Book Title: Vrat Katha kosha
Author(s): Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 771
________________ ७१२ ] व्रत कथा कोष करे | जिन सहस्र नाम का पाठ कर सन्मति कथा पढ़ े । प्रारती करे । उस दिन उपवास करके पूरा दिन धर्मध्यानपूर्वक बितावे, दूसरे दिन श्राहार दान देकर पारणा करे । इस प्रकार १० तिथि पूर्ण होने पर उद्यापन करावे | सन्मति तीर्थं कर विधान करे । महाभिषेक करे । चतुविध संघ को दान दे । कथा श्री अनन्तनाथ तीर्थ कर के समय चन्द्रसेन नामक राजपुत्र उनके समवशरण में गया वंदना आदि कर वह अपने कोठं में जाकर बैठ गया वहां उसने धर्मोपदेश सुना तब बड़े विनय और भक्ति से वे श्री जयाचार्य गणधर से बोले हे भवसिन्धुतारक ! आप मुझे सब सुख को देने वाला ऐसा कोई व्रत बतायें । तब गरणधर ने कहा कि हरिषेण चक्रवर्ति व्रत करना बहुत ही अच्छा है । यह कहकर उन्होंने सब विधि बतायी । वन्दना कर राजा अपने घर आया और यथाविधि व्रत का पालन किया और उद्यापन किया । एक दिन रात्रि के समय चन्द्रसेन अपने महल के ऊपर बैठा था कि उसने उल्कापात होते देखा जिससे उसके मन में क्षणिक संसार के प्रति वैराग्य हो गया । फिर वन में जाकर जिन दीक्षा ली और घोर तपश्चर्या करने लगा । समाधिपूर्वक मरण हुआ जिससे वह सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। वहां का सुख भोगकर वहां से चयकर मनोरमा रानी का हरिषेण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ उसके पिताजी को एक दिन वैराग्य उत्पन्न हुआ जिससे हरिषेण को राज्य देकर स्वयं दीक्षित हो गया । इधर वह हरिषेण भी श्रावक के व्रत लेकर राज्य करने लगा । थोड़ े दिन के बाद पद्मनाथ मुनिश्वर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी समय इधर हरिषेण के राज्य में १४ रत्न उत्पन्न हुये अर्थात् वह चक्रवर्ति बन गया । इधर माली ने केवलज्ञान की बात बतायी जिससे वह अपने शरीर के अलंकार उसे देकर भगवान के दर्शन करने के लिए गया । वन्दना कर वापस आकर उन्होंने अपनी प्रायुधशाला में जाकर चक्र की पूजा की । फिर छह खण्ड जीतने के लिए गये। जीतकर जब वापस आये तो सबने उनका समारोह पूर्वक अभिषेक किया । सुख से बहुत साल तक राज्य किया ।

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