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व्रत कथा कोष
भोजन अन्तर कर उत्साह सेठ कियो सब देखत व्याह । ताक पटरानी नृप करी, सेठ स्वमन में साता धरी || एक समैं पतियुत सों नार, गई जिनवर गेह मंभार । वीतराग दर्शन कर सार, पुण्य उपायो सुख दातार ।। प्राधी रात गये तब राय, महल थकेल खिवितरक लाय । देवसुता वा यक्षिन कोय, ना जाने वा किन्नरि होय ॥ के यह नारि यहां को श्राय ऐसी विधि चितवनकरि राय । हस्त, खड़ग ले चालो तहां, तिलकमती तिष्ठी थी जहां ॥ दोहा
जाय पूछियो राय तब, तू को है इहि थान । तिलकमती सुनके तबै, ऐसी भांति बखान ॥ भूपति मेरो तात को, रतन सु दीप पठाय । मोकू मम माता इहां, थापि गई अब प्राय ||
चौपाई
भाखि गई इमि थानक कोय, आवेगो तो भरता सोय । यातें तुम आये इस ठौर, मैं नारी तुम माथ गहौर || सुन राजा तब व्याहसु करयो, रैंने रह्यो तेंठि सुख धरयो । राजा प्रात समै अब लोय, निजमन्दिर को श्रावत होय ॥ तिलकमती ऐसे तब कही, अब तो तुम मेरे पति सही । सर्प यथा डसि जावो कहां, सुनयों भाषी भूपति तहां ॥ निशिकोनिशि ग्राहों तुम पास, तू तो महामोद की रास । तिलकमती पूछे शिर नाय, कहा नाम तुम मोहि बताय ॥ राजा गोप कहो निजनाम, यो सुनि तिय पायो सुखधाम । कहि यों अपने थानक गयो, तबसे ही परभात सु भयो । बन्धुमती कहि कपट विचार, तिलकमती है प्रति दुखकार । ब्याह समैं उठिगी किमिथान, जन-जनसो पूछे दुख मान ॥
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