Book Title: Vrat Katha kosha
Author(s): Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 754
________________ व्रत कथा कोष दिहर कथा एक समय कैलाश पर्वत पर भगवान आदिनाथ के समवशरण में बैठा राजा प्रजापति अपनी पट्टरानी सहित भगवान को प्रश्न करने लगा कि हे भगवान ! सबसे ज्यादा वैभव संपन्न ये ज्वालामालिनी देवी यहां बैठी हैं, इनको ये वैभव किस पुण्य से प्राप्त हुआ सो कहो । तब गरणधर स्वामी कहने लगे कि हे राजन सुनो, इसी क्षेत्र के मगध देश में राजपुर नाम का नगर है, उस नगर में पहले जिनदत्त श्रेष्ठी अपनी अनंतमति नाम की सेठाणी के साथ रहता था, उस सेठ के कनकमंजरी नाम की नवयौवन-सम्पन्न एक कन्या थी । एक दिन कनकमजरी जिन मन्दिर में जाकर भक्तिपूर्वक नमस्कार करती हुई कहने लगी कि हे भगवान ! मेरे को लोकोत्तम पति प्राप्त हुआ तो मैं आपकी सहस्रदल कमल से पूजा करूंगी, ऐसी प्रतिज्ञा करके वह कन्या घर को वापस आ गई । कुछ समय के बाद उसका विवाह पुण्डरीक चक्रवर्ती के पुत्र से हो गया और वो कनकमंजरी अपने पति के घर में आनन्द से रहने लगी । बहुत काल निकल जाने पर भी उसको सतान उत्पन्न नहीं हुई । एक दिन मन में बहुत दुःखी होकर सो गई तब स्वप्न में एक यक्षी देवी कहने लगे लगी कि हे कनकमंजरी ! तूने सहस्रदल कमल चढ़ाने को प्रतिज्ञा की थी सो तू भूल गई है, इसलिए तुझे संतान नहीं हो रही है । की हुई प्रतिज्ञा को याद करो, जब तुम अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करोगी, निश्चित ही तुमको संतान उत्पत्ति होगी । ऐसा सुनते हो रानी को निद्रा भंग हो गई, प्रातः स्नानक्रियादि से निवृत्त होकर उद्यान के सरोवर पर गई, चारों तरफ सहस्रदल कमल देखने लगी । इतने में उसको नवरत्न मंडप में बैठी वैभव-सम्पन्न श्रीदेवी दिखाई दी, उस देवी का वैभव देखकर कनकमंजरी को बहुत आश्चर्य हुआ, वह देवी को कहने लगी हे देवी! तुमको यह सारा वैभव कौनसे पुण्य से प्राप्त हुआ है ? तब देवी उसकी बात सुनकर कहने लगी कि हे रानी मैंने पहले भव में शुक्रवार व्रत पालन किया था, उसका उद्यापन किया था ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है। तू भी गुरु के पालन कर तुझे भी इसी प्रकार ऐश्वर्य प्राप्त होगा । । व्रत के प्रभाव से ही मुझे पास जाकर इस व्रत को इतनी पूज्यता और ग्रहण कर, व्रतका

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