Book Title: Vrat Katha kosha
Author(s): Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 797
________________ ७३८ ] व्रत कथा कोष व्रतीनां दीक्षितानां च याज्ञिक ब्रह्मचारिणाम् । नैवाशौचं भवेत्तेषां पितुश्च मरणं विना ।। भावार्थ :-वती, दीक्षित, याज्ञिक और ब्रह्मचारी इनको सिर्फ पिता-माता के मरण सिवाय और किसी का सूतक नहीं होता। जिनाभिषेकपूजाभ्यां पात्रदानेन शुद्धयति । भावार्थ :-सूतक निवृत्ति होने के बाद जिनेन्द्र अभिषेक, पूजन और पात्रदान कर शुद्धि होती है। ___ इति सूतक विधान __ संक्षिप्त प्रायश्चित संग्रह वर्तमान समय में जैन समाज के अन्दर प्रायश्चित देने का एक विलक्षण ही रूप हो गया है । प्रायश्चित पापों से छुटकारा पाने तथा शुद्धि होने के लिये होता है । परन्तु वर्तमान प्रायश्चित से न तो पाप ही नाश होता है और न शुद्धि ही होती है अपितु देने वालों और लेने वाले व्यक्तियों में विशेष कषाय की मात्रा बढ़ जाने से उल्टा दोनों के पाप बंध ही होता है । इसी हेतु से मैंने खोजकर कुछ प्रायश्चितों का संग्रह किया है । आशा है कि जैन समाज रूढ़िमय प्रायश्चितों की प्रथा को छोड़कर इस जैन शास्त्रोक्त प्रायश्चित विधि के अनुसार ही प्रायश्चित देने का प्रचार करेगी जिससे देने और लेने वाले उभय प्राणियों का हित हो। प्रायश्चितं शुद्धिः मलहररणं पाप नाशनं भवति । (छेदपिण्ड) भावार्थ :--- शुद्धि का होना, मल का दूर होना, या पाप का नाश होना प्रायश्चित है। प्रायश्चित का प्रमाण यत् श्रमणानां भरिणतं प्रायश्चितं अपि श्रावकानापि । द्वय त्रयाणां षण्णां अर्धार्धक्रमेण दातव्यम् ।। (छेद पिण्ड) भावार्थ :-जो मुनियों को प्रायश्चित बताया गया है उससे प्राधा उत्कृष्ट श्रावकों को करना चाहिये तथा उससे प्राधा मध्यम श्रावकों से आधा जघन्य श्रावकों

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