________________
६२० ]
प्रत कथा कोष
(११) प्राचार्य भक्ति :-गरु के बिना कोई भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। इसलिये सच्चे निष्पक्ष हितोपदेशी गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करना, गुरु के सम्यग्गुण का चिंतन करना, उसी अनुसार चलना, प्रात्मध्यान करना, यही प्राचार्य भक्ति है ।
(१२) बहुश्रु त भक्ति :-सम्यग्धर्म का उपदेश थोड़े ज्ञान वाले से लेना अच्छा नहीं है । द्वादशाङ्ग पारंगत उपाध्याय की भक्ति करना, उनके गुणों से प्रम करना, उनके सान्निध्य में रहकर अध्ययन-मनन करना, यही बहुश्रु त भक्ति है ।
(१३) प्रवचन भक्ति :-अरिहन्तों के मुख से सुनकर मिथ्यात्व का नाश करना, सब जीवों को हितकारी वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा करना, जिनवाणी का अध्ययन करना मनन करना वैसा आचरण करना व उसका प्रवचन करना, यही प्रवचन भक्ति है।
(१४) आवश्यक परिहारिणी भावना :-मन-वचन-काय की शुभाशुभ क्रियाओं को आश्रव कहते हैं। उस प्राश्रव की क्रिया रोकना संवर है। संवर को कारण-भूत सामाजिक, प्रतिक्रमण आदि षट-अावश्यक क्रिया है । उसका रोज (नित्य) पालन करना इष्ट है।
पद्मासन से या खड़े रहकर मन-वचन-काय के समस्त व्यापार को रोकना व चित्त में एकाग्र होना, प्रात्मा में लीन होना, यही सामायिक है। अपने किये हुये दोषों का स्मरण करना, उस विषय पर पश्चाताप करना और उन्हें मिथ्या मानकर उनके त्याग करने का प्रयत्न करना प्रतिक्रमण है । आगे यह दोष लगे नहीं ऐसा सोचकर यथाशक्ति नियम लेना प्रत्याख्यान है । पंचपरमेष्ठी व चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन करना स्तवन है । मन-वचन-काय की शुद्धि कर चार दिशाओं में चार शिरोनति करना व प्रत्येक दिशा में तीन-तीन पावर्त करना व पूर्व व उत्तर दिशा में अष्टांग नमस्कार करना वन्दना है । समय की मर्यादा करके अमुक समय तक एक आसन से बैठकर अमुक समय तक शरीर की मर्यादा छोड़ना । तब उपसर्ग आदि होने पर समभाव से सहन करना कायोत्सर्ग है । इस प्रकार छः पावश्यकों का चिंतन-मनन करना संवर है और उसी को आवश्यक परिहारिणी कहते हैं।
___ मार्ग प्रभावना :-काल दोष से अथवा उपदेश के बिना संसारी जीवों में सत्यधर्म का आचरण नहीं हो रहा है । उस समय उसे किसी भी प्रकार से उपदेश