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व्रत कथा कोष
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भ्याष्टमपर्यन्तं कार्यम् । अत्र प्रतिपदाष्टम्योः प्रोषधं शेषमेकभुक्तञ्च वा एकान्तरेण व्रतं कार्यम् । एतद्व्रतमनियतमासिकं नियतपाक्षिकं द्वादशमासिकं ज्ञेयम् । फलञ्चेतत्दारिद्रयमृगशार्दूलं मूलं मोक्षश्च निश्चलम् । पुरन्दरविधिं विद्धि सर्वसिद्धिप्रदं नृणाम् ॥ १ ॥
अर्थ :- पुरन्दर व्रत का स्वरूप कहते हैं- किसी भी महीने में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अष्टमी तक पुरन्दर व्रत का पालन किया जाता है । प्रतिपदा और ष्टमी का प्रोषध तथा शेष दिनों में एकाशन अथवा एकान्तर से उपवास और एकाशन करने चाहिए । अर्थात् प्रतिपदा का उपवास, द्वितीया का एकाशन । तृतीया उपवास चतुर्थी का एकाशन, पंचमी का उपवास षष्ठी का एकाशन, सप्तमी का उपवास और
ष्टमी का एकाशन किये जाते हैं । यह व्रत अनियत मासिक और नियत पाक्षिक है क्योंकि इसके लिए कोई भी महीना निश्चित नहीं है, पर शुक्ल पक्ष निश्चित है । इसका फल निम्न है -
पुरन्दर व्रत दरिद्रता रूपी मृग को नष्ट करने के लिए सिंह के समान है और मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए मूल कारण है अर्थात् इस व्रत के पालन करने से निश्चय ही मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं । तथा यह व्रत मनुष्यों को सभी प्रकार की सिद्धियां प्रदान करता है । अभिप्राय यह है कि पुरन्दर व्रत का विधि पूर्वक पालन करने से रोग, शोक, व्याधि व्यसन सभी दूर हो जाते हैं तथा कालान्तर में परम्परा से निर्वाण को प्राप्ति होती है ।
विवेचन :- - क्रिया कोष में बताया गया हैं कि पुरन्दर व्रत में किसी भी महीने की शुक्ल प्रतिपदा से लेकर भ्रष्टमो तक लगातार आठ दिन का प्रोषध करना चाहिए । आठों दिन घर का समस्त प्रारम्भ त्यागकर जिनालय में भगवान जिनेन्द्र का श्रभिषेक, पूजन, आरती एवं स्तवन आदि करने चाहिए । आठ दिन के उपवास के पश्चात् नवमी तिथि को पाररणा करने का विधान हैं । यह काम्य व्रत है, दरित्रता एवं रोग शोक को दूर करने के लिए किया जाता है । व्रत के दिनों में रात्रि को धर्मध्यान करना रात्रि जागरण, करना, जिनेन्द्र प्रभु की आरती उतारना एवं भजन पढ़ना आदि क्रियाएं भी करना आवश्यक है । रात के मध्य भाग में अल्प निद्रा लेना