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व्रत कथा कोष
गोद में रख दिया, कनकमाला ने कोई सन्तान नहीं होने से उस बालक को घर ले जाकर अपना ही पुत्र है ऐसा समझकर पालन किया, उस पुत्र का नाम प्रद्युम्नकुमार रखा, प्रद्युम्नकुमार धीरे धीरे रूप यौवन सम्पन्न होने लगा, विद्याधरों की नगरियों में घूम-घूमकर सोलह कलानों से युक्त हुआ ।
उधर द्वारिका नगरी में पुत्रहरण - शोक कृष्ण को और रुकमरगी को बहुत ही दुःख देने लगा, यह बात नारदजी को पता लगते ही विदेह क्षेत्र पहुंचे, श्रीमंदर भगवान से मनहरण की वार्ता कहकर सुनाई स्वयं के समाधान के लिए, वहां के चक्रवर्ति ने श्रीमंदर भगवान से प्रश्न किया कि भगवान रुकमणी के पुत्र की क्या हालत है, कहां है, मराया जिन्दा है, मेरी सुनने की इच्छा है । तब भगवान ने कहा कि पुत्र का हरण एक असुर ने किया है असुर बालक को मारने के लिए सिंह अटवी में शिला के नीचे रखकर चला गया, वहां विद्याधरों का राजा कालसंवर वनक्रीड़ा के लिए आया था, शिला को हिलती हुई देखकर शिला को उठाया और बालक को निकाल कर ले गया है, वहां उसका अच्छी तरह पालन-पोषण हो रहा है, सोलह वर्ष पूर्ण होने के बाद कारणवश कालसंवर राजा का और प्रद्युम्न का विरोध पड़ेगा और वह द्वारिका जावेगा ।
यह सब प्रद्य ुम्न का चरित्र सुनकर नारद को बहुत आनन्द हुआ। वहां से चलकर राजा कालसंवर की नगरी में गया, बालक को देखा, आशीर्वाद दिया और द्वारिका नगरी में आकर रुकमणी और कृष्ण को जैसा श्रीमंदर भगवान ने कहा था वैसा कह सुनाया, कृष्ण को बहुत ही आनन्द हुआ, रुकमणी का भी शोक दूर हुआ । उधर प्रद्युम्नकुमार का रूप सौंदर्य बढ़ता ही गया, एक दिन पूर्वकर्मानुसार रानी कनकमाला प्रद्युम्नकुमार को रूपवान देखकर उसके ऊपर आसक्त हो गई और प्रद्युम्न कुमार को अपने पास बुलवाकर कामवासना की शांति करने की याचना करने लगी, यह सब सुनकर प्रद्य ुम्न को बहुत ही प्राश्चर्य हुआ और जिन मन्दिर में जाकर अवधिज्ञानी मुनि से पूछा, सब अपने भवों का वृतांत जाना, शीघ्र जाकर कनकमाला रानी से दो विद्या और प्राप्त कर लिया और वहां से मां कहकर चला गया ।
कनकमाला ने देखा कि इसने मुझे ठग लिया है तब तिरिया चरित्र दिखाते हुए राजा को भड़काया, राजा ने अपने पांच सौ पुत्रों को और सेना को प्रद्य ुम्न