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व्रत कथा कोष
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कन्या इमि पूरब भव मांहि, मुनी दुखायो थो अधिकाहिं ।। ता करि तियभव में दुखपाय, भई बधिक की कन्या प्राय । सो यह देख फिरत है बाल, सुनि संशय भागो तत्काल ।। याको फल यह जानों सही, ऐसे मुनि श्रुतसागर कही। तब ही प्रायों एक विमान, जिन श्रुत गूरू वन्दे तजिमान । मुनिकों नमस्कार कर सार, फेर तहां नप देव निहार ॥ तिलकमती के पावों परयों, अरू ऐसे सुवचन उच्चरयों ॥
दोहा स्वामिन के परसाद तै, मैं लाहो फलसार । व्रत सुगन्धदशमी कियो, पूरब विद्याधार ।। यों कहि वस्त्राभरण तें, पूजा को मन लाय । अरू सुर पुनि ऐसे कही, तुम मेरी वर माय ।। ता व्रत के परभावतें, देव भयो मैं जाय । तुम मेरी सामिणी, पदयुत देखिन भाय ।।
चौपाई थुतिकर सुर निजथानक गयो, लोकों इहि निश्चयलखिलयो । धन्य सुगन्धदशें व्रत सार, जाकों फलसु अनन्त अपार । तब सबही जन यह व्रत धरयो, अपनो कर्म महाफल लहयो । तिलकमती कञ्चनप्रभ राय, मुनि को नमि अपने घर जाय ।। देती पात्रनि को बहु दान, करतो जिनका पूज महान । पाले दर्शन शील सुभाय, अरू उपवास करे मन लाय ।। पतिव्रत गुरण की पालन हार, पुनि सुगन्धदशमी व्रत धार । अन्त समाधि थके तजि प्रान, जाय लयो ईशान सुथान । सागर दोय जहां थिति लई, शुभतै भयो सुरोत्तम सही । नारिलिङ्ग निंद्य छेदयो, चय शिववासी जिनवर्णयो । जहां देव सेवा बहु करें, निरमलचमर तहां शिरढरें। और विभवधिकों जिहिजान, पूरव पुण्य. भये तित पान ।।