Book Title: Vrat Katha kosha
Author(s): Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 800
________________ व्रत कथा कोष [ ७४१ Uncense भावार्थ :-देशव्रती ने यदि अजानपूर्वक पांच उदम्बर फलों का सेवन कर लिया हो तो दो उपवास का प्रायश्चित ग्रहण करे । और यदि अहंकारपूर्वक सेवन किया हो तो दो दिन तीन रात्रि का उपवास कर प्रायश्चित ग्रहण करे । कारूकगृहन्नपानाङ्गनासु भुक्ता सुषट् चतुर्थानि । कारूकपात्रेषु पुनः भुक्त पंचैव उपवास ।। (छेदपिण्ड) भावार्थ :-फारुक, रजक, बरूटादि के गृह में भोजन पान करने से दश उपवास का प्रायश्चित ग्रहण करे । और यदि उसके पात्रों में भोजन किया हो तो पांच उपवास का प्रायश्चित ग्रहण करे । चाण्डाल अन्नपाने मुक्ते षोडशा भवन्ति उपवासाः । चाण्डालानां पात्रे भुक्ते अष्टव उपवासाः ॥ (छेदपिण्ड) भावार्थ :-चांडाल के अन्नपान का सेवन करने से सोलह उपवास का प्रायश्चित ग्रहण करे । और यदि उसके पात्रों में भोजन किया हो तो ८ उपवास का प्रायश्चित ग्रहण करे । प्रज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा विकलत्रयविधातने । प्रोषधा द्वि त्रि चत्वारो जपमालस्तथैव च । (प्रायश्चित) भावार्थ :-अज्ञान एवं प्रमाद से यदि दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय और चारइन्द्रिय जीवों का विधात हो जाये तो क्रम से दो उपवास, तीन उपवास और चार उपवास का प्रायश्चित ग्रहण करे । तथा दो तीन और चार जाप्य करे। प्रायश्चित-समाप्ति के बाद श्रावक का कर्तव्य त्रिसंध्यं नियमस्याम्ते, कुर्यात्प्रारणशतत्रयम् । रात्रौ च प्रतिमां तिष्ठेजितेन्द्रियसंहतिः ॥ भावार्थ :-तीनों समय सामायिक करे। तीन सौ उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करे । और इन्द्रियों को वश में करता हुआ रात्रि में भी प्रतिमारूप तिष्ठकर कायोत्सर्ग करे। - कृत्वा पूजो जिनेन्द्राणां, स्नपनं ते न च स्वयम् । स्नात्वोपध्यम्बराधं च दान देयं चतुर्विधम् ॥ भावार्थ :--पश्चात् स्नानादि से पवित्र होकर श्री जिनेन्द्र भगवान् का

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