Book Title: Vrat Katha kosha
Author(s): Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 806
________________ व्रत कथा कोष [ ७४७ तत: समुत्थाय जिनेन्द्रबिम्बं पश्येत्परं मंगलदानदक्षम । पापप्रणाशं परपुण्यहेतुं सुरासुरैः सेवित पादपद्मम् । भावार्थ-सामायिक से उठकर चैत्यालय में जाकर सब तरह के मंगल करने वाले, पापों को क्षय करने वाले, सातिशय पुण्य के कारण और सुर तथा असुरों द्वारा वन्दनीय ऐसे श्रीमज्जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करे । ____ सामायिक से लाभ सामायिक करने के समय क्षेत्र तथा काल का प्रमाण कर समस्त सावध लोगों का (गृह व्यापारादि पापयोगों का) त्याग करने से सामायिक करने वाले गृहस्थ के सब प्रकार के पापाश्रव रुककर सातिशय पुण्य का बन्ध होता है, उस समय उपसर्ग में प्रोढ़े हुए कपड़ों युक्त होने पर भी मुनि के समान होता है । विशेष क्या कहा जाय-प्रभव्य भी द्रव्य सामायिक के प्रभाव से नवग्रैवेयक पर्यन्त जाकर अहमिन्द्र हो सकता है । सामायिक को भावपूर्वक धारण करने से शान्ति सुख की प्राप्ति होती है, यह आत्म तत्व की प्राप्ति परमात्मा होने के लिए मूल कारण है। इसकी पूर्णता ही जीव को निष्कर्म अवस्था प्राप्त कराती है। जाप्य में १०८ दाने होने का कारण १ समरम्भ, २, समारम्भ, ३ प्रारम्भ, इन तीनों को मन वचन काय इन तीनों से गणा किया तो ६ भेद हुए । इन 6 को कृत, कारित, अनुमोदना इन तीनों से गुणा किया तो २७ भेद हुए । इन २७ भेदों को क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से गुणा किया तो १०८ भेद हुए। १०८ भेद ही पापाश्रव के कारण हैं, इनके द्वारा ही पापाश्रव होता है, अतः इनको नष्ट करने हेतु १०८ बार जाप्य किया जाता है । इति सामायिक विधि ।

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