस्त्रविधिमाह - असिवाइकारणेहिं, पुण्णाईए मणुन्ननिक्खेवे । 10 परिभुंजंति ठविंति व, छडिंति व ते गए नाउं ॥ ६३१ ॥ अशिवं - व्यन्तरकृतोपद्रवविशेषः, आदिग्रहणादवमौदर्यादिपरिग्रहः, तैरशिवादिभिः कारणैः पूर्णेऽतीते वा काले मनोज्ञाः - साम्भोगिकास्तेषां निक्षेपके यद् वस्त्रजातं तत् परिभुञ्जते । इयमत्र भावना - साम्भोगिकसाधुभिरशिवादिभिः कारणैर्देशान्तरं व्रजद्भिनादिप्रतिबन्धस्थि15 तानां साधूनां समीपे यद् वस्त्रजातं निक्षिप्तं तत् पूर्णेऽतीते वा काले यद्यात्मनो वस्त्राणामसत्ता ततो वास्तव्यसाधवः परिभुञ्जते न तत्र कश्चित् स्थापनादिदोषः । अथ नास्ति वस्त्राणामसत्ता गृहीतानि वा यैः प्रयोजनं ततस्तथैव स्थापयन्ति । अथ ज्ञायते यथा -- ते ततोऽपि दवीयांसमन्यं देशं गतास्ततस्तान् गतान् ज्ञात्वा “छड्डुंति" परिष्ठापयन्तीत्यर्थः ॥ ६३१ ॥ तदेवं कस्येति पृष्टे प्रक्षेपकादयो दोषाः सुनिर्णीता भवन्तीत्यावेदितम् । अथ कस्येति पृष्टे यो यादृशमाशङ्कावचनं ब्रूयात् तदेतदभिधित्सुराहे- 20 दमए दूभगे भडे, समणच्छन्ने अ तेणए । न य नाम न बत्तव्वं, पुट्ठे रुट्ठे जहावयणं ।। ६३२ ॥ 'द्रमके' दरिद्रे ‘दुर्भगे' अनिष्ठे 'भ्रष्टे' राज्य (ज) पदच्युते " समणच्छन्ने "त्ति भावप्रधानत्वात् श्रमणशब्दस्य श्रामण्येन - श्रमणवेषेण च्छन्ने- आच्छादितगार्हस्थ्ये 'स्तेनके' चौरे प्रथमं कस्येति 25 पृष्टे ततः स्वहृदयसमुत्थ्या शङ्कया 'रुष्टे' कषायिते तस्य समाधानविधानार्थं न च नाम न वक्तव्यम् किन्तु वक्तव्यमेव वचनस्यानतिक्रमेण 'यथावचनं' यथायोगमाशङ्कापनोदकं वाक्यमित्यर्थः । तच्च यथावसरं पुरस्ताद् वक्ष्यते ॥ ६३२ ॥ तत्र प्रथमं द्रमकद्वारं विवृणोति - किं दमओ हं भंते !, दमगस्स वि किं मे चीवरा नत्थी । दमण व कायव्वो, धम्मो मा एरिसं पावे ॥ ६३३ ॥ 30 कस्येति पृष्टः कोऽपि ब्रूयात् — भदन्त ! भवद्भिः किमहं द्रमकः सम्भावितो येनैवं पृच्छ्यते ?; यद्वा यद्यप्यहं द्रमकस्तथाऽपि किं मे चीवराण्यपि न सन्ति ? किन्तु सन्त्येव; किञ्च द्रुमकेणापि धर्मः कर्त्तव्यः, कुतः ? इत्याह-मा ईदृशं दारिद्र्योपद्रवलक्षणं दुःखं भूयः प्राप्नुया ३ स्थशङ्क मो० ॥ १ 'जनमुत्पन्नं तत' भा० ॥ २ 'राह नियुक्तिकार : मो० ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३०-३७] पीठिका। १८९ मीति कृत्वा । तस्य पुरतः साधुभिरभिधातव्यम्-भद्र ! न वयं भवन्तं द्रमकं भणित्वा कस्येति पृच्छामः किन्तु सार्वज्ञोऽस्माकमयमुपदेशः, यतः-कदाचित् तव खजन-परिजनमित्रादीनां सत्कमिदं भवेत् , ते चापरस्य तथाविधस्याभावेऽप्रीतिकं कुर्युः अभिनवं वा वस्त्रं सम्मूर्च्छयेयुः क्रीणीयुर्वा, अस्माकं च तृतीयत्रतातिचारः स्यात् ; यद्वा श्रमणादिभिः स्तेनपर्यन्तैरिदमस्मदर्थ स्थापितं भवेदित्यादयो दोषाः कस्येत्यपृच्छायां न परिहत्तुं शक्यन्ते । इत्युक्ते यदि स ब्रूयात्-"ममैवैतद् नान्यस्य' इति तदा निर्दोषं मत्वा प्रतिगृह्यते । एवं दुर्भगादिष्वपि पदेषु यथायोगमुपयुज्य भावना कार्या ॥ ६३३ ॥ दुर्भगद्वारमाह जइ रन्नो भजाए, व दुभगो दूभगा व जइ पइणो । किं भगो मि तुम वि, वत्था वि व दभगा किं मे ॥ ६३४ ॥ दुर्भगो ब्रूयात्—यद्यहं राज्ञो भार्याया वा 'दुर्भगः' द्वेष्यस्तत् किं युष्माकमपि दुर्भगः । 10 यदि वा काचिदविरतिका दात्री तदा यात्यद्यहं पत्युर्दुभंगा तत् किं युष्माकमपि दुर्भगा? वस्त्राण्यपि वा किममूनि मे दुर्भगाणि यदेवं दीयमानान्यपि 'कस्य सत्कानि ?' इति पृच्छयन्ते ॥ ६३४ ॥ अथ भ्रष्ट-श्रमणच्छन्नद्वारद्वयमाह जइ रज्जाओ भट्ठो, किं चीरेहिं पि पिच्छहेयाणि । __ अस्थि महं साभरगा, मा हीरेज त्ति पव्वइओ ॥ ६३५ ॥ 15 रौजपदच्युतः प्राह-~-यद्यहं राज्याद् भ्रष्टः तत् किं चीवरेभ्योऽपि ? नैवेत्यर्थः, 'पश्यत' अवलोकयत एतानि मद्गृहे भूयांसि वासांसीति ब्रुवन् हस्तसंज्ञया दर्शयति । श्रमणच्छन्नः प्राह-सन्ति मम पार्चे बहवः “साभरग"त्ति देशीवचनाद् रूपकाः, ते च माँ राजकुलादिना हियेरन्नित्यहं 'प्रवजितः' शाक्य-तापस-परिव्राजका-ऽऽजीवकाख्यानां श्रमणानामन्यतमः संवृत्त इत्यर्थः ॥ ६३५ ।। अथ स्तेनको यद् ब्रूयात् तदाह __ अस्थि मे घरे वि वत्था, नाहं वत्थाइँ साहु ! चोरेमि । सुट्ट मुणिअंच तुम्भे, किं पुच्छह किं व हं तेणो ॥ ६३६ ॥ सन्ति 'मे' मम गृहे वस्त्राणि अत एव हे साधो ! नाहं वस्त्राणि चोरयामि; यद्वा 'सुष्ठ' शोभनं 'मुणितं' परिज्ञातं युष्माभिर्यथाऽहं स्तेनः, को नाम साधून् मुक्त्वाऽपरो ज्ञास्यति ? तदहं सत्यं स्तेन एव, न पुनः साधूनामर्थाय चोरयामि; अथवा किं यूयं पृच्छत ? यस्य वा 25 तस्य वा भवतु यूयं गृह्णीत; यद्वा किमहं स्तेनो येन यूयं 'कस्य' इति पृच्छथ ? । अत्रापि समाधानविधानं प्राग्वत् ॥ ६३६ ॥ अथ कस्येति पृच्छाप्रतिबद्धामेव द्वारान्तरप्रतिपादिकामिमा गाथामाह इत्थी पुरिस नपुंसग, धाई सुण्हा य होइ बोधव्वा । बाले अ वुड्डयुगले, तालायर सेवए तेणे ॥ ६३७ ॥ १ भा. ले. कां. विनाऽन्यत्र-त्, तथाऽपरस्य तथा त० मो०। त्, यथा यस्य तथा डे. ॥ २°कं तु तृ' डे० ॥ ३ राज्यप डे० ले० विना ॥ ४ मा केनचित् चौरादिना हि भा० ॥ ५°मां नियुक्तिगाथा मो० ॥ 20 30 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 10 १९० सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः स्त्री-पुरुष नपुंसका धात्री खुषा च भवति बोद्धव्या, ततो बालयुगलं वृद्धयुगलं तालाभिचरन्तीति 'तालाचराः ' नटाः, , सेवकः स्तेनश्च प्रतीत इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ६३७ ॥ व्यासार्थं प्रतिद्वारं बिभणिपुराह - त्रिविधा स्त्री, तद्यथा - स्थविरा मध्यमा कन्या च । तत्र स्थविरां दात्रीं भणन्ति - मा भूत् तव 'जातानां' पुत्राणां सत्कमिदं वस्त्रं तेन वयं कस्य इति पृच्छाम इति योजना सर्वत्र कर्त्तव्या । मध्यमा भण्यते - मा भूत् तव पति - देवरयोः सत्कम् । 'कन्यां' कुमारीं भणन्ति — मा भूत् तव स्थविर - भ्रात्रोः सम्बन्धि | स्थविर:- पिता, भ्राता प्रतीतः ॥ ६३८ ॥ एमेव य पुरिसाण वि, पंडगऽपडिसेवि मा निआणं ते । सामियकुलस्स धाई, सुन्हं जह मज्झिमा इत्थी ।। ६३९ ।। 'एवमेव' यथा स्त्रीणां तथा पुरुषाणामपि स्थविर - मध्यम - तरुण भेदैस्त्रैविध्यं द्रष्टव्यम् । स्थविरः पुरुषो भण्यते--- मा तव पुत्राणां कलत्रस्य वा सत्कं भवेत् । मध्यमोऽभिधीयते— मा भृत् तव भ्रातॄणां पल्या वा सम्बन्धि | तरुण उच्यते- मा तव पितुर्मातुर्भ्रातॄणां वा 15 स्वाधीनं भवेत् । 'पण्डकः' नपुंसकः "पडिसेवि "त्ति अकारप्रश्लेषाद् 'अप्रतिसेवी' तृतीयवेदोदयरहितोऽसक्लिष्ट इत्यर्थः तस्य ग्रहीतुं कल्पते, स चाभिधीयते- - मा ते 'निजानां' सम्बन्धिनामिदं वस्त्रं भवेत् । यः पुनस्तृतीय वेदोदययुक्तस्तस्य हस्ताद् गृह्णतां चत्वारो लघुकाः, आज्ञाभङ्गादय आत्म-परोभयसमुत्थाश्च दोषाः । या धात्री साऽभिधीयते -माते 'खामि कुलस्य' खामिनो गृहस्य सत्कं भवेत् । 'स्नुषां' वधूं भणन्ति यथा मध्यमा स्त्री भणिता - मा 30 ते पत्युर्देवरस्य वा सम्बन्धि भवेत् ॥ ६३९ ॥ दो पि अजयलाणं, जहारिहं पुच्छिऊण जइ पहुणो । गिण्हंति तओ तेसिं, पुच्छासुद्धे अणुन्नायं ।। ६४० ॥ इह द्वे युगले नाम बालयुगलं वृद्धयुगलं च । बालयुगलं बालो बालिका, वृद्धयुगलं वृद्धो वृद्धा च तयोर्द्वयोरपि युगलयोः 'यथार्हं' यथायोग्यं स्वरूपं पृष्ट्वा प्रत्ययिकपुरुषमुखेन च 26 निश्चित्य यदि प्रभवस्ते बालादयस्ततो गृह्णन्ति तेषां हस्तात्, अथ न प्रभवस्तदा यः पितृपुत्रादिः प्रभुस्तस्य वा पृच्छा - किं गृह्यतां न वा ? इति तया शुद्धे-गृह्यतां निर्विकल्पमित्यनुमत्या निःसन्दिग्धे कृते ग्रहणमनुज्ञातम् || ६४० ॥ तूरपइ दिंति मा ते, कुसीलवे तेसु तूरिए मा ते । एमेव भोगि सेवग, तेणो उ चउव्विहो इणमो ॥ ६४१ ॥ 30 तिविहित्थि तत्थ थे, भणति मा होज तुज्झ जायाणं । मज्झिम मा प-देवर, कण्णं मा थेर-भाईणं ॥ ६३८ ॥ 'तूर्यपतिः ' नटमहत्तरस्तस्मिन् ददति भण्यते--मा ते 'कुशीलवानां' नटानां सत्कं भवि प्यति । 'तेषु' कुशीलवेषु ददत्सु मा युष्माकं 'तूर्थिकस्य' तूर्यपतेर्भवेत् । 'एवमेव ' तूर्यपतिकुशीलवोक्तप्रकारेणैव भोगिक - सेवकयोरपि वाच्यम् । यदि सेवको ददाति तदा वक्तव्यम् - मा ते भोगिकस्य - खामिनः स्वाधीनं भवेत् । भोगिके दातरि वाच्यम् — मा युष्माकं सेवकस्य Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६३८ - ४४] पीठिका | १९१ सम्बन्धि भवतु । स्तेनस्खरूपमाह - स्तेनः पुनश्चतुर्विधः 'अयं' वक्ष्यमाणलक्षणः || ६४१ ॥ चातुर्विध्यमेवाह सग्गाम परग्गामे, सदेस परदेसे होइ उड्डाहो । मूलं छेओ छम्मासमेव गुरुगा य चत्तारि ॥ ६४२ ॥ यस्मिन् ग्रामे साधवः स्थिताः सन्ति स स्वग्रामस्तस्मिन् यः स्तैन्यं करोति स स्वग्रामस्तेनः 15 तदपेक्षयाऽपरस्मिन् ग्रामे स्तैन्यं कुर्वन् परग्रामस्तेनः । 'खदेशे' विवक्षितसाधुविहारविषयभूते विषये चौर्यं कुर्वाणः स्वदेशस्तेनः । तदपेक्षयाऽपरत्र देशे चौरिकां विदधानः परदेशस्तेनः । एतेषु गृह्णताम् 'उड्डाह : ' प्रवचनलाघवं भवति — अहो ! अमी लुब्धशिरोमणयः तपखिनः, यदेवं स्तेनाहृतानि वस्त्राणि गृह्णाना राजविरुद्धमपि नापेक्षन्त इति । तेषु प्रायश्चित्तमाह“मूलमि”त्यादि । स्वग्रामस्तेने गृह्णतां मूलम्, परग्रामस्तेने छेदः, खदेशस्तेने षण्मासा गुरुकाः, 10 परदेशस्तेने चत्वारो गुरुकाः, यथाक्रमं दूर-दूरतर - दूरतम स्तैन्य दोषत्वादिति भावः ॥ ६४२ ॥ तदेवं व्याख्याता “इत्थी पुरिस" इत्यादिद्वारगाथा (६३७) । तद्व्याख्याने च समर्थितं 'कस्य' इति पृच्छाद्वारम् । अथ 'किमासीत् ?' इति पृच्छाद्वारमाह एवं पुच्छासुद्धे, किं आसि इमं तु जं तु परिभुत्तं । किं होहिं त्ति अहतं, कत्थाऽऽसि अपुच्छणे लहुगा ।। ६४३ ॥ 15 'एवम्' अमुना प्रकारेण कस्येति पृच्छया शुद्धे निर्दोषे निर्णीते सति यत् 'परिभुक्तं ' भुक्तपूर्वं तत् पृच्छयते— 'किमिदं वस्त्रमासीत् ?' युष्माकं कीदृशमुपयोगमागतवदित्यर्थः । यत् पुनः 'अहतम्' अपरिभुक्तं तत् पृच्छयते - किमेतद् भविष्यति ? इति । " कत्थासित क पेडायां मञ्जूषायामपरस्मिन् वा स्थाने इदमासीत् ? । तत्र यदि पेडायां तदा किं पृथिव्यादिषु कायेषु सा पेडा प्रतिष्ठिता ? अप्रतिष्ठिता वा? इत्याद्युपयुज्य वाच्यम् । कस्येदम् ? किमा - 20 सीत् ? कुत्रासीत् ? किं भविष्यति ? इति 'अप्रच्छने' चतसृणामपि पृच्छानामकरणे प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः || ६४३ ॥ तत्र किमासीद् ? इति पृष्टे ते गृहस्था अभिदध्युः - निच्च नियंसण मञ्जण, छणूसवे रायदारिए चेव । सुत्तत्थजाणएणं, चउपरियट्टे तओ गहणं ।। ६४४ ॥ 'नित्यनिवसनं' नित्योपभोग्यमेतदासीत् । 'मज्जनिकं' नाम स्नानानन्तरं यत् परिधीयते 25 धौतवस्त्रमित्यर्थः तदासीत् । तथा क्षणः - प्रतिनियतः कौमुदी - शक्रमहादिकः, उत्सव : -- पुनरनियतो नामकरण-चूडाकरण - पाणिग्रहणादिकैः; अथवा यत्र पक्वान्नविशेषः क्रियते स क्षणः, यत्र तु पक्वान्नं विनाऽपरो भक्तविशेषः स उत्सवः; क्षणे उत्सवे च परिभुज्यते यत् तत् · क्षणोत्सविकं' तद्वाऽऽसीत् । तथा राजा ऽमात्य महत्तमादिभवनेषु गच्छद्भिर्यत् परिभुज्यते तद् १ पृच्छायां शुद्धे भा० ॥ २ 'नित्यनिवसनमेतदासीत्' नित्यं प्रत्यहं निवसितं यस्य तद्, नित्योपभोग्यमित्यर्थः । 'मज' भा० ॥ ३त् । 'क्षणोत्सविकं वाऽऽसीत्' क्षणः भा० ॥ ४ कः प्रकरणविशेषः, अथ भा० ॥ ५ कम् । यद्वा 'राजद्वारिक मिदमासीत्' राजा' भा० ॥ ६°षु जिगमिषुभिर्यत् भा० ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः राजद्वारिकं तद्वाऽऽसीत् । तत्रैवमुक्ते 'सूत्रार्थज्ञायकेन' गीतार्थेन चतुर्णां नित्यनिवसनीयादीनां परिवर्त्तानां वस्त्रयुगलानां समाहारश्चतुःपरिवर्त्तम्, तत्र यादृशं परिवर्त्तमेकतरं वा वस्त्रं ददाति तादृशेऽस्मिन् व्याप्रियमाणे सति ततो ग्रहणं कर्त्तव्यम् ॥ ६४४ ॥ एतदेव भावयतिनिश्च्चनियंसणियं ति य, अन्नासह पच्छकम्म-वहणाई । अथ वह धिप्प, इयरय फुस धोय-पगयाई ॥ ६४५ ॥ यदि गृहस्थो ब्रूयात् — नित्यनिवसनीयमिदमासीत्, ततो यदि तस्यापरं नित्यनिवसनीयमस्ति ततः कल्पते, यतोऽन्यस्य नित्यनिवसनीयस्य असति - अभावे पश्चात्कर्म - वहनादयो दोषा भवन्ति । पश्चाद्-विवक्षितवस्त्रग्रहणानन्तरं कर्म - अभिनववस्त्रस्य कारापणं पश्चात्कर्म, वहनं नाम अव्याप्रियमाणं वस्त्रं यद् वहमानकं क्रियते, आदिग्रहणात् क्रीत-कृत- प्रामित्यादयो 10 दोषाः, अतो यद्यपरं नित्यनिवसनीयमस्ति तदपि यदि वहमानं - व्याप्रियमाणं तदा गृह्यते । कुतः ? इत्याह—‘इतरस्मिन्' अवहमाने स्पर्शन-धौत-प्रकृतादयो दोषाः । इयमत्र भावना — यदवहमानं तस्योपभोगार्थमप्कायेनोत्स्पर्शनं कुर्यात्, धावनं वा विदध्यात् तस्य परिभोगप्रारम्भमुद्दिश्य प्रकरणं वा कुर्वीत, आदिग्रहणाद् धूपन - वासनादीनि वा विदधीत । यत एवं ततोऽन्यस्मिन् वहमाने ग्रहीतव्यम् ॥ ६४५ ॥ 5 अपरिभुक्तमधिकृत्य किमेतद् भविष्यति ? इति पृष्टः सन्नेवं ब्रूयात् होहि व नियंसणियं, अण्णासह गहण पच्छकम्माई | अत्थि नवे विउ गिण्हइ, तहिँ तुल पवाहणादोसा ॥ ६४६ ॥ वाशब्दः परिभुक्तादपरिभुक्तस्य पक्षान्तरद्योतकः । 'भविष्यति नित्यनिवसनीयमेतत् ' इत्यभिहिते यद्यपरं तादृशं नास्ति ततोऽन्यस्य तादृशस्यासति ग्रहणे त एव पश्चात्कर्मादयो दोषाः । 20 अथास्त्यन्यत् तादृशं ततः कल्पते । तच्च यद्यपि नवमवहमानकं तथापि गृह्णाति, कुतः ? इत्याह — तुल्यास्तत्र प्रवाहनादोषाः । किमुक्तं भवति ? – यदि साधवो गृह्णन्ति न गृह्णन्ति वा तथापि स गृही तयोरपरिभुक्तवस्त्रयोरेकतरमात्मप्रयोगेणैव प्रवाहयिष्यति, ततः साधूनां गृह्णतामपि न कश्चिद् दोष इति ॥ ६४६ ॥ एमेव मणाई, पुच्छामुद्धं तु सव्वओ पेहे । 15 25 मणिमाई दाइंति व, असिट्ठे मासेहुवादाणं || ६४७ || 'एवमेव' यथा नित्यनिवसनीयमभिहितं तथा मज्जनिक-क्षणोत्सविक राजद्वारिकाण्यभिधातव्यानि । यदा पृच्छया शुद्धमिति निर्धारितं तदा 'सर्वतः ' समन्तात् 'प्रेक्षेत' निभालयेत । १ द्वारमर्हतीति राजद्वारिकं भा० ॥ २ त्रार्थज्ञन भा० विना ॥ ३ वर्त्तम् तस्मिन् अन्यस्मिन् तथाविधे तादृशे परिवत्तं व्यामि भा० ॥ ४ कल्पते, अथ नास्ति ततो न कल्पते । कुतः ? इति चेद् अत आह— अन्यस्य भा० । कल्पते, अथ नास्ति ततो न कल्पते । यतो मो० ॥ ५ वहनम् अन्तर्भूतण्यर्थत्वादव्याप्रियमाणस्य वस्त्रस्य वाहनंव्यापारणम्, आदिग्रहणात् भा० ॥ ६ कुर्वते, आदि भा० विना ॥ ७°व्यम्, नावह माने || मो० ॥ ८ गृहस्थस्तयोरन्यतरद् वस्त्रमात्म° भा० ॥ ९ णासु पु ता० ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६४५-५० ] पीठिका। प्रेक्ष्यमाणे च यदि ‘मण्यादिकं' मणि-हिरण्य-सुवर्णादिकं किञ्चिदर्थजातमुपनिबद्धमुपलभ्यते तदा भण्यन्ते गृहस्थाः, यथा-निरीक्षध्वं समन्तादपि वस्त्रमिदम् , यदि निरीक्ष्यमाणैस्तैः खयमेव दृष्टं तदा लष्टम् , नो चेत् ततः साधवः "दाइंति"त्ति दर्शयन्ति-इदं यौष्माकीणं किमप्युपनिबद्धमस्ति । आह एवमभिधीयमाने कथमधिकरणदोषो न भवति ? इति उच्यतेअल्पीयानेवायं दोषः, 'अशिष्टे' अकथिते पुनः शैक्षस्यावधावितुकामस्य तद् द्रव्यमुपादानं भवेत् , तद् गृहीत्वोत्प्रव्रजेदित्यर्थः; अगारिणो वा महान्तमुड्डाहं कुर्युः, यथा-वस्त्रेण सार्द्ध स्तेनितमस्मद्रव्यमेभिः श्रमणैः । अत एवं प्रभूततरो दोषो मा भूदिति कथ्यते ॥६४७॥ उपसंहरन्नाह एवं तु गविढेसु, आयरिया दिति जस्स जं नत्थि । सममागेसु कएसु व, जहराइणिया भवे बीओ॥ ६४८॥ 10 'एवम्' उक्तप्रकारेणैव वस्त्रेषु गवेषितेषु यथासम्भवं लब्धेषु च गुरूणां समीपमागम्य यथावदालोच्य च वस्त्राणि विधिवद् दर्शयति, तत आचार्या यस्य साधोर्यद् जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं वा वस्त्रं नास्ति तसै तद् ददतीति प्रथमः प्रकारः । पश्चार्थेन द्वितीयमाह-समेषुतुल्येषु भागेषु कृतेषु, साधूनां सङ्ख्यामनुमाय समांशतया वस्त्रेषु विभक्तेष्विति भावः । वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतने । 'यथारत्नाधिकं' यो यो रत्नाधिकस्तस्मै तस्मै प्रथमं दीयते इत्ययं 15 भवेद् द्वितीयो दानप्रकार इति ॥ ६४८॥ उक्तो वस्त्रकल्पिकः । सम्प्रति पात्रमिति पात्रकल्पिकद्वारम् , अत्रापि अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ॥ ६४९॥ निरूपणा इयं गाथा तथैव (गाथा ४७१) द्रष्टव्या । नवरमिह सूत्रमाचारान्तर्गतं पात्रैषणाध्य-20 यनम् , तत्राप्राप्ते यदि पात्रानयनाय प्रेषयति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः 'द्वाभ्यामपि गुरवः' तपसा कालेन च । अथ सूत्रं प्राप्तः परं नाद्यापि तस्यार्थः कथितस्तदा चत्वारो लघुकास्तपसा गुरवः । अथ कथितोऽर्थः परं नाद्यापि सम्यगधिगतः तदाऽपि चत्वारो लघुकाः कालेन गुरवः । अथाधिगतोऽर्थः श्रद्धानविषयीकृतश्च परं नाद्यापि परीक्षितः तदाऽपि चतुर्लघवः तपसा कालेन च लघुकाः । अतः सूत्रं पाठयित्वा तस्यार्थं कथयित्वा सम्यगधिगते अद्धिते 25 चार्थे पात्राय परीक्ष्य प्रेषणीय इति ॥ ६४९ ॥ तच्च पात्रं चतुर्विधम् , तद्यथा नामं ठवणा दविए, भावम्मि चउन्विहं भवे पायं ।। एसो खलु पायस्सा, निक्खेवो चउबिहो होइ ।। ६५०॥ १ गृहीत्वा प्रत्र भा० विना । “सो तं घेत्तुं उप्पव्वएना" चूर्णौ ॥ २ ट्रेस आ ता० ॥ ३ वितिओ ता० ॥ ४°ति पात्रकल्पि° भा० त० विना ॥ ५ गुरुकाः तप° भा० ॥ ६ °द्याप्यधिगतः अधिगतो वा न सम्यक् श्रद्धानविषयीकृतस्तदाऽपि चत्वारो लघुकाः कालेन गुरवः । अथ सम्यक् श्रद्धत्ते परमद्याप्यपरीक्षितस्तदाऽपि चतुर्लघुकाः द्वाभ्यामपि लघवः [तपसा कालेन च। ततः सूत्रं पाठयित्वा भा० ॥ पात्र वृ०२५ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ निर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः नामपात्रं स्थापनापात्रं द्रव्यपात्रं भावपात्रमिति चतुर्विधं पात्रम् । एष खलु पात्रस्य निक्षेपचतुर्विधो भवति ॥ ६५० ॥ तत्र नाम स्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्य-भावपात्रे प्रतिपादयतिGod तिविहं एगिंदि - विगल-पंचिदिएहिं निष्पन्नं । भावे आया पत्तं, जो सीलंगाण आहारो ॥। ६५१ ॥ 5 द्रव्यविषयं त्रिविधं पात्रम्, तद्यथा - एकेन्द्रियनिष्पन्नं विकलेन्द्रियनिप्पन्नं पञ्चेन्द्रियनिप्पन्नं च । एकेन्द्रियनिष्पन्नमलाबुकादि, विकलेन्द्रियनिष्पन्नं शुक्ति- शङ्खादि, पञ्चेन्द्रियनिप्पन्नं कुतुप-दन्त-शृङ्गपात्रादि । 'भावे' भावविषयं पात्रमात्मा । किं सर्व एव ? न इत्याहयः पूर्वोक्तानाम् (गा० ६०४ ) अष्टादशसहस्रसङ्ख्यानां शीलाङ्गानाम् ' आधार ः ' आश्रयः स आत्मा साधूनां सम्बन्धी भावपात्रमुच्यते, “पात्रं भाजनमाधारः" इति पर्यायवचनत्वात् । अत्र 10 पुनर्भावपात्रोपयोगिना द्रव्यपात्रेणाधिकारः ॥ ६५१ ॥ तदपि त्रिविधम् लाउय दारुय मट्टिय, तिविहं उक्कोस मज्झिम जहन्नं । एकं पुण तिविहं, अहागडऽप्पं सपरिकम्मं ॥ ६५२ ॥ अलाबुमयं दारुमयं मृत्तिकामयम् । पुनरेकैकं त्रिविधम् – उत्कृष्टं मध्यमं जघन्यं च । उत्कृष्टं प्रतिग्रहः, मध्यमं मात्रकम्, जघन्यं टोप्परिकादि । एकैकं पुनस्त्रिधा — यथाकृतम15 ल्पपरिकर्म सपरिकर्म च ॥ ६५२ ॥ अत्र वैपरीत्यैकरणे प्रायश्चित्तमाह - वोच्चत्थे चउलहुआ, आणाइ विराहणा य दुविहा उ । छेयण मेणकरणे, जा जहिँ आरोवणा भणिया ।। ६५३ ॥ विपर्यस्तेन ग्रहणे करणे वा चतुर्लघुकाः, उपलक्षणत्वाद् लघुमास - रात्रिन्दिवपञ्चके अपि । इदमुक्तं भवति — उत्कृष्टस्य यथाकृतस्य पात्रस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरिक20 र्मोत्कृष्टमेव गृह्णाति चतुर्लघु, सपरिकर्म वा प्रथमत एव गृह्णाति चतुर्लघु; यदा यथाकृतं योगे कृतेऽपि न लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म गवेषणीयम्, तस्योत्पादनाय निर्गतः प्रथमत एव सपरिकर्म गृह्णाति चतुर्लघु, इति त्रीणि चतुर्लघुकानि; एवं मध्यमस्यापि त्रिषु स्थानेषु त्रीणि मासिकानि; जघन्यस्य स्थानकत्रयेऽपि त्रीणि रात्रिन्दिवपञ्चकानि । यथा यथाकृतादिविपर्यस्त - ग्रहणे प्रायश्चित्तमुक्तं तथोत्कृष्टादीनामपि परस्परं विपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तमवसातव्यम् । 25 तद्यथा—उत्कृष्टस्य प्रतिग्रहस्यार्थाय निर्गतो मध्यमं मात्रकं गृह्णाति मासिकम् जघन्यं टोप्परिकादि गृह्णाति पञ्चकम् ; मध्यमस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु, जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम् ; जघन्यस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु, मध्यमं गृह्णाति मासिकम् । तदेवं विपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तमुक्तम्, सम्प्रति विपर्यस्त करणेऽभिधीयते -- उत्कृष्टं भक्त्वा मध्यमं करोति मासि - कम्, जघन्यं करोति पञ्चकम् ; मध्यमे संयोज्योत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, तदेव भक्त्वा 30 जघन्यं करोति पञ्चकम्; जघन्ये संयोज्योत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, मध्यमं करोति मासिकम् ; आज्ञादयश्च दोषाः । विराधना च द्विविधा – संयमे आत्मनि च । तथा चाह— पात्रस्य च्छेदनं भेदनं वा कुर्वत आत्मविराधना परिताप - महादुःखादिका, संयमविराधना तु तद्गता १ "जहणं उल्लंकगादि" चूर्णो ॥ २ °त्ये धारणे भा० ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६५१-५५] पीठिका। घुणादयो विनाशमलुवते । ततो या 'यस्यां' संयमविराधनायामात्मविराधनायां वा आरोपणा भणिता सा तस्यामभिधातव्या । तत्रात्मविराधनायां सामान्यतश्चतुर्गुरु, संयमविराधनायां "छक्काय चउसु लहुगा" (गा० ४६१) इत्यादिका कायनिष्पन्ना । यत एवं ततो न विधेयं विपर्यस्तकरणम् ॥ ६५३ ॥ अथ कतिभिः प्रतिमाभिः पात्रं गवेषणीयम् ? उच्यते उदिसिय पेह संगय, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ । सव्वे जहन्न एको, उस्सग्गाई जयं पुच्छे ॥ ६५४ ॥ उद्दिष्टपात्रं प्रेक्षापात्रं सङ्गतिकपात्रमुज्झितधर्मकं च चतुर्थम् इति चतस्रः पात्रगवेषणायां प्रतिमाः । गच्छवासिनः प्रतिमाचतुष्टयेनापि पात्रं गृह्णन्ति, जिनकल्पिकानामधस्तनाभ्यां द्वाभ्यामग्रहणमुपरितनयोर्द्वयोरेकतरस्यामभिग्रहः । अथ ग्रन्थगौरवभयादतिदिशन्नाह-"सबे जहण्ण एक्को"ति “यद् यस्य नास्ति वस्त्रं इत्यारभ्य (गा० ६१५) सर्वे वा गीतार्था मिश्रा या 10जघन्यत एको गीतार्थः" इतिपर्यन्तं (गा० ६१८) यथा वस्त्रविषये भावितं तथा पात्रेऽपि सर्व. तदवस्थमेव भावनीयम् , नवरं पात्राभिलापः कर्तव्यः । “उस्सग्गाइ" ति कायोत्सर्गादिकं "आवाससोहि अखलंत समग उस्सग्ग०" (गा० ६१९) इत्यादिगाथोक्तं सप्रायश्चित्तं तथैव वक्तव्यम् । “जयं पुच्छे"ति यतमानः पूर्वोक्तां यतनां कुर्वन् पृच्छेत् । किमुक्तं भवति ?श्रावकेषु नावभाषितव्यम् , किं तर्हि ? भावितकुलेषु, तत्रापि पात्रे दर्शिते 'कस्येदम् ? किमा-15 सीत् ? क चाऽऽसीत् ? किं भविष्यति ?' इति पृच्छाचतुष्टयं तथैव कर्तव्यम् । किं बहुना ? य एव वस्त्रस्य विधिः ___ "एवं तु गविद्येसुं, आयरिया दिति जस्स जं नथि। समभागेसु कएसु व, जहरायणिया भवे बिइओ ॥" (गा० ६४८) इति पर्यन्तः प्रायः स एव पात्रस्यापि द्रष्टव्यः । यस्तु विशेषः स उपरिष्टाद् दर्शयिष्यते १० ॥ ६५४ ॥ सम्प्रति प्रतिमाचतुष्कं बिभावयिपुराह उद्दिट्ट तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ठ एरिसं भणइ । दोण्हेगयरं संगइ, वाहयई वारएणं तु ॥ ६५५ ॥ त्रिकस्य-जघन्यादित्रयस्यैकतरं यद् गुरुसमक्ष प्रतिज्ञातं तदेव याच्यमानमुद्दिष्टपात्रमिति प्रथमा । प्रेक्षापात्रं पुनः 'दृष्ट्वा' अवलोक्य यद् 'ईदृशं मम प्रयच्छ' इति भणति तत् प्रेक्षापूर्वकं 25 याच्यमानत्वात् प्रेक्षापात्रमिति द्वितीया । अथ तृतीया--तस्याश्च खरूपमाचाराङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे षष्ठाध्ययने प्रथमोद्देशके इत्थमभिहितम् (ग्रन्थानम्-५००)__ अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण पायं जाणेज्जा, तं जहा--संगहयं वा वेजयंतियं वा ( पत्र ३९९-२)। ___ अथ किमिदं सङ्गतिकम् ? किं वा वैजयन्तिकम् ? इत्याह-"दोण्हेगयरमि"त्यादि । 30 इह कस्यचिदगारिणो द्वे पात्रे, स च तयोरेकतरं दिने दिने वारकेण वायति, तत्र यसिन् दिवसे यद् वाह्यते तत् सङ्गतिकमभिधीयते, इतरद् वैजयन्तिकम् । तयोरेकतरं यदभिग्रह विशेषेण गवेष्यते सा तृतीया प्रतिमा ॥ ६५५ ॥ चतुर्थी प्रतिपादयति१ तयोः सङ्गतिक-वैजयन्तिकयोरेकतरं भा० ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे दव्वा दव्व हीणाहियं तु अम्रुगं च मे न घेत्तव्यं । दोहि वि भावनिसि, तमुज्झिओभट्टणोभहं ॥ ६५६ ॥ उज्झितं चतुर्धा, द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावोज्झित भेदात् । तत्र द्रव्योज्झितं यथा— केनचिदगारिणा प्रतिज्ञातम् ' इयत्प्रमाणाद्धीनाधिकं पात्रममुकं वा कमढक प्रतिग्रहादिकं मया न B ग्रहीतव्यम् ' तदेव केनचिदुपनीतम्, ततः प्रागुक्तयुक्तया द्वाभ्यामपि भावतो निसृष्टं तद् अवभाषितमनवभाषितं वा दीयमानं द्रव्योज्झितम् ॥ ६५६ ॥ क्षेत्रोज्झितमाहअमुचगं न धारे, उवणीयं तं च केणई तस्स । जं वुझे भरहाई, सदेस बहुपायदेसे वा ।। ६५७ ।। अमुकदेशोद्भवं पात्रं न धारयामि, तदेव च केनचिदुपनीतम्, तद् उभाभ्यामपि पूर्वोक्त10 हेतोः परित्यक्तं क्षेत्रोज्झितम् । यद्वा पात्रमुज्झेयुः 'भरतादय:' भरतः - नटः, आदिशब्दात् चारणादिपरिग्रहः, खदेशं गताः सन्तो बहुपात्रदेशे वा तदपि क्षेत्रोज्झितम् ॥ ६५७ ॥ कालोज्झितमाह 15 20 १९६ 25 दगदोद्धिगाइ जं पुव्वकाल जुग्गं तदन्नहिं उज्झे । होहि व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे ॥ ६५८ ॥ दोद्धिगं- तुम्बकम् दकस्य - जलस्य यद् म्रियते तुम्बकं तद् दकतुम्बकम्, आदिशब्दात् तक्रतुम्बकोदि च यत् पूर्वस्मिन् - ग्रीष्मादौ काले योग्यं तद् 'अन्यस्मिन् ' वर्षाकालादावुज्झेत्, भविष्यति वा एष्यति कालेऽयोग्यम् अतोऽनागतमेव यदुज्झेत्, तदेतदुभयथाऽपि कालोज्झितं ज्ञातव्यम् ॥ ६५८ ॥ भावोज्झितमाह - लडूण अन्नपाए, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स । सो वि अ निच्छर ताई, भावुज्झिय एवमाईयं ॥ ६५९ ।। eoध्वा अन्यानि - अभिनवानि पात्राणि पुराणानि स गृही अन्यस्य कस्यचिद् ददाति सोऽपि 'च 'तानि' दीयमानान्यपि यदा नेच्छति तदा एवमादिकं भावोज्झितं द्रष्टव्यम् ॥ ६५९ ॥ उक्ताश्चतस्रोऽपि प्रतिमाः । अथ पात्रस्यैव विशेषविधिं बिभणिपुराह— ओभासणा य पुच्छा, दिट्ठे रिके मुहे वहते य । सट्टे उक्खिते, सुके अपगासे दट्टणं || ६६० ॥ पात्रस्योत्पादनायामवभाषणं कर्त्तव्यम् । तत्र “पुच्छ" ति शिष्यः पृच्छति किं दृष्टं पात्रं प्रशस्यम् ? उतादृष्टम् ; एवं रिक्तमरिक्तं वा कृतमुखमकृतमुखं वा वहमानकमवहमानकं वा संसृष्टमसंसृष्टं वा उत्क्षिप्तं निक्षिप्तं वा शुष्कमा वा प्रकाशमुखमप्रकाशमुखं वा इत्यष्टौ पृच्छाः । आसां निर्वचनं स्वयमेव सूरिरभिधास्यति । तथा "दहूणं" ति 'दृष्ट्वा ' चक्षुषा 30 निरीक्ष्य पात्रं यदि निर्दोषं तदा गृह्णाति ॥ ६६० ॥ [ अनुयोगाधिकारः १ 'हादिकं पात्रं मया डे० ॥ २ 'कादिकं च यत् डे० । 'कादिपरिग्रहः, ततश्च दकतुम्बकादिकं च यत् भा० ॥ ३ सो ददाति अ° ता० ॥ ४ 'चनं पुरस्तादेवाभिधास्यति, तथा "दडू° भा० ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६५६-६६४] पीठिका । १९७ अथैनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमद्वितीयपृच्छयोरेकगाथया परिहारमाह दिट्ठमदिट्टे दिटुं, खमतरमियरे न दिस्सए काया। दहिमाईहि अरिकं, वरं तु इयरे सिया पाणा ॥ ६६१॥ दृष्टा-ऽदृष्टयोः पात्रयोर्मध्ये दृष्टं क्षमतरम् , क्षमशब्द इह युक्तार्थः, ततश्च क्षमतरम्-अहष्टादतिशयेन ग्रहीतुं युक्तम् । कुतः ? इत्याह-'इतरस्मिन्' अदृष्टे "न दीसए"त्ति प्राकृत-5 त्वादेकवचनम् न दृश्यन्ते 'कायाः' पृथिव्यादयः। तथा दध्यादिभिरिति आदिग्रहणाद् मोदकादिपरिग्रहः तैः 'अरिक्तं' पूर्ण वरम् , 'इतरस्मिन्' रिक्ते 'स्युः' भवेयुः कदाचित् 'प्राणोः' कुन्थुप्रभृतयो जीवाः । यदि पुनर्न तत्र प्राणसम्भवस्तदा तदपि सम्यगुपयुज्य गृढतां न दोषः ॥ ६६१ ॥ अथ कृतमुखा-ऽकृतमुखयोः किं कृतमुखं ग्राह्यम् ? उताकृतमुखम् ? उच्यतेअकयमुहे दुप्पस्सा, वीयाई छयणाइ दोसा वा । 10 कुंथूमादवहंते, फासुवहंतं अओ धनं ॥ ६६२॥ अकृतमुखे भाजने 'दुर्दर्शाः' दुःप्रत्युपेक्षा बीजादयो जीवाः, तत्र बीजानि तदुद्भवानि, आदिशब्दात् त्रसादिपरिग्रहः, छेदन-भेदनादयो वा दोषास्तत्र भवेयुः, यत एवं ततो अकृतमुखं परिहर्त्तव्यम् । अथ वहमानका-ऽवहमानकयोः कतरत् श्रेष्ठम् ? इत्याह-कुन्थ्वादयः सत्त्वा अवहमानके प्रायः सम्भवन्ति । अथ प्राशुकेन वस्त्रादिना वहमानकं-व्याप्रियमाणं 15 यत् तत् पात्रं धनाय हितमिति 'धन्यं' संयमधनोपकारकमित्यर्थः ।। ६६२ ॥ अथ संसृष्टादि पृच्छात्रयं प्रतिविधते एमेव य संसहूं, फासुअ अप्फासुएण पडिकुटुं। उक्खित्तं च खमतरं, जं चोल्लं फासुदग्वेणं ।। ६६३ ॥ 'एवमेव' यथा वहमानकं तथा संसृष्टमपि । यत् प्राशुकेन भक्तादिना संसृष्टं-खरण्टितं 20 तत् प्रशस्यम् , अप्राशुकेन पुनः संसृष्टं 'प्रतिक्रुष्टं' निषिद्धम् । उत्क्षिप्त-निक्षिप्तयोर्मध्ये यद आत्मप्रयोगेणैव गृहिणा पात्रमुत्क्षिप्तं तद् निक्षिप्तात् 'क्षमतरं' युक्ततरम् । यच्चाई प्राशुकद्रव्येण तक्रादिना तत् पात्रं श्रेयः, अर्थादापन्नम्-अप्राशुकेणाद्रे परिहार्यम् ॥ ६६३ ॥ अथ किं प्रकाशमुखं गृह्यताम् ? अप्रकाशमुखं वा ? उच्यते ___ होइ पगासमुह, जोग्गयरं तं तु अप्पगासाओ। यद् भवति प्रकाशमुखं तत् तु 'योग्यतरं संयमा-ऽऽत्मविराधनाया अभावाद विशेषेण योग्यम् 'अप्रकाशाद्' अप्रकाशमुखभाजनात् ॥ इत्थं पात्रस्य प्रशस्या-ऽप्रशस्यरूपतामुपवर्ण्य तस्यैव विधिशेषमभिधातुमुपक्रमते __ तस-वीयाइ अदटुं, इमं तु जयणं पुणो कुणइ ॥ ६६४ ॥ "तस-बीयाइ"इत्यादि पश्चार्धम् । तत् पात्रं चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य यदि त्रस-वीजादिकं जन्तु-30 १हः तैर्दध्यादिभिः 'अ° भा०॥ २°णाः' द्वीन्द्रियादय आगन्तुकजीवाः भा० ॥ ३ तदपि पात्रं भा० ॥ ४ "हार्यम्, यत् पुनः शुष्ककुन्थ्वादित्रसरहितं तद् निर्विवाद ग्राह्यम् ॥ ६६३ ॥ अथ भा०॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः जातं किञ्चिद् न पश्यति तदा तद् अदृष्ट्वा 'इमां' वक्ष्यमाणां यतनां पुनः करोति ॥ ६६४ ॥ तामेवाह— 5 "ओमंथ” ति तत् पात्रमवाङ्मुखं कृत्वा त्रीणि स्थानानि समाहृतानि त्रिस्थानं-मणिबन्धहस्ततल-भूमिकालक्षणम् तत्र 'त्रिकृत्वः ' त्रीन् वारान् प्रत्येकं प्रस्फोटयेत् । ततः प्राणाः - त्रसाः तान् आदिशब्दाद् जीवादीनि वा दृष्ट्वा न गृह्णाति । “पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य" त्ति शिष्यः पृच्छति — के मूलगुणाः ? के वा उत्तरगुणाः ? । अत्र निर्वचनमग्रे ( गा० ६६८) वक्ष्यते । "सुद्धो ससिणिद्धमाईसु" ति यत्राप्कायः प्रक्षिप्यमाण आसीत् तदधुनाऽपनीताकायतया 10 कदाचित् सस्निग्धं भवेत्, तच्च यदि त्रिकृत्वः प्रस्फोटनादिविधिं कुर्वता न परिभावितं तथापि श्रुतज्ञानप्रामाण्यबलेन शुद्धः, आदिशब्दाद् बीजकायपरिग्रहः || ६६५ ॥ एतदेव भावयति 15 ओमंथ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य । तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिद्धिमाई || ६६५ ॥ दाहिणकरेण कोणं, घेत्तुत्ताणेण वाममणिबंधे । खोडेइ तिनि वारे, तिन्नि तले तिन्नि भूमीए ॥ ६६६ ॥ दक्षिणेन कैरेणोत्तानेन पात्रस्य 'कोण' कर्णे गृहीत्वा पात्रमवाङ्मुखं कृत्वा वामहस्तस्य मणिबन्धे त्रीन् वारान् प्रस्फोटयति, ततस्त्रीन् वारान् हस्ततले, त्रीन् भूमिकायामिति ॥ ६६६ ॥ तस- बीयाइ व दिट्ठे, न गिण्हई गिन्हई उ अद्दिट्ठे । गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पर दिट्ठेहिं वि बहूहिं ॥ ६६७ ॥ नवकृत्वः प्रस्फोटिते सति त्रस - वीजादिजन्तुजातं यदि दृष्टं तदा न गृह्णाति, अथादृष्टं 20 ततो गृह्णाति । अथ महताऽपि प्रयलेन प्रत्युपेक्ष्यमाणानि तदा बीजादीनि सन्त्यपि शुषिर - त्वान्न दृष्टानि, ततः परिशुद्धं - निर्दोषमिति मत्वा पात्रस्य ग्रहणं कृतम्, तत उपाश्रयमागतैस्तानि दृष्टानि ततः को विधि: ? इत्याह--— कल्पते बहुभिरपि बीजादिभिः पश्चाद्दृष्टैरिति । किमुक्तं भवति ? तत् पात्रमप्राशुकमिति मत्वा न भूयोऽगारिणः प्रत्यर्प्यते, न वा परिष्ठा - प्यते श्रुतप्रामाण्येन गृहीतत्वात् ; किन्त्वेकान्ते बहुप्राशुके प्रदेशे तांनि बीजानि यतनया 25 परिष्ठापयेत् ॥ ६६७ ॥ अथ "पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे" ( गा० ६६५) त्ति अस्य निर्वचनमाह --- मुहकरणं मूलगुणा, पाए निक्कोरणं च इअरे उ । गुरुगा गुरुगा लहुंगा, विसेसिया चरिए सुद्धो ॥ ६६८ ॥ पात्रस्य यद् मुखकरणं तद् मूलगुणाः । यत् पुनर्मुखकरणानन्तरं तदभ्यन्तरवर्तिनो गिर30 स्योत्किरणं तद् निक्कोरणमित्यभिधीयते तद् 'इतरे' उत्तरगुणाः । अत्र चतुर्भङ्गी - संयतार्थ कृतमुखं संयतार्थमेव चोत्कीर्णमिति प्रथमो भङ्गः, संयतार्थं कृतमुखं स्वार्थमुत्कीर्णमिति तेनैवोत्तानेन पात्रमवाङ्मुखं भा० ॥ ४ मओ सुता ॥ १ करेण पाणिना पात्रस्य 'कोणं' कर्ण गृहीत्वा २ °न् वारान् भू मो० ॥ ३°थ न दृष्टं डे० त० कां० ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ अवग्रहकल्पिकः भाष्यगाथाः ६६५-७०] पीठिका। द्वितीयः, खार्थ कृतमुखं संयतार्थमुत्कीर्णमिति तृतीयः, स्वार्थ कृतमुखं स्वार्थमेवोत्कीर्णमिति चतुर्थः । अत्र त्रिषु भङ्गेषु प्रायश्चित्तम् , तद्यथा-प्रथमे भङ्गे चत्वारो गुरुकास्तपसा कालेन च गुरवः, द्वितीयेऽपि चतुर्गुरुकास्तपसा गुरवः कालेन लघवः, तृतीये चतुर्लघुकाः कालेन गुरवः तपसा लघवः । 'चरमे' चतुर्थे भङ्गे शुद्धः, उभयस्यापि खार्थत्वादिति ॥ ६६८॥ . व्याख्यातः पात्रकल्पिकः, अथावग्रहकल्पिकः प्ररूप्यते । तत्रापि "अप्पत्ते अकहित्ता" 5 (गा० ४७१) इत्यादिगाथा तथैव द्रष्टव्या । नवरं सूत्रमत्र आचारद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य सप्तमम् अवग्रहप्रतिमानामकमध्ययनम् । अथ कतिविधोऽयमवग्रहः ? उच्यते देविंद-राय-गहवइउग्गहो सागारिए अ साहम्मी। पंचविहम्मि परूविऍ, नायब्वो जो जहिं कमइ ॥ ६६९॥ देवेन्द्रः-शक ईशानो वा, स यावतः क्षेत्रस्य प्रभवति तावान् देवेन्द्रावग्रहः । राजा-10 चक्रवर्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः, स यावतः षट्खण्डभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति तावान् राजावग्रहः । गृहपतिः-सामान्यमण्डलाधिपतिः, तस्याप्याधिपत्यविषयभूतं यद् भूमिखण्डं स गृहपत्यवग्रहः । सागारिकः-शय्यातरः, तस्य सत्तायां यद् गृह-पाटकादिकं स सागारिकावग्रहः । साधर्मिकाः-समानधर्माणः साधवः, तेषां सम्बन्धि सक्रोशयोजनादिकं यद् आभाव्यं क्षेत्रं स साधर्मिकावर्ग्रहः । एष च पञ्चविधोऽवग्रहः । एतस्मिन् पञ्चविधेऽवग्रहे 15 वक्ष्यमाणभेदैः प्ररूपिते सति ज्ञातव्यो विधिरित्युपस्कारः । यः 'यत्र' देवेन्द्रादौ 'क्रमते' अवतरति स तत्रावतारणीन इति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ६६९ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीपुरमीषां पञ्चानां मध्ये कः कस्माद् बलीयान् ? इति जिज्ञासायां तावदिदमाह हेडिल्ला उवरिलेहि वाहिया न उ लहंति पाहन्न । पुव्वाणुन्नाभिनवं, च चउसु भय पच्छिमेऽभिनवा ॥६७०॥ 20 'अधस्तनाः' देवेन्द्रावग्रहादयः 'उपरितनैः' राजावग्रहादिभिर्यथाक्रमं बाधिताः, अत एव 'न तु' नैव लभन्ते प्राधान्यम्' उत्तमत्वम् । किमुक्तं भवति?-राजावग्रहे राजैव प्रभवति न देवेन्द्रः, ततो देवेन्द्रेणानुज्ञातेऽप्यवग्रहे यदि राजा नानुजानीते तदा न कल्पते तदवग्रहे स्थातुम् । अथानुज्ञातो राज्ञा खविषयावग्रहः परं न गृहपतिना, ततस्तदवग्रहेऽपि न युज्यतेऽवस्थातुम् । अथानुमतं गृहपतिना स्वभूमिखण्डेऽवस्थानं परं न सागारिकेण खावग्रहे, ततोऽपि न कल्पते 25 वस्तुम् ; अथानुज्ञातः सागारिकेण खावग्रहः परं न साधर्मिकैः, तथापि न कल्पते इति; एवमुपरितनैरधस्तना बाध्यन्ते । तथा पूर्वमनुज्ञामभिनवां च चतुर्ववग्रहेषु 'भज' विकल्पय, केषाञ्चित् साधूनां पूर्वानुज्ञा तदपरेषामभिनवेति भजना कार्येत्यर्थः । अथ केयं पूर्वानुज्ञा ? का वाऽभिनवानुज्ञा ? इति, उच्यते-इह योऽवग्रहः पुरातनसाधुभिरनुज्ञापितः स यत् पाश्चात्यै १°त्ता यावद गृह-वगडादिकं भा० ॥ २ डे० त० विनाऽन्यत्र-°षां सर्वतः सको भा०। °षां सक्रो मो० ले. का० ॥ ३ जनं यद् भा० ॥ ४ °ग्रहः। एतस्मिन् 'पञ्चविधे' पञ्चप्रकारेऽवग्रहे प्ररूपिते सति ज्ञातव्यः, प्रक्रमावग्रह एव । यो यत्र भा०॥ ५'ता द्रष्टव्याः , अत डे० त०॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे. [अनुयोगाधिकारः रेवमेव परिमुज्यते न भूयोऽनुज्ञाप्यते सा पूर्वानुज्ञा, यथा-चिरन्तनसाधुभिदेवेन्द्रो यदवग्रहमनुज्ञापितः सैव पूर्वानुज्ञा साम्प्रतकालीनसाधूनामप्यनुवर्तते न पुनर्भूयोऽप्यनुज्ञाप्यते । अभिनवानुज्ञा नाम यदा किलान्यो देवेन्द्रः समुत्पद्यते तदा तत्कालवर्तिभिः साधुभिर्यदसौंवभिनवोत्पन्नतयाऽवग्रहमनुज्ञाप्यते सा तेषां साधूनामभिनवानुज्ञा तदन्येषां तु पूर्वानुज्ञैव । 5 राजावग्रहेऽपि यो यदा चक्रवर्ती समुत्पद्यते स तत्कालवर्तिभिः साधुभिर्यदनुज्ञाप्यते सा तेषामभिनवानुज्ञा, तदपरेषां पूर्वानुज्ञा । एवं शेषनृपति-गृहपतीनामपि पूर्वा-ऽभिनवानुज्ञे भावनीये । सागारिकोऽपि प्रथमत उपागतैः साधुभिर्यदुपाश्रयमनुज्ञाप्यते सा तेषामभिनवानुज्ञा । तेषु साधुषु तत्र स्थितेषु यदन्ये साधवः समागत्य तदनुज्ञापितमवग्रहं परिभुञ्जते सा पूर्वानुज्ञा । तदेवं चतुर्ववग्रहेषु पूर्वा-ऽभिनवानुज्ञयोजना भाविता । तथा पश्चिमे साधर्मिकाव10 ग्रहेऽभिनवानुज्ञैव भवति न पूर्वानुज्ञा । तथाहि—यो यदाऽवग्रहार्थ साधर्मिकमुपसम्पद्यते स सर्वोऽपि तदानीं तमनुज्ञाप्यैवावतिष्ठते नान्यथेत्यभिनवानुज्ञैवैका ।। ६७० ॥ अथामीषां पञ्चानामपि भेदानाह दव्वाई एकेको, चउहा खित्तं तु तत्थ पाहन्ने । तत्थेव य जे दव्या, कालो भावो असामित्ते ॥ ६७१ ॥ 16 एकैकोऽवग्रहश्चतुर्दा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । तत्र प्रथमतः क्षेत्रावग्रहः प्ररूप्यते । कुतो हेतोः । इति चेद् उच्यते-'क्षेत्रं तु' क्षेत्रं पुनः 'तत्र' तेषु द्रव्यादिषु मध्ये प्राधान्ये वर्चते, इहावग्रहस्य प्ररूप्यमाणत्वात् तस्य च तत्त्वतः शक्रादिक्षेत्ररूपतयाऽभिधीयमानत्वादिति भावः । यतश्च तत्रैव च' क्षेत्रे यानि द्रव्याणि यश्च कालो भावश्च एतेषां त्रयाणामपि क्षेत्रमाधारभूतं खामित्वे वर्तते, क्षेत्रस्यैव सम्बन्धित्वात् तेषाम् । तस्मिंश्च प्रथमं प्ररू20 पिते द्रव्यादयस्तदन्तर्गताः प्ररूपिता एव भवन्तीति॥६७१॥ प्रथमतः क्षेत्रावग्रहं प्ररूपयति पुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि । जा कुणइ दुहा लोग, दाहिण तह उत्तरद्धं च ॥ ६७२ ॥ इह सर्वस्यापि लोकस्य 'मध्यकारे' मध्यभागे मन्दरस्य पर्वतस्योपरि 'श्रेणिः' आकाशप्रदेशपतिरेकपादेशिकी पूर्वापरयोर्दिशोरायता प्रदीर्घा समस्ति, 'या' श्रेणिर्लोकमेकरूपमपि 26 द्विधा करोति । तद्यथा-दक्षिणलोकार्द्धमुत्तरलोकार्द्ध च । तत्र दक्षिणलोकार्द्धस्य शक्रः प्रभुत्वमनुभवति, उत्तरलोकार्द्धस्य पुनरीशानकल्पनायकः । तथा दक्षिणलोकाड़े यान्यावलिकाप्रविष्टानि पुप्पावकीर्णानि वा विमानानि तानि शक्रस्यैवाऽऽभाव्यानि, यानि पुनरुत्तरा तानि सर्वाण्यपि द्वितीयकल्पाधिपतेः ॥ ६७२॥ १ कां• मो० ले. विनाऽन्यत्र-यथा-चिरन्तनकालवर्तिभिः साधु डे० त० । यथा-पुरातनसाधु भा० ॥२°योऽनु भा०॥३°लाभिनवो देवे भा० ॥४°साववन मो० ले० कां०॥ ५°ग्रहेऽनु भा० ॥ ६ यो यदा यमवग्रहार्थ साधर्मिकः साधर्मिकमु भा० । “जो जं जाधे उवसंपजति साधम्मिओ साधम्मियं सो तं ताधे चेव अणुजाणावेति" इति चौँ॥ ७ षाम इत्य. तोऽपि क्षेत्रस्यैव प्राधान्यं नेतरेषाम् । तसिं भा० ॥ ८°त एव क्षेत्रा मो० ॥ ९ °ग्रह एव प्ररूप्यते भा० ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ भाण्यगाथाः ६७१-७५] पीठिका। अथ यानि मध्यमश्रेण्या तानि कस्याऽऽभवन्ति ? इत्याह साधारण आवलिया, मज्झम्मि अवद्धचंदकप्पाणं । अद्धं च परक्खित्ते, तेसिं अद्धं च सक्खित्ते ॥ ६७३ ॥ 'अपार्द्धचन्द्रकल्पयोः' अर्द्धचन्द्राकारयोः सौधर्मेशानकल्पयोः पूर्वा-ऽपरायतायां मध्यमश्रेण्यां या विमानानामावलिका सा साधारणा शक्रेशानयोः । किमुक्तं भवति ?–तस्यां मध्यमश्रेण्यां। पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि त्रयोदशखपि प्रस्तटेषु यानि विमानानि तानि कानिचित् शक्रस्य कानिचिदीशानस्याऽऽभाव्यानि । तत्र यानि वृत्ताकाराणि तानि सर्वाण्यपि शक्रस्यैव, यानि पुनज्यस्राणि चतुरस्राणि वा तान्येकं शक्रस्यैकमीशानस्येत्येवमुभयोरपि साधारणानि। तथा चोक्तम् जे दक्खिणेण इंदा, दाहिणओ आवली भवे तेसिं । जे पुण उत्तरइंदा, उत्तरओ आवली तेसिं ॥ (देवेन्द्र० गा० २११) 10 पुवेण पच्छिमेण य, जे वट्टा ते वि दाहिणल्लस्स। तंस चउरंसगा पुण, सामन्ना हुंति दोण्हं पि॥ (देवेन्द्र० गा० २१३) तेषां च मध्यमश्रेणिगतानां विमानानामर्द्ध 'खक्षेत्रे' खस्वकल्पसीमनि प्रतिष्ठितम् , तदपरमर्द्ध 'परक्षेत्रे' अपरकल्पसीमनीति ।। ६७३ ॥ अथ शक्रमुद्दिश्य क्षेत्रावग्रहप्रमाणमाहसेढीइ दाहिणेणं, जा लोगो उड्ड मो सकविमाणा। 15 देवेन्द्र क्षेत्रावहेट्ठा वि य लोगंतो, खित्तं सोहम्मरायस्स ॥ ६७४॥ 'सौधर्मराजस्य' सौधर्मकल्पाधिपतेस्तावत् क्षेत्रमाधिपत्यविषयभूतम्-तिर्यग्दिशमधिकृत्य 'श्रेण्याः' पूर्वोक्तायाः 'दक्षिणेन' दक्षिणस्यां दिशि ‘यावद् लोकः' इति तिर्यग्लोकपर्यन्तः, ऊर्ध्वदिशमाश्रित्य 'मो' पादपूरणे यावत् खविमानानि स्तूप-ध्वजकलितानि, अधोदिशमुदिश्य यावदधस्तनो लोकान्त इति ॥ ६७४ ॥ भावितो देवेन्द्रक्षेत्रावग्रहः । सम्प्रति चक्रिणः क्षेत्रावग्रहमाहसरगोयरो अतिरियं, बावत्तरिजोयणाई उड्डे तु । चक्रवर्ति क्षेत्रावअहलोगगाम-अघमाइ हेट्टओ चक्किणो खित्तं ॥ ६७५ ॥ प्रहः यावत् शरस्य-बाणस्य गोचरः-विषयस्तावत् चक्रिणस्तिर्यक् क्षेत्रम् । इदमुक्तं भवतिचक्रवर्ती दिग्विजययात्रां कुर्वन् मागधादिषु तीर्थेषु यं नामाकितं वाणं निसृजति स पूर्व-दक्षि-25 णा-ऽपरसमुद्रेषु द्वादशयोजनान्तं यावद् गच्छति, एतावदन्तश्चक्रिणस्तिर्यगवग्रहः । स एव बाणः क्षुद्रहिमवत्कुमारदेवसाधनाथ चक्रिणैव निसृष्ट ऊर्द्ध द्वासप्तातयोजनानि यावद् गच्छति तावानूधमवग्रहः । अधः पुनरधोलोकग्रामाः, तथा अघा-गा, आदिशब्दाद् वापी-कूप-भूमिगृहादिपरिग्रहः । इयमत्र भावना-जम्बूद्वीपापरविदेहवर्तिनलिनावती-वप्राभिधान विजययुगलसमुद्भवा योजनसहस्रोद्वेधाः समयप्रसिद्धा येऽधोलोकग्रामास्तेषु ये चक्रवर्तिनः समुत्पद्यन्ते 30 तेषां त एवाधः क्षेत्रावग्रहः, तदपरेषां तु गर्ता-कूप-भूमिगृहादिकमिति ॥ ६७५ ॥ १ यान्यावलिकाप्रविष्टानि विमा भा० ॥ २श्य प्रस्तुतक्षेत्रा भा० ॥ ३ "उर्दु जाव चुल्लहिमवंतकुमारस्स मेराए वचति चउसद्विजोयणाणि, सुत्तादेसेण वा बावत्तरिं" इति चूर्णिकृतः॥ ४ एवोत्कृष्टोऽधः क्षेत्रावग्रहो द्रष्टव्यः, तद भा० ॥५°कमेवोत्कृष्टमधः क्षेत्रम् ॥ भा०॥ 20 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहपतिसागारि कक्षेत्रा वप्रहः साधर्म कक्षेत्रा वप्रहः चत्रयादीनां जघम्यः क्षेत्रा वप्रहः सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे प्ररूपितो राज्ञः क्षेत्रावग्रहः । अथ गृहपति - सागारिकयोस्तमाहगवणो आहारो, चउद्दिसिं सारियस्स घरवगडा । अघा-गडाई, उडुं गिरि - गेहधय- रुक्खा || ६७६ ॥ 'गृहपतेः' मण्डलेश्वरस्य यावान् 'आधार' विषयः प्रभुत्वविषयभूतश्चतस्रेषु दिक्षु तावान5 स्योत्कृष्ट स्तिर्यगवग्रहः । ' सागारिकस्य' शय्यातरस्य 'गृहवगडा' गृहवृतिपरिक्षेप उत्कृष्ट स्तिर्यग - वग्रहः । द्वयोरपि चाधस्ताद् 'अघा - ऽगडादयः' अघा-गर्दा हदो वा, शब्दाद् वाप्यादयः; ऊर्द्ध 'गिरि-गेहध्वज - वृक्षाः' गिरयः - पर्वताः, वर्त्तिन्यः पताकाः, वृक्षाः - सहकारादयः । साधर्मिकाणां तु क्षेत्रावग्रह तोरत्र नोक्तः, परं बृहद्भाष्ये इत्थमभिहितः - अगडः - कूपः, आदि खित्तोग्गहो सकोस, जोयण साहम्मियाण बोधवं । छद्दिसि जा एगदिसिं, उज्जाणं वा मडंबाई ॥ मडम्बादौ उद्यानं यावदुत्कृष्टः क्षेत्रावग्रहः । शेषं सुगमम् ॥ अथ जघन्यमभिधातुकाम आह 10 २०२ 15 ―― [ अनुयोगाधिकार: गृहध्वजाः - गृहोपरि उत्कृष्टः कुतोऽपि अजहन्नमणुकोसो, पढमो जो आवि चकवट्टीणं । सेनिव रोगाइ, जहन्नओ गहवईणं च ।। ६७७ ॥ 'प्रथमः' देवेन्द्रावग्रहः 'अजघन्योत्कृष्टः ' न जघन्यो न वा उत्कृष्टः किन्तूभयविवक्षारहितः, सर्वदैवैकरूपत्वात् । यश्चाप्यवग्रहः चक्रवर्तिनां सम्बन्धी सोऽप्यजघन्योत्कृष्टः, सर्वच - क्रवर्तिनामाधिपत्यस्यैकरूपत्वात् । ' शेषनृपाणां' चक्रवर्त्तिव्यतिरिक्तानां नृपतीनां गृहपतीनां च रोधकादिषु जघन्यः क्षेत्र वग्रहो द्रष्टव्यः । रोधनं रोधकः - परचक्रेण नगरादेर्वेष्टनम्, आदि20 शब्दादन्यस्याप्येवंविधविरस्य परिग्रहः । इयमत्र भावना - कोऽपि बलवान् राजा मण्डलेश्वरो वा कस्याप्यल्पबलस्य नरपतेर्गृहपतेर्वा बाह्यनीवृतमात्मसात्कृत्य यदा तदीयं नगरादिं निरुध्यावतिष्ठते तदा तस्य तावान् नगरादिमात्रको जघन्यः क्षेत्रावग्रहः || ६७७ ॥ ॥ ६७६ ॥ नगराइ निरुद्ध घरे, जा याऽणुन्ना उदु चरिम जहन्नो । उकोसो उ अनियओ, अचकिमाईचउन्हं पि ॥ ६७८ ॥ 25 'द्वौ चरमौ ' सागारिक- साधर्मिकौ तयोरयं जघन्यः क्षेत्रावग्रहो नगरींदो - केनचिद् राज्ञा निरुद्धे बाहिरिकावास्तव्यजनैरभ्यन्तरतः प्रविशद्भिः शय्यातरगृहं साधर्मिकोपाश्रयो वी यदा १ 'पतेः' सामान्यमण्डलाधिपतेर्यावा' भा० ॥ २ सृष्वपि दिक्षु तावानेवास्यो' भा० ॥ ३ “घरस्स वगडा, वगडा णाम पलितं वतिपरिक्खेव इत्यनर्थान्तरम्" इति चूर्णिः ॥ ४ “उड्डुं पव्वया जोयणियादी, घरोवरिं वा चडितव्वयं होजा झया वा, जहा - इत्थिज्झयो इत्यादि, रुक्खो वा तम्मि चडितव्वयं होजा” इति चूर्णो ॥ ५ 'त्वादिति भावः । य० भा० ॥ ६ 'चक्रनृपतिना नग भा० ॥ ७ दिकं नि भा० ॥ ८ तावन्नग' डे० त० विना ॥ ९र्मिकावग्रहौ तयो' भा० ॥ १० रादाविति, आदिशब्दात् खेटादिग्रहः । तत्र केनचिद् राज्ञा 'निरुद्धे' सर्वतो वेष्टिते सति बाहि भा० ॥ ११ वा अपरा परैः साधर्मिकैरागच्छद्भिर्यदा भा० ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६७६-८१ ] पीठिका | २०३ - प्रेर्यते तदा या काचित् तेषामनुज्ञा, यथा--- - एतावति प्रदेशे युष्माभिः स्थातव्यम् एतावत्यस्मांभिरिति स जघन्यः क्षेत्रावग्रहः । उत्कृष्टः पुनरवग्रहः अनियतः, कस्याप्यल्पीयान् कस्यापि भूयानिति भावः । केषाम् ? इत्याह – अचत्र्यादीनां चतुर्णामपि यश्चक्री न भवति किन्तु सामान्यपार्थिवः स नञः पर्युदासप्रतिषेधतया तत्सदृशग्राहकत्वादचक्री भण्यते, आदिशब्दाद् गृहपत्यादयो गृह्यन्ते ॥ ६७८ || अथ सागारिकावग्रहस्य विशेषत उपयोगित्वाद् विधिमाह – 6 अणुन्नाए वि सव्वम्मी, उग्गहे घरसामिणा । सागारिका वग्रहे तहा वि सीमं छिंदंति, साहू तप्पियकारिणो ॥ ६७९ ।। निवास - 'गृहखामिना' शय्यातरेण 'भाजनधावन - कायिक्यादिव्युत्सर्जन-स्वाध्याय-ध्यानादिकं यत्र विधिः यत्र भवतां रोचते तत्र तत्र कुरुत' इत्येवं यद्यपि सर्वोऽप्यवग्रहोऽनुज्ञातस्तथापि साधवः तस्य - सागारिकस्य प्रियकारिणः - समाधिविधित्सवः 'सीमां' मर्यादां 'छिन्दन्ति' निर्धारयन्ति, 10 व्यवस्थां स्थापयन्तीत्यर्थः ॥ ६७९ ॥ तामेव सीमामभिधत्ते - झाया भाणघोषणाई, दोन्हऽद्वया अच्छणहेउगं च । मिउग्गहं चैव अट्ठियंते, मा सो व अन्नो व करेज मन्नुं ॥ ६८० ॥ ध्यानार्थं भाजनघावनाद्यर्थं द्वयोः - उच्चार - प्रश्रवणयोरर्थाय ' अच्छण" त्ति उपविश्यावस्थानं तद्धेतुकं च-तन्निमित्तकं ‘मितावग्रहमेव ' परिमितमेवावग्रहमधितिष्ठन्ति । किमुक्तं भवति ? - 15 साघवो व्यवस्थां स्थापयन्तः शय्यातरमामन्त्रय ब्रुवते - श्रावक ! वयमियति प्रदेशे ध्यानमध्यासिष्यामहे नेतः परम्, अत्र भाजनानि धाविष्यामो नान्यत्र, यदि नाम ग्लानादे रात्रावुच्चारसम्भवो भवेत् ततोऽत्र परिष्ठापयिष्यते, अत्र पुनः कायिकी व्युत्सृजिष्यते, इह पुनः साधवो भाजनरञ्जनादिकं कुर्वन्तः कियतीमपि वेलामा सिज्यन्ते, एवं व्यवस्थाप्य मितमेवावग्रहमधितिष्ठन्ति । कुतः ? इत्याह- मा 'सवा' सागारिकः 'अन्यो वा' तदीयो वयस्य-खजनादिः 20 सबाल वृद्धाकुलेन गच्छेनातिप्राचुर्येणाऽऽक्रान्ते कायिक्यादिना वा विनाशितेऽवग्रहे 'मन्युम् ' अप्रीतिकं कुर्यात् । अपि च तथा साधुभिरप्रमत्तैस्तत्र स्थातव्यं यथा शय्यातरश्चिन्तयेत् - अहो ! निभृतस्वभावा अमी मुनयः, यदेतावन्तोऽपि सन्तः खसमयोदितमाचारमा चरन्तोऽपि परस्परं विकथादिकमकुर्वन्तो निर्व्यापारा इव लक्ष्यन्ते, तत् सर्वथा कृतार्थोऽस्म्यहममीषां भगवतां शय्यायाः प्रदानेन, तीर्णप्रायो मयाऽयमपारोऽपि संसारपारावार इति ॥ ६८० ॥ 25 प्ररूपितः क्षेत्रावग्रहः । सम्प्रति द्रव्यावग्रहमाह - चेयणमचित्त मीसग, दव्त्रा खलु उग्गहेसु एएसु । जो जेण परिग्गहिओ, सो दुब्वे उग्गहो होइ ॥ ६८१ ॥ 'एतेषु ' देवेन्द्राद्यवग्रहेषु यानि 'चेतनानि' स्त्री-पुरुषादीनि 'अचित्तानि' वस्त्र -पात्रादीनि ‘मिश्राणि' सभाण्डोपकरणस्त्री पुरुषादीनि यानि द्रव्याणि सः 'द्रव्ये' द्रव्यविषयोऽवग्रहः | 30 १ 'त् सागारिकस्य साधर्मिकाणां वा अनुशा भा० ॥ २ 'स्माभिरपरैश्च जनैरिति स जय भा० ॥ ३ भाणधुवणट्टतादी, दो ता० ॥ ४ " एत्थ अच्छीहामो, काए वेलाए ? लिहंता वा रंगेत्ता (रंगंता) वा भाणे” इति चूर्णिकारः ॥ ५ कुतो हेतोः ? इति चेद् अत आहं भा० ॥ द्रव्याव. प्रहः Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालावमहः २०१ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः कथम्भूतः ! इत्याह-यो येन शक्रादिना परिगृहीतः स तस्य सम्बन्धी द्रव्यावग्रहः। किमुक्तं भवति ?-देवेन्द्रावग्रहक्षेत्रे यानि सचित्ता-ऽचित्त-मिश्राणि द्रव्याणि तानि सर्वाण्यपि देवेन्द्रद्रव्यावग्रहः । एवं राजावग्रहादिष्वपि भावना कार्या ।। ६८१ ॥ उको द्रव्यावग्रहः, अथ कालावग्रहमाह दो सागरा उ पढमो, चकी सत्त सय पुव्व चुलसीई। सेसनिवम्मि मुहुत्तं, जहन्नमुक्कोसए भयणा ॥ ६८२ ॥ 'प्रथमः' देवेन्द्रावग्रहः स द्वे सागरोपमे यावद् भवति, शक्रस्य द्विसागरोपमस्थितिकत्वात् । 'चक्री' चक्रवर्त्यवग्रहो जघन्यतः सप्त वर्षशतानि ब्रह्मदत्तवत् , उत्कर्षतः पुनश्चतुर शीतिपूर्वशतसहस्राणि भरतचक्रवर्तिवत् । तथा च चूर्णिः10 चक्कवट्टिउग्गहो जहण्णेणं सत्त वाससया बंभदत्तस्स, उक्कोसेणं चउरासीइपुत्वसयसहस्साई भरहस्स ॥ ___ अत्र परः प्राह-ननु ब्रह्मदत्तः कुमारतायामष्टाविंशति माण्डलिकत्वे षट्पञ्चाशतं दिग्विजये षोडश वर्षाण्यतिवाह्य षड् वर्षशतान्येव चक्रवर्तिपदवीमनुबभूव, भरतोऽपि सप्तसप्तति पूर्वलक्षाणि कुमारंभावमनुभूय वर्षसहस्रं माण्डलिकत्वमनुपाल्य षष्टिवर्षसहस्राणि विजयया15 त्रायां व्यतीत्य ततः किश्चिद् न्यूनानि षट् पूर्वलक्षाणि सार्वभौमश्रियं बुभुजे, ततः कथम नयोः सप्त वर्षशतानि चतुरशीतिपूर्वलक्षाणि च यथाक्रमं चक्रवर्त्यवग्रहः प्रतिपाद्यमानो न विरुध्यते ? नैष दोषः, इह योग्यतामङ्गीकृत्य भरतादयो जन्मत एव चक्रवर्तिनो मन्तव्याः, यत उत्पन्नमात्र एव चक्रवर्जिनि तदीयतथाविधाद्भुतभाग्यसम्भारसमावर्जितास्तदाभाव्यक्षेत्रनिवासिदेवताः 'उत्पन्नोऽयं सकलमहीवलयखामी' इति प्रमोदभाजस्तदानुकूल्यवृत्तयस्तजया20 भिलाषिण्यस्ततत्प्रत्यनीकप्रयुक्तप्रत्यूहापहाराय प्रवर्तन्त इति समीचीनमेव यथोक्तमवग्रहकाल मानम् ; अन्यथा वा बहुश्रुतैरुपयुज्य निर्वचनीयमिति । "सेसनिवम्मि मुहुत्तं"ति चक्रवर्तिनं मुक्त्वा यः शेषो नृपस्तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त कालावग्रहः, कृतराज्याभिषेकस्यान्तर्मुहूर्तादूर्द्ध मरणाद् राज्यपदपरिभ्रंशाद्वा । "उक्कोसए भयण"ति शेषनृपतीनामुत्कृष्ट कालावग्रहे भजना कार्या । किमुक्तं भवति ?--अन्तर्मुहूर्तादारभ्य समयवृद्ध्या वर्द्धमानानि चतुरशीतिपूर्वलक्षाणि 25 यावद् यान्यायुःस्थानानि तेषां मध्ये यद् येन नृपतिनाऽऽयुःस्थानं निर्वतिं यो वा यावन्तं कालं राज्यैश्वर्यमनुभवति तस्य स उत्कृष्टः कालावग्रहः ॥ ६८२ ॥ एवं गहवइ-सागारिए वि चरिमे जहन्नओ मासो। उक्कोसो चउमासा, दोहि वि भयणा उ कजम्मि ॥ ६८३ ॥ एवं गृहपति-सागारिकयोरपि शेषनृपतिवद् जघन्य उत्कृष्टश्च कालावग्रहो द्रष्टव्यः । १ न्यः सप्त डे० त० ॥ २ रतायामनु भा० ॥ ३ कां० मो० ले० विनाऽन्यत्र-दोषः, यतो योग्य डे० त० । दोषः, अवग्रहा-ऽवग्रहवतोः स्वस्वामिभावसम्वन्धानुविद्धतया कथश्चिदभेदो विवक्ष्यते; यद्वा योग्य भा० ॥ ४ °न्मन एव भा० कां० विना ॥५ °क्षान्तं याव भा० ॥ ६°व्यः, जघन्योऽन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कृष्टः पुनरन्तर्मुहूर्तादूई समयवृया यावच्चतुरशीतिपूर्वलक्षाणि । इह भा०॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाव भाष्यगाथाः ६८२-८५] पीठिका । २०५ इह च यद्यपि शेषनृपति गृहपति-सागारिकाणामायूंषि पूर्वकोटिपर्यवसितान्यपि सम्भाव्यन्ते तथापि चूंर्णिकृता किमपि बाहुल्यादि कारणमुद्दिश्य चतुरशीतिपूर्वलक्षपर्यन्तान्येवाभिहितानीति अत्रापि तदनुरोधेन तथैव व्याख्यातानि । तथा 'चरमे' साघर्मिकावग्रहे ऋतुबद्धे मासकल्पविहारिणां जघन्यो मासमेकम् उत्कृष्टो वर्षासु चतुरो मासान् कालावग्रहः । “दोसु वि भयणा उ कजम्मि" ति 'द्वयोरपि' जघन्योत्कृष्टयोः कार्य समापतिते भजना । किमुक्तं भवति?-ग्लानादिभिः कारणैः कदाचिद् ऋतुबद्धे मासो वर्षासु चत्वारो मासा न प्रतिपूर्येरन् अतिरिक्ता वा भवेयुः ॥ ६८३ ॥ गतः कालावग्रहः । अथ भावावग्रहमाह चउरो ओदइअम्मी, खओवसमियम्मि पच्छिमो होइ। मणसी करणमणुनं, च जाण जं जत्थ ॐ कमइ ॥ ६८४ ॥ 105 'चत्वारः' देवेन्द्र-राज-गृहपति-सागारिकाणामवग्रहा औदयिके भावे वर्तन्ते, 'ममेदं क्षेत्रम्' इत्यादिमूर्छायास्तेषु सद्भावात् , तस्याश्च कषायमोहनीयोदयजन्यत्वात् । 'पश्चिमः' साधर्मिकावग्रहः स क्षायोपशमिके भावे वर्तते, कषायमोहनीयक्षयोपशमयुक्ततया 'ममेदं क्षेत्रम् , ममायमुपाश्रयः' इत्यादिमूर्छायाः साधूनामभावात् । एष भावावग्रहः । तदेवं प्ररूपितः पञ्चविधोऽप्यवग्रहः । अथ यदुक्तं द्वारगाथायाम् “पंचविहम्मि परूविऍ, नायबो 15 जो जहिं कमइ” (गा० ६६९)त्ति तदिदानी भाव्यते-"मणसी करणमणुन्नं चे"त्यादि । मनसि करणमनुज्ञां च जानीहि, यद् 'यत्र' देवेन्द्रावग्रहादौ 'क्रामति' अवतरति तत्र 'मनसि' चेतसि करणम् 'अनुजानीतां यस्यावग्रहः' इति मनस्येवानुज्ञापनमिति हृदयम् । यत् पुनर्वचसाऽनुज्ञाप्यते साऽनुज्ञा, अन्तर्भूतण्यर्थत्वादनुज्ञापनेति भावः । तत्र देवेन्द्र-राजावग्रह्योर्मनसैवानुज्ञापनं करोति, गृहपत्यवग्रहस्य मनसा वा वचसा वा, सागारिक-साधर्मिकावग्रहयो- 20 नियमाद् वचसाऽनुज्ञापना, यथा-अनुजानीतास्माकं शय्यां वस्त्र-पात्र-शैक्षादिकं वेत्यादि ॥ ६८४ ॥ अथ भावावग्रहं प्रकारान्तरेणाह भावोग्गहो अहव दुहा, मइ-गहणे अत्थ-बंजणे उ मई । गहणे जत्थ उ गिण्हे, 'मणसी कर अकरणे तिविहं ॥ ६८५ ॥ अथवा भावावग्रहो द्विघा-मतिभावावग्रहो ग्रहणभावावग्रहश्च । तत्र 'मतिः' मतिज्ञा- 25 नरूपभावावग्रहो भूयोऽपि द्विधा–व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च । गाथायां बन्धानुलोम्येन पूर्वमर्थशब्दस्य निर्देशः। 'ग्रहणे' ग्रहणविषयो भावावग्रहः 'यत्र तु' यस्मिन् पुनर्देवेन्द्रावग्रहादौ यदा साधुः किञ्चिद् वस्तुजातं गृह्णाति सचित्तमचितं मिश्रं वा तस्य तदा ग्रहणभावावग्रहः । "मण १ "अंतोमुहत्ताओ परेणं समयाधियातो ठितीतो जाच चउरासीतिपुवसतसहस्साइं, एत्यंतरे जेणं रण्णा जं आउयं निव्वत्तितं जो वा जत्तियं कालं रजाधिवच्चं करेति तस्स तस्स सो उक्कोसओ कालोग्गहो भवति" इति चूर्णिपाठः ॥ २°दिकं का भा० ॥ ३ उक्कमति ता० ॥ ४'मते' मतिज्ञानस्य भावा भा० ॥ ५ ग्रहो द्वि डे. त• विना ॥ ६ कां० डे० त० विनाऽन्यत्र-°दा स एव ग्रहणरूपं भावमधिकृत्यावग्रहो ग्रहणभावावग्रहः भा० ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः सी कर"ति मनसि करणस्य उपलक्षणत्वाद् अनुज्ञापनायाश्चाकरणे त्रिविधं प्रायश्चित्तम् ॥६८५॥ एतदेव सविशेषमाह पंचविहम्मि परूविऍ, स उग्गहो जाणएण घेत्तव्यो। अन्नाए उग्गहिए, पायच्छित्तं भवे तिविहं ।। ६८६ ॥ । 'पञ्चविधे' अवग्रहे प्ररूपिते सतीदं तात्पर्यमभिधीयते-स एवंविधोऽवग्रहः 'ज्ञायकेन' पञ्चप्रकारावग्रहस्वरूपवेदिना ग्रहीतव्यो नाज्ञायकेन । कुतः ? इत्याह-'अज्ञाते' अनधिगते सति यद्यवग्रहमवगृह्णाति ततस्तस्मिन्नवगृहीते त्रिविधं प्रायश्चित्तं भवति ॥ ६८६॥ तदेवाह इक्कड-कढिणे मासो, चाउम्मासो अ पीढ-फलएसु। कट्ठ-कलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु ॥ ६८७ ॥ 10 इक्कडं-ढण्ढणी कठिनः-शरस्तम्बः तयोः संस्तारके मासलघु । काष्ठमयेषु पीठेषु फलकेषु च प्रत्येकं चत्वारो मासलघवः । काष्ठं च-काष्ठशकलं कलिञ्चं च-वंशदलं काष्ठ-कलिञ्चं तत्र तथा 'क्षारे' भसनि 'मल्लकादिषु' मल्लकं-शरावम् आदिशब्दात् तृण-डगलादिपरिग्रहः, एतेषु सर्वेष्वपि 'पञ्चकं' पञ्च रात्रिन्दिवानि ईति त्रिविधं प्रायश्चित्तमज्ञातावग्रहस्वरूपस्यावग्रहणे द्रष्टव्यम् ॥ ६८७ ।। उक्तोऽवग्रहकल्पिकः । सम्प्रति विहारकल्पिकमाह 10 विहारकल्पिकद्वारम् गीतार्थ गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयर्थनिस्सिओ भणिओ । गीतार्थनित्रितौ इत्तो तइयविहारो, नाणुनाओ जिणवरोहिं ॥ ६८८ ॥ विहारौ ___ गीतः-परिज्ञातोऽर्थो यैस्ते गीतार्थाः-जिनकल्पिकादयः, तेषां खातन्त्र्येण यद् विहरणं स गीतार्थो नाम प्रथमो विहारः । तथा गीतार्थस्य-आचार्योपाध्यायलक्षणस्य निश्रिताः-परतन्त्रा 20 यद् गच्छवासिनो विहरन्ति स गीतार्थनिश्रितो नाम द्वितीयो विहारो भणितः । इत ऊर्दू मगीतार्थस्य खच्छन्दविहारितारूपस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातः 'जिनवरैः' भगवद्भिस्तीर्थकरै रिति ।। ६८८ ।। अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोतिगीतार्थ गीयं मुणितेगढ़, विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थं । पदव्या १ इति यथाक्रमं त्रिविधमपि प्राय भा० ॥ २ 'त्थमिस्सि ता० ॥ ३ गीतः-परिक्षाख्यानम् तोऽर्थो यैस्ते गीतार्थाः, गीतार्था एव केवलाः सन्त्यति अभ्रादेराकृतिगणत्वाद् अप्रत्यये गीतार्थो नाम मौलो विहारः । किमुक्तं भवति?-यावन्तो विवक्षितगच्छान्तर्वर्तिनः साधवस्तावन्तः सर्वेऽपि गीतार्था न कश्चित् तन्मध्यादगीतार्थः, यथा श्रीऋषभस्वामिप्रथमगणधरस्य ऋषभसेनस्य परिवारभूतानि द्वात्रिंशदपि सहस्राणि साधूनां गीतार्थानि इति, एवमन्येषामपि केवलगीतार्थपरिवारोपेतानां यो विहारः स गीतार्थ इत्युच्यते । द्वितीयो गीतार्थ पुरतः कृत्वा तन्निश्रया-तत्पारतन्येण यो विहारः स गीतार्थ निश्रितः 'भणितः' प्रतिपादितस्तीर्थकर-गणधरैः । क्वचित्तु "गीयत्थमीसओ" त्ति पठ्यते, तत्र 'गीतार्थमिश्रकः' गीतार्थसंवलितागीतार्थसाधुसमुदायरूपः, शेषं प्राग्वत् । इत ऊईमपरस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातः 'जिनवरैः' भगवद्भिस्तीर्थकरैरिति ॥ ६८८ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवरीषुः प्रथमतो गीतार्थपदं व्याचष्टे इतिरूपा भा• पुस्तके टीका ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 भाष्यगाथाः ६८६-९२ ] पीठिका । २०७ गीएण य अत्थेण य, गीयत्थो वा सुयं गीयं ॥ ६८९ ॥ 'गीतं मुणितमिति वैकार्थम् । ततश्च विदितः-मुणितः परिज्ञातोऽर्थः छेदसूत्रस्य येन तं विदितार्थ खलु वदन्ति गीतार्थम् । यद्वा गीतेन चार्थेन च यो युक्तः स गीतार्थो भण्यते, गीता-ऽर्थावस्य विद्यते इति अभ्रादित्वाद् अप्रत्ययः । अथ गीतं किमुच्यते ?, अत आह'श्रुतं' सूत्रं गीतमित्यभिधीयते ।। ६८९ ॥ एतदेव भावयति गीएण होइ गीई, अत्थी अत्थेण होइ नायव्यो। गीएण य अत्थेण य, गीयत्थं तं विजाणाहि ॥ ६९०॥ इह सूत्रा-ऽर्थधरत्वे चतुर्भङ्गी, तद्यथा-सूत्रधरो नामैको नार्थधरः १ अर्थघरो नामैको न सूत्रधरः २ एकः सूत्रधरोऽप्यर्थधरोऽपि ३ अपरो न सूत्रधरो नार्थधरः ४ । अयं चतुर्थों भङ्ग उभयशून्यत्वादवस्तुभूतः, शेषं भङ्गत्रयमधिकृत्याह-'गीतेन' सूत्रेण केवलेन सम्यक्पठि-10 तेन गीतमस्यास्तीति गीती भवति । अर्थेन केवलेन सम्यगधिगतेनार्थी भवति ज्ञातयः, अर्थधर इत्युक्तं भवति । यस्तु गीतेन चार्थेन चोभयेनापि युक्तस्तं गीतार्थ विजानीहि इति । ॐ इंदमत्र तात्पर्यम्-तृतीयभगवत्यैव तत्त्वतो गीतार्थशब्दमविकलमुद्रोदुमर्हति, न प्रथमद्वितीयभगवर्तिनाविति ॥ ६९० ॥ अथ येषां गीतार्थानां तनिश्रितानां वा विहारो भवति तान् दर्शयतिजिणकप्पिओ गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो । गीतार्थाः गीयत्थे इड्डिदुर्ग, सेसा गीयत्थनीसाए ॥ ६९१॥ गीतार्थ नित्रिताश्च जिनकल्पिको नियमाद् गीतार्थः, परिहारविशुद्धिकः अपिशब्दात् प्रतिमाप्रतिपन्नको यथालन्दकल्पिकश्चावश्यतया गीतार्थः, जघन्यतोऽप्यधीतनवमपूर्वान्तर्गताचारनामकतृतीयवस्तुकत्वादेषामिति । तथा गच्छे गीतार्थविषयमृद्धिमतोः-आचार्योपाध्याययोकिं द्रष्टव्यम् , सूत्रे 20 मतुलोपः प्राकृतत्वात् , आचार्य उपाध्यायो वा नियमाद् गीतार्थ इत्यर्थः । एषां सर्वेषामपि खातब्येण विहारो विज्ञेयः। 'शेषाः' सर्वेऽपि साधवः 'गीतार्थनिश्रया' आचार्योपाध्यायलक्षणगीतार्थपारतत्र्येण विहरन्ति ॥ ६९१ ॥ इदमेव पश्चाई भावयति आयरिय गणी इड्डी, सेसा गीता वि होंति तनीसा । गच्छगय निग्गया वा, थाणनिउत्ताऽनिउत्ता वा ॥ ६९२॥ 25 १ गीतमिति वा मुणि° भा० ॥२ °सूत्राभिधेयं येन भा० ॥३°लुः अवधारणे 'वदन्ति' ब्रुवते गीतार्थ भा० ॥ ४ इति व्युत्पत्तेः । अथ भा० ॥ ५ डे. त• विनाऽन्यत्र-इह सूत्रार्थयो. चतर्भकी. तद्यथा-सूत्तधरे नामेगे नो अस्थधरे, अत्थधरे नामेगे नो सुत्तधरे, एगे सुत्तधरे वि अत्थधरे वि, एगे नो सुत्तधरे नो अत्थधरे । अत्र चतुर्थो भङ्ग उभयथाऽपि शून्यः, आद्यं भङ्गत्रयं सूचयनाह-गीतेन भा० ॥ ६ °व्यः । यस्तु डे० त० विना ॥ ७ हस्तचिहान्तर्गतोऽयं पाठः भा० डे. त• पुस्तकेष्वव वर्तते । एवमप्रेऽपि सर्वत्र हस्तचिहान्तर्गतः पाठः भा. डे. त. पुस्तकान्तर्गत एव श्रेयः॥ ८ अथ कस्का साधुरवश्यंतया गीतार्थो भवति? इति उच्यते इत्यवतरणं भा० ॥ ९ति भावः। तथा भा० ॥ १०°था गच्छवासिनां 'गीतार्थे' गीता भा०॥ ११ तार्थो भवति इ° भा० ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य 15 २०८ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः 'आचार्यः' सूरिः 'गणी' उपाध्यायः एतौ यतः 'ऋद्धिमन्तौ' सातिशयज्ञानादिऋद्धिसम्पन्नौ, अतिशायनेऽत्र मत्वर्थीयः, यथा रूपवती कन्येत्यादौ, अतः शेषाः साधवो गीतार्था अपि तन्निश्रेया विहरन्ति । अथ के ते शेषाः ? इत्याह-गच्छगता गच्छनिर्गता वा । तत्र गच्छगताः गच्छमध्यवर्तिनः, गच्छनिर्गताः "असिवे ओमोअरिए" इत्यादिभिः 5 कारणैरेकाकीभूताः; अथवा 'स्थाननियुक्ताः स्थानानियुक्ता वा' स्थाने पदे नियुक्ताःव्यापारिताः 'स्थाननियुक्ताः' प्रवर्तक-स्थविर-गणावच्छेदेकाख्याः पदस्थगीतार्था इत्यर्थः, तद्विपरीता स्थानानियुक्ताः, सामान्यसाधव इत्यर्थः । एते सर्वेऽप्याचार्योपाध्यायनिश्रया विहरन्ति ॥ ६९२ ॥ कथम् ? इत्याह आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अ जे अ तम्मज्झा । मध्यम 10 तनीसाएँ विहारो, सबाल-वुड्डस्स गच्छस्स ॥ ६९३ ॥ उत्कृष्टाः गीतार्थाः 'आचारप्रकल्पधराः' निशीथाध्ययनधारिणो जघन्या गीतार्थाः, चतुर्दशपूर्विणः पुनरु कृष्टाः, 'तन्मध्यवर्तिनः' कल्प-व्यवहार-दशाश्रुतस्कन्धधरादयो मध्यमाः। तेषां-जघन्य-मध्यमोत्कृष्टानां गीतार्थानां निश्रया सबाल-वृद्धस्यापि गच्छस्य विहारो भवति, न पुनरगीतार्थस्य खच्छन्दमेकाकिविहारः कर्तुं युक्तः ॥ ६९३ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यतेएकाकि एगविहारी अ अजायकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे । विहारे दोषाः उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्टतिहाणो ॥ ६९४ ।। एकः सन् विहरतीत्येवंशील एकविहारी, स च 'अजातकल्पिकः' अगीतार्थः, तथा च्यवनं-चारित्रात् प्रतिपतनं तस्य कल्पः-प्रकारश्च्यवनकल्पः, पार्श्वस्थादिविहार इत्यर्थः, तस्मिन् यो भवेत् स एकाकित्वम् 'उपसम्पन्नः' प्रतिपन्नः सन् 'मन्दः' सद्बुद्धिविकलो भविष्यति 20 'व्युत्सृष्टत्रिस्थानः' व्युत्सृष्टानि परित्यक्तानि त्रीणि स्थानानि-ज्ञानादिरूपाणि येन स व्युत्सृ ष्टत्रिस्थानः । एषा नियुक्तिगाथा ॥ ६९४ ॥ अथैनामेव विवृणोतिएकाकि मोत्तूण गच्छनिग्गते, गीयस्स वि एकगस्स मासो उ । विहारिणां प्रायश्चि अविगीए चउगुरुगा, चवणे लहुगा य भंगट्ठा ॥ ६९५ ॥ १ एतौ ऋद्धिमन्तावभिधीयेते, ऋद्धिः-शान दर्शन-चारित्ररूपाऽतिशायिनी सम्पत् सा विद्यतेऽनयोरित्यतिशायने मतुप्रत्ययः, तत आचार्योपाध्यायौ यतः 'ऋद्धिमन्तौ' महद्धिको अतः शेषाः साधवो भा० ॥२ श्रया आचार्योपाध्यायपरतन्त्रतया विह डे० ता० ॥ ३°षा:? उच्यते-गच्छ भा० ॥ ४ रणैर्गच्छानिर्गता एकाकीभूता इति यावत् । अथवा भा० ॥ ५°दकाः, तद्वि मो० ले० कां० ॥६ °न्यतो गीता भा० ॥ ७ डे० त० विनाsन्यत्र-हारधरादयो मध्यमाः। तेषां जय ले० मो० । हारधारकादयश्चतुर्दशपूर्वाणामक सर्वेऽपि मध्यमा गीतार्था अवसातव्याः । यदि नामैवं गीतार्थसाधिधास्ततः किम् ? इत्याह-तन्निश्रया जघन्य-मध्य भा० ॥ ८ सोऽपि जातकल्पिको वा स्यादजातकल्पिको वा, जातकल्पिको गीतार्थः, अजातकल्पिकः पुनरगीतार्थः, तत्रेहाजातकल्पिको गृह्यते । तथा यो भवेत् 'च्यवनकल्पे' इति च्यवनं भा० । “सो पुण जायकप्पिओ वा होजा अजायकप्पिओ वा । जातकप्पिओ णाम गीतत्थो, अजातकप्पिओ अगीतत्थो । चवणकप्पो णाम पासत्यादिविहारो" इति चूर्णौ ॥ तम् Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६९३-९७] पीठिका। २०९ मुक्त्वा 'गच्छनिर्गतान्' जिनकल्पिकादीन् गीतार्थस्यापि 'एककस्य' एकाकिविहारं कुर्वतो मासलघु । 'अविगीते' अगीतार्थे एकाकिविहारिणि चत्वारो गुरुकाः । 'च्यवने' पार्श्वस्थादिविहारे यदि मनसाऽपि संकल्पं कुरुते तदा चत्वारो लघुकाः । “भंग?" ति अष्टौ भङ्गा अत्र कर्तव्याः, तद्यथा---एकाकी अजातकल्पिकच्यवनकल्पिकश्च १ एकाकी अजातकल्पिको न च्यवनकल्पिकः २ एकाकी जातकल्पिकश्यवनकल्पिकः ३ एकाकी जातकरुिपको न च्यवनकल्पिकः ४, एवमेकाकिपदेन चत्वारो भगा लब्धाः; अनेकाकिपदेनापि चत्वारो लभ्यन्ते, सर्वसङ्ख्यया अष्टौ भनाः । अत्राष्टमो भङ्गस्त्रिष्वपि पदेषु शुद्धत्वात् प्रायश्चित्तरहितः। शेषेषु तु यथायथमनन्तरोक्तं प्रायश्चित्तम् ।। ६९५ ॥ एतेषु सप्तखपि भङ्गेषुधा वर्तमानस्य दोषमुपदर्शयन्नुपसम्पन्न-मन्दपदे व्याचष्टेएगागित्तमणट्ठा, उवसंपज्जइ चुओ व जो कप्पा । 10 एकाकि विहारिसो खलु सोचो मंदो, मंदो पुण दव्व-भावेणं ॥ ६९६ ॥ णां मन्द__ य एकाकित्वम् 'अनर्थाद' ज्ञानादिप्रयोजनाभावाद 'उपसम्पद्यते' अङ्गीकरोति, यो वा त्वम् 'च्युतः' प्रतिपतितः 'कल्पात्' संविनविहारात् स खलु वराको द्रव्यजीवितेन जीवनपिनमा 'शोच्यः' शोचनीयः संयमजीविताभावात् , मन्दश्चासौ । अथ मन्द इति कोऽर्थः ? इत्याह-मन्दः पुनः 'द्रव्य-भावेन' द्रव्यतो भावतश्च मन्दो भवतीत्यर्थः ॥ ६९६ ॥ 15 एकेको पुण उवचय, अवचय भावे उ अवचए पगयं । तलिना बुद्धी सेट्ठा, उभयमओ केइ इच्छन्ति ॥ ६९७ ॥ द्रव्यमन्दो भावमन्दश्चैकैकः पुनर्द्विधा-उपचयेऽपचये च । तत्रोपचयद्रव्यमन्दो नाम यः परिस्थूरतरशरीरतयाँ गमनादिव्यापारं कर्तुं न शक्नोति । अपचयद्रव्यमन्दस्तु यः कृशशरीरतयों कमपि प्रयास न कर्तुमीष्टे । उपचयभावमन्दः पुनयों बुद्धेरुपचयेन यतस्ततः कार्य कत्तुं 20 नोत्सहते । अपचयभावमन्दस्तु यो निजसहजबुद्धेरभावेनान्यदीयाया बुद्धरनुपजीवनेन हिताऽहितप्रवृत्ति-निवृत्ती न कर्तृमीशः स बुद्धेरपचयेन भावतो मन्दत्वादपचयभावमन्दः । अत्र १°स्यापि पुष्टालम्बनमन्तरेण 'एककस्य' भा० ॥२ °काः, चशब्दाद् यश्चात्म-संयमविराधनादिकमापद्यते तनिष्पन्नमपि प्रायश्चित्तमवसातव्यम् । “भंगट्ट" भा०।"चशब्दाद् यच्चापद्यते। भंगढ" इति चूर्णिकारः॥ ३ °यथं द्विकत्रिकसंयोगनिष्पन्नं पूर्वोक्तं प्राय भा० ॥ ४ °त्वम् "अणट्र"त्ति अर्थ:-प्रयोजनम् , तदभावोऽनर्थः,पुष्टालम्बनं विनाऽपीति भावः, 'उप° भा०॥ ५°वितव्यपगमादिति भावः, मन्द भा० ॥ ६°भावाभ्याम्, द्रव्य भा०॥ ७ 'उपचयेऽपचये च' उपचयद्रव्यमन्दोऽपचयद्रव्यमन्दश्च उपचयभावमन्दोऽपचयभावमन्दश्चेत्यर्थः। तत्रोप भा० ॥ ८ या कमपि व्यापा' भा० ॥ ९ डे. त• विनाऽन्यत्र-या प्रवासं न मो० ले० । 'या स्वल्पमपि प्रयासं न भा० ॥ १० डे० त० विनाऽन्यत्र-हते । अपचयभावमन्दस्तु यो वुद्धरभावेन हिता-ऽहितप्रवृत्ति-निवृत्ती न कर्तुमीशः । अत्र चानेनैव मो० ले० का । हते । यः पुनः सद्बुद्धेरभावेन हिता-ऽहितप्रवृत्ति-निवृत्ती न कर्तुमीशः स बुद्धेरपचयेन भावतो मन्दत्वादपचयभावमन्दोऽभिधीयते । अत्र चानेनैव भा० ॥ 2° Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्यो भ्रंशः 10 २१० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे अनुयोगाधिकारः चानेनैव भावतोऽपचयमन्देन प्रकृतम् , शेषास्तु शिष्यमतिविकाशनार्थं प्ररूपिताः । अथवा 'तलिना' सूक्ष्मा कुशाग्रीया बुद्धिः श्रेष्ठा, ततः सा सूक्ष्मतन्तुव्यूतपटीवद् अन्तःसारवत्वेन अशा उपचितेति कृत्वा यः कुशाग्रीयमतिः स उपचयभावमन्दः । यस्तु परिस्थूरमतिः स बुद्धेः स्थूलसूत्रतया- स्थूलशाटिकाया इव अन्तर्निःसारतालक्षणमपचयमधिकृत्यापचयभावमन्द इति । अतः केचिदाचार्या उभयमप्यपचयमन्दमिच्छन्ति, प्रथमव्याख्यानापेक्षया निर्बुद्धिकं द्वितीयव्याख्यानपक्षे तु परिस्थूखुद्धिकमपचयभावमन्दमत्र प्रस्तावे गृहन्तीति भावः ॥ ६९७ ॥ अथ यदुक्तं नियुक्तिगाथायाम् "होहिइ वोसट्ठतिट्ठाणो" (गा०६९४) ति तत्र कानि पुनस्तानि त्रीणि स्थानानि यानि तेन परित्यक्तानि ? उच्यतेएकाकिविहारिणां नाणाई तिहाणा, अहवण चरणऽप्पओ पवयणं च । ज्ञानादि सुत्त-ऽस्थ-तदुभयाणि व, उग्गम उप्पायणाओ वा ॥ ६९८॥ एकाकी 'ज्ञानादीनि ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि त्रीणि स्थानानि वक्ष्यमाणनीत्या परित्यजतीति । “अहवण" ति अखण्डमव्ययमथवार्थे, चरणमात्मा प्रवचनं चेति वा त्रीणि स्थानानि, तत्रागीतार्थतयाऽसौ षट्कायविराधनया चरणम् , अतिप्रचुराहारभक्षणादिना ग्लानत्वाद्याप चावात्मानम्, अयतनया संज्ञाव्युत्सर्गादिना प्रवचनं च परित्यजति । अथवा सूत्रा-ऽर्थ-तदु16 भयानि त्रीणि स्थानानि, तत्रासावेकाकितया कदाचित् सूत्रं विस्मारयति कदाचिदर्थ कदाचित् तदुभयम् । यद्वा उद्गमो(म उत्पादना वाशब्दादेषणा चेति त्रीणि स्थानानि, तानि च निरङ्कुशत्वादेकाकी परित्यजतीति प्रकटमेव ॥ ६९८ ॥ अथ यथाऽसौ ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि परिहरति तथाऽभिघित्सुराह अप्पुवस्स अगहणं, न य संकिय पुच्छणा न सारणया । 20 गुणयंते अ अदटुं, सीदइ एगस्स उच्छाहो ॥६९९।। अपूर्वस्य श्रुतस्याग्रहणम्, एकाकितया पाठयितुरभावात् । न च शतिते सूत्रेऽथे वा कस्यापि पावें प्रच्छनम् । न वा सूत्रमर्थं वा विकुट्टयतः 'सारणा' शिक्षणा 'मैवं पाठीः' इत्यादिका भवति । तथाऽपरान् साधून 'गुणयतः' परावर्त्तयतोऽदृष्ट्वा 'सीदति' परिहीयते 'एकस्य' एकाकिनः 'उत्साहः' सूत्रा-ऽर्थपरावर्त्तनायामभियोग इति ॥ ६९९ ॥ 25 उक्तो ज्ञानपरिहारः । सम्प्रति दर्शन-चरणयोः परिहारमाह चरगाई वुग्गाहण, न य वच्छल्लाइ दंसणे संका । थी सोहि अणुञ्जमया, निप्पग्गहया य चरणम्मि ॥ ७०० ॥ चरकादिभिः' कणाद-सौगत-साङ्ख्यप्रभृतिभिः पाषण्डिभिः कुयुक्तियुक्ताभिरुक्तिभियुद्वाहणमगीतार्थतया तस्य भवेत् , न चासावेकाकितया साधर्मिकाणां वात्सल्यम् आदिशब्दा १°नार्थमुच्चारितसदृशा इति कृत्वा प्ररूपिताः। अथ प्रकारान्तरेण भावत एवोपचया-ऽपचयमन्दद्वयमाह-"तलिना बुद्धी" इत्यादि । 'तलिना' भा० ॥ २ डे० त• विनाऽन्यत्र-यदुक्तं "होहिइ मो० ले० का० । यदुक्तं सङ्ग्रहगाथायाम् “होहिइ भा० ॥ ३°नानि द्रष्टव्यानि । “अह° भा० ॥ ४ तस्यैकाकिनः 'चरकादिभिः' चरक-चीरिका-सौगत भा० ॥ ५°भिः 'व्युदाहणं' विपरिणामनमगीतार्थतया भवेत् भा० ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ६९८-७०२] पीठिका । २११ दुपबृंहणं स्थिरीकरणं तीर्थप्रभावनां वा कुर्यात् , शङ्कादयो वा दोषा देशतः सर्वतो वा तस्य भवेयुरिति, एवं दर्शनमसौ परिहरति । तथा “थी” इति एकाकिनः स्त्रियो सम्भाषणादिनाऽऽस्म-परोभयसमुत्था दोषा भवेयुः । “सोहि" त्ति 'शोधिः' प्रायश्चित्तम् , तद् अपराधमापन्नस्य तस्य को नाम ददातु ? । अनुद्यमता च तस्य सारणादीनामभावाद् भवति । । "निप्पग्गया य" ति इह प्रग्रहशब्दो यद्यपि "तुलासूत्रेऽश्वादिरश्मौ, सुवर्णे हलिपादपे। ___ बन्धने किरणे बन्यां, भुजे च प्रग्रहं विदुः ॥" इति वचनादनेकार्थः तथाप्यत्राश्वादिरश्मिवाचको द्रष्टव्यः, ततो यथा तया रश्म्या वैल्गापरपर्याययोन्मार्गप्रस्थितस्तुरङ्गमो मार्गेऽवतार्यते तथा गुरूणामप्याज्ञावल्गया साधुः प्रमादत उत्पथप्रतिपन्नोऽपि सन्मार्गेऽवतार्यते इति प्रग्रहशब्देन गुर्वाज्ञाऽभिधीयते, » प्रग्रहो नियन्त्रणा 10 गुर्वाज्ञेति यावत् , निर्गतः प्रग्रहादिति निष्प्रग्रहः, तस्य भावो निष्पग्रहता, गुर्वाज्ञाया अभावात् पाणि-पाद-मुखधावनादि निःशकं करोतीत्यर्थः । एवं चरणविषयः परित्याग इति ॥ ७०० ॥ किञ्च सामनाजोगाणं, बज्झो गिहिसन्नसंथुओ होइ। दंसण-नाण-चरित्ताण मइलणं पावई एको ॥ ७०१॥ 15 स एकाकी "सामन्न" ति श्रामण्य-भाविनां विनय-वैयावृत्त्यप्रभृतीनां योगानां 'बाह्यः' अनाभागी भवति । गृहिणाम्-अगारिणां संज्ञा-समाचारस्तस्यां संस्तुतः-परिचयवान् भवति । दर्शन-ज्ञान-चारित्राणां च मालिन्यमेकः सन् प्रामोति, तत्र बौद्धादिभिर्विपरिणामितमतेः 'अहो! अमीषामपि दर्शनं निपुणोपपत्ति-दृष्टान्तसंवर्मितं समीचीनमिव प्रतिभासते' इत्यादिना चित्तविप्लवेनोन्मार्गप्ररूपणया वा दर्शनमालिन्यम्, विशाखिल-वात्स्यायनादिपापश्रु-20 तान्यभ्यस्यतस्तेषु बहुमानबुद्धिं कुर्वतो ज्ञानमालिन्यम् , चारित्रमालिन्यं पुनरेकाकिनः सुप्रतीतमेव ॥ ७०१ ॥ अथ गृहिसंज्ञासंस्तुतः कथं भवति ? इति उच्यते-- कयमकए गिहिकजे, संतप्पइ पुच्छई तहिं वसइ । संथव-सिणेहदोसा, भासा हिय नट्ट सोगो अ॥ ७०२ ।। १त् । तदकरणे च सम्यग्दर्शनस्योज्वालना कृता न भवति । शङ्का च देशतः सर्वतो वा तस्य स्यादिति, एवं भा० ॥ २ डे० त० विनाऽन्यत्र-°याः सङ्गं भाषणा मो० ले० कां० । °याः संदर्शन-सम्भाषणादिना भुक्ता-ऽभुक्तसमुत्था भा० ॥ ३ - एतचिहान्तर्गतः पाठः डे० मो० ले० प्रतिषु नास्ति ॥ ४ पूर्वार्धमिदं हैमानेकार्थसङ्ग्रहे त्रिखरकाण्डे १३६७ श्लोकस्योत्तरार्धरूपेण विद्यते ॥ ५ त० विनाऽन्यत्र-वल्गया उन्मार्गप्रस्थितस्तुरङ्गमो मार्गेऽवतार्यते तथेह गुरूणामप्याज्ञावल्पया साधुः प्रमादत उत्पथप्रतिपन्नोऽपि पुनरपि सन्मार्गेऽवतार्यत इति कृत्वा प्रग्रहोऽत्र गुर्वाज्ञाऽभिधीयते । निर्गतः प्रग्रहादिति निष्पग्रहः, तस्य भावो निष्प्र. ग्रहता, गुर्वाशामन्तरेण खेच्छयैव यद् रोचते हस्त-पाद-मुखधावनादिकं तद् निम्शक करोतीत्यर्थः। एवं चरणपरित्याग इति भा•॥ ६°यन-निमित्तशास्त्रादिपाप भा०॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रै [अनुयोगाधिकारः गृहिकार्ये क्रय-विक्रयादावनभिमते कृतेऽभिमते वा अकृते स एकाकी विवक्षिते गृहस्थे ममत्वातिरेकतः 'संतप्यते' सन्तापमनुभवति, यथा--आः! शोभनं न समजनि यदेतेनागारिणाऽमुकं वस्तु व्यवहृतं अमुकं न व्यवहृतमित्यादि । तथा "पुच्छइ" त्ति सुख-दुःखलाभा-ऽलाभादिकां वार्ता तस्य पार्थे पृच्छति । "तहिं वसई" ति 'तत्र' तेषां गृहस्थानां मध्य 5 एवासौ वसति । तत्र च वैसतो निरन्तरं यस्तैः सह संस्तवस्तेनात्यन्तिकः स्नेहस्तेषु समुल्लसति, तद्वशात् तदीयापत्यानां यत् क्रीडापनं यच्चाक्षर-गणितादिशिक्षापणं यच्च तदुपरोधतः कुण्टलविण्टलादिकरणं तदेवमादयो दोषा द्रष्टव्याः। तथा भाषां सावद्यामसावगीतार्थतया ब्रूयात् , यथा--हे श्रावक ! गम्यताम् आगम्यताम् उपविश्यतामित्यादि । गृहिसके च वस्तुजाते केनचित् चौरादिना हृते स्वयं वा नष्टे तस्य स्नेहातिरेकतः 'शोकः' परिदेवनादिरूपः स्यादिति । 10 यत एवंविधदोषोपनिपातस्तत एकाकिविहारविरहेण गच्छवासमध्यासीनेन साधुना यावज्जीवं विहरणीयम् ॥ ७०२ ॥ तस्य च गच्छस्याधिपतिराचार्यों भवति ततः शिष्यः प्रश्नयतिकीदृशस्य गच्छो दीयते ? अयोग्यस्य वा गच्छं प्रयच्छन् अयोग्यो वा गच्छं धारयन् कीदृशं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ? उच्यतेअयोग्य अबहुस्सुए अगीयत्थे निसिरए वा वि धारए व गणं । स्य गच्छं दातुः धार. तद्देवसियं तस्सा, मासा चत्तारि भाँरिया ॥ ७०३ ॥ अबहुश्रुतो नाम येनाऽऽचारप्रकल्पाध्ययनं नाधीतं अधीतं वा परं विस्मारितम् , अगीतार्थः प्रायश्चि येन च्छेदश्रुतार्थो न गृहीतो गृहीतो वा परं विस्मारितः, तस्मिन् अबहुश्रुतेऽगीतार्थे यः 'गणं' गच्छं 'निसृजति' निक्षिपति तस्य चत्वारो भारिका मासाः । यो वा अबहुश्रुतो अगीतार्थो वा गणं निसृष्टं धारयति तस्यापि चत्वारो मासा गुरुकीः । एतच्च 'तदैवसिकं' तद्दिवसनि20 पन्नं प्रायश्चित्तम् , द्वितीयादिषु तु दिवसेषु यत् प्रायश्चित्तमापद्यते तदुपरिष्टाद् वक्ष्यते ॥ ७०३ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां भावयति अबहुस्सुअस्स देइ ब, जो वा अबहुस्सुओ गणं धरए । भंगतिगम्मि वि गुरुगा, चरिमे भंगे अणुनाओ ॥ ७०४ ॥ १ इह चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा--अबहुश्रुतो नामैकोऽगीतार्थश्च १ अबहुश्रुतो गीतार्थः २ १ गृहिणां कार्य 'गृहिकार्य' ऋयाणकक्रय-विक्रयादिकं तस्मिन्ननभि भा० ॥ २ वसतः संस्तवः-परिचयस्तेन सार्धमालापादिना समुल्लसति, ततः क्रमशस्तस्योपरि नेहःनिरन्तरःप्रेमावन्ध उपजायते, ततोऽपि स्नेहविह्वलस्य तत्प्रार्थनाभङ्गभीरुतया यदाधाक र्मादिभिर्दोषैरुपहतस्य पिण्डादेर्ग्रहणं यच्च तदुपरोधतःभा० ॥ ३ डे० त० विनाऽन्यत्र-भाषां सावधामगीतार्थ मो० ले० कां० । भाषा सावद्या तां वा असावगीतार्थ भा० ॥ ४ °दि । गृहस्थस्य क्वचिद वस्तुजाते भा० ॥ ५ च्छ वत्तीपयन् भा० ॥ ६ तस्स उ मा ता० ॥ ७ भारियया ता० ॥ ८°काः। कियतो दिवसान् ? इत्याह-तदैवसिकं' तदिवसनिष्पन्नं तावदिदं प्रायश्चित्तम्, तत ऊर्द्ध द्विती भा० ॥ ९ अथैतदेव भावयति बे० त० विना ॥ १० एतचिहान्तर्गतः पाठः त. कां. विना नास्ति ।। यितुश्च तम् Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७०३-६] पीठिका। २१३ बहुश्रुतोऽगीतार्थः ३ बहुश्रुतो गीतार्थश्चेति ४ । तत्र » अबहुश्रुतस्यागीतार्थस्य गणं ददाति चत्वारो गुरवः । अबहुश्रुतस्य गीतार्थस्य ददाति चतुर्गुरवः; अस्य च प्रमादादिना सूत्रं विस्मृतम् अर्थ पुनः स्मरतीत्यबहुश्रुतस्य गीतार्थत्वम् , यद्वा आज्ञा-धारणादिमात्रव्यवहारेणाबहुश्रुतस्यापि गीतार्थत्वमिति । बहुश्रुतस्यागीतार्थस्य ददाति चत्वारो गुरवः, अनेन चाऽऽचारप्रकल्याध्ययनं सूत्रतोऽधीतं न पुनरर्थतः श्रुत्वा सम्यगधिगतमिति बहुश्रुतस्यागीतार्थत्वम् । बहु-b श्रुतस्य गीतार्थस्य ददातीत्यत्र चतुर्थे भने शुद्धः । यो वा अबहुश्रुतो गणं धारयतीत्यत्रापि चतुर्भङ्गी । तत्राबहुश्रुतोऽगीतार्थश्च सन् निसृष्टं गणं धारयति १ अबहुश्रुतो गीतार्थो धारयति २ बहुश्रुतोऽगीतार्थो धारयति ३ त्रिष्वपि चतुर्गुरुकाः । बहुश्रुतो गीतार्थो धारयतीत्यत्र शुद्धः। अत एवाह-'भङ्गत्रिकेऽपि' त्रिष्वप्याद्यभङ्गेषु गणदायक-धारकयोरुभयोरपि 'गुरुकाः' चतुर्गुरवः । 'चरमे' चतुर्थे भने शुद्धत्वाद् दायको धारको वा अनुज्ञातः, न तत्र कश्चिद्दोषः 10 ॥ ७०४ ॥ अत्र परः प्राह--यदेतत् प्रायश्चित्वं भणितं किमेतावता पर्यवसितम् ? किं वा न? इति उच्यते-नेति । तथा चाह नियुक्तिकार: सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई ।। छेएणऽच्छिन्नपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं ॥ ७०५ ॥ सप्तरात्रमिति जातावेकचनम्, ततोऽयमर्थः त्रीणि सप्तरात्राणि यावत् चतुर्गुादिकं तपो 15 भवति । त्रिष्वपि सप्तरात्रेषु गतेषु यद्यनुपरतौ 'ततः' सप्तरात्रत्रयानन्तरं 'छेदस्तयोराचार्ययोरभिमुखं प्रकर्षेण धावति प्रधावति । छेदेनापि यस्य प्रभूतत्वात् पर्यायो न च्छिद्यते तस्मिन्नाचार्ये छेदेनाच्छिन्नपर्याये एकेनैव दिवसेन मूलम् । ततो 'द्विकम्' अनवस्थाप्य-पाराञ्चिकयुगम् ॥ ७०५ ॥ अथैनं श्लोकं विवरीषुराह एकेकं सत्त दिणे, दाऊण अइच्छियम्मि उ तवम्मि । पंचाइ होइ छेदो, केसिंचि जैहा कडो तत्तो ॥७०६॥ 'एकैकं' तपैश्चतुर्गुरुकादि सप्त सप्त दिनानि दत्त्वा ततस्तपःप्रायश्चित्तेऽतिक्रान्ते पञ्चकादिकश्छेदो भवति । केषाश्चिदाचार्याणामयमादेशः–'यथा' यत एवं स्थानात् तपः 'कृतं' प्रारब्धं तत आरभ्य च्छेदोऽपि दीयते, चतुर्गुरुकादित्यर्थः । इयमत्र भावना-तयोराचार्ययोः प्रथमतः सप्तरात्रं यावद् दिवसे दिवसे चतुर्गुरुकम् ; यद्येतावति गते केनाप्यपरेण गीतार्थेन 25 'आचार्याः! न कल्पते अबहुश्रुतस्यागीतार्थस्य वा गणं दातुं धारयितुं वा, ततः प्रतिपद्यध्वं सम्प्रत्यपि प्रायश्चित्तम्' इति प्रज्ञापितो स्वयं वा यापरतो ततः प्रायश्चित्तमप्युपरतम् ; अथ १°वाह-"भंगतिगम्मि" इत्यादि । गणदायक-धारकयोरुभयोरप्यायेषु त्रिपु भङ्गेषु 'गुरुकाः' भा० ॥ २ 'छेदः' सप्तमप्रायश्चित्तं तयोरभिमुखं प्रकर्येण धावति-प्रसर्पति प्राप्नोतीत्यर्थः । छेदेनाऽपि यस्य भूयिष्ठत्वात् पर्यायो न च्छिद्यते तस्मिन् अकारप्रश्लेषादच्छिन्नपर्याये भा०॥३जहिं कता०॥ ४०पः प्रायश्चित्तं सप्त भा०॥ ५व प्रायश्चि स्थाना भा० ॥६°योरुभयोरप्याचा भा० ॥ ७ आर्याः! मा० मो० ले०॥ ८ ततो नाद्यापि किमपि विनष्टम्, प्रतिपद्यन्तां भवन्तः प्रायश्चित्तम्' इति प्रज्ञापितौ सन्तौ खयं भा०॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः नोपरमेते ततो द्वितीयं सप्तरात्रं दिने दिने षड्लघवः ; यदि द्वितीये सप्तरात्रेऽपि गते न प्रतिनिवृत्तौ तदा तृतीयं सप्तरात्रं प्रत्यहं षड्गुरवः । यद्येतावता स्थितौ ततः सुन्दरमेव, नो चेत् ततश्छेदः प्रधावैति । तत्रैके आचार्याः पञ्चरात्रिन्दिवादारभ्य च्छेदं प्रस्थापयन्ति, अपरे पुनश्च - तुर्गुरुकादिति । पञ्चरात्रिन्दिवप्रस्थापनायां भूयोऽप्यादेश युगम्, तद्यथा – केचिदाचार्या लघुभ्यः केचित्तु गुरुभ्यः पञ्चरात्रिन्दिवेभ्यः छेदं प्रारभन्ते । तत्र लघुपञ्चरात्रिन्दिवप्रस्थापना प्रथमतो भाव्यते - सप्तरात्रत्रयानन्तरं तुरीयं सप्तरात्रं लघुपञ्चकच्छेदः, पञ्चमं गुरुपञ्चकः, षष्ठं लघुदशरात्रिन्दिवः, सप्तमं गुरुदशरात्रिन्दिवः, अष्टमं लघुपञ्चदशकः, नवमं गुरुपञ्चदशकः, दशमं लघुविंशतिरात्रिन्दिवः, एकादशं गुरुविंशतिरात्रिन्दिवः, द्वादशं लघुपञ्चविंशतिकः, त्रयोदशं गुरुपञ्चविंशतिकः, चतुर्दशं लघुमासिकः, पञ्चदशं गुरुमासिकः, षोडशं 10 चतुर्लघुमासिकः, सप्तदशं चतुर्गुरुमासिकः, अष्टादशं लघुषाण्मासिकः, एकोनविंशं सप्तरात्रं गुरुषाण्मासिकेच्छेद इति सर्वसङ्ख्यया त्रयस्त्रिंशं शतमहोरात्राणां भवति । गुरुपञ्चक प्रस्थापनायां तु सप्तरात्रत्रयानन्तरं सप्ताहोरात्राणि प्रथमत एव गुरुपञ्चकरछेदः, ततः सप्ताहं लघुद - शकः, एवं पूर्वोक्तविधिना गुरुदशकादयोऽपि षड्गुरुकान्ताश्छेदाः सप्ताहं सप्ताहं प्रत्येकं द्रष्टव्या इति; अत्र चाष्टादशभिः सप्तरात्रैः षडूिंशं शतं रात्रिन्दिवानां भवति । यदा तु यतः 15 प्रभृति तपः प्रायश्चित्तमुपक्रान्तं तत आरभ्य च्छेदविवक्षा क्रियते तदा चतुर्थे सप्तरात्रे प्रथमत एव चतुर्गुरुकच्छेदः, पञ्चमे षड्लघुकः, षष्ठे षड्गुरुकः, एवं षङ्गिः सप्तरात्रैर्द्वाचत्वारिंशद् दिनानि भवन्ति । इत्थं त्रयाणामा देशानामन्यतमेनादेशेन च्छिद्यमानोऽपि भूयस्त्वाद् यदा पर्यायो न च्छिद्यते ततो यद्यपि देशोनपूर्व कोटीप्रमाणः पर्यायोऽवशिष्यते तथापि स सर्वोऽपि युगपदेकदिनेनैव च्छिद्यते इति सर्वच्छेदलक्षणं ततो मूलम्, ततो द्वितीये दिवसे - 20 नवस्थाप्यम्, तृतीये पाराञ्चितम् ॥ ७०६ ॥ अथ सामान्यतस्तपः स्थानानि च्छेदस्थानानि च परस्परं किं तुल्यानि ? किं वा हीना ऽधिकनि ? उच्यते—तुल्यानि । यत आह तुल्ला चेव उ ठाणा, तव - छेयाणं हवंति दोहं पि । पणगाइ पणगवुड्डी, दोह वि छम्मास निट्टवणा ॥ ७०७ ॥ तपश्छेदयोर्द्वयोरपि स्थानानि तुल्यान्येव भवन्ति, न हीनानि नाप्यधिकानीति एवश25 ब्दार्थः । कुतः ? इत्याह-- " पणगा" इत्यादि । यतः 'द्वयोरपि' तपश्छेदयोः पञ्चकं पञ्च रात्रिन्दिवान्यादौ कृत्वा पञ्चकवृद्ध्या वर्द्धमानानां स्थानानां षण्मासेषु 'निष्ठापना' समापनाँ १ 'वति । अत्र च्छेदविषयौ द्वावादेशौ -- एके आचार्या ब्रुवते - पञ्चरात्रिन्दिवादारभ्य च्छेदो दीयते, अपरे तु 'यतः प्रभृति तपः प्रायश्चित्तं प्रक्रान्तं तत आरभ्य च्छेदोऽपि दीयते' इति प्ररूपयन्ति । यथा च च्छेदस्य पञ्चरात्रिन्दिवप्रस्थापना- चतुर्गुरुप्रस्थापनाभ्यां द्वावादेशौ तथा लघु-गुरुप्रस्थापनाभ्यामप्यादेशयुगम् । तद्यथा भा० ॥ २° कश्छेद भा० ॥ ३ तु तपःप्रायश्चित्तानन्तरं भा० ॥ ४ कच्छेदः डे० त० ॥ ५°न प्रकारेण च्छिद्य भा० ॥ ६ 'कानि ? इति उ° भा० ॥ ७ डे० त० विनाऽन्यत्र - ना भवति, लघु' मो० ले० । 'ना कर्त्तव्या । इय मा० ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७०७-१०] पीठिका । २१५ भवति । इयमत्र भावना-लघुपञ्चकादीनि गुरुषाण्मासिकपर्यन्तानि यान्येव तपःस्थानानि तान्येव च्छेदस्यापीति तुल्यान्येवानयोः स्थानानि । एतेन च लघुपञ्चकादर्वाग् गुरुभ्यः षण्मासेभ्य ऊर्ध्व छेदो न भवतीत्यावेदितं द्रष्टव्यम् ॥ ७०७ ॥ अथ कीदृशस्य गणधरपदाध्यारोपणा विधीयते ? उच्यतेपढिय सुय गुणिय धारिय, करणे उवउत्तो छहिँ वि ठाणेहिँ । पदयोग्यः छट्ठाणसंपउत्तो, गणपरियट्टी अणुन्नाओ ॥ ७०८॥ "निशीथाध्ययने 'पठिते' सूत्रतः सम्पूर्णेऽप्यपीते, ततः 'श्रुते' अर्थतः सद्गुरुमुखादाकर्णिते, 'गुणिते' परावत्तना-ऽनुप्रेक्षाभ्यामत्यन्तखभ्यस्तीकृते, 'धारिते' चेतसि सम्यग्व्यवस्थापिते, ततः 'करणे' तदुक्ताया विधि-प्रतिषेधरूपाया आज्ञाया विधाने, 'उपयुक्तः' प्रमादरहितः, केषु ! इत्याह-'षट्सु स्थानेषु पञ्चसु महाव्रतेषु रात्रिभोजनविरमणषष्ठेष्वित्यर्थः, गाथायां प्राकृत-10 त्वात् तृतीयाथें सप्तमी । (ग्रन्थानम्-१०००) । एतैः षभिः स्थानैः पठित-श्रुत-गुणितधारित-यथोक्तकरण-व्रतषट्कोपयोगलक्षणैः सम् इति-समुदितैः प्रकर्षेण युक्तः सम्प्रयुक्तः 'गणपरिवर्ती' गच्छवर्तापकोऽनुज्ञातस्तीर्थकर-गणधरैः ॥ ७०८ ॥ अथवा सत्तऽ नवग दसगं, परिहरई जो विहारकप्पी सो। तिविहं तीहिँ विसुद्धं, परिहर नवएण मेएण ॥ ७०९॥ 16 य आचार्यादिः सप्तविधमष्टविधं नवविधं दशविधं प्रायश्चित्तं परिहरति, कथम्भूतं तत् ! इत्याह-'त्रिविधं' दान-तपः-कालप्रायश्चित्तभेदादेकैकमपि त्रिभेदं परिहारविषयेण नवकेन भेदेन परिहरति । तद्यथा-मनसा वचसा कायेन स्वयं परिहरति अन्यैः खपरिवारसाधुभिः परिहारयति अन्यान् परिहरतोऽनुमन्यते । याभिः प्रतिसेवनाभिः प्रतिसेविताभिः सप्तविधा. दिकं प्रायश्चित्तं भवति ताः करणत्रय-योगत्रयविशुद्धं परिहरतीति भावः ॥ ७०९ ॥ १० अथ कथं सप्तविधं प्रायश्चित्तं भवति ? इति उच्यते-आलोचनाहं प्रतिक्रमणाहं तदु. भयाई विवेकाहं व्युत्सर्गाहें तपोऽहं छेदाहमिति । अथ मूला-ऽनवस्थाप्य-पाराश्चिकानि कान्तर्भवन्ति ? उच्यते दुविहो अ होइ छेदो, देसच्छेदो अ सबछेदो अ। मूला-ऽणवट्ठ-चरिमा, सव्वच्छेओ अतो सत्त ॥ ७१० ॥ 25 इह च्छेदो द्विविधो भवति–देशच्छेदश्च सर्वच्छेदश्च । पञ्चकादिकः षण्मासपर्यन्तो देशच्छेदः । मूला-ऽनवस्थाप्य-पाराश्चिकानि पुनर्देशोनपूर्वकोटिप्रमाणस्यापि पर्यायस्य युगपत् छेदकत्वात् सर्वच्छेदः । एष द्विविधोऽपि सामान्यतश्छेदशब्देन गृह्यत इति विवक्षया सप्तविघं प्रायश्चित्तम् ॥ ७१० ॥ अथाष्टविध कथं भवति । इति उच्यते १'स्यापीति भावः ॥ ७०७ ॥ अथ भा० त• विना ॥ २ अत्र टीकादमिप्रायेण "छमुनि ठाणेसु" इति पाठो ज्ञेयः ॥ ३ आचारप्रकल्पाध्ययने 'पठि भा० ॥ ४°रणे' सूत्रतोऽर्थतो वाऽऽचारप्रकल्पाध्ययनोक्ताया विधि भा० ॥ ५ षु' प्राणातिपातविरमणादिषु पञ्चसु भा० ॥ ६°दनाह डे. त.॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे अनुयोगाधिकारः छिजते वि न पावेज कोइ मूलं अओ भवे अट्ठ। चिरघाई वा छेओ, मूलं. पुण सजधाई उ ॥ ७११॥ छिद्यमानेऽपि पर्याये कश्चित् चिरप्रव्रजितत्वेन मूलं यदा न प्राप्नुयात् तदा तस्य षण्मासच्छेदादूर्वं यद् मूलं दीयते तत् प्राग्दत्तच्छेदविलक्षणत्वादष्टमं भवतीत्यष्टौ प्रायश्चित्त भेदा भवेयुः। 5 यद्वा छेद-मूलयोस्तात्पर्यार्थोऽयमभिधीयते-चिरघाती छेदः, चिरेण पर्यायस्य च्छेदकत्वात् । सद्योघाति मूलम् , झगित्येव निःशेषपर्यायत्रोटकत्वादित्यष्टविधं प्रायश्चित्तम् ॥ ७११ ॥ अथ नवविध-दशविधे प्रतिपादयति बूढे पायच्छित्ते, ठविजई जेण तेण नव होति । जं वसइ खित्तवाहि, चरिमं तम्हा दस हवंति ॥ ७१२ ॥ 10 येन कारणेन द्वादशवार्षिकादिके परिहारतपःप्रायश्चित्ते व्यूढे सत्यनवस्थाप्यो व्रतेषु स्थाप्यते नान्यथा, तेन मूलादनवस्थाप्यं विलक्षणमिति कृत्वाऽनवस्थाप्यप्रक्षेपाद् नव भेदा भवन्ति । यत् पुनस्तदेव परिहारतपःप्रायश्चित्तं वहमानः सन्नेकाकी सक्रोशयोजनप्रमाणक्षेत्राद बहिर्वसति तदेतावतांशेनानवस्थाप्यात् 'चरमं' पाराञ्चितं विभिन्नमिति तस्माद् दश प्रायश्चि तभेदा भवन्तीति ॥ ७१२ ॥ उक्तो विहारकल्पिकः । तदुक्तौ च व्याख्याता "सुत्ते अत्थे 16 तदुभय" इत्यादिका प्रतिद्वारगाथा (गा० ४०५)। अथ कल्पिकद्वारमुपसंहरन्नाह एयं दुवालसविहं, जिणोवइटुं जहोवएसेणं ।। जो जाणिऊण कप्पं, सद्दहणाऽऽयरणयं कुणइ ।। ७१३ ॥ सो भविय सुलभवोही, परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो। अचिरेण उ कालेणं, गच्छइ सिद्धिं धुयकिलेसो ॥ ७१४ ॥ 20 'एनम्' अनन्तरोदितं 'द्वादशविधं' सूत्रा-ऽर्थादिभिारैदशप्रकारं 'कल्पं' साधुसमाचार 'जिनोपदिष्टं सर्वहरुक्तमिति, अनेन खमनीषिकाव्युदासमाह, 'यथोपदेशेन' उपदेशाऽवैपरीत्येन 'ज्ञात्वा' अवबुध्य यः श्रद्धानमाचरणं च करोति । 'श्रद्धानं' नाम य एष कल्पः प्ररूपितः स निशङ्कमेवमेव नान्यथा, जिनोपदिष्टत्वात् ; न खलु जिनोपदेशः कदाचिदपि विसंवादपदवीमासादयति । यत उक्तम्25 रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते छनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् । ॥ ___ तथा 'आचरणं' नाम यथावसरं द्वादशविधस्यापि कल्पस्यानुपालनम् । एते श्रद्धाना-ऽऽचरणे यः करोति स सिद्धिं गच्छतीति सण्टङ्कः ॥ ७१३ ॥ कथम्भूतः ? इत्याह-भव्यः' सिद्धिगमनयोग्यः, न खल्वभव्यस्यैवंविधकल्पविषयाणि १°चारं जिनैः-सर्वरुपदिष्टमिति, अनेन भा० ॥ २ °पदेशम्' उप° भा० ॥ ३ °ध्य 'श्रद्धानं' 'य एष कल्पः प्ररूपितः स निशङ्कमेवमेव नान्यथा, जिनोपदिष्टत्वात्' इति लक्षणम्, 'आचरणं च यथावसरं द्वादशविधस्यापि कल्पस्यानुपालनम्, यः करोति स सिद्धिं गच्छतीति सण्टङ्कः ॥ ७१३ ॥ भा० त० विना ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 दोषाश्च भाष्यगाथाः ७११-१७] पीठिका । २१७ सम्यग्ज्ञान-श्रद्धाना-ऽऽचरणानि समुपजायन्ते । भन्योऽपि कदाचिद् दुर्लभबोधिकः स्यादित्याह--सुलभा-सुप्रापा बोधिः-अर्हद्धर्मप्राप्तिर्यस्यासौ सुलभबोधिकः । असावपि दीर्घसंसारी स्यादित्याह-परीत्तः-परिमितः संसारो यस्यासौ परीत्तसंसारिकः । अयमपि गुरुकर्मा भवेदित्याह-प्रकर्षेण तनु-प्रकृति-स्थिति-प्रदेशा-ऽनुभावरल्पीयः कर्म यस्यासौ 'प्रतनुकर्मा' लघुकमेंत्यर्थः । एवंविधोऽसौ 'अचिरेणैव कालेन' जघन्यतस्तेनैव भवग्रहणेनोत्कर्षतः सप्ताष्टभवग्रहणैः 'सिद्धि' मोक्षं गच्छति धुतक्लेशः सन् । क्लिश्यन्ते बाध्यन्ते शारीर-मानसैर्दुःखैः संसारिणः सत्त्वा एभिरिति क्लेशाः-कर्माणि, धुताः-अपनीताः क्लेशा येनासौ 'धुतक्लेशः' क्षीणाष्टकर्मेति भावः ॥ ७१४ ॥ तदेवं व्याख्यातं कल्पिकद्वारम् । अथाऽऽनुषङ्गिकमुत्सारकल्पिकद्वारममिघित्सुः प्रस्तावनामाहउत्सारकल्पिकद्वारम् चोयग पुच्छा उस्सारकप्पिओ नत्थि तस्स किह नाम । उत्सार कल्पकतुः उस्सारे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ।। ७१५॥ कारयितुश्च कल्पिकद्वारे व्याख्याते सति लब्धावकाशो नोदकः पृच्छां करोति-भगवन्! अमीषां प्रायश्चित्तं कल्पिकानां मध्ये किमित्युत्सारकल्पिको नोपन्यस्तः । सूरिराह-नास्त्युत्सारकल्पिक इति । भूयोऽपि परः प्राह—यद्युत्सारकल्पिको नास्ति ततः कथं तस्य नाम श्रूयते । गुरुराह-1 यद्यप्युत्सारकल्पो नाम्ना व्यवह्रियते तथापि न कल्पते उत्सारयितुम् , यद्युत्सारयति तदा चत्वारो गुरुकाः । तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः ॥ ७१५ ॥ तानेवाह आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा संजमे य जोगे य । अप्पा परो पवयणं, जीवनिकाया परिच्चत्ता ॥ ७१६ ॥ आज्ञा भगवतां तीर्थकृतामुत्सारकल्पकृता न कृता भवति । तमाचार्यमुत्सारयन्तं दृष्ट्वा 20 अन्येऽप्याचार्या उत्सारयिष्यन्ति, तदीया अन्यदीया वा शिष्या विवक्षितशिष्यस्पर्धानुबन्धादुत्सारापयिष्यन्ति चेत्यनवस्था । मिथ्यात्वं वा प्रतिपन्नाभिनवधर्माणः सत्त्वा व्रजेयुः । विराधना 'संयमे च' संयमविषया 'योगे च' योगविषया भवति । तथा तेनोत्सारकेण 'आत्मा' खजीवः परः' उत्सारकल्पविषयः शिष्यः 'प्रवचन' तीर्थ 'जीवनिकायाः' पृथिव्यादय एतानि परित्यक्तानि भवन्तीति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ७१६ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीपु-25 राज्ञा-ऽनवस्थे क्षुण्णत्वादनादृत्य मिथ्यात्वं दर्शयितुं दृष्टान्तमाह पुट्विं मलिया उस्सारवायए आगए पडिमलिंनि । पडिलेह पुग्गलिंदिय, बहुजण ओभावणा तित्थे ॥ ७१७॥ वाचको तत्र तावत् प्रथमं कथानकमुच्यते--इह पुरा केचिदाचार्याः पूर्वान्तर्गतसूत्रा-ऽर्थधारकतया दाहरणम् १°हणैरिति भावः, 'सिद्धि' भा० ॥२ °न्यस्तः? विस्मृतिपथमवतारितः१ आहोश्चिदपरं किमपि कारणान्तरम् ? । अत्राऽऽचार्यः प्रत्युत्तरयति-वत्स! नास्माभिर्विस्मृतिपथमवतारितः किन्तु नास्त्यसावुत्सारकल्पिक इति हेतोरत्र नोपात्तः। पुनरपि शिष्यः प्रश्नयति-यद्युत्सारकल्पिको नास्ति ततः भा० ॥ ३°चनं प्रतीतं 'जीव भा० ॥ वृ. २८ उत्सार Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः लब्धवाचकनामधेयाः सर्वज्ञशासनसरसीरुहविकाशनैकसहस्ररश्मयः प्रावृषेण्यपयोमुच इव सरसदेशनाधाराधोरणीनिपातेन महीमण्डलमेकार्णवधर्मकमादधाना गन्धहस्तिन इव कलभयूथेन सातिशयगुणवता निजशिष्यवर्गेण परिकरिता एकं कञ्चिद् ग्राममुपागमन् । तत्र चाधिगतजीवा-जीवादिविशेषणविशिष्टा बहवः श्रमणोपासकाः परिवसन्ति । ते च गुरूणामागमनमा5 कर्ण्य प्रमोदमेदुरमानसाः खखपरिवारपरिवृताः सर्वेऽप्यागम्य तदीयं पादारविन्दमभिवन्ध योजितकरकुड्मला यथावत् तत्पुरत आसाञ्चक्रिरे । ततः सूरिभिरपि रचिता यथोचिता धर्मदेशना । तदाकर्णनेन सञ्जातः संवेगसुधासिन्धुधौतान्तरमलः सकलोऽपि श्रावकलोको गतः परमपरितोषपरवशः सूरीणां गुणग्रामोपवर्णनं कुर्वन् खं खं स्थानम् । तैश्च वाचकनभोमणिभिस्तत्रायातैः प्रतिहतः खद्योतपोतकल्पानामन्ययूथिकानां प्रभाप्रसरः । ततः न शक्नुवन्ति 10 तेऽन्ययूथिका आचार्याणां व्याख्यानादिभिर्गुणैर्जायमानं निरुपमानं महिमानं द्रष्टुम् इति सम्भूय सर्वेऽपि 'अमुमाचार्य वादे पराजित्य तृणादपि लघु करिष्यामः' इत्येकवाक्यतया चेतसि व्यवस्थाप्य समाजग्मुः सूरीणामन्तिकम् । सूरिभिरपि निष्प्रतिमप्रतिभाप्राग्भारप्रभववादलब्धिसम्पन्नैनिपुणहेतु-दृष्टान्तोपन्यासपुरस्सरं मध्येविद्वजनसभं कृतास्ते निष्पृष्टप्रश्न-व्याकरणाः। ततः समुच्छलितः पारमेश्वरप्रवचनगोचरः कीर्तिकोलाहलः, प्रादुर्भूतः परतीथिकानामपि परमः 16 पराभवः, निमनः प्रमोदपीयूषपयोनिधावस्तोकः श्रमणोपासकलोकः, सम्पादिता सपदि विशेष तस्तेन महती तीर्थस्य प्रभावना । ततस्ते वाचकाः कियन्तमपि कालमलङ्कृत्य तं ग्रामं प्रबोध्य मिथ्यात्वनिद्राविद्राणचैतन्यं भव्यजन्तुजातमन्यत्र कुत्रापि व्यहार्षुः । तेषु च दिनकरवदन्यत्र प्रतापलक्ष्मीमुद्वहमानेषु परतीर्थिका उलूका इवाऽऽप्तप्रसरतया घोरघूत्कारकल्पं प्रवचनावर्णवाद कर्तुमारब्धाः । वदन्ति च श्रावकान् प्रति-भोः श्वेताम्बरोपासकाः ! यद्यस्ति भवतां कोऽपि 20 कण्डूलमुखो वादी स प्रयच्छतु साम्प्रतमस्माकं वादमिति । श्रावकैरुक्तम्---अये ! विस्मृतमधुनैव भवतां भवान्तरानुभूतमिव तत् तादृशमद्यश्वीनमपि लाघवम् यदेवमनात्मज्ञा असमअसं प्रलपत ? भवत्वेवम्, तथाप्यायान्तु तावत् केचिद् वाचका वा गणिनो वा, पश्चाद् यद् भणिष्यन्ति भवन्तस्तत् करिष्याम इति । अथैकदा कदाचिद् निजपाण्डित्याभिमानेन त्रिभुवनमपि तृणवद् मन्यमानस्तुण्डताण्डवा25 डम्बरेण वाचस्पतिमपि मूकमाकलयन् समागतः कतिपयशिष्यकलित उत्सारकल्पिकवाचकः । ततः प्रमुदिताः श्रावकाः गता अन्ययूथिकानामभ्यणे । निवेदितं तत्पुरतः-युष्माभिस्तदानीमस्माकं समीपे वादः प्रार्थित आसीत् , अस्माभिश्च भणितमभूत्-यदा वाचका अत्राऽऽगमिप्यन्ति तदा सर्वमपि युष्मदभिप्रेतं विधास्याम इति, तदिदानीमागताः सन्ति वाचकाः, कुरुत तैः सह वादगोष्ठीम् , पूरयत खप्रतिज्ञाम्-इत्यभिधाय गताः श्रावकाः स्वस्थानम् । तैश्चान्य30 यूथिकैः प्राचीनपरीभवप्रभवभयभ्रान्तैरेकः प्रच्छन्नवेषधारी प्रत्युपेक्षकः "किं सहृदयः शास्त्रपरिकर्मितमतिर्वाग्मी वाचकः? किं वा न ?' इति ज्ञापनाय प्रेषितः । स चाऽऽगम्योत्सारकल्पिक. १°N कन्दलितामन्दानन्दातिरेकाः स्वस्वपरि भा० ॥ २ तृणाय मन्य भा० ॥ ३ रा. भवभय त. मो० ले.॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७१८] पीठिका | २१९ वाचकं प्रश्नयति—–परमाणुपुद्गलस्य कतीन्द्रियाणि भवन्ति ? इति । ततः स एवंष्पृष्टः सन् किञ्चिन्मात्रपल्लवत्वरितग्राहितया यथोक्ताव्यभिचारिविचार बहिर्मुखत्वाच्चिन्तयति - - यः परमाणुपुद्गल एकस्माल्लोकचरमान्तादपरं लोकचरमान्तमेकेनैव समयेन गच्छति स निश्चितं पञ्चेन्द्रियः, कुतोऽनीदृशस्यैवंविधा गमनवीर्यलब्धि: ? - इत्यभिसन्धाय प्रतिवचनमभिधत्ते — भद्र ! परमाणुपुद्गलस्य पञ्चापीन्द्रियाणि भवन्तीति । तत एवंविधं निर्वचनमवधार्य स पुरुषः प्रत्यावृत्त्य 5 गतोऽन्ययूथिकानां सन्निधौ, कथितं सर्वमपि खरूपं तदग्रतः । ततश्चिन्तितं खचेतसि तैःनूनमयं शारदवारिद इव बहिरेव केवलं गर्जति, अन्तस्तु तुच्छ एव इति विमृश्य समागताः सम्भूय भूयांसं लोकमीलं कृत्वा वाचकान्तिकम् | क्षुभितोऽसौ खतुच्छतया तावन्तं समुदायमवलोक्य, सञ्जातखेदबिन्दुस्तबकितशरीर आक्षिप्तः साटोपमन्यतीर्थिकैः, ग्राहितो यथा - भिमतं पक्षविशेषम्, न शक्नोति निर्वोढुं प्रश्नितो दुस्तराणि प्रश्नोत्तराणि, न जानीते लेशतोऽपि 10 प्रतिवक्तुम् । ततः कृतो मिथ्यादृष्टिभिः 'जितं जितमस्माभिः' इत्युत्कृष्टिकलकलः, प्रादुर्भूतं प्रवचनमालिन्यम्, मुकुलितानि श्रमणोपासकवदनकमलानि, विप्रतिपन्ना यथाभद्रकादय इति ॥ I अथ गाथाक्षरार्थः पूर्वं कैश्चिद् वाचकैरन्ययूथिकाः “मलिय" त्ति मानमर्दनेन मर्दिताः । तत उत्सारवाचके आगते सति 'प्रतिमर्दयन्ति' प्रत्यावृत्त्या मानमर्दनं कुर्वन्ति । कथम् ? इत्याह--"पडिलेह” इत्यादि । तैरन्यतीर्थिकैः प्रत्युपेक्षकः पुरुषः प्रेषितः । ततः स आगत्य 15 पृष्टवान् – 'पुद्गलस्य' परमाणोः कतीन्द्रियाणि ? । तेन च प्रत्युक्तम् — पश्चेति । ततस्तैर्बहुजनमध्ये स वाचको वादे निरुत्तरीकृतः । एवम् 'अपभ्राजना' लाघवं तीर्थस्य भवति । तत्र चाभिनवधर्मणां चेतसि विकल्प उपजायते--- यदि नाम वाचकोऽप्ययं न शक्नोति निर्वचनमर्पयितुं तद् नूनमेतेषां तीर्थकरेणैव न सम्यग् वस्तुतत्त्वं परिज्ञातम्, अन्यथा कथमेष एवंविधेऽर्थे व्यामुह्येत? - इति विपरिणामतो मिथ्यात्वगमनं भवेत् ॥ ७१७ ॥ भावितं मिथ्यात्वद्वारम् । अथ संयमविराधनां भावयति जीवा - जीवे न मुणइ, अलियभया साहए दग - मिताई । करणे अविवच्चासं, करेइ आगाढणागाढे ॥ ७१८ ॥ जीवाश्चाजीवाश्च जीवा - जीवाः, तानसौ वाचनामात्ररूपेणोत्सारकल्पेनानुयोगमवगाह्यमानो 'वैवित्तयेन 'न मुणति' न जानीते, तदपरिज्ञानाच्च कुतः संयमसद्भावः ? | तदुक्तं परमर्षिभिः - 20 25 जो जीवे विनयाणेइ, अजीवे विन याणई । जीवा -ऽजीवे अयाणंतो, कह सो नाहिइ संजमं ? ॥ ( दशवै० अ० ४ गा० १२ ) तथा अलीकम्-असत्यं तद्भयाद् दक- मृगादीन् कथयति । किमुक्तं भवति : स उत्सार - 30 कल्पिकः पल्लवमात्रग्राहितया 'सत्यमेव भाषितव्यम्, नासत्यम्' इति कृत्वा उदकार्थिनां ‘नदी-तडागादौ पानीयमस्ति ? नास्ति वा ?' इति पृच्छताम् 'अलीकं मा भूत्' इति कृत्वा 'विद्यते नद्यादौ जलम्' इति कथयति, मृगयाप्रस्थितानां च व्याधानां 'दृष्टं मृगवृन्दम् ? न Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः वा ?' इति पृच्छतामलीकभयादेव 'दृष्टम्' इति कथयति, आदिशब्दात् शूकरादिपरिग्रहः, न पुनर्जानीते यथा-"सच्चा वि सा न वत्तबा, जओ पावस्स आगमो" (दशवै० अ० ७ गा० ११) ति; ततश्च जलगतसूक्ष्मजन्तुजातस्य मृगादीनां वा यद् व्यपरोपणं ते करिष्यन्ति तत् सर्वमुत्सारकल्पकारकः प्राप्नोति । तथा 'करणे' चारित्रे उत्सर्गा-ऽपवादविधिमजानन् 5 यद् विपर्यासं करोति, तद्यथा-'आगाढे' ग्लानादिकार्ये 'अनागाद' त्रिकृत्वः परिभ्रमणादिलक्षणम् , अनागाढे वा 'आगाढं' सद्यःप्रतिसेवनात्मकं करोति । एषा सर्वाऽपि संयमविराधना ॥ ७१८ ॥ अथ योगविराधनामाह तुरियं नाहिजंते, नेव चिरं जोगजंतिता होति । लद्धो महंतसद्दो, ति केइ पासाइँ गेण्हति ।। ७१९ ॥ 10 कमजोगं न वि जाणइ, विगईओ का य कत्थ जोगम्मि । अण्णस्स वि दिति तहा, परंपरा घंटदिटुंतो ॥ ७२०॥ _ 'अनुज्ञातोऽस्माकं गुरुभिः सकलोऽपि श्रुतस्कन्धः, ततः किमनेन पठितेन कार्यम् ?' इति कृत्वा ते शिष्याः 'त्वरितं' शीघ्रं नाधीयते, नैव च ते चिरं योगैः-श्रुताध्ययननिबन्धनतपोविशेषैः यत्रिताः-नियमिता भवन्ति, एकदिनेनापि प्रभूतसूत्रार्थवाचनानुज्ञाप्रदानात् । तथा 15 'लब्धोऽस्माभिः 'गणिरयम् , वाचकोऽयम्' इति महान् शब्दः, ततः कुतो हेतोर्वयमत्राऽऽचार्यसन्निधौ निष्फलं तिष्ठामः ?' इति परिभाव्य 'केचिद्' गुरुचरणपर्युपासनापरिभमाः पार्शनि गृहन्ति, पार्श्वतो ग्रामेषु यथाखेच्छं विहरन्तीति भावः ॥ ७१९ ॥ "कमजोर्ग" इति प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः, ततो योगक्रमं 'नापि' नैव जानाति, यथा-अस्मिन् योगे एतावन्त्याचाम्लानि इयन्ति निर्विकृतिकानि इत्थं वा उद्दे20 शादयः क्रियन्ते । तथा विकृतयः काः कुत्र योगे कल्पन्ते ? न वा ? इत्येवमपि न जानाति, यथा-कल्पिकाकल्पिक-निशीथादियोगेषु न विसृज्यन्ते काश्चनापि विकृतयः, व्याख्याप्रज्ञप्तियोगेषु पुनरवगाहिमविकृतिर्विसृज्यते, दृष्टिवादयोगेषु तु मोदकः । तथा चाऽऽहाऽस्यैव कल्पाध्ययनस्य चूर्णिकृत् जहा कप्पियाकप्पिय-निसीहाईणं विगईओ न विसजिजंति, पनत्तीए ओगाहिमग25 विगई विसजिज्जइ, दिट्ठीवाए मोदगो ति। . निशीथचूर्णिकृत् पुनराह जोगो दुविहो-आगाढो अणागाढो वा । आगाढतरा जम्मि जोगे जयणा सो आगाढो, यथा-भगवतीत्यादि । इतरो अणागाढो, यथा-उत्तराध्ययनादि । आगाढे ओगाहिमंगवज्जाओ नव विगईओ वज्जिज्जंति, दसमाए भयणा । महाकप्पसुए एका परं मोदग30 विगई कप्पइ । सेसा आगाढेसु सबविगईओ न कप्पंति । अणागाढे पुण दस वि विगईओ १ ते उत्सारकल्पविषयभूताः शिष्याः 'अधिरूढा वयं वाचकपदवीम्, किमस्माकं पठितेन ?' इति कृत्वा न त्वरित' शीघ्रमधीयते, नैव भा० ॥ २ °गं" इति योगक्रम त. कां० विना ॥ ३°चामाम्ला भा० ॥ ४ उद्देशः लमुद्देशोऽनुज्ञा वा क्रियते। तथा" भा० ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 हरणम् भाष्यगाथाः ७१९-२३] पीठिका । २२१ भइयाओ, जओ गुरुअणुण्णाए कप्पंति अपणुण्णाए पुण न कप्पति ति। एवंविधां योगव्यवस्थामजानन् यदसौ विराधयति सा योगविराधना । तथा "अन्नस्स वि दिति तह"त्ति ते उत्सारकल्पिकाः 'अन्यस्यापि' खशिष्यादेः 'तथैव' उत्सारकल्पेनैव वाचनां प्रयच्छन्ति, सोऽप्यपरेषां तथैव इत्येवम् र उत्सारकल्पे प्रवाहतः क्रियमाणे इत्र परम्परया सूत्रार्थव्यवच्छेदः प्राप्नोति । घण्टादृष्टान्तश्चात्र वक्तव्यः ॥ ७२० ॥ तमेवोपनययुक्तं गाथात्रयेणाहउच्छुकरणोव कोढुगपडणं घंटा सियालनासणया। सोपनये विगमाई पुच्छ परंपराएँ नासंति जा सीहो ॥ ७२१ ॥ घण्टाशपडियरिउं सीहेणं, स हओ आसासिया मिगगणा य । गालोदाइय कइवयाइँ जाणइ, पयाणि पढमिल्लुगुस्सारी ॥ ७२२ ॥ किं पि त्ति अन्नपुट्ठो, पचंतुस्सारणे अवोच्छित्ती। गीताऽऽगमण खरंटण, पच्छित्तं कित्तिया चेव ॥ ७२३ ॥ अत्र कथानकम्-एगस्स गाहावइस्स उच्छुवाडो बहुसइओ निप्फन्नो, तं सियाला पइ. सरित्ता खाइति । ताहे सो उच्छुसामी सियालगहणनिमित्तं तस्स उच्छुवाडस्स परिपेरंतेसु चउदिसिं खाइयं खणावेइ । तत्थ एगो सियालो पडिओ । सो वराओ गिण्हित्ता कण्णे पुच्छं 10 च कप्पित्ता दीवियचम्मेण वेढित्ता घंट आबंधित्ता विसजिओ । सो नासतो सियालेहिं दिट्ठो दूरओ। ते सियाला 'अन्नारिसो' त्ति काउं भएण पलाया । ते विरूएहिं दिट्ठा, पुच्छिया-किं नासह ? ति । तेहिं कहियं-अपुर्व सरं करेमाणं किं पि अपुवं भूयं एति । ते वि भएण पलायंता वरक्खूहिं दिहा, पुच्छिया । तेहिं कहियं-किं पि किर एति, सिग्धं नासह । ते पलायंता चित्तएहिं दिट्ठा, पुच्छिया । कहियं-किं पि किर एति, तुरियं पला-20 यह । ते वि पलायंता सीहेण पुच्छिया । कहियं तेहिं । सीहो चिंतेइ-मा पाणियसद्देण उवाहणाओ मुयामि, गवेसामि ताव । तेण सणियं पडियरियत्ता 'सियालो' ति हओ घंटासि. यालो 'कीस आउलीकया मो?" ति रोसेणं । ते अ सियालादयो मिया आसासिया-मा भायह, हओ सो वराओ मए दीवियचम्मोणद्धो घंटासियालो । केण वि अवराहे घेत्तुं तहाकओ । एस दिद्रुतो ॥ अयमत्थोवणओ-जस्स तं उस्सारिजति सो जावतिएहिं दिवसेहिं जोगो समप्पड़ तावति दिवसे कतिवयाणं आलावगाणं किंचि सुत्तफासियं सिक्खिता पञ्चतं गंतूण गच्छपा. गवित्तणं करेति, अन्नेसिं च उस्सारेति । ते वि उस्सारावेत्ता पत्तेयं पत्तेयं गच्छपागड्डित्तणेणं ठाएता सिस्साणं पडिच्छयाण य उस्सारकप्पं करेंति-अम्हे किर सुत्तत्थाणं अबो १ तदेवं भा० ॥ २ तथा यथा तेषामुत्सारकल्पिकानामाचार्यरुत्सार्य सूत्रार्थपाचना प्रदत्ता, तेऽप्यन्येषां वशिष्य-प्रतीच्छकानां तथैव वाचनां ददति, तेऽप्यपरेषां तथैव इत्ये° भा०॥ ३°स्सारणम्मि वो भा० ता० ॥ ४ आविधित्ता भा० मो. ले. का चूर्णौ च ॥ 28 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः च्छित्तिं करेमो । तत्थ जो सो पढमिल्लुगउस्सारी सो जहा ते सियाला तस्स घंटासियालस्स आकिति घंटासदं च जाणंति, न उण 'को एस ? किं वा एयस्स गलए ? कस्स वा एस सद्दो ?' एवं सो पढमिल्लुगुस्सारी किंचि जाणइ न सवं सव्भावं । जो एयस्स पासे उस्सारकप्पं करेति सो कइ वि आलावए जाणेति न पुण अत्थं । सो सिस्सेणं पुच्छिओ भणति—किं पि केरिसो वि अस्थि एयस्स अत्थो । सेसा कतिवए वि आलावए न कईति, ते सिस्सेहिं पुच्छिज्जता भणंति-न याणामो, अत्थि पुण किं पि एयं तस्स तुब्भे जोगं वहह । एवं ते अप्पाणं च परं च नासिंता विहरति । अह अन्नया गीयत्था आयरिया आगया, तेहिं ते उवालद्धा, गच्छा य अच्छिन्ना, गच्छेसु य पवेसिया सवे । जम्हा एते दोसा तम्हा न उस्सारेयत्वं । केत्तिया ते भविस्संति जे एवं निहोडिहिंति ? ॥ 10 गाथात्रयस्याप्यक्षरगमनिका-इक्षवः क्रियन्ते यत्र तत् 'इक्षुकरणम्' इक्षुवाटस्तस्य रक्षणार्थम् 'उवकः' गर्चा खातिकेत्यर्थः सा खानिता । तत्र च क्रोष्टुः-शृगालस्य पतनम् । ततो गृहपतिना गलके घण्टां बद्धा मुक्तस्य तस्य दर्शनम् । शृगालानां नाशनम् । ततो वृकादीनां पृच्छा । ततः सर्वेऽपि परम्परया नश्यन्ति, यावत् सिंहः समागतः । तेन सिंहेन 'प्रतिजागर्य' निरूप्य 'सः' घण्टाशृगालो हतः । शेषाः 'मृगगणाः' शृगाल-वृकादयः आश्वासिताः ॥ 15 अयं दृष्टान्तः, अथ दान्तिकयोजनामाह-"इय कइवयाई" इत्यादि । 'इति' अमुनैव प्रकारेण प्रथमिल्लुकोत्सारी शिष्यः 'कतिपयानि पदानि' सूत्रालापकरूपाणि किञ्चिन्मात्रसूत्रस्पर्शकनियुक्तिमिश्रितानि जानीते । अस्य च समीपे योऽन्योऽधीते स कतिपयान् सूत्रालापकान् मानीते न पुनरर्थम् । तस्यापि पार्थे यः पठति स सूत्रालापकानपि नाऽऽकर्षति, अन्येन पृष्टः प्रतिभणति-अस्ति किमप्येतदनोपाङ्गादिकं श्रुतम् , तद् यूयमेतस्य योगमुद्हतेति । 10 एते च दुरधीतविद्यत्वात् प्रायः प्रत्यन्तग्राम एवार्घ लभन्ते, यत उक्तम् पाएण खीणदवा, धणियऽपरद्धा कयावराहा य । पच्चंत सेवंती, पुरिसा दुरहीयवेज्जा या ॥ अतः प्रत्यन्तं गत्वा सूत्रार्थयोरुत्सारणं कुर्वन्ति, वदन्ति च-वयं सूत्रार्थयोरव्यवच्छित्ति कुर्म इति । अन्यदा च तत्र प्रत्यन्तग्रामे गीतार्थानामागमनम् । तैरुत्सारकल्पिकानां खरण्टॐ नम्, यथा-आः ! किमेवं सूत्रार्थयोः परिपाटिवाचनां परित्यज्य सकलश्रुतधर्मधूमकेतुकल्पमुत्सारकल्पमाचरन्त आत्मानं च परं च नाशयता इत्यादि । ततश्च गच्छानाच्छिा तेषामपुनःकरणेन प्रतिक्रान्तानां प्रायश्चित्तं दत्तम् । “कित्तिय" ति कियन्त एतादृशा गीतार्था भविष्यन्ति य एवं शिक्षयिष्यन्ति ! । तस्मात् प्रथमत एव नोत्सारणीयम् ॥ ७२१ ॥ १ उण निच्छएण जाणंति 'को एस भा० चूर्णौ च ॥ २ मुक्त इति । घण्टोपलक्षितः शृगालो घण्टागाल इति तस्य नाम जातम् । तं तथाभूतमपूर्वभूतकल्पं दृष्ट्वा शृगालानां नाशनम् । ततो वृकादीनां पृच्छा । ततः सर्वेऽपि पलायनकारणं विज्ञाय नश्यन्ति, यावत् भा०॥ ३ 'खरण्टनम्' उपालम्भनम्, यथा भा० ॥ ४ °द्य तेषां सर्वे. षामपु. भा० ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७२४-२५] पीठिका। २२३ ७२२ ॥ ७२३ ॥ भाविता सप्रपञ्चं योगविराधना । अथाऽऽत्मा परश्च परित्यक्त इति पदद्वयं भावयति-- अप्पत्ताण उदितेण अप्पओ इह परत्थ वि य चत्तो। सो वि अ हु तेण चत्तो, जं न पढइ तेण गव्वेणं ॥ ७२४ ॥ 'अपात्राणाम्' अयोग्यानां यद्वा 'अप्राप्तानां' विवक्षितानुयोगभूमिमनुपागतानां श्रुतं । ददता उत्सारकल्पकृता आत्मा इह परत्रापि च त्यक्तः, तत्रेह तद्वाचनादानसमुद्भूतांपयश:प्रवादादिना परत्र तु बोधिदुर्लभत्वादिना । तथा सोऽपि शिष्यः 'हु' निश्चितं तेन' आचार्येण परित्यक्तः, यत् तेन गणि-वाचकत्वादिगणाधिष्ठितः सन् न पठति, पठनाभावे हि कुतो यथावत् चरण-करणप्रतिपालनम् ? « इति भावः । प्रवचनमपि तेन परित्यक्तम् , कथम् ? इति चेद् उच्यते-तस्य वाचकत्वप्रवादं श्रुत्वा केचित् सहृदया वाग्मिनो बहुविधग्रन्थ-10 दृश्वानस्तत्परीक्षां कर्तुकामा यदा कमपि सिद्धान्तार्थ प्रश्नयेयुरिति तदाऽसावप्रबुद्धत्वाद् न किमपि तात्त्विकं निर्वचनमभिधातुमीशः । ततस्ते चिन्तयन्ति-अहो! परिफल्गु प्रवचनममीषाम् , यत्रेदशा अपि वाचकपदमध्यारोप्यन्ते । ततः केचिद् देशविरति केचित् सर्वविरतिं प्रतिपित्सवो यदि विपरिणमन्ते ततः प्रवचनं परित्यक्तमवसातव्यम् ।। ७२४ ॥» किश्चअजस्स हीलणा लज्जणा य गारविअकारणमणजे । 15 आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुतस्स तित्थस्स ॥ ७२५ ॥ आर्यः-सुजनः सुमानुषमित्येकोऽर्थः, तस्य यथावदागमार्थावबोधविकलस्य वाचकनाना हीलना भवति-अहो! हीलेयं मम यदहं 'वाचक ! वाचक !' इत्यभिधीये। तथा "लज्जण"त्ति 'वाचकमिश्राः ! कथयत कथमयमालापकः सिद्धान्ते विद्यते ? छाको वाऽस्याऽऽलापकस्यार्थः ?' इति केनापि पृष्टस्य व्याकरणं दातुमशक्नुवतो भृशं लज्जा भवति। ततश्च 20 श्यामवदनः कुजीकृतकन्धरश्चिन्तया विमनायमानोऽवतिष्ठते । हा 'अनार्ये' अनार्यस्य १°श्च यथा परित्यको भवति तथाऽभिधातुकाम आह भा० ॥२°तापकीर्तिप्रवादेन पर' भा०॥३१ एतचिहान्तर्गतोऽयं चूर्णिप्रन्थानुसारी पाठः भा० त० का प्रतिष्वेव वर्तते । तथा चात्र चूर्णिग्रन्थ:-"अप्पा परोय कधं चत्तो भवति? उच्यते-अप्पत्ताण. गाधा ॥ कंठा। अपात्राणामित्यर्थः । “पवयणं कधं परिवत्तं ? सो भण्णति वायओ ताधे केयि पडुणो पुरिसा एंति-पुच्छामो वायगं सिद्धतं । प्रच्छिते ण किंचि जाणति ताधे ते जाणंति-णूणं सव्वं पवयणं णिस्सारं जत्थेरिसो आयरिओ वायओ। तत्थ केयि देसविरतिं सव्वविरतिं वा पडिवजितुकामा विपरिणमंति । एवं पवयणं परिचत्तं ॥ किंचअजस्स० गाधा ॥” इति ॥ ४ कर्तुमायाताः सन्तो यदा कमपि सिद्धान्तार्थ परिप्रश्नयन्ति तदा भा०॥ ५ भा० विनाऽन्यत्र-व्यम् ॥ ७२४ ॥ अथाऽऽत्म-पर-प्रवचनपरित्यागानेव प्रकारान्तरेणाह किञ्च त० कां० ॥ ६ यः खल्वार्यः-सजनो भवति तस्य यथावत्सिद्धान्ताववोधविकलस्य 'वाचक' इत्याख्ययाऽभिधीयमानस्य हीलना भवति भा० । “यो पार्यो जनो भवत्यसौ हि 'वाचक' इत्यपदिश्यमानो लजते" इति चूर्णिः ॥ ७°चको वाचकः' इ. भा० ॥ ८ कोऽस्या मो० ले० कां ॥९ तया च विच्छायवदनः भा०॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः पुनस्तदेव 'गौरव्यकारणं' गर्वनिबन्धनं जायते - अहो ! वयमेव निस्सीमप्रतिष्ठापात्रं जगति वर्त्तामहे यदेवं वाचकपदवीमध्यारोहाम इति । इत्थं परः परित्यक्तो मन्तव्यः । आचार्ये च परिवादो भवति, तथाहि —स बहुश्रुताचार्यपार्श्वादुत्सारकल्पं कारयित्वों गतः कापि नगरादौ, पृष्टश्च कैश्चिन्निष्णातैः किमप्यर्थपदं यावन्न किञ्चिज्जानीते, ततस्ते ब्रुवते - 6 यैरेष मूर्खमण्डलीमध्यलब्धरेख आचार्यपद भाजनमकारि तेऽप्याचार्या एवंविधा एव भविष्य - न्तीत्यात्मा परित्यक्तः । तथा प्रवचनमपि तेनाऽऽचार्येण परित्यक्तम् । कथम् ? इत्याहश्रुतस्योत्सारकल्पवशादन धीयमानस्य व्यवच्छेदः प्राप्नोति श्रुते च व्यवच्छिद्यमाने ज्ञानाभावे च दर्शन -चारित्रयोरप्यभावात् तीर्थस्यापि व्यवच्छेदः प्राप्नोति ॥ ७२५ ॥ यदि नाम तीर्थं व्यवच्छिद्यते ततः को दोषः : इत्याह 10 पवयणवोच्छे वट्टमाणो जिणवयणबाहिरमईओ | बंध कम्मरय-मलं, जर मरणमणंतयं घोरं ॥ ७२६ ॥ प्रवचनं तीर्थं तस्य व्यवच्छेदे हेतुरूपतया वर्त्तमानः, कथम्भूतोऽसौ ? इत्याह – 'जिनवचनबाह्यमतिकः' सर्वज्ञशासनबहिर्मुखशेमुषीकः, न खल्वनीदृशस्य प्रवचनव्यवच्छेदं कर्तुं मतिरुत्सहते, स एवम्भूतो बध्नाति 'कर्मर जो - मलं' रजः शब्देन बद्धावस्थं मलशब्देन निका16 चितावस्थं कर्म परिगृह्यते, रजश्च मलश्चेति रजो-मलम्, कर्मैव रजोमलं कर्मरजो- मलम्, निकाचिता-ऽनिकाचितावस्थं कर्म यथाध्यवसायस्थानमनुबध्नातीत्यर्थः । कथम्भूतम् ? अनन्तानि जरा-मरणानि यस्मात् तद् अनन्तजरा-मरणम्, गाथायां प्राकृतत्वादनन्तशब्दस्य परनिपातः, ‘घोरं’ रौद्रं शारीर-मानसदुःखोपनिपातनिबन्धनत्वादिति । तथा षड्जीवनिकायानप्यगीतार्थतयाऽसौ विराधयतीति जीवनिकाया अपि तेनोत्सारकेण परित्यक्ता अवसातव्याः । यत 20 एते दोषास्ततो नोत्सारणीयम् ॥ ७२६ ॥ अथ क्रमेणैवाधीयमाने सूत्रे के गुणाः ? उच्यतेआणा विकोवणा बुज्झणा य उवओग निजरा गहणं । गुरुवास जोग सुसणा य कमसो अहिजंते ॥ ७२७ ॥ 'क्रमशः' क्रमेणाधीयमानेऽध्याप्यमाने च सूत्रे एते गुणाः । तद्यथा — आज्ञा तीर्थकृतां १ 'रवकारणं भवति - अहो ! निःप्रतिमप्रतिष्ठापात्रं वयमेव जगति भा० ॥ २ अहो ! वयं वाचकपदवी' मो० ले० ॥ ३ वाचकप्रसिद्धिमध्यारोहामः । तथा आचार्ये 'परिवादः ' अवर्णवादः । तथाहि भा० ॥ ४ वा वापि नगरादौ गतः केनाऽपि साधुना पृष्टः किमप्यालापक मर्थपदं वा यावन्न किञ्चिज्जानीते, ततो भवति परिस्फुट एवाचार्याणामवर्ण. वादः, यथा - यैरेव मूर्ख भा० ॥ ५ डे० त० विनाऽन्यत्र - ध्यन्ति । तथा उत्सारकल्पे परम्परया क्रियमाणेऽनधीयमानसूत्रस्य व्यवच्छेदः प्राप्नोति । सूत्रे च व्यवच्छि भा० । यन्ति । तथा प्रवचन कां० मो० ले० ॥ ६ 'तम् ? 'अनन्तजरा-मरणम्' जरा-वयोहानिः मरणं - प्राणपरित्यागः, अनन्तानि भा० ॥ ७ कृतां कृता भवति । 'विकोपना' व्युत्पन्नीभवनं सा च भवति । इयमत्र भावना - स शिष्यः क्रमेणाधीयमानो योगोद्वहनविधौ गच्छसामाचार्या च व्युत्पन्नमतिरुपजायते, ततञ्च आत्मना सामाचारीवैतथ्यं भा० ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७२६-७२९] पीठिका | २२५ 1 शिष्येणाऽऽचार्येण चाऽऽराघितां भवेति । “विकोवण" ति योगोद्वहनविधौ गच्छसामाचार्यां च 'विकोपना' व्युत्पादना शिष्यस्य कृता भवति ततश्च खयं सामाचारीवैतथ्यं न करोति, अपरान् कुर्वतो निवारयति । तथा गच्छमध्ये द्वितीयपौरुष्यामनुयोगः प्रवर्तते तदाकर्णनाद् मन्दबुद्धेरपि ‘बोधनं’ जीवा ऽजीवादितत्त्वेषु प्रबुद्धता सम्पद्येते । बुध्यमानस्य च श्रुते निरन्तरमुपयोगो जायते । निरन्तरोपयुक्तस्य च महती निर्जरा, प्रतिसमयमसङ्ख्येयभवोपात्तकर्म-6 परमाणुपटलापगमात् । उक्तञ्च कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयरम्मि वि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेणं ॥ ( जीत० भा० गा० ४५४ । व्यव० उ० १० भा० गा० १२१ पत्र ५१० ) नित्योपयुक्तस्य च शीघ्रं सूत्रार्थयोर्ग्रहणं भवति । तथा गुरुवासेन - गुरुकुलवासेन सार्द्धं 10. योगः - सम्बन्धो भवति, अन्यथा क्रमेण सूत्रार्थाध्ययनायोगात् । यद्वा पदद्वयमिदं पार्थक्येन व्याख्यायते— गुरूणामन्तिके वासो गुरुवासः स सेवितो भवति, योगाश्च विधिवदाराघिता भवन्ति । आचार्यादीनां शुश्रूषा विनय-वैयावृत्त्यादिनों कृता भवति । यत एते गुणास्ततः क्रमेणैवाध्येतव्यम् ॥ ७२७ ॥ उपसंहरन्नाह - 1 इय दोस- गुणे नाउं उक्कम - कमओ अहिजमाणाणं | उभयविसेस विहिन्नू, को वंचणमग्भुवेजाहि ॥ ७२८ ॥ इतिशब्द एवमर्थे । एवमुत्क्रमतः क्रमतश्चाधीयानानाम् उपलक्षणत्वादध्यापयतां च यथाक्रमं दोषान् गुणाँश्च ज्ञात्वा 'उभयविशेषविधिज्ञः' क्रमा - ऽक्रमाध्ययनगुण-दोषविभागवेदी आचार्यः शिष्यो वा को नामोत्सारकल्पस्य करणेन कारापणेन वा आत्मनो वञ्चनम् 'अभ्युपेयाद्' अङ्गीकुर्यात् ? न कश्चिदित्यर्थः । यतश्चैवमतोऽनुपयोगित्वाद् नास्त्युत्सारकल्पिक इति ॥ ७२८ ।। 20 अत्र पुनरपि परः प्राह जह नत्थि कओ नामं, असइ हु अत्थे न होइ अभिहाणं । तम्हा तस्स पसिद्धी, अभिहाणपसिद्धिओ सिद्धा ॥ ७२९ ॥ यदि नास्त्युत्सारकल्पिकः ततः कुतोऽस्य 'नाम' अभिधानमिदमायातम् ? ( नै कुतश्चिदित्यर्थः)। अनेन प्रतिज्ञार्थः सूचितः । कुतः ? इत्याह- 'असति' अविद्यमाने 'अर्थे' 25 १वति । योगो' डे० विना ॥ २ द्यते । अधीयमानस्य च श्रुतार्थे 'उपयोगः' एकाग्रमनोनिवेशनरूपो जायते । ततश्च महती निर्जरा भा० ॥ ३ यते - गुरुभिः सार्धं वासो गुरुवासः स सम्यगुपासितो भवति, योगा' भा० ॥ ४ °दिका कृता भा० ॥ ५ त्क्रमेण क्रमेण वाधी भा० ॥ ६° विभागविधिज्ञः को नाम सकर्णः सन्नात्मनो वञ्चनम् 'अभ्युपेयाद्' अभ्युपगच्छेत् ? अङ्गीकुर्यादित्यर्थः । किमुक्तं भवति ? — इत्थं क्रमाक्रमाभ्याम ध्ययना - ऽध्यापनयोर्गुण-दोषजालमवगम्यापि क इव आचार्यः शिष्यो वा उत्सारकल्पं कृत्वा कारयित्वा वा स्वार्थपरिभ्रंशादिह परत्र चानर्थसार्थोपनिपातादात्मानमेव केवलं वञ्चयति ? इति । यतञ्चैवमतोऽनुपयोगित्वाद् नास्त्युत्सारकल्पिक इति स्थितम् ॥७२८॥ अत्र पुनरपि पर: स्वपक्षं समर्थयन्नाह भा० ॥ ७ कोष्टकान्तर्गतमिदं प्रामादिकं निरुपयोगि च ॥ बृ० २९ 15. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः अभिधेये हुशब्दस्य हेत्वर्थवाचकत्वाद् यस्मान्न भवत्यभिधानं किन्तु सत्येवेति छ। अनेन च हेत्वर्थ उपात्तः । यतश्चैवं तस्मात् 'तस्य' अर्थस्य प्रसिद्धिरत्राभिधानप्रसिद्धित एव 'सिद्धा' प्रतिष्ठितेति निगमनार्थः । दृष्टान्तोपनयौ खयमेवाभ्यूह्य वाच्यौ । अत्र प्रयोगः-अस्त्युत्सारकल्पिकः, अभिधानवत्त्वात् , घटादिवत् , यद् यद् अभिधानवत् तत् तद् अस्ति, यथा घट6 पटादि, अभिधानवच्चेदम् , तस्मादस्तीति ॥ ७२९ ॥ इत्थं परेण स्वपक्षे समर्थिते सति प्रतिविधीयते--भो भद्र मुग्धप्रामाणिक ! अनैकान्तिकोऽयं भवता हेतुरुपन्यस्तैः । तथा चाह जइ सव्वं वि य नाम, सअस्थगं होज तो भवे दोसो । जम्हा सअस्थगत्ते, भजियं तम्हा अणेगंतो ॥ ७३०॥ यदि सर्वमपि नाम सार्थकं भवेत् ततो भवेदस्माकं 'दोषः' उत्सारकल्पिकस्यास्तित्वापत्ति10 लक्षणः । यस्मात् पुनः सार्थकत्वे नाम 'भक्तं' विकल्पितम् , स्यात् सार्थकं स्यान्निरर्थकमिति भावः । तत्र सार्थकं जीवा-ऽजीवादिकम् , निरर्थकं खरविषाणा-ऽऽकाशकुसुम-कूर्मरोमवन्ध्यापुत्रादिकम् । यत एवं तस्मादनेकान्तोऽयम्-यदसद्भूतेऽर्थे न भवत्यभिधानम् । इदमत्र तात्पर्यम्-अभिधानस्य भावा-ऽभावयोरुभयोरपि सद्भावादभिधानवत्त्वलक्षणो हेतुर्यथा उत्सारकल्पिकस्यास्तित्वं साधयति तथा नास्तित्वमपि साधयति, उभयत्रापि साधारणत्वात् ; हा 16 अतः साधारणरूपानैकान्तिकदोषदुष्टोऽयं हेतुरिति ॥ ७३० ॥ इत्थं व्यभिचरितपक्षतया विलक्षीभूतः परः परित्यज्य यदृच्छाजल्पमाचार्यवचनमेव प्रमाणीकुर्वनित्थमाह- भगवन् ! अभ्युपगत मयाऽनन्तरोक्त युक्तितोऽभिधानस्य सार्थकत्वमनर्थकत्व चेति, परमिदमुत्सारकल्पिकाभिधानं किं सार्थकम् ? आहोखिद् निरर्थकम् ? इति विवर्तते संशयाव-गायामस्माकं चेतः, तदिदानीमुद्भियतां निजवाग्वस्त्रयेति उच्यते20 निकारणम्मि नाम, पि निच्छिमो इच्छिमो अ कजम्मि । उस्सारकप्पियस्स उ, चोयग ! सुण कारणं तं तु ॥ ७३१ ॥ वत्स ! 'निष्कारणे' कारणाभावे नामापि नेच्छामो वयम् किं पुनरर्थम् ? । 'कार्य' प्रयोजने तु प्राप्ते इच्छाम उत्सारकल्पिकस्य नामाप्यर्थमपि । 'तत्तु' कारणं हे नोदक ! 'शृणु' निशमय ।। ७३१ ॥ तत्र तिष्ठतु तावत् कारणम् , कर्तुरधीनाः सर्वा अपि क्रिया इति ज्ञापनार्थं प्रथमत उत्सॉरकारकमाह आयार-दिहिवायत्थजाणए पुरिस-कारणविहिन्नू । संविग्गमपरितंते, अरिहइ उस्सारणं काउं ।। ७३२ ॥ आचारः-प्रथममङ्गं दृष्टिवादः-चरमं तयोरथ जानातीत्याचार-दृष्टिवार्थिज्ञः । इहाऽऽचार१स्तः । कथम् ? इति चेत् उच्यते भा० ॥ २ वयमुत्सारकल्पिकस्य किं पुन भा० ॥ ३°त्सारकमाह डे. कां. चूर्णौ च ॥ ४°दार्थज्ञायकः । 'पुरुष-कारणविधिज्ञः' पुरुषःपरिणामकादिरूपः कारणं-वस्त्रोत्पादनादिकं तयोर्विधि-विधानं प्रकारं जानातीति पुरुषकारणविधिः , किमयमुत्सारकल्पमर्हति ? न वा? इति केन वा कारणेनोत्सार्यते? न वा? इत्येवं सम्यग जानातीति भावः। तथा 'संविग्नः' भा० ॥ उत्सारकल्पका Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सार भाष्यगाथाः ७३०-३६] पीठिका। २२७ दृष्टिवादग्रहणं वक्ष्यमाणकारणैरनयोरेवोत्सारणीयत्वादित्येवमर्थम् । “पुरिस-कारणविहिनू" इति पुरुष-कारणविधिज्ञो नाम 'किमयं पुरुष उत्सारकल्पमर्हति ? न वा ? येन च कारणेनो. सार्यते तदस्ति ? न वा ?' इत्येवंविधविधिवेदी तथा 'संविग्नः' मोक्षाभिलाषी 'अपरितान्तः' सूत्रार्थग्राहणायामहोरात्रमप्यपरिश्रान्त एवंविध उत्सारणं कर्तुमर्हति, एवंगुणोपेत एवोत्सारकल्पं करोतीत्यर्थः ॥ ७३२ ।। अथ यस्योत्सारकल्पः क्रियते तस्यै गुणानाहअभिगए पडिबद्धे, संविग्गे असलद्धिए । कल्पाई. अवढिए अ मेहावी, पडिबुज्झी जोअकारए ॥७३३ ॥ स्य गुणाः अभिगतः प्रतिबद्धः संविग्नश्च सलब्धिकः अवस्थितश्च मेधावी प्रतिबोधी योगकारकः, ईदृग्गुणोपेत उत्सारकल्पयोग्य इति नियुक्तिश्लोकसमासार्थः ।।७३३।। अथैनमेव विवृणोति ___ सम्मत्तम्मि अभिगओ, विजाणओ वा वि अब्भुवगओ वा। 10 सज्झाए पडिबद्धो, गुरुसु नीएल्लएसुं वा ॥ ७३४ ॥ सम्यक्त्वे य आभिमुख्येनं गतः-प्रविष्टः सोऽभिगत उच्यते, यो वा जीवादिपदार्थानां 'विज्ञायकः' विशेषेण ज्ञाता सोऽभिगतः, यद्वा यः 'अभ्युपगतः' 'यावज्जीवं मया गुरुपादमूलं न मोक्तव्यम्' इति कृताभ्युपगमः सोऽभिर्गतः । यः पुनः 'खाध्याये' परावर्तना-ऽनुप्रेक्षादौ सततमायुक्तः, गुरुषु वा स्थिरममत्वानुबन्धः, 'निजकेषु' भ्रातृ-मातृव्या दिषु वा 15 सम्बन्धिषु प्रव्रज्याप्रतिपन्नेषु सञ्जातप्रेमस्थेमा, एष त्रिविधोऽपि प्रतिबद्ध उच्यते ॥ ७३४ ॥ संविग्गो दव्य मिओ, भावे मूलुत्तरेसु उ जयंतो। लद्धी आहाराइसु, अणुओगे धम्मकहणे य ॥ ७३५ ॥ संविमो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । 'द्रव्ये' द्रव्यसंविमो मृगः, सदैव सर्वतोऽपि चकितत्वात् । 'भावे' भावसंविग्नः 'मूलोत्तरेषु तु' मूलगुणोत्तरगुणेषु पुनः 'यतमानः' उद्यमं 20 विदधानः साधुर्मन्तव्यः, सदैव संसारापायचकितत्वात् । तथा लब्धिराहारादिषूत्पादयितव्येषु अनुयोगे दातव्ये धर्मकथने च विधेये यस्य स सलब्धिक इति ॥ ७३५ ॥ लिंग विहारेऽवडिओ, मेरामेहावि गहणओ भइओ। पडिबुज्झइ जं कत्थइ, कुणइ अ जोगं तदद्वस्स ॥ ७३६ ॥ अवस्थितो द्विधा-लिङ्गे विहारे च । लिलावस्थितः खलिङ्गं न परित्यजति, विहाराव-25 स्थितः संविमविहारं विहाय न पार्श्वस्यादिविहारमाद्रियते । मेधावी द्विधा-ग्रहणमेधावी मर्यादामेधावी च । उभावपि वक्ष्यमाणखरूपौ । तत्र मर्यादामेधाविन उत्सारकल्पः क्रियते । १°स्य कियस्तो गुणा मृग्यन्ते ? इति, अत्रोच्यते भा० ॥ २ °रक इति सङ्गहगाथासमासार्थः ॥ ७३३ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह भा० ॥ ३°न-आत्यन्तिकस्थैर्यलक्षणेन गतः-प्रविष्टः, तादात्म्येन परिणत इति यावत् सोऽभि भा० ॥ ४ गतोऽभिधीयते । यः पुनः भा०॥ ५°मानः' यथाशक्ति यतनां कुर्वाणः सदैव संसारापायचकितत्वात् ; न खल मलोत्तणणविकलस्तत्त्वतः सांसारिकापायाद बिमेतीति बहं शक्यम तथा लन्धि भा०॥६°हारं परित्यज्य न पा भा०॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे अनुयोगाधिकारः स पुनर्ग्रहणे मेधावी वा स्यादमेधावी वा, द्विविधस्यापि कारणविशेषे उत्सार्यत इति ग्रहणतो मेधावी 'भक्तः' विकल्पितः । तथा यत् 'कथ्यते' अभिधीयते तत् सर्व यः प्रतिबुध्यते स प्रतिबोर्बु शीलमस्येति प्रतिबोधी । यत् तस्य सूत्रमुत्सार्यते तदर्थस्य ग्रहणे 'योग' व्यापारं यः करोति न कदाचित् प्रमाद्यति स योगकारक इति ॥ ७३६ ॥ तदेवं व्याख्याता “अभि 5 गए" इत्यादि (७३३) गाथा । अथोत्सारकल्पिकस्यैवापराचार्यपरिपाट्या गुणानाहअपरा अभिगय थिर संविग्गे, गुरुअमुई जोगकारए चेव । . अचार्य दुम्मेहसलद्धीए, पडिबुज्झी परिणय विणीए ॥ ७३७ ॥ परिपाच्या उत्सार आयरियवण्णवाई, अणुकूले धम्मसलिए चेव । कल्पा एतारिसे महाभागे, उस्सारं काउमरिहइ ॥ ७३८ ॥ हेस्य गुणाः 10 'अभिगतः' प्रबुद्धः । 'स्थिरः' सम्यग्दर्शनादक्षोभ्यः । 'संविमः' प्रागुक्तः । 'गुर्वमोची' निष्ठुरं निर्भसितोऽपि गुरूणाममोचनशीलः । 'योगकारकः' पूर्ववत् । दुर्मेघा अपि यः सलब्धिकः। परिणतः' परिपक्वयाः परिणामको वा । 'विनीतः' अभ्युत्थानादिविनयोद्यतः॥७३७॥ 'आचार्यवर्णवादी' गुरूणां गुणोत्कीर्तनकारी । 'अनुकूलः' आचार्याणामन्येषां वा पूज्यानां वैयावृत्त्यादिना हितकारी । धर्मे-तपः-संयमात्मके चारित्रधर्मे श्रद्धिकः-श्रद्धावान् । अत्य15न्ताभिलाषुकः । चः समुच्चये । एवः पादपूरणे । एतादृशः' एवंविधगुणोपेतः 'महाभागः' शिष्य उत्सारं कर्तुमर्हति, उत्सारकल्पस्य योग्यो भवतीत्यर्थः ॥ ७३८ ॥ अनीदृशानुत्सारयितुः प्रायश्चित्तमाह__ अणभिगयमाइआणं, उस्सारितस्स चउगुरू होति । उग्गहणम्मि वि गुरुगाऽकालमसज्झायऽवक्खेवे ॥ ७३९ ॥ 20 आदेशद्वयेनापि ये गुणाः पूर्वमुक्तास्तद्विपरीता येऽनभिगतादयः, तद्यथा- अनभिगतः अप्रतिबद्धः असंविनः अलब्धिकः अनवस्थितः अमर्यादामेधावी अप्रतिबोधी अयोगकारकः अपरिणतः अविनीतः आचार्यावर्णवादी अननुकूलः अधर्मश्रद्धालुः । एतेषाम् 'उत्सारयतः' उत्सारकल्पं कुर्वत आचार्यस्य प्रत्येकं चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् । “उग्गहणम्मि वि गुरुग"त्ति सूत्रमर्थं वा झगित्येवावगृहातीत्यवग्रहणः, "नन्यादिभ्योऽनः" (सि०५-१-५२) इति १ 'अनभिगमादीनाम् 'उत्सारयतः' उत्सारकल्पं कुर्वतश्चत्वारो गुरुकाः । इयमत्र भावना-अनभिगतस्य अप्रतिबद्धस्य असंविनस्य अलब्धिकस्य अनवस्थितस्य अमर्यादा. मेधाविनः अप्रतिबोधिनः अयोगकारकस्य अपरिणतस्य अविनीतस्य आचार्यावर्णवादिनः अननुकूलस्य अधर्मश्रद्धालोरुत्सारकल्पं य आचार्यः करोति तस्यैतेषु स्थानेषु प्रत्येक चतुर्गुरवः भा० ॥ २चूर्णिग्रन्थानुसारिणीयं हस्तचिह्नान्तर्गता टीका, तथा चात्र चर्णि: "उग्गहणम्मि य गुरुअ'त्ति जति उग्गहणसमत्थस्स वि मेधाविस्स णिकारणओ उस्सारेति तो वि ::। किं कारणं? सो मेधावी आणुपु-वीए चेव पढिहिति । अहवा 'उग्गहणम्मि वि गुरुग' त्ति जस्स जोग्गस्स 'कारणे उस्सारिजति सो जति वि उस्सारकप्पे समयं सुत्तं अत्थं च ओगिण्हति, अपिशब्दात् जति वि ण ओगिण्हति दुम्मेहत्तणेण तो वि अकालो असज्झाइयं वक्खेवो वा ण कातव्वो, जति वि करेति ::। काल Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७३७-११] पीठिका। २२९ करि अनप्रत्ययः, ग्रहणमेधावीत्यर्थः, तस्य यदि निष्कारणमुत्सारयति तदाऽपि चत्वारो गुरुकाः । अथ किमर्थं मेधाविनो नोत्सार्यन्ते ? उच्यते-यतोऽसौ प्रज्ञालत्वादेवाऽऽनुपूयव पाठ्यमानो झगित्येव विवक्षितमुत्सारणीयं श्रुतं प्राप्स्यति, ततः को नाम तस्योत्सारकल्पकरणेऽभ्यधिको गुणः ? । अथवा "उग्गहणम्मि वि"त्ति यस्य आचारान्तर्गतवस्वैषणाध्ययनस्योपक्रमणनिमित्तमुत्सार्यते तस्य यद्यप्युत्सारकल्पसमकालमेव सर्वमपि सूत्रमर्थ वाऽवगृह्णाति, 5 अपिशब्दाद् मन्दमेघस्तया यद्यपि नावगृह्णाति, तथाऽप्यवग्रहणेऽनवग्रहणे वाऽकालोऽखाध्यायिकं व्याक्षेपश्च न कर्त्तव्यः । यदि करोति तदा चत्वारो गुरुकाः । एतच्चाकालादिकमुपरिष्टाद् भावयिष्यते । अथवा "उग्गहणम्मि वि गुरुग"त्तैि अन्यथा व्याख्यायते--छा योऽवग्रहणे समर्थ उत्तममेधावी, अपिशब्दः सम्भावनायाम् , किं सम्भावयति ? यावन्मानं सूत्रं तस्योद्दिश्यते तावदशेषमप्यर्थेन युक्तमवगृह्णाति, यो वा वैरस्वामिवत् पदानुसारिप्रतिभो भूयस्तरमप्यनुसरति 10 तस्योत्सारणीयम् । अथ नोत्सारयति तदा चतुर्गुरुकाः । तत्रापि यावदुत्सारकल्पः क्रियते तावदकालोऽखाध्यायिकं व्याक्षेपश्च न कर्तव्यः । यदि करोति तदाऽपि चतुर्गुरुकाः ॥७३९॥ अथोत्सारकल्पकरणे यत् प्राक् (गा० ७३१) कारणं सांन्यासिकीकृतं तद् दर्शयतिगच्छो अ अलद्धीओ, ओमाणं चेव अणहियासा य । उत्सारगिहिणो अ मंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए उवहिं ॥ ७४०॥ 10 रणे कारकस्याप्याचार्यस्य गच्छः सर्वोऽपि वस्त्र-पात्र-शय्योत्पादने अलब्धिकः, तत्र च क्षेत्रे खप- णानि क्षतः परपक्षतो वाऽवमानं विद्यते, ते च साधवः 'अनधिसहाः' शीतादिपरीषहान् सोढुमसमर्थाः, गृहस्थाश्च 'मन्दधर्माणः' तुच्छधर्मश्रद्धाका अप्रज्ञापिताः सन्तो न वस्त्रादि प्रयच्छन्ति, 'शुद्धं चोपधि साधवो गवेषयेयुः' इति भगवतामुपदेशः, स च दुर्लभत्वाद् यादृशेन तादृशेन साधुना न लभ्यते, अत ईदृशे कार्ये लब्धिमान् दुर्मेधा अप्युत्सारकल्पं कृत्वा वस्त्रै-20 षणाद्यध्ययनमुद्दिश्य कल्पिकः क्रियते ॥ ७४० ॥ ततश्च कल्पिकीकृतः सन् किं करोतु ? इत्याह हिंडउ गीयसहाओ, सलद्धि अह ते हणंति से लद्धिं । तो एकओ वि हिंडइ, आयारुस्सारियसुअत्थो ॥ ७४१॥ [असौ 'सलब्धिकः' लब्धिमान् ] 'गीतसहायः' गीतार्थसाधुसहितो वस्त्राद्युत्पादनार्थ 25 असज्झाइयं वक्खेव त्ति तं उवरि भणिहिति । अहवा 'उग्गहणम्मि वि गुरुग' ति जो उग्गहणसमत्थो उत्तममेहावी अपिः पदार्थसम्भावने, जावतियं उद्दिसति तं सव्वं सुत्तं सह अत्थेण उट्ठवेति पदाणुसारी य बहुविधमवि अणुसरति तस्स उस्सारितव्वं, जति ण उस्सारेति ::।" इति ॥ १ यतः स प्र भा० ॥ २°मानोऽपि झगित्येवोत्सार° भा० ॥ ३त्ति एवं व्या भा० ॥ ४ तावन्मात्रं सुखेनैवार्थेन युक्तमवधारयति । यो वा पदानु भा०॥ ५ अथ यदि रागद्वेषादिना नोत्सा भा० ॥ ६ तथा यावदु मो० ले० कां० । तत्राप्यकालोऽखाध्या भा० ॥ ७ कर्त्तव्यः॥ ७३९ ॥ अथ यदुक्तमासीत् "तिष्ठतु तावत् कारणम्” (गा० ७३१) इति तदिदानीमभिधीयते भा० ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पघातकरकपट २३० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः हिण्डताम् । अथ 'ते' गीतार्थास्तस्य लब्धिमुपनन्ति ततः 'एककोऽपि' असहायोऽपि 'आचारोत्सारितसूत्रार्थः' आचारान्तर्गतवस्त्रैषणादिसूत्रार्थमुत्सारकल्पकरणेन ग्राहितः सन् हिण्डते ॥ ७४१ ॥ ननु च किं कोऽपि कस्यापि लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमसमुत्थां लब्धिमुपहन्ति ? येनैवमुच्यते-ते गीतार्थास्तस्य लब्धिमुपन्नन्ति इति, अंत्रोच्यते-Nभो भद्र ! किं न कर्ण5 कोटरमुपागतं सुप्रतीतमपि भवतो ढण्ढणमहर्षेरलब्धिस्वरूपं येनैवमनभिज्ञ इव भवान् परिप्र भयति । यद्वाऽस्मिन्नेवार्थेऽपरो भवतः प्रत्यायनाय दृष्टान्तः प्रतिपाद्यते-- परपुण्यो. भिक्खु विह तण्ह वद्दल, अभागधेजो जाहिं तहिं न पडे। दुग-तिगमाईभेदे, पडइ तहिं जत्थ सो नत्थि ॥ ७४२ ॥ मिक्षोरु- __कोइ किर पंचसइओ सत्थो अडविं पवन्नो । तत्थ य एगो रत्तपडो निब्भग्गसिरसेहरो दाहरणम् 10पंचण्ह वि सयाणं पुण्णे उवहणइ । सो अ सत्थो तहाए पारद्धो। दूरे अ अब्मवद्दलयं वासइ, तेसिं उवरि न पडइ । ते दुहा भिण्णा । इयरो रत्तपडो पुबिल्लाणं मज्झे मेलिओ। सवत्थ पडइ, जत्थ सो तत्थ न पडइ, जाव निवेडिओ एकओ जाओ। जत्थ सो तत्थ न पैडह । एवं एयारिसा परस्सं पुन्ने उवहणंति ॥ __ अथ गाथाक्षरार्थः-भिक्षुरेकः सार्थेन सार्द्ध 'विहम्' अध्वानं प्रविष्ट इति शेषः । तत16स्तृष्णया सार्थः प्रारब्धः । वाईलं च वर्षितुमारब्धम् । यत्र येषां मध्ये सोऽभागधेयो भिक्षुस्तत्र न वर्ष पतति । ततः 'द्विक-त्रिकादिना' द्विधा त्रिधादिना प्रकारेण सार्थस्य भेदः कृतः । तस्मिंश्च कृते यत्र स भिक्षुर्नास्ति तत्र सर्वत्र वर्ष पतति, तस्योपरि न पततीति । अयं दृष्टान्तः । अथार्थोपनयः-यथा स भिक्षुः पञ्चशतिकस्यापि सार्थस्य पुण्यान्युपहतवान् एवमन्येऽप्येवंविधा अपरेषां लब्धिमतामपि खखकर्मक्षयोपशमसमुत्यां लब्धिमुपनन्तीति ॥ ७४२ ।। 30 अथासौ कथं वस्त्राण्युत्पादयति ? इत्युच्यते भिक्खं वा वि अडतो, बिईय पढमाएँ अहव सव्वासु । सहिओ व असहिओ वा, उप्पाए वा पभावे वा ॥ ७४३ ॥ भिक्षामटन् वस्त्राण्युत्पादयति । वाशब्दो वक्ष्यमाणपक्षापेक्षया विभाषायाम् । अपिशब्दः सम्भावनायाम् , सम्भाव्यते अयमपि प्रकार इति । अथ न शक्नोति युगपद् भिक्षामप्यटितुं 25 वस्त्राण्यप्युत्पादयितुम् , व्यतिक्रामति वा वेला भैक्षस्य वस्त्राण्युत्पादयतः, भिक्षां वा अटद्भिर्न प्राप्यन्ते वस्त्राणीत्यादिना कारणेन द्वितीयायां पौरुष्यामनुयोगग्रहणं हापयित्वा वस्त्राण्युत्पाद १णा-पात्रैषणाघध्ययनस्य सूत्रार्थमुत्सारकल्पकरणेन लेशोदेशतो प्राहितः त. ॥ २ इत्यादि अत्रो भा०॥३ अत आह-भिक्खु विह भा० त० विना ॥ ४ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० त० पुस्तकयोरेव ॥ ५ पडइ, अन्नत्थ सव्वत्थ पडइ । एवं भा० ॥ ६: °स्स भग्गे उव. भा. चौँ च ॥ ७'त्ति मार्गमटवीं प्रवि. भा०॥ ८ घन्तीति । न चैतद दृष्टान्तेनोच्यते, कर्मक्षय-क्षयोपशमादीनां द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भवसव्यपेक्षतया तत्र तत्र प्रदेशे प्रतिपादनात् ॥७४२॥ त०॥ ९ खाण्यप्युत्पा मो०॥ १० कारः कदादिपीति । अथभा०॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७४२-४६] पीठिका। २३१ येत् । अथ तदा न लभेत बही वा हिण्डिः कर्तव्यों सा च द्वितीयस्यां पौरुष्यां कर्तुं न पार्यते इत्यतः प्रथमायामप्युत्पादयेत् । अथ बहवो गृहस्था द्रष्टव्या महता च कष्टेन ते श्रद्धां ग्राह्यन्ते ततो द्वयोरपि पौरुष्योः हा सर्वासु वा पौरुषीषु पर्यटति । यद्यपरे गीतार्थास्तस्य लब्धि नोपन्नन्ति तदा स तैः सहित एवोत्पादयेद् वा वस्त्राणि, प्रभावयेद् वा दानधर्म गृहिणां पुरतः । यथा-ईदृशः साधूनां धर्मः, न कल्पते अमीषां भगवतामुद्गमोत्पादनैषणादोषदुष्टं । पिण्ड-शय्या-वस्त्र-पात्रचतुष्टयं ग्रहीतुम् , तदमीषां वस्वादावुपयोज्यमाने महती कर्मनिर्जरेत्यादि । अथ ते गीतार्थास्तस्य लब्धिमुपहन्युस्ततस्तैः 'असहितोऽपि' एकाकी उत्पादयतु वा प्रभावयतु वा, न कश्चिद्दोषः ।। ७४३ ॥ इत्थं तावद् वस्त्रादीनां कल्पिको भवत्विति कृत्वा यथा आचार उत्सायते तथा प्रतिपादितम् । अथ दृष्टिवादो येन कारणेनोत्सार्यते तत् प्रतिपादयतिकालियसुआणुओगम्मि गंडियाणं समोयरणहेउं । : 10धिवादोउस्सारिंति सुविहिया, भूयावायं न अन्नेणं ।। ७४४ ॥ त्सारका रणानि इह यो धर्मकथालब्धिसम्पन्नः परमद्यापि खल्पपर्यायत्वाद् दृष्टिवादं पठितुमप्राप्तस्तस्य कालिकश्रुतानुयोगेन धर्मकथां कुर्वाणस्य गण्डिकाः-कुलकर-तीर्थकरगण्डिकादयो दृष्टिवादान्तर्गता उपयुज्यन्त इति तासां गण्डिकानां कालिकश्रुतानुयोगे समवतारणाहेतोरुद्देश-समुद्देशादिविधि विना न कल्पते तासामध्ययनादिकमिति कृत्वा 'सुविहिताः' शोभनविहितानुष्ठाना 15 आचार्याः 'भूतवादं दृष्टिवादमुत्सारयन्ति, न 'अन्येन' 'वाचको भूयात्' इत्यादिना कारणेन ॥७१४॥ तदेवमाचारो दृष्टिवादश्च यथोत्सार्यते तथाऽभिहितम् , बाहुल्येनानयोरेवोत्सारणीयत्वात् ; अत एवोक्तं पूर्वम्-"आयारदिट्टिवायत्थजाणए" (गा० ७३२) ति । अथ "कालमसज्झायऽवक्खेवे"ति (गा० ७३९) यत् प्राक् पदत्रयमुक्तं तत्राऽऽयं पदद्वयं तावद् विवृणोति 20 सज्झायमसज्झाए, सुद्धासुद्धे व उदिसे काले। दो दो अं अणोएसुं, ओएसु उ अंतिमं एकं ।। ७४५ ॥ एगंतरमायंबिल, विगईए मक्खियं पि वजेति । जावइअंच अहिजइ, तावइयं उद्दिसे केइ ॥ ७४६ ॥ तस्योत्सारकल्पे क्रियमाणे खाध्यायिके अखाध्यायिके वा शुद्धे अशुद्धे वा काले विव-26 १व्या ततः प्रथमा भा० त० विना ॥ २"अघ बहू पत्थितव्वया दुक्खं च लभति ताधे दोहिम्वि पोरिसीहिं सव्वाहि वा मग्गति" इति चूर्णिः॥ ३°त्पादयति वा [वस्त्राणि] प्रभावयति वा दानधर्म सविस्तरं गृहिणां भा०॥ ४ अन्नेसि ता० ॥ ५ श्रुतेन ध मो• ले. कां ॥ ६ डे० मो० ले. कां. विनाऽन्यत्र-'वाचको भूयाद्, गणिरयं भूयात्' इत्यादिना अपरेण कारणेन त । वाचकत्वादिना कारणेन भा० ॥ ७ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० त० पुस्तकयोरेव ॥ ८ यत् पूर्व सांन्यासिकं कृतमासीत् तदिदानीमवसरप्राप्तमभिधीयते भा० । "इदाणी जं तं हेहा भणितं "कालमसज्झाय वक्खेवे" एतं उवरि भणीहामि ति तं एताहे भण्णति" इति चूर्णिकृतः॥ ९तु ता० ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे अनुयोगाधिकारः क्षितश्रुतमुद्दिशेत् , “सर्व वाक्यं सावधारणं भवति" इति न्यायादुद्दिशेदेव, न व्याघातं कुर्यात् । केन विधिना ? इत्यत आह-"दो दो अ अणोएसुं"त्ति ओजःशब्देन विषममुच्यते, तद्विपरीता अनोजसः-समा द्वि-चतुः-पडादय उद्देशका यत्राध्ययने तत्र अनोजस्सु उद्देशकेषु दिने दिने द्वौ द्वावुद्देशकावुद्दिशेत् । कथम् ? इति चेद् उच्यते-प्रथमायां पौरुष्यां प्रथम6 मुद्देशकमुद्दिश्य समुद्दिश्य च द्वितीय उद्दिश्यते, द्वितीयस्यामुभयोरप्युद्देशकयोः तस्य अनुयोगो दीयते, ततश्चरमपौरुष्यां प्रथममुद्देशकमनुज्ञाय द्वितीयोद्देशकः समुद्दिश्यते अनुज्ञायते चेति चूर्णिलिखिता सामाचारी । तथा 'ओजैस्सु' त्रि-पञ्च-सप्तादिसङ्ख्याकेषु विषमेषूद्देशकेषु अन्तिममुद्देशकमेवोद्दिशेत् , यथा शस्त्रपरिज्ञाध्ययने । तथाहि-तत्र सप्तोद्देशकाः, तेषु च त्रिभि दिवसैः षडद्देशकानुद्दिश्य चतुर्थे दिवसे एक एव अवशिष्यमाणः सप्तम उद्देशक 10 उद्दिश्यते । स च प्रथमपौरुष्यामुद्दिश्य समुद्दिश्य चरमायामनुज्ञायते ॥ ७४५ ॥ तथा 'एकान्तरम्' एकदिवसान्तरितमाचाम्लमसौ करोति, एकस्मिन् दिवसे आचाम्लमप. रस्मिन्निर्विकृतिकं करोतीति भावः । तथा विकृत्या 'प्रक्षितमपि' खरण्टितमप्यसौ वर्जयति । केचित् पुनराचार्या ब्रुवते—'यावत्' यत्परिमाणं श्रुतमसावधीते ताव॑दुद्दिशेत् , यदि मेधावितया द्वे त्रीणि चत्वारि भूरितराणि वा अध्ययनान्यागमयति ततस्तानि सर्वाण्यप्युद्दिश्यन्ते, न 16 कश्चिद्दोष इति भावः ॥७४६॥ व्याख्यातं "कालमसज्झाय"त्ति पदद्वयम् । स अथ "अवक्खेवे"ति पदं विवृण्वन्नाह आहारे उवकरणे, पडिलेहण लेव खित्तपडिलेहा । अप्पाहारो परिहार मोअजह अप्पनिदो अ॥ ७४७ ॥ तस्योत्सारकल्पे कर्तुमारब्धे आहारग्रहणे उपकरणस्य प्रत्युपेक्षणे लेपग्रहणे क्षेत्रप्रत्युपेक्षायां २८ च व्याक्षेपो न कर्तव्यः । अल्पाहारश्च यथा स भवति तथा कार्यम् । 'परिहारः' संज्ञा 'मोकः' कायिकी तयोः खल्पताऽल्पाहारतायां भवति । यथा चाऽसावल्पनिद्रो भवति तथा कर्तव्यमिति । एषा सङ्ग्रहगाथा ॥ ७४७ ॥ अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति हिंडार्विति न वा णं, अहवा अन्नहया न सो अडइ । पेहिंति व से उवहिं, पेहेइ व सो न अन्नेसि ॥ ७४८ ॥ १॥ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः डे० त० पुस्तकयोरेव ॥ २परीतमनोजः सममित्यर्थः, ततो अनोजसः भा० त० ॥ ३°यने तदनोजः, यथेदमेव कल्पाध्ययनं षडुद्देशकात्मकम् , तेषु अनोजस्सु अध्ययनेषु (उद्देशकेषु) दिने भा० ॥ ४ "दो दो उ अणोएसु"न्ति । अणोया णाम समा उद्देसया, जधा कप्पस्स, तस्स दिणे दिणे दो दो उद्देसया उदिस्संति, पढमपोरिसीए एगो उद्दिट्टो समुद्दिट्टो य, ताघे बितियं उद्दिसति, बितियपोरिसीए तेसिं चेव सो अत्थो कधिजति, चरिमपोरिसीए तं पढमं अणुयाणित्ता बितियं समुद्दिसति अणुयाणति य" इति चूर्णिः॥ ५'ओजस्सु' विषमोद्देशकनिबद्धष्वध्ययनेषु 'अन्तिमं चरममद्देशकमेकमेवोद्दिशेत् । इयमत्र भावना-यत्राध्ययने त्रि-पञ्च-सप्तादिसयाका विषमा उद्देशकास्तद् ओजःसंज्ञितं द्रष्टव्यम्, यथा शस्त्रपरिशाध्ययनं सप्तोद्देशकसङ्ख्याकम्, तत्र च त्रिभिर्दिवसैः भा० ॥ ६°वत् प्रभूतमप्युद्दिशेत् त०॥ ७ यद्यपि मेधा भा० ॥ ८ तथाऽपि तानि भा० ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ७४७-५१] पीठिका। २३३ "गं" इति तमुत्सारकल्पिकमाचार्या भिक्षां न हिण्डापयन्ति । वाशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् संस्तरणे सतीति द्रष्टव्यम् । यदि पुनरसंस्तरणं तदा, 'अथवा' इति संस्तरणापेक्षयाऽसंस्तरणस्य प्रकारान्तरताद्योतकः, 'अन्यार्थम्' अन्येषाम्-आचार्य-ग्लान-बाल-वृद्धादीनामर्थाय नासावुत्सारकल्पिकः पर्यटति, यावन्मात्रमाहारमात्मना भुले तावन्मात्रमेवाऽऽनयतीत्यर्थः। तथा 'प्रेक्षन्ते वा' प्रत्युपेक्षन्ते "से" तस्य-उत्सारकल्पिकस्योपधिं शेषसाधवः । 'स वा' उत्सारकल्पिको न 'अन्येषाम्' आचार्य-क्षपकादीनामुपधिं प्रत्युपेक्षते । सर्वत्र ‘मा भूदध्ययनव्याघातः' इति योज्यम् ॥ ७४८॥ एमेव लेवगहणं, लिंपइ वा अप्पणो न अन्नस्स । खेत्तं च न पेहावे, न यावि तेसोवहिं पेहे ॥ ७४९ ॥ एवमेव लेपग्रहणम् उपलक्षणत्वाद् लेपनमपि पात्रस्य तस्य निमित्तमन्यैः साधुभिः कर्त- 10 व्यम् । अथ शेषसाधवः कुतोऽपि हेतोः अक्षणिकास्ततः स आत्मन एव पात्राणि लिम्पति नान्यस्य साधोः । क्षेत्रं चै तेन 'न प्रेक्षापयेत्' क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ तं न प्रहिणुयादित्यर्थः । न चाप्यसावुत्सारकल्पिकः 'तेषां' क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाणामुपधिं प्रत्युपेक्षेत ॥ ७४९ ॥ दिति पणीयाहारं, न य बहुगं मा हु जग्गतोऽजिण्णं । मोआइनिसग्गेसु अ, बहुसो मा होज पलिमंथो ॥ ७५०॥ 'प्रणीत' स्निग्ध-मधुरमाहारं परमान्न-शर्करादिकं तस्य गुरवः प्रयच्छन्ति, स सुखेनैवाहनिशमपि दृष्टिवादादिसूत्रार्थानुप्रेक्षानिमित्तमिति भावः । तमपि प्रणीतं 'न च' नैव बहुकं किन्तु खल्पम् , BF कुतः ? इत्याह-छा मा भूत् सूत्रार्थनिमित्तं रजन्यामपि जाग्रतोऽजीर्णमिति। रूक्षाहारभोजिनश्च 'बहुशः' बहून् वारान् 'मोकादिनिसर्गेषु च' प्रश्रवण-संज्ञादिव्युत्सर्गेषु विधीयमानेषु 'परिमन्थः' सूत्रार्थव्याघातो मा भूदिति कृत्वा प्रणीतं दीयते । अल्पा च निद्रा 20 खल्पप्रणीताहारमोजिनः प्रायो भवतीत्यल्पनिद्राद्वारमपि व्याख्यातमवसातव्यम् । इत्थमुत्सारकल्पे समापिते सति विवक्षितं वस्त्रोत्पादनादि कार्य पूर्वोक्तविधिना कार्यते ॥ ७५० ॥ तदेवं व्याख्यातमानुषङ्गिकमुत्सारकल्पिकद्वारम् । अथाचञ्चलद्वारम् । तत्राऽचञ्चलोऽनुयोगं श्रोतुमर्हति न चञ्चल इति चञ्चलखरूपं तावदाहगइ-ठाण-भास-भावे, लहुओ मासो उ होइ एकेके। 25 अचञ्चलआणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए ॥ ७५१ ॥ चञ्चलश्चतुर्की । तद्यथा-गतिचञ्चलः स्थानचञ्चलो भाषाचञ्चलो भावचञ्चलश्च । एतेषामेकैकस्मिन् लघुको मासः प्रायश्चित्तम् , आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना संयमे आत्मनि च । तत्र च संयमविराधना गतिचञ्चलस्य त्वरितं गच्छतः पृथिव्यादीनां कायानामुपमर्दनम् । आत्मविराधना प्रपतन-प्रस्खलन-देवताच्छलनादिका ।। यद्वा तं त्वरितगामिनं दृष्ट्वा द्वितीयः 30 १ रणस्य प्रका डे. मो० ले० ॥ २ च तं 'न प्रे डे० त० ॥ ३°निग्गमेसु अ ता० ॥ ४ तस्य आचार्याः 'ददति' प्रय° भा०॥ ५ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः डे० त० ॥ ६ पु मा भूत् 'परिमन्थः' सूत्रार्थव्याघातलक्षण इति प्रणीतं भा० ॥ ७°जिनो भव भा० विना ॥ ८ एतचिहान्तर्गतः पाठः डे० मो० ले. नास्ति ॥ बृ०३० द्वारम् Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति-स्था नचच्चलो भाषाचपलः २३४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकार साधुः प्रतिनोदनां दद्यात्-'किमेवं त्वरितं गच्छसि ? न कल्पते साधूनामेवं गन्तुम्' इत्याद्युक्ते प्रकोपनतया असङ्खडकरणेऽस्थिभङ्गादयो दोषाः । » एवं स्थानचञ्चलादिष्वप्युपयुज्य आत्म-संयमविराधने वक्तव्ये ॥ ७५१ ॥ अथ गति-स्थानचञ्चलौ तावदाह दावद्दविओ गइचंचलो उ ठाणचवलो इमो तिविहो । कुड्डादऽसई फुसइ व, भमइ व पाए व विच्छुभइ ॥ ७५२ ॥ इंह द्रवशब्दो द्रुतार्थवाचकः, ततः 'द्रावद्रविकः' नाम द्रुतद्रुतगामी स गतिचञ्चलो भण्यते । स्थानचञ्चलः पुनरयं त्रिविधः, तद्यथा-यो निषण्णः सन् पृष्ठ-बाहु-कर-चरणादिभिः कुड्यम् आदिशब्दात् स्तम्भादिकम् 'असकृद्' अनेकशः स्पृशति १, वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः, यो वा निषण्ण एवेतस्ततो भ्राम्यति २, पादौ वा 'विक्षिपति' पुनः पुनः 10 सङ्कोचयति प्रसारयति चेत्यर्थः ३ ।। ७५२ ॥ भाषाचपलमाह भासाचपलो चउहा, अस त्ति अलियं असोहणं वा वि । असभाजोग्गमसम्भ, अणूहिउं तं तु असमिक्खं ॥ ७५३ ॥ भाषाचपलश्चतुर्धा-असत्प्रलापी असभ्यप्रलापी असमीक्षितप्रलापी अदेशकालप्रलापी च । तत्रासत् प्रलपितुं शीलमस्येत्यसत्प्रलापी। अथासदिति कोऽर्थः ? इत्याह-असदिति 15 शब्देनालीकमशोभनं वाऽभिधीयते । तत्रालीकं साधुमसाधुं ब्रवीति, असाधु साधुमित्यादि । अशोभनं-गर्वादिदूषितं वचनम् । तथा असभायोग्यमसभ्यमभिधीयते, इह सभा-एकत्रोपविष्टशिष्टपुरुषसमुदायः, तथा चोक्तम् धम्म-ऽत्थसत्थकुसला, सभासया जत्थ सा सभा नाम । जा पुण अविहिपलुट्टा, बुहेहि सा भन्नए मेली ॥ 20 तस्याः सभाया योग्यं यद् वचनं तत् सभ्यम् , तद्विपरीतमसभ्यम् , तच्च 'दास ! चण्डाल !' इत्यादिकं जकार-मकारादिवाक्यरूपं वा, तत् प्रलपितुं शीलमस्येत्यसभ्यप्रलापी । 'अनूहित्वा' अविचार्य 'किमिदं पूर्वापरविरुद्धम् ? किं वा इह-परलोकबाधकम् ?' इत्यादि अविमृश्य यद् वदति तत्तु वचनमसमीक्षितमुच्यते, तत्प्रलपनशीलोऽसमीक्षितप्रलापी ॥ ७५३ ।। अथादेशकालपलापिनमाह कजविवत्तिं दटुं, भणाइ पुन्धि मए 3 विण्णायं । एवमिदं तु भविस्सइ, अदेसकालप्पलावी उ ॥ ७५४ ॥ १"दावद्दविओ" त्ति अगु[ण]करणशब्दोऽयम् , यो द्रुतं द्रुतं गमनशीलः स गतिचञ्चलो भण्यते । तुशब्दो भिचक्रमः, स चाग्रे योक्ष्यते । स्थानचश्चलः भा०॥ २°धः त्रिप्रकारः, तद्य कां० ॥ ३ एव हस्तादिकं समन्तात् “भमई"त्ति अन्तर्भूतण्यर्थत्वाद् भ्रामयति, यो वा उपविष्ट एव पादौ वा विक्षि भा० ॥ ४ 'त्यर्थः । एष त्रिविधोऽपि स्थानचञ्चलोऽभिधीयते ॥ ७५२ ॥ भा० ॥ ५यते। तत्र सभा भा० ॥ ६ तत्र ग्राम्यवचनं 'दासस्त्व चण्डालस्त्वम्' इत्यादि, तत् प्रल° भा० ॥ ७°रादि वा तत् मो० ले० । रादिकं वा तत् कां० ॥ ८ हु ता० ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव. चपलः भाष्यगाथाः ७५२-५६] पीठिका । २३५ 'कार्यविपत्ति' कार्यस्य विनाशं दृष्ट्वा कश्चिद् भणति, यथा-मया पूर्वमेव विज्ञातम् 'इदं कार्यमेवं भविष्यति' । यथा-केनचित् साधुना पात्रं लेपितम् , ततो रूढं सत् कुतोऽपि प्रमादतो भनम् , ततः कश्चिदात्मनो दक्षत्वं ख्यापयन् ब्रवीति-यदैवेदं परिकर्मयितुमारब्धं तदैव मया ज्ञातम् , यथा-'इदं निष्पन्नमपि भङ्ग्यते' । एष एवंविधः अदेशकाले-अनवसरे प्रलपनशीलोऽदेशकालप्रलापी ॥ ७५४ ॥ व्याख्यातश्चतुर्विघोऽपि भाषाचपलः । अथ भावचपलमाह जं जं सुयमत्थो वा, उद्दिष्टुं तस्स पारमप्पत्तो। अन्ननसुयदुमाणं, पल्लवगाही उ भावचलो ॥ ७५५ ॥ यद् यद् आवश्यक-दशवैकालिकादेर्ग्रन्थस्य 'श्रुतं' सूत्रमथों वा 'उद्दिष्टं प्रारब्धं 'तस्य' इत्यत्रापि वीप्सा गम्यते तस्य तस्य पारमप्राप्तः सन् 'अन्यान्यश्रुतद्रुमाणाम्' आचारादिरूपा-10 परापरशास्त्रतरूणां पल्लवान्-तन्मध्यगतालापक-श्लोक-गाथारूपान् सूत्रार्थलवान् खरुच्या ग्रहीतुं शीलमस्येति पल्लवग्राही, 'तुः' पुनरर्थे, य एवंविधः स पुनः 'भावचलः' भावचपलो मन्तव्यः ॥ ७५५ ॥ भवेत् कारणं येन चञ्चलत्वमपि कुर्यात् । किं पुनस्तत् ? इत्याह तेणे सावय ओसह, खित्ताई वाइ सेहवोसिरणे । आयरिय-बालमाई, तदुभयछेए य विइयपयं ॥ ७५६ ॥ 15 नभयेन श्वापदभयेन वा द्रुतमपि गच्छेद्, न दोषः । ग्लानो वा कश्चिदागाढस्तस्यौषधानयननिमित्तं शीघ्रमपि गच्छेद् न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् । “खित्ताइ"ति क्षिप्तचित्त आदिशब्दाद दृप्तचित्तो यक्षाविष्ट उन्मादप्राप्तश्च एते स्थानचञ्चलत्वमपि ॥ कुंड्यादिस्पर्शन-हस्तभ्रामणादिकं कुर्युः न च प्रायश्चित्तमामुयुः, अनात्मवशत्वाद् । “वाइ"ति वादिनो बुद्धिं परिभवितुमलीकमपि ब्रूयात्, यथा-रोहगुप्तेन पोशालपरिव्राजकमतिव्यामोहनार्थ जीवा अजीवा 20 नोजीवाश्चेति त्रयो राशयः स्थापिताः (ग्रन्थानम्-१५००)। तथा शैक्षस्य पण्डकादेर्युत्सर्जने विधेये तं निर्भर्त्सयन् असभ्यमपि भणेत् , येनोद्वेजितः खयमेव गणाद् निष्क्रम्य गच्छेत् । आचार्या वा कुतश्चित् प्रमादस्थानाद् नोपरमन्ते ततोऽदेशकालप्रलापित्वमपि कुर्यात् , यथाक्षमाश्रमणाः! अमुकः संयतोऽमुकश्च श्रावको मम पुरत इदं भणति, यथा-त्वदीया गुरवः आइत्यम्भूतांप्रमादप्रतिसेवनामासेवमाना अचिरादेव » पार्श्वस्थीभवन्तः सम्भाव्यन्ते; एतच्च मया 25 १ एषोऽदेशकालप्रलापी ॥ डे० त० विना ॥२ स्तेनाः प्रतीताः, श्वापदाः सिंह-व्याघ्रादयः, तेषां भयेन द्रुतं द्रुतमपि ग° भा०॥ ३N» एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० त०॥ ४ तथा शैक्षः पण्डकादिकः स व्युत्सर्जनीयो भवेत्, ततस्तस्य व्युत्सर्जने खर-परुनिर्भसंयन्नसभ्यमपि भणति, येनो भा० ॥ ५» एतच्चिहान्तर्गतः पाठः भा० त०॥ ६ पार्श्वस्थविहा. रिणो भविष्यन्ति; अत एव मया पूर्वमेव भवतां विज्ञप्तमभूत्, यथा-युष्माकमेवमाचरतां महानपयशःप्रवादः समुच्छलिष्यति, तत इदानी भा० । “आयरिया वा दोसेसु न उवरमंति, पच्छा अदेसकालपलावित्तणं पि करेजा, जह-अमुओ अमुओ अमुगं भणति तुभं, तेणं तो मए तुभ कहितं, जहा-अयसो होहिति पच्छा, तो तेण भणंतेण उवरमंति" इति Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः पूर्वमपि विज्ञातमासीत् , यथा-क्षमाश्रमणानामेवमाचरतामपवादो भविष्यति, तत इदानीमप्युपरमध्वं भगवन्तः ! एतस्मात् प्रमादस्थानात् ; » एवमुक्ते तेऽश्लोकभयेनैवोपरमन्ते । बालो वा केलि-कन्दर्पादिकं कुर्वाणो वार्यमाणोऽपि न निवर्त्तते ततोऽनूहितमपि यदपि तदपि भाषित्वा निवारणीयः, आदिग्रहणात् प्रत्यनीकादयो वा खर-परुषादिभाषणैरुपशमयितव्याः । तथा 6 'तदुभयच्छेदः' इति कस्याप्याचार्यस्यापूर्वं सूत्रमथों वा विद्यते तस्योभयस्यापि तत्पादिनधी यमानस्य व्यवच्छेदो भवति अतः पूर्वारब्धं शास्त्रमर्धपठितमपि मुक्त्वा तत् तदुभयमध्येतव्यमिति यथाक्रमं गति-स्थान-भाषा-भावचपलेषु चतुर्बपि द्वितीयपदमवसातव्यम् । एतद्गाथोक्तकारणाद् ये गतिचपलादयस्तद्विपरीता ये गति-स्थान-भाषा-भावैश्चतुर्भिरप्यचपलास्तेऽस्य कल्पा ध्ययनस्यानुयोगमहन्तीति ।। ७५६ ॥ 10 गतमचञ्चलद्वारम् । अथावस्थितद्वारम् । तत्रानवस्थितं तावदाहअवस्थित दुविहो लिंग विहारे, एकेको चेव होइ दुविहो उ । द्वारम् चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ ७५७ ॥ अनवस्थितो द्विविधः, तद्यथा-लिङ्गानवस्थितो विहारानवस्थितश्च । एकैकः पुनरपि द्विविधो भवति । तद् उभयमपि द्वैविध्यमनन्तरगाथायां वक्ष्यते । या चत्वारश्च मासाः 18 'अनुद्धाताः' गुरवः, उपलक्षणत्वाद् लघुमासादिकं चात्र प्रायश्चित्तं भवति । तच्च यथास्थानमेव भावयिष्यते । तत्रापि लिङ्गानवस्थित-विहारानवस्थितयोरुभयोरप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः ॥ ७५७ ॥ अथैनामेव गाथां व्याख्यानयतिलिङ्गान गिहिलिंग अन्नलिंगं, जो उ करेई स लिंगओ दुविहो । वस्थितचरणान चरणे गणे अ अथिरो, विहारअणवडिओ एस ॥ ७५८ ॥ वस्थिती 20 'गृहिलिङ्गं गृहस्थानां वेषम् 'अन्यलिङ्गम्' अन्यतीथिकानां नेपथ्यं यः' साधुः, तुशब्दो विशेषणे, किं विशिनष्टि ? दर्पण यो लिङ्गद्वयं करोति स एष लिङ्गतो द्विविधोऽनवस्थितः । अस्य च द्विविधस्यापि मूलम् । तथा चोलपट्टकं बनतः १ एकत उभयतो वा स्कन्धोपरि कल्पाञ्चलानामारोपणरूपं गरुडपाक्षिकं प्रावृण्वतः २ उत्तरासङ्गरूपम सन्यासं कुर्वतः ३ प्रत्येकं चत्वारो गुरुमासाः । द्वावपि बाहू छादयित्वा संयतीप्रावरणमातन्वानस्य चत्वारो 25 लघवः । कल्पेन शिरःस्थगनरूपां शीर्पद्वारिकां कुर्वतो मासलघु । चतुप्फलं मुत्कलं वा कल्पं स्कन्धोपरि कृत्वा गोपुच्छवदघोलम्बमानं कुर्वतो मासलघु । एतेऽपि लिङ्गानवस्थितेऽन्तर्भवन्ति । तथा 'चरणे' चारित्रे 'अस्थिरः' यः पुनः पुनश्चारित्रात् प्रतिपतति तस्य यदि सूत्रं ददाति १स एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० त० ॥ २ नादित्युक्ते ते भा० ॥ ३ तच्चोभयमपि तत्पाादनधीयमानं व्यवच्छिद्यत इति कृत्वा पूर्वारब्धं भा० ॥ ४ ततस्तदुभ° डे० ॥ ५°कारणकलापमन्तरेण ये गति मो० ले० विना ॥ ६ एकेको होइ दुविह दुविहो उ ता०॥ ७°था-लिङ्गे विहारे च, लिङ्गेनानवस्थितो विहारा(रेणा)नवस्थितश्चेत्यर्थः। एकै भा०॥ ८°त्वाद् 'उद्घातिकाश्च' लघुमासाश्च प्रायश्चित्तमत्र मन्तव्यम् । तच्च भा० ॥९°तत्तु यथा' दे० ॥ १० अथानन्तरोद्दिष्टं द्वैविध्यं दर्शयति भा० ॥ ११ °न्ति । “चरणे अ" इत्यादि। 'चरणे' भा०॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका | २३७ भाष्यगाथाः ७५७-६० ] तदा चतुर्लघु, अर्थं ददाति तदा चतुर्गुरु । 'गणे' गच्छे 'अस्थिरः' पुनः पुनर्गणाद् गणं सङ्कामति । एष द्विविधोऽपि विहारानवस्थितः । एतद्विपरीतस्य खलिङ्गावस्थितस्य संविग्नविहाराव - स्थितस्य च दातव्यम् । यदि न ददाति तदा तथैव सूत्रे चतुर्लघु, अर्थे चतुर्गुरु ॥ ७५८ ॥ गतमवस्थितद्वारम् । अथ मेघाविद्वारमाह उग्गहण धारणाए, मेराए चैव होइ मेधावी । तिविम्मि अहीकारो, मेरासंजुत्तो मेहावी ॥ ७५९ ॥ • मेधावी त्रिविधः, तद्यथा - अवग्रहणमेधावी सूत्रर्थग्रहणपटुप्रज्ञावान् १, धारणा - धावी पूर्वाधीतयोः प्रभूतयोरपि सूत्रार्थयोश्चिरमवधारणाँबुद्धिमान् २, मर्यादामेधावी चरण-करणप्रवणमतिमान् ३ । एभिस्त्रिभिः पदैरष्टौ भङ्गाः, तद्यथा — ग्रहणमेधावी धारणामेधावी मर्यादामेधावी १ ग्रहणमेधावी धारणामेधावी अमर्यादामेधावी २ इत्यादि । इह च यत्र यत्र भने 10 मर्यादामेधावी न भवति तत्र तत्र न दातव्यम्, यदि ददाति तदा प्रायश्चित्तम् । तत्र यदि पार्श्वस्थादिभ्यः सूत्रमर्थं वा ददाति तदा चत्वारो लघवः यथाच्छन्देभ्यः प्रददाति चत्वारो गुरुमासाः। “तिविहम्मि अहीगारो” त्ति मर्यादामेधाविनो ग्रहण - धारणामेघाभ्यां सम्पन्नस्यासम्पन्नस्य वा दातव्यम्, मर्यादा विकलयोरितरयोर्न दातव्यमिति त्रिविधेनापि दाना- Sदान रूपतया यथायोगमत्राधिकार इति । गाथायां तृतीयार्थे सप्तमी । अथ मर्यादामेधाविनो व्युत्पत्ति - 15 माह - " मेरा संजुत्तो मेहावि" त्ति मेरा - मर्यादा तत्संयुक्तो मेधावी मर्यादामेधावी, शाकपार्थिवादिवद् मध्यपदलोपी समासः ॥ ७५९ ॥ गतं मेघाविद्वारम् । अथापरिश्राविद्वारमाहपरिसाइ अपरिसाई, दव्वे भावे य लोग उत्तरिए । raat वियदुविहो, अमच्च बडुईऍ दिट्ठतो ॥ ७६० ॥ - परिश्रवितुं शीलमस्येति परिश्रावी, तद्विपरीतोऽपरिश्रावी । उभावपि द्विविधौ – द्रव्ये भावे 20 च । तत्र द्रव्यतः परिश्रावी घटादिः, अपरिश्रावी तुम्बकादि । भावतः परिश्रावी अपरिश्रावी च। एकैकोऽपि द्विविधः, तद्यथा - " लोग" त्ति लौकिकः "उत्तरिए" त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् लोकोत्तरिकः । तत्र लौकिके भावतः परिश्राविणि अमात्यदृष्टान्तः । स चायम् लौकिकस्य भावपरि एगो राया । तस्स कन्ना गद्दभस जारिसा । सो निचं खोलाए अमुक्कियाए अच्छइ । सो अन्ना अमचेणं एगंते पुच्छिओ-किं तुभे भट्टारयपादा ! खोलाए आविद्धियाए ॐ श्राविणोऽअच्छह ? न कस्सइ सीसं कन्ना य दरिसेह ? । रन्ना सम्भावो कहिओ, भणियं च मा मात्यस्य रहस्सभेयं काहिसि त्ति । तेण अगंभीरयाए तं रहस्सं अणहियासमाणेण अडविं गंतुं रुक्खको दृष्टान्तः ट्टरे मुहं छोडूणं भणियं—गद्दभकन्नो राया, गद्दभकन्नो राया । तं रुक्खं अन्नेण केणइ छेत्तुं बादित्रं कृतं । भवियत्रयावसेण य तं रन्नो पुरओ पढमं वाइयं । तं वज्जंतं भणइ - गद्दभकन्नो राया, गद्दभकन्नो रायाः । रन्ना अमच्चो पुच्छिओ - तुमे परं एयं रहस्सं नायं, कस्स ते 30 १ एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः डे० त० ॥ २ 'त्रार्थावबोधपटुप्रतिभासम्पन्नः १, धार' भा० ॥ ३ णाशक्तिमान् २ भा० ॥ ४ ° रणोद्युक्तः ३, मर्यादा सीमा चारित्रमित्यनर्थान्तरत्वात् । अत्र च त्रिभिः पदैरष्टौ भा० ५ अत्र च भा० ॥ ६ 'स्स सारि' मो० ॥ ॥ 6 मेधावि द्वारम् अपरिश्राविद्वारम् Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्तः २३८ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः कहियं । अमच्चेण जहावत्तं सिटुं । एस लोइओ परिस्सावी ॥ लोउत्तरिओ जो अणहियासमाणो पुच्छिओ वा अपुच्छिओ वा अपरिणयाणं अववायपयाणि सराहस्सियाणि » कहेइ ।। ईदृशस्य परिश्राविणः सूत्रं ददाति चत्वारो लघवः, अर्थ ददाति चत्वारो गुरवः। यत 5 एवं ततोऽपरिश्राविणो दातव्यम् । सोऽपि द्विधा-लौकिको लोकोत्तरिकश्च । तत्र लौकिकेऽ परिश्राविणि बटुक्या दृष्टान्तः । स चायम्भावतो राया सिट्ठी अमञ्चो आरक्खिओ मूलदेवो य एकाए पुरोहियभज्जाए बड्डइणीए अईवलौकिका ____ स्वस्सिणीए अज्झोववन्ना । ताए सवेसि संकेअओ दिनो । ते आगया, दुवारे ठिया । ताए परिश्राविणि भन्नति-जइ महिलारहस्सं जाणह तो पविसह । ते भणंति—न याणामो। मूलदेवेण बटुक्या 10 भणियं-अहं जाणामि । तीए भणियं-पविसह ति । पविट्ठो । पुच्छिओ-किं महिला रहस्सं ? । तेण भणियं-मारिजंतेहि वि अन्नस्स न कहेयवं । त्वं विदग्धः कामुकः । तुहाए सवरतिं रामिओ। पभाए रन्ना पुच्छिओ मूलदेवो-किं महिलारहस्सं ? । मूलदेवो भणइ-अहं एअं उल्लावं पि न याणामि । रन्ना 'अवलवई' ति वज्झो आणतो तह वि न कहेइ । ताहे धिज्जाइणीए आगंतुं रन्नो पुरतो कहियं, जहा-ए चेव महिलारहस्सं जं 15 सरीरच्चाए वि न कस्सइ सीसइ ति । एस लोइओ अपरिस्सावी ॥ लोउत्तरिओ पुण जो छेअसुअस्स राहस्सियाणि अववायपयाणि सुणेत्ता उडिओ, तओ जइ कोइ अपरिणओ पुच्छइ-किं एयं कहिज्जइ ? । भणइ-चरण-करणं साहूणं वन्निजइ ।। ईदृशस्यापरिश्राविणो यदि सूत्रं न ददाति तदा चतुर्लघु, अर्थ न ददाति चतुर्गुरु ।। ७६० ॥ अथ "यश्च विद्वान्" इति द्वारमाह20 विदु जाणए विणीए, उववाए जो उ वट्टए गुरुणं । तविवरीयविणीए, अदित दिंते अ लहु-गुरुगा ॥७६१॥ "विदंक् ज्ञाने" इत्यस्य धातोर्वेत्ति-जानातीति व्युत्पत्त्या विद्वान् ज्ञायक उच्यते, स चेहाभ्युत्थाना-ऽऽसनप्रदानादिरूपस्य विनयस्य विज्ञाता ग्राह्यः, न केवलं ज्ञायकः किन्तु 'विनीतः' यथावसरमभ्युत्थानादिविनयप्रयोक्ता, तथा 'उपपाते' आज्ञानिदेशे गुरूणां 'यस्तु' 25 यः पुनर्वते तस्य सूत्रं न ददाति चतुर्लघु, अर्थ न ददाति चतुर्गुरु । तथा तस्य-विदुषो विपरीतस्तद्विपरीतस्तस्य विनयखरूपमजानत इत्यर्थः "विणीए" ति अकारप्रश्लेषाद् अविनीतस्य च सूत्रं ददाति चतुर्लघु, अर्थ ददाति चतुर्गुरु ॥ ७६१ ॥ __ गतं "यश्च विद्वान्" इति द्वारम् । अथ "पत्ते य" ति द्वारम्-अत्र च तिसो व्याख्याः , तद्यथा-पात्रमेवानुयोगं श्रोतुमर्हति नापात्रमिति प्रथमा, प्राप्त एवानुयोगश्रवणं कारयितव्यो 30 नाप्राप्त इति द्वितीया, व्यक्त एवानुयोगं श्रावणीयो नाव्यक्त इति तृतीया, अस्यां च तृतीयव्याख्यायां “वते य" ति पाठो द्रष्टव्यः । अथामूनेव व्याचिख्यासुराह तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अ दुब्बलचरित्ते । १ - एतदन्तर्गतः पाठः त० पुस्तक एव ॥ २ उचिट्ठती गु. ता.॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिकः भाष्यगाथाः ७६१-६५] पीठिका । २३९ आयरियपारिभासी, वामाव? य पिसुणे य ॥ ७६२ ॥ आदीअदिट्ठभावे, अकडसमायारि तरुणधम्मे य । गविय पइण्णे निण्हइ, छेअसुए वजए अत्थं ॥ ७६३ ।। तिन्तिणिकश्चलचित्तो गाणङ्गणिकश्च दुर्बलचारित्रः आचार्यपरिभाषी आचार्यपरिभावी वा वामावर्तश्च पिशुनश्च "आदीअदिट्ठभावे" ति आदौ-आवश्यकादिशास्त्रेषु वर्तमाना अदृष्टा भावा येन स आद्यदृष्टभावः, तथा अकृतसामाचारीकः तरुणधर्मा च गर्वितः "पइण्ण" ति प्रकीर्णप्रश्नः प्रकीर्णविद्यश्च "निण्हइ" ति गुरुनिहवी एतेषां छेदश्रुतविषयमर्थ वर्जयेत्, न दद्यादित्यर्थ इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः ।। ७६२ ।। ७६३ ॥ व्यासार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतस्तिन्तिणिकद्वारं व्याचष्टेडझंतं तिंबुरुदारुयं व दिवसं पि जो तिडितिडेइ । 10तिन्तिअह दव्वतिंतिणो भावओ उ आहारुवहि-सेजा।। ७६४ ॥ 'तिम्बुरुकदारुकं' तिम्बुरुकवृक्षकाष्ठमनौ प्रक्षिप्तं दह्यमानं सद् यथा त्रटनटिति कुर्वदास्ते, एवं यो गुर्वादिभिः खरण्टितः सम्पूर्णमपि दिवसं “तिडितिडेइ" ति अनुकरणशब्दत्वात् 'बटघटायते' मम सम्मुखमिदमिदं च जल्पितमेभिरिति ऋषन्नास्ते इति भावः । अथैष द्रव्यतिन्तिणिकः । भावतस्तु तिन्तिणिकः त्रिविधः, तद्यथा-आहारे उपधौ शय्यायां चेति । पुन-15 रेकैको द्विविधः-अन्तःसंयोजनया बहिःसंयोजनया च ।। ७६४ ॥ तत्रोभयथाऽप्याहारतिन्तिणिकं तावदाह अंतो-बहिसंजोअण, आहारे पाहि खीर-दधिमाई । अंतो उ होइ तिविहा, भायण हत्थे मुहे चेव ॥ ७६५॥ आहारविषया संयोजना द्विविधा-अन्तर्बहिश्च । तत्र बहिस्तावद् भाव्यते-कश्चित् 30 साधुर्भिक्षामटन क्षीरं वा दघि वा लब्ध्वा रसगृनुतया कलमशालिप्रभृतिकमोदनं चिरगोचरचर्याकरणेनाप्युत्पाद्य यत् तेनैव क्षीरादिना सार्धमुपाश्रयाद् बहिः संयोजयति, आदिशब्दात् परमान्नादिकं वा लब्ध्वा घृत-खण्डादिना बहिरेव स्थितः सन् यद् योजयति एषा बहिःसंयोजना । अन्तस्तु प्रतिश्रयाभ्यन्तरे पुनः संयोजना त्रिविधा भवति, तद्यथा-भाजने हस्ते मुखे चैव । तत्र भाजनविषया यत्र भाजने कलमशाल्योदनस्तत्र दुग्ध-दध्यादि प्रक्षिपति । हस्त-25 विषया मण्डक-पूपलिकादिना गुड-शर्करादि हस्तस्थितं वेष्टयित्वा मुखे प्रक्षिपति । मुखविषया पूर्व मण्डकादि मुखे प्रक्षिप्य ततः शर्करा-खण्डादि प्रक्षिपति । एवंविधां द्विविधामप्याहारसंयोजनां लोभाभिभूततया कुर्वन् यदा यदा संयोजनीयवस्तुयोगं न लभते तदा तदा तिन्तिणिकत्वं करोतीत्याहारतिन्तिणिक उच्यते ।। ७६५ ।। गत आहारतिन्तिणिकः । साम्प्रतमुपधि-शय्यातिन्तिणिकावतिदिशति-- १°यारिए तरुणधम्मे । ता० ॥२ °णपण्हे, छेयसुयं व ता. ॥३°ति झष भा० कां ॥ ४°ध्यादिकं प्रक्षिप्य तदुभयमपि संयोजयति। हस्त° भा०॥५°दिकं ह° भा० ॥६०दिक मु भा०॥ ७°दिकं प्रभा०॥ ८ अथोपधि-शय्या भा० विना ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः एमेव उवहि सेन्जा, गुणोवगारी उ जस्स जं होइ।। सो तेण जोययंतो, तदभावे तिंतिणो होइ॥७६६ ॥ एवमेवोपधि-शय्ययोरपि संयोजनाया भावना कार्या । सा चेयम्-उपधिसंयोजना द्विविधा-बहिरन्तश्च । तत्र बहिःसंयोजना उत्कृष्टं कल्पं लब्ध्वा चोलपट्टकमपि उत्कृष्टमुत्पा• दयति, और्णिकं वा कल्पं सुन्दरं लब्ध्वा तदनुरूपमेव सौत्रिकमुत्पादयति, उत्पाद्य च तदुभयपरिभोगेन संयोजयति ।जा अन्तःसंयोजना पुनर्विभूषार्थ श्वेतकम्बल्यां कृष्णदवरकसीवनिकां ददाति इत्यादि । शय्या-प्रतिश्रयस्तस्य संयोजनाऽपि द्विविधा-बहिरन्तश्च । तत्र बहिःसंयोजना अकपाटमुपाश्रयं लब्ध्वा कपाटाभ्यां संयोजयति । अन्तःसंयोजना शोभायं प्रतिश्रयं गोमय-मृदादिना लिम्पति सेटिकया वा धवलयति । अथवा शय्याशब्देन संस्तारक उच्यते, ततश्च 10 सुन्दरतरं संस्तारकं लब्ध्वा यद् उत्तरपट्टमपि तदनुरूपमुत्पाद्य परिभुते सा बहिःसंयोजना । यत् पुनः सुकुमारस्पर्शार्थ विभूषार्थ वा सुन्दरया भल्या संस्तारकं प्रस्तृणाति सा अन्तःसंयोजना । तदेवं यद् उपध्यादिकं 'यस्य' साधोः 'गुणोपकारि' विभूषादिगुणोपयोगि भवति सः 'तेन' विवक्षितेन वस्तुना सार्द्ध तदेव वस्तु 'योजयन्' मीलयन् 'तदभावे' विवक्षितवस्तुयोगाभावे 'तिन्तिणिको भवति' 'हा! नास्त्यमुकं वस्तु अत्र स्थण्डिलप्राये सन्निवेशे' इत्यादि जल्पती त्यर्थः ॥ ७६६ ॥ गतं तिन्तिणिकद्वारम् । अथ चलचित्तद्वारमतिदेशेनैवाहचलचित्तः चलचित्तो भावचलो, उस्सग्गज्ववायतो उ जो पुदि । भणितो सो चेव इहं, गाणंगणियं अतो वोच्छं ॥ ७६७ ॥ चलचित्त इह 'भावचलः' अपरापरशास्त्रपल्लवग्राही गृह्यते । स च उत्सर्गतोऽपवादतश्च यः पूर्वमचञ्चलद्वारे (गा० ७५५) भणितः स एवेहापि भणितव्यः । गाणङ्गणिकमत ऊर्ध्व 20 वक्ष्ये ॥ ७६७ ॥ तमेवाह छम्मास अपूरिता, गुरुमा बारससमासु चउलहुगा । णिकः तेण परं मासलहू, गाणंगणि कारणे भइतो ॥ ७६८॥ उपसम्पन्नः साधुः कारणाभावे षण्मासान् अपूरयित्वा यथेकस्माद् गणाद् अपरं गणं सक्रामति तदा तस्य चत्वारो गुरुकाः । षण्मास्याः परतो यावद् द्वादश समाः-वर्षाणि ता अपूरयित्वा 96 गच्छतश्चतुर्लघुकाः । ततः परं-द्वादशभ्यो वर्षेभ्य ऊर्द्ध निष्कारणं गणाद् गणं सङ्क्रामतो मासलघु । "गाणंगणि" ति भावप्रधानो निर्देशः, ततो गाणङ्गणिकत्वं 'कारणे' ज्ञान-दर्शनचारित्राणामन्यतरस्मिन् पुष्टालम्बने समुत्पन्ने 'भाज्यं सेवनीयम् । किमुक्तं भवति ?-कारणे मध्येद्वादशवर्षमन्तःषण्मासं वा गणाद् गणं सङ्क्रामन्नपि न प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ ७६८॥ गतं गाणङ्गणिकद्वारम् । सम्प्रति दुर्बलचारित्रद्वारमाह30 मूलगुण उत्तरगुणे, पडिसेवइ पणगमाइ जा चरिमं । १ यद् आहारोपध्यादिकं यस्य साधोः 'गुणोपकारि' सुखादतादिगुणोपयोगि भा० ॥ २°त्यादि परिदेक्नां करोतीत्यर्थः ॥ ७६६ ॥ व्याख्यातत्रिविधोऽपि भावतिन्तिणिकः, ततश्चावसितं] तिन्तिणिक° भा० ॥ गाण दुबलचारित्रः 30 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७६६–७१ ] पीठिका | धि-वीरियपरिहीणो, दुब्बलचरणो अणट्ठाए ॥ ७६९ ॥ मूलगुणोत्तरगुणविषयानपराधान् यः प्रतिसेवते । कथम् ? इत्याह – 'पञ्चकादि यावच्चरमम्' इह पञ्चकशब्देन यत्र प्रतिसेविते रात्रिन्दिवपञ्चकमापद्यते स सर्वजघन्यश्चरणापराधः परिगृह्यते, आदिशब्दाद् दशरात्रिन्दिवादिप्रायश्चित्तस्थानानि यावत् चरमं सर्वोत्कृष्टचरणापरा - धलक्षणं पाराञ्चिकप्रायश्चित्तस्थानमिति । कथम्भूतः सन् प्रतिसेवते ? इत्याह 'धृति - वीर्यपरि - 6 हीणः' मानसिकावष्टम्भबलरहितः असौ, न खल्वनीदृशश्वरण -करण विषयभूतान्यपराधपदान्यासेवितुमुत्सहते । D. सोऽपि यदि पुंष्टालम्बनतः प्रतिसेवते ततो न दोषभाग् भवेदित्याह"अणट्टाए" त्ति अर्थः- दर्शन - ज्ञानादिकं प्रयोजनं तदभावोऽनर्थं तेन यः प्रतिसेवते स एष दुर्बलचरणः ॥ ७६९ ॥ एवंविधस्य च्छेदश्रुतार्थदाने दोषबाहुल्यख्यापनार्थमिदमाह - पंचमहव्वयभेदो, छक्कायवहो अ तेणऽणुन्नाओ । २४१ सुहसील- वियत्ताणं, कहेह जो पवयणरहस्तं ॥ ७७० ॥ 'तेन' आचार्येण पञ्चमहाव्रतभेदः षट्कायवधश्वानुज्ञातः, यः 'सुखशीला - ऽव्यक्तान' सुखं - शरीरशुश्रूषादिकं शीलयन्तीति सुखशीलाः - पार्श्वस्थादयः, अव्यक्ताः श्रुतेन वयसा च, सुखशीलाश्चाव्यक्ताश्चेति द्वन्द्वस्तेषामिति चूर्णिकृतोऽभिप्रायः । निशीथचूर्णिकृतः पुर्नरयम् — सुखे - शरीरसौख्ये शीलं - स्वभावो व्यक्तः - परिस्पष्टो येषां ते सुखशीलव्यक्तास्तेषाम्, यद्वा 15 सुखं-मोक्षसौख्यं तद्विषयं यत् शीलं - मूलोत्तरगुणानुष्ठानं ततो विगतो यल:- उद्यम आत्मा वा येषां ते सुखशीलवियत्नाः सुखशीलव्यात्मानो वा तेषाम् उभयत्रापि पार्श्वस्थादीनामित्यर्थः । 'प्रवचनरहस्यं' छेदग्रन्थार्थतत्त्वं कथयति ॥ ७७० ॥ कथं पुनस्तेन पञ्चमहाव्रतभेदः षट्कायवधश्चानुज्ञातो भवति ? इति उच्यतेनिस्साणपदं पीes, अनिस्साणविहारयं न रोएइ । तं जाण मंदधम्मं, इहलोगगवेसगं समणं ॥ ७७१ ॥ निश्रीयते—मन्दश्रद्धाकैरासेव्यत इति निश्राणं तच्च तत् पदं च निश्राणपदम् - अपवादपदमित्यर्थः, तदेव यः ' स्पृहयति' रुचिपदमवतारयति, अनिश्राणविहारितां तु न रोचयति, तमेवंविघं श्रमणं जानीहि मन्दधर्माणं 'इहलोकगवेषकं' मनोज्ञभक्त - पानाद्युपभोगेन केवलस्यैवेह - लोकस्य चिन्तकं परलोकपराङ्मुखम् । एवंविधस्य च प्रवचनरहस्यप्रदाने विशेषतः पञ्चमहा- 25 व्रतभेदः षट्कायवधश्च भवतीति युक्तमुक्तं "तेनानुज्ञातः” इति ॥ ७७१ ॥ गतं दुर्बलचारित्रद्वारम् । अथाऽऽचार्यपरिभाविद्वारमाह १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० कां० ॥ २ "सुखं शीलं भजतीति सुखशीलं काङ्क्षतीत्यर्थः, न व्यक्तोऽव्यक्तः श्रुतेन वयसा चेत्यर्थः ।” इति चूर्णिपाठः ॥ ३ कृतो व्याख्यानम् । निशी भा० 'कृतः । निशी' डे० ॥ ४ नरिदम् - सुखे - सुखविषयं शीलं व्यक्तं - परिस्पष्टं सर्वजनप्रत्यक्षं येषां भा० ॥ ५ ० विनाऽन्यत्र - तद् यः स्पृहयति, तदेवैकं रोचयतीति भावः, अनि भा० । तदेव यः स्पृहयति अनि° डे० मो० ले० कां० ॥ ६ 'मन्दधर्माणं' तुच्छधर्मश्रद्धाकं 'इह भा० ॥ बृ० ३१ 10 20 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यपरिभावी वामावर्त्तः पिशुनः सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे डहरों अकुलीणो त्तिय, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि त्ति । अवि अप्पलाभली, सीसो परिभवइ आयरियं ॥ ७७२ ॥ कश्चित् कुशिप्यः सूचया असूचया वा आचार्यं परिभवति । सूचा नाम स्वव्यपदेशेन परखरूपसूचनम्, यथा कोऽपि वयःपरिणतः साधुर्बालकमाचार्यं ब्रवीति — अद्यापि 'डहरा : ' 5 बालका वयम्, किं नामास्माकमाचार्यपदस्य योग्यत्वम् ? इति । असूचा स्फुटमेव परदोषोद्धनम्, यथा--- भो आचार्य ! त्वं तावदद्यापि "डहरो" मुग्धः क्षीरकण्ठो वर्तसे, अतः कीदृशं भवत आचार्यत्वम् ? इति । योऽकुलीन आचार्यस्तमुद्दिश्य भणति – अहो ! उत्तमकुलसम्भूता अमी योग्या एवाऽऽचार्यपदस्य, वयं तु हीनकुलोत्पन्नाः, कुतोऽस्माकं सूरिपदयोग्यता ? | यद्वा धिक् कष्टं यदकुलीनोऽप्ययमाचार्यपदे निवेशित इति । तथा 'दुर्मेधाः ' मन्द10 प्रज्ञः 'द्रमकः' नाम दरिद्रो भूत्वा यः प्रत्रजितः 'मन्दबुद्धिः ' खल्पमतिः । अपिः सम्भावनायाम्, सम्भाव्यते कुतोऽपि कारणादेवंविधोऽप्याचार्य इति । अल्पा- तुच्छा वस्त्र - पात्रादिलाभे लब्धिर्यस्य सोऽल्पलाभलब्धिः । एतानप्येवमेव सूचया असूचया च परिभवति ॥ ७७२ ॥ अथ शिष्यपदं व्याचष्टे २४२ 15 सोविय सीसो दुविहो, पव्वावियगो अ सिक्खओ चेव । सो सिक्ख अतिविहो, सुत्ते अत्थे तदुभए य ॥ ७७३ ॥ यः शिष्यो गुरून् परिभवति सोऽपि च द्विविधः - प्रत्राजितकश्च शिक्षकश्चैव । यस्तेनैव परिभूयमानगुरुणा दीक्षां ग्राहितः स प्रत्राजितकः । शिक्षकस्तु गच्छान्तरादध्ययनार्थमागतः । स च शिक्षकस्त्रिविध:--सूत्रेऽर्थे तदुभये च सूत्रग्राहकोऽर्थग्राहकस्तदुभयग्राहकश्चेत्यर्थः ॥ ७७३ ॥ गतमाचार्यपरिभाविद्वारम् । सम्प्रति वामावर्त्तद्वारमाह 20 [ अनुयोगाधिकारः एहि भणिओ उ वच्चर, वच्चसु भणिओ दुतं समल्लिया । जं जह भण्णति तं तह, अकरेंतो वामवट्टो उ ॥ ७७४ ॥ यः शिष्यः 'एहि' आगच्छेति भणितः सन् व्रजति, व्रजेति भणितः सन् 'द्रुतं' शीघ्रं समालीयते । एवमन्यदपि कार्यं यद् यथा भण्यते तत् तथा अकुर्वाणो वामावर्त्त उच्यते ॥ ७७४ ॥ अथ पिशुनद्वारमाह 25 पीईसुण्णण पिसुणो, गुरुगाह चउण्ह जाव लहुओ उ । अहव असंतासंते, लहुगा लहुगो गिही गुरुगा ॥ ७७५ ॥ “पीईसुण्णण" चि अलीकानीतराणि वा परदूषणानि भाषमाणः प्रीतिं शून्यां करोतीति पिशुनः, नैरुक्ती शब्दनिष्पत्तिः । स च यद्याचार्यस्य पैशून्यं करोति तदा चतुर्गुरु, उपाध्यायस्य करोति चतुर्लघु, भिक्षोः करोति मासगुरु, क्षुल्लकस्य करोति मासलघु इति चूर्ण्यभिप्रायः । 30 निशीथ चूर्ण्य भिप्रायेण तु यद्याचार्यः पैशुन्यं करोति तदा चत्वारो गुरवः, उपाध्यायः करोति चत्वारो लघवः, भिक्षुः करोति मासगुरु, क्षुल्लकः करोति मासलघु । अमुमेवार्थं २ " आयरियस्स जति करोति तो :, वसभस्स १ कार्य मध्ययना - ऽध्यापनादिकं यद् भा० ॥ ::, भिक्खुस्स •, खुड्डगस्स० ।” इति चूर्णिपाठः ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यदृष्ट. भाव: अकृत भाष्यगाथाः ७७२-७८] पीठिका। २४३ सञ्जिघृक्षुराह-"गुरुगा" इत्यादि । 'चतुर्णाम्' आचार्यो-पाध्याय-भिक्षु-क्षुल्लकरूपाणां पैशून्यकरणे विषयभूतानां कर्तृभूतानां वा यथाक्रमं गुरुकादयो यावद् लघुको मासः प्रायश्चितम् । 'अथवा' इति प्रकारान्तरोपन्यासे, सामान्यतः संयतः संयतेषु पैशून्यं करोति तत्रास. हृषणविषये पैशून्ये चत्वारो लघवः, सद्दूषणविषये लघुको मासः । एते एव प्रायश्चित्ते गृहिषु गुरुके अवसातव्ये । तद्यथा-गृहस्थेषु असद्भिर्दोषैः पैशून्यं करोति चत्वारो गुरवः, सद्भिः । करोति गुरुमासः ॥ ७७५ ॥ अथादिमादृष्टभावद्वारं विवृणोति आवासगमाईया, सूयगडा जाव आइमा भावा । ते उ न दिहा जेणं, अदिट्ठभावो हवइ एसो ॥ ७७६ ॥ आवश्यकादयः सूत्रकृताङ्गं यावद् ये आगमग्रन्थास्तेषु ये पदार्थाः अभिधेयास्ते आदिमा भावा उच्यन्ते । 'ते तु' ते पुनर्भावा येन न दृष्टाः-नावगताः स एषोऽदृष्टभाव इति, उप- 0. लक्षणत्वाद् आदिमादृष्टभावो भवतीति ।। ७७६ ॥ अथाकृतसामाचारीकद्वारं बिभावयिषुः सामाचारीखरूपं तावदाह दुविहा सामायारी, उवसंपद मंडलीऍ बोधवा । अणालोइयम्मि गुरुगा, मंडलिमेरं अतो वोच्छं । ७७७॥ सामा चारीकः सामाचारी द्विविधा-उपसम्पदि मण्डल्यां च बोद्धव्या । तत्रोपसम्पत् त्रिविधा-ज्ञानो-15 पसम्पद् दर्शनोपसम्पत् चारित्रोपसम्पत् । आसां च सामान्यत इयं सामाचारी-गच्छान्तरादुपसम्पदः प्रतिपत्त्यर्थमायातः साधुः पर्यनुयोक्तव्यः-'वत्स ! कस्त्वम् ? कुतो वा गच्छादागतोऽसि ? किंनिमित्तमिहायातः ?' इत्येवं यद्यपर्यनुयुज्य तस्योपसम्पदं प्रतीच्छति तदा 'अनालोचिते' अपर्यनुयुक्ते सति चत्वारो गुरुकाः । यद्वा 'अनालोचिते' आलोचनामदापयित्वा यदि तं परिभुते वाचयति वा तदा चत्वारो गुरुकाः । अत्र च ज्ञानोपसम्पदाऽधि- 20 कारः। “मंडलिमेरं अतो वोच्छं" ति मण्डली-सूत्रार्थमण्डलीरूपा तस्याः सम्बन्धिनी मर्यादां-सामाचारी अत ऊद्धं वक्ष्ये ॥ ७७७ ॥ प्रतिज्ञातमेवाहसुत्तम्मि होइ भयणा, पमाणतो यावि होइ भयणा उ ! मण्डल्यो. अत्थम्मि उ जावइया, सुणिति थेवेसु अन्ने वि ७७८ ॥ र्व्यवस्था 'सूत्रे' सूत्रमण्डल्यां निषद्यायां भजना कार्या-यदि तरुणो निरुपहतशरीरश्चाऽऽचार्यों न च 2 निषद्याप्रियस्ततो न क्रियते निषद्या, अथ स्थविर आमयावी वा तरुणो वा निषद्याप्रियः ततः क्रियते । प्रमाणतोऽपि सूत्रमण्डल्यां निषद्याविषये भजना । किमुक्तं भवति ?--कदाचिद् एकस्मिन् कल्पे कदाचिद् द्वयोस्त्रिषु यावन्मात्रेषु वा कल्पेषूपविष्टः सुखेनैव वाचनां ददाति तावद्भिः कल्पैर्निषद्या क्रियते । 'अर्थ' अर्थमण्डल्यां पुनर्यावन्तः साधवोऽर्थे शृण्वन्ति तावन्तः सर्वेऽप्यवश्यन्तया खं खं कल्पं निषद्याकारकस्य प्रयच्छन्ति, स च तैः कल्पैर्निषद्यां रचयति । 30 अथ स्तोका एवानुयोगं ग्रहीतारस्ततः स्तोकेषु सत्सु 'अन्येऽपि' अनुयोगमश्रोतारोऽपि यावद्भिनिषद्या भवति तावतः कल्पानर्पयन्ति ।। ७७८ ॥ अथार्थमण्डल्या एव विधिमाह मजण निसिज अक्खा, किइकम्मुस्सग्ग वंदणग जेट्टे । सूत्रार्थ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः परियाग जाइ सुअ सुणण समत्ते भासई जो उ ॥ ७७९॥ 'मार्जनम्' अनुयोगमण्डल्याः प्रमार्जनं तत्प्रथमतः कर्तव्यम् । ततो निषद्याद्वयं रचनीयम्-एका गुरूणामपरा पुनरक्षाणाम् । ततोऽक्षाः प्रमायं निषद्याया उपरि स्थापनीयाः । ततः 'कृतिकर्म' वन्दनकं गुरूणां दातव्यम् । ततोऽनुयोगप्रस्थापनार्थम् 'उत्सर्गः' कायोउत्सर्गः, तत्र चाष्टावुच्छासाश्चिन्तनीयाः । ततः पञ्चमङ्गलमुच्चार्य च्छोभवन्दनकं दत्त्वा "नाणं पंचविहं पण्ण" इत्यादिना नन्द्याकर्षणे कृते ज्येष्ठस्य वन्दन-प्रणामः कर्तव्य इति । अत्र परः प्राह-किं यः पर्यायेण ज्यायान् स ज्येष्ठः ? किं वा यो जात्या उपलक्षणत्वात् कुलेन वा ? यद्वा येन श्रुतं बहधीतम् ? अथ येन बहुभिः परिपाटीभिरर्थस्य श्रवणं कृतम् ? एतेषां मध्ये क इह ज्येष्ठोऽधिक्रियते । अत्राचार्यः प्रत्युत्तरयति-एतेषां मध्यादेकोऽपि नानाधिक्रियते 10किन्तु 'समाप्ते' समर्थिते व्याख्याने उत्थितानां यो व्याख्यानलब्धिमान् 'अनुभाषते' अग्रणी भूय चिन्तनिकां कारयति स ईह ज्येष्ठो भण्यते, तस्य जिनवचनव्याख्यानलक्षणगुणाधिकतयाऽवमरानिकस्यापि वन्दनं विधेयम् । तथा गुरूणां हेतोः खेल-कायिकीमात्रके प्रथममेव तत्र स्थापयितव्ये, मा भूदनुयोगं शृण्वतां तदानयने श्रवणव्याघातः । एतच्च गाथायामनुक्तमपि प्रक्रमादत्र ज्ञातव्यम्, अन्यत्राऽऽवश्यकादावुक्तत्वात् ।। ७७९ ॥ 15 अथात्रैव वैपरीत्यकरणे प्रायश्चित्तमाह अवितहकरणे सुद्धो, वितह करेंतस्स मासियं लहुगं । अक्ख निसिजा लहुगा, सेसेसु वि मासियं लहुगं ॥ ७८० ॥ प्रमार्जनादिषु पदेषु अवितथकरणे 'शुद्धः' न प्रायश्चित्तभाग् । एतेष्वेव सामाचारी वितथा कुर्वाणस्य लघु मासिकम् , इदं च सामान्यत उक्तम् । अत इदमेव सविशेष विषयविभागे20 नाह-"अक्ख" इत्यादि । अक्षाणामप्रमार्जनेऽस्थापने वा निषद्यामन्तरेण वा स्थापनेऽनुयोगं ददतः शृण्वतां वा चत्वारो लघुकाः । गुरूणां निषद्याया अकरणे श्रोतृणां चत्वारो लघवः । शेषेष्वपि सर्वेषु मासिकं लघुकं प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-अनुयोगमण्डलीस्थानं न प्रमार्जयन्ति, वन्दनकं गुरूणां न ददति, अनुयोगप्रारम्भनिमित्तं कायोत्सर्ग न कुर्वन्ति, खेलमात्रकादिकं न ढोकयन्ति, ज्येष्ठस्य प्रणामं न कुर्वन्ति, सर्वत्रापि प्रत्येकं मासलघु । एवंॐ विधामुपसम्पन्मण्डलीविषयां द्विविधामपि सामाचारी यो न करोति स्म सोऽकृतसामाचारीक उच्यते ॥ ७८० ॥ गतमकृतसामाचारीकद्वारम् । सम्प्रति तरुणधर्मद्वारमाह तिहाऽऽरेण समाणं, होइ पकप्पम्मि तरुणधम्मो उ। तरुणधर्मा पंचण्ह दसाकप्पे, जस्स व जो जत्तिओ कालो ॥ ७८१ ॥ व्रतपर्यायमधिकृत्य तिसृणां 'समानां' वर्षाणां 'आरेण' अर्वाग् वर्तमानः 'प्रकल्पे' निशी30 थाध्ययने 'तरुणधर्मा' अविपक्कपर्यायो भवति । तुशब्दो विशेषणे । किं विशिनष्टि ? इह १ इह ज्येष्ठशब्देन व्यपदिश्यते, तस्य भा० ॥२ मासिकमिति तावदसामाचारी निष्पन्न सामान्येन प्रायश्चित्तम् । इदमेव सविशेष भा० ॥ ३॥ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले. पुस्तकयोरेव वर्तते ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७७९-८३] पीठिका। २४५ यः खल्वसञ्जातपञ्चकुर्चीकः स त्रिवर्षपर्यायेऽपि वर्तमानो निशीथाध्ययनस्यायोग्यो मन्तव्य इति । पञ्चानां वर्षाणामर्वाग् वर्तमानस्तु "दसाकप्पे" त्ति उपलक्षणत्वाद् दशा-कल्प-व्यवहाराणां तरुणधर्मा ज्ञातव्यः । 'यस्य वा' सूत्रकृताङ्गादेः श्रुतस्य यो यावान् कालो व्यवहाराध्ययने दशमोद्देशके भणितः तस्य तावन्तं कालमसमापयन् तरुणधर्मा भवति । यथा"कप्पइ चउवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स सूअगडं नाम अंग उद्दिसित्तए" (सूत्र २२)। इत्यादि ॥ ७८१ ॥ गतं तरुणधर्मद्वारम् । अथ गर्वितद्वारमाहपुरिसम्मि दुविणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे । गर्वितः नवि दिजइ आभरणं, पलियत्तियकन्न-हत्थस्स ॥ ७८२ ॥ इह यः श्रुतमधीयानः तदवलेपादेव दुर्विनीतो भवन्नुपलभ्यते, तादृशे पुरुषे 'विनयविधान' कर्मविनयनोपायमाऽऽचारादि श्रुतातम् 'किश्चिदपि' स्तोकमात्रमपि 'नाऽऽचक्षीते' 10 स ने प्रतिपादयेत् । यद्वा विनयः-द्वादशाव-वन्दनकप्रदानादिप्रतिरूपोपचाररूपो विधीयते - यस्मिन्नधीयमाने तद् 'विनयविधानम्' आचारादि श्रुतमेव तद् नाऽऽचक्षीत । कुतो हेतोः? इति चेद् अत आह-"न वि दिजइ" इत्यादि । - 'नापि' नैव दीयते 'आभरणं' कुण्डलकङ्कणादिकं परिकर्तितकर्ण-हस्तस्य पुरुषस्य, आविध्यमानस्यापि तस्य तदङ्गे शोभाया अलभमानत्वात् ; एवं श्रुताभरणमपि विनयविकलाङ्गस्य योज्यमानं न शोभां बिभर्ति इति जिनवचन-15 वेदिना तस्य तद् न दातव्यम् ॥ ७८२ ।।। अथाऽस्यैव सविशेषमपात्रताल्यापनार्थमाह मद्दवकरणं नाणं, तेणेव उ जे मदं समुवहति । ऊणगभायणसरिसा, अगदो वि विसायते तेर्सि ॥ ७८३ ॥ मार्दवं-माननिग्रहस्तकरणं-तत्कारकं 'ज्ञानं' श्रुतरूपम् , 'तेनैव' ज्ञानेन 'ये' दुर्विदग्धाः 20 'मदम्' अहङ्कारं समुद्वहन्ति । कथम्भूतोः ? 'ऊनकभाजनसदृशाः' असम्पूर्णभृतघटादिभाजनतुल्याः, यथा किल तद् झलझलायते तथैतेऽपि दुरधीत विद्यालवतया निजपाण्डित्यगर्वाध्माता १ गर्वितो नियमादविनीतो भवतीति तद्वारेणैवाभिधीयते-दुर्विनीतो नाम-कथमहमेतस्य समीपे नीचैस्तरासनोपविष्टः सन्नेतदीयमुखादर्थ श्रोष्यामि?' इति मानम्लानिभीरुः गोष्ठामाहिलवद्, एवंविधे पुरुषे 'विनयविधानं' विनयो विधीयतेऽत्र अनेनेति वा विनयविधानं-श्रुतं 'किञ्चिदपि' स्तोकमात्रमपि 'नाऽऽचक्षीत' न प्रतिपादयेत् । कुतः? इत्याह-'नापि' भा० पुस्तके । "पुरिसम्मि गाधा । अविणीयत्तणेण दूसिओ (दुमिओ प्र०) विणतो जस्स स भवति दुविणीओ। सो गन्वेण णेच्छति अत्थमण्डलीए सोउं 'कधमहं एतस्स णीतयरे उवविसिस्सामि?। जो वा पुणेत्ता अविणीतो भविस्सति तस्स वि ण वति कधेतुं 'विणयविधाणं' ति सुतणाणविणयमेदं।" इति चूर्णिः॥ २°त । यतः 'नापि त• डे० ॥ ३ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले. पुस्तकयोरेव ॥ ४ भा० ले. मो० विनाऽन्यत्र-स्य । एवं श्रुताभरणमपि विनयविकलाङ्गस्य जिनववनवेदिना न दात° डे. त• का० ॥ ५ ताः सन्तः? इत्याह-'ऊन भा० ॥ ६ डे० त० कां• विनाऽन्यत्र-°ल्याः, असम्पूर्णभृतं हि झलझलायते तथैतेऽपि ले. मो. 'ल्याः, असम्पूर्णभृतं हि भाजनमितस्ततो झलज्झलायते एवमेतेऽपि भा०॥ ७ डे० त० कां. विनाऽन्यत्र-ता वाचालतया यदपि तदपि झपन्ति । तेषा भा० । °ता यदपि तदपि लपन्तो झलझलायन्ते । एवंविधानां च तेपा ले० मो० ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः यदपि तदपि लपैन्तस्तिष्ठन्ति । तेषाम् 'अगदोऽपि' विषापहारकमप्यौषधं 'विषायते' विषरूपतया परिणमते श्रुतरूपम् । स तथा चैतदर्थसंवादकमेवेदं सूक्तम् ज्ञानं मद-दर्पहरं, माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः ? । अमृतं यस्य विषायति, तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ॥ ॥७८३ ॥ । गतं गर्वितद्वारम् । अथ प्रकीर्णकद्वारमाहप्रकीर्णः सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिजई इत्थं । एस उ पइण्णपण्णो, पइण्णविजो उ सव्वं पि ॥ ७८४ ॥ अर्थमण्डल्यां यो राहसिकग्रन्थार्थं श्रुत्वा उत्थितः सन् 'अनभिगतानाम्' अपरिणतानां लेशोद्देशतः कथयति—यथा 'अमुकं' प्रलम्बग्रहणादिकम् 'अत्र' सूत्रे कल्पनीयतया कथ्यते; 10 एष प्रकीर्णप्रज्ञः । प्रज्ञाशब्देनेह प्रकर्षेण ज्ञायते उत्सर्गा-ऽपवादतत्त्वमनयेति व्युत्पत्त्या छेदसूत्रान्तर्गता रहस्यवचनपद्धतिरुच्यते, सा प्रकीर्णा-विक्षिप्ता येन स प्रकीर्णप्रज्ञः । “प्रकीर्णप्रश्नः" ("पइण्णपण्हो") इति वा पाठः, तत्र चापरिणतः 'किमेतद् रहस्यभूतमत्राभिधीयते?' इत्युल्लेखेन पृच्छयत इति प्रश्नः-छेदश्रुतान्तःपाती रहस्यार्थ इत्यर्थः, स प्रकीर्णो येन स प्रकीर्णप्रश्न इति । तथा प्रकीर्णविद्यस्तु सर्वमप्यादेरारभ्य पर्यन्तं यावत् छेदश्रुतमुत्सर्गा16 ऽपवादसहितमपरिणतानां कथयति । विद्याशब्देन चात्राऽखण्डं छेदश्रुतमभिधीयते, प्रकीर्णा विद्या येन स प्रकीर्णविद्य इति ।। ७८४ ॥ अथ द्विविधस्यापि प्रकीर्णव्याकर्तुर्दोषानाह अप्पच्चओ अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेव । दुल्लहबोहीअत्तं, पावंति पइण्णवागरणा ॥ ७८५ ॥ अपरिणतादीनां राहसिकेषु पदेषु ज्ञाप्यमानेषु 'अप्रत्ययः' अविश्वासो भवति; पूर्वापरवि20रुद्धमिदं शास्त्रम् , यतः पूर्व "न कल्पते तालप्रलम्ब प्रतिग्रहीतुम्" इति प्ररूप्य पश्चात् "कल्पते" इत्यनुज्ञायाः प्रतिपादनात् ; यथा चैतदलीकं तथा सर्वमपि जिनवचनमीदृशमेवेति । ते चैवं विपरिणताः सन्तः 'जिनानां' तीर्थकृतामकीर्ति कुर्युः, कुत एषां सर्वज्ञत्वम् ? यैरीदृशं पूर्वापरव्याहतं भाषितमिति । ततश्च ते "ओहाव"त्ति 'अवधावनम्' उत्प्रव्रजनं कुर्वीरन् । अथ नोत्प्रव्रजेयुस्तथापि "मइलण" ति तेषामद्याप्यपरिणतत्वादपवादपदं श्रुत्वाऽपरि25 णामकत्वेनातिपरिणामकत्वेन वा शङ्कादिदोषतो ज्ञानादीनां 'मलिनता' मालिन्यं स्यादिति । ततश्चैवमप्रत्ययादिकं जनयन्तो दुर्लभबोधिकत्वं प्राप्नुवन्ति, क एते ? इत्याह-'प्रकीर्णव्याक १°पन्ते-झलझलायन्ते । एवंविधानां च तेषाम् मो. ले. ॥ २ एतदन्तर्गतः पाठः डे. त• कां० नास्ति ॥ ३°नाम्' अनधीतश्रुतानामपरिणतादीनां पृष्टो वाऽपृटो वा लेशोद्देशतो रहस्यभूतमर्थ कथयति, यथा-'अमुकं' प्रलम्बग्रहणादिकमत्र कथ्यत इति एष भा० । “सोउं अण• गाधा। अस्थमंडलीए सुणेत्ता उद्वितो अणभिगताणं अयोग्यानामित्यर्थः पुच्छितो अपुच्छितो वा कधेति-एवं एत्थ कधेजति, जधा-पुढवीकायादी वि छक्काया कप्पंति, पंच य महव्वयाई वितधं करेजा, एस पइण्णपण्हो" इति चूर्णिः ॥ ४ सूत्रे कथ्यते डे. त• विना ॥ ५°णतादिभिः 'कि भा०॥ ६ स्यार्थः स प्रभा० डे० त० ॥ ७°षमाह भा०॥ ८°स्ततः "म° भा० ।। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७८४-८७] पीठिका। २४७ रणाः' प्रविस्तारितच्छेदश्रुतरहस्यार्थनिर्वचनाः, प्रकीर्णप्रश्नाः प्रकीर्णविद्याश्चेत्यर्थः ॥ ७८५॥ व्याख्यातं प्रकीर्णद्वारम् । अर्थ निह्नवद्वारं विवृणोतिसुत्त-ऽत्थ-तदुभयाई, जो घेत्तुं निण्हवे तमायरियं । गुरुनिहवी लहुया गुरुया अत्थे, गेरुयनायं अबोही य ॥ ७८६ ॥ यः सूत्रा-ऽर्थ-तदुभयानि कस्यचित् पार्श्वे गृहीत्वा तमाचार्य 'निगुते' अपलपति, अपरं । कमपि विख्यातगुणमाचार्यमुद्दिशति, अथवा ब्रूयात्-मया खयमेवाभ्यूह्याभ्यूह्य सकलमपि श्रुतं निर्णीतम् , केवलं तैर्वाचनाचार्यैर्मम दिङ्मात्रमेव दत्तमिति । अत्र च यदि सूत्राचार्य निद्भुते तदा चत्वारो लघुकाः, 'अर्थे' अर्थदायकमाचार्यं निवानन्य चत्वारो गुरुकाः, तदुभयाचार्यमपलपतः तदुभयं प्रायश्चित्तमिति । अत्र च गेरुक - परिकल्प ज्ञात-दृष्टान्तः । स यापन ___ एगस्स हावियस्स छुरघरगं विजाए आगासे चिट्ठइ । तं च एगो परिवायगो बहूहिं 10 गुरुनिहोतुः परिव्राजकउवासणाहिं आराहेऊण तस्स सगासे विजं गिण्हित्ता अन्नत्थ गंतुं तिदंडेणं आगासगएण याद अच्छइ, तओ सो लोगेणं पूइज्जइ । अन्नया रन्ना पुच्छिओ-भगवं! किं विजाइसओ ? उआहु णम् तवाइसओ? । भणइ-विज्जाइसओ । कओ आगमिउ ? ति । भणइ-हिमवंते पवए फलाहारनामस्स महरिसिस्स सगासाउ-त्ति भणिए तं तिदंडं खड त्ति पडियं । एस दिलुतो । __ अयमत्थोवणओ-जहा सो हावियं विज्जायरियं निण्हवेंतो ओहावणं पत्तो, एवं अन्ने 15 वि अप्पगासं पि वायणायरियं निण्हवेंता इहलोए चेव बहूणं समण-सावगाईणं हीलणिज्जा भवंति देवयाहि य छलिज्जंति ति ॥ तथा "अबोही य" ति परलोके अबोधिफलं कर्म गुरुनिहावकोऽर्जयति । एवंविधस्य न दातव्यम् ॥ ७८६ ॥ येत आह उवहयमइ-विन्नाणे, न कहेयन्वं सुयं व अत्थो वा । न मणी सयसाहस्सो, आविज्झइ कोत्थु भासस्स ॥ ७८७ ॥ मैतिश्च खाभाविकी विज्ञानं च गुरूपदेशजं मति-विज्ञाने, ते उपहते दूषिते यस्य सः 'उपहतमति-विज्ञानः' गुरुनिहोता । कथम् ? इति चेद् उच्यते-इह तावद् गृहस्था अपि मिथ्यादृष्टयस्तत्त्वा-ऽतत्त्वव्यतिकरविवेकविकला ऐहिकफलार्थमर्थशास्त्र-धनुर्वेदादि यस्य सकाशे शिक्षितवन्तस्तं यावज्जीवं गुरुं प्रतिपद्यमानाः सर्वस्यापि लोकस्य पुरतः श्लाघन्ते, न पुनः कदापि 25 कस्यापि पुरतो निढुवते; स पुनः सर्वज्ञशासनप्रतिपन्नोऽप्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पश्रुतदायकानपि परमगुरून् निहते इत्यतोऽसौ तेभ्योऽप्यधमत्वादुपहतमति-विज्ञानोऽभिधीयते । एवं विधे शिष्ये न कथयितव्यं 'श्रुतं वा' सूत्रम् 'अर्थो वा' तदभिधेयः । अमुमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया द्रढयति"न मणी" इत्यादि । “कोत्थु" त्ति आर्पत्वात् कौस्तुभो नाम मणिः 'शतसहस्रः' लक्षमूल्यः १ अथ गुरुनिह्नविद्वारं ले. मो० ॥ २ त्ति अबोधिकत्वं परलोके गुरु° भा० ॥ ३ निह्नव' त० डे० ॥ ४ कुतः? इति चेद् उच्यते भा० ॥ ५ मतिः स्वाभाविकी, विज्ञानं गुरूपदेश जनितम्, मतिश्च विज्ञानं च मतिविज्ञाने, उपहते-गर्व-गुरुनिह्नवनादिदोषदूषिते मतिविज्ञाने यस्य सः 'उप° भा०॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विन्तिणि कादीनां सूत्रार्थ प्रदाने प्रायचि तम् अनुज्ञातद्वारम् २४८ निर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः 'भासस्य' शकुन्तोन्यस्य पक्षिणो गलके नाऽऽविध्यते, अयोग्यत्वात् ; एवमस्यापि गुरुनिहोतुरत्यन्तापात्रभूतस्य श्रुतरत्नप्रदानमनुचितमिति न विधेयम् ॥ ७८७ ॥ गतं निह्नवद्वारम् । अत्र च तिन्तिणिक - चलचित्त- गाणङ्गणिक दुर्बलचारित्रा-ऽऽचार्यपरिभाषि-वामावर्त्त-पिशुना-ऽकृतसामाचारीक -गर्वित प्रकीर्ण-निह्वैविनः एकादशाऽपात्रभूताः शिष्याः, B आदिमादृष्टभावोऽप्राप्तः, तरुणधर्मा पुनरव्यक्तः । अथैषां सूत्रार्थप्रदाने प्रायश्चितमाहअव्वत्ते अ अपत्ते, लहुगा लहुगा य होंति अप्पत्ते । लहुगा य दव्वतितिणि, रसतिंतिणि होंति चतुगुरुगा ॥ ७८८ ॥ अव्यक्तः—तरुणधर्मा तस्य तथा " अपते" त्ति अपात्राणामेकादश सङ्ख्याकानां सूत्रार्थी यदि ददाति तदा चत्वारो लघुकाः । “लहुगा य होंति अप्पत्ते " ति अप्राप्तः - आद्यदृष्टभावस्तस्य 10 ददाति चत्वारो लघुकाः । अत्रैव विशेषमाह – “लहुया य दव " इत्यादि । द्रव्यतिन्तिणिकस्य ददाति चत्वारो लघवः । 'रसतिन्तिणिकस्य' आहारतिन्तिणिकस्य ददाति चत्वारो गुरवः । उपधि-शय्यातिन्तिणिकयोर्ददानस्य चत्वारो लघव इत्यनुक्तमप्यत्रावसातव्यम्, निशीथचूर्णावुक्तत्वात् ॥ ७८८ ॥ 15 20 खेत्तं कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्झं ॥ ७९० ।। यस्मादेवं प्रायश्चित्तमभिहितं तस्मात् तिन्तिणिकादीनामाचार्येण 'प्रवचनरहस्यम्' अपवादपदं ' न कथयितव्यम्' न प्ररूपणीयमिति । कथं पुनः कथयितव्यम् ? इत्याह- ' क्षेत्रम् ' अध्वादिकं प्रवेष्टव्यं ज्ञात्वा प्रथमतोऽध्वकल्पादिकं प्रवचनरहस्यभूतमपरिणतानामपि कथयित -- व्यम्, अन्यथा तेषां मार्गे गच्छतां संयमा-ऽऽत्मविराधना स्यात् । एवं 'कालमपि' दुर्भिक्षादि - 25कमागमिष्यन्तमागतं वा ज्ञात्वा यथायोगमपरिणतानामपि राहसिकश्रुतार्थं प्रकाशयेत् । 'पुरुषं वा' परिणामकलक्षणम् उपलक्षणत्वाद् भावं वा - ग्लान- बाल-वृद्धा - ऽसहिष्णुप्रभृतीनामुपग्रहकरणादिलक्षणं ज्ञात्वा प्रकाशयेद् 'गुहां' छेदश्रुतरहस्यभूतमपवादपदमिति ॥ ७९० ॥ व्याख्यातं "पत्ते अ" ति द्वारम् । अथानुज्ञातद्वारमाह- अंतो हिं च गुरुगा, आयरिय - गिलाण - बाल बिहअपयं । आयरियपारिभासिस्स होंति चउरो अणुग्धाया ।। ७८९ ॥ आहारोपधि-शय्याविषयामन्तर्बहिर्वा संयोजनां कुर्वतश्चत्वारो गुरवः । आचार्य-ग्लान- बालादीनामर्थाय द्वितीयपदं भवति, एतदर्थं संयोजनामपि कुर्वन् शुद्ध इत्यर्थः । आचार्य परिभाषिणः पुनश्चत्वारोऽनुद्धाताः प्रायश्चित्तम् ॥ ७८९ ॥ अथोपसंहरन्नाह - तेम्हा न कहेयव्वं, आयरिएणं तु पवयणरहस्सं । 30 चउभंगो अणुण्णाए, अणणुनाए अ पढमतो सुद्धो । साणं मासलहू, अविणयमाई भवे दोसा ।। ७९१ ॥ अत्रानुज्ञाता-ऽननुज्ञातपदाभ्यां चतुर्भङ्गी कार्या, तद्यथा - अनुज्ञातमनुज्ञातो वाचयतीति १ “भासो मीढसउणओ” इति चूर्णो ॥ २°न्तापरपर्यायस्य प° भा० ॥ ३ 'हवा ए भा० ॥ ४ बहि चतुगुरुगा ता० ॥ ५ आयरिएणं तम्हा, ण कहेयव्वं तु पव ता० ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगामा ७८८-९३] पीठिका । २१९ प्रथमः, अस्य भावना-कश्चित् प्रातीच्छिको गच्छान्तरादागम्य सूत्राध्ययनार्थमुपसम्पन्नः, स चाऽऽचारनुज्ञातः-आर्य ! उपाध्यायस्य सकाशेऽधीप्वेति; ततः स उपाध्यायस समीपे गत्वा ब्रूते-भगवन् ! गुरुमिरहमादिष्टो भवतां पादमूले पठनार्थमिति; तत उपाध्यायेनागत्याचार्याः प्रच्छनीयाः, यथा--क्षमाश्रमणाः! पाठयाम्यहममुकं साधुम् । इति; ततो गुरुभिः 'बाढम्' इत्युक्ते स उपाध्यायेन पाठनीयः; एवंकुर्वन् अनुज्ञातमनुज्ञातो वाचयतीति अभि.. धीयते, एष प्रथमो मङ्गः शुद्धः । अनुज्ञातमननुज्ञात इति द्वितीयः, तद्भावना-स साधुराचार्यभणितः-पठोपाध्यायान्तिके, स चैवमादिष्टः पठितुमुपस्थित उपाध्यायसन्निधौ, स उपाध्यायो यद्याचार्यानपृष्ट्वा तं पाठयति तत उपाध्यायस्य मासलघु । अननुज्ञातमनुज्ञात इति तृतीयः, अत्र चाचार्यैरुपाध्यायस्तस्य साधोः शृण्वतः सन्दिष्टः-आर्य! पाठयेरमुं साधुमिति, न पुनरितरः सन्दिष्टः, ततः स उपस्थितः सन्नुपाध्यायेन प्रश्ननीयः-सौम्य ! क्षमाश्रमणैः 10 सन्दिष्टस्त्वम् ? न वा ? इति; स प्रतिब्रूयात्-'मया युष्माकमादेशो दीयमानः श्रुतो न पुनरहं सन्दिष्टः' इत्युक्ते यद्यपाध्यायः पाठयति तदा द्वयोरप्यध्यापका-ऽध्यायकयोर्मासलघुः अथ न पाठयति तत उपाध्यायः शुद्धः। अननुज्ञातमननुज्ञातो वाचयतीति चतुर्थो भङ्गः, अत्र चोपाध्यायोऽप्यननुज्ञातः शिष्योऽप्यननुज्ञात इति कृत्वा द्वयोरपि मासलघु । अत एवाह"शेषेषु' प्रथमभङ्गव्यतिरिक्तेषु भङ्गेषु मासलघु । गाथायां प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे षष्ठी । अवि-16 नयादयश्च दोषा भवन्ति, आदिशब्दाद् अनवस्था-अन्येषामपि यदृच्छयाऽध्ययना-ऽध्यापनलक्षणा इत्यादयो दोषाः परिगृह्यन्ते ॥ ७९१ ॥ गतमनुज्ञातद्वारम् । अथ भावतः परिणामक इति द्वारं व्याख्यायते-अत्र च भावग्रहणाद द्रव्य-क्षेत्र-काला अपि गृहीता द्रष्टव्याः, परिणामकप्रक्रमाचाऽपरिणामका-ऽतिपरिणामकावपि व्याख्येयाविति चेतसि व्यवस्थाप्ये सूरिरिमां नियुक्तिगाथामाह 20 परिणाम अपरिणामे, अइपरिणाम पडिसेह चरिमदुए । परिणामअंबाईदिटुंतो, कहणा य इमेहिँ ठाणेहिं ॥ ७९२ ॥ परिणामका-ऽपरिणामका-ऽतिपरिणामकानां प्ररूपणा कर्तव्या । प्रतिषेधः 'चरमद्विकस्य' अपरिणामका-ऽतिपरिणामकयुगलस्य कर्तव्यः, अनयोश्छेदश्रुतं न दातव्यमिति भावः । एषां च त्रयाणामपि परीक्षार्थमाम्रादिदृष्टान्तो वक्तव्यः, आदिशब्दाद् वृक्ष-बीजपरिग्रहः । तया च 25 परीक्षया तेषामभिप्राये गृहीते सति 'कथना' प्रतिवचनम् 'एभिः' वक्ष्यमाणैः 'स्थानः' प्रकारैराचार्येण कर्तव्येति ॥ ७९२ ॥ अथैनामेव गाथां विवृणोतिजो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं । परिणामकः तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामयं साधु ॥ ७९३ ॥ १शेषाणां' प्रथमभङ्गव्यतिरिक्तानां त्रयाणां भङ्गानां मासलघु । अविनया भा०॥ २°प्य परिणामिकादित्रयप्रतिबद्धामिमां द्वारगाथामाह भा०॥ ३°कस्य यु त. डे.॥ ४ विवरीषुराह भा० ॥ बृ. ३२ कद्वारम Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिणामकः अतिपरिणामकः परिणाम कादीनां व्युत्पन्ना ऽव्युत्पन्न - त्वम् २५० सनिर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अनुयोगाधिकारः अत्र " तुलादण्डमध्यग्रहण" न्यायेन कृतशब्दो मध्येऽभिहितोऽपि सर्वत्रापि सम्बध्यते । यः कश्चिद् द्रव्यकृतं क्षेत्रकृतं कालकृतं भावकृतम्, द्रव्यादिभिर्भेदैः सूत्रे विहितमित्यर्थः, यद् वस्तु ‘यथा' येनोत्सर्गा-ऽपवादरूपेण प्रकारेण जिनैराख्यातं तत् तथा श्रद्दधाति, तमेवं 'श्रद्दघानं' रोचयन्तं जानीहि परिणामकं साधुम् । इयमत्र भावना - द्रव्यतः सचित्ता - ऽचित्त5 मिश्राणि द्रव्याणि यादृशे कार्ये कल्पन्ते न वा, क्षेत्रतोऽध्वनि वा जनपदे वा यद् यथाऽध्वकल्पादिकमाचरणीयम्, कालतो दुर्भिक्ष- सुभिक्षादौ यो यादृशः कल्पः, भावतो ग्लानादिष्वा - गाढा-ऽनागाढादिको यादृग् विधिः । तदेवं सर्वमपि श्रदधानो यथावसरं प्रयुञ्जानश्च परिणामको ज्ञातव्यः ॥ ७९३ ॥ अपरिणामकमाह - जो दव्य - खेत्तकय-काल- भावओ जं जहा जिणक्खायं । तं तह असतं, जाण अपरिणामयं साहुं ।। ७९४ ॥ यो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकृतं यद् यथा जिनैराख्यातं तन्न श्रद्दधाति तं तथा अश्रद्दधन्तं जानीहि अपरिणामकं साधुम् || ७९४ ॥ अतिपरिणामकमाह जो दव्व-खेत्तकय-काल- भावओ जं जहिं जया काले । तल्लेसुरसुत्तमई, अइपरिणामं वियाणाहि ।। ७९५ ॥ यो द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावकृतं 'यद्' वस्तु 'यस्मिन् ' विकृष्टाध्वादौ 'यदा काले' आत्यन्ति - कदुर्भिक्षादौ भणितम्, “तल्लेसु" चि तस्मिन् - द्रव्यादिकृते आपवादिकवस्तुनि लेश्या यस्य तल्लेश्यः, 'पश्यामि तावदत्र किमपि निश्रापदं ततस्तदेवावलम्बयिष्यामि' इत्यपवादपदैकमतिरित्यर्थः । तथा सूत्राद् - अपवादश्रुताद् उत्- प्राबल्येन मतिरस्येत्युत्सूत्रमतिः, श्रुतोक्तापवादादभ्यधिकापवादबुद्धिरिति भावः । तमेवंविधं साधुमतिपरिणामकं विजानीहीति ॥ ७९५ ॥ 20 अथामीषामेव व्युत्पत्तिनिमित्तं लक्षणमाह- 10 15 परिणमइ जहत्थेणं, मई उ परिणामगस्स कजेसु । विइए न उ परिणमई, अहिगं मइ परिणमे तइओ ॥ ७९६ ॥ परिणामकस्य मतिः कार्येषु 'यथार्थ्येन' यथार्थग्राहकतया परिणमैते, अत एवासौ परिगामक उच्यते । 'द्वितीये' द्वितीयस्यापरिणामकस्य मतिः 'न तु' नैव परिणमते, अत एवा26 सावपरिणामक उच्यते । तृतीयः पुनरधिकां मतिं परिणमयतीत्यतिपरिणामकोऽभिधीयते ॥ ७९६ ॥ एतदेव स्पष्टयति दो विपरिणम मई, उस्सग्गऽववायओ उ पढमस्स । बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स || ७९७ ॥ 'प्रथमस्य' परिणामकस्य मतिरुत्सर्गा - ऽपवादयोर्द्वयोरपि परिणमति (ते) । किमुक्तं भवति :--- 30 यः परिणामको भवति तस्योत्सर्गे प्राप्ते उत्सर्ग एव मतिः परिणमते, अपवादे प्राप्तेऽपवादे एव मतिः परिणमते; यत्रोत्सर्गों बलीयान् तत्रोत्सर्गं समाचरति, यत्रापवादो बलवान् तत्रापवादं ९ 'देवंविधं स भा० ॥ २ °देव सदैवाव' मो० ० ॥ ३ मति, अत भा० विना ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ७९४-८०० ] पीठिका | २५१ गृह्णाति । ‘द्वितीयस्य' अपरिणामकस्य पुनरुत्सर्ग एव मतिः परिणमते, न पुनरपवादे । तृतीयस्य तु अति- अत्यर्थम् अपवादे मतिः परिणमते; स च द्रव्यादिकारणेषु प्रतिसेवनामनुज्ञातां ज्ञात्वा न किञ्चित् परिहरति, कारणमन्तरेणापि प्रतिसेवते ।। ७९७ ॥ अथ यदुक्तमासीत् “अंबाईदितो " ( गा० ७९२ ) ति तद् इदानीं भाव्यते एतेषां परिणामकादीनां त्रयाणामपि जिज्ञासया केचिदाचार्याः खशिष्या नित्यमभिदध्युः – 'आर्या : 15 आम्रैरस्माकं प्रयोजनमस्ति' इत्युक्ते यः परिणामकः शिष्यः स ब्रूयात् चेयणमंचेण भाविय, केद्दह छिन्ने अ कित्तिया वा वि । लद्धा पुणो व वोच्छं, वीमंसत्थं व बुत्तो सि ॥ ७९८ ॥ परिणामकादीनामा म्रादिदृष्टा• 10 क्षणम् भगवन् ! यैराम्रैः प्रयोजनं तानि किं चेतनानि ? उताचेतनानि ? किं 'भावितानि' लव- न्तैः परीणादिभिर्वासितानि ? उताभावितानि ? " केद्दह " ति किंप्रमाणानि ? किं महान्ति ? किं वा लघूनि ? “छिन्न” त्ति किं पूर्वच्छिन्नानि ? किंवा इदानीं छित्त्वा ? अथवा “छिन्न" त्ति किं 'छिन्नानि' खण्डीकृतानि ? किं वा सकलानि ? " कित्तिया वा वि" त्ति कियन्ति वा गणनया द्वित्र्यादिसङ्ख्याकान्यानयामि ? अपिशब्दात् किं बद्धास्थिकानि ? अबद्धास्थिकानि वा ? तरु? जरठानि वा ? इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । इत्थं शिष्येणाभिहिते आचार्येण वक्तव्यम्सौम्य ! लब्धानि सन्त्यग्रेऽपि मम पुनः पुरा विस्मृतान्यासन् इदानीं स्मृतिपथमवती - 15 र्णानीति; यद्वा पर्याप्तं तावदिदानीम्, प्रयोजने समापतिते पुनर्भवन्तं 'वक्ष्यामि' भणिष्यामि; अथवा वत्स ! किं ममाऽऽयैः कार्यम् ? 'विमर्शार्थं' 'किमयं विनीतः ? न वा ?, परिणामको वा ? न वा ?' इति विन्यासनार्थमुक्तोऽसीति ॥ ७९८ ॥ यः पुनरपरिणामकः स ब्रूयात्किं ते पित्तपलावो, मा बीयं एरिसाई जंपाहि । माणं परो वि सोच्छिहि, कहं पि नेच्छामो एयस्स || ७९९ ॥ भौ आचार्य ! किं ते पित्तप्लावः समजनि यदेवमुन्मत्तवदसम्बद्धं प्रलपसि ?, यद्येकवारं ममा जल्पितं तर्हि जल्पितं नाम, मा पुनर्द्वितीयं वारं ईदृशानि सावधानि वचनानि जल्पेति; यतः मा “णं” इति एतत् त्वदीयं वचनं 'परोऽपि ' अन्योऽपि श्रोष्यति, वयं पुनः कथामपि नेच्छामः 'एतस्य' अर्थस्य आम्रानयनलक्षणस्य किं पुनः कर्त्तव्यतामित्यपिशब्दार्थः ॥ ७९९ ॥ यः पुनरतिपरिणामकः स एवमभिदध्यात् - कालो सिं अइवत्त, अम्ह वि इच्छा न भाणिउं तरिमो । किं एचिरस्स वुत्तं, अन्नाणि वि किं व आणेमि ॥ ८०० ॥ क्षमाश्रमणाः ! यदि युष्माकमात्रैः प्रयोजनं तत इदानीमप्यानयामि, यतः "सिं" इति एषामाम्राणां कालः ‘अतिवर्त्तते' अतिक्रामति, अद्य तावत् तानि तरुणानि वर्त्तन्ते अत ऊर्द्ध जरठीभविष्यन्तीत्यर्थः । यद्वाऽस्माकमप्याम्राणां ग्रहणे महती इच्छा, परं किं कुर्मः ? न वयं 30 यौष्माकीणभयभीता भणितुं किमपि "तरामु" ति शक्नुमः । अथवा यद्याम्राण्यपि ग्रहीतुं १ 'मचेण भा° ता० ॥ 20 25 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अनुयोगाधिकारः कल्पन्ते ततः किमियतश्चिरात् कालादुक्तम् ?, वञ्चिताः स्मो वयमियन्तं कालमिति भावः । किं का अन्यान्यपि मातुलिङ्गोदीन्यानयामीति ॥ ८००॥ अनयोरपरिणामका-ऽतिपरिणामकयोरेवंजल्पतोराचार्येणेदमुत्तरं दातव्यम् नामिप्पायं गिण्हसि, असमत्ते चेव भाससी वयणे । सुकविल-लोणकए, भिन्ने अहवा वि दोच्चगे ।। ८०१ ॥ जी.१९५५ गा. भो मुग्ध ! त्वं मदीयमभिप्रायं न गृहासि, किन्तूत्सुकतया मदीये वचनेऽसमाप्त एवेदृशं समयविरुद्धं निष्ठुरं वचनं भाषसे; मया पुनरनेनाभिप्रायेणाभिहितम् – “सुक्कबिल" इत्यादि, शुक्लं-काञ्जिकं तदेवात्यम्लं शुक्लाम्लं तेन लवणेन वा कृतानि-भावितानि शुक्लाम्ल-लवणकृतानि भिन्नानि च । किमुक्तं भवति ! न मया भवतः पार्थादपरिणतान्याम्राण्यानायितानि, किन्तु 10 चतुर्थरसिकभावितानि वा लवणभावितानि वा; यद्वा द्रव्यतो भावतश्च भिन्नानि, परिणतानीति भावः । अथवा "दोच्चंगे" ति सामयिकी संज्ञा, ओदनादिमूलाङ्गापेक्षया भोजनस्य द्वितीया प्रानि-राद्धशाकरूपाणि तानि मया आनायितानीति प्रक्रमः ।। ८०१॥ परिणामः . "अंबाई" इत्यत्राऽऽदिशब्दसूचितौ वृक्ष-बीजदृष्टान्ताविमौ-आचार्या भणन्ति-अजो! कादिपरीक्षाकृते रुक्खेहिं बीएहिं वा पओअणं ति । अत्रापि परिणामकादिजल्पस्तथैवावसातव्यः । नवरमपरिवृक्ष-बीज- 1 णामका-ऽतिपरिणामको प्रति सूरिणा प्रतिवक्तव्यम् निष्फाव-कोदवाईणि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे । अंबिल विद्धत्थाणि अ, भणामि न विरोहणसमत्थे ॥ ८०२॥ निष्पावाः-वल्लाः कोद्रवाः-प्रतीतास्तदादीनि यानि "रुक्खाणि" ति रूक्षाणि द्रव्याणि तान्येवाहं ब्रवीमि, न तु 'हरितान्' सचित्तान् वृक्षान् । तथा बीजान्यपि यानि अम्लभावि20 तानि 'विध्वस्तानि वा व्यवच्छिन्नयोनिकानि तान्यहं भणामि, 'न विरोहणसमर्थानि' न पुनरहुरोद्भवनशक्तिकानीति । एष आम्रादिदृष्टान्तः । कथना चाऽऽचार्येणामीभिः स्थानैः “सुतंबिल" (गाथा ८०१) इत्यादिभिः प्रकारैः कृता । एवं परीक्ष्य यः परिणामकस्तस्य दातव्यम् ॥ ८०२ ॥ कथं पुनस्तेन श्रोतव्यम् ? इत्याहशिष्याणां निद्दा-विगहापरिवजिएण, गुचिदिएण पंजलिणा। सूत्रार्यश्र भत्ती बहुमाणेण य, उवउत्तेणं सुणेयव्वं ॥८०३ ॥ अभिकंखतेण सुभासियाइँ वयणाइँ अत्थमहुराई । विम्हियमुहेण हरिसागएण हरिसं जणंतेण ॥ ८०४ ।। निद्रायमाणः सन् न किश्चिदप्यवधारयति विकथायां क्रियमाणायां व्याघातो भवतीत्यतो निद्रा-विकथापरिवर्जितेन श्रोतव्यम् । गुप्तानि-खखविषयप्रवृत्तिनिरोधेन संवृतानीन्द्रियाणि 30 येनासौ गुप्तेन्द्रियस्तेन । तथा 'प्राञ्जलिना' योजितकरयुगलेन । भक्त्या बहुमानेन च श्रोत १ ला-त्रपुसीफलादीन्यप्यानया मो० ले ॥ २ °वादीणि बीयरुक्खा ता० ॥ वणविधिः Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ८०१-८०५] पीठिका । २५३ व्यम् , भक्तिर्नाम गुरूणामितिकर्तव्यतायां निषद्यारचनादिका या बाह्या प्रवृत्तिः, बहुमानस्तु गुरूणामुपरि आन्तरः प्रतिबन्धः । अत्र चतुर्भङ्गी-भक्तिर्नामैकस्य न बहुमानः, बहुमानो नामैकस्य न भक्तिः, एकस्य भक्तिरपि बहुमानोऽपि, एकस्य न भक्तिर्न वा बहुमान इति । अत्र च भक्ति-बहुमानयोर्विशेषज्ञापकं शिवाख्यवानमन्तरभक्तयोर्मरुक-पुलिन्दयोरुदाहरणम् , तच्च सुप्रसिद्धमिति कृत्वा न लिख्यते । यदि भक्ति बहुमानं वा न करोति तदा चतुर्लघु 15 तथा 'उपयुक्तेन' अनन्यमनसा श्रोतव्यम् ॥ ८०३ ॥ "अभिकखतेण" इत्यादि । 'वचनानि' श्रुतव्याख्यानरूपाणि 'सुभाषितानि' शोभनभणितिभिर्भणितानि 'अर्थमधुराणि' भावार्थसुखादूनि 'अभिकाङ्क्षता' आभिमुख्येन वाञ्छता । तथा 'विसितमुखेन' अपूर्वापूर्वार्थश्रवणसमुद्भूतविस्मयस्मेरवदनेन । 'हर्षागतेन' 'अहो ! अमी भगवन्तः स्वगल तालुशोषमवगणय्यामन्निमित्तमेवंविधं सूत्रार्थव्याख्यानं कुर्वन्ति, नानृणीभवेय-10 ममीषां परमोपकारिणामहम्' इत्येवंविधं हर्षमागतः-प्राप्तो हर्षागतस्तेन । तथा गुरूणामपि खवदनप्रसन्नतया उकुल्ललोचनतया चे 'हर्षम्' 'अहो! कथमयं संवेगरङ्गतरङ्गितमानसः परमागमव्याख्यानं शृणोति ?' इति लक्षणं प्रमोदं जनयता श्रोतव्यमिति ॥ ८०४ ॥ अथ परिणामकद्वारमुपसंहरन्नाह आधारिय सुत्तत्थो, सविसेसो दिजए परिणयस्स। . सुपरिच्छित्ता य सुनिच्छियस्स इच्छागए पच्छा ॥८०५॥ ॥कप्पपेढिया समत्ता ॥ यः कल्प-व्यवहारादेः सूत्रार्थः 'सविशेषः' सापवादः खगुरुसकाशाद् 'आधारितः' आगृहीतः स सर्वोऽपि दीयते 'परिणतस्य' परिणामकस्य शिष्यस्य 'सुपरीक्ष्य' पूर्वोक्ताम्रादिदृष्टान्तैः सुष्टु-अविसंवादेन परीक्षां कृत्वा 'सुनिश्चितस्य' प्रारब्धसूत्राथें ग्रहीतव्ये कृतनिश्चयस्य, यद्वा 20 'ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां यावज्जीवं मया विराधना न कर्तव्या' इत्येवं सुष्ठु निश्चितः-निश्चय १ मरुक-पुलिन्दयोरुदाहरणं चूर्णितोऽत्रोपन्यस्यते । तथाहिएगस्स गिरिस्स णिज्झरे वाणमंतरं । तत्थ सिवस्स पडिमा । तं एगो धम्मितो सुस्सूसति भत्तीए, पत्ता मोडं गुग्गुलं च देति, आवरिसणोवलेवणं च । अण्णो य एगो पुलिंदओ, सो जे जम्मि उदुम्मि सुंदरा पुप्फा ते आणित्ता गल्लोदएणं ण्हाणेत्ता अच्चेतुं सुतुट्ठो णच्चति, णचित्ता य गच्छति । अण्णता सो वाणमंतरो पुलिंदेण समं बोल्लेति । धम्मितो य आगतो रुट्ठो चिंतेति-अहं सुइएण अच्चणं करेमि, एस असुइणा, तह वि एस जहण्णो एतेण समं बोल्लेति, णूणं एस वि असूइओ चेव । वाणमंतरेण भणितं-सच्चं तुमं ममं सेवसि, जारिसो उण एतस्स ममोवरि बहुमाणो तारिसो तुधं णत्थि । कधं ? । कल्ले पेच्छावि । पभाए रतणीए वाणमंतरेणं एक अप्पणो अच्छि णिद्दारितं । पुलिंदेण दिटुं। रुट्ठो 'केणं?' ति । ताधे चिंतेति-मम सामिस्स एगं अच्छि, मम दोणि, ण जुतं । अप्पणयं णेण अच्छि णिद्दारित्ता लातियं । वाणमंतरेण धम्मिओ भण्णति-किध? पेच्छसि एतस्स वहुमाणं? । ताधे गेण पडिलाइयं पुलिंदस्स। धम्मितस्स भत्ती, पुलिं. दस्स बहुमाणो । एस भत्ति-बहुमाणाणं विसेसो । दोसु वि [ एत्थ ] अधिकारो॥ २च हर्षे जनयता सता श्रोतव्यमिति ॥ ८०४ ॥ भा० ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सनियुक्ति-भाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे पीठिका। [अनुयोगाधिकारः वान् यः स सुनिश्चितस्तस्य दीयते । "इच्छागए पच्छि" ति अपरिणामका-ऽतिपरिणामकयोः पुनर्यदा सा आत्मीया यथाक्रमं केवलोत्संग-केवलापवादरुचिलक्षणा इच्छा गता-नष्टा भवति तदा पश्चात् तयोः छेदश्रुतानि दातव्यानीति ॥ ८०५ ॥ उक्तं परिणामकद्वारम् । तदुक्तौ च व्याख्यातं सप्रपञ्चं "बहुस्सुए चिरपञ्चइए" इत्यादिक 5 द्वारश्लोकयुगलम् (गा० ४००-४०१)। तद्व्याख्याने च समर्थितं "निक्खेवेगट्ठ निरुत्ति" इत्यादिमूलद्वारगाथा(१४९)सूचितं पर्पदिति द्वारम् । अत्र च लक्षण-तदह-पर्षद्वाराणि निक्षेपनामकस्यानुयोगद्वारद्वितीयभेदस्य प्रासङ्गिकतया तदन्तःपातीन्येवावसातव्यानीति । गतं निक्षेपद्वारमिति ॥ चारित्रभूपालनिवासहेतुप्रासादकल्पे किल कल्पशास्त्रे । सुवर्णबद्धा सुरसावगाढा, समर्थिता सम्प्रति पीठिकेयम् ।। ॥ इति कल्पपीठिकाटीका परिसमाप्ता ।। ॥ ग्रन्थानम्-१९८७ ॥ O जयत्यनेकान्तकण्ठीरवः D wonar १°त्सर्गा-ऽपवा भा० त० डे० ॥ २°ठिका परि° भा० विना ॥ ३ ग्रन्थानम् (श्लोकसाया) भा० पुस्तकं विनाऽन्यत्र नास्ति ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COXOBEOBOSEBEOBEOBEOBEOSOBOSCOBEO3 LEOSEO3GOSEO36O3EO ZEOBEOBEOSEOSESEOSEOZEOSEOSEO36 OBOBOZOBOZEOBE0BOBCOBEOBOSKOBOSCOSOBOY 6 Tejas Printers AHMEDABAD PH. 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