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व्रत कथा कोष
प्रजा पालिबे को चित्त भली, निग्रह दुष्ट करन को बली। हय गय सेना सकल समाज, दण्ड बन्ध नहिं ताके राज ॥१३।। रानी तास नाम श्रीमति, शील अंग प्राभूषण सती । जैन धर्म मत के गुन लहै, गुरु की भक्ति हिय में रहै ॥१४॥ शोल वन्त सुन्दर जु अपार, रति कीजै तापर बलिहार । रम्भा समान उरवसो लहै, चन्द्र धरनि की शोभा गहै ।।१५।। ता राजा के मन्त्री चार, महा दुष्ट मिथ्याति मंझार । कहिबे को ब्राह्मण पद जनौ, चांडाल हूँ ते दुरमति तनो ॥१६।। जेठो बली दूजो प्रहलाद, जौन पढे यौ मिथ्यामत वाद ।। तृतीय बृहस्पति निमुची चतुर्थ, जानै नहीं धर्म गुरण अर्थ ।।१७।। ये चारों मन्त्रो तसु तने, महा दुष्ट मति गभित घने । इनकी कथा कही नहिं जाय, धर्म शत्र जग उपजे प्राय ॥१८॥ धर्म तनी रुचो राजा करै, तिनको ये सब सेवा करै । ज्यो चन्दन तरु बैठो जाय, रहे दुष्ट विषधर लपटाय ॥१६।। जैसी संगति चन्दन तनी, तैसी सभा राय की बनी। हंस को मन्त्री काग जो होय, कहां ते पार लगावे सोय ॥२०॥ ज्यो चन्दा ढिग पावै राहु, लगै विमान श्यामता ताह । तैसे सज्जन पुर्जन सग, होइय होई कछुक मति भंग ॥२१॥ एक दिवस सो वन उद्यान, पावे मुनिवर संघ प्रधान । नाम अकम्पनाचार्य तहां, सम्यक ज्ञान लसत दिग जहां ।।२२।। वचनामृत मुनि बरषत यहां, सिंचित भव्व लोग सब तहां । सात सौ मुनि संघ समेत, धर्म मार्ग उपदेशन हेत ॥२३॥ काम समर मुनि शत्र समान, भविजन को मुनि मित्र समान। देवन कर मुनि पूजन जोग, दुरगति के नाशन सब रोग ।।२४।।