Book Title: Vrat Katha kosha
Author(s): Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 727
________________ ६६८ ] व्रत कथा कोष के पास बहुत सेना है और आप दो ही हैं। तब कृष्ण ने कहा "तू चिन्ता मत कर इसको हम दो ही बहुत हैं।" शिशुपाल का वध हो गया तब उसकी सेना भाग गयी । तब कृष्ण रुकमणी को लेकर गिरनार पर्वत पर माये । वहां उनका विवाह हो गया और गुप्त रीति से द्वारका गये। सत्यभामा के महल के पास ही एक महल में रुकमणी को रखा और उसे पटरानी पद दिया । यह बात सत्यभामा को ज्ञात हुई। उसने कृष्ण के पास रुकमणी से मिलने की इच्छा प्रकट की। तब एक दिन कृष्ण ने सत्यभामा से कहा "प्रिय तू मणिवापिका के उद्यान में बैठ, मैं रुकमणी को वहां लेकर आता हूँ।" सत्यभामा उस उद्यान में गयी । वहां रुकमणी पहले से ही जाकर बैठी थी। सत्यभामा ने उसे देखा उसके रूप से कोई वनदेवी होगी ऐसा समझकर रुकमणी को उसने आदर से नमस्कार किया और बोली "देवी तू मेरे पर प्रसन्न हो, रुकमणी का कृष्ण से प्रेम हट जाय ऐसा कुछ कर ।" कृष्ण पास में ही छिपे हुए देख रहे थे। वे एकदम आगे पाये और बोले-"रुकमणी से मिल लिये ?" तब सत्यभामा गुस्से से बोली कि आप बोच में क्यों बोलते हो ? हम दोनों तो एक हो गयी हैं । तब रुकमणो को ज्ञात हुआ कि यही सत्यभामा है, तब उसे नमस्कार किया। पर सत्यभामा मन में जलने लगी। वह गुस्से से अन्धी हो गयी। उसने गुस्से से उसके कपड़े निकालकर नग्न करने का सोचा। पर जैसे-जैसे वह वस्त्र खींचती गयी वैसे-वैसे उसके शरीर पर वस्त्र बढ़ते गये । हजारों वस्त्र उसने खींचकर निकाले पर पुनः उसके वस्त्र हो जाते थे । इस प्रकार जब होता गया तो वनदेवता को सहन नहीं हया । वह प्रकट होकर बोली “रुकमणी महान पतिव्रता है इसने पहले जन्म में सकल सौभाग्य व्रत का पालन किया है, इसके कितने ही वस्त्र निकालोगी पर वह नग्न नहीं होगी इसलिये व्यर्थ का उपसर्ग करके पाप मत बांध ।"

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