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व्रत कथा कोष
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को अपनी समाधि सिद्ध करने के लिये नित्य नैमित्तिक व्रतों का पालन अवश्य करना
चाहिए |
अष्टान्हिका और दशलक्षरणी व्रत के लिये नियम बताया गया है कि एक तिथि घट जाने पर एक दिन पहले से व्रत करना चाहिये, यह नियम षोडशकारण व्रत में लागू नहीं होता हैं । यह व्रत बीच की तिथि घटने पर भी प्रतिपदा से ही आरंभ कर लिया जायेगा । मासिक होने के कारण भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से आरंभ कर आश्विन मास की कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तक यह किया हो जायेगा ।
बीच में एक तिथि का क्षय होने पर यह श्रावण मास को पूर्णिमा से प्रारंभ करने से, यह तीन महिने में पूरा माना जायेगा जब कि ग्रागम में इसे अश्विनभाद्रपद मास में करने का विधान है । इसलिये एक दिन पहले से प्रारंभ करने पर इसमें मासच्युति नाम का दोष श्रा जायेगा, जिससे व्रत करने वाले को पुण्य के स्थान पर पाप का फल भोगना पड़ेगा ।
प्रचलित व्रतों में लगातार कई दिनों तक चलने वाले तीन ही व्रत हैं- दशलक्षण, भ्रष्टान्हिका और सोलहकारण । इनमें पहले दो व्रतों के लिये तिथि घटने पर एक दिन पहले से व्रत करने का विधान है, पर अंतिम तीसरे व्रत के लिए यह नियम नहीं है । न्तिम व्रत में तीन प्रतिपदाओं का होना आवश्यक है । तीनों पक्ष की तीन प्रतिपदाओं के आ जाने पर ही व्रत पूर्ण माना जायेगा ।
जैनेतर ज्योतिष के प्राचार्यों ने भी नियत अवधि वाले व्रतों की तिथियों का निर्णय करते हुए बताया है कि एक तिथि की हानि हो जाने पर एक दिन पहले और एक तिथि की वृद्धि होने पर एक दिन बाद तक व्रत करने चाहिये । तिथि की हानि होने पर सूर्योदयकाल में थोड़ी भी तिथि हो तो नियत अवधि के भीतर ही व्रत की समाप्ति हो जाती है ।
जैन एवं जैनेतर तिथि निर्णय में इतना अंतर है कि जैनमत सूर्योदय काल में छह घड़ी तिथि का प्रमाण मानता है, अतः सूर्योदय समय में इससे अल्प प्रमाण तिथि के होने पर तिथिक्षय या तिथिहास जैसी बात आ जाती है ।
जैनेतर मत में अल्प प्रमाण तिथि के होने पर उस दिन वह तिथि व्रतोपवास के लिये ग्राह्य मानी जाती है । जिससे नियत अवधि वाले व्रतों को एक दिन
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